हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * चालान सज्जनता का * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

चालान सज्जनता का 
हम अपनी मोपेड पर आराम से ( लगभग 20 किलोमीटर की गति से) चले जा रहे थे । मस्तिष्क में विचारों का अंतर्द्वंद्व चल रहा था । तभी अचानक यातायात पुलिस के सिपाही ने सड़क के बीच डंडा लहराते हुए हमारे वाहन को रोक दिया ।
हमने पूछा – “क्या हो गया हवलदार साहब ?”
“देखते नहीं , चेकिंग चल रही है । अपने वाहन को किनारे खड़े कर साहब को कागजात दिखाओ ।”
हमने अच्छे नागरिक के दायित्व का परिचय देते हुए उसे समस्त कागजात दिख दिये । इंस्पेक्टर ने मेरा ऊपर से नीचे तक  मुआयना किया और मुझे घूरते हुए मेरे कागजात को उलट पलट कर देखा तथा गुस्से में बोला – “साला बहुत ईमानदार बनता है , पूरे कागजात लेकर चल रहा है , तुझे अभी देखता हूँ । यहां किनारे खड़े हो जाओ , पहले इन चार  पांच ग्राहकों को निबटा दूं ।”
हमने देखा कि अन्य लोगों ने इंसपेक्टर को वाहन के कागजात दिखाने की जगह अपनी गाड़ी की हैसियत मुताबिक सौ रुपये , दो सौ रुपये दिये और वाहन चालू कर चलते बने ।
हम आश्चर्य से खड़े देख रहे थे । यातायात हवलदार गजब का मनोवैज्ञानिक लग रहा था । वह केवल उन्हीं लोगों को रोक रहा था  जिनसे आसानी से रुपये प्राप्त हो सकते थे । मेरे देखते – देखते असामाजिक तत्व टाइप के व्यक्ति एक ही वाहन पर 3–3 सवार होकर भी फर्राटे के साथ उसके सामने से निकल रहे थे । वह उन्हें नहीं रोक रहा था । कुरता पायजामा वाले व्यक्ति भी आराम से निकल रहे थे , वह उन्हें सलाम ठोंक रहा था । कालेज के लड़के लड़कियां भी  मुंह पर कपड़ा बांधे हवलदार को  चिढाते हुए निकल रहे थे । इनकी आड़ में मुंह पर कपड़ा बांधे अपराधी तत्व वही निकल गये होंगे । उन्हें तो ये लोग वैसे भी नहीं रोकते, हां उनको पकड़ने के नाम पर नाकाबंदी कर सामान्य जन को अवश्य परेशान करते हैं ।
वह हवलदार केवल धीमी गति से यातायात के नियमों का पालन करते चल रहे सज्जन व्यक्तियों को ही रोक रहा था । वहीं इंस्पेक्टर उन व्यक्तियों के वाहन जब्त करने की धमकी देकर जबरन उनसे रुपये वसूल रहा था ।
हमनें एक व्यक्ति से पूछा — “जब आपके पास वाहन के समस्त कागजात हैं तो आपने रुपये क्यों दिये ?”
“अरे कौन इनके चक्कर में फंसे, सौ रुपये देकर आगे बढ़ो ।”  तभी इंस्पेक्टर ने मेरी ओर मुखातिब होकर कहा — “क्यों बे बड़ा पत्रकार बन रहा है , उससे क्या इंटरव्यू ले रहा था ?”
“कुछ नहीं यूं ही ——— “
“यूं ही के बच्चे, कागजात पूरे हैं तो क्या तू समझता है कि बच जावेगा । मेरे चंगुल से आज तक कोई नहीं बच कर गया है । —— कहते हुए उसने मेरी मोपेड का आगे से पीछे तक निरीक्षण करना शुरू किया ।  लाइट क्यों नहीं जल रही ?
