हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 50 – पास से, जब तू गुजर जाता है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पास से, जब तू गुजर जाता है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 50 – पास से, जब तू गुजर जाता है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

पास से, जब तू गुजर जाता है 

पाँव तब मेरा बहक जाता है

*

तुम जो झूठे ही रूठ जाते हो

मेरा दम सच में निकल जाता है

*

मेरी मंजिल करीब है लेकिन 

फासला और भी बढ़ जाता है

*

उसके आने से फूल खिलते हैं 

फिर भी आने से वह लजाता है

*

इत्र जब तुम वहाँ लगाते हो

गाँव खुशबू से महक जाता है

*

मेरा मंदिर, यहीं-कहीं होगा 

रास्ता, तेरे ही घर जाता है

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 126 – पीर थक कर सो गई है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “पीर थक कर सो गई है…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 126 – पीर थक कर सो गई है… ☆

 पीर थक कर सो गई है,

प्रिय उसे तुम मत जगाओ।

हो सके तो थपकियाँ दे,

प्रेम की लोरी सुनाओ।।

 *

वेदनाओं की तरफ से,

अब नहीं आता निमंत्रण।

द्वार से ही लौट जाता,

हो गया दिल पर नियंत्रण।।

 *

अब नहीं संधान करता,

फिर न उसको तुम बुलाओ।

पीर थककर सो गई है,

प्रिय उसे तुम मत जगाओ।।

 *

वक्त कितना था बिताया,

उन मुफलिसी के दौर में,

झूलता ही रह गया था।

तब स्वप्नदर्शी जाल में,

 *

फिर मुझे उस पालने में।

अब नहीं किंचित झुलाओ।

पीर थक कर सो गई है।

प्रिय उसे तुम मत जगाओ ।।

 *

सुख सदा शापित रहा है,

द्वार पर आई न आहट।

आ गया था संकुचित मन

धर अधर पर मुस्कुराहट।

 *

जो विदा लेकर गया फिर,

उस खिन्नता को मत बुलाओ।

पीर थक कर सो गई है।

प्रिय उसे तुम मत जगाओ ।।

 *

पीर होती है घनेरी,

भावनाओं के सफर में।

वर्जनाएँ खुद लजातीं,

अश्रु धारा की डगर में।।

 *

देखने दो पल सुनहरे,

अब दृगों को मत रुलाओ।

पीर थककर सो गई है।

प्रिय उसे तुम मत जगाओ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व पृथ्वी दिवस विशेष – हरी-भरी🌱 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजीवनी लाकर मूर्च्छा को चेतना में बदलने वाले प्रभु हनुमान को प्रणाम। श्री हनुमान प्राकट्योत्सव की हार्दिक बधाई। ?

? संजय दृष्टि – विश्व पृथ्वी दिवस विशेष – हरी-भरी🌱? ?

🌳 माटी से मानुष तक इस हरियाली की रक्षा करें। विश्व पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएँ 🌳

🌳

मैं निरंतर रोपता रहा पौधे,

उगाता रहा बीज उनके लिए,

वे चुपचाप, दबे पाँव

चुराते रहे मुझसे मेरी धरती..,

भूल गए वे, पौधा केवल

मिट्टी के बूते नहीं पनपता,

उसे चाहिए-

हवा, पानी, रोशनी, खाद

और ढेर सारी ममता भी,

अब बंजर मिट्टी और

जड़, पत्तों के कंकाल लिए,

हाथ पर हाथ धरे

बैठे हैं सारे शेखचिल्ली,

आशा से मुझे तकते हैं,

मुझ बावरे में जाने क्यों

उपजती नहीं

प्रतिशोध की भावना,

मैं फिर जुटाता हूँ

तोला भर धूप,

अंजुरी भर पानी,

थोड़ी- सी खाद

और उगते अंकुरों को

पिता बन निहारता हूँ,

हरे शृंगार से

सजती-धजती है,

सच कहूँ, धरती ;

प्रसूता ही अच्छी लगती है!

🌳

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 7 – संस्मरण#1 – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 7 – संस्मरण ?

