हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “महाशिवरात्रि” पर विशेष – हे! औघड़दानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

 

☆ कविता ☆ “महाशिवरात्रि” पर विशेष – हे! औघड़दानी ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

औघड़दानी, हे त्रिपुरारी, तुम भगवन् स्वमेव ।

पशुपति हो तुम, करुणा मूरत, हे देवों के देव ।।

तुम फलदायी, सबके स्वामी,

तुम हो दयानिधान।

जीवन महके हर पल मेरा,

दो ऐसा वरदान।।

आदिपुरुष तुम, पूरणकर्ता, शिव, शंकर महादेव।

नंदीश्वर तुम, एकलिंग तुम, हो देवों के देव ।।

तुम हो स्वामी, अंतर्यामी,

केशों में है गंगा।

ध्यान धरा जिसने भी स्वामी,

उसका मन हो चंगा।।

तुम अविनाशी, काम के हंता, हर संकट हर लेव।

भोलेबाबा, करूं वंदना, हे देवों के देव  ।।

उमासंग तुम हर पल शोभित,

अर्ध्दनारीश कहाते।

हो फक्खड़ तुम, भूत-प्रेत सँग,

नित शुभकर्म रचाते।।

परम संत तुम, ज्ञानी, तपसी, नाव पार कर देव ।

महाप्रलय ना लाना स्वामी, हे देवों के देव ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 7 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 7 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

लाय सजीवन लखन जियाये।

श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।

तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

अर्थ:-

श्री लक्ष्मण जी मेघनाथ द्वारा किए गए शक्ति प्रहार के कारण मूर्छित हो गए थे और मृत्यु शैया पर थे। उस समय हनुमान जी ने संजीवनी बूटी लाकर श्री लक्ष्मण जी को जीवित कर दिया। जिससे श्री रामचंद्र जी ने खुश होकर के उनको अपने गले लगाया और उनकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि तुम मेरे भाई हो।

भावार्थ:-

इस चौपाई में तुलसी दास जी ने श्री हनुमान जी की स्तुति श्री लक्ष्मण जी के प्राणदाता के रूप में की है। श्री सुषेण वैद्य के परामर्श के अनुसार वे द्रोणा गिरी पर्वत पर गए। अनेक कठिनाइयों के बाद भी वे समय पर द्रोणागिरी पर्वत को ही लेकर श्री लक्ष्मण जी के पास पहुंच गए। बूटी का सेवन करने के उपरांत  लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।। यह देख कर के श्री रामचंद्र जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया।

उसके बाद श्री रामचंद्र जी ने श्री हनुमान जी की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि तुम मेरे लिए भरत के समान प्रिय हो। यह सभी जानते हैं की श्री रामचंद्र जी भरत जी से अत्यंत प्रेम करते थे।

संदेश:-

केवल सगे संबंध ही नहीं कभी-कभी कोई रिश्ता ऐसा भी बन जाता है, जो इन से भी ऊपर होता है और ईश्वर-भक्त का रिश्ता ऐसा ही होता है।

इन चौपाइयों को बार-बार पढ़ने से होने वाला लाभ :-

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

हनुमान चालीसा की इन चौपाई से शारीरिक व्याधियों का निवारण होता है तथा अपने से बड़ों की कृपा प्राप्त होती है। अगर आपके वरिष्ठ आप से नाराज है या आप रोगों से ग्रस्त हो गए हैं तो आपको इन चौपाइयों का पाठ करना चाहिए।   

विवेचना:- 

इन चौपाइयों में हनुमान जी द्वारा बहुत से किए गए कार्यों में से एक कार्य का वर्णन है। इसमें उन्होंने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा की है। संकट मोचन हनुमानाष्टक में इस बात को निम्नलिखित रुप में कहा गया है

बाण लग्यो उर लछिमन के तब, प्रान तज्यो सुत रावन मारो।

लै गृह वैध्य सुषेण समेत, तबै गिरि द्रोण सुबीर उपारो ॥

आनि सजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्राण उबारो।

को नहिं जानत है जग में कपि, संकट मोचन नाम तिहारो ॥५॥

अर्थात- लक्ष्मण की छाती मे बाण मारकर जब मेघनाथ ने उन्हे मूर्छित कर दिया। उनके प्राण संकट में चले गये। तब आप वैद्य सुषेण को घर सहित उठा लाये और द्रोण पर्वत सहित संजीवनी बूटी लेकर आए जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हुई। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है कि आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।

इस प्रकार हनुमान जी ने श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण जी को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाया। इसमें पूरा योगदान हनुमान जी का ही है सुषेण वैद्य को वही श्रीलंका से लेकर लाए थे उसके कहने पर वही द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने गए थे और जब संजीवनी बूटी समझ में नहीं आई तो पूरा पर्वत उठाकर वही लक्ष्मण जी के पास लाए।  सुषेण वैद्य ने  संजीवनी बूटी को निकालकर इसकी औषधि बनाकर लक्ष्मण जी को दिया और लक्ष्मण जी स्वस्थ हो गए।

ऐसा ही गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित हनुमान बाहुक में भी छठे नंबर के  घनाक्षरी छंद में दिया गया है :-

द्रोन-सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर, कंदुक-ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो।।

संकट समाज असमंजस भो रामराज, काज जुग पूगनि को करतल पल भो।

साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बाँह, लोकपाल पालन को फिर थिर थल भो।।६

अर्थ:- द्रोण-जैसा भारी पर्वत खेल में ही उखाड़ गेंद की तरह उठा लिया, वह कपिराज के लिये बेल-फल के समान क्रीडा की सामग्री बन गया। राम-राज्य में अपार संकट (लक्ष्मण-शक्ति) -से असमंजस उत्पन्न हुआ (उस समय जिसके पराक्रम से) युग समूह में होने वाला काम पल भर में मुट्ठी में आ गया। तुलसी के स्वामी बड़े साहसी और सामर्थ्यवान् हैं, जिनकी भुजाएँ लोकपालों को पालन करने तथा उन्हें फिर से स्थिरता-पूर्वक बसाने का स्थान हुईं।।६।।

श्री लक्ष्मण जी ने मेघनाथ से युद्ध किया। मेघनाथ ने उनके ऊपर शक्ति का प्रहार किया जिससे कि लक्ष्मण जी की मूर्छित हो गये। अब आप कल्पना करें एक भाई के मृत्यु शैया पर होने पर दूसरे भाई की क्या स्थिति होगी?  भाई भी लक्ष्मण जी जैसा, जो कि अपने भाई के वनवास जाने पर उसके साथ राजमहल की खुशियों को छोड़ कर के जंगल की तरफ चल देता है ?  रामचंद जी को यह बात पता चलती है उनकी स्थिति के बारे में रामचरित मानस में वर्णन किया है।

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥

तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

हनुमान जी सुषेण वैद्य को लेकर के आए। इसके उपरांत सुषेण वैद्य के सुझाव के अनुसार संजीवनी बूटी लेने द्रोणागिरी पर्वत पर चल दिए। वहां से लौटने में हनुमान जी को विभिन्न बाधाओं की वजह से थोड़ी देर हो गई। इस समय आप तुलसी दास जी के शब्दों में श्री रामचंद्र जी का विलाप सुनिए:-

