हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 45 – तेरी निगाह ने फिर आज कत्लेआम किया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – तेरी निगाह ने फिर आज कत्लेआम किया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 45 – तेरी निगाह ने फिर आज कत्लेआम किया ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मैंने, इजहार मुहब्बत का सरेआम किया 

आप बतलाएँ, भला या कि बुरा काम किया

*

साजिशें की, मुझे बदनाम करने की लेकिन 

खुदा का शुक्र है, जिसने उन्हें नाकाम किया

*

मेरी शोहरत से, कई लोग हैं जलने वाले 

किन्तु ताज्जुब है कि, अपनों ने भी बदनाम किया

*

जिसको चाहा था, वही गैर की बाँहों में मिला 

जबसे टूटा है भरम, चैन है, आराम किया

*

परिन्दे चाहतों के, फिर से चहके, आप जो आये 

ये जादू कौन सा तुमने मेरे गुलफाम किया

*

न जाने सीखकर कातिल अदाएँ, किससे आयी है 

तेरी निगाह ने, फिर आज कत्लेआम किया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 121 – समय चक्र के सामने… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता  “समय चक्र के सामने…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 121 – समय चक्र के सामने… ☆

बच्चे हर माँ बाप को, लगें गले का हार।।

समय चक्र के सामने, फिर होते लाचार।।

 *

समय अगर प्रतिकूल हो, मात-पिता हों साथ।

बिगड़े कार्य सभी बनें, कभी न छोड़ें हाथ।।

 *

जीवन का यह सत्य है, ना जाता कुछ साथ।

आना जाना है लगा, इक दिन सभी अनाथ।।

 *

मन में होता दुख बहुत, दिल रोता दिन रात ।

आँखों का जल सूखकर, दे जाता  आघात ।।

 *

जीवन का दर्शन यही, हँसी खुशी संग साथ ।

जब तक हैं संसार में, जियो उठाकर माथ ।।

 *

तन पत्ता सा कँापता, जर्जर हुआ शरीर ।

धन दौलत किस काम की, वय की मिटें लकीर ।।

 *

जीवन भर जोड़ा बहुत, जिनके खातिर आज ।

वही खड़े मुँह फेर कर, हैं फिर भी नाराज ।।

 *

छोटे हो छोटे रहो, रखो बड़ों का मान ।

बड़े तभी तो आपको, उचित करें सम्मान ।।

 *

दिल को रखें सहेज कर, धड़कन तन की जान ।

अगर कहीं यह थम गयी, तब जीवन बेजान।।

 *

परदुख में कातर बनो, सुख बाँटो कुछ अंश।

प्रेम डगर में तुम चलो, हे मानव के वंश ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 267 ☆ आलेख – लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 267 ☆

? आलेख लंदन से 3 – अंतर्राष्ट्रीय लंदन पुस्तक मेले से ?

प्रतिष्ठित लंदन पुस्तक मेले का आयोजन इस वर्ष 12से14 मार्च 2024 तक हो रहा है। 1971 से प्रति वर्ष यह वृहद आयोजन होता आ रहा है। यह एक ऐसा आयोजन है जिसमे दुनिया भर से लेखकों, प्रकाशकों, बुक एजेंट, कापीराइट और पुस्तक प्रेमियों का भव्य जमावड़ा होता है। इस अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में विभिन्न देशों, विभिन्न भाषाओं, के स्टाल्स देखने मिले। ओलंपिया लंदन में पश्चिम केंसिंग्टन में एक ऐतिहासिक प्रदर्शनी स्थल है, जहां यह आयोजन होता है।

लंदन पुस्तक मेले के माध्यम से साहित्यिक एजेंट, लेखक, संपादक और प्रकाशक आगामी पुस्तक परियोजनाओं पर चर्चा करने, बातचीत करने और व्यवसायिक संबंध बनाने के लिए एकत्रित होते हैं। किताबों की खरीदी, विक्रय, विमोचन, लेखकों से साक्षात्कार, कापीराइट, अनुवाद, आदि के अलग अलग सेशन विशेषज्ञ करते हैं।

नेटवर्किंग इवेंट होते हैं, जो मेले के बाद भी प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े लोगों को परस्पर जोड़ने का काम करते हैं।