“अभी अंधेरा नहीं हुआ साहब, इसीलिए लाइट नहीं जलाई । वैसे मेरी गाड़ी की आगे पीछे दोनों की लाइट बराबर जलती है । इंडिकेटर भी दोनों ठीक हैं । गाड़ी का बीमा भी है और ——- “
Oओ”बस बस ज्यादा बात नहीं , हम स्वयं चेक कर लेंगे । वाहन का निरीक्षण करते करते अचानक उसके चेहरे पर चमक आ गई और उसने मुझे घूरते हुए कहा — ये नम्बर प्लेट पर क्या लिखा है ?”
“नम्बर प्लेट पर नम्बर ही लिखे हैं  और क्या लिखा होगा ।”
“ये नम्बर किस भाषा में लिखे हैं ? “
     ‘
“जी , हम हिंदी के पक्षधर हैं अतः नम्बर प्लेट में हिंदी में शब्द और अंक लिखे हैं । म . प्र . 20  च  0420 “
“अबे ये च की अंग्रेजी क्या है? “
“जी,   सी . एच . ।  जैसे के . ए . की हिंदी का ,  एच. ए.  हा , एफ . ए . फ़ा , एम .ए . मा , उसी तरह हमने सी .एच. को च  लिखा है ।”
“हूँ , अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे । बहुत चतुर बनता है चालान कटेगा , जुर्माना लगेगा 500 रुपये । “
हम अब थोड़ा घबरा गए । हमने कहा -“500 रुपये किस बात के ।”
“नम्बर गलत ढंग से लिखने के । तुम किसी को टक्कर मारकर भागोगे तो तुम्हारे वाहन का नम्बर कोई भी यातायात का सिपाही आसानी से नहीं पढ़ पावेगा । सीधी सादी अंग्रेजी में नम्बर क्यों नहीं लिखे  और ये 420 नम्बर के अलावा तुम्हें और कोई नम्बर नहीं मिला ? “
“इंस्पेक्टर साहब , जब हम आर . टी . ओ . ऑफिस गये थे  तब वहां पर हमें बताया गया कि कुछ विशेष नम्बर लेने पर अतिरिक्त रुपये लगेंगे , जैसे 001 , तीन इक्के 111, सात सौ छियासी 786 , आदि आदि , तब हमबेन उनसे कह दिया था कि हम अतिरिक्त रुपये नहीं दे सकेंगे  । अतः जो नम्बर कोई न ले वह मुझे दे देना । सो उन्होंने मुझे यह नम्बर दे दिया । अब आप लोगों का रोज का ही यह काम है कि सज्जन व्यक्ति को चोर साबित करें —— “
“बस बस अपना भाषण अपने पास रखो और निकालो पांच सौ रुपये ।”
बहुत देर तक बहस बाजी चलती रही, आखिरकार सौदा 100 रुपये में तय हो गया  । मुझे लगा सज्जनता का चालान कट रहा है । में 100 रुपये देते हुए सोच रहा था कि  घन्टा भर समय व्यर्थ नष्ट किया , इससे तो अच्छा था कि पहले ही बिना बहस किये रुपये देकर निकल जाते । इनसे पार पाना मुश्किल ही है ।
हम आगे बढ़ गये थे, लेकिन  मस्तिष्क में विचारों  का अंतर्द्वंद्व तीव्र हो गया था । रह रह कर अनेक प्रश्न मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे – क्या हमेशा ही सज्जनता की हार होती रहेगी ? गलत को प्रश्रय और सही को सजा मिलती रहेगी ?
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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व्यंग्य
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हिन्दी साहित्य – कविता – * नर्मदा – विवेक की कविता * – श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

