(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – प्यार तो शुद्ध दूध जैसा है…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 75 – प्यार तो शुद्ध दूध जैसा है… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे – गांधी जी ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – कच्छ उत्सव।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 30 – कच्छ उत्सव – भाग – 1
(दिसंबर 2017)
रिटायर्ड शिक्षिकाओं का यायावर दल पिछले कई वर्षों से निरंतर अपने बकेट लिस्ट की पसंदीदा स्थानों का भ्रमण करता आ रहा है। हम दस शिक्षिकाएँ हैं और साथ -साथ घूमते हैं। सभी चाहते हैं कि दूर दराज के दर्शनीय स्थानों का भ्रमण शरीर के अधिक थकने और बूढ़े होने से पूर्व ही कर लिए जाए।
कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा, कुछ समय तो बिताएँ गुजरात में। यह स्लोगन गुजरात के बारे में बहुप्रचलित है। कच्छ के इस उत्सव को रान ऑफ़ कच्छ भी कहा जाता है। इस उत्सव की व्यवस्था गुजरात पर्यटन विभाग द्वारा आयोजित की जाती है। इसे व्हाइट डेजर्ट फ़ेस्टिवल भी कहा जाता है।
यह उत्सव प्रति वर्ष 28 नवंबर से 23 फरवरी तक मनाया जाता है। समस्त संसार से लोग इस उत्सव का आनंद लेने आते हैं और अद्भुत अविस्मरणीय अनुभव लेकर लौटते हैं।
यह उत्सव नगरी अस्थायी नगरी है जो प्रति वर्ष महान थार रेगिस्तान के बीच आयोजित की जाती है। ज़मीन के नाम पर यहाँ की भूमि पर नमक की सफ़ेद परत दिखाई देती है। यह उत्सव शीतकालीन उत्सव है। कच्छ के इस प्रांत का नाम धोरडो है।
2017 में कच्छ फेस्टीवल देखने जाने के लिए हमारे यायावर दल ने निश्चय किया और दिसंबर महीने में हम उसके लिए रवाना हुए। हम पुणे के निवासी हैं इसलिए हम पुणे से मुंबई गए।
कच्छ जाने के लिए हमें पहले रेलगाड़ी द्वारा भुज तक यात्रा करनी पड़ी। भुज स्टेशन पर उतरते ही साथ कच्छ उत्सव की गंध हमें स्टेशन के बाहर आते ही मिलने लगी।
स्टेशन के बाहर कच्छ उत्सव गुजरात पर्यटन विभाग का विशाल पोस्टर लगा था और विशाल टेंट में उत्सव के लिए आए हुए लोगों के लिए सुचारु व्यवस्था की गई थी।
पगड़ीधारी, कच्छी वस्त्र पहने हुए लोकल लोगों ने खंभाघणी आओ पधारो कहकर हमारा स्वागत किया। ठंडी के दिन थे, सुबह का समय था, हम थके हुए थे और हमारे सामने गरमागरम मसालेवाली चाय रखी गई। उसकी हमें आवश्यकता भी उस वक्त हो रही थी तो आनंद आया!