भारत का स्टाल अभी भी इंडिया नाम से ही मिला। नेशनल बुक ट्रस्ट और वाणी प्रकाशन के ही स्टाल्स थे। विभिन्न भारतीय भाषाओं की चंद किताबें प्रदर्शित थी। मुझे आशा खेमका की आत्म कथा India made me, and Britain enabled me, एवं पद्मेश गुप्ता जी के कहानी संग्रह डैड ऐंड के हिंदी तथा उसके AI से किए गए अंग्रेजी अनुवाद की किताबों के विमोचन में सहभागी रहने का अवसर मिला।

दिल्ली के पुस्तक मेले की स्मृतियां दोहराते हुए यहां घूमना बहुत अच्छा लगा। यद्यपि दिल्ली में अनेकों परिचित लेखकों से भेंट हो जाती थी, पर यहां व्यक्तिगत न सही कुछ परिचित लेखकों की किताबों से रूबरू जरूर हुआ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… जम्मूवाली दादी – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  जम्मूवाली दादी)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – जम्मूवाली दादी  ?

माताजी तो माताजी थीं। मोहल्ले भर की गली – मोहल्ले की माताजी, और क्यों ना हो! 101 वर्ष उम्र और अनुभव दोनों का अद्भुत मिलन जो था।

माताजी 100 साल तक जिंदा रहना चाहती थीं। अब उसके ऊपर एक और साल जुड़ गया। पूरे कुनबे को जोड़कर रखने वाली माताजी गली – मोहल्ले के लोगों से भी आजीवन जुड़ी ही  रहीं। घर में कुल मिलाकर 40 लोग होंगे और मोहल्ले वाले उनकी तो कोई गिनती ही नहीं!

माताजी 60 साल की रही होंगी जब बाबूजी गुज़र गए पर माताजी टूटी नहीं, और न  सारे परिवार को ही टूटने -बिखरने  दिया। जिस भूमिका को बाबूजी निभाते थे, वही भूमिका अब माताजी निभाती आ रही थीं।वह विशाल छायादार वटवृक्ष के समान सशक्त थीं।

माता जी के पाँच पुत्र थे । आज उनका बड़ा बेटा 85 साल का है उसकी दुल्हन 82 साल की है, उनका बड़ा बेटा 62 साल का है उसका बेटा 38 साल का है और उसका बच्चा 16 साल का। कुल मिलाकर इस तरह घर के हर एक बेटे उनके बच्चे, पढ़ पोते- पतोहू सब मिलाकर कुनबे में 40 लोगों का समूह रहता आ रहा था। साझा व्यापार था।

आज भी जम्मू-कश्मीर में ऐसे अनेक परिवार मिल जाएँगे जो संयुक्त परिवार में रहते हैं। सेब, बादाम, अखरोट, चिलगोज़ा, खुबानी के बाग हैं और व्यापार भी उसी का ही है।

माताजी का एक बेटा कटरा में व्यापार करता था, वही ड्राईफ्रूट और गरम कपड़ों का। पर रोज़ रात को घर लौटकर आता ही था।यद्यपि जम्मू और कटरा के बीच चालीस किलोमीटर का अंतर है। प्रति घंटे बसें चलती हैं तो घर आना ही होता है।यह माताजी का आदेश था।रात के भोजन के समय वे बेटे बहुओं को लेकर भोजन करना पसंद करती थीं।शायद परिवार को जोड़कर रखने का यह एक गुर था।

माताजी के तीसरे बेटे की अकाल मृत्यु हुई थी।पर माताजी ने बहू को अपने मायके न जाने दिया और न सफ़ेद कपड़े ही पहनने दिए।माताजी का कहना था, “पति मर गया, यादें तो हैं !चिट्टे ( सफेद) कपड़े पाकर ओदा दिल न दुखाईं पुत्तर।” बड़ी प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी माताजी की।

माताजी के घर में आज तक कभी किसी ने ऊँची आवाज में बात ना की थी और ना उस घर में विवाद का कभी प्रश्न ही उठ खड़ा हुआ।सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे चाहे भूषण हों या पड़पोते का पाँच साल का गुड्डू।