नर्मदा – विवेक की कविता 

(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

नर्मदा पर प्रपात..
गरजता हुआ जल..
मैंने तखत पर लेटे
बाबा को याद किया
उद्दाम हंसी से हिलती
उनकी सफेद दाढ़ी
जैसे प्रपात का जल फेनिल
आगे शांत होती नर्मदा
जान पड़ी.. दादी…
आधी धूप-छांव के आंगन में
पालथी लगा बैठी
पहने कत्थई किनारी की
सफेद धोती
दुलारती मचलते नवजातों को
गली से निकलते नागरों को बुलाती
कहती.. बेटा राम-राम
फिर नदी पर विशाल
तटबंध से पिता
सुबह से रात सहेजते कितना कुछ
थामते अपने बाजुओं में जीवन जल
उतारते गहराई में
हम को पकड़ कर हाथ
कृशकाय होती गई नर्मदा में
मां को देखा
अपना रक्त मज्जा सुखा
घर पोसती
सब की भूख जोहती
रांधती सबकी  चाह का अन्न
देर रात रखती अपनी थाली में
एक आखिरी रोटी
बटुलिया लुढ़का निकालती
कटोरी में पनछिटी दाल
कटी गर्भनाल से संतानों में रिस गया
मां का पूरा जीवन
मैंने सूखती उपनदियों के
निशान परखे
बहनें हैं ये
जो अब नर्मदा से
मिलने नहीं आ पातीं
हुईं ससुराल में दमित
या सूख गईं रास्ते में
कारखाने की ओर
मोड़ दी गई
नहर के साथ चला..
ये भैया थे… जो कब का
छोड़ चुके गांव
बसे शहर की किसी तंग गली में
पत्थरों की खोह में ठहर चुका जल दिखा
ये भाभी थीं… जो हुईं विक्षिप्त..
और…  छोड़ गए भैया..सदा के लिए
मैं नर्मदा और इस के सुख दुख की बात कहता हूं
ये नदी मेरे घर में है
ये वो नर्मदा नहीं.. जिसकी बात अखबार में है

© विवेक चतुर्वेदी

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (26-27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

तत्रापश्यत्स्थितान्‌पार्थः पितृनथ पितामहान्‌।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।।26।।

 

श्वशुरान्‌सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌बन्धूनवस्थितान्‌ ।।27।।

देखे वहां पै पार्थ ने,पिता प्रपिता महान

गुरू,मामाओं,भाइयों,मित्र ,पौत्र पहचान।।26।।

थे दोनों सेनाओं में श्वसुर,सुहद,सब लोग

जिन्हें देखकर पार्थ को हुआ बड़ा ही क्षोभ।।27।।

भावार्थ :  इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा ,उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। ॥26 और 27॥

 

Then Arjuna beheld there stationed, grandfathers and fathers, teachers, maternal uncles, brothers, sons, grandsons and friends, too.  (He saw) fathers-in-law and friends also in both armies.    The son of Kunti—Arjuna—seeing all these kinsmen standing arrayed, spoke thus sorrowfully, filled with deep pity ।।26 and 27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य- आलेख – * डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार * – श्री अभिषेक वर्धन

डॉ अ. कीर्तिवर्धन का काव्य संसार – दो काव्य संग्रह लोकार्पित

विद्यालक्ष्मी चैरिटेबल ट्रस्ट तथा एच डी चैरिटेबल सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में एस डी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, मुजफ्फरनगर के सभागार में विगत 22 दिसंबर 2018 को आयोजित अविस्मरणीय समारोह में डॉ अ कीर्तिवर्धन की दो पुस्तकों “मानवता की ओर” तथा “द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री” (The World of Poetry)  का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ कीर्ति वर्धन जी द्वारा हाइकु शैली में लिखी तथा भारती विश्वनाथन जी द्वारा स्वरबद्ध की गयी सरस्वती वंदना से किया गया।

पुस्तक के विषय में अपनी बात रखते हुये कीर्तिवर्धन जी ने समाज में घटते संस्कारों व सामाजिक मूल्यों के प्रति चिन्ता जाहिर की और बताया कि उनकी कविता भूतकाल से सीखकर वर्तमान के धरातल पर खड़ी होकर भविष्य की चुनौतियों के लिये समाज को तैयार करने का प्रयास है। मानवीय दृष्टिकोण तथा मानवता भारतीय जीवन शैली है, उसके बिना विश्व कल्याण सम्भव नही है। अपनी चार पंक्तियों के माध्यम से उन्होने कहा –

