मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? सूर्यास्त ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

? सूर्यास्त ?

 

का भिडतो हा अस्त जिवाला

नित्य पडते कोडे मनाला

का घ्यावा अस्ताचा ध्यास

अन का रूजवावा मनी ऊर्जेचा -हास

 

सतत तळपत्या सूर्यालाही

का बघावे होतांना म्लान

क्षितिजाआड दडणा-या बिंबाचे

का ऐकावे मूक गान

 

मूक  गहिरी रंगछटा

व्यापी भूतल, चराचरास

आसमंती अन् जळी घुमती

भैरवीचे सूर उदास

 

चैतन्याच्या ह्या सम्राटाचे

घायाळ करी अस्तास जाणे

सांजसावल्यांसवे कातरवेळीचे

मंदमंद पदरव हे जीवघेणे

 

उदयास्ताची मैफल

अनोख्या रंगात रंगलेली

जन्ममृत्युच्या अटळतेची

कहाणी क्षितिजावर कोरलेली

 

©  सौ. ज्योति हसबनीस

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(कर्मयोग का विषय)

 

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।

बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

 

सांख्य योग यह,सुन जरा बुद्धियोग की बात

सुन अर्जुन! जिससे न हो तुझे कोई व्याघात।।39।।

 

भावार्थ :  हे पार्थ! यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कर्मयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 में इसका विस्तार देखें।) विषय में सुन- जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

 

This which  has  been  taught  to  thee,  is  wisdom  concerning  Sankhya.  Now  listen  to wisdom concerning Yoga, endowed with which, O Arjuna, thou shalt cast off the bonds of action!

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Positive Education: Teaching well-being to Young People ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Positive Education: Teaching well-being to Young People

Positive education pairs traditional schooling with positive psychology interventions to improve well-being.
Positive education is based on the science of well-being and happiness.

Positive Education is an approach to education that blends academic learning with character and well-being. It prepares students with life skills such as: grit, optimism, resilience, growth mindset, engagement, and mindfulness amongst others.
Positive education views school as a place where students not only cultivate their intellectual minds, but also develop a broad set of character strengths, virtues, and competencies, which together support their well-being.
Positive education is a whole-school approach to student and staff well-being: it brings together the science of positive psychology with best-practice teaching, encouraging and supporting individuals and communities to flourish.
Positive Education focuses on specific skills that assist students to strengthen their relationships, build positive emotions, enhance personal resilience, promote mindfulness and encourage a healthy lifestyle.
Positive Education brings together the science of Positive Psychology with best practice teaching to encourage and support individuals, schools and communities to flourish. We refer to flourishing as a combination of ‘feeling good and doing good’.
In consultation with world experts in positive psychology and based on Seligman’s PERMA approach, the Geelong Grammar School developed its ‘Model for Positive Education’ to complement traditional learning – an applied framework comprising six domains: Positive Relationships, Positive Emotions, Positive Health, Positive Engagement, Positive Accomplishment, and Positive Purpose. This model has been augmented with four fundamental active processes that underpin successful and sustained implementation of positive education: Learn It, Live It, Teach It, and Embed It.
Widespread support is necessary for the success of the positive education movement.
Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ ठगी ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

☆ ठगी ☆ 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  भारत के लोकतन्त्र के महापर्व  “चुनाव” की पृष्ठभूमि  पर  रचित कटु सत्य को उजागर करती है। )

“काय कलुआ के बापू, इत्ती देर किते लगाये दई । वा नेता लोगन की रैली तो तिनै बजे बिला गई हती ना । दो सौ रुपैया तो मिलइ गए हुइहें?”

रमुआ कुछ देर उदास  बैठा रहा, फिर उसने बीवी से कहा – “का बताएं इहां से तो वो लोग लारी में भरकर लेई गए थे और कही भी हती थी कि रैली खतम होत ही दो सौ रुपइया और खावे को डिब्बा सबई को दे देहें, मगर उन औरों ने हम सबई को ठग लऔ। मंत्री जी की रैली खतम होवे के बाद ठेकेदार ने खुदई सब रुपया धर लओ और हम  सबई को धता बता दओ । हम  ओरें  शहर से गांव तक निगत निगत आ रए हैं । लौटत में बा लारी में भी हम औरों को नई बैठाओ । बहुतै थक गए हैं । आज की मजूरी भी गई और कछु हाथे न लगो,अब तो तुम बस एकइ लोटा भर पानी पिलाए देओ – ओई से पेट भर लेत है ।”

रमुआ की बीवी ऐसे ठगों को बेसाख्ता  गाली बकती हुई अंदर पानी लेने चली गई ।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? सुनहरे पल……… ? – सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

? सुनहरे पल……… ?

