हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 267 ⇒ भारत रत्न… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भारत रत्न।)

?अभी अभी # 267 ⇒ भारत रत्न… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भारत रत्नों की खान है।

हम यहां उन दरबारी नवरत्नों की बात नहीं कर रहे, जिनका जिक्र अक्सर गूगल सम्राट करते हैं। हम उन रत्नों की बात कर रहे हैं, जो करोड़ों भारतीयों के हृदय सम्राट हैं। रत्नों की अपनी गरिमा होती है, चमक दमक होती है, वे जिसका नमक खाते हैं, उनका ही गुणगान नहीं करते। यह माटी उनकी ऋणी होती है, पूरा देश उनका गुणगान करता है।

होंगे मियां तानसेन, संगीत सम्राट l लेकिन उनके गुरु भी तो हरि के ही दास थे।

जो असली रत्न होते हैं, वे महलों में शोभायमान नहीं होते, उनकी प्रतिभा के आगे तो अच्छे अच्छे सम्राट भी नतमस्तक होते हैं। सूर सूर, तुलसी शशि और मीराबाई जैसे असंख्य रत्नों से भरा पड़ा है, हमारा भारत रत्नों का भंडार।।

भारत रत्न भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। यह सम्मान राष्ट्रीय सेवा के लिए दिया जाता है। इन सेवाओं में कला, साहित्य, विज्ञान, सार्वजनिक सेवा और खेल शामिल है। इस सम्मान की स्थापना २ जनवरी १९५४ में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद द्वारा की गई थी। पहला भारत रत्न 1954 में सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सर सीवी रमन और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को प्रदान किया गया।

जब भारत कुमार मनोज कुमार यह गीत गाते हैं, कि मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले मोती, तो यह कहीं से कहीं तक अतिशयोक्ति नहीं। कुछ माटी के लालों का जिक्र तो उसने भी बड़े जोशो खरोश के साथ किया है, लेकिन यह एक ऐसी सतत प्रक्रिया है जिसके कारण ही इस पुण्य भूमि पर देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं।।

वैसे तो माटी माटी में भेद नहीं होता, रत्न रत्न होता है। हमारे देश में तो बच्चे बच्चे की जबान पर आज भी रतन टाटा का नाम है।

क्या आप जानते हैं, जब अंग्रेजों ने कोलकाता की हुबली नदी पर हावड़ा ब्रिज बनाया था, तो उसमें लगा पूरा स्टील भी टाटा का ही था।

वैसे तो रत्नों की पहचान इतनी आसान नहीं होती, फिर भी इंसान अपने गुण से आसानी से पहचाना जा सकता है। अगर देश के प्रमुख भारत रत्नों का जिक्र करें, तो पहले भारत रत्न बिहार से हमारे प्रथम राष्ट्रपति डा.राजेंद्रप्रसाद ही थे। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि इस वर्ष भी भारत रत्न और कोई नहीं, बिहार के गौरव कर्पूरी ठाकुर ही हैं।।

मरणोपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर से पहले बिहार के पांच भारत रत्न हैं ;

१.विधान चंद्र राय

२. डा राजेंद्र प्रसाद

३. जय प्रकाश नारायण

४. उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

५. कर्पूरी ठाकुर

पांच महिला भारत रत्नों में

इंदिरा गांधी, अरुणा आसफ अली, मदर टेरेसा, सुब्बा लक्ष्मी और लता मंगेशकर शामिल हैं। सर्व श्री सीवी रमन, सचिन तेंदुलकर, नेल्सन मंडेला, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, अटलबिहारी बाजपेई और अमर्त्य सेन के बिना यह सूची अधूरी है।

यों तो भारत रत्न अनगिनत हैं, फिर भी इनकी संख्या शतक पार तो कर ही चुकी है। ईश्वर भले ही सबके साथ न्याय ना करे, देश उन सभी रत्नों का भी ऋणी है, जिन पर किसी पारखी की भले ही नजर ना पड़ी हो।

हर भारतीय अपने आपमें एक रत्न है, क्योंकि वह भारत माता का लाल है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 257 ☆ त्वरित व्यंग्य – करवट बदल राजनीति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित त्वरित व्यंग्य – करवट बदल राजनीति)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 257 ☆

? त्वरित व्यंग्य – करवट बदल राजनीति ?

(रचना में उल्लेखित विचार व्यंग्यकर के व्यक्तिगत विचार हैं।)

पलट पलट कर पलटूराम जो कुछ भी करते हैं जनता के लिये करते हैं। सोते जनता के हित के लिये हैं, जागते जनता के भले के लिये हैं। करवट भी जनता के हितार्थ ही बदलते हैं। एक करवट लेते हैं तो लालटेन की रोशनी में लालू दिखते हैं। उन्हें सुनाई देता है, “जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू”। कोई उनके कान में कहता है, अरे ये तो चारा खाते हैं। वे उसे समझाते हुये कहते हैं ये बोलो कि, “चारा तक खाते हैं, हवालात जाने को तैयार रहते हैं, पक्के समाजवादी जो हैं “। वे गठबंधन कर डालते हैं। जनता यह सोचकर खुशियां मनाती है कि अब दो धुर्र समाजवादी जुड़े हैं अब समाजवाद आयेगा।