भुज से धोरडो कच्छ तक का अंतर 72 किलोमीटर है। स्टेशन से वहाँ तक जाने के लिए बस की व्यवस्था होती है। हम पाँच सखियाँ थीं तो हमने आठ दिनों के लिए एक इनोवा की व्यवस्था रख ली थी। यह गाड़ी हमेशा हमारे साथ रही और हमें घूमने में सुविधा भी रही।
धोरडो में एक विशाल मैदान पर स्वागत के लिए अत्यंत आकर्षक प्रवेश द्वार बना हुआ था। कहते हैं कि प्रतिवर्ष प्रवेश द्वार की डिज़ाइन बदली जाती है। भीतर प्रवेश करते ही आपको दाहिनी ओर कच्छ पद्धति से पगड़ी पहनकर तस्वीर खींचने का आमंत्रण मिलेगा। आप जो भी रकम देना चाहते हैं दे सकते हैं वे आपसे कोई धनराशि की माँग नहीं करते।
स्त्री- पुरुष सभी को पगड़ी पहनाकर पगड़ीवाले गर्व महसूस करते हैं। हम भला क्यों पीछे रहते? हमने भी बाँदनी पगड़ियाँ अलग -अलग स्टाइल में सिर पर बँधवा ली साथ ही कलाकृति वाले महलों के द्वार जैसे फाटक जो फोटो खिंचवाने के लिए ही लगे हुए थे तो हाथ में कभी काठ की तलवार तो कभी बड़ी काठी लेकर फोटो खिंचवाकर आनंद लिए। हम एक बार फिर बचपन के उस दौर में पहुँच गए जहाँ आनंद सर्वोपरि हुआ करता था।
उत्सव के भीतर की सजावट प्रतिवर्ष अलग – अलग होती है। हम जब गए तब एक तरफ टेंट में कच्छी वेश-भूषा में स्त्री -पुरुष की बड़ी मूर्तियाँ दिखाई दीं। सामने सजाया हुआ काठ का बड़ा घोड़ा था और साथ में ताँगा। थोड़ा और आगे बढ़े तो बड़ी- बड़ी कठपुतलियाँ झूलती हुई दिखीं। वे गोटेदार वस्त्रों से सजी थीं।
हमारा सामान लेकर वहाँ की बैटरीगाड़ी हमें निर्धारित टेंट की ओर ले गई।
इस उत्सव के स्थान पर निवास की व्यवस्था टेंटों में ही होती है। विशाल टेंट में कालीन बिछा था जो लोकल बुनकरों द्वारा बनाया होता है। बैठने के लिए रस्सी से बनी दो मचिया थी। निवार से बुने दो खाट जिस पर आरामदायक गद्दे, स्वच्छ चादरें बिछी हुई थीं। साथ में स्नानघर तथा शौचालय की व्यवस्था थी। स्नान करने तथा हाथ मुँह धोने के लिए गरम पानी की भरपूर व्यवस्था थी। एक ड्रेसिंग टेबल भी हर टेंट में रखा गया था ताकि पर्यटक अपने प्रसाधन की सभी वस्तुएँ वहाँ रख सकें। टेंट के भीतर गीले तौलिए रखने के लिए लकड़ी का स्टैंड और दो बड़े और दो छोटे टेबल भी रखे गए थे। हर टेंट में बिजली के बल्ब की व्यवस्था थी। मोबाइल, कैमरा आदि चार्ज करने के लिए काफी सारे चार्जिंग पॉइंट भी थे। यहाँ टेंट की सुख -सुविधाओं को देखकर यह विश्वास करना कठिन था कि वह सब कुछ तीन माह के लिए की गई अस्थायी व्यवस्था थी।
सभी टेंट एक विशाल मैदान के चारों तरफ गोलाकार में लगे हुए थे। कम से कम साठ से सत्तर टेंट तो अवश्य ही थे। आज संभवतः और अधिक हो गए होंगे। मैदान के मध्य भाग में मोटे रंगीन टाटों को जोड़कर विशाल कार्पेट जैसी आकृति देकर बिछा दी गई थी। सब तरफ नमक की मोटी परत होने के कारण यह व्यवस्था थी। मैदान के बीच में एक ऊँचा लैंप संध्या होते ही जल जाता था। ये सारी व्यवस्था आज सोलर सिस्टम पर हो रहा है।