बड़ा बेटा भूषण आज भी गुल्लक संभालते थे। सूखे मेवे का व्यापार था उनका जिसे बाबूजी चलाते आ रहे थे। उनके देहांत के बाद बड़ा बेटा चलाने लगा और अब उसके बेटे चलाते हैं। पर गुल्लक संभालने की जिम्मेदारी आज भी माता जी के बड़े बेटे के पास ही है। यही नहीं हर रोज की कमाई का हिसाब माताजी को जरूर देना पड़ता था। माताजी अपने पास जरूरत के हिसाब से पैसे रख लेती थी॔ बाकी जमा करवा देती थीं। जो धनराशि वह अपने पास रखती थी वह  घर के बच्चे और उनके जन्मदिन, तीज -त्योहार,  विवाह वार्षिक दिन के उत्सव पर उन्हें आशीर्वाद के रूप में दिया करती थी॔। शुरू में तो यह ₹11 हुआ करते थे । समय की बढ़ती चाल देखकर माता जी अब ₹101 पर आकर अटक गईं। कहती थीं “मेरी भी तो उमरा 101 ही है तो क्यों ना 101 दिया करूँ।”

गली मोहल्ले में कोई बीमार पड़े तो माताजी जरूर पहुँच जाती थीं।यदि कोई पुरुष बीमार हो तो वहाँ उनके पास बैठकर पाठ करती  और ठीक होने की दुआ कर घर लौट आतीं।

यदि कोई स्त्री बीमार हो तो उन्हें पता होता था कि परिवार को भोजन की आवश्यकता होती है। माताजी सुबह-शाम भोजन भेजने की व्यवस्था भी करतीं और समय-समय पर उनसे मिलने भी जातीं।

कोई बच्चा बीमार हो तो न जाने माताजी कौन-कौन से काढ़ा और  घुट्टियाँ तैयार करके बच्चे को पिलातीं। लोगों को पता था अनुभवी माताजी एक लंबा जीवन देख चुकी थीं।ऐसा जीवन जहाँ  आज जैसी दवाइयाँ नहीं थी इसलिए लोगों का  उन पर बड़ा भरोसा था।

खाली बैठना माताजी को कभी गवारा न था।इन एक सौ एक वर्ष की उम्र तक पचास -साठ स्वेटर बुन चुकी थीं साथ में न जाने कितने ही शालों पर कढ़ाई कर चुकी थीं।पड़ोस में किसीकी शादी हो तो माताजी चद्दर काढ़ने बैठ जातीं।

प्रातः चार बजे उठना, नहा धोकर पाठ करने बैठना उनकी बरसों की आदत थी। वे पाँच क्लास तक पढ़ी थीं जिस कारण पढ़ने लिखने की आदत बनी रही।तेरह वर्ष की उम्र में ब्याहकर आई थी इस परिवार में। यह परिवार जम्मू का डोगरी परिवार था।माताजी श्रीनगर की थीं जिस कारण उनकी वेष-भूषा आज भी काश्मीरियों जैसी ही थीं।हाँ भाषा वे डोगरी सीख गई थीं।

उनकी उम्र की महिलाएँ सारा दिन लेटी बैठी रहती होंगी पर माताजी को बैठे रहना मंजूर न था।सारे परिवार के लिए रात को बादाम भिगोकर रखना भी उनकी आदत में शामिल थी।हर कोई जब सुबह उठ कर उनके कमरे में पैरीपौना (प्रणाम) करने आता तो माताजी उसके हिस्से के बदाम – अखरोट उन्हें पकड़ा देतीं। घर के छोटे बच्चे कहीं बादाम अखरोट कूड़ेदान में ना डालें इसलिए उन्हें अपने सामने बिठाकर बादाम अखरोट चबाने के लिए कहती थीं।यह उनके अनुभव का ही एक हिस्सा था। रोज अखरोट तोड़ना,  खरबूजे के सूखे बीज से बीज निकालना, कद्दू के  सूखे बीज से छोटे बीज निकालना माताजी का ही काम था।नाखून अब काले से पड़ गए थे, हथेलियों पर रेखाओं का जाल बिछा था जिन्हें देखकर कोई भी कह सकता है कि वे कर्मठ हाथ थे।घर परिवार के लोगों को अपने हाथ से  खिलाना माता जी का निजी शौक था।