कुछ घटनाएँ, कुछ दृश्य और कुछ पढ़ी -सुनी बातें चिर स्मरणीय होती हैं। उस पर समय की कई परतें चढ़ जाती हैं और वह मन-मस्तिष्क के किसी कोने में सुप्त पड़ी रहती हैं। फिर कुछ घटनाएँ घटती हैं तो सुप्त स्मृतियाँ झंकृत हो उठती हैं।

कल अपनी एक सखी के घर भोजन करते समय बचपन की एक ऐसी ही घटना स्मरण हो आई जो सुप्त रूप से मानसपटल पर कुंडली मारकर बैठी थी।

घटना 1965 की है। हमें पुणे आकर तीन ही महीने हुए थे। हम चतुर्शृंगी मंदिर के पास रहते थे और यहाँ निवास करनेवाले सभी ब्राह्मण थे। हमारी सहेलियाँ भी उन्हीं परिवारों की ही थीं। सबका रहन -सहन अत्यंत साधारण ही था। यह बंगलों की कॉलोनी है। आज तीसरी पीढ़ी उन्हीं घरों में रहती है। सभी घर पत्थर के बने हुए हैं। यह सब कुछ हमारे लिए नया-नया ही था।

गणपति के उत्सव के दौरान एक दिन गौरी गणपति की स्थापना होती है और गणपति की दोनों पत्नियों की पूजा की जाती है। देवस्थान को खूब सजाते हैं, गौरी की मूर्ति का शृंगार करते हैं सुंदर सिल्क की साड़ी पहनाते हैं। गजरा और फूलों से मूर्तियाँ सजाई जाती हैं।

हमारी सहेली विद्या और संजीवनी के घर पर हम लड़कियों को दस बजे के समय भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था। हमारी माताएँ शाम को हल्दी कुमकुम के लिए आमंत्रित थीं।

रसोईघर में अंग्रेज़ी के L के आकार में दरी बिछाई गई थी। सामने चौकियाँ थीं उस पर बड़ा – सा एक थाल रखा हुआ था, बाईं ओर लोटा और पेला पानी से भरकर रखा गया था।

(उन दिनों गिलास से पानी पीने की प्रथा महाराष्ट्रीय ब्राह्मण या ज़मीदार परिवारों में नहीं थी।) चौकी के हर पैर के नीचे रंगोली सजाई गई थी। हम सात सहेलियाँ ही आमंत्रित थीं। हमें अभी मासिक धर्म न होने के कारण हम कन्या पूजा की श्रेणी में थीं। घर में घुसते ही हमें मोगरे के गजरे दिए गए।

भोजन परोसना प्रारंभ हुआ। अब सारी तस्वीरें मानसपटल पर स्पष्ट उभर रही हैं मानो कल की ही बात हो। दाईं ओर से परोसना प्रारंभ हुआ।

पहले थोड़ा सा नमक रखा गया, फिर एक नींबू का आठवाँ टुकड़ा, फिर धनियापत्ती की चटनी, थोड़ा सा आम का अचार, फिर चूरा किया गया कुरडी -पापड़, थोड़ी सी कोशिंबिर फिर अरबी के पत्ते से बनी आडू वडी वह भी एक, फिर उबले आलू की सूखी सब्ज़ी, एक चम्मच भर, कटोरी में भरवे छोटे बैंगन की सब्ज़ी, और फिर एक तरी वाली सब्ज़ी- आज स्मरण नहीं किस चीज़ की सब्ज़ी थी पर उसके ऊपर तरलता तेल आज भी आँखों में बसा है।

फिर आया एक छोटी सी कटोरी में दबाकर भरा सुगंधित गोल – गोल चावल का भात, (जिसे अंबेमोर कहते हैं। उन दिनों उच्च स्तरीय महाराष्ट्रीय यही खाते थे।) उस पर आया बिना छौंक की दाल जिसे मराठी में वरण कहते हैं और उस पर आया चम्मच भर घी ! संजीवनी -विद्या की माँ ने जिन्हें हम काकू पुकारते थे, हम सबके पैरों पर थोड़ा पानी डाला, अपने आँचल से पोंछा और हमें प्रणाम किया।

हम दोनों बहनें हतप्रभ सी थीं। कल तक हम ही झुक – झुककर हर अपने से बड़े को प्रणाम करती आ रही थीं आज कोई हमारी पूजा कर रहा है? आठ – नौ वर्ष की उम्र में हमारे लिए सब कुछ नया था। हम दिल्ली से आए थे जहाँ की संस्कृति भिन्न थी और बँगालियों की और भी अलग रीति -रिवाज़ हैं। (मैं बँगला भाषी हूँ)