वे जगती आंखों सपना देखते हैं। उन्हें लगता है बिस्तर कुछ छोटा है, गद्दा आरामदेह नहीं है। मखमली गद्दे, गुदगुदी रजाई में बिना चूं चर्र किये बड़े पलंग पर बिना करवट बदले चैन की नींद लेने का ख्वाब हकीकत में बदलने के लिये जनता को जगाना होगा। समझ आता है यह अकेले तो न हो पायेगा। वे अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे ही अगली बड़ी कुर्सी की लड़ाई लड़ने के लिये अपने जैसे कई छोटे छोटे जनता के सेवको को जोड़ने के लिये बुलौआ करते हैं। सबको बात जंचती है। गठबंधन हो भी जाता है। पर गठबंधन में सभी खुद को बाकी से बड़ा समझते हैं। कोई इनकी अगुवाई मानने को तैयार नहीं होता इसलिये यह सारी मशक्कत बेअसर रह जाती है।

इससे पहले कि जनता के भले का कुछ हो पाता उन्हें भान होता है कि लालू तो अपने बेटे को ओढ़ाने के लिये उनकी ही रजाई खींच रहा है। वे चेत जाते हैं। करवट बदलते हैं। वे पक्के समाजवादी हैं, उन्हें बंद दरवाजे खोलने की कला आती है। उन्हें जनता की सेवा से मतलब है, किसके साथ रहकर यह हो सकता है यह उनके लिये गौंण है। आलाकमान, विधायक दल, कोर कमेटी, आत्मा की आवाज, आम आदमी की आकांक्षा वगैरह वगैरह उनके निर्णय को अमली जामा पहनाने के शगल बन जाते हैं। लिए कचौड़ी का नया आफर  लिये वे मजे से आलू वाला समोसा प्लेट से अलग कर देते हैं। रबड़ी जलेबी का मजा मार के पलट गये पलटूराम के ताने सहते,  मुख्यमंत्री रहते हुये मुख्यमंत्री बनने के लिये, मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर उसी दिन फिर मुख्यमंत्री बन जाते हैं। जनता अलट पलट की  खुशियों में खो जाती है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत गाता हूँ मैं… ☆ श्री रामनारायण सोनी ☆

श्री रामनारायण सोनी

?कविता गीत गाता हूँ मैं ? श्री रामनारायण सोनी ?

अक्षरों से शब्द तक का यह सफर

चेतना फिर हो चले जिस में प्रखर

भाव की उत्प्रेरणा जब जागती है

तब कहीं इक गीत होता है मुखर

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

वेदना, संवेदना, प्रतिवेदना मिल

हो गलित इक धार में बहने लगे

खुद बहे पहले, सभी उसमें बहें

तो समझ लो गीत हैं उठने लगे

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत का उत्थान भी इक ज्वार है

गीत काली रात का अभिसार है

गीत भावों की विकल अभिव्यंजना

गीत अधरों का मधुर श्रृंगार है

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

प्रियतमा के नैन से जब नीर बहता

श्वाँस में प्रश्वाँस में है गीत चलता

जब प्रणय की रागिनी में हो घुला

छ्न्द बन्दों में स्वयं ही गीत ढलता

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत करुणा की मृदुल सी धार है

गीत घुंघरू की मुखर झंकार है

गीत दिल के बादलों से झर रही

झिरमिराती सी मधुर मनुहार है

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत हैं उत्सव, हैं गीत भी कलरव

स्वर्ग भी हैं ये, हैं और ये रौरव

सुख के और दुःख के अधिमान भी

हैं पुरातन के पुरोधा और अभिनव

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत हैं आलाप उठता कण्ठ से

गीत भीगा है कहीं मकरन्द से

गीत उठता नाद है मिरदंग से

झर रहा अनुराग हो हर छ्न्द से

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत लय है गीत सुर है ताल भी

गीत गति है गीत मद्धिम चाल भी

शौर्य का आह्वान करते गीत हैं

गीत मारक शक्ति भी है ढाल भी

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत गाथागीत बन जग में रमा

लोकरंजक गीत ने बाँधा समा

लोकमंगल गीत बिन कैसे शुरू

गीत ही हर उत्स की है मधुरिमा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

प्रीत की पावन धरा में बीज सा

भावना के सिन्धु में है मीन सा

पुष्प के हर अंग में अभ्यंग में

महमहाता गीत है मधुमास सा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

गीत जीवन जीवनी के गा रहा

प्रेम की पगडण्डियों पे ला रहा

एक बन्जारा समझलो आज मैं

कारवाँ के गीत अपने गा रहा

    गीत गाता हूँ, मैं गीत गाता हूँ

 

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री रामनारायण सोनी

२५.०१.२४

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 179 – दुविधा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर रचित एक सकारात्मक लघुकथा  “दुविधा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 179 ☆

🎊 लघु कथा – दुविधा 🎊

संपूर्ण भारतवर्ष में रामलला जी के विराजने का जश्न मनाने के लिए तरह-तरह से तैयारी कर रहे थे, और हो भी क्यों ना 500 साल तिरपाल बंधे कुटिया में ढके, प्रभु राम की मूर्ति राह देखते – देखते आखिर वह समय आ ही गया। जब पूरे विधि- विधान, बिना रोक-टोक और कोई दुविधा बिना हमारे प्रभु का भव्य मंदिर अयोध्या में बना।

रामलला विराजने की खुशी हम सब मना रहे हैं। रामलला का विराजमान होना, राम राज्य की कल्पना और सनातनी होने का गर्व समूचा भारतवर्ष कर रहा है

ऐसे ही कृपा शंकर अपने घर परिवार के साथ उल्लास, उमंग से भगवान के मनोहर छवि को टी.वी पर देख – देख कर हर्ष मना रहे थे।

अचानक देखते- देखते रोने लगे। अब जब सभी बातों को भूलकर भगवान, अपने मंदिर में आ गए तो क्यों ना मैं भी अपनी पिछली सारी घटना एवं मतभेद को भुलाकर अपने घर लौट जाऊँ।