प्रत्येक टेंट के अहाते के मुख्य द्वार पर चार द्वारपाल दिनभर तैनात रहते हैं। पर्यटकों की हर आवश्यकता को वे तुरंत पूरी करते हैं।
टेंट के बाहर निकल आएँ तो पक्की सड़कें बनी हुई हैं। वहाँ पर बैटरी कार भी दिन भर उपलब्ध होती हैं। पूर्णिमा की रात यह परिसर अत्यंत उज्ज्वल और चाँदनी की छटा के कारण और अधिक सुंदर और आकर्षक दिखाई देता है। हम उस सौंदर्य को देखने से वंचित रहे।
टेंट से थोड़ी दूरी पर विशाल डायनिंग हॉल की व्यवस्था थी। यहाँ कच्छ की कलाकृतियों का सुंदर प्रदर्शन था। पर्यटकों के लिए इस स्थान पर तस्वीरें खिंचवाने के लिए भी विशेष आयोजन रखा गया था।
यह डायनिंग हॉल इतना विशाल और फैला हुआ था कि कम से कम एक साथ पाँचसौ लोग भोजन कर सकते थे। आज शायद इस संख्या से अधिक लोगोउअं की व्यवस्था हो गई होगी। एक टेबल और छह कुर्सियों की हर जगह व्यवस्था थी।
भोजन की बात क्या लिखूँ और क्या न लिखूँ! इसके लिए तो आप पाठकों को एक बार इस अतुलनीय स्थान का भ्रमण करना ही चाहिए।
चाहे नाश्ता हो या दोपहर-रात का भोजन, व्यंजन इतने प्रकार के हुआ करते हैं कि एक बार में हर वस्तु का स्वाद लेना कठिन ही हो जाता है। नमकीन के साथ -साथ कई प्रकार के मीठे व्यंजनों की भी व्यवस्था भरपूर मात्रा में होती है। हमारे देश का हर राज्य तो भोजन के लिए सदा ही प्रसिद्ध है फिर भला कच्छ या यों कहें गुजरात कैसे पीछे रहता!
उस डायनिंग हॉल से निकलने पर आपको छोटी – छोटी आर्ट ऍन्ड क्राफ्ट के टेंट दिखेंगे।
आप उनके साथ बैठकर वहाँ की कलाकृतियों को बनते देखने और सीखने का आनंद भी ले सकते हैं।
एक बड़े मैदान पर संध्या के समय मनोरंजन के कार्यक्रम होते हैं। हम सभी रात्रि भोजन के पश्चात उस मंच के पास जाकर बैठे। वहाँ सुंदर बड़े -बड़े झूले भी लगे हुए थे। हम उसी पर बैठे। स्थानीय संगीत, नृत्य, कठपुतली का खेल आदि का आनंद हम सभी पर्यटकों ने लिया। मनोरंजन के ये कार्यक्रम काफी रात तक चलते हैं। सर्दी काफी होती है अतः पर्यटक स्वेटर, शाल, गुलुबंद, ऊनी टोपी अवश्य साथ रखें। कई बार तेज़ हवा की शीत लहरें भी चलती हैं। सभी कार्यक्रम का आनंद लेकर रात के करीब ग्यारह बजे हम अपने टेंट पर लौट आए।
दूसरे दिन सुबह दिन भर हम परिसर का आनंद लेते रहे। परिसर में गुजरात हैंडीक्राफ्ट की प्रदर्शनी थी। बड़ी मात्रा में कच्छ में बननेवाली, बुनकर बनाई जानेवाली वस्तुएँ थीं। गुजरात तो सूती कपड़ों के लिए विख्यात है तो यहाँ बड़ी मात्रा में सभी कुछ देखने, खरीदने का आनंद लिया। काँच लगाई और कढ़ाई की गई चादरें, घाघरा, मेज़ कवर, पर्दे तथा अनेक प्रकार की वस्तुएँ जिससे घर सजाया जा सकता है उन सबका प्रदर्शन था। हम सबने इन वस्तुओं की खूब खरीदारी की क्योंकि हमें ट्रेन से लौटना था और वज़न की सीमा का प्रश्न न था।
शाम के समय हमें ऊँट की गाड़ी पर बिठाकर टेंट से काफी दूर एक ऐसी जगह पर ले गए जहाँ नमक का दलदल था। यह वास्तव में एक विशाल मैदान है। हमसे कहा गया था कि हम थोड़ी दूर तक उस पर चलकर आनंद ले सकते हैं। हम सखियों ने खूब आनंद लिया। हड़बड़ी में मेरा पैर दलदल में फँस गया। बड़ी मुश्किल से पैर निकाला तो नमक और कीचड़ से पैर भर गया। हँसी मज़ाक के क्षण के बीच ऊँट कोचवान मेरे पैर धोने के लिए पानी ले आया। पैर साफ किए बिना गाड़ी पर बैठना कठिन होता।
