हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… जम्मूवाली दादी – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  जम्मूवाली दादी)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – जम्मूवाली दादी  ?

माताजी तो माताजी थीं। मोहल्ले भर की गली – मोहल्ले की माताजी, और क्यों ना हो! 101 वर्ष उम्र और अनुभव दोनों का अद्भुत मिलन जो था।

माताजी 100 साल तक जिंदा रहना चाहती थीं। अब उसके ऊपर एक और साल जुड़ गया। पूरे कुनबे को जोड़कर रखने वाली माताजी गली – मोहल्ले के लोगों से भी आजीवन जुड़ी ही  रहीं। घर में कुल मिलाकर 40 लोग होंगे और मोहल्ले वाले उनकी तो कोई गिनती ही नहीं!

माताजी 60 साल की रही होंगी जब बाबूजी गुज़र गए पर माताजी टूटी नहीं, और न  सारे परिवार को ही टूटने -बिखरने  दिया। जिस भूमिका को बाबूजी निभाते थे, वही भूमिका अब माताजी निभाती आ रही थीं।वह विशाल छायादार वटवृक्ष के समान सशक्त थीं।

माता जी के पाँच पुत्र थे । आज उनका बड़ा बेटा 85 साल का है उसकी दुल्हन 82 साल की है, उनका बड़ा बेटा 62 साल का है उसका बेटा 38 साल का है और उसका बच्चा 16 साल का। कुल मिलाकर इस तरह घर के हर एक बेटे उनके बच्चे, पढ़ पोते- पतोहू सब मिलाकर कुनबे में 40 लोगों का समूह रहता आ रहा था। साझा व्यापार था।

आज भी जम्मू-कश्मीर में ऐसे अनेक परिवार मिल जाएँगे जो संयुक्त परिवार में रहते हैं। सेब, बादाम, अखरोट, चिलगोज़ा, खुबानी के बाग हैं और व्यापार भी उसी का ही है।

माताजी का एक बेटा कटरा में व्यापार करता था, वही ड्राईफ्रूट और गरम कपड़ों का। पर रोज़ रात को घर लौटकर आता ही था।यद्यपि जम्मू और कटरा के बीच चालीस किलोमीटर का अंतर है। प्रति घंटे बसें चलती हैं तो घर आना ही होता है।यह माताजी का आदेश था।रात के भोजन के समय वे बेटे बहुओं को लेकर भोजन करना पसंद करती थीं।शायद परिवार को जोड़कर रखने का यह एक गुर था।

माताजी के तीसरे बेटे की अकाल मृत्यु हुई थी।पर माताजी ने बहू को अपने मायके न जाने दिया और न सफ़ेद कपड़े ही पहनने दिए।माताजी का कहना था, “पति मर गया, यादें तो हैं !चिट्टे ( सफेद) कपड़े पाकर ओदा दिल न दुखाईं पुत्तर।” बड़ी प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी माताजी की।

माताजी के घर में आज तक कभी किसी ने ऊँची आवाज में बात ना की थी और ना उस घर में विवाद का कभी प्रश्न ही उठ खड़ा हुआ।सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे चाहे भूषण हों या पड़पोते का पाँच साल का गुड्डू।

बड़ा बेटा भूषण आज भी गुल्लक संभालते थे। सूखे मेवे का व्यापार था उनका जिसे बाबूजी चलाते आ रहे थे। उनके देहांत के बाद बड़ा बेटा चलाने लगा और अब उसके बेटे चलाते हैं। पर गुल्लक संभालने की जिम्मेदारी आज भी माता जी के बड़े बेटे के पास ही है। यही नहीं हर रोज की कमाई का हिसाब माताजी को जरूर देना पड़ता था। माताजी अपने पास जरूरत के हिसाब से पैसे रख लेती थी॔ बाकी जमा करवा देती थीं। जो धनराशि वह अपने पास रखती थी वह  घर के बच्चे और उनके जन्मदिन, तीज -त्योहार,  विवाह वार्षिक दिन के उत्सव पर उन्हें आशीर्वाद के रूप में दिया करती थी॔। शुरू में तो यह ₹11 हुआ करते थे । समय की बढ़ती चाल देखकर माता जी अब ₹101 पर आकर अटक गईं। कहती थीं “मेरी भी तो उमरा 101 ही है तो क्यों ना 101 दिया करूँ।”

गली मोहल्ले में कोई बीमार पड़े तो माताजी जरूर पहुँच जाती थीं।यदि कोई पुरुष बीमार हो तो वहाँ उनके पास बैठकर पाठ करती  और ठीक होने की दुआ कर घर लौट आतीं।

यदि कोई स्त्री बीमार हो तो उन्हें पता होता था कि परिवार को भोजन की आवश्यकता होती है। माताजी सुबह-शाम भोजन भेजने की व्यवस्था भी करतीं और समय-समय पर उनसे मिलने भी जातीं।

कोई बच्चा बीमार हो तो न जाने माताजी कौन-कौन से काढ़ा और  घुट्टियाँ तैयार करके बच्चे को पिलातीं। लोगों को पता था अनुभवी माताजी एक लंबा जीवन देख चुकी थीं।ऐसा जीवन जहाँ  आज जैसी दवाइयाँ नहीं थी इसलिए लोगों का  उन पर बड़ा भरोसा था।

खाली बैठना माताजी को कभी गवारा न था।इन एक सौ एक वर्ष की उम्र तक पचास -साठ स्वेटर बुन चुकी थीं साथ में न जाने कितने ही शालों पर कढ़ाई कर चुकी थीं।पड़ोस में किसीकी शादी हो तो माताजी चद्दर काढ़ने बैठ जातीं।

प्रातः चार बजे उठना, नहा धोकर पाठ करने बैठना उनकी बरसों की आदत थी। वे पाँच क्लास तक पढ़ी थीं जिस कारण पढ़ने लिखने की आदत बनी रही।तेरह वर्ष की उम्र में ब्याहकर आई थी इस परिवार में। यह परिवार जम्मू का डोगरी परिवार था।माताजी श्रीनगर की थीं जिस कारण उनकी वेष-भूषा आज भी काश्मीरियों जैसी ही थीं।हाँ भाषा वे डोगरी सीख गई थीं।

उनकी उम्र की महिलाएँ सारा दिन लेटी बैठी रहती होंगी पर माताजी को बैठे रहना मंजूर न था।सारे परिवार के लिए रात को बादाम भिगोकर रखना भी उनकी आदत में शामिल थी।हर कोई जब सुबह उठ कर उनके कमरे में पैरीपौना (प्रणाम) करने आता तो माताजी उसके हिस्से के बदाम – अखरोट उन्हें पकड़ा देतीं। घर के छोटे बच्चे कहीं बादाम अखरोट कूड़ेदान में ना डालें इसलिए उन्हें अपने सामने बिठाकर बादाम अखरोट चबाने के लिए कहती थीं।यह उनके अनुभव का ही एक हिस्सा था। रोज अखरोट तोड़ना,  खरबूजे के सूखे बीज से बीज निकालना, कद्दू के  सूखे बीज से छोटे बीज निकालना माताजी का ही काम था।नाखून अब काले से पड़ गए थे, हथेलियों पर रेखाओं का जाल बिछा था जिन्हें देखकर कोई भी कह सकता है कि वे कर्मठ हाथ थे।घर परिवार के लोगों को अपने हाथ से  खिलाना माता जी का निजी शौक था।

यही नहीं गर्मी के मौसम में आम का अचार- मुरब्बा बनाना आज भी माता जी का ही काम था। ठंड के मौसम में  जब फूल गोभी, गाजर शलगम, मटर खूब सस्ते हो जाते तो माताजी उन सब से अचार बनातीं। जम्मू के लोगों का यह बड़ा प्रिय अचार होता है ।

ठंड के दिनों में जब बड़ी-बड़ी, लाल – लाल मिर्चे  आते तो माता जी अपने हाथ से मसाले तैयार करके भरवे मिर्ची के अचार बनातीं। जम्मू में आज भी लोग सरसों का तेल भोजन के लिए प्रयोग में लाते हैं इसलिए सभी चीजें घर पर होने के कारण माताजी दिन भर अपने काम को लेकर व्यस्त रहती थीं। किसी पड़ पतोहू को साथ में ले लेती मदद के लिए और उन्हें सिखाती भी चलती।

ठंड के मौसम में जब वह भी गाजर शलगम मटर बाजार में आते तो माताजी उन सब को साफ करके खूब धूप में सुखातीं ताकि बारिश के दिनों में किसी को भोजन की कमी ना हो। रात के समय दही जमाने का काम भी माताजी ही किया करती थीं। गर्मी के मौसम में माताजी का अधिकांश समय घर की छत पर ही कटती थीं।लौकी -कद्दू डालकर बड़ियाँ डालना, मसालेवाली बड़ियाँ बनाना, पापड़ बनाना सब सुखाना माताजी का शौक था।

घर के हर सदस्य के स्वास्थ्य की देखभाल का मानो उन्होंने जिम्मा उठा रखा था। आजकल कुछ दिनों से माताजी अक्सर जोर से चिल्ला पड़ती और परिवार के लोगों को एकत्रित करती कहतीं ” ओए, ओए बड़ी पीड़ है छाती ते, आ … आ गया मैंन्नू लैंण। चलो मेन्नू मंजीते उतार लो, थल्ले जमीन पर चदरा बिछा दो मेरे जाणे दा वखत आ गिया।”

माताजी अक्सर कहती थीं “मैं मंजी ते न मरणा, थल्ले लिटाणा।”

इस तरह पिछले छह माह में माताजी ने कई बार कुनबे को अपने कमरे में एकत्रित कर लिया था।पहली बार जब ऐसा हुआ तो सब घबड़ा गए।तुरंत डॉक्टर बुलाया गया।डॉक्टर ने कहा हाइपर एसिडिटी है माताजी को घबराने की बात नहीं।” फिर जब कभी छाती में दर्द होता तो बच्चे दो चम्मच जेल्यूसिल उन्हें पिला देते।

एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में माताजी ने न शोर मचाया न किसी को एकत्रित किया।न चाहकर भी अपने पलंग पर जिसे वे आजीवन मंजी कहती आईं थीं, पड़ी रहीं। सुबह जब भूषण माताजी से रोज़ की तरह पैरीपौना करने आया तो देखा हाथ में जप माला पकड़े वह निस्तेज पड़ी हैं।देह शांत, चेहरे पर मृदु मुस्कान!