दुविधा में बैठे-बैठे उनकी आंखों से अश्रुं धार बह निकली। लाल गमछे से पोंछ ही देख थे,कि बहू ने आवाज़ लगाई…. बाबूजी चाय तैयार है आपके लिए लाती हूँ ।

आज पीने का मन नहीं है.. बहू!! भरे गले से कृपा शंकर ने बहु से बोला। नंदिनी घर की इकलौती बहु थी। अपने माँ – पिता सहित पूरे परिवार का बहुत ख्याल रखती थी। नंदिनी ने कहा.. बाबूजी चाय पी लीजिए। तभी तो चाचा – चाची और घर के सभी सदस्यों की अगवानी कर सकेंगे।

क्या कहा?? जैसे कृपा शंकर को कोई खजाना मिल गया हो।

नंदिनी ने कहा हाँ.. आज अभी सभी आ रहे हैं। हम सब मिलकर भगवान श्री राम लाल की पूजा अर्चना करेंगे। चाय की प्याली एक ही घूंट में खत्म कर, कृपा शंकर जल्दी-जल्दी भगवा धोती, कुर्ता, गमछा डाल। देहरी की तरफ निहारने लगे।

कंपकंपाते हाथों से नंदनी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा.. मेरे जीवन की अंतिम साँसों में बसी दुविधा को आज तुमने मिटा दिया ।रामलला तुम्हें सदैव कृपा दृष्टि बनाए रखें।

बाबूजी और नंदिनी को ही सिर्फ मालूम था कि – – तकिये के नीचे लिखा हुआ पत्र क्या था? जो भी हो आज सारा परिवार एकत्रित होकर रामलाल विराजने  की खुशी मना रहा है।

कृपा शंकर और दया शंकर दोनों भाई ऐसे मिले जैसे राम भरत मिलाप हो।

🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 68 – देश-परदेश – सामूहिक भोजन वितरण ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 68 ☆ देश-परदेश – सामूहिक भोजन वितरण ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हम सब समय समय पर सामूहिक भोजन का लुत्फ लेते आ रहे हैं। पंगत प्राणली से गिद्ध प्रणाली तक कई सैंकड़ो बार इसका रसवादन कर अपने स्वास्थ्य के पाये को खोखला कर चुके हैं।  

आज भी जब कभी मौका मिलता है, तो चूकते नहीं हैं, विगत दिनों मुफ्त का माल़ तोड़ने के अवसर मिले, तो और अधिक मज़े आए।  

गणतंत्र दिवस पर वरिष्ठ नागरिक केंद्र पर फुरसतियों के देश प्रेम गीत और कविता पाठ सुन कर हमारे मन भी देश के प्रति जज़्बा उड़ान भरने लगा। नाश्ते की प्लेट में बूंदी का लड्डू, गर्म कचोरी और प्लेट में बचे हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए आलू के तले हुए चिप्स सब के स्थान पर उपलब्ध करवाए गए थे।

वहां उपस्थित करीब चालीस व्यक्तियों की औसत आयु पचहत्तर से भी अधिक थी। क्या इस प्रकार का भोजन उनके स्वास्थ्य की लिए उचित है?

इसके स्थान पर भुने चने, गजक या केला इत्यादि भी दिया जाना बेहतर होता, क्योंकि वहां उपस्थित सभी वयोवृद्ध श्रेणी से थे।

कुछ लोगों ने कचौरी नहीं खाई तो कुछ ने शक्कर रोग के कारण लड्डू प्लेट में त्याग दिया। इससे अच्छा होता खाली प्लेट भी रख दी जाती और सब को बता दिया जाता कि, जिससे किसी को कुछ सेवन नहीं करना है, तो उसको खाली प्लेट में रख देवें। अतिरिक्त आइटम हमारे जैसे पेटू लोगों को भी दिया जा सकता था।  

विगत दिन एक अन्य “स्वास्थ्य कार्यशाला” में भी बंद डिब्बों में करीब छः सौ लोगों को भोजन दिया गया। आयोजन कर्ता लोगों के लिए अत्यंत कठिन कार्य होता है, यदि “गिद्ध प्रणाली” के अंतर्गत भोजन परोसा जाये तो हमारे जैसे मुफ्त की मलाई खाने वाले नकली पनीर की सब्ज़ी का डोंगा ही उठा लेते हैं । गर्म पूरी/ रोटी के लिए अपने ही लोगों को कुचल कर पूरियों से प्लेट में रखे हुए हलवे के पहाड़ तक तो ढांक देते हैं।  

यदि सदियों पुरानी पंगत व्यवस्था के अंतर्गत आयोजन किया जाए तो बैठने के स्थान की उपलब्धता आड़े आती हैं। वैसे जहां बैठने का स्थान उपलब्ध है, तो जरूरत से अधिक भोजन कर चुके मेहमान को उठाने के लिए अलग से दो मज़दूर लगाने पड़ते हैं। कुछ आयोजन कर्ता चेन-पुली यंत्र से भी पंगत में बैठे मेहमान को उठवाने की व्यवस्था करवाते हैं।  

बाज़ार से डिब्बा बंद भोजन प्रणाली में बहुत सारे आइटम सभी को दे दिए जाते हैं, नापसंद और जरूरत से अधिक खाद्य पदार्थ कचरे में चले जाते हैं।  

मिठाई प्रेमी तो एक टुकड़े मिठाई के लिए अतिरिक्त डिब्बा लेकर अपनी जुबां की मांग पूर्ति तो कर देते हैं, लेकिन जानते हुए भी डिब्बे का अन्य खाद्य व्यर्थ कचरा पात्र में डाल कर अपने आप को सफाई का ब्रांड एंबेसडर मान लेते हैं।

अब विराम देता हूं, फोन की घंटी बज रही, अवश्य ही भोजन के आमंत्रण के लिए होगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ महात्मा गांधी ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ महात्मा गांधी… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

एक वकील नामांकित होते,

मोहनदास करमचंद गांधी.

