(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम बाल गीत “पुस्तक मेला…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #227 ☆
☆ बाल गीत – पुस्तक मेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झुलसाते दिन…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ झुलसाते दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई…“)
मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “मिलन मोशाय : 1“।)
“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)
आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे.
डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – भीख।)
☆ लघुकथा – भीख ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
ऑफिस जाने की बहुत जल्दी मैं गोपाल ने चौराहे पर लाल बत्ती देखे कर बहुत जोर से गुस्सा मैं बड़बड़ने लगा पता नहीं क्यों लोग चौराहे पर खड़े हो जाते हैं।
10 वर्ष का लड़का उसके स्कूटर को पूछने लगा और उसने कहा कि साहब ₹50 देकर पुण्य कमा लो।
गोपाल ने कहा मुझे अगर पुण्य कमाने का शौक होता तो मैं मंदिर में जाता यहां नहीं आता?
हरी बत्ती जलती हुई और वह गाड़ी स्टार्ट किया तभी उसके कान में एक संवाद सुनाई दिया तू भी धंधा में नया नया आया है स्कूटी की तरफ नहीं जाते हैं कार,बड़ी गाड़ी की तरफ जाते हैं वह लोग ही पैसे देते हैं यह लोग तो बस ऐसा ही ज्ञान देते हैं।
गोपाल को अपमानित सामाजिक श्रेष्ठता बौद्ध का दर्द ज्यादा दरिया दिल दिखाते हुए उसने उस लड़के को बुलाकर ₹100 दिए।
उस लड़के ने कहा बाबूजी आप ही अपना रुपया रख लो शायद आप के काम आए ऐसा कह कर जेब में डाल दिया।
अपनी भी विवशता थी और अपमान से हृदय छलनी हो गया था और उन्होंने तुरंत स्कूटर स्टार्ट करके अपने ऑफिस की ओर कूच किया।
गोपाल ने सोचा- पहले लोग भीख देने पर दुआ देते थे पर अब भिखारियों की भी तरक्की हो गई है उनका भी स्तर और ठाट बाट बढ़ गया है यह नौकरी से अच्छा धंधा है…..।
तभी उसे बॉस ने अपने केबिन में बुलाया – ऑफिस आने का यही समय है क्या?
गोपाल -दोनों हाथ जोड़कर अपने बॉस से माफी की भीख मांगने लगा सर मुझे कुछ आवश्यक कार्य के कारण आज ऑफिस आने में देर हो गई…..।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पास से, जब तू गुजर जाता है…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 50 – पास से, जब तू गुजर जाता है… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “पीर थक कर सो गई है…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 7 – संस्मरण
कुछ घटनाएँ, कुछ दृश्य और कुछ पढ़ी -सुनी बातें चिर स्मरणीय होती हैं। उस पर समय की कई परतें चढ़ जाती हैं और वह मन-मस्तिष्क के किसी कोने में सुप्त पड़ी रहती हैं। फिर कुछ घटनाएँ घटती हैं तो सुप्त स्मृतियाँ झंकृत हो उठती हैं।
कल अपनी एक सखी के घर भोजन करते समय बचपन की एक ऐसी ही घटना स्मरण हो आई जो सुप्त रूप से मानसपटल पर कुंडली मारकर बैठी थी।
घटना 1965 की है। हमें पुणे आकर तीन ही महीने हुए थे। हम चतुर्शृंगी मंदिर के पास रहते थे और यहाँ निवास करनेवाले सभी ब्राह्मण थे। हमारी सहेलियाँ भी उन्हीं परिवारों की ही थीं। सबका रहन -सहन अत्यंत साधारण ही था। यह बंगलों की कॉलोनी है। आज तीसरी पीढ़ी उन्हीं घरों में रहती है। सभी घर पत्थर के बने हुए हैं। यह सब कुछ हमारे लिए नया-नया ही था।