खबर मिलते ही गली- मोहल्ले के लोग दर्शन के लिए आने लगे।देह को खूब सजाया गया पशमीना शाल ओढ़ाया गया, गुब्बारे बाँधे गए।

बड़ी उम्र के लोगों के देहांत के बाद इस तरह सजाकर ले जाना संभवतः डोगरी लोगों की संस्कृति है।  कंधे देनेवाले अनेक थे। खूब छुट्टे पैसे लुटाए  गए। घाट तक सौ दो सौ लोग पहुँचे। माताजी कहती थीं, “लकड़ी न सुलगाई मेरे लई, बच्च्यांदे काम्म आणा लकड़ियाँ। मेन्नू भट्टी विच पा देणा।” अर्थात फर्नेस में। लकड़ियाँ बच्चों के काम आएगी कहती थीं शायद इसलिए कि भारत में सबसे ज्यादा पेंसिल का कच्चा माल लखीमपुरा पुलवामा काश्मीर में बनाया जाता है। क्या सोच है माताजी की!

एक एरा, प्रचुर तजुर्बा लेकर,  कुनबे को, गली- मोहल्ले को अपने संस्कार से अवगत कराती हुई  प्रोग्रेसिव  सोच रखनेवाली माताजी परलोक सिधार गईं।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय)

☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆

“व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कवि, व्यंग्यकार, सम्पादक श्रीबाल पाण्डेय जी का जन्म 19जुलाई1921 को नरसिंहपुर जिले के बिलहरा गांव में हुआ था,उनका पहला काव्य संग्रह 1958 में प्रकाशित हुआ था, ‘जब मैंने मूंछ रखी’ निबंध संग्रह के अलावा कुछ व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हुए और पसंद किए गए, व्यंग्य संग्रह ‘तीसरा कोना जुम्मन मियां का कहना है’के अलावा ‘माफ कीजिएगा हुजूर’ और ‘साहिब का अर्दली’ खूब चर्चित हुए थे। मानवीय संवेदनाएं उनकी कविताओं में कूट-कूट कर भरीं थीं,होटल में काम कर रहे छोटे से लड़के पर लिखी गई कविता पढ़कर हर पाठक की आंखें नम हो जातीं हैं, कविता में एक जगह आया है….

आज तक इसने चांद को देखा नहीं है,

हाथ में इसके सौभाग्य की कोई रेखा नहीं है,

श्रीबाल पाण्डेय जी ने साहित्यिक पत्रिका ‘सुधा’ का सम्पादन किया और ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की चर्चित पत्रिका ‘वसुधा’के प्रबंध सम्पादक रहे।वे लेखन के मामले में किसी के सामने कभी झुके नहीं, कभी किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं की। वे हरिशंकर परसाई जी के बहुत करीबी थे। श्रीबाल पाण्डेय जी के बारे में लिखते हुए याद आ रहा है जब  हम लोगों ने भारतीय स्टेट बैंक की तरफ से श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान किया था।

साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘रचना’ के संयोजन में जबलपुर के मानस भवन में हर साल मार्च माह में अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। जिसमें देश के हास्य व्यंग्य जगत के बड़े हस्ताक्षर शैल चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर,शरद जोशी, सुरेन्द्र शर्मा, के पी सक्सेना जैसे अनेक ख्यातिलब्ध अपनी कविताएँ पढ़ते थे। रचना संस्था के संरक्षक श्री दादा धर्माधिकारी थे सचिव आनंद चौबे और संयोजन का जिम्मा हमारे ऊपर रहता था। देश भर में चर्चित इस अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान हम लोगों ने जबलपुर के प्रसिद्ध हास्य व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय का सम्मान करने की योजना बनाई, श्रीबाल पाण्डेय जी से सहमति लेने गए तो उनका मत था कि उन्हें सम्मान पुरस्कार से दूर रखा जाए तो अच्छा है फिर ऐनकेन प्रकारेण परसाई जी के मार्फत उन्हें तैयार किया गया।

इतने बड़े आयोजन में सबका सहयोग जरूरी होता है। लोगों से सम्पर्क किया गया बहुतों ने सहमति दी, कुछ ने मुंह बिचकाया, कई ने सहयोग किया। स्टेट बैंक अधिकारी संघ के पदाधिकारियों को समझाया। उस समय अधिकारी संघ के मुखिया श्री टी पी चौधरी ने हमारे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा। तय किया गया कि स्टेट बैंक अधिकारी संघ ‘रचना’ संस्था के अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान करेगी।

हमने परसाई जी को श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की तैयारियों की जानकारी जब दी तो परसाई जी बहुत खुश हुए और उन्होंने श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की खुशी में तुरंत पत्र लिखकर हमें दिया।

श्रीबाल पाण्डेय जी उन दिनों बल्देवबाग चौक के आगे  के एक पुराने से मकान में रहते थे। आयोजन के पहले शैल चतुर्वेदी को लेकर हम लोग उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़े, शैल चतुर्वेदी डील – डौल में तगड़े मस्त – मौला इंसान थे, पहले तो उन्होंने खड़ी सीढ़ियाँ चढ़ने में आनाकानी की फिर हमने सहारा दिया तब वे ऊपर पहुंचे। श्रीबाल पाण्डेय जी सफेद कुर्ता पहन चुके थे और जनाना धोती की सलवटें ठीक कर कांच लगाने वाले ही थे कि उनके चरणों में शैल चतुर्वेदी दण्डवत प्रणाम करने लोट गए। श्रीबाल पाण्डेय की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी पर वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे चूंकि उनकी जीभ में लकवा लग गया था। उस समय गुरु और शिष्य के अद्भुत भावुक मिलन का दृश्य देखने लायक था। श्रीबाल पाण्डेय शैल चतुर्वेदी के साहित्यिक गुरु थे।

मानस भवन में हजारों की भीड़ की करतल  ध्वनि के साथ श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान हुआ। मंच पर देश भर के नामचीन हास्य व्यंग्य कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया था पर उस दिन मंच से शैल चतुर्वेदी अपनी रचनाएँ नहीं सुना पाये थे क्योंकि गुरु से मिलने के बाद नेपथ्य में चुपचाप जाकर रो लेते थे और उनका गला बुरी तरह चोक हो गया था।