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।।

मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।

सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।

जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।।

अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।

इसमें 2 पंक्तियाँ अद्भुत हैं । पहली यदि मैं जानता कि वन जाने में मैं अपने भाई को खो दूंगा तो मैं अपने पिताजी के वचन को नहीं मानता। दूसरा इस दुनिया में सब कुछ मिल सकता है लेकिन सहोदर भ्राता नहीं मिलता है। यह भ्रात प्रेम की पराकाष्ठा है।

वाल्मीकि रामायण में श्री राम जी लक्ष्मण जी के शक्ति लगने पर स्वयं को शक्तिहीन अनुभव करते हैं :-

शोणितार्द्रमिमन् वीरं प्राणैरिष्टतरं मम |

पश्यतो मम का शक्तिर्योद्धुं पर्याकुलात्मनः ||

(वा रा/6/101/4)

अर्थात:- श्री राम कहते हैं – लक्ष्मण को रक्त से यूं सने देख कर मेरी युद्ध करने की उर्जा समाप्त हो रही है। लक्ष्मण मुझे अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं।

यथैव मां वनं यान्तमनुयाति महाद्युतिः |

अहमप्युपयास्यामि तथैवैनं यमक्षयम् ||

 (वा रा/6/101/13)

अर्थात:- अगर लक्ष्मण को कुछ हो जाता है तो मैं भी उसी प्रकार मृत्यु के पथ पर अपने भाई लक्ष्मण के साथ चला जाऊंगा जैसे वह वन में मेरे पीछे – पीछे चले आए थे

जब लक्ष्मण जी संजीवनी बूटी से वापस मूर्छा से वापस लौट आते हैं तब श्री राम उनसे कहते हैं :-

न हि मे जीवितेनार्थः सीतया च जयेन वा ||

को हि मे जीवितेनार्थस्त्वयि पञ्चत्वमागते |

(वाल्मीकि रामायण/ युद्ध कांड/101/50)

अर्थात:- तुम्हें अगर कुछ हो जाता तो मेरे लिए फिर इस संसार में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं रह जाता, न तो मेरे जीवन का कोई उद्देश्य रह जाता, न सीता और न ही विजय मेरे लिए महत्वपूर्ण रह जाती

 मेघनाथ की मृत्यु श्री लक्ष्मण जी के हाथों हुई परंतु अपनी मृत्यु के पहले मेघनाद ने लक्ष्मण जी  को दो बार हराया था। पहली बार उसने श्री लक्ष्मण जी और श्री रामचंद्र जी को नागपाश में बांध दिया था।  दूसरी बार जब उसने लक्ष्मण जी को शक्ति के प्रहार से मूर्छित कर दिया था। दोनों ही अवसरों पर हनुमान ने अपने बल बुद्धि और श्री राम भक्ति के बल पर उन्हें निश्चित मृत्यु से बचाया था। इसके अलावा अहिरावण से भी श्री राम और श्री लक्ष्मण को हनुमान जी ने ही बचाया था।

अब यहां पर एक नया प्रश्न उठता है। श्री रामचंद्र जी चार भाई थे श्री राम जी, श्री भरत जी, श्री लक्ष्मण जी और श्री शत्रुघ्न जी। श्री रामचंद्र जी का  तीनों भाइयों से बहुत अधिक प्रेम था। तीनों भाइयों से बराबर प्रेम था। श्री राम जी किसी भी भाई से दूसरे भाई की तुलना में कम प्रेम नहीं करते थे। फिर यहां श्री रामचंद्र ने यह क्यों कहा है कि तुम मेरे भरत के समान प्रिय भाई हो। ऐसा कहना तभी उचित है जब श्री राम जी श्री भरत जी से दूसरों भाई की भाइयों की तुलना में कम या ज्यादा प्रेम करते हों।

 मन्येऽहमागतोऽयेध्यां भरतो भ्रातृवत्सलः |

मम प्राणात्र्पियतरः कुलधर्ममनुस्मरन् ||

(वा रा/2/97/9)

अर्थात:– हे लक्ष्मण, लगता है कि भरत अपने नानी घर से अपने भाइयों के प्रति प्रेम के वश में आकर अयोध्या लौट गए हैं। भरत तो मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं।

श्री राम यहां अपने भाइयों के प्रति प्रेम कि भावना को व्याकता करते हुए वाल्मीकि रामायण में यहां तक कहते हैं कि बिना भाइयों के उन्हें संसार की कोई भी खुशी नहीं चाहिए।

यद्विना भरतं त्वां च शत्रुघ्नं चापि मानद |

भवेन्मम सुखं किंचिद्भस्म तत्कुरुतां शिखी ||

(वा रा/२/९७/८)

अर्थात:- हे लक्ष्मण यदि मुझे भरत, शत्रुघ्न और तुम्हारे बिना संसार की सारी खुशियां भी मिल जाएं तो वो अग्नि में राख हो जाएं, मुझे वो खुशियां नहीं चाहिएं।

अगर हम इस श्लोक पर गौर करें तो हम मानेंगे कि श्री रामचंद्र जी सभी भाइयों से बराबर प्रेम करते थे। और यह सत्य भी है। अगर यह सत्य है तो फिर उन्होंने हनुमान जी को भरत जी के बराबर प्रिय क्यों कहा।

निस्वार्थ प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम माना जाता है। प्रेम चाहे किसी से भी करें, हमेशा निस्वार्थ भाव से करें। अगर आप उसमें स्वार्थ छोड़कर संपूर्ण प्रेम लगाएंगे तो आप जिसे प्रेम करते हैं वह आपको अपने पास ही प्रतीत होगा। श्री रामचंद्र जी से उनके तीनों भाई अत्यंत प्रेम करते थे। श्री लक्ष्मण जी ने तो सब कुछ छोड़ कर श्री राम चंद्र जी के मना करने के उपरांत भी वन में उनके साथ 14 साल रहे।  श्री रामचरित मानस में लक्ष्मण जी ने स्वयं कहा है कि आप मेरे सब कुछ है आपके बिना मैं रह नहीं सकता। अर्थात श्री लक्ष्मण जी के पास रामचंद्र जी के साथ रहने का उद्देश्य था। जिसकी वजह से उन्होंने रामचंद्र जी की बात न मान कर वनवास में उनके साथ रहे। श्री लक्ष्मण जी का श्री रामचंद्र जी के प्रति अत्यधिक प्रेम दर्शाता है।

श्री भरत जी भी श्री रामचंद्र जी से अत्यधिक प्रेम करते थे। वे भी श्री रामचंद्र जी के बगैर रह नहीं सकते थे। परंतु रामचंद्र जी के आदेश मात्र से वे उनके साथ नहीं गए। परंतु अयोध्या में भी निवास नहीं किया। अयोध्या के बाहर ही रहे। उसी प्रकार का जीवन जिया जैसा श्री राम चंद्र जी वन में व्यतीत कर रहे थे।  निश्चित रूप से भरत जी अगर श्री राम चन्द्र जी के साथ वन में रहते तो ज्यादा संतुष्ट रहते। उनके मन में तसल्ली रहती कि वे श्री रामचंद्र जी के साथ हैं। यहां पर आकर उनका प्रेम निस्वार्थ हो जाता है। इस प्रकार भरत जी का प्रेम अन्य भाइयों के प्रेम से ऊपर हो गया।