 

(सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी का हार्दिक e-abhivyakti में स्वागत है। “सुनहरे पल…….” एक अत्यंत मार्मिक एवं भावुक कविता है। इस भावप्रवण एवं सकारात्मक संदेश देने वाली कविता की रचना करने के लिए सुश्री बलजीत कौर जी की कलम को नमन। आपकी रचनाओं का सदा स्वागत है। )  

 

कुछ पल……

ठहरे तो होते,

 

क्यों तोड़ दी उम्मीद तुमने!

क्यों छोड़ दिए हौंसले तुमने!

 

ये असफलताएँ,

वो कष्ट!

ये रोग,

वो दर्द!

ये बिछोह,

वो विराग!

इतने भी तो नहीं थे वो ख़ास!

क्यों छोड़ दी तुमने वो आस!

 

जानते हो कोई कर रहा था,

तुम्हारा इन्तज़ार!

किन्हीं झुर्रिदार चेहरे,

धुंधली निगाहों के थे तुम,

एकमात्र सहारा !

पर तुमने तो एक ही झटके में,

उन्हें कर दिया बेसहारा!

 

तुम्हारा यह दर्द

क्या इतना…….?

हो गया था असहनीय!

कि अपने जीते-जागते उस

अदम्य-शक्ति से भरपूर

शरीर को, बिछा दिया!

मैट्रो की पटरी पर

और …………..

उफ़!

गुज़र जाने दिया,

उन सैंकड़ों टन वजनी डिब्बों को

अपने ऊपर से…………

वो चटख़ती हड्डियों की आवाज़………..

वो बहते रक्त की फुहार………..

क्या उस क्षण……!

जीवन के वो सुनहरे पल,

नहीं आए थे तुम्हें याद!

कि कहीं से बढ़कर,

रोक लेते तुम्हें कोई हाथ!

 

काश…….!

कि देख पाते तुम….

उसके बाद का

वो मंज़र…….

लोगों के चेहरों पर चिपके

मौत का वो ख़ौफ़………!

प्लेटफॉर्म पर पसरा

वो सन्नाटा………!

 

और एक वो तुम

कि जिसने………

जीवन की असफलताओं,

अपनी कमजोरियों,

से घबराकर

लगा लिया

मौत को यूँ गले!

और फिलसने दिया

एक खूबसूरत ज़िंदगी को

अपने इन्हीं हाथों से

रेत के मानिंद

 

जानते हो ……..

कुछ सुनहरे पल

कर रहे थे

तुम्हारे धैर्य की परीक्षा!

एक खुशहाल ज़िंदगी…….!

उज्ज्वल भविष्य…….!

पलक-पाँवड़े बिछाए……..

बस! तुम्हारे उन

दो सशक्त

कदमों का ही

कर रहा था इंतज़ार……..

हाय!

 

कुछ पल……..

ठहरे तो होते……..!

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय

 

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ☆ किती वाचले? ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ किती वाचले?  ☆

(श्री सुजित कदम जी का यह आलेख वास्तव में हमें पुस्तकों की दुनिया से रूबरू कराता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि आज पुस्तकों के पाठक कमतर होते जा रहे हैं और यहाँ तक कि पुस्तकालयों का अस्तित्व भी खतरे में है। यह आलेख समाज में पुस्तकों  के महत्व को अवगत कराता है।)

आयुष्यात आपण किती कमवलं ह्या पेक्षा किती वाचलं हा विचार जोपर्यंत आपण करत नाही..तो पर्यंत आपण फक्त श्वास घेण्यापूरता जन्माला आलोय असं समजावं..,कारण पुस्तके वाचताना आपल्याला पुस्तकातली एखादी व्यक्तीरेखा आपलीशी वाटू लागते..

ती व्यक्तीरेखा आपण जगत जातो.. किबंहूना जगत असतो..,अशा एक ना अनेक पुस्तकातून आपणच आपल्याला नव्याने घडवत जातो.

