हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 215 ☆ “चुनावी अखाड़े का एक दिन…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य – चुनावी अखाड़े का एक दिन…”)

व्यंग्य – चुनावी अखाड़े का एक दिन…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

पेट में भूख कुलबुला रही है और चुनाव परिणाम की चिंता में प्यास से गला सूख रहा है, मोटरसाइकिल रोकी , सड़क किनारे एक ढाबे में रुके, साधारण सा ढाबा था, पर भीड़ थी, क्योंकि टीवी में चुनाव परिणाम आने वाले थे।

इस ढाबे का मालिक मामा उसूलों वाला है, हर बात में पटर पटर करता है , चुनाव के छै महीने पहले थाली की कटोरी में पूरी सब्जी भर देता है, उपदेश देने में होशियार है,पर खुद अंदर से लोभी है।

भोजन मंगाया तो पाया थाली में पूरी भरी दो कटोरियों में आलू मिली सब्जियां और दो कटोरी में पानी वाली दाल…… हर कटोरी में सब्जी के साथ आलू। हो सकता है कुछ सब्जी कल की बासी भी मिला दी हो। हर राजनैतिक दल के पास अलग अलग जायके और मसाले वाली सब्जी होती है।

सामने टी वी लगा है और चुनाव परिणाम इसी में आने वाले हैं।टी वी चैनल वाला ऐंकर बार बार थोड़ी देर में  बम्फर….. बम्फर… और कांटे की टक्कर… जरूर कह रहा है पर कोई बढ़त – अढ़त नहीं दिखा रहा है,बार बार कहता है ‘अभी कहीं जाइएगा नहीं …. बस हम तुरंत खास खबर लेकर आ रहे हैं’…

ऐसा कहकर लाखों के विज्ञापन दिखा रहा है। ये टी वी चैनल वाले ‘आज तक’ कहके खबरें दिखाते हैं और विकास और विश्वास के झटके को ‘दस तक’ ले जाते हैं फिर तीन तेरह का चक्कर चलाकर टाइम पास करते हैं और रोज धमकी देते हैं कि

‘आप अपना बहुत ख्याल रखिएगा’

टीवी से धमकी भी मिल रही है और हम थाली का खाना खाए जा रहे हैं। टी वी चैनल में चुनाव परिणाम आने के कारण विज्ञापन के रेट आसमान छू रहे हैं फिर भी ये बाबा चैन नहीं ले रहा है खाना चालू करने के बाद अभी तक सौ बार टी वी में दौड़ दौड़ के ऊधम मचा चुका है।

टी वी चैनल वाले भी अजीब हैं, रात को खाना खाने बैठो तो बार बार ‘दस्त तक – दस्त तक’ करने लगते हैं। ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चल रही है,

“बस थोड़ा देर में चुनावी रुझान सिर्फ इसी चैनल पर” आगे लिखा आ रहा है “सबका साथ सबका विकास का रास्ता जीत से चालू होता है ” बाजू वाला कह रहा है कि इस बार आदिवासियों ने जिनसे पैसा लिया है उनको वोट नहीं दिया।

थाली की कटोरी में सब्जी खतम हो गई है, कटोरी चिल्ला रही है, कोई ध्यान नहीं दे रहा है, लटके झटके के साथ नेपथ्य में ठहाके लग रहे है। ढाबे के ग्राहक चुनावी रुझान देखने तड़फ रहे हैं। गर्म रोटी देते हुए बैरा बड़बड़ा रहा है, लाड़ली बहना का डंका बजा रहे हैं और लाड़ले भैया को अंगूठा दिखा रहे हैं।

थाली की कटोरी में अब पानी वाली दाल भर बची है……. टी वी विज्ञापनों में फटी जीन्स से झांकते अंग दिख रहे हैं। अचानक टी वी वाले का चेहरा प्रगट होता है कह रहा है – चुनावी परिणाम थोड़ी देर में……… जब तक रुझान के पहले कुछ खास लोगों की चर्चा देखिये…….

टी वी में एक बिका हुआ चर्चित पत्रकार चुनाव के बारे में बता रहा है – इस बार के क्रांतिकारी चुनाव में 100 प्रतिशत से ज्यादा पारदर्शिता  रही है, जो सांसद, मंत्री अपने को तीसमारखां समझते थे उनको भी विधायकी की लाइन में लगवा दिया गया।

चुनाव की पारदर्शिता के बारे में जनता को जानने का अधिकार है हालांकि ये पब्लिक है ये सब जानती है।

ये देखो इनकी बदमाशियां पहले खूब विज्ञापन चलाया अब  टाइमपास करने के लिए एंकर एक महिला को पकड़ लाए।

महिला मुस्कुराते हुए बोली – यह देश हमेशा से उसूलों का देश नहीं रहा… असल में यह तो था भले मानुषों का देश,  लेकिन फंस गया नेताओं के चक्कर में।  नेता होशियार तो होते ही हैं मौके – बे – मौके होशियारी दिखाते भी हैं और चुनाव के समय होशियारी दिखाने का अच्छा मौका मिल जाता है। एंकर बीच में टोकने लगा तो महिला बोली – देखिए मुझे पूरा बोलने नहीं दिया जा रहा है……

सब चिल्ल पों कर रहे हैं कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है……

झड़पें बढ़ रहीं हैं अरे…. अरे ये टोपीधारी……. चलिए अच्छा टोपी वालों की बात सुन लीजिए…. हां… हां.. बोलिए…… देखिए  रामचन्द्र कह गए सिया से ऐसा कलियुग आयेगा जब चुनाव जिताने का ठेका राम जी के पास हो जाएगा।

घोर कलि-काल है, मूल्यों का पतन हो रहा है झटकेबाजी चरम सीमा पर है,

थाली का खाना खतम हो गया है,भूख मिटी नहीं है, रुझान आने चालू हो गए हैं, ढाबे में भीड़ बढ़ गई है ,उधर गाय भूखी खड़ी है और सबको चुनाव परिणाम देखने की पड़ी है।

गजब हैं ये चैनल वाले एक जगह का रुझान दिखाते हैं फिर मंदिर दिखाने लगते हैं, सब टकटकी निगाहों से टीवी देख रहे हैं और भूखी गाय की तरफ किसी का ध्यान नहीं है।

टी वी देखने वाले परेशान हो गए हैं ज्यादा चिल्ल – पों देखते हुए फिर से विज्ञापन चला दिया गया है। इधर भूखी गैया ढाबे में घुसकर ऊधम मचाने लगी है सब लोग इधर-उधर भाग रहे हैं। ढाबे वाले ने टी वी पर सुना कि ……. अभी कहीं जाईयेगा नहीं….. थोड़ी देर में चुनावी परिणाम  आने वाले हैं  फिर नया ऐंकर प्रगट हुआ और ढाबे की लाईट गोल हो गई…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 213 ⇒ एक संवाद आइने से… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जश्न और त्रासदी “।)