गणपति के उत्सव के दौरान एक दिन गौरी गणपति की स्थापना होती है और गणपति की दोनों पत्नियों की पूजा की जाती है। देवस्थान को खूब सजाते हैं, गौरी की मूर्ति का शृंगार करते हैं सुंदर सिल्क की साड़ी पहनाते हैं। गजरा और फूलों से मूर्तियाँ सजाई जाती हैं।
हमारी सहेली विद्या और संजीवनी के घर पर हम लड़कियों को दस बजे के समय भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था। हमारी माताएँ शाम को हल्दी कुमकुम के लिए आमंत्रित थीं।
रसोईघर में अंग्रेज़ी के L के आकार में दरी बिछाई गई थी। सामने चौकियाँ थीं उस पर बड़ा – सा एक थाल रखा हुआ था, बाईं ओर लोटा और पेला पानी से भरकर रखा गया था।
(उन दिनों गिलास से पानी पीने की प्रथा महाराष्ट्रीय ब्राह्मण या ज़मीदार परिवारों में नहीं थी।) चौकी के हर पैर के नीचे रंगोली सजाई गई थी। हम सात सहेलियाँ ही आमंत्रित थीं। हमें अभी मासिक धर्म न होने के कारण हम कन्या पूजा की श्रेणी में थीं। घर में घुसते ही हमें मोगरे के गजरे दिए गए।
भोजन परोसना प्रारंभ हुआ। अब सारी तस्वीरें मानसपटल पर स्पष्ट उभर रही हैं मानो कल की ही बात हो। दाईं ओर से परोसना प्रारंभ हुआ।
पहले थोड़ा सा नमक रखा गया, फिर एक नींबू का आठवाँ टुकड़ा, फिर धनियापत्ती की चटनी, थोड़ा सा आम का अचार, फिर चूरा किया गया कुरडी -पापड़, थोड़ी सी कोशिंबिर फिर अरबी के पत्ते से बनी आडू वडी वह भी एक, फिर उबले आलू की सूखी सब्ज़ी, एक चम्मच भर, कटोरी में भरवे छोटे बैंगन की सब्ज़ी, और फिर एक तरी वाली सब्ज़ी- आज स्मरण नहीं किस चीज़ की सब्ज़ी थी पर उसके ऊपर तरलता तेल आज भी आँखों में बसा है।
फिर आया एक छोटी सी कटोरी में दबाकर भरा सुगंधित गोल – गोल चावल का भात, (जिसे अंबेमोर कहते हैं। उन दिनों उच्च स्तरीय महाराष्ट्रीय यही खाते थे।) उस पर आया बिना छौंक की दाल जिसे मराठी में वरण कहते हैं और उस पर आया चम्मच भर घी ! संजीवनी -विद्या की माँ ने जिन्हें हम काकू पुकारते थे, हम सबके पैरों पर थोड़ा पानी डाला, अपने आँचल से पोंछा और हमें प्रणाम किया।
हम दोनों बहनें हतप्रभ सी थीं। कल तक हम ही झुक – झुककर हर अपने से बड़े को प्रणाम करती आ रही थीं आज कोई हमारी पूजा कर रहा है? आठ – नौ वर्ष की उम्र में हमारे लिए सब कुछ नया था। हम दिल्ली से आए थे जहाँ की संस्कृति भिन्न थी और बँगालियों की और भी अलग रीति -रिवाज़ हैं। (मैं बँगला भाषी हूँ)
हम दोनों बहनें आपस में बँगला में चर्चा करने लगीं कि कहाँ से शुरू करें, मैं तो थी ही बदमाश मैंने उससे कहा था -पक्षी के बीट की तरह इतनी – इतनी सी चीज़ें दीं। क्या कंजूस है काकू। छोड़दी (बँगला भाषा में छोटी दीदी) ने मेरी जाँघ पर चिमटी ली थी और बोली -चुप करके खा। फिर जैसे सबने खाया हमने भी खाया। फिर बारी आई रोटी की। रोटियाँ तोड़कर उसके चार टुकड़े किए गए और एक चौथाई टुकड़ा हमारी थाली पर डाली गईं। हम दोनों बहनों ने किसी तरह खाना खाया और दौड़कर रोते हुए घर आए।
छोटे थे, भाषा नहीं आती थी, माँ ने दोनों को बाहों में भर लिया। हम रो-रोकर जब सिसकियाँ भरने लगीं तो माँ ने पूछा क्या हुआ?