हम दोनों बहनें आपस में बँगला में चर्चा करने लगीं कि कहाँ से शुरू करें, मैं तो थी ही बदमाश मैंने उससे कहा था -पक्षी के बीट की तरह इतनी – इतनी सी चीज़ें दीं। क्या कंजूस है काकू। छोड़दी (बँगला भाषा में छोटी दीदी) ने मेरी जाँघ पर चिमटी ली थी और बोली -चुप करके खा। फिर जैसे सबने खाया हमने भी खाया। फिर बारी आई रोटी की। रोटियाँ तोड़कर उसके चार टुकड़े किए गए और एक चौथाई टुकड़ा हमारी थाली पर डाली गईं। हम दोनों बहनों ने किसी तरह खाना खाया और दौड़कर रोते हुए घर आए।

छोटे थे, भाषा नहीं आती थी, माँ ने दोनों को बाहों में भर लिया। हम रो-रोकर जब सिसकियाँ भरने लगीं तो माँ ने पूछा क्या हुआ?

छोड़दी का मन बड़ा साफ़ था उसने हमारे चरण धोने, की बात पहले बताई। पर मुझे तो जल्दी थी अपनी कथा सुनाने की। सिसकियों से बँधी आवाज़ में मैंने कहना शुरू किया। वह कुछ बोलने गई तो मैंने अपनी बाईं हथेली से उसका मुँह बंद कर दिया और माँ से कहा- चिड़िया की बीट की तरह इतनी सी चटनी अचार दिए, नींबू का बहुत छोटा टुकड़ा थाली में रखा। जानती हो माँ पापड़ भी चूरा करके दिया और रोटियाँ फाड़कर टुकड़े में दिए। हम क्या भिखारी हैं या कुत्ते हैं जो इस तरह हमें खाना परोसा?  हम खूब रोए और सो गए।

उन दिनों महाराष्ट्र में लोग नाश्ता नहीं करते थे। दस बजे पूरा भोजन लेने की प्रथा थी। इसलिए शायद मराठी स्कूल ग्यारह या बारह बजे प्रारंभ होते थे।

बाबा दफ़्तर से भोजन के लिए घर आते थे। माँ ने हमारी व्यथा कथा सुनाई और साथ में कहा कि बच्चियाँ बहुत अपमानित महसूस कर गईं आप बात कीजिए।

शाम को बाबा ने महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति पर प्रकाश डाला, समझाया कि यह पठारी इलाका है, यहाँ के लोगों का भोजन हमसे अलग है। उनकी रोटियाँ बहुत बड़ी और पतली होती है, इसे वे घडी ची पोळी कहते हैं। तुम लोग एक रोटी न खा पाते इसलिए तोड़कर दी है। आज यहाँ के लोग गेहूँ की चपाती खा रहै हैं पर उनका मूल भोजन बाजरी और ज्वारी की रोटी है। जो पतली नर्म और बड़ी -बड़ी होती है। स्नेह और सम्मान के साथ इन बड़ी रोटियों के चार टुकड़े कर वे परोसी जाती हैं।

और कुरडई तोड़कर दिया क्योंकि पूरा पकड़कर खाने पर सब तरफ टुकड़े गिरते, बरबाद होता। उन्होंने तो तुम दोनों का सम्मान किया, स्नेह से भोजन कराया। जो और माँगते तो काकू फिर देतीं।

छोड़दी तुरंत बोली -हाँ हाँ काकू बार – बार वाढ़ू का, वाढ़ू का बोल रही थीं पर हम नहीं समझे।

इस घटना के बाद शाम को माँ के साथ हम फिर उनके घर गए। माँ ने हमारी गलत फ़हमी की बात काकू से कही। काकू ने हमें गले लगाया प्यार किया और हमने उन्हें झुककर प्रणाम किया। शायद सॉरी कहने की उन दिनों यही प्रथा रही थी।

किसी भी स्थान के भोजन के तौर -तरीकों से पहले उसकी जानकारी ले लेना आवश्यक है यह हमने अपने अनुभव से सीखा।

हम छोटे थे, नए -नए पुणे आए थे यहाँ की भाषा, लोग, पहनावा (महिलाएँ नौवारी साड़ी पहना करती थीं।) प्रथाएँ, त्योहार, इतिहास सबसे अपरिचित थे।