?अभी अभी # 213 ⇒ एक संवाद आइने से… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आईना मुझसे मेरी पहली सी सूरत मांगे ! एक भोला भाला, मासूम, सफाचट चेहरा मांगे।

अब उस चेहरे पर परिपक्वता के साथ सफेद काली दाढ़ी मूंछ भी आ गई है। जिसका जो चेहरा होता है, वही स्वीकारा जाता है, आईने का इसमें क्या जाता है।।

कौन पहचानता है आज वह तस्वीरों में धुंधला सा श्वेत श्याम चेहरा, जरा आज देखिए उन चेहरों की ओर ! हर ओर विराट कोहली और केबीसी के बिग बी के चेहरों का शोर। जहां दाढ़ी नहीं, विराट नहीं, अमिताभ नहीं।

कितने चेहरों पर चढ़ गई विराट और महानायक की दाढ़ी, आइना गवाह है। किसको आज ५६ इंच के सीने का सफाचट चेहरा याद है। मोदी जी की दाढ़ी ही चेहरा है, ये इंसान आज कौन नहीं, आइकॉन है।।

इनमें से कोई नहीं कहता, चाहता, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। अगर आज आइना, इन्हें अपना वही पुराना चेहरा दिखाने चले, तो ये आईने को ही बदल दें। जो युग बदलना जानता है, क्या वह एक आईना नहीं बदल सकता।

इतनी जिद भी ठीक नहीं ऐ दकियानूस आइने ! अपनी औकात में रह। तू पहले खुद अपना चेहरा आईने में देख ले, तुझे कुछ भी नजर नहीं आएगा। जो चेहरे जैसे असली नकली, नकाबपोश और पर्दानशीं नजर आते हैं, उनके ही पीछे उनकी असलियत छुपी होती है।

पैसा, प्रसिद्धि और लोकेष्णा एक चेहरे पर कई चेहरे लगा देती है।

बिना शर्त और बिना किसी मांग के उनकी खुशी में तू अपनी खैर मना, क्योंकि तू है सिर्फ एक आइना।।

एक शुभचिंतक !

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – शहीद ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘शहीद’।)

☆ लघुकथा – शहीद ☆

सुशीला जी ने, अपने बेटे राहुल के, शहीद होने की खबर, टीवी पर देख ली थी,  दिल धक करके रह गया, वह गश खाकर भूमि पर गिर पड़ी थी, ऐसा लगा जैसे,उसका सब कुछ विधाता ने छीन लिया है ये क्या हो गया,पर होनी थी, हो गई, और आज सेना के जवान उसके बेटे का शव लेकर उसके गांव आए थे, राहुल के दोस्त समीर ने घर का दरवाजा खटखटाया, वह घर में चुपचाप बैठी थी, सोच रही थी, अब कौन आएगा, जिसका इंतजार था जिसका इंतजार रहता था,उसके तो शहीद होने की खबर आ गई है,  फिर भी उसने, धीरे से सांकल खोली, दरवाजा खुला, तो सामने राहुल का दोस्त समीर यूनिफॉर्म में खड़ा था, समीर पास ही के गांव का था, राहुल के साथ पढा था,और दोनों एक साथ आर्मी में भर्ती हुए थे, समीर ने सुशीला के पैर छुए, और कहा, मां राहुल ने देश पर अपनी जान कुर्बान कर दी, शहीद हो गया है, सुशीला, समीर को एक टक देखती रही, और कहां मुझे टीवी पर समाचार मिल गया था, समीर ने कहा मां आज हम शहीद राहुल को लेकर आए हैं, अंतिम संस्कार के लिए, आप उसके अंतिम दर्शन कर लें, सुशीला बाहर निकली, उसने देखा, आर्मी के वाहन पर ताबूत रखा हुआ है,पीछे बहुत भीड़ थी, शायद सबको गांव में समाचार मिल गया था, वह भी साथ में, शमशान घाट पहुंची, चिता पर राहुल का शव लिटाया गया, राहुल का शव तिरंगे में लिपटा हुआ था, तिरंगा हटाकर सुशील ने राहुल का चेहरा देखा, और देखती रही, एक आंसू भी नहीं निकला, बस शव को एक टक देख रही थी, तभी पंडित जी ने कहा, मां जी शव को मुखाग्नि कौन देगा,, तो सुशीला ने कहा, मैं मैं दूंगी,,, मैं तो इंतजार कर रही थी कि मेरा बेटा मेरे शव को मुखाग्नि नहीं दे, पर विधाता ने मुझे अवसर दिया,

सज के तिरंगे में आया है मेरा लाल,कोई नजर उतारो, कोई नजर उतारो, और सुशीला ने अपने बेटे के शव को मुखाग्नि दी, गांव में शहीद अमर रहे, के नारे लग रहे थे,  सुशीला समीर का सहारा लेकर एक किनारे बैठकर बेटे की चिता को देख रही थी, कि, उसका एक सहारा था वह भी चला गया, पर, मौन थी,,तभी समीर ने कहा मां  राहुल ने खत दिया था मुझे, आपको देने के लिए कहा था, कि अगर मैं देश पर बलिदान हो जाऊं, तो मेरी मां को मेरी एक चिट्ठी दे देना, सुशील ने चिट्ठी ली और पढ़ी,

उसमें लिखा था, मां, मैंने पीठ नहीं दिखाई, दुश्मनों को मार कर, दुश्मन की गोली अपने सीने पर खाई है, मां मैंने उन नापाक हाथों को अपनी भारत माता के आंचल की तरफ बढ़ने नहीं दिया, मैंने उनको खत्म कर दिया, सुशीला ने अपना चेहरा उठाया, और कहा, मेरे लाल, तूने अपनी मां के दूध की लाज रख ली, तूने भारत माता का कर्ज उतार दिया, तू धन्य है पर कौन है वो, जो मां के लाल पर गोली चलाते हैं, वह भी तो किसी मां के लाल हैं, क्यों गोली चलाते हैं, उन्हें किसी ने नहीं समझाया कि तुम भी अपनी मां के लाल हो, और जो सामने खड़े हैं, वह तो तुम्हें जानते भी नहीं, तुम्हारी तो उनसे कोई दुश्मनी नहीं है, किस धर्म में लिखा है, कि धर्म की खातिर जान लो, किसी धर्म में नहीं लिखा, कि किसी का खून बहाया जाए, बंद करो यह रक्तपात, इससे किसी का भला नहीं है ,जैसे मेरा सहारा मुझसे छिन गया, जो मरे हैं वह भी तो किसी मां के लाल हैं ,उनका भी तो सहारा छिन गया, आज वह मां भी क्या सोच रही होगी, यह कैसा आतंक है, यह कैसा जिहाद है, बस करो, अब जिओ और जीने दो,अब सरहद पर खून की नदी बहाना बंद करो, और यह कहकर समीर के कंधे पर हाथ रखकर  अपने घर वापस आ गई,समीर ने कहा, मां राहुल नहीं है तो क्या हुआ, तुम्हारा दूसरा बेटा समीर तो है, वह किसी दुश्मन की नापाक  निगाहों से देश को देखने नहीं देगा, वह भी हर उसे हाथ को काट देगा, जो भारत माता की ओर बढ़ेंगे, सुशीला कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं थी, क्योंकि उसकी सांस भी अब रुक गई थी, बेटे के साथ मां ने भी दम तोड़ दिया था, समीर चिल्लाया, मां, मां, पर मां कहां थी वह तो अपने बेटे के साथ अनंत यात्रा को निकल चली थी…