कुछ लोग इसका अलग तर्क देते हैं। इस संबंध में एक आख्यान प्रचलित है। यज्ञ के उपरांत महाराजा दशरथ को रानियों को देने के लिए जो खीर मिली थी उसके तीन भाग किए गए।  एक भाग महारानी कौशल्या को दिया गया और दूसरा महारानी कैकेई को प्राप्त हुआ। तीसरा भाग जो महारानी सुमित्रा को मिलना था उसको एक चील लेकर उड़ गई। और उड़ कर वह महारानी अंजना के पास पहुंची। चील को इस यात्रा में 6 दिन लगे। इस खीर को फिर महारानी अंजना ने खाया। खीर के मूल भागों को कौशल्या, कैकेयी और अंजनी ने खाया था। इसलिए राम, भरत और हनुमान समान भाई थे। महारानी सुमित्रा को अपनी खीर में से थोड़ा भाग महारानी कौशल्या ने दिया और थोड़ा भाग महारानी कैकेई ने। इस प्रकार महारानी सुमित्रा के पास दो हिस्सों में खीर पहुंची और महारानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। उनमें से श्री लक्ष्मण जी का स्नेह श्री रामचंद्र जी से ज्यादा रहा और श्री शत्रुघ्न जी का स्नेह श्री भरत जी से ज्यादा रहा। महारानी सुमित्रा ने मूल भाग के विभाजित भाग को खाया था -इसलिए लक्ष्मण और शत्रुघ्न उनके अर्थात श्री रामचंद्र जी, श्री भरत जी और श्री हनुमान जी के  बराबर के नहीं थे। इस विचार से यह प्रगट होता है रामचंद्र जी हनुमान जी से कहना चाहते हैं कि मैं आप और श्री भरत खीर के मूल भाग से उत्पन्न हुए हैं।

प्रबुद्ध पाठकों यह स्पष्ट है कि उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि गोस्वामी तुलसी दास जी ने कितना ज्ञान हनुमान चालीसा की हर एक चौपाई में डाला है।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

सूचनाएँ/Information ☆ इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीए फ़ाउंडेशन पुरस्कार – अभिनंदन ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 इंडिया नेटबुक्स एवं बीपीए फ़ाउंडेशन पुरस्कार – अभिनंदन🌹

वेदव्यास शिखर सम्मान चित्रा मुद्गल को-

इंडिया नेटबुक्स, बीपीए फ़ाउंडेशन, और अनुस्वार के संयुक्त तत्वावधान में प्रत्येक वर्ष पंडित भगवती प्रसाद अवस्थी की जयंती पर मार्च में चयनित रचनाकारों को सम्मानित किया जाता है। वर्ष २०२२ के लिये चयन समिति (श्रीमती ममता कालिया, सर्वश्री हरिसुमन विष्ट, प्रेम जनमेजय, राजेश कुमार, लालित्य ललित, प्रभात शुक्ला, डा. मनोरमा) ने इन पुरस्कारों की घोषणा कर दी हैं।

पुरस्कारों के संयोजक डॉक्टर संजीव कुमार ने बताया कि इस वर्ष का शिखर सम्मान-वेद व्यास सम्मान-श्रीमती चित्रा मुद्गल को दिया जायेगा और वागीश्वरी सम्मान के लिए श्री प्रताप सहगल को नामित किया गया है

लघुकथा रत्न पुरस्कार के लिए श्री कमलेश भारतीय

साहित्य विभूषण सम्मानों के लिए
सर्वश्री फारुक अफ़रीदी, गिरीश पंकज, राहुल देव, मुकेश भारद्वाज और प्रबोध कुमार गोविल का चयन किया गया है।

साहित्य भूषण पुरस्कार के लिये विवेक रंजन श्रीवास्तव,अरूण अर्णव खरे, धर्मपाल महेंद्र जैन (कनाडा), उर्मिला शिरींष, श्याम सखा श्याम, हरिप्रकाश राठी, अनिता कपूर (यूएसए) संध्या सिंह (सिंगापुर), वीना सिन्हा (नेपाल), मंजू लोढ़ा, राजेंद्र मोहन शर्मा (जयपुर) को चुना गया है ।

साहित्य रत्न पुरस्कार अंजू खरबंदा, स्वाति चौधरी, सीमा चडढा, अपर्णा, चार्वी अग्रवाल, प्रदीप कुमार (मनोरमा ईयर बुक} आलोक शुक्ला, सुषमा मुनीन्द्र, यशोधरा भटनागर, अनिता रश्मि, मनोज अबोध, जयराम जय, धरमपाल साहिल,रोहित कुमार हैप्पी (न्यूजीलैंड), गंगााराम राज़ी, बलराम अग्रवाल, कमलेश भारतीय, देवेंद्र जोशी , राम अवतार बैरवा, शैलेंद्र शर्मा, सुभाष नीरव एवं पारूल तोमर को दिये गये है ॥

 

समाज सेवा में संलग्न सेवियों को समाज रत्न पुरस्कार दिए गए- आलोक शुक्ला, संजय मिश्रा, रिंकी त्रिवेदी, सुधीर आचार्य, वरुण महेश्वरी और प्रेम विज

ये दुख का विषय है कि समाज रत्न पुरस्कार के लिए चयनित राजूरकर राज को भी दिया गया है किंतु यह सूचना मिली है कि उनका देहावसान हो गया है। हमारी टीम उन्हें कोटि-कोटि श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

सभी सम्मान व पुरस्कारों का अलंकरण 12 मार्च 2023 को दिन में 11 बजे से होटल क्राउन प्लाज़ा, मयूर विहार फेज़-1 एक्सटेंशन, दिल्ली में प्रदान किया जाएगा।

साभार – Dr Sanjeev Kumar ji के फेसबुक वाल से

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

 

 

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊस… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

सुश्री दीप्ती कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पाऊस… ☆ सुश्री दीप्ती कुलकर्णी ☆

(नुकत्याच झालेल्या वर्धा येथील अ.भा.साहित्य संमेलनात सादर केलेली कविता)

पाऊस आला,पाऊस आला, घेऊन मृदगंधाला

ग्रीष्मातील त्या उष्ण धरेचा कणकण संतोषला

जलधारांनी बरसत आला,थेंबातुनी प्रगटला

बळीराजाही,पेरायाला,शिवारात गुंतला ||१||

 

इंद्रधनुचा मोहक पट तो,आकाशी उमटला

बालचमुसह ,सर्वांसाठी, आनंददायी बनला

जलाशयाचा,तरुवेलींचा ,जीवनदाता ठरला

चिंबही भिजल्या,सृष्टीचा तो,सखा जणू भासला ||२||

 

धरतीनेही हिरवा शालु,अंगभरी ल्यायला

गवतफुलांचा,फळाफुलांचा,सुगंध साकारला

मातीतुनी या,नव कोंबांचा,हर्ष दिसु लागला

तनामनाने चाहुल घेता,आसमंती विहरला ||३||

 

चातकासही थेंबा घेऊनी, जन्म नवा लाभला

रिमझिम येता जलधारांचा,नादही झंकारला

पाऊस आला,पाऊस आला, मोद असा जाहला

नव आशांचा,नव स्वप्नांचा, झुला जणू झुलला ||४||

© सुश्री दीप्ति कुलकर्णी

कोल्हापूर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 140 – मंद वारा सुटला होता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 140 – मंद वारा सुटला होता