ब्रिटिश विरोधी लढ्याची,

त्यांनी आफ्रिकेत केली नांदी.

*

मायभूमीला आले परतून,

लढा इथेही पुकारला.

शस्त्राविण सत्तेशी लढाई,

 साबरमतीचा संत बोलला.

*

दया क्षमा शांती मार्गाने,

दानवास मानव केले.

हिंसेला नमवीते अहिंसा,

विश्वाला पटवून दिले.

*

जनतेला बापुजी बोलले,

स्वातंत्र्याचा करूया जागर.

नका करू आपसात दंगे,

नका सांडू रक्ताचे सागर.

*

सत्य अहिंसा शांती पुढती,

झुकली सत्ता ब्रिटिशांची.

चले जावचा देऊन नारा,

लाट उठविली क्रांतीची.

*

अखेर आम्ही स्वतंत्र झालो,

गगनी तिरंगा फडफडला.

झाली फाळणी जातीय दंगे,

जीव बापूचा तडफडला.

*

कुणी वेड्याने वेधुन छाती,

गोळी तयांवर चालविली.

“हे राम” म्हणत शांतिदूताची,

 प्राणज्योत ती मालवली.

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #222 ☆ भाकरी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 222 ?

 

☆ भाकरी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

मी एका हिरे व्यापाऱ्याला विचारलं

जगातील सर्वात मौल्यवान वस्तू कोणती

तर तो म्हणाला “हिरा”

*

मग मी एका सराफाला विचारलं

जगातील सर्वात मौल्यवान वस्तू कोणती

तर तो म्हणाला “सोनं”

*

त्या नंत मी एका भुकेल्या माणसाला विचारलं

जगातील सर्वात मौल्यवान वस्तू कोणती

तर तो म्हणाला “भाकरी”

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ सुमनशैली… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

☆ सुमनशैली… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुमन कल्याणपूर

 (जन्म (२८ जानेवारी १९३७))

पद्मभूषण सुमन कल्याणपूर असं आज लिहिताना सुद्धा खूप छान वाटतंय. मागच्या वर्षी भारत सरकारने पद्म पुरस्कारांची घोषणा केली.त्यात सुमनताईंचं नाव बघून खूपच आनंद झाला. खरं म्हणजे खूप आधीच हा पुरस्कार त्यांना द्यायला पाहिजे होता. पण ठीक आहे, “देरसे आये दुरुस्त आये” अशी माझी भावना आहे.

सुमन कल्याणपुर नुसते नाव जरी उच्चारले तरी निर्मळ, शांत, सोज्वळ, सात्विक चेहरा आणि तेवढाच मधुर आवाज आठवतो.

केशवराव भोळे यांच्याकडून त्यांनी हौस म्हणून संगीताचे शिक्षण घ्यायला सुरवात केली.पण त्यात त्यांची वाढणारी आवड बघून त्यांनी उस्ताद खान अब्दुल रहमान आणि गुरुजी नवरंग यांच्या कडून व्यावसायिक शिक्षण घ्यायला सुरवात केली.

त्यांना चित्रकलेचे उत्तम ज्ञान होते म्हणून मुंबईतील अत्यंत प्रतिष्ठित जे.जे.स्कुल ऑफ आर्ट्स मध्ये प्रवेश घेतला व पुढे चित्रकलेचे शिक्षण घेतले.

त्यांचे लग्न रामानंद कल्याणपूर यांच्याशी झाले व सुमन हेमाडीच्या त्या सुमन कल्याणपूर झाल्या.

भारतीय चित्रपटसृष्टी पार्श्वगायनाच्या क्षेत्रात त्यांचे नाव अत्यंत आदराने घेतले जाते आपल्या सुमधुर गायिकेने रसिकांच्या मनांवर त्यांनी अधिराज्य गाजविले. चित्रपट संगीताच्या सुवर्ण काळातील आघाडीच्या संगीतकारांकडे त्यांनी गायलेली एकाहून एक दर्जेदार गीते अजरामर आहेत. हिंदीप्रमाणेच मराठी, आसामी,गुजराथी,कन्नड,भोजपुरी, राजस्थानी, बंगाली, उरीया, तसेच पंजाबी भाषेत गाणी गायली आहेत.

त्यांनी गायिलेल्या मराठी भावगीतांची मोहिनी आजही  मनांवर कायम आहे. सहज तुला गुपित एक व

रात्र आहे पौर्णिमेची

अशी गाणी ऐकली की

अशी भावगीते ऐकली की आपण त्या काळात जाऊन एखादी तरुणी बघू लागतो.

हले हा नंदाघरी पाळणा

अशी गाणी ऐकली की पाळणा म्हणणारी आई समोर येते.

पिवळी पिवळी हळद लागली ऐकले की लग्नातील नववधू समोर येते.

प्रत्येक गाण्यातील शब्दांचे भाव ओळखून गायिलेली गाणी फारच मनात खोलवर घर करतात.असे वाटते आपल्याच भावना व्यक्त होत आहेत.त्यांची सुमन गाणी ऐकतच आमची पिढी त्या गाण्यांबरोबर वाढली आहे.

कृष्ण गाथा एक गाणे हे मीरेचे व क्षणी या दुभंगुनिया घेई कुशीत हे सीतेचे गाणे ऐकताना मीरा व सीता यांचे आर्तभाव जाणवतात.