कौन समझाए इन देश के दुश्मनों को, कि जो रक्तपात तुम करते हो तो तुम्हारी गोली किसी एक को नहीं मारती, उसके साथ जाने कितनी जान चली जाती हैं, कितने घर उजड़ जाते हैं, कितनी मांगे उजाड़ जाती हैं, जिन्हें तुम जानते भी नहीं हो, उन पर गोली चलाते हो, बंद करो ये सब,ये जिहाद नहीं,दहशत गर्दी है,इससे मानवता लहूलुहान होती है,धरती को खून से नहीं सींचना है,धरती पर तो प्रेम का संदेश फैलाना है.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 156 ☆ # नवपुरुष # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# नवपुरुष #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 156 ☆

☆ # नवपुरुष #

पथिक पथ पर चला अकेला

ना कोई साथी, ना कोई मेला

अपनी धुन मे हैं मनमौजी

अपनी तरह का वह अलबेला

उसे राह में –

कहीं धूप तो कहीं छांव मिली

ठंडी ठंडी पुरवाई, गांव गांव मिली

कहीं ताल तो कहीं तलैया

कहीं नदी तो कहीं नाव मिली

कहीं कहीं मिली –

फूलों से सजे बागों में

प्रीत के बंधे धागों में

कली कली उन्माद में डूबी

भ्रमर के प्रणय पागों में

कहीं कहीं राह में –

सहज, सरल इन्सान मिले

धर्म भीरु से प्राण मिले

सत्य को ओढ़ते, बिछाते

सत्यनिष्ठ सत्यवान मिले

कहीं कहीं –

पसीना बहाते श्रमवीर मिले

कहीं खेत जोतते कर्मवीर मिले

कहीं अपना सर्वस्व वंचितों को सौंपकर

परमार्थ साधते दानवीर मिले

कहीं कहीं स्वयं-भू बने महापुरुष मिले

कहीं कहीं मिडिया से बने युगपुरुष मिले

कहीं कहीं “मैं” की चादर ओढ़े हुए

पाखंडी, बहुरूपिए नवपुरुष मिले/

 © श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ – दुःख उगाळून हाती…– ☆ सौ. अलका ओमप्रकाश माळी ☆

सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ – दुःख उगाळून हाती… – ☆ सौ. अलका ओमप्रकाश माळी ☆

दुःख उगाळून हाती

काहीच लागत नाही..

दुःख विसरू म्हणता

विसरता ही येत नाही..

ह्यालाच जीवन असे नाव असावे..

उघड्या डोळ्यांनी स्वप्न पाहत

नव्याने आयुष्य जगत रहावे..

आशावादी मन हार मानत नाही,

हेच खरं जिंकण आहे..

भूत काळातल्या गोड आठवणी

आठवून भविष्य पाहणं

हेच नियतीशी लढणं आहे..

बळ दे ईश्वरा सहनशक्तीचे..

वेदनेवर मात करून जगण्याचे..

नाती, गोती, मोह, माया

साराच गुंता आहे..

सोडवून हा रेशीम गुंता पुन्हा

नव्याने आयुष्य विणायचे आहे..

साथ विश्वासाची, साथ आरोग्याची

हाच आशीर्वाद मागते..

काळजी दुःख साऱ्या तुझ्या चरणी वाहते..

© सौ. अलका ओमप्रकाश माळी

मोब. 8149121976

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 151 ☆ अभंग – कृपा करी कृष्णा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 151 ? 

☆ अभंग – कृपा करी कृष्णा… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

कृपा करी कृष्णा, शिणलो भागलो

आणिक थकलो, इहलोकी.!!

सुख प्राप्ती साठी, सदैव झटलो

नाहीच विटलो, अकर्मात.!!

स्वार्थी उपायात, धन्यता मानली

व्यर्थ मी खर्चिली, देह बुद्धी.!!

आता मात्र स्वामी, देई तुझे सुख

दिसावे श्रीमुख, सुमंगल.!!

कवी राज म्हणे, अनंत सुमंत

तूच नितिमंत, महाराजा.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ दिपवाळीचे लक्ष्मीपूजन… स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? काव्यानंद ?

☆ दिपवाळीचे लक्ष्मीपूजन… स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆

☆ दिपवाळीचे लक्ष्मीपूजन… स्व. वि. दा. सावरकर ☆

लक्ष्मीपूजन करू घरोघर आम्ही जरी भावे

प्रसन्न पूजेने ना होता लक्ष्मी रागावे

आणि इंग्रज पूजी जरि ना लक्ष्मीची मूर्ती

राबे रिद्धिसिद्धी त्याच्या दाराशी तरि ती

काय बंधुंनो, कारण? रुसली भारतलक्ष्मी कां?