ही जडण घडण होताना समाजाचा एक भाग बनून रहाता आल पाहिजे. जहालाशी जहाल आणि मवाळाशी मवाळ संवाद साधता आला की माणस  आपोआप जवळ येतात. पुस्तकांसारखे ती ही बरंच काही शिकवून जातात.

आवडत्या पुस्तकाची तर आपण कित्येक पारायण करतो .. का? तर त्यात कुठेतरी, आपल्याला मनासारखं जग, जगण्याची जिद्द, समाधान, वास्तवतेचं भान, आणि योग्य दिशा असं बरचं काही मिळत जातं ..

आपण माणसं… एक वेगळ्याच विश्वात वावरत असतो..जोपर्यंत आपल्याला आपला फायदा दिसत नाही तोपर्यंत आपण त्याकडे लक्ष देत नाही…,!

वाचनाचे फायदे म्हणाल तर…,ते माणसांच्या स्वभावा प्रमाणेच बदलत जाणारे आहेत.., काहीना पुस्तक जिवापाड आवडतात तर काहींना पुस्तकं वाचताना झोप येते..,!

आयुष्यास कंटाळून आत्महत्ये सारखा विचार करणाऱ्यानी…एकदा तरी पुस्तकांना आपलंस करून पहावं…! आजकालच्या मुलांना पुस्तकं वाचता का..?

विचारल्यावर.., आम्ही फक्त आभ्यासाची पुस्तकं वाचतो हेच उत्तर मिळत..खरतरं…,शाळेच्या पुस्तका बाहेर ही पुस्तकांच भलमोठं जग आहे  हे त्यांना कळतच नाही..!

शाळेची पुस्तकं आपल्याला चौकटीतलं जग दाखवतात तर साहित्यिक  पुस्तकं आपल्याला चौकटी बाहेरच जग दाखवतात….!

वास्तवतेचं भान..,आणि बदलत्या समाजाशी जूळवून घेण्याची जाण.., वाचना शिवाय अशक्य आहे…!

एकदा वाचनाची आवड निर्माण झाली की  आपोआप वाचनाची सवय लागते.  वाचनाची सवय व्यासंगात रूपांतरित होते.  सुखाच्या दुःखाच्या काळात ही पुस्तके समाजातील  आपले स्थान बळकट करतात.

आपण जे वाचतो ते विचारात येतं. विचारातून आचारात येतं, आणि आचारातून कृतीत येतं. वाचनाचे संस्कार व्यक्तीला  अनुभवाचे विचार म॔थन करायला शिकवतात.  ज्ञान देण्याच कार्य पुस्तके करतात. ते स्वीकारण्याचे कार्य आपले आहे. मत परिवर्तन  आणि समाज प्रबोधन करण्याचे प्रचंड सामर्थ्य वाचनात  आहे.

म्हणूनच जाणकारांनी म्हणून ठेवलय, ”ज्याने वाचल तो वाचला  आणि ज्याने साचवलं तो सडला!”

आणि म्हणूनच …, आयुष्यात आपण किती कमवलं ह्या पेक्षा, किती वाचलं ? हा विचार जोपर्यंत आपण करत नाही..तो पर्यंत आपण फक्त श्वास घेण्यापुरते आणि  आपल्या प्रथमिक गरजा मागविण्यात पुरते  जन्माला आलोय असं समजावं..,!

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626.

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)

 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।।38।।

 

सुख दुख को सम मान कर लाभ हानि सम जान

धर्म कार्य है युद्ध, उठ , हार औ” जीत समान।।38।।

 

भावार्थ :   जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा।।38।।

 

Having made pleasure and pain, gain and loss, victory and defeat the same, engage thou in battle for the sake of battle; thus thou shalt not incur sin. ।।38।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ The first step to being spiritual ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

The first step to being spiritual

It has been said in the Dhammapada, “Abstain from all unwholesome deeds, perform wholesome ones, purify your mind – this is the teaching of enlightened persons.”

What are unwholesome deeds and what are the wholesome ones?

Any action that harms others, that disturbs their peace and harmony is a sinful action, an unwholesome action. Any action that helps others, that contributes to their peace and harmony, is a pious action, a wholesome action.

There are three types of Wrong Conduct a human being is capable of – Wrong Conduct with Words, Wrong Conduct with Body and Wrong Conduct with Mind.

WRONG CONDUCT WITH WORDS

There are four sub divisions of Wrong Conduct with Words – false speech, slanderous speech, harsh speech and idle chatter.