मंद वारा सुटला होता, गंध फुलांचा दाटला होता।

आज तुझ्या आठवांनी कंठ मात्र दाटला होता।।धृ।।

हिरव्या गार वनराईला चमचमणारा ताज होता।

मखमली या कुरणांवरती मोतीयांचा साज होता।

चिमुकल्यां चोंचीत माझ्या,तुझ्या चोंचिचा आभास होता।।१।।

पहाटेलाच जागवत होतीस , झेप आकाशी घेत होतीस ।

अमृताचे कण चोचीत ,आनंदाने भरवत होतीस।

आमच्या चिमण्या डोळ्यांत ,स्वप्न फुलोरा फुलत होता ।।२।।

आनंद नद अपार होता, खोपा स्वर्ग बनला होता।

विधाताही लपून छपून , कौतुक सारे पाहात होता।

आज कसा काळाने वेध तुझा घेतला होता।।३।।

आता बाबा पहाटेला ऊठून काम सारं करत असतो।

लाडे लाडे बोलत असतो गाली गोड हसत असतो।

आज त्याच्या डोळ्यांचा कडं मात्र ओला होता।।४।   

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆ “बोलणे…”  ☆ श्री कौस्तुभ सुधाकर परांजपे ☆

श्री कौस्तुभ सुधाकर परांजपे

अल्प परिचय 

एका कंपनीत ३० वर्षे काम केल्यानंतर असीस्टंट मॅनेजर या पदावरून स्वेच्छानिवृत्ती.

शिक्षण – एम,काॅम पर्यंत.

विरंगुळा म्हणून लिहीणे. आज पर्यंत जवळपास ३५० हून अधिक पोस्ट.

दै. लोकमत, तरुण भारत जळगाव यात काही प्रकाशित. तसेच काही पोस्ट ऑडीओ बुक वर देखील घेतल्या होत्या.

? विविधा ?

☆ “बोलणे…”  ☆ श्री कौस्तुभ सुधाकर परांजपे 

नुकत्याच झालेल्या वर्धा येथील अ.भा.साहित्य संमेलनात सादर केलेली कविता:

बोलणे….कौस्तुभ परांजपे.

बोलणे……

बोलण्याबद्दल लिहिणे यातच एक गंमत आहे. किती प्रकारचे बोलणे असते….

बोबडे, गोड, लाडात, रागावून, गुळमुळीत, स्पष्ट, चांगले, वाईट, हळू, जोरात, कानात बोलणे इ… यातही बोलणे पण पाठीमागे बोलणे यावर बरेच बोलणे होत असावे. अशा या बोलण्यातल्या विविधता जवळपास प्रत्येकात आहेत.

आपले वय, अनुभव, अधिकार, जबाबदारी, प्रसंग, काळ या बरोबर बऱ्याचदा बोलणेही बदलते.

बोलण्या बाबत काहिंचा हातखंडा असतो. म्हणजे त्यांना फक्त बोलण्यासाठीच बोलावले जाते. आणि ते ऐकण्यासाठी लोक उत्सुक असतात. तर काहिंना आता गप्प बसायचं काय घेशील? असेही प्रेमाने विचारतात.

बोलणाऱ्याचा अभ्यास किती? यावरून देखील लोक बोलणाऱ्याची किंमत करत असतात. काय बोलतोय हे लक्ष देऊन ऐक, असे सांगतात. तर काही वेळा त्यांच्या बोलण्याकडे  लक्ष देण्याची गरज नाही. असेही बोलून दाखवतात. काही बोलणे कानावर येते, तर काही आपण मनावर घेतो.

काहिंच्या बोलण्या बद्दल लिहिले जाते, तर काहिंच्या लिहिण्याबद्दल बोलले जाते. बोलण्याने माणसे जवळ येतात, तशीच लांब देखील जातात. प्रेम आणि कटुता, आपलेपणा आणि परकेपणा बोलण्यातून जाणवतो.

राग, द्वेश, अहंकार, प्रेम, गर्व, अभिमान, कौतुक, भावना या गोष्टी वागण्या बरोबरच बोलण्यातून जाणवतात. बोलण्यात स्वाभिमान असतो, तसेच बोलण्यात नम्रता, ताठरपणा देखील असते. बोलतांना नकळत माणसाचे अंतरंग जाणवतात.

बोबडे बोलण्याच्या कौतुकापासून, आजकाल वयोमानाने त्यांचे बोलणे नीट समजत नाही या सगळ्या अवस्थेत आपण वेगवेगळ्या पध्दतीने बोलत असतो. काही बोलून मोकळे होतात, तर काही मोकळेपणाने बोलत असतात. बऱ्याचदा कुणी आपल्याशी बोलावं किंवा आपल्या बद्दल (चांगले) बोलावं अशी इच्छा असते.

बोलण्यात ताकद आहे,  “बोलणाऱ्याची माती देखील विकली जाते.” असे म्हणतात. त्याच बरोबर “बोले तैसा चाले…” असेही म्हणतात. “लेकी बोले सुने…”, किंवा “बोलायची कढी…” हे देखील सर्वश्रुत आहे. “तिळगुळ घ्या… गोड बोला… ” असे सांगत आम्ही सण देखील साजरे करतो.

बोलता बोलता बऱ्याचशा गोष्टी समजतात. तर बऱ्याच गोष्टी बोलता बोलता करायच्या राहून जातात.

काही (राजकारणी) नुसतेच बोलत असतात. तर काही बोलण्यातून राज आणि कारण दोन्ही शोधत असतात.

काही मोजके, मुद्याचे, नेमके, आणि वेळेवर बोलतात. तर काहींना मुद्यावर या, नमनाला घडाभर तेल कशाला? असे सांगावे लागते.

काही वेळा घरातील अबोला देखील बरेच काही बोलून जातो. नुसत्या डोळ्यांच्या हालचालीने देखील काय बोलायचे आहे याचा अंदाज येतो.

पण बोलणे हे होते आणि लागतेच. काही वेळा मंडळी ठरवून एकत्र येऊन बोलणी करतात‌. तर काही वेळा बोलणी ऐकून घ्यायला लागतात.

मोठ्यांना बोलण्याचा अधिकार असतो. तर लहान तोंडी मोठा घास हे देखील बोलण्याबाबतच असते.

असो, लिहिता लिहिता मनातले बरेच बोलून गेलो. मनातलं बोलण्यासाठी काही खास माणसं असतात. तर काही खास माणसं मनातलं बरोबर ओळखतात.

©  श्री कौस्तुभ परांजपे

जळगाव-महाराष्ट्र

मो 9579032601

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ।। गोष्ट अधल्यामधल्याची।। — भाग 1 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले

?जीवनरंग ?