लाथाडुनि दे पूजा अमुची शतकांची देखा

कारण आम्ही सुमें अर्चितो परि ना सुमनानें

विनवू परि ना, विष्णुसम तिला जिंकु विक्रमाने

लक्ष्मीपूजन करावया जैं करितो स्नानाला

परका साबू, परकी तेलें लावू अंगाला

परदेशीचे रेशीम त्याचा मुकटा नेसोनी

देवघरी परदेशी रंगे रंगीत बैसोनी

विदेशातली साखर घालुनि नैवेद्या दावू

अशा पूजनें प्रसन्न होईल लक्ष्मी हे भावू

साबू नेई कोटी, कोटी तेल रुपाया ने

नेई लुटोनी विदेश कोटी अन्य उपायाने

विलायती जी साखर नैवेद्यासी लक्ष्मीच्या

आणियली ती नेत विदेशी कोटी रुपयांच्या

अशा रीतीने लक्ष्मी दवडुनि दाराबाहेरी

लक्ष्मीपूजन करीत बसतो आम्ही देवघरी

आणि विदेशी नळे, फटाके, फुलबाजा अंती

उडवुनि डिंडिम पिटू आपल्या मौर्ख्याचा जगती

अहो हिंदुंनों, कोटी कोटी रुपयांची या दिवशी

लक्ष्मी पूजावयासि लक्ष्मी धाडू विदेशासी

म्हणुनि आम्ही जरी पुजू घरोघर ही लक्ष्मी भावें

प्रसन्न पूजेने ना होता लक्ष्मी रागावे

तरी हिंदुंनों, घरात लक्ष्मी आधी आणावी

विदेशीसि ना शिवू शक्यतो वृत्ती बाणावी

देशी तेलें, देशी साबू, देशी वस्त्रानें

देशी साखर, देशी अस्त्रे, देशी शस्त्रानें

स्वदेशलक्ष्मी पूजू साधुनि जरी मंगलवेळ

गजान्तलक्ष्मी हिंदुहिंदुच्या दारी डोलेल

 – वि दा सावरकर

रसग्रहण

परदेशी वस्तूंवर बहिष्कार घातल्याशिवाय या देशाची भरभराट होणार नाही; ही वस्तुस्थिती सर्वसामान्यांना पटवून देण्यासाठी स्वा. सावरकरांनी ही कविता १९२५ साली रचली. दिवाळीसारख्या सणांच्या वेळी सावरकरांनीच स्थापन केलेल्या हिंदुसभेचे कार्यकर्ते, मेळावे घेऊन, अशा कविता गाऊन, समाजप्रबोधन करण्याचा प्रयत्न करायचे. सर्वसामान्य जनतेला कळावी, पचावी, रुचावी म्हणून सावरकरांनी या कवितेत अगदी सोपी शब्दयोजना केलेली दिसते. तसेच लोकांना सहज पटतील असे दैनंदिन व्यवहारातील दाखले ते देतात. मात्र कितीही सोपी शब्दरचना केली तरी त्यांच्यातला शब्दप्रभू कुठेतरी डोकावतोच. उदा. ‘सुमनें’ वरचा श्लेष किंवा ‘मूर्खता’ साठी वापरलेला शब्द ‘मौर्ख्य’.

लक्ष्मीपूजनादिवशी घराचा दरवाजा उघडा ठेवला की लक्ष्मी घरात येते असा समज आहे. याचाच उपयोग करून कवी सांगतात की, परदेशी फटाके, तेल, साबण, साखर अशा वस्तू वापरून तुम्ही लक्ष्मीला केवळ दरवाजाबाहेरच नव्हे तर देशाबाहेर घालवीत आहात. आपलाच कच्चा माल कवडीमोलाने घेऊन, त्यांच्या देशात बनलेल्या वस्तू हे इंग्रज आपल्याला विकतात व कोट्यावधी रुपये भारतातून लुटून नेतात. अशा परिस्थितीत लक्ष्मी तुमच्या आमच्यावर कशी प्रसन्न होईल. ती रुसून परदेशीच निघून जाणार. याउप्पर आणि परदेशी फटाके वाजवून तुम्ही जणु आपल्या मूर्खतेचा डिंडोराच पिटता. म्हणून हे देशबंधूंनों, आधी देशाबाहेर  जाणाऱ्या लक्ष्मीला थांबवा म्हणजेच एका अर्थाने आधी लक्ष्मीला घरांत घेऊन या व मग तिची पूजा करा.

कविता संपता संपता का होईना पण ‘देशी साखर, देशी अस्त्रे, देशी शस्त्राने’ या ओवीत त्यांच्यातला क्रांतिकारक डोकावतो. ते म्हणतात, देशी वस्त्रे नेसून, देशी साखरेने नैवेद्य बनवून, देशी अस्त्राशस्त्रांने आपण स्वदेशलक्ष्मीची पूजा करू. म्हणजेच स्वातंत्र्यलक्ष्मीला प्रसन्न करण्यासाठी आपण सशस्त्र आंदोलन करू. देश स्वतंत्र झाल्यानंतरच हिंदुस्थानातील प्रत्येकाकडे गजान्तलक्ष्मी नांदेल, देशाची भरभराट होईल.

हे विचार जवळ जवळ १०० वर्षांनंतर, सद्यपरिस्थितीत देखिल अचूक लागू पडतात. आपण पहातो की दिवाळी आली की चिनी बनावटीच्या वस्तूंचा बहिष्कार  करण्याची टूम निघते पण विविध कारणांमुळे हे फारच कमी प्रमाणात  साधलं जातं. म्हणूनच महान, द्रष्ट्या कवींच्या कविता ह्या सार्वकालिक असतात असं म्हटलं जातं.

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ अंगाई… ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

?  विविधा ?

अंगाई… ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

अंगाई हा शब्द कसा आला असेल? खूप विचार केला. अगदी आपल्या गुगल गुरूला पण विचारलं. काही पत्ता लागला नाही. मीच उत्तर मिळवायचा प्रयत्न केला. पूर्वी ‘ गायी गं गायी, माझ्या बाळाला दूध देई ‘ असं म्हणायचे. म्हणजे बाळाच्या परिचयाच्या दोन्ही गोष्टी असणार. गोठ्यात गाय असणार आणि दूध ती देते हे बाळानं पाहिलं असणार.  बाळ रडायला लागलं की त्याची समजूत या गाण्यानं काढली जात असेल व गायी बद्दल आदर लहानपणीच निर्माण होत असेल. नंतर हळू हळू गोठे, गायी काळाच्या उदरात गडप झाल्या. नंतर ते गाणं ‘ गाई  गं अंगाई ‘ असं झालं. त्याचा अर्थ असा लावला गेला असेल की बाळाला, गाई म्हणजे झोप, ती येण्यासाठी गायलं गेलेलं गाणं म्हणजे अंगाई! ही आपली मी माझी काढलेली भाबडी समजूत! पण हे नक्की की आई व्हायचं झालं तर त्या मुलीला अंगाई म्हणता आली पाहिजे असा अलिखित नियम होता. होता म्हणते आहे कारण आज काल आईच्या मदतीला मोबाईल नामक मैत्रीण येते. अंगाई म्हटलं की एक शांत, सौम्य, सोज्वळ गाणं लागतं. अजूनतरी हं ! पुढची पिढी कदाचित ‘ आवाज वाढव डी जे ‘ सारखी गाणी लावतील सुद्धा! कारण तोपर्यंत मुलांना नाजूक आवाजातली गाणी ऐकू येणं बंदही झालं असेल, त्यांनाही मोठ्ठया आवाजातली गाणीच आवडायला लागतील.