हिंदी चित्रपट सृष्टीमध्ये ठराविक गायिकांची मक्तेदारी असलेल्या काळात स्वतःची ओळख पटवून देण्याचे अत्यंत अवघड काम त्यांच्या स्वरांनी केले.चाकोरीबाहेर जाऊन त्यांच्या स्वरांवर विश्वास ठेऊन संगीतकारांनी त्याच्या कडून गाणी गाऊन घेतली व ती यशस्वी करून दाखवली आहेत.

लता मंगेशकरांच्या व सुमन कल्याणपूर यांच्या आवाजामध्ये विलक्षण साम्य असल्यामुळे ऐकणाऱ्या लोकांची गफलत होत असे.आणि आजही होत आहे. पण त्यांचे नाव देखील मोठेच आहे.

संगीतकार शंकर जयकिशन, रोशन, मदन मोहन, एस.डी. बर्मन, हेमंत कुमार, चित्रगुप्त, नौशाद, एस एन त्रिपाठी, गुलाम मोहम्मद, कल्याणजी आनंदजी आणि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल अशा मोठ्या संगीतकारांबरोबर काम करून त्यांनी स्वतःला सिद्ध करून दाखवले आहे.त्यांची हिंदी चित्रपटातल्या गाण्यांची यादी बरीच मोठी म्हणजे ८०० हुन जास्त गाणी आहेत.

१९५४ पासून तीन दशक सुमन कल्याणपूर यांनी पार्श्वगायन केले आहे. आपल्या स्निग्ध,नितळ गळ्यानं व शांत,मधुर शैलीने गायिलेले कोणतेही गाणे ऐकताना आपण ट्रान्स मध्ये जातो.व ते गाणे जगू लागतो.आवाजातील तरलपणा व माधुर्य तार सप्तकात सुद्धा तीक्ष्ण किंवा कर्कश वाटत नाही.

मराठी मध्ये तर एकाहून एक अप्रतिम गाणी त्यांनी गायली आहेत. त्या मध्ये भक्ती गीत,भाव गीत, सिने गीत या सर्व प्रकारांचा समावेश आहे.

त्यांचा ८१ वर्षे पूर्ण झाल्याच्या निमित्ताने पुण्यातील गणेश कलाक्रीडा येथे मुलाखतीचा कार्यक्रम झाला होता.मुलाखत घेणाऱ्या मंगला खाडिलकर यांनी त्यांचा प्रवास अलगद उलगडून दाखवत त्या त्या काळातील गाणी गाऊन घेतली.त्यात एक जाणवले त्यांच्या चेहेऱ्या वरील समाधान व गोडवा पूर्वी पेक्षा अधिकच गहिरा झाला आहे. तोच तसाच मधूर शांत आवाज, त्यांची हसरी मुद्रा आणि मनावर कायम जादू करणारी तिच सुमनशैली !

त्यांना असेच शांत,समाधानी आयुष्य लाभो.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “घरभरणी !” भाग -१ ☆ श्री संभाजी बबन गायके ☆

श्री संभाजी बबन गायके

? जीवनरंग ?

☆ “घरभरणी !” भाग -१ श्री संभाजी बबन गायके 

“ब्राह्मणाला फसवलंस! तुझा वंशखंड होईल,इस्कोट होईल सगळ्याचा!” सुदामने भरबाजार पेठेच्या मोक्याच्या जागी बांधलेल्या नव्या कोऱ्या घरासमोर उभे राहून गोविंदभट अगदी सर्वांना ऐकू जाईल अशा आवाजात म्हणाले तसे सुदामच्या घरातले सगळेच बाहेर आले.

कालच सुदामने साग्रसंगीत गृहप्रवेश,वास्तुशांती, सत्नारायण इत्यादी धार्मिक विधी करून घेतले होते. रात्री सात ते नऊ कीर्तन कार्यक्रम झाल्यावर येईल त्याला जेवू घातले होते.

वडिलांच्या माघारी सुदामने घरगाडा मोठ्या नेटाने हाकला आणि आईच्या उतारवयात तिचं मोठ्या घराचं स्वप्न प्रत्यक्षात आणलं होतं. त्याच्या बायकोच्या माहेरची काही मंडळी आजही मुक्कामालाच होती. आणि अशात ही भलती शापवाणी ऐकून सारेच भांबावले आणि रागावले सुध्दा आणि हे साहजिकच होतं.! पण नक्की काय झालं हे सुदामला सुद्धा उमगत नव्हतं.

“आवो,काका! ही काय बोलायची रीत झाली का काय? शाप कशापायी देतात माझ्या भरल्या घराला?” सुदाम आवाजात शक्य तेवढा मऊपणा आणीत बोलला,पण त्याच्या काळजाला डागणी मात्र बसली होतीच.

“हा गोविंदभट काय मेला होता की काय की तू बाहेरचे ब्राह्मण बोलावून एवढी मोठी घरभरणी घातलीस ते? आम्ही काय दक्षिणेसाठी कधी अडून बसलो होतो की काय? अरे,तुझ्या बापजाद्यापासून भिक्षुकी करतोय या पंचक्रोशीत. चिमुटभर शिधा आणि मूठभर तांदळाशिवाय कधी काही अधिकचं मागितलं का ते विचार तुझ्या म्हातारीला!” गोविंदभट एखाद्या वळवाच्या पावसाच्या सरीगत बरसत होते,त्यात सुदाम चिंब भिजून गेला!

सुदामची आई हौसाबाई डोक्यावरचा पदर सारखा करीत बाहेर आल्या. “आवो,काका! का असं वंगाळ बोलताय? आमची आतापर्यंतची सारी कार्यं तुमच्याबिगर कधी झालीत का? पण तुम्हीच या वक्ताला आम्हांला फशिवलं!”