यही नहीं गर्मी के मौसम में आम का अचार- मुरब्बा बनाना आज भी माता जी का ही काम था। ठंड के मौसम में  जब फूल गोभी, गाजर शलगम, मटर खूब सस्ते हो जाते तो माताजी उन सब से अचार बनातीं। जम्मू के लोगों का यह बड़ा प्रिय अचार होता है ।

ठंड के दिनों में जब बड़ी-बड़ी, लाल – लाल मिर्चे  आते तो माता जी अपने हाथ से मसाले तैयार करके भरवे मिर्ची के अचार बनातीं। जम्मू में आज भी लोग सरसों का तेल भोजन के लिए प्रयोग में लाते हैं इसलिए सभी चीजें घर पर होने के कारण माताजी दिन भर अपने काम को लेकर व्यस्त रहती थीं। किसी पड़ पतोहू को साथ में ले लेती मदद के लिए और उन्हें सिखाती भी चलती।

ठंड के मौसम में जब वह भी गाजर शलगम मटर बाजार में आते तो माताजी उन सब को साफ करके खूब धूप में सुखातीं ताकि बारिश के दिनों में किसी को भोजन की कमी ना हो। रात के समय दही जमाने का काम भी माताजी ही किया करती थीं। गर्मी के मौसम में माताजी का अधिकांश समय घर की छत पर ही कटती थीं।लौकी -कद्दू डालकर बड़ियाँ डालना, मसालेवाली बड़ियाँ बनाना, पापड़ बनाना सब सुखाना माताजी का शौक था।

घर के हर सदस्य के स्वास्थ्य की देखभाल का मानो उन्होंने जिम्मा उठा रखा था। आजकल कुछ दिनों से माताजी अक्सर जोर से चिल्ला पड़ती और परिवार के लोगों को एकत्रित करती कहतीं ” ओए, ओए बड़ी पीड़ है छाती ते, आ … आ गया मैंन्नू लैंण। चलो मेन्नू मंजीते उतार लो, थल्ले जमीन पर चदरा बिछा दो मेरे जाणे दा वखत आ गिया।”

माताजी अक्सर कहती थीं “मैं मंजी ते न मरणा, थल्ले लिटाणा।”

इस तरह पिछले छह माह में माताजी ने कई बार कुनबे को अपने कमरे में एकत्रित कर लिया था।पहली बार जब ऐसा हुआ तो सब घबड़ा गए।तुरंत डॉक्टर बुलाया गया।डॉक्टर ने कहा हाइपर एसिडिटी है माताजी को घबराने की बात नहीं।” फिर जब कभी छाती में दर्द होता तो बच्चे दो चम्मच जेल्यूसिल उन्हें पिला देते।

एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में माताजी ने न शोर मचाया न किसी को एकत्रित किया।न चाहकर भी अपने पलंग पर जिसे वे आजीवन मंजी कहती आईं थीं, पड़ी रहीं। सुबह जब भूषण माताजी से रोज़ की तरह पैरीपौना करने आया तो देखा हाथ में जप माला पकड़े वह निस्तेज पड़ी हैं।देह शांत, चेहरे पर मृदु मुस्कान!

खबर मिलते ही गली- मोहल्ले के लोग दर्शन के लिए आने लगे।देह को खूब सजाया गया पशमीना शाल ओढ़ाया गया, गुब्बारे बाँधे गए।

बड़ी उम्र के लोगों के देहांत के बाद इस तरह सजाकर ले जाना संभवतः डोगरी लोगों की संस्कृति है।  कंधे देनेवाले अनेक थे। खूब छुट्टे पैसे लुटाए  गए। घाट तक सौ दो सौ लोग पहुँचे। माताजी कहती थीं, “लकड़ी न सुलगाई मेरे लई, बच्च्यांदे काम्म आणा लकड़ियाँ। मेन्नू भट्टी विच पा देणा।” अर्थात फर्नेस में। लकड़ियाँ बच्चों के काम आएगी कहती थीं शायद इसलिए कि भारत में सबसे ज्यादा पेंसिल का कच्चा माल लखीमपुरा पुलवामा काश्मीर में बनाया जाता है। क्या सोच है माताजी की!