मुलांना झोपवताना गाणं म्हणायची पद्धत खूप जुनी असावी. जसं जात्यावर बसलं की ओवी सुचते. तसं बाळ मांडीवर आलं की अंगाई सुचते. ओवी गाण्यासाठी जसं चांगला आवाज किंवा संगीतातील ज्ञान असावं लागत नाही तसंच अंगाईलाही! आपल्याकडे अजून लहान मुलांना झोपताना ऐकवायच्या ट्यूनची खेळणी आली नव्हती, त्या काळात मी लंडनला मला नात झाली म्हणून गेले होते. नातीसाठी तशी म्युझिकवाली खेळणी आणली होती. पण ती रडायला लागली की एवढ्या मोठ्ठयांदा रडायची की त्या खेळण्याचा आवाज कुठे ऐकूच यायचा नाही. मग पारंपारिक मोठ्या आवाजात ‘ हात हात गं चिऊ, हात हात गं काऊ ‘ अशी गाणी किंवा ओरडावं  लागायचं. मला त्यावेळी वाटलं की इंग्रज लोकांच्यात अंगाई गाण्याची परंपराच नसावी. त्यामुळं हे संगीत ऐकवण्याची पद्धत पडली असावी. पण तसं नाही म्हणे! तिथे बाळ आई वडिलांजवळ झोपतच नाहीत. बाळ हे बाळ असल्यापासून त्याची बेडरूम वेगळी असते. त्यामुळं बाळ रडलं तरी आईने जवळ घेण्याचा किंवा अंगाई गाण्याचा प्रश्नच येत नाही. म्हणून ते म्युझिक!

आपल्याकडच्या परंपरा जरा माणसाच्या मानसिक गरजा बघून बनवल्या आहेत असं म्हणायला काही हरकत नाही. केवळ आपलंच कुटुंब नाही तर सगळा समाजच एकत्र बांधून ठेवणाऱ्या प्रथा आहेत.

स्पर्शात ओलावा असतो, तो शब्दात मिळणं सुध्दा अवघड आहे. स्पर्शात प्रेम असतं, आधार असतो, आता कशाचीही भिती नाही हा विश्वास असतो. हा विश्वास लहान बाळांना देण्यासाठी मांडी, कूस, पदर, बाळाशी केलेला संवाद यागोष्टी महत्त्वाच्या असतात. आपल्याकडे लहान बाळांना बोललेलं सगळं कळतं असं आपण समजतो. बाळ जन्माला आल्यावरच असं नाही तर अभिमन्यू  सारखे गर्भातही संस्कार होतात हा आपला विश्वास आहे. जिजाऊ यांनी तर शिवाजीला वीरश्रीने भरलेल्या गोष्टी ऐकवल्या, अंगाई ऐकवली आणि तो  शूरवीर झाला.    आपल्या सामान्य माणसांच्या अंगाई मध्ये चिऊ, काऊ, झाडं, चंदामामा अशी निसर्गाची ओळख असते.अंगाई वरून एक गम्मत आठवली. माझ्या दुसऱ्या मुलाला मुलगा झाला. तो जरा रडवाच होता. माझा मुलगा जरा जास्तच हळवा त्यामुळं तो रडायला लागला की हा कासावीस व्हायचा. त्याला तर  मराठी गाणी, अंगाई असं काही म्हणायला येत नव्हतं. हिंदी सिनेमातली गाणी यायची पण प्रेमाची नाहीतर विरहाची! ही सोडून एक गाणं त्याला यायचं, ते कुठलं सांगू?  ‘हमारीही मुठ्ठीमे आकाश सारा ‘ आणि तो हेच गाणं म्हणून मुलाला झोपावयाचा. मला खूप उत्सुकता आहे, तो नातू पुढे मोठ्ठा झाल्यावर कोण बनेल, कोणतं कर्तुत्व गाजवेल याचं!

आपल्याकडे एक जगावेगळी आई होऊन गेली, मदालसा! अंगाई चा विषय निघाल्यावर मदालसा चा उल्लेख व्हायलाच हवा. एकमेव आई जिने अंगाई तून मुलांना अध्यात्माचे धडे दिले. असं कां, हे कळण्यासाठी तिची गोष्ट थोडक्यात सांगावीच लागेल. ही ऋतूध्वज राजाची राणी ! पातालकेतू राक्षसाच्या मायावी कृत्यामुळे तिने मृत राजा पाहिला, आणि अग्निकाष्ठ भक्षण करून देह विसर्जित केला. राजा अतिशय दुःखी झाला. त्याला वैराग्य प्राप्त झाले. अजून राजाला मूलबाळ ही नव्हते, राज्यकारभार कोण पाहणार? मग कंबल व अश्र्वतल या नागऋषींनी शिवाराधना करून तशीच दुसरी मदालसा प्राप्त करून घेतली. ती शिवाचा अंश असल्यामुळे वैराग्यशील होती. अगदी नाईलाज म्हणून संसार यात्रा आक्रमू लागली. पहिल्या मुलाच्या नामकरणाच्या वेळी ती म्हणाली, नश्वर देहाला नाव कशाला ठेवायचे, मृत्तिका व शरीर दोघांची योग्यता सारखीच.राजाने तिला नामकरण व आत्मोन्नत्ती याची माहिती दिली, पण परिणाम उलटाच झाला. मुलांनी राज्यशकट हाकण्यापेक्षा आत्मोद्धार करावा म्हणून ती निवृत्ती विषयक, आध्यात्मपर अंगाई गात असे. त्याचा साधारण अर्थ असा – ‘सुबाहू उगा रडून शिणू नकोस, पूर्व जन्मीच्या संचितानेच या मायाजालात अडकलास, सावध हो, डोळे मिटून घे पण झोपू नकोस, दृष्टी प्रभुकडे ठेव, अज्ञानाने तू भवबंधनात अडकला आहेस, पण आत्मा मुक्त असतो, ही मायेची बंधने तुटणे कठीण आहे, सावध हो.’