स्वर्गीय श्रीबाल पाण्डेय जी अपने जमाने के बड़े हास्य व्यंग्यकार माने जाते थे।जब परसाई जी  ‘वसुधा’ पत्रिका निकालते थे तब वसुधा पत्रिका के प्रबंध सम्पादक पंडित श्रीबाल पाण्डेय हुआ करते थे। उनके “जब मैंने मूंछ रखी”, “साहब का अर्दली” जैसे कई व्यंग्य संग्रह पढ़कर पाठक अभी भी उनको याद करते हैं। उन्हें सादर नमन।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-9 – पुराने चावलों जैसे महकते दोस्त… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-9 – पुराने चावलों जैसे महकते दोस्त… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आज फिर जालंधर की सुनहरी, कुछ ह़सातीं, कुछ रुलातीं यादों की ओर‌ एक बार फिर! अपनी पीढ़ी के रचनाकारों को मैं बराबर याद कर‌ रहा हूँ और वे सब अब पुराने चावलों जैसे महकते हैं! वैसे तो मैने प्रसिद्ध उपन्यासकार व जालंधर दूरदर्शन के समाचार संपादक रहे जगदीश चंद्र वैद जी का उल्लेख पहले  कर चुका हूँ और उनसे मिले प्रोत्साहन को भूला नहीं ! वे पंजाब के ग्रामीण अंचल‌ पर उपन्यास ‘धरती धन न अफ्ना’ लिखकर प्रसिद्धि के शिखर को छूने में उसी तरह सफल रहे जैसे अपने समय के लोकप्रिय लेखक मुंशी प्रेमचंद अपने उपन्यास ‘गोदान’ के लिए ऐसे प्रसिद्ध हुए कि उनकी जैसी ऊंचाई तक पहुंचना किसी लेखक के बूते की बात नही थी लेकिन ‘ धरती धन न अपना’ भी बहुत सी भाषाओं में अनुवादित हुआ! आज उनकी बेसाख्ता याद इसलिए आई कि क्या उनकी तरह आज पंजाब में कोई उपन्यास लिख रहा है? जी हां,हैं न मेरी पीढ़ी के, मेरे सहयात्री डाॅ  विनोद शाही! वे पटियाला रहते थे, फिर हिंदी प्राध्यापक के रूप में काफी समय जालंधर और होशियारपुर रहे और कई वर्ष जालंधर में रहने के बाद‌ आजकल‌ गुरुग्राम में अपने बेटे के पास शिफ्ट हो गये हैं यानी वे भी मेरी तरह हरियाणवी रंग में रग गये हैं! उपन्यासों की चर्चा चली तो बता दूँ कि डाॅ विनोद शाही ने दो उपन्यासों- ईश्वर का बीज और निर्बीज की रचना की है! वैसे कथा लेखन में निरंतर सक्रिय हैं और इनके चार‌ कथा संग्रह भी हैं, जिनमें ‘श्रवण कुमार की खोपड़ी’ बहुचर्चित रही और अभी इन वर्षों में ‘हंस’ में प्रकाशित कहानी ‘बाघा वाॅर्डर’ मेरी प्रिय कहानियों में शामिल हैं! आजकल ज्यादा चर्चा इनके आलोचना क्षेत्र में है रही है और कम से कम पच्चीस आलोचना पुस्तकें हिंदी साहित्य को दे चुके हैं! बहुआयामी लेखन और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी शाही को अनेक सम्मान मिले हैं। हाल ही में चंडीगढ़ में इन्हें ‘आधार सम्मान’ से सम्मानित किया गया! मुझे इस मित्र की एक नसीहत नही भूलती, जब मेरे प्रथम लघुकथा संग्रह-मस्तराम ज़िदाबाद पर जालंधर में आयोजित विचार चर्चा में कहा कि कमलेश की लघुकथाएं बहुत शानदार हैं लेकिन ये अंत में पौराणिक कथाओं की तरह ज्ञान बांटते की तरह कोई शिक्षा देने की मोमबत्ती क्यों जला देते हैं! ऐसे ही सच्चे दोस्त और आलोचक होने चाहिएं  । यही दुआ के साथ आगे बढ़ता हूँ! वे निश्चय ही आलोचना में और ऊंचा मुकाम बनायेंगे!

एक और‌‌ भी हैं न ऐसे हमारे मित्र डाॅ अजय शर्मा ! जो मूलत: तो एक डाॅक्टर हैं लेकिन साहित्य के कीड़े ने ऐसा काटा कि डाॅक्टर पीछे निशानी जैसा रह गया और वे उपन्यास लेखन में कदम दर कदम बढ़ते ही गये! शुरुआत हुई चेहरा और परछाईं से और फिर‌ आया बसरा की गलियां जो बहुचर्चित रहा । इसके बाद तो फिर दे दनादन ‘नौ दिशाएं’, ‘कागद कलम ना लिखणहार’  विभिन्न विश्वविद्यालयों में पांच कक्षाओं में शामिल !

इनके उपन्यासों पर अब तक 29 एम फिल’.सात पीएचडी विभिन्न विश्वविद्यालयों से हो चुकी हैं! है न रिकॉर्ड? इनके अतिरिक्त .छह नाटक एक कहानी संग्रह पंजाबी में! इनके लेखन के आधार पर अब तक इन्हें पुरस्कार शिरोमणि पुरस्कार और केंद्रीय हिंदी निदेशालय से मिले अनेक सम्मान शामिल हैं ।

इतना याद दिला दूँ कि तरसेम गुजराल के उपन्यास ‘ जलता हुआ गुलाब’ को वाणी प्रकाश की ओर से पुरस्कृत किया गया! जिसका चयन अपने समय के प्रसिद्ध आलोचक डाॅ नामवर सिंह ने किया था! इस तरह जालंधर में उपन्यास लेखन की परंपरा को मेरे मित्र बाखूबी आगे बढ़ा रहे हैं! डाॅ अजय शर्मा ने अमर उजाला, दैनिक जागरण और‌ दैनिक सबेरा में पत्रकारिता भी की!

कभी प्रसिद्ध आलोचनक व पंजाब विश्विद्यालय, चंडीगढ़ के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान ने कहा था कि यदि हिंदी साहित्य में से पंजाब के लेखकों का योगदान निकाल‌ दिया जाये तो यह आधा ही रह जायेगा! यानी आधा हिंदी साहित्य में लेखन पंजाब के लेखकों ने किया है ! हमारे मित्र धर्मपाल साहिल भी उपन्यास लेखन में पीछे नहीं! उन्हें भी केंद्रीय हिंदी निदेशालय से उपन्यास पर सम्मान मिल चुका है!

शायद आज के लिए इतना ही काफी!

पुराने चावलों जैसी खुशबू जैसे दोस्तों की बातें आगे भी जारी रहेंगी।

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… गुड समरीतान – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  गुड समरीतान)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – गुड समरीतान ?

(दो सत्य घटनाओं पर आधारित यह संस्मरण है। दोनों घटनाओं को पढ़ने पर ही संपूर्ण कथा स्पष्ट हो सकेगी।)

भाग एक

समीर मुखर्जी अपने शहर के एक प्रसिद्ध कंपनी में उच्च पदस्थ व्यक्ति थे। धन -दौलत, सामाजिक प्रतिष्ठा, बड़ा सा बंगला और सुखी परिवार ये सब कुछ जीवन में अर्जित था। तीन बेटियाँ थीं जिन्हें प्रोफेशनल एज्यूकेशन दिलाकर  समयानुसार विवाह भी करवा चुके थे और वे तीनों विदेश में रहती थीं।

अब हाल ही में समीर रिटायर हुए। अति प्रसन्न थे कि अब पति-पत्नी  फ्री हो गए और  खूब घूमेंगे। कोलकाता से निकले एक लंबा अंतराल बीत चुका था, कई ऐसे रिश्तेदार थे जो बंगाल के छोटे – छोटेे गाँवों में रहते थे  जिनसे मिले कई वर्ष बीत गए थे। वे फिर उन भूले-बिसरे और शिथिल पड़े तारों को जोड़ना चाहते थे।

समीर और सुमिता कोलकाता जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उससे पहले कंप्लीट मेडिकल चेक अप करवा लेना चाहते थे। यह रेग्यूलर चेक अप था और प्रति वर्ष करवाते रहे तो खास चिंता की बात नहीं थी। पर भगवान की योजना कुछ और ही थी। सुमिता के स्कैन में आंत में कोई ग्रोथ दिखाई दिया और  प्रारंभ हुआ अनेक विभिन्न प्रकार के टेस्ट। बायप्सी हुई और पता चला कि उन्हें कैंसर था जो काफी फैल भी चुका था। दोनों पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। अब शुरू हुआ एक नया युद्ध। अस्पतालों के चक्कर, सर्जरी, और फिर कीमो। जिस घर में सुख शांति और समृद्धि का वास था वहाँ श्मशान की – सी चुप्पी छा गई। सुख और खुशियाँ न जाने किस खिड़की से बाहर निकल गए और दुख- दर्द ने घर भर में पैर पसार लिए।

समीर के बचपन के एक मित्र थे गौतम चौधरी, वे अपने शहर के  मेडिकल कॉलेज के रिटायर्ड डीन थे। अब रिटायर होने पर कोलकाता के पास एक छोटे से गाँव में अपनी विधवा बड़ी बहन को साथ लेकर रहते थे। स्वयं विधुर तथा नि: संतान थे समाज सेवा में मन लगाते थे। गाँव वालों को फ्री ट्रीटमेंट देते, सरकारी अस्पतालों से संपर्क करवाते, भर्ती करवाते और व्यस्त रहते।

उन्हें जब से सुमिता की बिगड़ती हालत की जानकारी मिली वे अक्सर समीर के घर आने लगे और न केवल अपनी बातों से सुमिता को हँसाते रहते, उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहे  बल्कि समीर के लिए बहुत बड़े इमोशनल सपोर्ट भी थे।

तीन – चार माह के भीतर ही सब कुछ खत्म हो गया। कहाँ मुखर्जी दंपति फ्री होकर घूमने – फिरने की योजना बना रहे थे और कहाँ भीषण कष्ट सहती जीवन संगिनी का साथ ही छूट गया। समीर टूट से गए। ईश्वर में जो आस्था थी वह टूट गई। जिस दिन पत्नी की अस्थियाँ बहाने गए थे उस दिन अपना जनेऊ भी न जाने क्या सोचकर नदी में बहा आए।

कुछ दिन बाद घर के छोटे से मंदिर में जितनी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और पूजा की सामग्री थी सब एक कार्टन में डालकर किसी मंदिर में छोड़ आए। गौतम लगातार  चुपचाप समीर का साथ देते रहे। वे उसके मन की हालत को समझ रहे थे। शायद स्वयं इसी दौर से गुज़र चुके थे, भुग्तभोगी थे, इसलिए समीर के दर्द की गहराई को नापने की क्षमता भी रखते थे।

सुमिता ने अपनी आँखें दान की थी, समीर ने दो महीने के भीतर उसकी सभी वस्तुएँ बेटियों और ज़रूरत मंदों में बाँट दी बस उसका चश्मा अपने पास रख लिया। गौतम समीर की मानसिकता को भली-भांति समझ रहे थे। उसे घर से दूर ले जाना जरूरी था इसलिए अपने साथ कोलकाता ले गए।