एक एरा, प्रचुर तजुर्बा लेकर,  कुनबे को, गली- मोहल्ले को अपने संस्कार से अवगत कराती हुई  प्रोग्रेसिव  सोच रखनेवाली माताजी परलोक सिधार गईं।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 – लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा नशा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 ☆

☆ लघुकथा 🌹 नशा 🌹

रंग से सराबोर और लाल-लाल आँख, बिखरे बाल, चेहरे पर मासूमियत और लड़खड़ाते कदम।

दरवाजे की घंटी बजी। जैसे ही दरवाजा खुला लगभग गिरते हुए बबलू ने कहा… “अंकल मुझे माफ कर दीजिए। पापा नाराज होंगे और इस हालत में मैं उनके सामने नहीं जाना चाहता। बाकी आप संभाल लेना।”

कहते-कहते धड़ाम से कमरे में बिछे पलंग पर औंधा गिरा।

संजय और उसकी धर्मपत्नी को समझते देर नहीं लगी कि बबलू आज नशे में धुत है।

गुस्से में पत्नी ने बोलना आरंभ किया..” घसीट कर बाहर कर दो हमें क्या करना है। इस लड़के से कोई लेना-देना नहीं।” कहते-कहते जल्दी-जल्दी पानी का गिलास लाकर बबलू को पिलाने लगी। मुँह पर पानी के छींटे मारने लगी। “हे भगवान यह क्या हुआ… कैसी संगत हो गई। हमने आना-जाना क्या छोड़ा। बच्चे को बिगाड़ कर रख डाला।” संजय भी आवक बबलू के सिर पर हाथ फेरता जा रहा था।

“अब चुप हो जाओ मैं ही बात करता हूँ।” पत्नी ने कहा.. “कोई जरूरत नहीं होश आने पर स्वयं ही चला जाएगा” और जोर-जोर से इधर-उधर चलने लगी और बातें करने लगी ताकि पड़ोसी सुन ले।

आकाश और संजय की गहरी दोस्ती थी। और होती भी क्यों नहीं एक अच्छे पड़ोसी भी साथ-साथ बन गए थे। परंतु एक छोटी सी गलतफहमी के कारण दोनों के बीच मनमुटाव यहाँ तक हुआ की बातचीत तो छोड़िए शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते थे।

बरसों बाद फोन नंबर डायल किया, नंबर देखते ही दोस्त आकाश ने अपनी पत्नी से कहा… “संजय का फोन आ रहा है।” श्रीमती झल्लाकर बोली… “कोई जरूरत नहीं है अब वक्त मिल गया। अकल ठिकाने आ गई। रहने दीजिए।”

“परंतु पता भी तो चले हुआ क्या है।”

“हेलो… बबलू मेरे घर पर है। संगति का असर है। थोड़ा बहक गया है तुम नाराज नहीं होना डर रहा है। अभी सोया है। सब ठीक हो जाएगा। हम मिलकर संभाल लेंगे।”

फोन पर बात करते-करते दोनों पति-पत्नी की आँखों में आँसू बहने लगे।

“मैं अभी आता हूँ।” दरवाजे पर बरसों बाद दोनों दोस्त मिले। पलंग पर बैठ गंभीर चर्चा करने लगे।

“अरे छोड़ यार हो जाता है गलती हो गई है। अब दोबारा नहीं होना चाहिए।” बबलू अचानक उठ बैठा जेब से गुलाल उड़ाते कहने लगा…. “मैंने कोई नशा नहीं किया। आप दोनों का नशा उतारना था और जो असली नशा आप दोनों के बीच है उसे फिर से चढ़ाना था।

इसलिए मैंने इस नशे का नाटक किया।” चारों एक दूसरे का मुँह देखने लगे।” इस नाटक को करने के लिए मैंने कल से कुछ नहीं खाया है। कुछ मिलेगा।” “अब तुम मार खाओगे।”

हँसी का गुब्बारा फूटने छूटने लगा.. बबलू के नशे ने अपना काम कर दिया था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 75 – देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 75 ☆ देश-परदेश – रस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