आज हमें 58 वर्ष हो गए यहाँ आकर। यहाँ का भोजन, भाषा, साहित्य पूजापाठ की परिपाटी से हम न केवल परिचित हुए बल्कि आज हमारी बेटियाँ गणपति जी का दस दिन घर में पूजा करती हैं। गौरी लाई जाती हैं हल्दी कुमकुम का आयोजन होता है।

कोशिंबिर, कुरडई हमारे भोजन की थाली का अंश है। हम वरण, आमटी, पोरण पोळी भी बनाकर चाव से खाते हैं। यहाँ तक कि हमारी तीसरी पीढ़ी आज मराठी भाषा ही बोलती है।

आज हम फिर एक बार पंगत में बैठकर वाढ़ू का सुनने की प्रतीक्षा करते हैं। अब तो वह संस्कृति और प्रचलन समाज से बाहर ही हो गए। प्रथा ही खत्म हो गई। उसमें आतिथ्य का भाव हुआ करता था। भोजन बर्बाद होने की संभावना कम रहती थी।

© सुश्री ऋता सिंह

22/5/23

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ विश्व पृथ्वी दिवस – मेरी मर्ज़ी ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ विश्व पृथ्वी दिवस – मेरी मर्जी ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

एक और पृथ्वी ढूँढ ली हमने।पहली तो संभाली न गई। चीन ने चेंगडू में चाँद बना लिया।  सूरज भी शायद। हम भी 2023 में चाँद पे जाने वाले थे। पानी लाने वाले थे मंगल से।

ब्रह्माण्ड ने पृथ्वी हमें खैरात में दी है। उसकी कीमत कैसे पता होती।

           एक नीला ग्रह

              गेंद जैसा बस।

साँसों का तरन्नुम, सपनों की श्वेतिमा,नेत्र मंजूषा में डूबती शाम के मंजर,कर्ण कुहरों में पेड़ों की सरगोशियां ,पहाड़ों तक पलकों का उठना,नज़रों से सुरचाप उठा लाना, घाटियों से मीठी सरगम का उमड़ना, झरने की बांहों में समा जाना——–

   सब कुछ उसी के बूते

🌹 हमने कहा – मैं जो चाहे करुं मेरी मर्जी

🌹 उसने भी दोहराया मैं जो चाहे करुं मेरी मर्जी

विश्व पृथ्वी दिवस मुबारक हो।

हमारे मन प्लास्टिक से मुक्त हों।

जय जय महीयसी मही

🌳🦚🐥

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 347 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष।)

?अभी अभी # 347 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष (Thorough gentleman

एक सज्जन पुरुष की क्या परिभाषा है, वह भला भी होता है, सभ्य भी होता है और चरित्रवान भी होता है। शिक्षित, विनम्र, सरल, और संस्कारी व्यक्ति को आप संभ्रांत भी कह सकते हैं। जिस व्यक्ति में सभी पुरुषोचित गुण होते हैं, उसे अंग्रेजी में thorough gentleman कहा जाता है।

एक बड़ा प्यारा बंगाली शब्द है मोशाय जिसे हमारे यहां महाशय कहते हैं। यूं तो सभी अच्छाइयां एक व्यक्ति में होना संभव नहीं है, फिर भी हमारे सभ्य समाज की मान्यताओं पर जो व्यक्ति खरा उतरता है, उसे हमें सज्जन अथवा संभ्रांत मानने में कोई संकोच नहीं होता।।

अंग्रेजी शब्द thorough का मतलब ही होता है, पूर्ण रूप से, अथवा अच्छी तरह से। मनोयोग से अध्ययन को thorough study कहा जाता है। बीमारियों की गहन जांच को भी thorough check up ही कहा जाता है। जेंटलमैन तो कोई भी हो सकता है, लेकिन thorough gentleman हर व्यक्ति नहीं होता।

भला आदमी, सीधा सरल इंसान, जिसमें शराफत कूट कूटकर भरी हो, उसे भी हम सज्जन ही तो कहते हैं। कहीं कहीं तो पसीने की तरह, ऐसे व्यक्ति के चेहरे से शराफत टपक रही होती है। डर है, कहीं इतनी शराफत ना टपक जाए, कि कुछ बचे ही नहीं।।