टूटकर   भी   किसी   के   काम   आ जाऊँगा,
मैं पत्ता हूँ,  गल गया तो खाद बन जाऊँगा।
हो सका तो मुझको जलाना ईंधन के वास्ते,
किसी के काम आ सकूँ, खुशी से जल जाऊँगा।

डॉ अ कीर्तिवर्धन की चुनिंदा कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद ‘द वर्ल्ड ऑफ पोइट्री’ के अनुवादक डॉ राम शर्मा (विभागाध्यक्ष अंग्रेजी जे वी कॉलेज बडौत) के अनुसार कीर्ति जी की कविताएँ सरल, सहज व मानवीय संवेदनाओं से पूर्ण हैं। आज कीर्ति जी की अंग्रेजी में अनुदित कविताएँ विश्व पटल पर पढी और सराही जाती हैं। श्री रोहित कौशिक जी के अनुसार डॉ कीर्ति वर्धन जी की कविताओं में समाज बदलने की ताकत है। वह आदमी को इन्सान बनने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने आशा जताई कि कीर्ति जी समाज को कुछ और भी बेहतर देने में सक्षम होंगे। श्री राजेश्वर त्यागी जी, मेरठ के अनुसार ‘मानवता की ओर’ मानवीय संवेदनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पुस्तक की अनेक रचनाओं का उल्लेख करते हुये उन्होने कहा कि अपने 52 वर्ष के लेखनकाल में उन्होने मानवीय संवेदनाओं की ऐसी सृजना नही की।

संस्कृत के प्रख्यात विद्वान डॉ उमाकांत शुक्ल जी ने कीर्तिजी की सहृदयता तथा मानवीय दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुये उनकी पूर्व पुस्तकों मुझे इन्सान बना दो, सुबह सवेरे, सच्चाई का परिचय पत्र  में भी उनके मानवतावादी दृष्टिकोण की चर्चा की और आशीर्वाद देते हुये कहा कि कीर्तिवर्धन जी अपनी रचनाओं से समाज में मानवता का परचम फहराते रहेंगे और बच्चों में संस्कारों का रोपण करने में संलग्न रहेंगे। प्रसिद्ध शिक्षाविद डॉ एस एन चौहान के अनुसार  कीर्तिवर्धन जी अच्छे साहित्यकार के साथ बेहतरीन इंसान भी हैं। उनकी कविताएं इंसानी मूल्यों के प्रति संवेदना, प्रेरणा व स्फूर्ति पैदा करने वाली हैं। उनके अनुसार “मानवता की ओर” एक ऐसी कृति है जो आज के आपाधापी के युग में कल्याण का पथ प्रशस्त कर सकेंगी।  कीर्तिजी की बुजुर्गों पर केन्द्रित पुस्तक “जतन से ओढी चदरिया” को सराहते हुए उन्होने कहा कि यदि इसको पढा और समझा जाये तो समाज में वृद्धाश्रम की समस्या समाप्त हो जायेगी। डॉ चौहान ने कीर्तिवर्धन जी की रचनाओं के कन्नड, तमिल, मैथिली, नेपाली, अंगिका, तमिल व उर्दू अनुवादों की भी चर्चा की।

साभार श्री अभिषेक वर्धन, मुजफ्फरनगर

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – * आणि वसंत आला * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

आणि वसंत आला

(सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की जीवन के कटु सत्य को उजागर करती हृदयस्पर्शी कविता निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देगी।)