शुरू-  शुरू में समीर चुप रहते थे, हँसना मानो छोड़ ही दिया था। पर गौतम एक सच्चे दोस्त की तरह निरंतर उसका साथ दे रहे थे। कभी गंगा के तट पर घुमाने ले जाते कभी नाव में सैर कराते, कभी गंगा तट पर बैठ खगदल को अपने वृक्षों पर लौटते हुए निहारते  कभी बँधी नावों से टकराती लहरों का गीत सुनते तो कभी रेत पर बैठकर केकड़ों  के क्रिया कलाप देखते। कभी गाँवों में रहते  रिश्तेदारों से मिलवा लाते तो कभी ताश या शतरंज खेलने के बहाने उसका मनोरंजन करते। समीर के भीतर भीषण खलबली – सी मची हुई थी, जिसे केवल गौतम समझ पा रहे थे। एक बचपन का मित्र ही शायद ऐसा कर सकता है।

भाग दो

देखते ही देखते छह महीने बीत गए। समीर अब फिर से हँसने लगे, बोलने लगे लोगों से मिलकर खुशी ज़ाहिर करने लगे। जिस तरह भारी वर्षा के बाद जब बादल छँट जाते हैं तब दसों दिशाएँ चमकने लगती हैं, एक ताज़ापन-  सा प्रसरित हो उठता है। बस कुछ इसी तरह समीर भी मानो काली घटाओं को पीछे धकेलकर बाहर निकल आए थे।

घर से दूर काफी लंबे समय तक रह लिए थे। यद्यपि सुमिता के बिना घर खाली था पर उसकी यादें उसे पुकार रही थी। अब वे घर लौटना चाहते थे। वे जानते थे सुमिता के बिना घर में रहना कठिन होगा पर कब तक सच्चाई से भागते भला!

गौतम के साथ एक दिन आखिर एयरपोर्ट आ ही गए। एयरपोर्ट के बाहर ही भारी भीड़ दिखाई दी तो दोनों मित्र उस भीड़ में शामिल हुए यह देखने के लिए कि शायद कोई दुर्घटना घटी हो तो सहायता दे सकें।

देखा एक अधेड़ उम्र की महिला रो रही थी और सिक्यूरिटी व पुलिस वाले उससे सवालात कर रहे थे। पास जाकर देखा तो वह महिला समीर के बहुत दूर के रिश्ते की बहन मीनू दीदी थीं। जिनसे वह कुछ माह पहले ही मिलकर आए थे। समीर से आँखें मिलते ही मीनू दीदी “भाई मुझे बचाओ ” कहकर रोने लगीं। उसे शांत किया, पानी पिलाया, भीड़  हटाई गई। एयर पोर्ट के विसिटर लाऊँज में ले जाया गया उसे। थोड़ा स्वस्थ होने पर मीनू दीदी ने जो कुछ कहा वह सुनकर उपस्थित लोग हतप्रभ हो गए।

एक माह पूर्व उनका बेटा अमेरिका से आया था। वह जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से निकला मेधावी छात्र था। नौकरी भी अच्छी मिली थी फिर विदेश जाने का मौका मिला। कुछ वर्ष वहीं अमेरिका में काम करता रहा। शादी हुई, बच्चा हुआ हर साल एक बार परिवार को लेकर आता रहा। इस बार वह अकेला आया और माँ को साथ लेकर जाने की ज़िद करने लगा। पास – पड़ोस के लोगों ने भी मीनू दीदी के भाग्य की सराहना की कि बेटा माँ का ध्यान रखने के लिए साथ रखना चाहता है। बेटे ने कई विभिन्न कागज़ातों पर माँ के अँगूठे लगवाए। पुश्तैनी हवेली थी जिसकी गिरती हालत थी पर ज़मीन की कीमत चढ़ी हुई थी। संपत्ति अच्छे दाम पर बेचकर सारा रुपया पैसा बैंक में जमा किया गया। माँ -बेटे का जॉइंट अकाउंट था। वह निरक्षर थी, जैसा बेटा कहता गया वह करती रही। एक सूटकेस में अपने थोड़े कपड़े और गहने लेकर वे उस दिन सुबह एयरपोर्ट आए। बेटे ने माँ को एयरपोर्ट के बाहर एक काग़ज़ हाथ में लेकर बिठाया और अभी आता हूँ कहकर अपना सामान लेकर जो गया तो अब तक नहीं लौटा।

पिछले पाँच घंटों से मीनू दीदी अपने सूटकेस के साथ बैठी रही। इतनी देर से वहीं होने के कारण सिक्यूरिटी ने सवाल -जवाब करना शुरू किया। उनके हाथ में जो कागज़ थमाकर उनका बेटा गया था वह था मेट्रोरेल का टिकट!! जब उनसे पासपोर्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोलीं कि उनके पास कुछ भी नहीं हैं और पासपोर्ट क्या चीज़ होती है वे नहीं जानतीं। एक यात्री ने अपना पासपोर्ट दिखाया तो उन्होंने कहा कि उनके बेटे के हाथ में उन्होंने वैसी पुस्तक देखी थी। अमेरिका जानेवाली एवं उड़ान भर चुकी एयरलाइंस से मालूमात किए जाने पर ज्ञात हुआ कि मीनू दीदी का बेटा माँ को छोड़कर निकल चुका था।

समीर और गौतम  मीनू दीदी को गौतम के घर ले आए। बैंकों में जाकर पता किया तो पाया कि लाखों रुपये जो हवेली बेच कर मिले थे उसमें से पच्चीस हजार छोड़कर बाकी रकम मीनू दीदी के बेटे ने अपने अलग बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कर लिया था। वेलप्लैन्ड प्लॉट !!!! उफ़ भयंकर योजना!!!!

मीनू दीदी को उनके गाँव वापस तो नहीं भेज सकते थे, निंदा होती सो अलग गाँववाले जीना कठिन कर देते तिस पर अब रहने का कोई ठौर था नहीं।

कुछ दिन बाद समीर मीनू दीदी को लेकर अपनघरशहर, अपने घर लौट आए। दोनों दुखी थे एक को धोखा दिए जाने का दर्द था और दूसरे के जीवन संगिनी के विरह का दुख। पर दोनों ने एक दूसरे को संभाल लिया। सहारा दिया विश्वास और भरोसा दिया।

अब मीनू दीदी ने घर संभाल लिया। समीर की बेटियाँ आती जाती रहतीं, उनके बच्चे आते और मीनू पीशी ( बुआ ) के स्नेह का आनंद उठाते।

इस घटना ने समीर मुखर्जी को एक नई दिशा दी। मीनू दीदी के बेटे जैसे हज़ारों होंगे जो माँ – बाप को ठगते हैं, घर से निकाल देते हैं, बेसहारा कर देते हैं। उनकी निरक्षरता का संतान लाभ भी उठाती हैं। इसलिए समीर ने अपने ही बंगले के एक हिस्से में ‘ क्रेश फॉर दी ओल्ड ‘ की व्यवस्था की। जिन लोगों को कभी बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती पर बूढ़े माता-पिता को साथ लेजाना संभव न होता वे देख – रेख के लिए तथा कुछ समय के लिए अपने माता-पिता को समीर के क्रेश फॉर दी ओल्ड में छोड़ जाते। यह व्यवस्था पूरे वकालती कागज़ातों पर हस्ताक्षर लेकर पूरे  किए जाते ताकि छोड़कर भागने का मार्ग न मिले !

मीनू दीदी को घर परिवार मिला, इज्ज़त मिली, अपने मिले। वे  अपने कर्त्तव्यों को खूब अच्छे से निभाने लगीं और समीर मुखर्जी आज एक अच्छे समाज सेवक बन गए। उनका घर भर गया, अकेलापन दूर हुआ।

आज उनके इस क्रेश फॉर दी ओल्ड में दो बूढ़े पिता, एक दंपति और दो बूढ़ी माताएँ रहती हैं। मनुष्य कुछ करना चाहता है पर ईश्वर उससे कुछ और ही करवाते हैं।

आज हमारे समाज के द गुड समरीतान हैं समीर मुखर्जी!!!

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 265 ☆ संस्मरण – लंदन से 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय संस्मरण लंदन से 1

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 265 ☆

? संस्मरण लंदन से 1 ?