संध्या होने लगी। हम जब पहुँचे थे तब धूप थी, नमक चमक रहा था। अब हवा में ठंडक आ गई थी। नमक पर से धूप हट गई और वह श्वेत चाँदी की फ़र्श जैसी दिखने लगी। दूर से देखने पर ऐसा लगता मानो बर्फ की परतें पड़ी हों।
यहाँ यह बता दें कि यह नमकवाला हिस्सा बेकार पड़ा था। हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तब उन्होंने कच्छियों को इस जगह का उपयोग कर उत्सव मनाने का कार्यक्रम बनाया था। अब तो यहाँ विदेश से भी लाखों लोग आते हैं।
टेंट में लौटते समय ऊँटवालों ने दौड़ की स्पर्धा लगा दी। यह स्थान रेत और नमकवाली है, ऊँट अपने गद्देदार पैरों के कारण आसानी से दौड़ सकते हैं। कुछ समय के लिए खूब शोर होता रहा। इस स्पर्धा के दौरान हम पर्यटकों से अधिक गाड़ीवान आनंद ले रहे थे क्योंकि यह स्पर्धा तो उनके लिए मनोरंजन का ज़रिया था। हम सब ऊँट गाड़ी पर हिचकोले खाते रहे। फिर शाम ढलते हम सब अपने टेंट पर लौट आए।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा डा ॠतु शर्मा जी द्वारा प्रस्तुत “नीदरलैंड की लोक कथायें”पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 171 ☆
☆ “नीदरलैंड की लोक कथायें” – प्रस्तुती … डा ॠतु शर्मा☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
नीदरलैंड की लोक कथायें
हिन्दी प्रस्तुति डा ॠतु शर्मा
वंश पब्लिकेशन, रायपुर, भोपाल
पहला संस्करण २०२३
पृष्ठ १०८
मूल्य २५०रु
ISBN 978-81-19395-86-6
☆ लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
प्रत्येक संस्कृति में लोक कथायें पीढ़ियों से मौखिक रूप से कही जाने वाली कहानियों के रूप में प्रचलन में हैं। सामान्यतः परिवार के बुजुर्ग बच्चों को ये कहानियां सुनाया करते हैं और इस तरह बिना लिखे हुये भी सदियों से जन श्रुति साहित्य की ये कहानियां किंचित सामयिक परिवर्तनो के साथ यथावत चली आ रही है। इन कहानियों के मूल लेखक अज्ञात हैं। किन्तु लोक कथायें सांस्कृतिक परिचय देती हैं। आर्थर की लोक कथाओ को ईमानदारी, वफादारी और जिम्मेदारी के ब्रिटिश मूल्यों को अंग्रेजो की राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। भारत में पंचतंत्र की कहानियां नैतिक शिक्षा की पाठशाला ही हैं, उनसे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का परिचय भी मिलता है। लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं। समय के साथ एकल परिवारों के चलते लोककथाओ के पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक प्रवाह पर विराम लग रहे हैं अतः नये प्रकाशन संसाधनो से उनका विस्तार आवश्यक हो चला है। विभिन्न भाषाओ में अनुवाद का महत्व निर्विवाद है। आज की ग्लोबल विलेज वाली दुनियां में अनुवाद अलग अलग संस्कृतियों को पहचानने के साथ ही सामाजिक सद्भाव के लिए भी महत्वपूर्ण है। अनुवाद ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके जरिये क्षेत्रीयता के संकुचित दायरे टूटते हैं। यूरोपियन देशों में नीदरलैंड्स में फ्रांसीसी, अंग्रेज़ी और जर्मन भी समझी जाती है।