।। गोष्ट अधल्यामधल्याची।। — भाग 1 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

लग्नानंतर अगदी दोनच महिन्यात दिवस गेले म्हणून सगुणाबाई अगदी नाराज झाली. तिला फार हौस, नटण्या मुरडण्याची, नवऱ्याबरोबर सिनेमाला जायची, जत्रेला जाऊन पाळण्यात  बसायची ! हे सगळं आता दिवस गेल्यावर  बंद पडणार, म्हणून तिला वाईटच वाटलं. सासू म्हणाली, ‘ का ग उगीच तोंड पाडून बसलीस? होतंय तर होऊ दे की  लगेचच. शेजारची रखमी मूल मूल करतीय आणि तुला नको म्हणायचा माज आलाय व्हय.’ 

सगुणी काहीच बोलली नाही. मुकाट्यानं  गेली परसात, कच्ची पपई खाल्ली, म्हणाली, ‘ जाईल पडून गर्भ. अजून तर दोन महिने पण नाही झाले.’ मग दुसऱ्या दिवशी चार अंडी खाल्ली. कोण जे सांगत होतं ते करत होती सगुणा. पण तो चिवट गर्भ काही पडेना. दिसामाशी तो वाढू लागलाच. नवराही शेवटी तिला रागावला, म्हणाला, ” काय ग चाललंय तुझं? दिलंय देवानं तर घे की मुकाट ! होतंय लवकर मान्य आहे पण तुला कुठं मोठं नोकरीला जायचंय ग? ”

  सगुणा काही बोलायची नाही, पण मनोमन तिरस्कारच केला  तिनं त्या गर्भाचा ! दिवस पुढे पुढे गेले,आणि त्या पोटातल्या बाळाने तिला खरोखर काहीच त्रास नाही दिला. योग्य वेळी सगुणा प्रसूत झाली. दवाखान्यात नर्सने डॉक्टरला बोलावून आणले. ‘ सर, तुम्हीच लवकर या. मला तर काही समजत नाहीये. ” डॉक्टर हा जगावेगळा निरोप ऐकून, तसेच रात्री दवाखान्यात आले. नर्स कोपऱ्यात उभी होती. ” सर,बाळ बघा ना ! “

 डॉक्टरांनी बाळ उघडे करून बघितले. त्या दुर्दैवी बाळाची दोन्ही लिंगे अविकसित होती. मुलगा, का मुलगी, हे त्यांनाही नीट ठरवता येईना. त्यांना अतिशय वाईटच वाटले. सगुणासारखी विचारत होती, 

” डॉक्टर, काय झालं मला? मुलगी असली तरी मला चालेल. नीट आहे ना माझं बाळ? “ डॉक्टराना तिला काय सांगावे हेच समजेना. होहो, छान आहे हं बाळ तुमचं, मग तुमचं आवरलं की देतो हं जवळ. ‘

  मुलांचे डॉक्टरही आले. त्यांनीही बाळ बघितलं. त्यांनी सगुणाच्या नवऱ्याला बोलावलं, खरी परिस्थिती सांगितली आणि म्हणाले,’ तुम्ही दोघे अजून तरुण आहात, तुम्हाला आणखीही अव्यंग संतती होईल. हे मूल  तुम्ही कसं सांभाळणार? माझा सल्ला असा की, काही संस्था अशी मुले फार चांगली सांभाळतात. त्यांना शिक्षण देतात. तिथे याची व्यवस्था होईल. विचार करा. तुमचे आणि त्यातही त्याचे आयुष्य त्याला घरी ठेवून वाया नका घालवू.”

सगुणा आणि तिचा नवरा म्हणाले, “ हे मूल असं झालं यात त्याचा काय दोष ? माझ्या बायकोला नकोच होता तो ! ती विषारी औषधे खाऊन तर नाही ना झालं असं?” डॉक्टर म्हणाले “ तसं काही नसतं. तुमच्या आणि त्याच्या नशिबात हे होतं. बघा,कसं काय करणार ?अवघड आहे हे. “

सगुणा खूप खूप रडली, स्वतःला दोष दिले, तिला खूप अपराधी वाटायला लागले.  मूल आपलं दिवसामाशी मोठं होत होतं. लहानपणी काही लक्षात येत नव्हतं पण मोठा झाल्यावर काय? सगुणा आणि नवऱ्याला या प्रश्नाने रात्रंदिवस झोप यायची नाही.

नंतर सगुणाला पुन्हा दिवस गेले. यावेळी,ती  शहाणी झाली. तालुक्याला जाऊन, सगळी नीट तपासणी करून आली. मूल छान  निर्व्यंग आहे, कोणताही दोष नाही, हे डॉक्टरांनी सांगितले.सगुणाला याही वेळेस मुलगाच झाला. पण किती नॉर्मल खणखणीत मुलगा .. त्या दोघांचे डोळे आनंदाने भरून आले. नवीन बाळ बघायला,  लहानगा श्यामही दवाखान्यात आला. आपला छोटा भाऊ बघून खूप आनंद झाला त्याला. याचे मात्र छान  बारसे  करून, राम नाव ठेवले, त्यांनी।

श्यामला  शाळेत घातले.  शाळेत आवडायचे  श्यामला. मन लावून अभ्यास करायचा श्याम आणि पासही  व्हायचा. जसजसा मोठा व्हायला लागला,तसतसा थोडा बायकी दिसायला लागलाच श्याम. पण तेही खूप लक्षात येण्यासारखा नाही. त्याला बायकी कपडे आवडत नसत., पण तरीही त्याच्यातले वेगळेपण लपत नसेच. 

रामची  वाढ नैसर्गिकरीत्या अगदी उत्तम होत होती. खेळात, मैदानावर अगदी उठून दिसायचा राम. श्याम स्वभावाने इतका चांगला होता, की त्याला कधी रामचा हेवा वाटला नाही की द्वेष.

श्याम घरी आईला मदत करायचा.त्याला स्वयंपाक करायला फार आवडायचा.चवही फार छान होती त्याच्या हाताला. सगुणाला अतिशय वाईट वाटे या मुलाचे. आपल्या मुळेच हे वैगुण्य आले या मुलात, असं म्हणत बसे ती.  निदान या छोट्या खेडेगावात, श्यामची चेष्टा तरी करत नसत मुलं. त्याचा गोड स्वभाव आवडायचा मुलांना.

श्याम मनाने खंबीर होता. त्याला आपल्यातले वैगुण्य चांगलेच माहीत होते. मोठा होऊ लागला, तसतसे हे वाढत जाणार होते. हॉर्मोनल बदल तर होणार होतेच. श्याम शक्यतो आरशासमोर उभा राहून,आपण बायकी हावभाव करत नाही, तसे चालत नाही हे बघत असे. थोडेसे आपोआप तसे होत असेच. पण ते अगदी प्रकर्षाने  लक्षात येण्यासारखे नव्हते.

सगुणाने शामला स्वयंपाक शिकवला. ती स्वतः फार सुगरण होती. गावात तिला खूपदा बायका कार्य असले की मदतीला बोलवायच्या. तिला पैसेही द्यायच्या. श्याम तिच्या हाताखाली तयार होऊ लागला. Ssc झाल्यावर श्याम म्हणाला, “ आई,मी पुण्याला जातो. तिकडेच बारावी करतो आणि मी कॅटरिंगचा डिप्लोमा घेतो.” 

सगुणा ला अतिशय वाईट वाटले. पुण्यासारख्या महासागरात या आपल्या असे वैगुण्य असलेल्या मुलाचा निभाव कसा लागणार? सगुणाने मनाशी निश्चय केला,आपण त्याच्याबरोबर पुण्यात राहायचे. राम आणि त्याचे वडील राहतील इथेच .