अंग्रेजी में एक कहावत है, He is every inch a gentleman. यानी उस आदमी की शराफत इंच टेप से नापी जाती होगी। हमारे समाज में भी तो कुछ लोग रहते हैं, जिनका कद ऊंचा होता है। कुछ समाज के मापदंड हैं, जो व्यक्ति की ऊंच नीच निर्धारित करते हैं। शायद इसीलिए हर आदमी ऊपर उठना चाहता है, इंच इंच, सेंटीमीटर के लिए मिलीमीटर से प्रयास करना पड़ता है।

बंगाल में एक लाहिड़ी महाशय हुए हैं, उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई नापना इतना आसान नहीं था। इनकी केवल एक तस्वीर ही उपलब्ध है, जिसके बारे में भी यह मान्यता है कि वह तस्वीर भी उनकी सहमति से ही कैमरे में कैद हो पाई, अन्यथा कोई फोटोग्राफर कभी उनकी तस्वीर कैद नहीं कर पाया।।

इतना ऊंचा कौन उठना चाहता है भाई। बस मानवीय गुण, नैतिकता, शराफत, ईमानदारी, विनम्रता, प्रेम और करुणा का समावेश हो हम सबमें। सबका उत्थान हो, लेडीज हों या जेंटलमैन, सभी thorough gentleman हों, सौम्य पुरुष हों, सौम्य महिला हों।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 277 ☆ व्यंग्य – जाति का नशा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – जाति का नशा। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 277 ☆

? व्यंग्य – जाति का नशा ?

भांग, तंबाखू, गुड़ाखू, अफीम, देशी शराब, विदेशी व्हिस्की, ड्रग्स, सब भांति भांति के नशे की दुकानें हैं। हर नशे का मूल उद्देश्य एक ही होता है, यथार्थ से परे वर्तमान को भुलाकर आनंद के एक तंद्रा लोक में पहुंचा देना।

अफीम के आनंद में कोई साधक परमात्मा से डायरेक्ट कनेक्शन खोज निकालता है। तो कोई वैज्ञानिक ड्रग्स लेकर अन्वेषण और आविष्कार कर डालता है। शराब के नशे में लेखक नई कहानी लिख लेते हैं। तंबाखू गुटका खाकर ड्राइवर लंबे सफर तय कर डालते हैं। परीक्षाओं की तैयारियां करने में

चाय काफी सिगरेट के नशे से स्टूडेंट्स को मदद मिलती है। बीड़ी के धुंए से मजदूर अपनी मजबूरी भूल मजबूती से काम कर लेते हैं। और शाम को दारू के नशे में शरीर का दर्द भूल जाते हैं।

दिमाग का केमिकल लोचा सारी शारीरिक मानसिक शक्तियों को एकाग्र कर देता है। यूं बिना किसी बाहरी ड्रग के भी यौगिक क्रियाओं से दिमाग को इस परम आनंद की अनुभूति के लिए वांछित केमिकल्स खुद उत्पादित करने की क्षमता हमारे शरीर में होती है। उसे सक्रिय करना ही साधना है। नन्हें शिशु को मां के दूध से ही वह परमानंद प्राप्त हो जाता है कि वह बेसुध लार टपकाता गहरी नींद सो लेता है। प्रेमियों को प्रेम में भी वही चरम सुख मिलता है। जहां वे दीन दुनिया से अप्रभावित अपना ही संसार रच लेते हैं।

जातियां, धर्म, क्षेत्रीयता, राष्ट्रवाद, भाषाई या राजनैतिक अथवा अन्य आधारों से ध्रुवीकरण भी किंबहुना ऐसा ही नशा उत्पन्न करते हैं कि लोग बेसुध होकर आपा खो देते हैं। जातीय अपमान की एक व्हाट्स अप अफवाह पर भी बड़े बड़े समूह मिनटों में बहक जाते हैं। इस कदर कि मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं।

कभी समाज में विभिन्न कार्यों के सुचारू संचालन हेतु कोई कार्य विभाजन किया गया था। कालांतर में यह वर्गीकरण जातियों में बदल गया। ठीक उसी तरह जैसे आज साफ्टवेयर इंजीनियर, वकील, डाक्टर्स, आई ए एस वगैरह का हाल है, परस्पर कार्यों की समुचित समझ और स्टेट्स की समानता के चलते कितने ही विवाह इस तरह के ग्रुप में समान कार्यधर्मी से होते दिखते हैं।