छोड़दी का मन बड़ा साफ़ था उसने हमारे चरण धोने, की बात पहले बताई। पर मुझे तो जल्दी थी अपनी कथा सुनाने की। सिसकियों से बँधी आवाज़ में मैंने कहना शुरू किया। वह कुछ बोलने गई तो मैंने अपनी बाईं हथेली से उसका मुँह बंद कर दिया और माँ से कहा- चिड़िया की बीट की तरह इतनी सी चटनी अचार दिए, नींबू का बहुत छोटा टुकड़ा थाली में रखा। जानती हो माँ पापड़ भी चूरा करके दिया और रोटियाँ फाड़कर टुकड़े में दिए। हम क्या भिखारी हैं या कुत्ते हैं जो इस तरह हमें खाना परोसा? हम खूब रोए और सो गए।
उन दिनों महाराष्ट्र में लोग नाश्ता नहीं करते थे। दस बजे पूरा भोजन लेने की प्रथा थी। इसलिए शायद मराठी स्कूल ग्यारह या बारह बजे प्रारंभ होते थे।
बाबा दफ़्तर से भोजन के लिए घर आते थे। माँ ने हमारी व्यथा कथा सुनाई और साथ में कहा कि बच्चियाँ बहुत अपमानित महसूस कर गईं आप बात कीजिए।
शाम को बाबा ने महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति पर प्रकाश डाला, समझाया कि यह पठारी इलाका है, यहाँ के लोगों का भोजन हमसे अलग है। उनकी रोटियाँ बहुत बड़ी और पतली होती है, इसे वे घडी ची पोळी कहते हैं। तुम लोग एक रोटी न खा पाते इसलिए तोड़कर दी है। आज यहाँ के लोग गेहूँ की चपाती खा रहै हैं पर उनका मूल भोजन बाजरी और ज्वारी की रोटी है। जो पतली नर्म और बड़ी -बड़ी होती है। स्नेह और सम्मान के साथ इन बड़ी रोटियों के चार टुकड़े कर वे परोसी जाती हैं।
और कुरडई तोड़कर दिया क्योंकि पूरा पकड़कर खाने पर सब तरफ टुकड़े गिरते, बरबाद होता। उन्होंने तो तुम दोनों का सम्मान किया, स्नेह से भोजन कराया। जो और माँगते तो काकू फिर देतीं।
छोड़दी तुरंत बोली -हाँ हाँ काकू बार – बार वाढ़ू का, वाढ़ू का बोल रही थीं पर हम नहीं समझे।
इस घटना के बाद शाम को माँ के साथ हम फिर उनके घर गए। माँ ने हमारी गलत फ़हमी की बात काकू से कही। काकू ने हमें गले लगाया प्यार किया और हमने उन्हें झुककर प्रणाम किया। शायद सॉरी कहने की उन दिनों यही प्रथा रही थी।
किसी भी स्थान के भोजन के तौर -तरीकों से पहले उसकी जानकारी ले लेना आवश्यक है यह हमने अपने अनुभव से सीखा।
हम छोटे थे, नए -नए पुणे आए थे यहाँ की भाषा, लोग, पहनावा (महिलाएँ नौवारी साड़ी पहना करती थीं।) प्रथाएँ, त्योहार, इतिहास सबसे अपरिचित थे।
आज हमें 58 वर्ष हो गए यहाँ आकर। यहाँ का भोजन, भाषा, साहित्य पूजापाठ की परिपाटी से हम न केवल परिचित हुए बल्कि आज हमारी बेटियाँ गणपति जी का दस दिन घर में पूजा करती हैं। गौरी लाई जाती हैं हल्दी कुमकुम का आयोजन होता है।
कोशिंबिर, कुरडई हमारे भोजन की थाली का अंश है। हम वरण, आमटी, पोरण पोळी भी बनाकर चाव से खाते हैं। यहाँ तक कि हमारी तीसरी पीढ़ी आज मराठी भाषा ही बोलती है।
आज हम फिर एक बार पंगत में बैठकर वाढ़ू का सुनने की प्रतीक्षा करते हैं। अब तो वह संस्कृति और प्रचलन समाज से बाहर ही हो गए। प्रथा ही खत्म हो गई। उसमें आतिथ्य का भाव हुआ करता था। भोजन बर्बाद होने की संभावना कम रहती थी।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – जाति का नशा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 277 ☆