सगुणाने  गरीब वस्तीत भाड्याने खोली घेतली. ती लगेचच धुणीभांडी करू लागली. पुण्यासारख्या ठिकाणी तिला कामांना काय तोटा. हिला स्वयपाकाचीही चार कामे मिळाली. श्यामला केटरिंग कॉलेजमध्ये प्रवेश मिळाला. श्यामने पहिल्याच दिवशी वर्गात मुलांना सांगितले, “दोस्तहो! मी खूप ग्रामीण भागातून आलेला गरीब मुलगा आहे. मी तुमच्यातला नाहीये. मला समजून घ्या. तुमच्या लक्षात आलं असेल, मी  देवाने अन्याय केलेल्या त्या एक टक्क्यांपैकी आहे. यात माझा काय दोष? मलाही तुमच्यासारखे शिकू द्या. इतर  किन्नर लोकांसारखी मला सिग्नलला भीक नाही मागायची. कोणीतरी होऊन दाखवायचंय मला. शाळेत मुलं करायची रे चेष्टा, ‘ फलक्या, गणपत पाटील,’ पण मी लक्ष नव्हतो देत. मला सहकार्य कराल ना? एखाद्याला जन्मतः डोळे नसतात, कोणी मुके असतात, तसा मीही एक दुर्दैवी आहे.” बोलतांबोलता श्यामच्या डोळ्यात पाणी आले. क्लासमधील मुलं अतिशय  गंभीर होऊन हे ऐकत होती. हा साधा,पायजमा,शर्ट घातलेला मुलगा,आपण होऊन हे न लाजता सांगतोय, याने त्यानाही गलबलून आले.

 तो खूप बायकी नव्हता. पण कुठेतरी काहीतरी कमी आहे, हे लक्षात आल्याशिवाय कसे राहील? वर्गातला भोसले उठून उभा राहिला.  मैदान गाजवलेला, खेळाडू होता भोसले. 

“ शाबास रे श्याम.  देतो आम्ही तुझ्या धीटपणाला आणि जिद्दीला. आम्ही सगळे तुझे मित्र आजपासून.काय ग पोरीनो,काय म्हणणे आहे तुमचे? ”

रेखा म्हणाली, “ भोसले, फार गोड आहे श्याम ! तुम्हीच त्याची पहिल्या दिवशी टिंगल  केलीत, पण आम्ही कधीच करणार नाही, केलीही नाही. श्याम, हे जाहीर सांगायचे धैर्य तुझ्यात आहे, हे केवढे मोठे आहे रे. खूप पुढे जाशील तू. आजपासून तू आमचा दोस्त.”

 शामला मनातून आनंद झाला. त्यांचा कोर्स सुरू झाला. पाठीमागे चर्चा होत असणार, हा मुलगा कोण, कसा..  पण श्यामने लक्ष द्यायचे नाही असंच ठरवलं होतं.

कमी त्रास नव्हता होत त्याला. वस्तीतही असा मुलगा आलाय,अशी बातमी पसरलीच. किन्नरांची टोळी टाळ्या वाजवत त्याला भेटायला आली. “ ए पोरा,कसलं करतो रे कालेज. ही दुनिया लै बेकार.. तुला काय जगू देणार व्हय. तू आमच्यातलाआहेस,आमच्यातच ये .बघ. ही रानी महिन्याला धा हजार कमावती. ही शबनम पन्द्रा. तू काय करतोस इथं? “

 श्यामने त्यांच्या पुढारी बाई लक्ष्मीला नमस्कार केला.

“ मावशी, तुमचं खरं आहे. पण मला साडी नाही नेसावीशी वाटत. मला कोणत्याही अनैसर्गिक भावना नाहीत. मला समजून घ्या मावशी ! काही गरज लागली, तर मी तुमच्याशिवाय कुठं जाणार? मी  तुमच्यातलाच एक आहे, पण बाई म्हणून नाही जगणार! “

— क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ अण्णा उर्फ अरविन्द गजेंद्रगडकर – लेखक : डॉ केशव साठये ☆ सुश्री शुभा गोखले ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ अण्णा उर्फ अरविन्द गजेंद्रगडकर – लेखक : डॉ केशव साठये ☆ सुश्री शुभा गोखले ☆ 

आकाशवाणी, पुणे हा  मोठमोठ्या कलाकारांनी बहरलेला, लगडलेला एक  कल्पवृक्षच होता. बा.भ.बोरकर, व्यंकटेश माडगूळकर, शंकर पाटील, आनंद यादव अशा अनेक मंडळींनी इथे काम केले. हेही त्यापैकीच. निर्माता या पदावर  काम करणारे हे केवळ एक अधिकारी नव्हते, तर एक उत्कृष्ट कलावंत-वादक-लेखक-संवादक अशा बहुगुणांनी  नटलेले एक व्यक्तिमत्व होते . आकाशवाणीवर निर्माता म्हणून काम करताना अनेक दिग्गज संगीतकार आणि वादक त्यांच्या सहवासात आले. ते केवळ सरकारी बाबू नव्हते तर संगीताचे साधक आणि जाणकारही. त्यामुळे हरिप्रसाद चौरसिया असोत किंवा बेगम अख्तर, ही मंडळी यांच्या गुणग्राहकतेवर आणि संगीत साधनेवर खूश असायची. हरिप्रसाद यांना खूप मानायचे. धारवाड, नागपूर येथील आकाशवाणी केंद्रांवरची त्यांची कारकीर्दही  गाजली.

ते गोष्टी वेल्हाळ होते. गोष्ट कशी सांगायची हे त्यांच्याकडून शिकावं. हा अनोखा गुण त्यांच्या व्यक्तिमत्वाचा एक लोभस पैलू  होता. हाडाचे शिक्षक होते ते. सायन्स पदवीधर. शिक्षण शास्त्राचाही रीतसर अभ्यास केलेले. माझे एक गृहितक आहे ते म्हणजे विज्ञान शाखेतील कोणत्याही विषयाचा अगदी साधा पदवीधर जरी असला तरी तो / ती वैचारिक दृष्ट्या एक विशिष्ट पातळी कधी सोडत नाहीत. वस्तुनिष्ठता हा गुण आणि no nonsense हा Approach त्यांचा वागणूकीचा भाग बनून जातो. अण्णाही त्या पठडीतले. संगीताचा गाढा अभ्यास ,व्यासंग इतका की केवळ संगीत साधना आणि वादन कौशल्य एवढ्यावर ते थांबले नाहीत. या क्षेत्रात चौफेर मुशाफिरी केली.

पन्नालाल घोषांची शागिर्दी केलेल्या अण्णांची बासरी वादनावर तर हुकमत होतीच. पण स्वरमंडळ सारखे फारसे प्रचलित नसलेले वाद्य त्यांनी आपल्या अदाकारीने झंकारत ठेवले. संगीतावर व्याख्याने दिली. संगीत परीक्षा सुलभ व्हाव्यात म्हणून मार्गदर्शनपर पुस्तकेही लिहिली. वेगवेगळ्या पट्टीत गाणाऱ्यांसाठी त्यांनी तानपुरा वादनाच्या ध्वनीफिती बनवल्या.  वर्तमानपत्रात लेख लिहिले. संगीतातल्या सर्वच क्षेत्रात अधिकार असलेले ते एक दुर्मीळ व्यक्तिमत्व होते. 