या पुढे जाऊन ती विश्व निर्मितीची क्रिया, मायेचे पाच उद्गार, पंचतत्वे , पंचवायू, पंचेंद्रिये, पाच कर्मेंद्रिये, पाच अवस्था, जड देह, लिंग देह, शरीर रचना, सर्व नाड्या व शटचक्रांची माहिती सांगते. पुढे नाडी जागृत करणे, आत्मज्योतीचे दर्शन, मोक्ष यांचीही माहिती देते. परिणामी सुबाहू, शत्रुमर्दन, शुभकिर्ती ही तिन्ही मुले राजवैभवाचा त्याग करून अरण्यात जातात. शेवटच्या  अलर्क या मुलाच्या वेळी राजा तिची मनधरणी करतो त्यामुळे ती अलर्क ला राजनीतीचे पाठ देते, पुढे तो अनेक वर्षे राज्य करतो. ज्यावेळी तो लढाईत हरतो त्यावेळी आईने जपून ठेवण्यासाठी दिलेले पत्र वाचतो, त्या पत्राप्रमाणे तो सह्याद्री पर्वतावर श्री दत्त प्रभुंच्याकडे जातो, त्यांचा अनुग्रह प्राप्त करून मुक्त होतो. मदालसाने ‘ माझ्या पोटातला गर्भ, कुण्या दुसऱ्या आईच्या पोटात जाणार नाही ‘ अशी प्रतिज्ञा केली होती. त्याप्रमाणे तिने तिन्ही मुलांना मुक्तीमार्ग दाखवला. ज्ञानेश्वरांनी लिहिलेले मदालसेचे अभंग म्हणजेच तिच्या अंगाईचे भाषांतर!

एकूण सांगायची गोष्ट अशी की हा आपला विश्वास आहे की अगदी लहानपणापासून आपण बाळांना जे सांगतो, जे शिकवतो ते ती आत्मसात करतात. त्यालाच आपण ‘ बाळकडू ‘ म्हणत असू.

आपण असं कितीही मानलं तरी याला कितीतरी अपवाद असल्याचं आपल्या लक्षात येतं. बाळ मोठ्ठं झाल्यावर कसं निपजेल हे सांगता येत नसलं तरी हे खरं आहे की आई आणि बाळ यांच्यात एक स्पर्शाचं नातं असतं, एक हळुवार नातं असतं, हे नाजूक बंध जास्त दृढ होतात, जेंव्हा आई त्याला आपल्या हाताने न्हाऊ, माखू घालते, चिऊ काऊ चे घास भरवते. मातृत्वाचं जे सुख असतं ते बाळाच्या बाललीलात, बालसंगोपनात ओतप्रोत भरलेलं असतं. हे संगोपन परक्याच्या हातात सोपवून, जन्माला आल्याबरोबर स्वतंत्र बेडवर, स्वतंत्र बेडरूम मध्ये झोपवून, आई या मातृसुखाला पारखी होत नसेल? कदाचित बाळ त्यामुळं धीट, स्वावलंबी आपल्या बाळापेक्षा लवकर होत असेल पण अशा बाळाला  जन्मदात्रीशी सांधणारा दुवा निर्माणच होत नसेल तर तो दुवा इतर कुठल्याही नात्याला सांधण्यासाठी निर्माण होणार नाही. त्यामुळं माणूस नुसता एकटा पडत नाही तर तो कोरडाही होतो. अर्थात ही आपल्या पिढीची मतं झाली. पुढच्या पिढ्या पाश्चिमात्य संस्करावर, विज्ञानातील प्रगतीवर  जोपासल्या जाणार आहेत. त्यामुळं जन्माला आल्यापासून मोबाईल किंवा त्याचं दुसरं एखादं व्हर्जन बघत बघत झोपतील, आईची किंवा अंगाईची गरज संपलेली असेल. असो, कालाय तस्मैनमः|

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री, मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ देवपंगत – भाग – १ ☆ श्री सचिन मधुकर परांजपे ☆

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ देवपंगत – भाग – १ ☆ श्री सचिन मधुकर परांजपे ☆

….जोगळेकरांकडची ती पूर्वापार चालत आलेली देवपंगत मला वाटतं आसपासच्या पंचक्रोशीत प्रसिद्ध होती. देवपंगत या नावामागचा इतिहास मोठाच रंजक आहे. भाऊकाकांचे आजोबा म्हणजे हरिभाऊंपासून ही परंपरा सुरु आहे. एकदा जेव्हा हरिभाऊ अगदी तरुण होते तेव्हा त्यांच्या अंगणात दुपारच्या वेळी जेवणाआधी कसलेसे शेतीवाडीचे हिशोब करत असताना एकदम दोन जोडपी दारात आली… एकूण चार जणं… दोन पुरुष, दोन बायका…त्यातला एकजण पडक्या आवाजात अजिजीने म्हणाला,  

“हरिभाऊ… लई लांबून आलोय बगा. पार उदगीर पासून… खूप मोटा दुष्काळ घडलाय वं आमच्याइथं… घरदार तसंच टाकून वणवण फिरतोय… काय पडंल ते काम करतो बघा. हरिभाऊ, तुमच्याविषयी खूप आईकलं… यायला उशीर झाला. पण दोन घास द्याल तर बरं हुईल हो… उद्यापासून आमी चौगं बी श्येतावर येतु तुमच्या… काय द्याल ते काम करु. आज भाकरतुकडा देता का पोटाला?” 

त्या चौघांची अवस्था खरंच वाईट दिसत होती. अठरा विश्वे दारिद्र्याच्या खाणाखुणा सबंध देहावर मिरवत होत्या. हरिभाऊंचं नुकतंच लग्न झाले होतं. कोकणातलं एक छोटंसं गाव त्यातले हरिभाऊ जोगळेकर एक सधन शेतकरी…“इंदिरा…” त्यांनी बायकोला हाक मारली…चौघांना ओटीवर बसायला सांगून ताबडतोब जेवणाची व्यवस्था झाली. हरिभाऊ तेव्हाच्या काळी जातपात शिवाशिव मानत नसत. चौघे ओटीवरच बसले. पानं मांडली गेली… आणि एखाद्या तालेवार पाहुण्याचं आगतस्वागत करावं तसं जेवण वाढलं गेलं…हरिभाऊंची लग्न व्हायचं होतं अशी बहिण म्हणजे कावेरीही वहिनीच्या मदतीला लागली…हरिभाऊंकडे अन्नपूर्णेच्या कृपेने नेहमीच पेशवाई बेत असे.  

केळीच्या पानावर शुभ्र पांढरा भात, पिवळंधम्मक वरण, घरचं साजूक तूप, अळूवडी, नारळाची चटणी, कोशिंबीर, रायतं, रोजच्या जेवणात एक गोड पदार्थ असायचा म्हणून आज केशरी जिलबी, कुरडया, एक रानभाजी, गरमागरम पोळ्या असा फक्कड बेत होता.