भारत की रसमलाई दुनियाभर में
दूसरा सबसे स्वादिष्ट चीज डेजर्ट

बाल्यकाल में सबसे प्रिय गन्ने का रस हुआ करता था। हाथ गाड़ी वाला घर के बाहर आकर पुकार लगाता था। पहले इकन्नी बाद में दस पैसे में रसपान सुविधा उपलब्ध हुआ करती थी।

रसगुल्ले जब कोई परिचित हांडी में भेंट स्वरूप लेकर घर पर आता था, तो हम भाई बहन रस पर नज़र रखते थे, क्योंकि रसगुल्ले की संख्या की तो गणना हो जाती थी, रस की हांडी में तो कोई भी बाजी मार सकता था। वैसे बाद में ब्रेड के साथ रस के शाही टोस्ट बनने लगे थे। हांडी को साफ कर गर्मियों में पक्षियों के लिए जल भर कर पुण्य कमाया जाता था।

पाठशाला में जब माध्यमिक स्तर पर पहुंचे तो पता चला रस के ग्यारह भेद भी होते हैं। गुरुजन जब मुंह जबानी पूछते थे, तो हमेशा आठ/नौ ही याद आते थे।

आज प्रकाशित समाचार से जानकारी प्राप्त हुई कि हमारे देश की रसमलाई विश्व की दूसरी सबसे स्वादिष्ट “चीज़” द्वारा निर्मित मिठाई है।

चीज़ शब्द हमारे यहां बहुतायत से उपयोग किया जाता हैं। कपड़े की दुकान पर अक्सर हम लोग कहते है, कोई बढ़िया चीज दिखाएं। युवाकाल में जब कोई आकर्षित अपरिचित युवती पर दृष्टि पड़ जाती थी, तो मित्र कहा करते थे “क्या चीज” है।

हम भी कहां फालतू चीज़ों में उलझ गए है। मलाई पर ध्यान देना चाहिए। सरकारी सेवा में कार्यरत अधिकतर लोग “मोटी मलाई” हासिल कर लेते हैं। कुछ विभाग में तो मलाई वाली पोजीशन भी होती है। हमारे यहां तो दूध पर भी मलाई नहीं जम पाती है। सप्रेटा दूध में मलाई क्या खाक आयेगी।

अब आप जब भी रसमलाई खायेंगे तो और अधिक स्वादिष्ट लगेगी, क्योंकि किसी विदेशी संस्था ने इसकी पुष्टि जो कर दी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #229 ☆ प्रेम दिगंतर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 229 ?

प्रेम दिगंतर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

लोहमार्गाचे रूळ समांतर

बोलत नाहीत कधी अवांतर

*

जरी उभी तू पल्याड नदीच्या

दोन मनातील प्रेम दिगंतर

*

नजरेतून तू जरी बोलली

करतील डोळे हे भाषांतर

*

नदी मिळाली आज खाडीला

वाढत गेले भरपूर अंतर

*

चंद्र आभाळी कुठे थांबला

वाट पहाते वेळ ही कातर

*

टाकू का मी गादी म्हणालो

मला म्हणाली काळीज अंथर

*

तिच्यात नाहीच कुठे कस्तुरी

तिच्या भोवती तरीही अत्तर

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ साठवणीतल्या आठवणी– ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘साठवणीतल्या आठवणी–’ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

प्रत्येक व्यक्ती स्वतंत्र असते आणि प्रत्येकाचं आयुष्य म्हणजे फक्त त्याचीच मालमत्ता असु शकते व त्यात कडू गोड आठवणींचा भरगच्च  खजिना असतो. कडू आठवणी मनाच्या तळाशी दाबल्या की मग वर येतो तो सुंदर आनंदी आठवणींचा    साठा. मग त्या आठवणींचा ठेवा दुसऱ्यांना वाटावासा वाटतो. अगदी तसंच झालं आहे माझं.   

महाशिवरात्र आली की वडीलधाऱ्यांच्या आठवणी उफाळून येतात. वडीलधारी काळाच्या पडद्याआड जातात आणि आपण पोरकं होतो. अकाली पोक्तपणा येतो.