जातियां बड़े काम की चीज हैं, आरक्षण की मांग हो, सरकारी योजनाओं के लाभ लेने हों, तो लामबंद जातीय समीकरण नेताओ को खींच लाते हैं, और मांगे पूरी हों न हों, आश्वासन जैसा कुछ न कुछ तो हासिल हो ही जाता है। जातीय संख्या राजनीति को आकर्षित करती है। लाम बंद जातियां नेताओ को वोट बैंक नजर आती हैं। गिव एंड टेक के रिश्ते मजबूत हो जाते हैं। समूह के हित जातियों के लिए फेविकोल सा काम करते हैं।

बेबात की बात पर जात बाहर और भात भोज से जात मिलाई, तनखैया घोषित कर देना, फतवे जारी कर देना जातीय पंचायतों की अलिखित ताकत हैं। बहरहाल हम तो कलम वाली बिरादरी के हैं और हमारा मानना है कि जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 189 – भरतांश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “भरतांश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 189 ☆

🌻 लघुकथा 🙏भरतांश🙏

आज त्रेता युग बीते बरसों हो गए हैं। परंतु राम भरत मिलाप की कथा जहाँ भी होती है। सभी के मन को भाव विभोर कर देता है।

द्वेष, अहंकार, घृणा, जलन, बिना वजह बुराई सब अवगुण आदमी के बहुत जल्दी उजागर होते हैं। परन्तु ममता, करुणा, दया, प्रेम, सहानुभूति, क्षमा, श्रद्धा, आदि सभी गुण मानव उभरने नहीं देता।

रथी और देव का विवाह बड़े ही धूमधाम और पारिवारिक माहौल में संपन्न हुआ। कहते हैं परिवार में सभी सदस्यों को खुश नहीं रखा जा सकता। कहीं ना कहीं चूक हो ही जाती है और यदि नहीं हुआ तो समझो उस विवाह का प्रचार जोर-शोर  से नहीं होता। 

रथी के भैया राघव ने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ा था। अपनी बहन के विवाह की तैयारी में।

विवाह बहुत ही सुंदर और सादगी से संपन्न हुआ, परंतु किसी बात से असंतुष्ट रथी का पति ‘देव’ अपने ससुराल से इस कदर नफरत करने लगा कि उसने रथी का आना – जाना, बात-चीत और यहाँ तक के की राखी के पवित्र बंधन को भेजने से भी मना कर दिया।

समय बिता गया। राघव भी अपने आप में खुद्दार था। घर परिवार के लिए कहीं ना कहीं से रथी की सलामती का पता लगा लेता था, परंतु कभी कोई संबंध नहीं रखा। ताकि उसकी बहन सुखी रह सके ।

आज एक भागवत कथा पारिवारिक माहौल में संपन्न हो रहा था। सभी परिजन सुनने पहुंचे थे।ऊँचे आसन पर विराजमान पंडित आचार्य जी, भगवान ठाकुर जी की मूर्ति और भव्य पंडाल।

कथा चल रही थी… भगवान राम और भरत के मिलन की। कथा को पंडित जी ने ऐसा शमां बांध रखा था कि सभी नर नारी भाव- विभोर हो उनकी कथा श्रवण कर रहे थे।

रथी ने देखा की भैया तो कभी आगे बढ़कर कोई बात नहीं करेंगे और देव उसे कभी करने नहीं देगा। आज उसके मन में अजीब सा सवाल और भरत मिलाप की कथा का अंश हृदय में हिलोरे ले रहा था।

भरत मिलाप की कथा सुनाते पंडित जी स्वयं रो रहे थे और सारा पंडाल आँसुओं से तरबतर था।

इतनी भावपूर्ण कथा सभी शांति पूर्वक बैठे सुन रहे थे। अचानक रथी सामने से उठकर पीछे अपने भैया की ओर “भैयायययययययया” कहते हुए दौड़ पड़ी।

आँसुओं की धार से वह डूबी दौड़कर अपने भैया राघव के गले से जा लिपटी। राघव शुन्य सा ताकता रहा।  कुछ बात नहीं कर पाया और कुछ बात बिगड़ न जाए। चुपचाप खड़ा रहा।