प्रस्तुत पुस्तक नीदरलैंड की लोक कथायें में डा ॠतु शर्मा ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हुये छै लोककथायें नीदरलैंड से, दो स्वीडन से, इटली से तथा जर्मनी से एक एक कहानी चुनी। डा ॠतु शर्मा ने कोई लेखकीय नहीं लिखा है। यह स्पष्ट नहीं है कि ये लोककथायें लेखिका ने कहां से ले कर हिन्दी अनुवाद किया है। कहानियों को हिन्दी में बच्चों के लिये सहज सरल भाषा में प्रस्तुत करने में लेखिका को सफलता मिली है। यद्यपि कहानियों को किंचित अधिक विस्तार से कहा गया है। जादुई पोशाक, चांदी का सिक्का, बुद्धू दांनचे, स्वर्ग का उपवन, तिकोनी ठुड्डी वाला राजकुमार, और दो लैंपपोस्ट की प्रेम कहानी नीदर लैंड की कहानियां हैं। जिनके शीर्षक ही बता रहे हैं कि उनमें कल्पना, फैंटेसी, चांदी के सिक्के और लैंप पोस्ट जैंसी जड़ वस्तुओ का मानवीकरण, थोड़ी शिक्षा, थोड़ा कथा तत्व पढ़ने मिलता है। स्वीडन की लोककथायें नन्हीं ईदा के जादुई फूल और रेत वाला कहानीकार हैं। इटली की लोक कहानी तीन सिद्धांत और जर्मन लोक कथा तीन सोने के बाल के हिन्दी रूप पढ़ने मिले।
इस तरह का साहित्य जितना ज्यादा प्रकाशित हो बेहतर है। वंश पब्लिकेशन, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश सहित हिन्दी बैल्ट के राज्यो में अपने नये नये प्रकाशनो के जरिये गरिमामय स्थान अर्जित कर रहा उदयीमान प्रकाशन है। वे उनके सिस्टर कन्सर्न ज्ञानमुद्रा के साथ लेखको के तथा किताबों के परिचय पर किताबें भी निकाल रहे हैँ। मेरी मंगल कामनाये। यह पुस्तक विश्व साहित्य को पढ़ने की दृष्टि से बहुउपयोगी और पठनीय है।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्त्री और इस्त्री…“।)
अभी अभी # 496 ⇒ स्त्री और इस्त्री… श्री प्रदीप शर्मा
जो लोग स्कूल को इस्कूल और स्मृति को इस्मृति कहते हैं, उनके लिए स्त्री और इस्त्री में कोई अंतर नहीं। वैसे देखा जाए तो स्त्री हाड़ मांस की होती है और उसमें जान होती है, जबकि एक इस्त्री लोहे की होती है और बेजान होती है। लोहे की इस्त्री की दो प्रकार की होती है, एक कोयले से जलने वाली और दूसरी बिजली से चलने वाली। जब कि एक स्त्री के तो चलने के लिए हाथ पांव तो होते ही हैं, लेकिन उसकी जबान भी बहुत चलती है।
जोत से जोत की तरह, एक इस्त्री, दूसरी इस्त्री से नहीं जलती, इस्त्री को तो जलाना पड़ता है, जब कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को देखते ही जलने लगती है। इस्त्री से कपड़ों पर प्रेस की जाती है, जबकि स्त्री अपने आपको इंप्रेस करने के लिए आकर्षक कपड़े पहनती है।।