अकराव्या वर्षी लग्न झालं
आणि तेरा वर्षाच्या आत
मुलं झाले |
एक मुलगा अणी दोन मूली
सगळे घरचे काम,
मुलं -बाळांची देख रेख
नणंद-देवर पण लहानच होते,
सासू- सासऱ्यांची ची देख रेख
एवढ्यामध्ये कमावणारी एक व्यक्ति म्हणजे ” हे ” |
कधी कधी तर महीने, वर्ष सहजच
निघून जायचे  |
नीट सजायला पण वेळ नाही भेटायचं
नाही ह्यांच्याशी बोलायला वेळ असायचा |
सर्व त्यांच्या मार्गावर लागले तेव्हा मात्र
मूला-बाळांचे अभ्यास
त्यांच्या भविष्याच्या पायऱ्यांची चिंता भासू लागली|
हळू हळू मुलंही आपल्या मार्गी लागले
तेव्हा परन्तु साठी आली |
आता आमच्याकडे कोणीच नाही
आम्ही दोघे म्हातारे म्हातारी राहिलॊ |
माहिती नाही कस काय
माझी नटायची इच्छा झाली |
इतक्या वर्षात आम्हाला दोघांना
एक दुसऱ्याला बघायला
स्तुती करायला
वेळच भेटला नाही |
मनात विचार आला
आज ह्यांचे फिरून होण्या अगोदर
जरा आवरून घेऊया |
जसे जसे आवरत गेली
मन दडपून गेले ।
ह्यांनी दाराची बेल वाजवली
तशी माझ्या ह्रदया ची गती
थांबायलाच तैयार नव्हती |
जीव मुठीत घेऊन दार उघडला
दार उघड़ल्यावर हे बोलले
क्षमा करा चुकीच्या घरात आलो |
मी म्हणाली “ अहो ”,
ते आश्चर्याने मला
बघायला लागले
आणि बोलले
“अग ही तू, तू किती सुंदर आहेस
इतके वर्ष तूला मी नीट पाहिलही नाही ! ”
किती तरी वेळ
माझा हात धरून
बघत राहीले |
त्यांच्या हाताची उष्णता
अणी डोळ्यांचे उमडलेलं प्रेम पाहुन
खरं सांगते
अर्थात
आज आमच्या आयुष्यातला पहिला
वसंत आला ।
© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद्श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (24-25) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

 

संजय उवाचः

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।

सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌।।24।।

 

संजय ने कहा-

अर्जुन ने जब यों कहा हृषीकेष से नाथ

दोनों सेना मध्य गये,उत्तम रथ में साथ।।24।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌।

उवाच पार्थ पश्यैतान्‌समवेतान्‌कुरूनिति ।।25।।

कहा कृष्ण ने पार्थ से देखो कुरूजन सर्व

भीष्म-द्रोण है प्रमुख ओै” राजा कई सगर्व।।25।।

भावार्थ :  संजय बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥

 

Being thus addressed by Arjuna, Lord Krishna, having stationed that best of chariots, O Dhritarashtra, in the midst of the two armies.  In front of Bhishma and Drona and all the rulers of the earth, said: “O Arjuna, behold now all these Kurus gathered together!” ।।24-25।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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English Literature – Poetry – * Heart, eyes, and tears * – Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

Heart, eyes, and tears

 

(This poem has been cited from my book The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

 

These tears are surprising

which are very close to every heart.

 

There is a strange relationship

amongst heart, tears and eyes.

Even though,

staying away from the heart,

these are close to every heart.

 

By the way

Eyes cry many times in life.

Sometimes they cry in joy.

Sometimes they cry in sorrow.

Sometimes they cry when we are awake.

Sometimes they cry when we are asleep.

 

People Say –

the woman is so sensitive

having a source of tears in her eyes.

 

However,

I had seen him turning away,

and wiping his eyes

at the time of his wife’s adieu.

 

I had seen tears in his eyes

at adieu of

his sister

and daughter too.

 

I had seen tears in his eyes

even when, as a social responsibility

he brought one daughter from another home

with the feeling of adieu of

his sister

and daughter too.

 

I had still seen tears of joy in his eyes

when you had given presence

in your mother’s womb.