ब्रिटेन की पार्लियामेंट के सामने ही महात्मा गांधी मिले।

मंद ठंडी बयार में लहराते कामनवेल्थ देशों के झंडे, अन्य अनेक महापुरुषों के बुतों के साथ अपने अंदाज में सत्य की लाठी के साथ डटे हुए।

लंदन में अपनी मांग, आवाज, आंदोलन, इसी पार्क में उठाई  जाती हैं। (भारत के जंतर मंतर की तरह)

यद्यपि इंग्लैंड में बब्बर शेर या टाइगर  नहीं होते, पर फिर भी इसे इंग्लैंड के राष्ट्रीय पशु के रूप में मान्यता दी गई है।

यहां की महत्वपूर्ण इमारतों के स्वागत द्वार पर शेरों की मूर्तियां लगी हुई हैं।

शेरों को लंबे समय से ताकत के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह जंगल का सर्वथा शक्तिशाली प्राणी होता है।

इंग्लैंड के इतिहास में 12 वीं सदी से यहां के शासको प्लांटैजेनेट परिवार के समय से सिंह की छबि और मूर्तियों को सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रतिपादित किया गया, और यह परंपरा आज तक कायम है।

दरअसल इंग्लैंड की संस्कृति में धरोहर, परंपरा और इतिहास को बहुत महत्व दिया जाता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग- 8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

मित्रो! आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह जालंधर में ऐसा क्या है जो बार बार वही जाता हूँ! जालंधर में मैने कलम पकड़नी सीखी और शायद पत्रकारिता का क, ख, ग, भी यहीं से सीखा और पहले सीखा प्रेसनोट लिखना! कैसे भला? ‘विचारधारा’ के जितने आयोजन होते, बाद में मेरी जिम्मेदारी हो गयी कि गोष्ठी की पूरी रिपोर्ट लिखकर अखबारों के कार्यालय में पहुंचाऊं, क्योंकि मेरी हिंदी की लिखावट थोड़ी अच्छी थी और उन दिनों फोटोस्टेट करवा कर प्रेसनोट बांटा जाता था! मुझे स्कूटर चलाना कभी नहीं आया तो कोई स्कूटर वाला सहयोगी अपने स्कूटर के पीछे बिठाकर हर अखबार के दफ्तर ले जाता और इस तरह प्रेसनोट लिखने का शऊर सीखा। हालांकि दूसरे दिन समाचार प्रकाशित होने पर उस खबर का पोस्टमार्टम किया जाता कि ऐसा क्यों लिखा, ऐसे क्यों नही लिखा? मतलब मुद्दे की बात कहाँ है? जो समाचार कोई संदेश लोगों के बीच  मुद्दा ही स्पष्ट न कर पाये, वह  समाचार कैसा? तो इस तरह अनजाने ही पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ते गये!

अब आपका परिचय अपने एक और दोस्त व कथाकार सुरेंद्र मनन से करवाता हूँ जो जालंधर के होने के बावजूद , मेरे सम्पर्क में चंडीगढ़ में आये! वे चंडीगढ़ में नौकरी कर रहे थे और रमेश बतरा के साथ चंडीगढ़ में हमारी दोस्ती का सफर शुरू हुआ! जालंधर भी कुछ मुलाक़ातें हुईं लेकिन ज्यादा मुलाकातें चंडीगढ़ में हुईं। इनका पहला कथा संग्रह उठो लछमीनारायण आया! इसके बाद कैद में किताब, फिर ये चंडीगढ़ से भी उड़ान भर दिल्ली जा पहुंचे, वहां इनकी रूचि दस्तावेजी फिल्में बनाने में बढ़ती गयी और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते! पर फिर कहानी की ओर लौटे तब बर्षो बाद कथा संग्रह आया-अहमद अल हिल्लोल कहां हो? इतने बर्षों बाद मुझे याद रखा और वह कथा संग्रह हिसार के पते पर भेजा!

कैद में किताब और शिलाओं पर लिखे शब्द हिल्लोल भी आया! मैं इस दोस्त से जब फोन पर बात शुरू करता हूं तब हर बार कहता हूँ, हां भई सुरेंद्र मनन, नाम तो है मनन, भावें मेरी गल्ल मन्नन या न मन्नन ! फिर हम हंसते हुए नयी ताज़ी पूछते हैं, अपनी अपनी अपनी खैर खबर देते हैं! बेशक हमारी रूबरू मुलाक़ात पिछले कई सालों से नहीं हुई लेकिन दोस्ती बरकरार है! यह दोस्ती ज़िदाबाद! अब मिलने की इच्छा भी बलवती होती जा रही है!

जालंधर में मेरी एक लम्बे समय से महिला गीता डोगरा भी दोस्तों की सूची में शामिल हैं, जो सिमर सदोष और हिंदी मिलाप के माध्यम से परिचय के दायरे में आईं और‌ वैसे तो अमृतसर की थीं लेकिन विवाह जालंधर में हुआ तो समारोहों में मिलना जुलना होता रहा! ये वहां पहले पंजाब केसरी से जुड़ी रहीं  फिर दैनिक जागरण से! आजकल त्रिवेणी साहित्य मंच चला रही हैं और अनेक पुस्तकों‌ की रचना कर चुकी हैं, त्रिवेणी को कभी पालमपुर तो कभी मोगा तक ले जाती हैं। नाटक भी लिखा जो लूणा के दर्द पर केंद्रित है और पंजाब की श्रेष्ठ कहानियाँ का संपादन भी किया, जिसमें मेरी कहानी मंगवाकर सम्मानपूर्वक प्रकाशित की! बीच में साहित्यिक पत्रिका भी निकाली, उसमें भी मेरी रचनायें आती रहीं वैसे गीता डोगरा सबसे ज्यादा अमृता प्रीतम से प्रभावित हैं! इसीलिए इनकी पत्रिका भी  अमृता प्रीतम की पत्रिका नागमणि के आकार की है और‌ नाम भी है पारसमणि ! लघुकथा लेखन भी किया और बहुत ही भावुक कविताओं के संकलन भी इनके नाम हैं ‌आजकल थोडा़ अस्वस्थ रहती हैं, फिर भी साहित्य लेखन जारी है। संयोग देखिए की आज गीता का जन्मदिन है और अचानक इस ओर‌ मेरा ध्यान गया!इनकी स्वस्थता की दुआ करते आज जालंधर की यादों को यहीं पर विराम दे रहा हूँ। फिर मिलेंगे जालंधर की यादों के साथ!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… – झबरू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  झबरू)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – झबरू  ?

हमारा शहर अत्याधुनिकता की ओर पुरज़ोर अग्रसर हो रहा है और मेट्रो बनाने का काम भी तीव्र गति से चल रहा है। ऐसे में भीड़-भाड़वाले इस विशाल शहर में जब ट्रैफिक रुकती है तो इंसान चाहे तो एक पावर नैप ले ही सकता है।

सुबह के आठ बजे थे। इस समय दफ्तर जानेवालों की भीड़ एकत्रित हो रही थी और मैं अपनी बिटिया को एयरपोर्ट से लाने के लिए निकली थी। यात्रा लंबी थी और कई ट्रैफिक लाइट पर रुकने की मानसिक तैयारी मैं भी कर चुकी थी।

ट्रैफिकलाइट के पास गाड़ी रुक गई। गाड़ी के रुकते ही फूलवाले, कूड़ा रखने के पैकेटवाले और टिश्यूपेपर बॉक्स वाले गाड़ियों के आसपास काँच पर टोका मारते हुए घूमने लगे। सुबह का समय था तो इन सबके साथ नींबू और मिर्ची बाँधकर बेचनेवाले भी घूम रहे थे और भीड़ में खड़े टैक्सीवाले बहुनी के चक्कर में उन्हीं को अधिक महत्त्व दे रहे दे।

मेरी नज़र रास्ते की बाईं ओर थी क्योंकि बाहर बिकनेवाली किसी भी वस्तु में मुझे रुचि नहीं थी। बाईं फुटपाथ पर एक आठ -नौ  बरस का लड़का अपनी  बाईं कमर पर साल दो साल के बच्चे को पकड़े हुए था और उसके दूसरे हाथ में एक पन्नी में गरम चाय थी। शायद सुब-सुबह अपने माता पिता के लिए किसी टपरी से चाय ले जा रहा था।

वह भी रास्ता पार करने के लिए ही खड़ा था पर उसे जल्दी न थी। वह अपनी कमर को इस तरह हिलाता कि गोद का बच्चा थिरक उठता और साथ ही खिलखिलाता। अपने छोटे भाई को खिलखिलाते देख उसका कमर नचाना बढ़ गया और वह और स्फूर्ति से उसे हँसाता।

मुझे उस दृश्य को देखने में आनंद आ रहा था। दरिद्रता में संतोष की छवि का दर्शन मिल रहा था। प्रसन्न रहने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं इस बात को यह बालक स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा था। मेरी दृष्टि बस उस भीड़ में उसी को देख पा रही थी। मौका मिलते ही वह रास्ता पार कर अपनी माँ के पास पहुँचा जहाँ वह गुलाब के फूलों का गुच्छा बना रही थी।

गाड़ी चल पड़ी और मेरी आँखों के सामने अचानक झबुआ खड़ा हो गया। झबुआ उत्तर प्रदेश के बस्ती का रहनेवाला था। उसका बाप कानपुर शहर में साइकिल रिक्शा चलाता था। उसकी पत्नी का जब देहांत हो गया तो वह अपने बच्चे को कानपुर ले आया।

उन दिनों मेरी दीदी और जीजाजी कानपुर में ही रहा करते थे। शिक्षा विभाग में उच्च पदस्थ थे तो बहुत बड़ा बँगला जो बाग- बगीचे से सुसज्जित था  और नौकर – चाकर की सुविधा सरकार की ओर से उपलब्ध थी। झबरू का बाप उनके बंगले के बाहरी हिस्से में जहाँ एक गेट हमेशा बंद रहता था वहाँ अस्थाई व्यवस्था कर रहा करता था। प्रातः हैंडपंप के पानी से नहाता, अपनी धोती धोकर फैला देता और सत्तू खाकर निकल पड़ता। उसकी गठरी वहीं पड़ी रहती। दीदी को अगर पास – पड़ोस में जाना होता तो वह उसी रिक्शेवाले के साथ चली जाया करती थी।