यावर गोविंदभट तडकले. “मी का तुम्हांला फसवू? आज सकाळी आलो तर तुमची घरभरणी कालच झाल्याचं दिसलं! मला सोमवारी सांगताय आणि रविवारीच कार्यक्रम उरकून घेताय म्हणजे काय? आणि तो सुद्धा बाहेरचे ब्राम्हण बोलावून?”

यावर सुदाम मध्ये पडला. “काका, मागल्या महिन्यात बाजारात भेटला होता तुम्ही तेंव्हा रविवारच ठरला होता की आपला! तुम्हीच नव्हता का मुहूर्त सांगितला आणि यादी दिली होती सामानाची?”

“रविवार नाही सोमवार म्हणालो होतो मी! हे बघ या डायरीत सर्व लिहिलेलं असतं माझं. काय आज नाही करत मी भिक्षुकी. जन्म गेलाय यातच माझा. तुम्हांला शहरातल्या शिकलेल्या ब्राम्हणांचं वेड लागलंय. सारं कसं अगदी भारीतलं पाहिजे!”

गोविंदभटांचाच खरं तर तारखेचा आणि सुदामचा समजूतीचा घोटाळा झाला होता. बरं या आधी असं कधीच झालेलं नव्हतं. गोविंदभटांनी डायरीत नोंद तर घेतली होती पण ती भलत्याच पानावर. वयोमानानं चष्मा लागलेला आणि स्मरणावर विसंबून राहण्यासारखी परिस्थिती नव्हती राहिली त्यांची.  शिवाय सुदामने कुणा हाती दिलेला आठवणीसाठीचा निरोप देणं राहून गेलं होतं त्या माणसाकडून. आणि गोविंदभटांची त्या आठवड्यात बाजारात फेरी काही झालेली नव्हती. त्यांनी नेमका रविवारचा एक उद्योग घेतला होता पलीकडच्या एका आडगावातला. रात्री यायला त्यांना उशीरच झाला होता. पायी फिरूनच ग्रामीण भागात भिक्षुकी करावी लागत असे त्यावेळी.

सुदाम म्हणाला,”काका, काही झालं असेल तर ते होऊन गेलं. आता आलाच आहात तर तेवढी उत्तरपूजा करून द्या की.”

यावर तर गोविंदभटांचा राग अगदी पराकोटीला गेला. “बोलवा की तुमच्या त्या शहरातल्या भटांना!”

सुदाम म्हणाला,”आवो,त्यांना यायला जमणार नाही म्हणाले इतक्या लांब. सकाळी आरती करून तुमची तुम्ही पूजा काढून घ्या म्हणाले! एकतर कालच त्यांना मी अर्जंट बोलावून घेतलं होत्ं तुम्ही आला नाहीत म्हणून!”

“असली उष्टी कामं नाही करीत मी! पूजा काढून घ्या नाहीतर राहू द्या!” गोविंदभट काहीही ऐकण्याच्या मन:स्थितीत नव्हते. ते सुदामच्या घरावरून तसेच ताडताड चालत पुढं निघून गेले. त्यांच्या गावाकडे निघालेल्या एका वडाप वाहनाला हात दाखवला आणि तो ही बिचारा काकांना बघून लगेच थांबला. पुढच्या सीटवरच्या एकाला मागे पिटाळून त्याने काकांना पुढे बसायला बोलवलं. गोविंदभटांचा पारा अजूनही चढलेलाच होता. वडापवाल्यानं विचारलं,”काका, काय झालं? चेहरा का असा लालेलाल दिसतोय?”

“लोकांना लाजा नाही राहिल्या आजकाल. सांगतात एक आणि करतात भलतंच. अरे, बाजारातल्या सुदामने मला आजची घरभरणी सांगितली होती. आणि येऊन बघतोय तर कालच उरकून घेतला कार्यक्रम पठ्ठ्यानं!” त्या जीप गाडीतल्या सर्व प्रवाशांनी हा सगळा संवाद ऐकला होताच. त्यांपैकी अनेकांना गोविंदभटांचा शीघ्रकोपी स्वभाव माहित होताच. पण उभ्या पंचक्रोशीत गोविंदभटाचं एकच घर भिक्षुकाचं. आणि शहरातून इतक्या लांबवरच्या ‘उद्योगांना’ कुणी धार्मिक कृत्ये करून देणारा सहजासहजी यायचा नाही. शिवाय इतरांचा वारसाहक्क असणा-या गावांत इतर भिक्षुकांनी व्यवसाय करू नये, असा शिरस्ताच असतो.

अर्ध्या तासाभरात गोविंदभटांच्या गावचा फाटा आला. “काका,इथं सोडू का? आज तुमच्या गावातलं तुम्ही एकटंच शीट आहात म्हणून विचारलं. गाडी गावात नेण्यात वेळ जाईल म्हणून म्हणलं.” ड्रायवरने असं म्हणताच गोविंदभट आणखीनच करवादले. त्याच्याकडे एक जळजळीत कटाक्ष टाकीत पायउतार झाले. घरभरणीसाठी अत्यावश्यक साहित्य भरलेली पिशवी आता त्यांना जड झाली होती. उन्हाचा चटका वाढत चाललेला होता. त्यांच्या नशीबाने त्यांच्या गावाकडं निघालेला एक मोटारसायकलवाला त्यांच्या दृष्टीस पडला आणि गोविंदभट गावात पोहोचले.