आस-पास सभी रिश्तेदारों, परिवार वालों ने रथी के इस काम को अपने-अपने तरीके से बोलना सुनना आरंभ कर दिया। परंतु रथी और राघव समझ रहे थे कि बरसों का प्यार आज भरत- मिलाप की कथा सुनकर उमड़ पड़ा। कितना भी मनुष्य कठोर क्यों न हो उसे भी पिघला देता है।

दूर खड़े देव ने देखा भाई – बहन का प्यार निश्चल। बिना कसूर के वह उसे सजा दे रहा था। कई वर्षों बाद आज उसे राम – भरत मिलाप लगने लगा।

राघव ने दूर से देखा दोनों बाहें फैला दिया। चुपचाप देव आकर उसमें समा गया। बाकी चारों तरफ पुष्प वर्षा हो रही थी। कुछ अपने इसका फायदा लेते रथी देव और  राघव पर भी पुष्प वर्षा कर आनंद मना रहे थे।

आज भी मानव के मन में भरत जैसा ही करुणा प्रेम का अंश छुपा है। बस उसे समझने की जरूरत है।

बड़े बूढ़े अत्यंत प्रसन्नता पूर्वक बात करने लगे। पंडित जी ने भी जयकारा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 80 – देश-परदेश – भविष्यवक्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 80 ☆ देश-परदेश – भविष्यवक्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

“कल आज और कल” हमारा जीवन इन्हीं तीन काल में सीमित रहता हैं। बीता हुआ काल (समय), वर्तमान याने आज और सबसे महत्वपूर्ण आने वाला काल।

हम सब अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं। हमारे देश की ज्योतिष विद्या, विज्ञान और तर्क आधारित हैं। प्रतिदिन पेपर में सबसे पहले भविष्य फल और टीवी में भी आज का राशि फल की जानकारी सबसे अधिक पाठक/ श्रोता द्वारा प्राप्त की जाती हैं।

आम चुनाव के समय में भी विगत कुछ वर्षों से नए प्रकार के भविष्य वक्ता ” ओपिनियन पोल सर्वे” के नाम से दुकानें सजाए बैठे हैं।

प्री पोल,पोस्ट पोल सर्वे पर कुछ हद तक अंकुश भी लगाया गया हैं। लेकिन ये लोग भी बहुत ही चतुर प्राणी होते हैं। चुनाव से महीनों पूर्व भी ये लोग सर्वे करवाते रहते हैं।

सभी टीवी चैनल वाले आम जनता को मूर्ख बनाते हुए टीवी पर अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इन सो कॉल्ड भविष्य के ज्ञानियों की रिपोर्ट पर भी कुत्तों को लड़वाते रहते हैं।

चुनाव के दिन मौसम कैसा रहेगा ? शादी का सीजन या कोई स्थानीय कारण से मतदान का प्रतिशत निर्भर करता है, इन सब बातों की चर्चा करते हुए ये लोग भी चुनाव परिणाम के साथ “अगर/ मगर” जोड़ कर परिणाम के भविष्य के साथ एक प्रश्न चिन्ह  खड़ा कर देते हैं।

हमारे विचार से पुराने समय के अच्छे भविष्य वक्ता ग्रह और नक्षत्र विज्ञान का सहारा लेते थे। वर्तमान में टीवी चैनल वाले भविष्य वक्ता हेलीकॉप्टर/ एसी कार में भ्रमण कर फर्जी आंकड़ों  को कंप्यूटर में डाल कर मंथन करते हुए अपने आप को ” राजनैतिक विशेषज्ञ” मान लेते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ शब्दसरस्वती… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ शब्दसरस्वती ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

तुझ्या शब्दांनी दिला धोका

कवितेत जीवन लुटले

काळजात लेखणी निळी

लिहीताना उमाळे फुटले.

*

कोणताच अर्थ ना उरे

अक्षरावीन घुसमटले

पुन्हा कविताच भेटता

मनातले संघर्ष मिटले.

*

संचार प्रतिभा भावूक

वादळ अंतरी उठले

सांग सरस्वती माते

वरदान आले कुठले ?

*

ज्ञानाचे मंदिर सजले

पारणे भक्तीचे फिटले

तेवाताना दिप शब्दांनी

चैतन्य काव्यात दाटले.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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