आलेले चौघेजण अक्षरशः अन्नावर तुटून पडले हो. अनेक दिवसांची भूक आज भागली होती. हरिभाऊ, इंदिराबाई आणि कावेरी तिघेही कौतुकभरल्या नजरांनी ती कृतज्ञ तृप्तता न्याहाळत होते. जेवणं झाली आणि चौघंही परसदारी जाऊन हातपाय धुवून ओटीबाहेर अंगणात आले. टळटळीत दुपारी आज आपल्या हातून चौघांना अनायासे अन्नदान झालं याचा मनस्वी आनंद सगळ्यांना होता. जेवणानंतर जशी ब्राह्मणाला दक्षिणा देण्याचा रिवाज असतो तसं हरिभाऊंकडे आलेल्या अतिथीला आणा द्यायची पद्धत होती. त्यामुळे रिवाजाप्रमाणे हरिभाऊंनी एकेक आणा चौघांना दिला… आणि अचानक…

त्या चौघांपैकी एकाची बायको बोलली, “हरी…” एकेरी उल्लेख ऐकून सगळेच दचकले. चौघांचंही रुपडं आता पालटलं होतं… “हरी… अरे मी पार्वती. हे माझे नाथ शिवशंभो. ते विष्णु नारायण आणि ती त्यांची सौभाग्यवती लक्ष्मीनारायणी… आज अगदी सहज तुझं अगत्याचं जेवण.. तुझा पंगत अनुभवायला आम्ही आलो रे. तू कोणाला उपाशी, विन्मुख पाठवत नाहीस. जे तुम्ही स्वतः खाता तेच अतिथीला देता असं ऐकून होतो.. आज अनुभव घेतला… आता आमची चौघांचीही कृपा तुझ्या सर्वच पिढ्यांवर अशीच राहील… पण आता मात्र एक करायचं…. दरवर्षी देवपंगत भरवायची. गावात आमंत्रणं धाडायची… येईल त्याचा आदरसत्कार करायचा… पंचपक्वान्नाचं जेवण ठेवायचं… त्यात पुरणपोळी आणि अळूवडी हवीच बरं का… कोणी काही जिन्नस पंगतीसाठी दिला तर आनंदाने स्विकारायचा… हरकत नाही. जो देवभंडाऱ्यात देतो त्याला कधी काही कमी पडत नाही. पण अट एक आहे… त्या पंक्तीला वाढायला आज जशी कावेरी होती तशी माहेरवाशीण हवीच… तुझ्या आणि तुझ्या सगळ्या पिढ्यांचं कोटकल्याण होईल…. तथास्तु” आणि हरिभाऊंना फक्त त्यांचे सस्मित चेहरे मात्र लक्षात राहीले. पुढच्या क्षणी अंगणात कोणीही नव्हते. तिघेही थक्क झाले… 

चारही केळीची उष्टी पानं नुसती पुसून हरिभाऊंनी तिजोरीत जपून ठेवली. ज्यावर प्रत्यक्ष परमेश्वर उष्टावलाय ती पानं… त्या दिवसापासून हरिभाऊंची भरभराट सुरु झाली…दरवर्षी मग देवपंगतीचा घाट घालणं सुरु झालं. लोकांना हरिभाऊंवर नितांत विश्वास… दरवर्षी लांबलांबहून लोकं यायची. दरवर्षी गावातली आणि बाहेरची तालेवार माणसं साजूक तूप, पीठ, तांदुळ, भाज्या असं खूप काही दान करत. ज्यांना जमेल ते पैसे देत…देवपंगत शक्यतो वैशाख पौर्णिमेला भरायची. आणि मग आधी त्रयोदशीपासून दोन दिवस रुद्र, विष्णुयाग, सप्तशतीचे पाठ आणि श्रीसूक्ताची पुरश्चरणं केली जात. कावेरी नियमानुसार दरवर्षी त्याच वेळी सहकुटुंब सपरिवार येई. देवपंगत झाली की दोन दिवसांनी सासरी जाई… हा क्रम पुढे कायम सुरु राहीला… 

हरिभाऊंनंतर पुढे पिढीत दरवर्षी एक मुलगा आणि एकच मुलगी जन्माला यायचे त्यामुळे फाटे फुटले नाही आणि परंपरा अबाधित राहीली. पिढी वंशसातत्य राहीलं… हरिभाऊनंतर विष्णुपंत आणि बहीण गंगा… त्यानंतर भाऊकाका आणि मंदाकिनी… आणि आता भाऊकाकांनंतर त्यांचा मुलगा विराज आणि बहीण मालिनी… परंपरा सुरू होती… विराज पुण्यात आणि मालिनी लग्नानंतर युके ला असली तरी ती दरवर्षी यायची आणि पंगतीचा उत्सव झाला की काही दिवस दादासोबत पुण्यात आणि सासरी साताऱ्याला जाऊन मगच परत जायची….विराजचा बिझनेस आता पुण्यात बऱ्यापैकी सेट झालेला होता. हरिभाऊंनी जपून ठेवलेली देवांची उष्टी पानं नंतर कधीच सुकली नाही हे विशेष. प्रत्येक देवपंगतीच्या आधी ती काढून त्याचं खाजगीत पूजन केलं जाई.  

हरिभाऊंपासून आजतागायत ही परंपरा अबाधितपणे सुरु होती. सुरुवातीला शे दोनशे पानं उठायची ती आता पाचशे सातशे पानापर्यंत पंगत होत होती. पंगतीचा बेतही अगदी तसाच असायचा. कालमानानुसार थोडे बदल केले तरी मुख्य बेत तोच…आता कधीतरी आपटे मिठाईवाल्यांकडून खास बनवून आणलेले साजूक तूपातले मोतीचूर लाडू, कधी भोपळ्याची भाजी, कधी छान सुरेख बटाट्याची भाजी, कधी नव्या सुनेच्या आग्रहाखातर पंचामृताची आमटी, कधीतरी पालक बटाटा भजी असे आलटून पालटून बेत असायचे पण नियमानुसार पुरणपोळी आणि अळूवडी कंपलसरी होती. खास पुण्याहून श्रेयसचं केटरिंग असायचं. काळ बदलला आणि आधुनिकता आली तरी पंगत तशीच राहिली. त्याचा ना बुफे झाला, ना केळीच्या पानाऐवजी स्टेनलेस स्टीलची ताटं आली… मेन्यूतला बदल हा प्रथेत झाला नाही. देव जसे अंगतपंगत बसून जेवले तस्संच सगळ्यांनी जेवायचं हा अलिखित नियम होता… जेवणाआधी हातपाय धुणे, जितक्या पंगती उठतील त्यातील पहिल्या पंगतीअगोदर उपस्थित ब्रह्मवृंदांनी अन्नसूक्त आणि त्रिसुपर्ण म्हणणे, जेवणानंतर आलेल्या प्रत्येकाला आजही एकेक रुपया दक्षिणा दिली जाते. आज एक रुपयाला तितकंसं महत्त्व नसलं तरी देवपंगतीनंतर मिळालेली दक्षिणा लोकांना मौल्यवान वाटे…. सातारचे एक इंडस्ट्रीएलिस्ट त्या एक रुपया दक्षिणेसाठी येत. सगळ्यांसोबत बसून जेवत. त्यांच्यासाठी ते नाणं म्हणे अतिशय लकी होतं. दरवर्षी मिळणारं नाणं ते तिजोरीत जपून ठेवत…पहिली पंगत बसण्याआधी एका बाजूला अंगण सारवून तिथे छान बैठक मांडून, सजवून चौघा देवांसाठी चार पानं मांडली जात. तो नैवेद्य मात्र गायीला अर्पण केला जाई. पंगत संपवून माणसं घरोघरी जाताना सोबत प्रसादाचे लाडू दिले जात. हरिभाऊंच्या वेळी द्रोणातून प्रसाद वाटला जाई आता झीपलॉकच्या पिशवीतून… इतकाच काय तो फरक. 