गोविंदभटांच्या पत्नीला ते असे लवकरच परत आल्याचे आश्चर्य वाटले. काहीतरी गडबड झाल्याचे तिच्या लक्षात आले. पण लगेचच काही विचारावं तर स्वारी एकदम अंगावर येण्याची शक्य्ता तिने नेहमीप्रमाणे गृहीत धरली होती. रीतसर पाणी वगैरे दिल्यानंतर तिने विचारले,”लवकर उरकला का उद्योग? कुणी सोबतीला नेलं होतं का?” यावर झाल्या प्रकाराची अगदी साग्रसंगीत पुनरावृत्ती झाली. याही वेळी गोविंदभटांचा आवेश तोच होता. 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री संभाजी बबन गायके 

पुणे

9881298260

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ चित्रकारांच्या व्यथा… भाग-१ ☆ श्री सुनील काळे ☆

श्री सुनील काळे

? मनमंजुषेतून ?

☆ चित्रकारांच्या व्यथा… भाग-१ ☆ श्री सुनील काळे 

पाचगणी फेस्टिवल निमित्त तीन दिवस आलेल्या गणेश कोकरे व सिद्धांत पिसाळ यांचे अनुभव  — पाचगणी या ठिकाणी लाईव्ह पेन्सिल स्केच करण्यासाठी आम्हाला आमंत्रित केले गेले होते. फेस्टिवल तीन तारखेला संपला व चार तारखेला सकाळी आम्ही महाबळेश्वर फिरण्याचे ठरविले. नऊच्या सुमारास आम्ही आमचे निसर्ग चित्रणाचे साहित्य बरोबर घेऊन मोटरसायकल वरून निघालो निसर्गाचा आनंद घेत घेत श्री क्षेत्र महाबळेश्वर या ठिकाणी पोहोचलो. गाडी पार्क केली व पायी चालत चालत कृष्णामाई मंदिर या ठिकाणी पोहोचलो. समोरचे निसर्ग सौंदर्य पाहून भारावून गेलो.  माझा विषय ‘वारसा’ असल्यामुळे कृष्णामाई मंदिर मला खूपच आवडले.  त्यामुळे लगेचच मी माझे निसर्गाचित्रणाचे साहित्य काढून एका कोपऱ्यामध्ये मंदिराचे स्केच करायला सुरुवात केली. कोणत्याही पर्यटकांना त्रास होणार नाही याचीही काळजी घेऊन मंदिर पूर्ण दिसेल अशा ठिकाणी बसलो. चित्र काढण्यात मग्न झालो सुंदर असा ठेवा समोर असल्यामुळे त्याचे चित्र रेखाटण्यात खूप आनंद होत होता माझ्याबरोबर सिद्धांत  होता तो ही एका कोपऱ्यात बसून चित्र काढत बसला होता जवळजवळ वीस मिनिटे आम्हा दोघांनीही मंदिराचे पेन्सिल स्केच केले माझे स्केच पूर्ण झाल्यामुळे मी जलरंगात रंगविण्यासाठी माझी पॅलेट व रंग बाहेर काढले रंगाला सुरुवात करणार तेवढ्यात लोंढे मॅडम आल्या व म्हणाल्या तुम्हाला या ठिकाणी चित्र काढता येणार नाही त्यांनी बंद करण्यास सांगितले काढलेले स्केच पुसून टाका असी तंबी दिली. मी छान चित्र झाल्यामुळे त्यांना विनंती केली चित्र काढायला कुठेही बंदी नसते पर्यटक सुद्धा फोटो काढत आहेत चित्र काढणे हा गुन्हा नाही. त्या खूपच भडकल्या चित्र पुसता येत नाही बहुतेक तुम्हाला म्हणून त्यांनी स्वतः खोडरबर हातात घेतला व चित्र खोडून काढले .मग चित्र पुसल्यावर तुम्ही इथे थांबू नका नाहीतर कायदेशीर कारवाई करण्यात येईल असे धमकावले व आम्हाला हाकलून दिले आम्ही त्यांना विनंती करत होतो तुम्ही आम्हाला स्थानिक पातळीवर परवानगी मिळवून द्या त्यांना आमचे कार्डही दिले मी कास पठार परिसरातील रहिवासी आहे ओळखपत्रही दाखवले फोन मधील मंदिरांची चित्रही दाखविली त्यांनी काहीही ऐकून घेतले नाही. चित्र काढू नका असा बोर्डही नाही म्हणाल्यावर त्यांनी आम्हाला तिथे थांबूच नका असे सांगितले मुंबईवरून परवानगी आणा असे सांगितले आम्ही त्यांच्याकडून लोंढे सरांचा नंबर घेतला त्यांनाही फोन केला परंतु त्यांनीही उलट सुलट उत्तरे देऊन फोन बंद केला आम्ही आमचे साहित्य गोळा केले पुसलेले स्केच घेऊन त्या ठिकाणाहून निघून गेलो.

. . . . 

क्षेत्र महाबळेश्वर (कृष्णामाई मंदिर) या ठिकाणी चित्र काढत असताना आलेला एक अनुभव 

— गणेश तुकाराम कोकरे 

शिक्षण : G.D.Art 

व्यवसाय : चित्रकार (सातारा)  

काही दिवसांपूर्वी मला व्हॉटसॲपवर माझ्या सातारा येथील या चित्रकार मित्राने हा मेसेज पाठवला . खूप वाईट वाटले . शासकीय व्यवस्थेविषयी खूप राग , संताप आला . हतबलता आली .मग जेष्ठ चित्रकार वासुदेव कामत , गायत्री मेहता यांच्याशी फोनवर बोललो . पण सर्वांना आलेले अनुभव सारखेच होते . सत्तेपुढे शहाणपण चालत नाही . मला सांगा या मंदिराचे प्रोफेशनल कॅमेऱ्याने फोटो काढले तर चालतात , व्हिडीओ शुटींग केले तरी चालते मग चित्रकाराने चित्र काढले तर काय त्रास होतो? एखादया चित्रकाराची दोन चार तासाची मेहनत खोडून टाकणारे हात किती अरसिक , असंस्कृत , क्रूर असतील .