दीदी का लड़का साल भर का ही था। झबरू का बाप एक दिन झबरू को लेकर दीदी के पास आया और झबरू को नौकर रखने के लिए कहा। आठ -नौ साल का बच्चा क्या काम करेगा ? पर झबरू के बाप की परेशानी देखकर उसे घर पर रख लिया गया। उसे दीदी के बच्चे को संभालने का काम दिया गया। वह दिन भर बच्चे के साथ खेलता उसे अपनी कलाबाज़ी दिखाता, उसे अपनी गोद में लेकर बगीचे में घूमता और दोनों खूब खुश रहते।

झबरू को बागवानी का शौक था तो वह माली का एसिस्टेंट भी बन गया था। धनिया, पुदीना, हरीमिर्च, पालक, मेथी टमाटर पत्तागोभी आदि घर के बगीचे में उगाए जाते। झबरू का काम बड़ा साफ़ था। वह बगीचे से झरे हुए पत्ते उठाकर बगीचा साफ़ रखता। लॉन पर रखी बेंत की कुर्सी मेज़ साफ़ करता। शाम को लॉन में पानी डालता और दीदी जीजाजी की सेवा में जुटा रहता।

दीदी का लड़का स्कूल जाने लगा, स्कूल ले जाने -लाने की ज़िम्मेदारी भी झबरू के पिता ने सहर्ष ले ली। इधर झबरू भी बड़ा होने लगा। दीदी के हाथ के नीचे कई छोटे -बड़े काम करने लगा। उन दिनों गरीब बच्चों को पढ़ाने -लिखाने की बात पर लोग खास विचार नहीं करते थे। पर झबरू जब सोलह वर्ष का हुआ तो जीजा जी ने उसे एक बढ़ई के हाथ के नीचे काम करने के लिए भेज दिया।

वह अभी भी उनके घर में ही रहता था। घर बुहारना, पोछा लगाना, रसोई में धनिया, मेथी पालक, पुदीना साफ़ कर देना, चूल्हा जलाना (उन दिनों गैस का प्रचलन नहीं था) आलू छील देना सब्ज़ी धोकर रखना आदि सारे काम कर नहा-धोकर नाश्ता खाकर टिफन लेकर काम सीखने जाने लगा।

झबरू बहुत हँसमुख, खुशमिजाज़, मिलनसार तथा  हुनरमंद लड़का था। हर काम को सीखने की उसकी तीव्र इच्छा और त्वरित सीख लेने की योग्यता ने जीजाजी की आँखों में उसे विशेष स्थान दिया था। दीदी के लिए वह घर का सेवक मात्र था पर हाँ दीदी उसकी अच्छी देखभाल करतीं और स्नेह भी।

जिस बच्चे को झबरू गोद में लेकर घूमता था वह भी अब बड़ा हो गया था। वह अब नौवीं में पढ़ता था और झबरू शायद बाईस -तईस साल का था। कानपुर के किसी बड़े कॉलेज में फर्नीचर बनाने का बड़ा कॉन्ट्रेक्ट हीरालालको दिया गया। झबरू हीरालाल के पास ही काम सीखता था।

झबरू ने जी-जान से सभी प्रकार के फर्नीचर बनाए। मेज़, अलमारी, साहब के लिए शानदार कुर्सी, ग्रंथालय के लिए डेस्क सब कुछ नायाब डिज़ाइन के बनाए गए और झबरू की कुशलता स्पष्ट दिखाई दी। उसकी खूब प्रशंसा भी की गई। अब रोज़गार भी खूब बढ़ गया।

झबरू की उम्र बढ़ती रही, कामकाज भी अच्छा करने लगा, हाथ में अच्छा रुपया पैसा आ गया तो उसने गंगा के किनारे एक खोली किराए पर ले ली। आवश्यक वस्तुएँ जुटाकर कमरा सजाया और बाप को लेकर वहाँ रहने गया।

झबरू मेरी दीदी को माई कहता था और जीजाजी को बड़े बाबू। उसके जाने पर जिस कमरे में वह रहता था उसकी सफ़ाई की गई। एक लोहे के बक्से में बढ़ई के काम के औज़ार मिले। कुछ काँच के रंगीन टुकड़े, कँचे, गंगा के गोल-  गोल पत्थर, गुलेल, भैया जी के ड्रॉइंग पेपर के कई कागज़ जिस पर फ़र्नीचर के पेंसिल से डिज़ाइन निकाले गए  थे। कुछ गुलाब की सूखी पंखुड़ियाँ चिपका कर डिज़ाइन बनाए गए पुराने कागज़ भी मिले। कानपुर की मिट्टी थोड़ी सफेद सी होती है जिसमें बालू भी मिश्रित रहती है। मिट्टी के कई गोले मिले जिन्हें सुखाकर उस पर कई सुंदर आकृतियाँ उकारी गई  थीं। मसूरदाल चिपकाकर एक  सुंदर स्त्री का चित्र मिला जो देखने में कुछ कुछ मेरी दीदी जैसा ही था। अगर झबरू को पढ़ना लिखना आता तो शायद वह उस चेहरे के नीचे माई लिख डालता। सभी वस्तुओं को देखकर दीदी के नैन डबडबा उठे थे। एक योग्य लड़के को जीवन में खास अवसर न दे पाने का शायद उन्हें पश्चाताप भी होने लगा था।

झबरू जब से पिता को लेकर गंगा पार रहने गया था तब से वह भी फिर कभी लौटकर नहीं आया। कई  वर्ष बीत गए। दीदी का लड़का पढ़ने के लिए लखनऊ यूनिवरसिटी चला गया तो जीजाजी ने अपना भी ट्रांसफर करा लिया।

एक दिन घर के दरवान ने आकर कहा कि कोई वृद्ध व्यक्ति उनसे मिलना चाहता है। अपना नाम वह रसिकलाल बताता है। जीजाजी तुरंत बाहर बरामदे में आए। वृद्ध कोई और नहीं झबरू का बाप था। जीजाजी को देखते ही पैर पकड़कर फूटफूटकर वह रोने लगा। शांत होने पर बोला उसके बेटे को पुलिस पकड़कर ले गई। कृपया उसे बचा लीजिए। मेरा बेटा निर्दोष है। कोई उसे फँसा रहा है।

जीजाजी की सरकारी दफ्तरों के उच्च पदस्थ लोगों के साथ न केवल परिचय था बल्कि उठना -बैठना भी था। पता चला कि झबरू खूब पैसा कमाने लगा तो गलत लोगों के संगत में रहने लगा था। वह वेश्याओं के यहाँ भी आना जाना रखता था। किसी एक पर उसका दिल आया था और वह नहीं चाहता था कि और कोई ग्राहक उसके पास जाए। बस एक दिन हाथापाई हो गई  और उसने आरी से अपनी प्रेमिका और ग्राहक दोनों को मार डाला।

पुलिस पकड़कर ले गई। बाप को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि झबरू ऐसा काम कर भी सकता था। पर अब हत्या का आरोप था वह भी एक नहीं दो हत्याओं का। रसिकलाल बेटे को बचाना चाहता था पर जीजाजी को जब पता चला कि उसे शायद फाँसी की सज़ा सुनवाई जाएगी तो उन्होंने उसे यह कहकर लौटा दिया कि उनसे जो बन पड़ेगा वे करेंगे।

साल दो साल बीत गए। एक दिन समाचार पत्र में झबरू की फाँसी का समाचार आया। जिस दिन उसे फाँसी दी गई उसके बाप को मृतदेह ले जाने के लिए बुलवाया गया। शाम हो गई पर वह न आया। रात के समय पता चला कि गंगा में पेट पर पत्थर बाँधकर  रसिकलाल ने आत्महत्या कर ली।

घटना तो बहुत ही पुरानी है पर आज ट्रैफिक पर खड़े उस खुशमिज़ाज बालक ने झबरू की यादें किसी फिल्म के रील की तरह आँखों के सामने घुमा दी। मैं झबरू से बहुत बार दीदी के घर मिल चुकी थी। आज उसे याद कर अनायास ही मेरे कपोलों पर अश्रु ढुलक पड़े।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-7 – ताप के ताये हुए दिन‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-7- ताप के ताये हुए दिन‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

इधर तीन चार दिन आप सबसे मुलाकात न कर सका! आपने नये कथा संग्रह- सूनी मांग का गीत के फाइनल प्रूफ देखने के काम में व्यस्त हो गया!

चलिए आपको फिर जालंधर लिए चलता हू। आज कुछ और मित्रों से आपका परिचय करवाता हूँ और कुछ साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी बातें भी करूंगा! पंजाब साहित्य अकादमी और  बड़े भाई सिमर सदोष की यादें पहले आपको सुना चुका हूँ। आज अवतार जौड़ा और हम सभी मित्रों की संस्था विचारधारा की बात करूँगा, जिसकी बैठक हर माह में एक बार होती थी और इसमें भी दिल्ली से रमेश उपाध्याय,आनंद प्रकाश सिंह जैसे अनेक वरिष्ठ रचनाकारों को विशेष तौर पर आमंत्रित किया जिससे कि हमें न केवल अपने विचार बल्कि विचारधारा को समझने का अवसर मिल सके। यानी मीरा दीवानी की तरह

संतन डिग बैठि के

 मैं मीरा दीवानी हुई!