प्रियकर आपल्या प्रेयसीला म्हणतो ‘तुझ्यापेक्षा मला तुझ्या आठवणीच जवळच्या वाटतात, कारण त्या सतत माझ्याजवळ राहतात.’ अशीच एक माझ्या आई -वडिलांची सुखद आठवण आठवली.

माझे मेव्हणे श्री. दत्तात्रय पंडित, पंजाबच्या गव्हर्नरांचे, श्री काकासाहेब गाडगीळ यांचे  P. A. होते. त्यांच्यामुळे पुणे ते चंदीगड अशा लांबच्या प्रवासाचा योग आला. त्यावेळी सोयीस्कर गाड्या नव्हत्या. प्रवासात दोन-चार दिवस जात असत.

माझे वडील ति. नाना, दत्तोपंत स. माजगावकर कट्टर शिवभक्त होते. रोज सोवळं नेसून त्यांनी केलेल्या पार्थिव पूजेचा सोहळा अवर्णनीय असायचा. दंडाला कपाळाला भस्माचे पट्टे लावून स्पष्ट मंत्रोच्चारांनी केलेल्या मंत्रध्वनीने शंखनिनादाने आमची प्रभात, सुप्रभात व्हायची. रोज महादेवाची सुबक पिंड तयार करून यथासांग पूजा करण्यावर त्यांचा कटाक्ष होता. 

तर काय सांगत होते! आमचा प्रवास सुरू झाला. पळणाऱ्या झाडांमधून सूर्याची सोनेरी किरणे आत आली तर कापराचा सुगंध नाकात शिरला. किलकीले डोळे विस्फारले गेले, कारण धावत्या गाडीत मांडी घालून प्रवासातही नेम न मोडता  नानांची पूजा चालू होती. शिवभक्त मंडळी सरळ मार्गी असतात. वाकडी वाट करून नेम मोडणं त्यांच्या तत्वात बसत नाही.

प्रवासातही आई -नाना पूजेच्या तयारीनिशी आले होते. नानांच्या पुण्यकर्माला आईची साथ होती. त्यावेळी लकडी पुलावर नदीकाठी काळीशार माती भरपूर असायची. आई अवघड लकडी पूल उतरून, नदी काठावरची काळी माती पिशवी भरून, खांद्यावरून आणायची. ती चाळणीने मऊशार चाळायची आणि देवघराच्या फडताळ्यात डब्यात भरून ठेवायची. देवाची तांब्याची उपकरणी लख्ख करण्याचं काम आम्हा मुलींकडे असायचं आणि त्याबद्दल आम्हांला बक्षीस काय मिळायचं माहित आहे? श्रीखंडाची गोळी. पण ती चघळतांना आमची ब्रह्मानंदी टाळी लागायची. आजकालची कॅडबरी पण त्याच्यापुढे नक्कीच फिक्की ठरेल.

तर त्या चंदीगड प्रवासात आईने काळ्या मातीचे बोचकंही बरोबर आठवणीने घेतलं होतं. आणि हो! काळीमाती भिजवायला पुरेसं घरचं पाणी फिरकीच्या तांब्यातून घ्यायला आई विसरली नव्हती. तेव्हा पितळीचे छान कडी असलेले तांबे प्रवासात सगळेजण वापरायचे. थर्मास चा शोध तेव्हां लागला नव्हता आणि प्लॅस्टिकच्या पाण्याच्या बाटल्या तर अस्तित्वातच नव्हत्या.

ति. नानांनी महादेवाची पिंड इतकी सुबक, इतकी सुबक बनवली की, रेल्वेच्या जनरल बोगीतली लोकं महादेवाची पिंड बघायला गोळा झाले. पार्थिव पूजा, मंत्र जागर, उत्तर पूजा पण गाडीतच झाली. सगळ्यांना इतकी अपूर्वाई वाटली. नानांच्या भोवती ही गर्दी झाली.

त्यावेळी रेल्वे डब्याच्या खिडक्यांना गज नव्हते. इतकी गर्दी झाली की एका पंजाबी ‘टीसी’ नें ही बातमी स्टेशन मास्तरला पुरवली. प्लॅटफॉर्मवर नानांची पूजा बघायला हा घोळका झाला.