अण्णांची (अरविंद गजेंद्रगडकर ) माझी ओळख त्यांचा मुलगा निखील याच्यामुळे झाली. तो माझ्या वर्गात होता; पत्रकारिता अभ्यासक्रमाच्या. पण खरं सांगू का, त्यांचे माझे सूर अधिक जमले आणि खूप लवकरही. मी मुंबई दूरदर्शनला असताना ते आमच्याकडे कार्यक्रम करायला येत असत. कधी वादनासाठी तर कधी मुलाखती घ्यायलाही. माझ्या माहिमच्या मठीवरही ते अनेक वेळा येऊन गेले. दादा म्हणजे जी.एन.जोशी यांच्याकडे मी पेइंग गेस्ट म्हणून राहात होतो. अण्णांना तर त्यांच्याबद्दल विशेष आदर. मला वाटते दादाना भेटण्याच्या ओढीने ते माझ्याकडे येत असावेत. कारण काहीही असो. ते प्रेमाने येत. त्यांनी मला संगीत विश्वातील सुरस आणि चमत्कारिक वाटाव्यात अशा, पण प्रत्यक्ष घडलेल्या अनेक कथा सांगितल्या.

मुंबईत त्यांचे वास्तव्य बोरीवली इथे होते. पण संचार मात्र शहरभर असायचा. कुठे चांगले ध्वनिमुद्रण असले, एखादा दुर्मीळ गाण्याचा कार्यक्रम असला की यांची उपस्थिती ठरलेली. मला एक दोनदा त्यांनी चित्रपटाच्या गाण्याच्या रेकॉर्डिंगलाही नेले होते . ‘माझा लवतोय डावा डोळा’.. शांताबाई यांच्या महानंदा चित्रपटातील लताबाई यांचे गाणे ध्वनिमुद्रित होताना मी यांच्याच सहवासात अनुभवले आहे . 

स्वतःवर ज्याला विनोद करता येतो किंवा स्वतःची फजिती ज्याला ग्रेसफुली सांगता येते तो माणूस निर्मळ मनाचा असतो. अण्णा असे अनेक किस्से सांगत. त्यातील हा एक अफलातून किस्सा — ते अनेक दिवाळी अंकांसाठी लिहित असत. पण मानधनाची मात्र वाट पाहावी लागे. अशाच एका अंकाचे मानधन आले नाही म्हणून ते त्यांच्या कार्यालायात सदाशिव पेठेत गेले. थोड्या इतर गप्पा मारुन त्यांनी मानधनाचा विषय काढला. संपादकाने नेहमीप्रमाणे रडगाणे गायले . शेवटी हे म्हणाले मग असे करा मला पाच अंक द्या. मानधन नको. त्यावर संपादक म्हणाले ते परवडणार नाही, त्यापेक्षा मानधन देतो. यावरुन मानधनाचा आकडा किती अशक्त होता हे कळले आणि आमची हसून हसून पुरेवाट झाली . 

१९८०च्या दशकात मुंबईत नुकतीच हॉटेलमध्ये लाईव्ह संगीत कार्यक्रमांची सुरुवात झाली होती. गायक, संगीतकार यांना हॉटेलमध्ये सादरीकरण करण्यासाठी आमंत्रित करत. ३,४ तास गायन ,वादन यांच्या मैफिलींचा आनंद लुटत. ग्राहक खानपान सेवेचाही आस्वाद घेत असत. कलाकारांनाही उत्तम मानधन मिळे. वरळी व्हिलेज या पंचतारांकित हॉटेलमध्ये त्यांना करारावर आमंत्रित केले होते . या मंडळीना एक पाहुणा आणायला परवानगी होती. तो भाग्यवंत मीही एक दोनदा ठरलो . अण्णांची बासरी ऐकत , नयनरम्य माहोल असलेल्या त्या गार्डनमधल्या ओल्या संध्याकाळी कशा काय विसरता येतील ? 

मी पुण्यात आल्यावर तर ते आमचे हक्काचे आर्टीस्ट झाले. माझ्या अनेक जाहिरातींच्या जिंगल्सचे संगीत त्यांनी दिले. युनायटेड बँक, केप्र मसाले ,शतायुषी मासिक, एवढेच नव्हे तर माझ्या राष्ट्रीय पारितोषिक विजेत्या ‘न्याय’ या फिल्मलाही त्यांचाच संगीतसाज लाभला होता.

‘सृष्टी’ या प्रशांत कोठडियाच्या संस्थेचे ते नियमित कलाकार होते. तिथल्या अनेक मैफिली त्यांनी आपल्या शब्द सुरांनी उजागर केल्या. अनेक बड्या कलाकारांशी त्यांचा घरोबा असल्यामुळे आणि त्यांच्या कलांचे नेमके मर्म ठाऊक असल्यामुळे त्यांचे लेखन अतिशय मनोवेधक होत असे. कुमार गंधर्व आणि बेगम अख्तर यांच्यावरील त्यांचे लेख म्हणजे व्यक्तीचे आस्वादक आणि सखोल मूल्यमापन कसे करावे याचे उत्तम नमुने आहेत.

’अंतर्नाद’ हे मासिक अल्पावधीत गाजले. त्या लोकप्रियतेत यांचाही मोठा वाटा होता. आपली पंचाहत्तरी त्यांनी अनोख्या रीतीने साजरी केली होती. दोन दिवसांच्या कार्यक्रमात बासरीवर त्यांनी ७७ राग वाजवून आपल्या आयुष्यात बासरीच्या सुरांचे असलेले महत्व अधोरेखित केले होते. एक अतिशय रसिक ,चाणाक्ष , चांगल्या अर्थाने चोख व्यावसाईक, गुणग्राहक आणि जिंदादिल व्यक्तिमत्व असलेले अरविंद गजेन्द्रगडकर हे माझ्या स्मरणकुपीत ऐशआरामात कायमचे विराजमान झालेले आहेत. 

(जन्म ११ जानेवारी ,१९२८) त्यांच्या  जयंती निमित्त विनम्रतापूर्वक आदरांजली !

लेखक : डॉ केशव साठये 

[email protected]

प्रस्तुती : सुश्री शुभा गोखले. 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ मुंगीची गोष्ट… ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ मुंगीची गोष्ट… ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆ 

एका रविवारी सकाळी, एक श्रीमंत माणूस त्याच्या बाल्कनीत कॉफी घेऊन सूर्यप्रकाशाचा आनंद घेत होता, तेव्हा एका छोट्या मुंगीने त्याचे लक्ष वेधून घेतले.  मुंगी तिच्या आकारापेक्षा कितीतरी पट मोठे पान घेऊन बाल्कनीतून चालली  होती.

त्या माणसाने तासाभराहून अधिक काळ ते पाहिलं.  त्याने पाहिले की मुंगीला तिच्या प्रवासात अनेक अडथळ्यांचा सामना करावा लागला विराम घेतल. वळसा घेतला.

आणि मग ती आपल्या गंतव्याच्या दिशेने चालू लागली.