अपने से ज्यादा अनुभवी रचनाकारों से सीखने समझने की कोशिश रही। मुझे अपनी एक कहानी -देश दर्शन का पाठ करने का सुअवसर मिला था और वहाँ मौजूद मित्र व उन दिनों ‘लोक लहर’ पंजाबी समाचारपत्र से आये सतनाम माणक ने वह कहानी तुरंत मांग ली जिसे उन्होंने पंजाबी में अनुवाद कर अपने समाचारपत्र में प्रकाशित किया! इस तरह समझ लीजिये  कि हम अगर इकट्ठे बैठ कर कुछ विचार विमर्श करते  हैं तो हमारी समझ बनती है और‌ नयी राहें खुलती हैं। आज सतनाम माणक जालंधर से निकलने वाले अजीत समाचारपत्र में संपादक हैं और बीच बीच में उनकी ओर से कुछ विषयों पर लिखने का न्यौता आ जाता है। पंजाबी अजीत में भी मेरी रचनायें आज भी प्रकाशित होकर आती हैं जिन पर फोन नम्बर होने के चलते पंजाब से अनेक मित्रों की प्रतिक्रिया सुनने को मिलती है। इस तरह जालंधर से जुड़े रहने का अवसर सतनाम माणक बना देते हैं।

आगे मुझे जनवादी लेखक संघ की याद है जिसके अध्यक्ष प्रसिद्ध आलोचक व सौंदर्य शास्त्र के लिए जाने जाते डाॅ रमेश कुंतल मेघ थे और यही प्रिंसिपल रीटा बावा से मुलाकातें हुईं। मुझ जैसे नये रचनाकार को भी इसकी कार्यकारिणी में स्थान मिला! इसमें एक खास विचारधारा से जुड़े साहित्य पर आयोजन किये जाते! इसमें प्रसिद्ध आलोचक डाॅ शिव कुमार  मिश्र की कही बात आज भी स्मृतियों में एक सीख की तरह गांठ बांध रखी है कि प्रेमचंद ऐसे ही प्रेमचंद नहीं हो गये, उन्होंने अपने समय की खासतौर पर किसान और गांव की समस्याओं को गहरे समझ कर गोदान जैसा बहुप्रशंसित उपन्यास लिखा जो विश्व की 127 भाषाओं में अनुवादित हुआ। प्रेमचंद‌ ने बहुत सरल भाषा में बड़ी बातें कही हैं और इस तरह कठिन को सरल बनाना बहुत ही मुश्किल काम है। यह भी कहा कि काले ब्लैक बोर्ड पर  सफेद चाॅक से ही कोई नयी इबारत लिखी जा सकती है यानी लेखक काले समाज को अपनी कलम से कल्याणकारी बना देता है!

कितनी बातें सीखने समझने को मिलतीं ! कुछ समय पूर्व ही पंचकूला में डाॅ रमेश कुंतल मेघ ने आखिरी सांस ली और रीटा बावा को महाविद्यालय में मिले आवास में बड़ी बेरहमी से मौत के  घाट सुला दिया गया। वे एक बार‌ हिसार‌ के फतेह चंद कन्या महाविद्यालय यूजीसी की टीम की सदस्यता के रूप में आई दी तब प्रिंसिपल डाॅ शमीम शर्मा ने मुझे बुलाया था और इस तरह वर्षों बाद‌ जनवादी लेखक संघ के दो पुराने साथी मिल पाये थे! आज के लिए शायद इतना ही काफी!

वे विचार विमर्श के ताप के ताये हुए दिन आज भी याद हैं!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-6 – कौई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-6 – कौई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

सच! कितनी प्यारी पंक्तियाँ हैं :

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

प्यारे प्यारे दिन,

वो मेरे प्यारे पल छिन!

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!

नहीं हम सब जानते हैं कि बीते हुए दिन कभी नहीं लौटते, बस उन दिनों की यादें शेष रह जाती हैं। मेरे पास भी बस यादें ही बची हैं, जालंधर में बिताये सुनहरी दिनों कीं! बात हो रही थी डाॅ तरसेम गुजराल के संपादन में प्रकाशित कथा संकलन ‘खुला आकाश,  की और उसमें प्रकाशित कथाकारों की ! इसमें खुद तरसेम गुजराल, रमेश बतरा, योगेन्द्र कुमार मल्होत्रा (यकम), राजेन्द्र चुघ, रमेंद्र जाखू, कमलेश भारतीय, सुरेंद्र मनन, विकेश निझा वनऔर मुकेश सेठी जैसे दस कथाकार शामिल थे। आपस में हम सब मज़ाक में कहते थे कि हम दस नम्बरी लेखकों में शामिल हैं। हम में से विकेश निझावन अम्बाला शहर में रहते थे जिन्होंने आजकल “पुष्पांजलि’ जैसी शानदार मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर रखा है। इनके पास मैं और मुकेश सेठी नवांशहर से अम्बाला जाते और उन बसंती दिनों में रात का सिनेमा शो भी देखते। विकेश निझावन की कहानियों को जालंधर दूरदर्शन पर नाट्य रूपांतरण कर प्रसारित किया गया तब उनकी खूब चर्चा हुई। यही नहीं उन्हें हिसार में प्रसिद्ध कवि उदयभानु हंस ने हंस पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया। जिन दिनों मुझे हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया  तब हिसार से चंडीगढ़ जाते या लौटते समय मैं ड्राइवर को उनके घर गाड़ी रोकने को कहता। विकेश निझावन का घर बिल्कुल मेन सड़क पर ही है और हम चाय की चुस्कियों के साथ पुराने दिनों को याद करते। इनके पापा डाॅक्टर थे।विकेश ने पुष्पगंधा’ के कथा विशेषांक में मेरी कहानी भी चुनी। छोटे बच्चों का स्कूल यानी किनरगार्डन भी चलाते रहे।

 हम वरिष्ठ व चर्चित कथाकारों स्वदेश दीपक व राकेश वत्स के संग भी बैठते और कथा लिखने पर बातें करते करते कथा लेखन की बारीकियाँ भी सीखते!  अफसोस आज न स्वदेश दीपक हैं और न ही राकेश वत्स! स्वदेश दीपक के प्रथम कथा संग्रह- अश्वारोही को हम दोनों ने राजेन्द्र यादव के अक्षर प्रकाशन से मंगवाया और खूब डूब कर, गहरे से पढ़ा। ये अलग तरह की कहानियों का संकलन है। स्वदेश दीपक फिर एच आर धीमान के सुझाव पर नाटक लिखने लगे और उनका लिखा नाटक-कोर्ट मार्शल न जाने देश भर में कहां कहां मंचित किया गया! फिर उन्होंने मेरे द्वारा दैनिक ट्रिब्यून के लिए हुई इंटरव्यू में कहा भी कि कहानियों के पाठक कम और नाटक के दर्शक ज्यादा होते हैं और इनका दर्शकों पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। देर तक मन पर प्रभाव बना रहता है। दुख यह है कि स्वदेश दीपक के अंदर कहीं गहरे उदासी और आत्मघाती भावना किसी कोने में रहती थी जिसके चलते एक बार रसोई गैस सिलेंडर से खुद को जला लिया और पीजीआई, चंडीगढ़ में दाखिल करवाया गीता भाभी ने! उन दिनों तक मैं देनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक हो चुका था। यह सन् 1990 के आसपास की बात होगी ! मैने संपादक विजय सहगल को यह जानकारी दी तो उन्होंने मेरे साथ फोटोग्राफर मनोज महाजन को भेजा कि उनसे हो सके तो कुछ बात करके आऊं‌! हम दोनों पीजीआई गये। बैड के पास गीता भाभी उदास बैठी थीं और मनोज ने पट्टियों में लिपटे स्वदेश दीपक की फोटो खींची और मैने रिपोर्ट लिखी- ‘स्वदेश दीपक को अपनों का इंतजार’ जिसमें चोट हरियाणा साहित्य अकादमी पर की गयी थी कि ऐसे चर्चित कथाकार की कोई सहायता क्यों नहीं की जा रही। मेरी रिपोर्ट का असर भी हुआ। अकादमी ने बिना देरी किये पांच हजार रुपये देने की घोषणा कर दी। इस रिपोर्ट की कटिंग बहुत साल तक मेरे पर्स में पड़ी रही। पता नहीं क्यों? तब तो स्वदेश दीपक बच गये क्योंकि अभी उन्हें हिंदी साहित्य को शोभायात्रा जैसा नाटक और मैने मांडू नहीं देखा जैसी कृतियाँ देनी थीं लेकिन फिर कुछ वर्षों बाद वही आत्मघाती भावना ने जोर मारा और वे बिना बताये घर से चले गये! कोई नहीं