व्यंग्य – जाति का नशा
भांग, तंबाखू, गुड़ाखू, अफीम, देशी शराब, विदेशी व्हिस्की, ड्रग्स, सब भांति भांति के नशे की दुकानें हैं। हर नशे का मूल उद्देश्य एक ही होता है, यथार्थ से परे वर्तमान को भुलाकर आनंद के एक तंद्रा लोक में पहुंचा देना।
अफीम के आनंद में कोई साधक परमात्मा से डायरेक्ट कनेक्शन खोज निकालता है। तो कोई वैज्ञानिक ड्रग्स लेकर अन्वेषण और आविष्कार कर डालता है। शराब के नशे में लेखक नई कहानी लिख लेते हैं। तंबाखू गुटका खाकर ड्राइवर लंबे सफर तय कर डालते हैं। परीक्षाओं की तैयारियां करने में
चाय काफी सिगरेट के नशे से स्टूडेंट्स को मदद मिलती है। बीड़ी के धुंए से मजदूर अपनी मजबूरी भूल मजबूती से काम कर लेते हैं। और शाम को दारू के नशे में शरीर का दर्द भूल जाते हैं।
दिमाग का केमिकल लोचा सारी शारीरिक मानसिक शक्तियों को एकाग्र कर देता है। यूं बिना किसी बाहरी ड्रग के भी यौगिक क्रियाओं से दिमाग को इस परम आनंद की अनुभूति के लिए वांछित केमिकल्स खुद उत्पादित करने की क्षमता हमारे शरीर में होती है। उसे सक्रिय करना ही साधना है। नन्हें शिशु को मां के दूध से ही वह परमानंद प्राप्त हो जाता है कि वह बेसुध लार टपकाता गहरी नींद सो लेता है। प्रेमियों को प्रेम में भी वही चरम सुख मिलता है। जहां वे दीन दुनिया से अप्रभावित अपना ही संसार रच लेते हैं।
जातियां, धर्म, क्षेत्रीयता, राष्ट्रवाद, भाषाई या राजनैतिक अथवा अन्य आधारों से ध्रुवीकरण भी किंबहुना ऐसा ही नशा उत्पन्न करते हैं कि लोग बेसुध होकर आपा खो देते हैं। जातीय अपमान की एक व्हाट्स अप अफवाह पर भी बड़े बड़े समूह मिनटों में बहक जाते हैं। इस कदर कि मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं।
कभी समाज में विभिन्न कार्यों के सुचारू संचालन हेतु कोई कार्य विभाजन किया गया था। कालांतर में यह वर्गीकरण जातियों में बदल गया। ठीक उसी तरह जैसे आज साफ्टवेयर इंजीनियर, वकील, डाक्टर्स, आई ए एस वगैरह का हाल है, परस्पर कार्यों की समुचित समझ और स्टेट्स की समानता के चलते कितने ही विवाह इस तरह के ग्रुप में समान कार्यधर्मी से होते दिखते हैं।
जातियां बड़े काम की चीज हैं, आरक्षण की मांग हो, सरकारी योजनाओं के लाभ लेने हों, तो लामबंद जातीय समीकरण नेताओ को खींच लाते हैं, और मांगे पूरी हों न हों, आश्वासन जैसा कुछ न कुछ तो हासिल हो ही जाता है। जातीय संख्या राजनीति को आकर्षित करती है। लाम बंद जातियां नेताओ को वोट बैंक नजर आती हैं। गिव एंड टेक के रिश्ते मजबूत हो जाते हैं। समूह के हित जातियों के लिए फेविकोल सा काम करते हैं।
बेबात की बात पर जात बाहर और भात भोज से जात मिलाई, तनखैया घोषित कर देना, फतवे जारी कर देना जातीय पंचायतों की अलिखित ताकत हैं। बहरहाल हम तो कलम वाली बिरादरी के हैं और हमारा मानना है कि जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।