एका क्षणी या चिमुकल्या जीवालाअवघड जागग आडवी आली. फरशीला तडा गेला होता. मोठी भेग होती.ती थोडावेळ थांबली, विश्लेषण केले आणि मग मोठे पान त्या भेगेवर ठेवले, पानावरून चालली, पुढे जाऊन दुसऱ्या बाजूने पान उचलले आणि आपला प्रवास चालू ठेवला.

मुंगीच्या हुशारीने तो माणूस मोहित झाला.  त्या घटनेने माणूस घाबरून गेला आणि त्याला सृष्टीच्या चमत्काराने विचार करण्यास भाग पाडले.

त्याच्या डोळ्यांसमोर हा लहानसा प्राणी होता, जो आकाराने फार मोठा नसलेला, परंतु विश्लेषण, चिंतन, तर्क, शोध, शोध आणि मात करण्यासाठी मेंदूने सुसज्ज होता.

थोड्या वेळाने मनुष्याने पाहिले की प्राणी त्याच्या गंतव्य स्थानी पोहोचला आहे – जमिनीत एक लहान छिद्र होते, जे त्याच्या भूमीगत निवासस्थानाचे प्रवेशद्वार होते.

आणि याच टप्प्यावर मुंगीची कमतरता उघड झाली —- ते मोठे पान  मुंगी लहान छिद्रात कसे वाहून नेईल? 

— ते मोठे पान तिने काळजीपूर्वक गंतव्य स्थानावर आणले, पण हे आत नेणे तिला शक्य नाही ! 

तो छोटा प्राणी मुंगी — खूप कष्ट आणि मेहनत आणि उत्तम कौशल्याचा वापर करून, वाटेतल्या सर्व अडचणींवर मात करून, आणलेले मोठे पान मागे टाकून रिकाम्या हाताने गेली.

मुंगीने आपला आव्हानात्मक प्रवास सुरू करण्यापूर्वी शेवटचा विचार केला नव्हता आणि शेवटी मोठे पान हे तिच्यासाठी ओझ्याशिवाय दुसरे काही नव्हते.

त्या दिवशी त्या माणसाला खूप मोठा धडा मिळाला. हेच आपल्या आयुष्यातील सत्य आहे.

आपल्याला आपल्या कुटुंबाची चिंता आहे, आपल्याला आपल्या नोकरीची चिंता आहे, आपल्याला अधिक पैसे कसे कमवायचे याची चिंता आहे, आम्ही कोठे राहायचे, कोणते वाहन घ्यायचे, कोणते कपडे घालायचे, कोणते गॅझेट अपग्रेड करायचे, सगळ्याची चिंता आहे.

— फक्त सोडून देण्याची चिंता नाही. 

आपल्या आयुष्याच्या प्रवासात आपल्याला हे कळत नाही की आपण हे फक्त ओझे वाहत आहोत.  आपण ते अत्यंत काळजीने वाहत आहोत. आपण ते आपल्यासोबत घेऊ शकत नाही….

कथा पुढे चालू ठेवत आहे…तुम्हाला याचा आनंद मिळेल…

तो श्रीमंत माणूस जरा अधीर झाला. अजून थोडा वेळ थांबला असता तर त्याने काहीतरी वेगळं पाहिलं असतं…

मुंगी मोठे पान बाहेर सोडून छिद्राच्या आत नाहीशी झाली. आणखी 20 मुंग्या घेऊन परतली. त्यांनी पानाचे छोटे तुकडे केले आणि ते सर्व आत नेले.

बोध:

१.  हार न मानता केलेले प्रयत्न वाया जात नाहीत !

२.  एक संघ म्हणून एकत्र, अशक्य काहीही नाही. 

३.  कमावलेली वस्तू तुमच्या भावांसोबत शेअर करा. 

४.  (सर्वात महत्त्वाचे!) तुम्ही जेवढे वापरता त्यापेक्षा जास्त घेऊन गेलात तर तुमच्यानंतर इतरांनाही त्याचा आनंद मिळेल.  तर तुम्ही कोणासाठी प्रयत्न करत आहात हे ठरवा.

—  मुंगीसारख्या लहानशा प्राण्यापासूनही आपण किती शिकू शकतो.

 

संग्राहक : श्री अनंत केळकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ बापाची पुस्तकं… – श्री सौमित्र  ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे  ☆

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ बापाची पुस्तकं… – श्री सौमित्र  ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

मी गेल्यावर

तुला वाटेल की आपल्या बाबांनी

वाचलीयेत ही सारी पुस्तकं,

पण नाही

अर्धंही वाचता आलेलं नाहीय,

येणारही नाही हे ठाऊक होतं मला

तरी

मी जमवत गेलो होतो ही पुस्तकं.

 

माझ्यासाठी माझ्या बापाने

काहीच सोडलं नव्हतं मागे,

ही अक्षर ओळख सोडून फक्त

जिच्या मागे धावत मी

पोहोचलो आहे इथवर….

 

तुला सांगण्या समजावण्यासाठी की

मलाही सोडता येणार नाहीय मागे

काहीच स्थावर जंगम तुझ्यासाठी….

 

ही काही पुस्तकं  आहेत फक्त!

जी तुला दाखवतील वाट

 

चालवतील तुला, थांबवतील कधी, पळवतील कधी

निस्तब्ध करतील,

बोलतं करतील कधी

टाकतील संभ्रमात

सोडवतील गुंते….

 

वाढवतील पायाखालचा चिखल

कधी बुडवतील ,  तरवतील कधी,

वाहवतील कधी थोपवतील प्रवाह,

अडवतील तुडवतील सडवतील…

बडवतील हरवतील सापडतील…

तुझ्याशी काहीही करतील

ही पुस्तकं…

 

तू समोर आल्यावर नेहमीच कवेत घेऊन मी माझ्यातली धडधड

तुला देण्याचा प्रयत्न करतो

तशीच ही पुस्तकं

उघडतील . मधोमध पसरतील हात.

मिठीत घेतील तुला…

आपोआप होतील हृदयाचे ठोके.

 

यांच्यात रहस्यं आहेत दडलेली

अनेक उत्तरंही असतील

प्रश्नांमधे

कदाचित कुठेच

प्रश्नही नसतील..

 

एक लक्षात ठेव,

आपलं आयुष्यच

पल्प फिक्शन

कधी क्लासिक

सेल्फ हेल्प फिलॉसॉफिकल

कधी कवतिक,

कधी किचकट

कधी सोपं असतं.

 

लक्षात असू दे या सगळ्यात

वाईट काहीच नसतं.

त्या वेळी हाती लागलेलं पुस्तक

त्याच वेळची गरज असतं . समज नसतं….

 

मी नसेन तेव्हा ही पुस्तकं असतील..

जी नेतील तुला जायचं आहे तिथं…

 

फक्त, मी असेन तिथं मात्र…

तुला पोहोचता येणार नाही.

कारण,मी आधीच

होऊन गेलेलो असेन तुझ्यासाठी-

एखादी कथा एखादी कादंबरी….

एखादी कविता एखाद्या पुस्तकातली.

 

माझी आठवण आली की

या प्रचंड ढिगाऱ्यातलं

ते एखादं पु्स्तक शोध

तुझा प्रवास,बघ, कसा

सोपा होऊन जाईल.

लेखक : श्री सौमित्र

संग्राहिका: सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares
image_print