Abstaining from false speech:
Herein someone avoids false speech and abstains from it. One speaks the truth, is devoted to truth, reliable, worthy of confidence, not a deceiver of people.

Abstaining from slanderous speech:
One avoids slanderous speech and abstains from it. What one has heard here one does not repeat there, so as to cause dissension there; and what one has heard there one does not repeat here, so as to cause dissension here.

Abstaining from harsh speech:
One avoids harsh language and abstains from it. One speaks such words as are gentle, loving, soothing to the ear; such words as go to the heart, and are courteous, friendly, and agreeable to many.

Abstaining from idle chatter:
One avoids idle chatter and abstains from it. One speaks at the right time, in accordance with facts, speaks what is useful, one’s speech is like a treasure, uttered at the right moment, accompanied by reason, moderate and full of sense.

WRONG CONDUCT WITH BODY

There are three sub divisions of Wrong Conduct with Body – taking life, taking what is not given and sexual misconduct.

Abstaining from the taking of life:
Herein someone avoids the taking of life and abstains from it. Without stick or sword, conscientious, full of sympathy, one is desirous of the welfare of all sentient beings.

Abstaining from taking what is not given:
One avoids taking what is not given and abstains from it; what another person possesses of goods and property, that he does not take away with thievish intent.

Abstaining from sexual misconduct:
One avoids sexual misconduct and abstains from it.

WRONG CONDUCT WITH MIND

There are three sub divisions of Wrong Conduct with Mind – covetousness, ill will and wrong view.

Abstaining from covetousness:
Here someone avoids being covetous: one is not a coveter of another’s goods and property.

Abstaining from ill-will towards others:
One avoids a mind of ill-will and hatred towards other beings.

Abstaining from wrong view:
One avoids wrong view, distorted vision.

WHOLESOME ACTIONS

There are three types of Right Conduct a human being is capable of – Right Conduct with Words, Right Conduct with Body and Right Conduct with Mind.

How can one “perform wholesome” deeds? One can perform wholesome deeds by practising right speech, right action, and right conduct with mind.

Right speech means speaking in ways that are trustworthy, harmonious, comforting, and worth taking to heart. When you make a practice of these positive forms of right speech, your words become a gift to others.

Right action is behaving peacefully and staying in harmony with fellow human beings.

Right mental conduct is having goodwill for others and cultivating the right view.

To “purify your mind”, you have to cultivate wholesome states and abandon unwholesome states by seeking wisdom and practising meditation.

This is the essence of the teaching of enlightened persons.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मेरी बिटिया ☆ – डॉ ऋतु अग्रवाल

डॉ ऋतु अग्रवाल 

☆ मेरी बिटिया ☆

(आज प्रस्तुत है प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री डॉ ऋतु अग्रवाल जी की  कविता “मेरी बिटिया”।  संयोगवश  आज के ही अंक में  सुश्री निशा नंदिनी जी की  एक और कविता “परिभाषा बेटियों की ” भी प्रकाशित हुई है  और बेटियों से ही संबन्धित सुश्री नीलम सक्सेना  चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविता  “Tearful Adieu” कल प्रकाशित की थी । निश्चित ही आपको ये तीनों कवितायेँ  बेहद पसंद आएंगी।)

 

मेरी आन है मेरी शान है बेटी

मेरी सांसों की पहचान है बेटी

ममता का एहसास है बेटी

कुदरत का एहसान है बेटी

बाती बन दिए की, दूर करती अंधेरा

रोशनी बन लाती, मेरे जीवन में सबेरा ।

 

मेरे सपनों की बहार है बेटी

खिलते फूलों की मुस्कान है बेटी

मेरे आंगन की किलकारी है बेटी

मेरे जीवन सफर के, हर कदम की शान बनी

निराशा से आस बनी बेटी

मेरी बुलबुल, मेरी आंखों की पुतली है

मेरा हंसना, मेरा बिछौना है मेरी बेटी ।

 

बेटी के आने से घर में बहार आयी

पुलकित को गए रिश्ते, खुशियां ही खुशियाँ छायी

मुझ में भर दिया ममत्व

सत्कर्म से मिला, वरदान है मेरी बेटी |

 

© डॉ.ऋतु अग्रवाल 

 

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – ? मोरपीस ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

? मोरपीस  ?