मेरे घर में स्त्री भी है और इस्त्री भी, लेकिन हम घर पर प्रेस नहीं करते। बरसों से एक धोबी आता था, जो रोज के पहनने के कपड़े कपड़ों और घर मोटी मोटी चादरों को ले जाता था। पहले कपड़े भट्टी में धोए जाते थे, फिर सुखाकर उन पर इस्तरी की जाती थी।
अधिक महंगी साड़ियां और पुरुषों के सूट लॉन्ड्री में दिए जाते थे, जहां उनकी पेट्रोल से धुलाई होती थी।
जब तक घर बड़ा था, घर में छोटे बड़े भाई बहन थे, कपड़े घर पर ही मोगरी से कूटे जाते थे, धोकर सुखाए जाते थे, और कपड़ों पर प्रेस भी घर पर ही होती थी। केवल आवश्यक कपड़े ही धोबी के यहां जाते थे।।
आज घर घर में वाशिंग मशीन है और वह भी सेमी ऑटोमेटिक और ऑटोमेटिक। सूती कपड़ों का स्थान अब टेरीकॉट ने ले लिया है। छोटे परिवार सुखी परिवार के सभी सदस्य कामकाज में व्यस्त रहते हैं, कुछ घरों में नियमित धोबी आता है, और कपड़े इस्त्री करवाने ले जाता है। चार चार आने से बढ़कर अब एक कपड़े की इस्त्री भी कम से कम पांच छ: रुपए की पड़ने लगी है। फिर भी आम आदमी आज भी इस्त्री वाले कपड़े पहनना ही पसंद करता है।
बाजार में रेडीमेड कपड़ों की बहार है, धोबी और दर्जी सब भूखे मर रहे हैं। जब से पहनने के कपड़ों में जींस का प्रवेश हुआ है क्या युवा और क्या युवती, घर-घर जींस का फैशन हो गया है। हमारे यहां जींस को सिर्फ धोया जाता है उस पर इस्त्री नहीं की जाती। विदेशों में इसे यूज एण्ड थ्रो वाला पहनावा माना जाता है।।
जब से फटी जींस का फैशन शुरू हुआ है, सिलाई, धुलाई और इस्त्री सबको अलविदा कह दिया गया है। कुछ संस्कारी घरों में आज भी स्त्री और इस्त्री दोनों की उतनी ही जरूरत है और उन्हें उतना ही सम्मान भी मिलता है।
मेरे घर में आज भी इस्त्री से अधिक उपयोगी मेरी स्त्री ही है। घर में जींस वाली कोई पीढ़ी नहीं। वह मेरे धुले कपड़े करीने से तह करके बिस्तरों के नीचे दबा देती है। इस तरह उन पर बिना इस्त्री किए ही प्रेस हो जाती है।।
एक हैप्पिली रिटायर्ड इंसान को और क्या चाहिए। वानप्रस्थ की उम्र भी गुजर रही है, अब तो तन से नहीं, केवल मन से सन्यास लेने का समय शुरू हो रहा है। सादा जीवन, संतुष्ट जीवन, बस विचार हमारे अभी इतनी ऊंचाईयों पर नहीं पहुंचे। साधारण लोग, साधारण पसंद।।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है श्री गणेश वंदना “माँ भगवती की आराधना”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 208 ☆
🌹 माँ भगवती की आराधना 👏
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मन में रख विश्वास सदा ही, भरती माँ झोली खाली है।
श्रद्धा से कर पूजन वंदन, आसन बैठी माँ काली है।।
दानव मारे चुन चुन कर के, वो रण चंडी कहलाती।
नरमुंडो की माला धारें, रक्त दंतिका दिखलाती।।
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जब चंड मुंड संघार करें, चामुंडा देवी नाम धरी।
मधुकैटभ को मारी मैया, शेरों वाली त्रिपुर सुन्दरी।।
पान सुपारी ध्वजा नारियल, मैया को भेंट चढाना हैं।
घर घर जोत जली मैया की,नितश्रद्धा भक्ति बढाना है।।