एकदा सकाळी फिरत असताना मेणवलीच्या वाड्याजवळ 4 “x 6 ” इंच इतक्या छोट्या आकाराचे पेनमध्ये स्केच करत होतो . इतक्यात केअरटेकर बाई आली.  तिने चित्रकाम अर्ध्यातच आडवले . अशोक फडणीसांची परवानगी घ्यावी लागेल म्हणाली म्हणून फोन केला तर फडणीस म्हणाले चित्रकार येतात , चित्र काढतात, प्रदर्शनात मांडतात, लाखो रुपये कमवतात मग आम्हाला काय मिळणार ? मी म्हणालो तुम्हाला शुटींगचे दिवसाला एक लाख रुपये मिळतात , वाडा पाहण्यास येणाऱ्या पर्यटकांकडून तीस रुपये गाडी पार्किंगचे व पन्नास रुपये प्रवेशमूल्य घेता मग चित्रकारांकडून पैसे का घेता ? तर म्हणाले आता प्रथम अर्ज करा नंतर चित्राची साईज , कोणत्या माध्यमात चित्र काढले आहे ते तपासून विक्रीची किंमत पाहून आमचे कमीतकमी पाचहजार तरी द्या व लेखी परवानगी घेऊन अर्ज देवूनच नंतर चित्र काढायला या. मग तेथे लगेच चित्रकाम थांबवले .परत वाड्यात व मेणवली घाटावर खास चित्र काढायला गेलोच नाही . 4 ” x 6″ इंचाच्या छोट्या पेनने रेखाटलेल्या चित्राची किंमत किती असते ? मी मलाच प्रश्न विचारला ? खरंच चित्रकाराला रोज पाच हजार रुपये मिळाले असते तर तो किती श्रीमंत झाला असता ? अशी रोज चित्रे घेणारा कोणी मिळाला तर मी रोज घाटावरच चित्र काढत बसलो असतो . किती चित्रकार करोडपती झाले याचे अशोक फडणीसांनी संशोधन ,सर्वे  केला पाहिजे तरच खरी  चित्रकार मंडळी कोणत्या परिस्थितीत जगतात हे त्यांनां कळेल .

खरं तर तो चित्रकार त्या रेखाटनातून आनंद मिळवतो . त्याच्या रियाजाचा अभ्यासाचा तो एक भाग असतो . शिवाय आपल्या चित्रातून तो स्पॉट ते ठिकाण अजरामर करतो. तो ऐतिहासिक ठेवा होतो . नंतर कितीतरी वर्षांनी ते स्केच , चित्र एक महत्वाचे डॉक्यूमेंटच ठरते .

पण पैसा महत्वाचा ठरतो . लालफितीच्या सरकारी नियमांविषयी तर काय बोलावे ? आता घाटावर वॉचमन असतो . मोबाईलने फोटो काढले तर चालतात पण मोठा कॅमेरा दिसला की तो अडवतो , प्रथम पाचशे रुपये द्यावे लागतात मग कितीही फोटो काढले व्हिडीओ शुटींग केले तरी चालते. हा मेणवलीचा एक अनुभव सांगतोय असे कितीतरी त्रासदायक अनुभव माझ्या मनात साचलेले आहेत .अनेक कलाकारानां असे अनुभव येत असतात .

एक चित्रकार प्रथम स्पॉटवर जाणार , त्याचे निरिक्षण व अभ्यास करणार , नंतर चित्रांचे सामान आणून संपूर्ण दिवसभर भटकत वेगवेगळ्या अँगलने रेखाटन करणार व नंतर एक फायनल रंगीतचित्र तयार करणार . या कष्टांचे मोल समजणारी माणसे संपली की काय असे वाटते . 

प्रदर्शन करणे म्हणजे एक लग्नकार्य करण्यासारखे असते . मुंबईत प्रथम दोनचार वर्ष बुकींग करून अगोदरच पैसे भरून मिळेल ती तारीख स्विकारावी लागते कारण आपल्याला सोयीच्या मुहूर्तावर हव्या त्या तारखा तर कधी मिळत नाहीत . ते देतील ती तारीख घ्यावी लागते . मग तो भर पावसाळा असो की ऑफ सिझन असो . प्रथम चित्र तयार करायची . त्यासाठी हार्डबोर्ड , ग्लास , माऊंटींग करून फ्रेमिंग करून घ्यायचे . फ्रेमर्सकडे तेवढी जागा नसते म्हणून चित्रे परत घरी आणायची .प्रवासात नुकसान होऊ नये म्हणून बबलशीटमध्ये परत पॅकींग करायची . मग प्रदर्शनाची निमंत्रणपत्रिका किंवा रंगीत ब्रोशर्स छापायचे नंतर बायर्स लिस्ट मिळवून सर्वानां पोस्टाने किंवा कुरीअरने पाठवायचे . प्रदर्शनाचे उद्‌घाटन करण्यासाठी मुख्य अतिथी शोधायचे..  त्या कार्यक्रमांची तयारी करायची . 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री सुनील काळे

संपर्क – 32, निसर्ग बंगला, मेणवली रोड, स्वप्नपूर्ती मंगल कार्यालयाजवळ, मु .पो. भोगाव, ता. वाई, जि.सातारा – ४१२८०३. 

मेल : [email protected]

मोब. 9423966486, 9518527566

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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