(सुश्री ज्योति हसबनीस जी की लेखनी में एक अद्भुत क्षमता है किसी भी वस्तु, शब्द अथवा भावों को परिभाषित करने की अथवा किसी भी विधा में साहित्य रचने की। संभवतः ‘मोरपीस’ अथवा ‘मोरपंख’ अथवा ‘मोर का पंख’ अनायास ही हमारे नेत्रों के समक्ष न केवल मोर के उस कोमल पंख की झलक दिखलाता है अपितु यह आलेख बचपन से लेकर अब तक की हमारी स्मृतियों में विस्मृत करने हेतु पर्याप्त है।)  

एखाद्या शब्दाची कशी आपली एक स्वतंत्र ओळख असते, अस्तित्व असतं. त्याचं दिसणं, असणं, जाणवणं, अगदी रंग, रूप, स्पर्शासकटच अगदी खास त्याचं त्याचंच असतं . गुलाब म्हटला की पाकळ्या पाकळ्यातून डोकावणारा राजबिंडा रूबाब अगदी रूतणाऱ्या काट्यासकट डोळ्यासमोर येतो, तर मोगरा म्हटला की अगदी श्वासा श्वासात भरभरून तनमन धुंद करणारी मोगऱ्याची ओंजळच नजरेसमोर येते, तर प्राजक्त बकुळीचं नाव जरी उच्चारलं तरी नाजुक फुलांचा अंगणभर पडलेला सडा आणि तो नाजूक दिमाख मिरवणारं श्रीमंत अंगणच डोळ्यासमोर साकारतं! रंग रूप स्पर्श गंधाचं अवघं जगच त्या त्या शब्दांमध्ये सामावलेलं असतं.

असाच एक शब्द मोरपीस ! माझ्या फार फार आवडीचा ! कुणी स्तुती केली, जरा शब्दांनी मला कुरवाळलं की अगदी गालावर मोरपीसच फिरवल्याचा भास मला होतो. मोरपीसाचा मुलायम स्पर्श, त्याच्या लोभस रंगछटा, त्याच्या सौंदर्याचं गारूड इतकं आहे ना मनावर की ते सारं मला त्याक्षणी जाणवतं आणि ते शब्द जणू मोरपीसच होऊन माझ्या गालावर आणि नकळत मनातच रूंजी घालू लागतात !!

मोरपीस…बालपणातला अमूल्य खजिना ! पुस्तकात दडवलेलं /दडपलेलं मोरपीस म्हणजे जणू कुबेराची श्रीमंतीच आपली! केवढा तोरा ते ऐश्वर्य मैत्रिणीला दाखवतांना ..बालपणीचा मुलायम स्पर्श ल्यालेलं श्रीमंतीची पहिली ओळख घडवणारं सुंदर मोरपीस …!

मोरपीस ….मेघांनी व्यापलेल्या नभाकडे बधून उत्फुल्लतेने पिसारा फुलवून बेभान नाचणाऱ्या मोराचं पीस ! पावसाची चाहूल लागताक्षणी जलधारांचा उत्सव डोळ्यात जागवत आनंदविभोर होऊन नृत्य करणारा  मोर आणि त्याचा सुंदर पिसारा ..किती मोठा आशावाद सूचित करणारा ..!

मोरपीस …इतिहासातली किती तरी प्रेमपत्रे ह्याने खुलवली असणार, प्रेमाच्या जगातले सारे शब्द आपल्या  स्निग्ध आर्जवासकट ह्याच्याच मदतीने इष्ट स्थळी पोहोचले असणार, प्रेमी जनांच्या विश्वात अनोखे रंग भरणारं मोरपीस …!

‘मोरपीस’ …..चायनाला’ गेले असतांना तिथे ‘Su embroidery’ हा अनोखा प्रकार बघितला . त्यात कलाकुसर करतांना जे धागे वापरले होते ना त्यात एक मोरपीसाचा धागा पण होता. कित्ती नाजूक, सुंदर, रेखीव आणि नीळ्या हिरव्या रंगांची कलाकुसर डोकवत होती मधून मधून …!

आणि हेही ‘मोरपीसच’…. ‘सावळ्याच्या’ दैवी स्पर्शाने पावन झालेलं, अनोख्या ऐटीत त्याच्या मुकुटात विराजमान झालेलं, शतपटीने देखणं दिसणारं, डौलात विहरणारं… परमात्म्याशी नातं जोडणारं अलौकिक मोरपीस..!

 

©  सौ. ज्योति हसबनीस

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