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गौरी अंबा रुप भवानी, ये शिवा शक्ति कल्याणी हैं।
मांगों मैया से जी भर के ,शुभ इच्छित फल वरदानी हैं।।
लाल चुनरिया सर पर ओढ़े, माँथे बिंदिया की लाली है।
अधरों पर मुस्कान लिए है, दो नैना कजरा डाली है।।
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बनी जूही चंपा अरु चमेली, गूथें माला बलिहारी है।
कानों कुंडल चाँद सितारे, झूले मोती नग प्यारी है ।।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 104 ☆ देश-परदेश – सी सी टीवी कैमरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
दो दशक से अधिक समय हो गया, सीसी टीवी कैमरा को हमारे देश में पदार्पण किए हुए। वर्ष दो हज़ार में अजमेर शाखा में पदस्थापना के समय बैंक की शाखा में एक फ्रॉड में करीब सात लाख का नगद भुगतान हो गया था। शाखा प्रबंधक ने पास के एक हलवाई की दुकान पर लगे हुए सीसी टीवी कैमरे का मुआयना कर आने के लिए हमें कहा था।
हलवाई की रसोई दुकान के ऊपर थी जहां कर्मचारी मिठाई आदि बनाते थे, नीचे बिक्री होती थी, जहां मालिक बैठ कर गल्ला संभालने के साथ रसोई में लगे कैमरे से नज़र रखता था। हम रसोई में भी गए, और कर्मचारियों से बात की, वो परेशान से लगे, बोले पहले हम दिन के अनेक बार दूध पी जाते थे, एक दो मुट्ठी मेवें भी डकार जाते थे, अब सीसी टीवी से ये सब बंद हो गया है।
आजकल घर के अलावा गलियों, बाजारों आदि में भी कैमरे लग चुके हैं। कुछ दिन पूर्व एक मित्र के घर जाना हुआ, उनके घर के बाहर अलीगढ़ी ताला देख, यू टर्न लेकर घर आ गए। दूसरे दिन मित्र का फोन आया, तो बोला, बता कर आना चाहिए था। उसने हमें कैमरे में देख लिया था।
वो अपने कैमरे की तारीफ़ में कसीदे पढ़ कर उस पर खर्च की गई राशि से अपनी रईसी प्रमाणित करने के लिए प्रयासरत था। हमने उससे पूछा क्या तुम्हारे कैमरे में कभी चलती हुई चीटियां दिखती हैं क्या ? वो बोला नहीं कुत्ते बिल्ली अवश्य दिख जाते हैं।
उसने जिज्ञासा से पूछा ये चीटियां दिखने का क्या उपयोग होता होगा ? हमने उससे कहा, कि हमारे कैमरे में पड़ोस के घर में जाती हुई चींटियां भी दिखती है, इसका मतलब पड़ोसी के यहां कुछ ताजा ताजा मीठा बन रहा है। बाज़ार की दुकानों में से तो जिंदा कीड़े निकलते हैं, इसलिए लोग घर में निर्मित ताज़ा मीठा ही खाना पसंद करते हैं।
विगत माह एक बहुत बड़े आदमी के यहां विवाह में जाना हुआ, स्टेज पर भीड़ को देखते हुए बिना लिफाफा दिए हुए, भोजन ग्रहण कर वापिस आ गए। कुछ दिन पूर्व विवाह परिवार से एक व्यक्ति मिला, और नाराज़ होकर बोला, आप विवाह में पधारे नहीं, हमने स्वास्थ्य का हवाला देकर, किनारा काट लिया। बात आई गई हो गई। एक दिन विवाह वाले घर से उनके मुनीम का फोन आया, और कहने लगा, जब आप विवाह में आए थे, तो फिर मना क्यों किया। हमने कैमरे में आपको वापिस जाते हुए देखा है, और लिफाफा भी आपकी कमीज की ऊपरी जेब में स्पष्ट दिख रहा है। हमें तो “काटों तो खून नहीं”।