 

I had still seen tears of joy in his eyes

when he preached the good stories

when you were in the womb

so you may get lessons of life

to overcome the life’s trap.

 

I had seen tears of helplessness in his eyes

when he found himself constrained

to meet your urgent needs.

 

I had even seen tears in his eyes

when someone could not understand him

when someone could not honour

his feelings

his relationships.

 

I had still seen tears of joy in his eyes

when you moved ahead

to fight with life’s lessons

rejuvenating yourselves.

 

These tears are surprising

which are close to every heart.

 

There is a strange relationship

amongst heart, tears and eyes.

Even though,

staying away from the heart

these are close to every heart.

 

© Hemant Bawankar

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Poetry,
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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * प्रेमाला उपमा नाही * – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

प्रेमाला उपमा नाही

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति  हसबनीस जी  का आलेख प्रेमाला उपमा नाही)

आयुष्याची खुमारी  वाढवणारं प्रेम वयाच्या प्रत्येक टप्प्या टप्प्याला किती वेगळं पण तितकंच मनोरम भासतं ना! सोळाव्या वर्षी नजरेचं  भिरभिरं आपल्या प्रेमाच्या शोधात असल्यासारखं सतत टेहळणीवर असतं. कधीतरी नजरभेट होते, ह्रदयाची धडधड ओळख पटवते, आणि प्रेम गवसल्याचा आभास होतो. हाती गवसलेल्या प्रेमासाठी काय वाट्टेल ते करण्याची तयारी मनाची असते. कधी सफलतेचा आनंद मिळतो तर कधी वैफल्य गाठी येतं. मागचा पुढचा विचार न करता जीव ओवाळून टाकणारं वेडं प्रेम खरंच कित्येकांची आयुष्य उध्वस्त करतं किंवा उजळून टाकतं, पण मला ह्या प्रेमाचं नेहमीच एक विलक्षण आकर्षण वाटत आलंय. जगण्याचा कैफ, जगण्यातली मस्ती, सारं काही आसूसून अनुभवण्याची आणि त्यासाठी उभ्या दुनियेशी लढा देण्याची ह्या ओढाळ आणि झुंजार प्रेमाची जातकुळ खुपच अनोखी असते.

आयुष्याचं दान कधी उजवं तर कधी डावं, सारं नियतीच्या हातात. मिळालेल्या दानाचा हंसतमुखाने स्वीकार करत, जिवलगाचा हात हाती घेत केलेली वाटचाल, वाट्याला आलेली सुखदु:ख, प्रसंगी परिस्थितीशी केलेली हातमिळवणी तर कधी तिच्याशी केलेले दोन हात सारेच क्षण परस्परांवरील प्रेमाची वीण घट्ट करणारे ठरतात आणि वयाच्या पन्नाशीपर्यंत अतिशय जवाबदार असं प्रेम आकाराला येतं. हे प्रेम उबदार असतं, सुरक्षित असतं, हवंहवंसं वाटणारं असतं, गुंतलेपणातली तृप्ती ल्यालेलं  असतं.

सारी वेडी वाकडी नागमोडी वळणं पार करत गतीशील होत जाणारं आयुष्य आणि त्या त्या टप्प्याला फुलणारं आणि परिपक्व होत जाणारं प्रेम अंतिम टप्प्यावर एक वेगळीच उंची गाठतं. ह्या प्रेमाची भाषा मूक असते, समंजस असते, शब्दांच्या आधाराशिवायच व्यक्त होण्याची कला त्याला अवगत झालेली असते, फक्त आणि फक्त नजरेच्या टप्प्यात जिवलगाचा वावर असावा एवढी माफक अपेक्षा हे प्रेम बाळगून असतं. आशा, अपेक्षांच्या पलिकडे गेलेलं हे प्रेम निर्वाणाच्या वाटेवर इंद्रधनुषी साजात झगमगत असतं!