योगायोग असा की कुणालातरी जवळच असलेलं बेलाचं झाड दिसलं.. गाडी सुटायला अवकाश होता. वयस्करांनी तरुणांना पिटाळलं. पटापट गाडीतून माकडा सारख्या उड्या मारून पोरांनी बेलाची पाने तोडली. भाविकांनी पिंडीवर मनोभावे वाहिली. भाविकांच्या श्रद्धेने छोटीशी पिंड हां हां म्हणता बेलाच्या पानाने झाकली गेली. 

रेल्वे डब्यात आपण चहा नाश्ता करतो ना त्या छोटेखाली टेबलावर ही पूजा झाली होती. गाडीच्या त्या जनरल बोगीला मंदिराचं स्वरूप आलं होतं. असा आमचा एरवी कंटाळवाणा वाटणारा प्रवास मजेशीर झाला. नंतर तर लोक नानांच्याही आणि जोडीने  आईच्या पण पाया पडायला लागले.   आई नाना अवघडले, संकोचले. आम्ही मात्र तोंडावर हात ठेवून हा सोहळा बघतच राह्यलो. खरं सांगु, तेव्हा तर माझे आई-वडिल मला शंकर-पार्वतीच भासले.

तर मंडळी, अशी ही भावभक्तीने भारलेल्या शिवभक्ताची ही आठवण कथा.

शिवशंभो  महादेवा तुला त्रिवार दंडवत. 

माझी सासरेही महा पुण्यवान  शिवभक्त होते. कारण महाशिवरात्रीलाच ते जीवा शिवाच्या भेटीला गेले. अशा या थोर वडीलधाऱ्यांच्या पूर्वपुण्याई मुळेच आपण सुखात आहोत नाही कां?

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ महादेव शिवशंकर ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– महादेव शिवशंकर – ? ☆ श्री आशिष  बिवलकर ☆

सर्व देवांच्यात सर्वश्रेष्ठ,

असती हर हर महादेव!

सृष्टीचा तारणहार,

शिवस्तुती करावी सदैव! …..१

 

पत्नी पार्वती, 

पुत्र कार्तिकेय -गणपती ! 

पुत्री अशोक सुंदरी, 

भक्तांच्या हाकेला धावती!….२

 

शिरी चंद्रकोर धारण, 

हातात त्रिशूल डमरू! 

नंदीवर होई स्वार,

भोलेनाथ बाबा अवतरू! …..3

 

जटातून वाहे गंगा ,

म्हणती कुणी गंगाधर!

कंठात हलाहल प्राशन करून

नीळकंठ परमेश्वर ! …..४

 

चिताभस्म नित्य लावे,

कंठाभोवती वासुकी नाग!

व्याघ्र चर्मावर बैसे,

त्रिकाळाची असे जाग!   …..५

   

त्रिनेत्र सामर्थ्य शिवाचे ,

पाही भूत ,भविष्य, वर्तमान!

तांडव नृत्य करून, 

नृत्यात नटराज सामर्थ्यवान! …..६

 

त्रिदल बेल वाहता, 

होई भोलेनाथ प्रसन्न!

मनोप्सित वर देऊन,

भक्तांना करी धन्य! …..७

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 180 – याद के संदर्भ में दोहे… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – याद के संदर्भ में दोहे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 180 – याद के संदर्भ में दोहे …  ✍

याद हमारी आ गई, या कुछ किया प्रयास।

अपना तो यह हाल है, यादें बने लिबास।।

*

 फूल तुम्हारी याद के, जीवन का एहसास।

 वरना है यह जिंदगी, जंगल का रहवास।।

*

 यादों की कंदील ने ,इतना दिया उजास।

 भूलों के भूगोल ने, बांच लिया इतिहास ।।

*

बादल आकर ले गए ,उजली उजली धूप ।

अंधियारे में कौंधते, यादों वाले स्तूप।।

*

 सांसो की सरगम बजे, किया किसी ने याद।

 शब्दों का है मौन व्रत, कौन करे संवाद ।।

*

यादों के आकाश में,फूले खूब बबूल ।

सांसों की सर फूंद भी, अधर रही है झूल ।।

*

सांसों का संकीर्तन, मिलन क्षणों की याद।

 मन – ही – मन से कर रहा, एकाकी संवाद।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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