जानता कि उनका अंतिम समय कहाँ और कैसे हुआ!  राकेश वत्स भी पिंजौर जाते हुए बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त हुए और उनके इलाज़ उपचार में शास्त्री नगर में बनाया खूबसूरत मकान भी बिक गया लेकिन वे नही बच पाये! वैसे वे स्कूटर पर ही चंडीगढ़ आते जाते। हमने भी उनके स्कूटर की सवारी का लुत्फ चंडीगढ़ में अनेक बार उठाया। उनकी भी इंटरव्यू करने जब अम्बाला छावनी गया था तब अपना शानदार मकान दिखाते बड़े चाव से बताया था कि यह मकान मैंने अपनी मेहनत से बनाया है लेकिन अफसोस वही मकान बेच कर भी उन्हें बचाया न जा सका! राकेश वत्स सरस्वती विद्यालय नाम से प्राइवेट संस्था चलाते थे और उन्होंने ‘मंच’ नामक पत्रिका भी निकाली और ‘सक्रिय’ कहानी आंदोलन चलाने की कोशिश की जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। दोनों की कहानियों को मैंने हरियाणा ग्रंथ अकादमी की कथा समय पत्रिका में प्रकाशित किया और सम्मान राशि इनके परिवारजनों को भिजवाई। स्वदेश दीपक की कहानी महामारी और राकेश वत्स की कहानी आखिरी लड़ाई प्रकाशित की। तब इनकी पत्नी नवल किशोरी ने मुझे आशीष दी थी, आज वे भी इस दुनिया में नहीं है। स्वदेश दीपक की सम्मान राशि  इनकी बेटी पारूल को भिजवाई जो अब इंडियन एक्सप्रेस में सीनियर पत्रकार हैं और उसका पंजाब विश्वविद्यालय में एडमिशन फाॅर्म लेकर देने मैं ही उसे लेकर गया था, प्यारी बेटी की तरह क्योंकि मैं दैनिक ट्रिब्यून की ओर से पंजाब विश्वविद्यालय की कवरेज करता था तो मेरी सीनियर डाॅ रेणुका नैयर ने पारूल को विश्वविद्यालय लेकर जाने को कहा था। पारूल आज भी मेरे सम्पर्क में है। राकेश वत्स के बेटे बल्केश से कभी कभार बात हो जाती है !

खैर! आप भी सोचते होंगे कि कहाँ जालंधर और कहाँ अम्बाला छावनी पर  मैं और मुकेश सेठी एकसाथ अम्बाला छावनी और जालंधर जाते थे और बाद में चंडीगढ़ भी साथ रहा। मुकेश सेठी और जालंधर के किस्से कल आपको सुनाऊंगा!

आज यहीं विराम देना पड़ेगा यही कहते हुए कि –

कोई लौटा दे मेरे बीते पल छिन‌!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… – द ग्रेट नानी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  द ग्रेट नानी )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – द ग्रेट नानी  ?

मैं डॉरोथी किंग्सवेल।

अपनी पच्चीसवीं सालगिरह मनाने के लिए मैं पहली बार भारत आई थी। यद्यपि यह पहली यात्रा थी मेरी पर ऐसा लगता रहा मानो हर शहर मेरा परिचित है। हर चेहरा मेरे देशवासियों का है, मेरे अपने हैं। यह मेरी जन्मभूमि तो नहीं है पर फिर भी मुझे यहाँ सब कुछ अपना – सा महसूस होता रहा। इस तरह के भावों के लिए मैं अपनी नानी की शुक्रगुजार हूँ।

इस संस्मरण को पूर्णता प्रदान करने के लिए हमें थोड़ा अतीत में जाना होगा क्योंकि यहाँ तीन पीढ़ियाँ और तीन स्त्रियों का जीवन रचा- बसा है।

तेईस वर्ष की उम्र में मेरी माँ एम. एस. करने अमेरिका गई थीं। वहीं उनकी मुलाकात मेरे पापा से हुई थी। पापा नेटिव अमेरिकन  हैं जिन्हें अक्सर आज भी भारतीय रेड इंडियन कहते हैं। माँ ने जब पापा से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की तो नाना – नानी असंतुष्ट हुईं। माँ कुछ समय के लिए भारत लौट आईं। फिर छह माह बाद उन्हें USA में काम मिल गया और वे लौट गईं। उन्होंने पापा से विवाह कर लिया और वहीं बस गईं। फिर कभी भारत न आईं।

माँ की शादी होने पर तीन साल तक नाना – नानी उनसे नाराज़ रहे। मेरी माँ नाना- नानी की इकलौती औलाद थीं, बड़े लाड़ – प्यार से पाला था उन्हें। इस तरह स्वेच्छा से शादी कर लेने पर उनके दिल को भारी ठेस पहुँची थी। नानी बैंक में उच्च पदस्थ थीं । मृदुभाषी, मिलनसार महिला थीं।

मैं जब इस संसार में आनेवाली थी तो नाना -नानी सारी कटुता भूल गए। कहते हैं असली से ज्यादा सूद प्रिय होता है। नानी ने छह महीने की छुट्टी ली और पहली बार अमेरिका आईं। माँ – बेटी के बीच का मनमुटाव दूर हुआ। नानी ने  माँ की और मेरी खूब सेवा की और फिर भारत लौट आईं। बाकी छह माह फोन पर और फिर कंप्यूटर पर चैटिंग,  ईमेल आदि द्वारा बातचीत जारी रही। अपनी बढ़ती उम्र के साथ -साथ नानी के साथ मैं जुड़ी रही। मेरी दादी और बुआ जी भी आती – जाती रहती थीं।

मैं नानी के बहुत करीब थी। साथ रहती तो मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। बचपन से उन्होंने मुझे हिंदी भाषा से परिचित करवाया। भारतीय संस्कृति, कथाएँ, राम ,कृष्ण और अन्य देवों की कथा सुनाई। भारतीय शूरवीर महाराणाओं, राजाओं , रानियों की कथा सुनाई। भारत की आज़ादी और गुलामी के कष्टों की  दास्तां सुनाती रहीं , विविध उत्सवों का महत्त्व समझाया और भारत देश के प्रति मेरे मन में जिज्ञासा और प्रेम को पनपने का मौका दिया।

मेरे पापा एक अच्छे पिता हैं,एक अच्छे इंसान भी हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन अपनी जाति के लोगों की सुरक्षा और अधिकार दिलाने में समर्पित कर दिया। वे लॉयर हैं। उन्होंने माँ को सब प्रकार की छूट दी और हम भारत से दूर रहकर भी भारतीय त्योहार मनाते रहे, गीत- संगीत का आनंद लेते रहे। हमें दोनों संस्कृतियों के बीच आसानी से तालमेल बिठाने का अवसर भी पापा ने ही दिया। पापा के कबीले की कहानियाँ, उन पर सदियों से होते आ रहे जुल्मों की कथा दादी सुनाया करती थीं। मुझे दोनों देशों और संस्कारों से परिचित करवाया गया। न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता जैसे इन दोनों देश की  कथाएँ एक जैसी हैं। यह मेरा सौभाग्य ही है कि मैं दो अलग संस्कृतियों को समझने और उसका हिस्सा बनने के लिए अमेरिका में जन्मी।

नानी हर साल आतीं, छह माह रहतीं और मुझे इस भारत जैसे सुंदर देश से परिचित करवाती रहतीं। यह सिलसिला मेरी सत्रह वर्ष की आयु तक चलता रहा। मैं जब सत्रह वर्ष की हुई तो ग्रेज्यूएशन के लिए होस्टल में भेज दी गई। अमेरिका का यही नियम है।नानी का भी अमेरिका आना अब बंद हो गया। इस बीच नाना जी का स्वर्गवास हुआ।

मेरी नानी एक साहसी महिला हैं। नानाजी के जाने के बाद भी वे स्वयं को अकेले में संभाल लेने में समर्थ रहीं। अब तक हम  दोनों खूब एक दूसरे के करीब आ गईं थीं।अब हम एक दूसरे के साथ विडियो कॉल करतीं। खूब मज़ा आता। अब वह मेरी सबसे अच्छी सहेली हैं।

इस साल नानी का भी पचहत्तरवाँ जन्म दिन था। उन्होंने मुझे बताया था कि अब उन्हें बड़े घर की ज़रूरत  नहीं थी। वे अकेली ही थीं तो एक छोटा घर किराए पर लिया था। अपना मकान बेचकर सारी रकम बैंक में जमा कर दी और छोटे से घर में रहने गईं। वहाँ पड़ोसी बहुत अच्छे थे। उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होने देते थे।

मैं अमेरिका से उनसे मिलने आई तो मेरे आश्चर्य  की कोई सीमा न थी। नानी शहर से दूर एक वृद्धाश्रम में रहती थीं। जहाँ उनके लिए एक कमरा और स्नानघर था । इसे ही वे अपना छोटा – सा  घर कहती थीं। वे खुश थीं, उस दिन वृद्धाश्रम में धूमधाम से उनका जन्मदिन मनाया गया। उनकी कई सहेलियाँ आई थीं जो अपने परिवार के साथ रह रही थीं।

मेरी नानी सकारात्मक दृष्टिकोण रखती हैं, सबसे स्नेह करती हैं, क्षमाशील हैं। मैं अब अपने घर लौट रही हूँ । अपने साथ एक अद्भुत ऊर्जा लिए जा रही हूँ। नानी ने मुझे जीवन को समझने और जीने की दिशा दी। कर्त्तव्य  करना हमारा धर्म है। फल की अपेक्षा न रखें तो जीवन सुखमय हो जाता है। अपनी संतानों के प्रति कर्त्तव्य करो पर अपेक्षाएँ न रखो।

मैं उमंग,  उम्मीद और उत्साह से भर उठी। प्रतिवर्ष नानी से मिलने आने की मैंने प्रतिज्ञा कर ली।

अपने जीवन में कुछ निर्णय स्वयं ही लेने चाहिए ये मैंने अपनी नानी से ही सीखा।

(डॉरोथी किंग्सविल की ज़बानी)

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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