© ज्योति हसबनीस, नागपूर

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हिन्दी साहित्य- कविता – * वैलेन्टाइन डे  * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

वैलेन्टाइन डे 

(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी की वैलेन्टाइनडे पर  एक मार्मिक एवं भावप्रवण विशेष कविता।) 

मैं नहीं जान सकी
कि
पहली ही मुलाकात में
आखिर, इन्होंने मुझे
काँटों भरा गुलदस्ता
दिया ही क्यों ?
वह मेरी उँगलियों में चुभ गया
और
मेरी सिसकी निकल गयी।
किन्तु,
इन्होंने मेरी तरफ देखा भी नहीं
और न ही कोशिश की
मेरे आँसू पोंछने की।
मुझे बहुत बुरा लगा।
इन चंद मिनटों में ही
मैंने बहुत ही कठोर भावना बना ली
उनके प्रति।
मुझे गुस्से में तिलमिलाते देख
वे बोले
जाना चाहती हो
तो जाओ।
मुझसे आईन्दा नहीं मिलना चाहती हो
तो मत मिलो।
किन्तु,
क्या तुम यह नहीं जानना चाहोगी
कि मैंने ऐसा किया ही क्यों  ?
मैने गुस्से और नफ़रत भरे
अन्दाज़ से उन्हें देखा
किन्तु,
कुछ बोल न सकी।
वे उठकर चल दिए
मैं सहम गई
और साहस करके उनसे कहा
ठीक है,
बताईये
आपनें ऐसा किया ही क्यों ?
वे थोड़ी देर चुप रहे
मेरी आँसू भरी आँखों में देखा
विचलित हुये,
किन्तु,
चेहरे पर नहीं आने दिये, वे भाव
फ़िर आहिस्ते से बोले –
मेरे साथ,
मेरी जिंदगी में आने के बाद
शायद,
न जाने कितनी दफा तुम्हें
चुभ सकते हैं
ऐसे ही कुछ काँटे ?
क्या पता,
चलना पड़े
ऐसी ही काँटों भरी राहों पर भी ?
अगर,
तब तुम चली गई
मुझे छोड़ कर
तो
शायद मैं  बर्दाश्त न कर पाऊँ!
अगर,
तुम आज चली जाती
तब भी मैं तुमसे करता
ताउम्र खामोश मुहब्बत
किन्तु,
कभी भी न कहता
तुम्हें जबरन मेरा साथ देने।
इतना सुनते ही
मैं जोर-जोर से रोने लगी।
हमें देखने लगे।
आसपास के सभी लोग।
मैं उठी
और
उनसे जा लिपटी।
सच कहती हूँ
हम दोनों
जिंदगी की
हर उस सड़क से गुजरे हैं,
जिस पर
सिर्फ और सिर्फ काँटे थे।
लोगों की नजरों में
हमारे जख्मी हालात पर
सहानुभूति की जगह
नमक छिड़कना
और
हमारा तिरस्कार करना निहित था।
किन्तु,
हम चलते रहे
एक दूसरे का हाथ पकड़कर।
सहलाते रहे
एक दूसरे के घावों को।
आज उस बात को
अट्ठाईस वर्ष हो गए हैं।
किन्तु,
आज भी
हर वैलेन्टाइन डे के दिन
ये मुझे देते हैं गुलदस्ता
वैसा ही
और
मैं हँस कर ले लेती हूँ
फिर
धन्यवाद देती हूँ उन्हें
आने के लिए
मेरी अपनी जिन्दगी में !

© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 

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कविता
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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद्श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों की गणना और सामर्थ्य का कथन )

( अर्जुन द्वारा सेना-निरीक्षण का प्रसंग )

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।

धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।।23।।

दुष्ट बुद्धि धृतराष्ट्र के प्रिय जो तथा सहाय

यहां युद्ध का मन बना लड़ने को जो आये।।23।।

भावार्थ :  दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं, इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा॥23॥

 

For I desire to observe those who are assembled here to fight, wishing to please in battle Duryodhana, the evil-minded ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

vivek1959@yah oo.co.in

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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