क्रमशः 

© श्री सचिन मधुकर परांजपे 

(पालघर)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ – दर्पणी पहाता रूप… – ☆ सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर ☆

सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ – दर्पणी पहाता रूप… – ☆ सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

बालपणापासून मी, अमक्यासारखी दिसते, तमक्यासारखी दिसते, असं अनेकांनी माझ्या दिसण्यावरून मला सांगितलं होतं. लांब केस असताना कुणी अभिनेत्री ‘नूतन’सारखी दिसते म्हणायचे, तर लांब चेहर्‍यामुळे अगदी ‘नर्गिस’ म्हणायचे. एखाद्या कार्यक्रमात सुनील दत्त साहेबांची भेट व्हायची, तेव्हा माझं गाणं ऐकताना ते बराच वेळ टक लावून पहायचे आणि  ‘छोट्या पद्मजाचे’ लाड, कौतुकही करायचे! 

माझे गुरु पं. हृदयनाथजी मंगेशकर तर मला पारशी म्हणतात. साक्षात् ‘भारतरत्न’ लतादीदी तर हृदयनाथजींना, माझ्या नावापेक्षाही, “बाळ, तुझी पारशी पोरगी काय म्हणते रे?” असं गंमतीनं विचारत. आमच्या घरची मंडळी माझ्या बालपणी, मुद्दाम मला चिडवण्यासाठी,  “ए, ही पारशाच्या जव्हेरी हॉस्पिटलमध्ये बदलून आली बरं का! चुकून पारशाचं पोर आई घरी घेऊन आली!” असं सारे जेव्हा म्हणत, तेव्हा मला खरंच वाटे आणि मी रडून थयथयाट करीत असे. (वास्तविक माझे वडील शंकरराव गोरेपान, तजेलदार चेहऱ्याचे आणि धारदार नाकाचे…. ते खरे पारसी दिसत!) 

नूतन आणि नर्गिसचा तर मला उगीचच राग येत असे. लेखक श्री. अशोक चिटणीस काका तर मला “तू एखादं ग्रीक स्कल्पचर असावं, अशी वाटतेस,” असं म्हणत. 

मात्र अलीकडेच, एका नाटकाच्या निमित्ताने माझी आणि एका महान कलावंत स्त्रीची माटुंग्याच्या यशवंतराव चव्हाण सेंटर या सभागृहात भेट झाली. मला त्यावेळी आठवण झाली, ती म्हणजे आमचे शेजारी थोर गायक आणि एचएमव्हीचे त्यावेळचे सर्वेसर्वा श्री. जी. एन. जोशी यांची! ते माझ्या बाबांचे परममित्र! ज्यांनी मला बालपणापासून खूप प्रोत्साहन दिलं, कोडकौतुक केलं. ते नेहमी म्हणत, “तू – अगदी या बाईंसारखी दिसतेस बरं का!”  खरंतर या बाईंविषयी मी, चित्रपट आणि नाट्यसृष्टीतील अनेक कलावंत घडवणाऱ्या कडक दरारा असणार्‍या गुरू, असं त्यांचं वर्णन ऐकून होते. त्यांना टीव्हीवर आणि फोटोतही पाहिलं होतं. मात्र भेट प्रथमच त्यादिवशी ग्रीन रूममध्ये झाली. कुणीतरी आमची ओळख करून दिली. आरशात आम्ही एकमेकींना पाहिलं आणि त्यांना मी म्हंटलं, “अनेकजण म्हणतात…. आपल्यात खूप साम्य आहे म्हणून.” त्यावर त्या गोड हसल्या आणि अगदी सहजपणे, जणू काही रोजच भेटत असल्यासारखे, माझा हात हाती घेऊन त्या म्हणाल्या, “बरोबर आहे पद्मजा…. Our soul is the same!!!”

त्यांचे हे आशीर्वादरूपी बोल ऐकून, माझ्या अंगातून आनंदाने वीज चमकून गेली. आनंदाला पारावार उरला नाही. कारण त्या होत्या, अनेक सुप्रसिद्ध कलावंतांच्या गुरू, अभिनेत्री, बुद्धिमान, प्रतिभावंत व कलेची उपासक स्त्री, तसंच बर्‍याच नाटकांना चैतन्य देणार्‍या महान दिग्दर्शिका – आदरणीय ‘विजयाबाई मेहता’! 

“त्यांच्या मते, कला म्हणजे चैतन्याची शोधप्रक्रिया… कोणताही कलाकार आपली कला सादर करताना, स्वतःच्या वास्तवापलीकडे जाऊन मूळ सत्याचा, चैतन्याचा, स्रोताचा शोध घेण्याचा अविरत प्रयत्न करत असतो. संगीत, नाट्य, नृत्य यांसारख्या कला सादर करताना कलाकार व्यासपीठाच्या रिकाम्या पोकळीत एकटा असतो, मात्र आपल्या आविष्काराने तो सभागृहाला भारून टाकण्याचा प्रयत्न करत असतो. अभिजात कलेतील साधकाला आपल्या कलेत प्रभुत्त्व मिळवण्याची ओढ म्हणजे एखाद्या श्रेष्ठ कलाकाराला लागलेले एक व्यसनच असते..”

त्यांचे हे विचार, तो तेजस्वी चेहरा आणि हाताचा मृदु मुलायम स्पर्श, ‘तो आशीर्वाद’……‘दर्पणी पहाता रूप’ म्हणत माझ्या मनात आजही दरवळत आहे!

(४ डिसेंबर… विजयाबाई मेहता यांचा जन्मदिवस! त्यानिमित्त त्यांना अनेकोत्तम शुभेच्छा)

©  सुश्री पद्मजा फेणाणी जोगळेकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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