मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ बा बा ब्लॅक शिप नको — लेखक अज्ञात ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले

? वाचताना वेचलेले ?

☆ बा बा ब्लॅक शिप नको — लेखक अज्ञात ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले  

बा बा ब्लॅक शीप शिकवू नका. शिकवा:  वक्रतुंड महाकाय…. वाचा—–

पाश्चिमात्य संशोधकांनी उलगडले की संस्कृत मंत्र लक्षात ठेवणारी मुले मोठी झाल्यावर अति हुशार का होतात ?

कठोरपणे लक्षात ठेवणे मेंदूला किती मदत करू शकते हे न्यूरोसायन्स दाखवते. ‘संस्कृत इफेक्ट’ ही संज्ञा न्यूरोसायंटिस्ट जेम्स हार्टझेल यांनी तयार केली होती, ज्यांनी व्यावसायिक पात्रता असलेल्या २१ संस्कृत पंडितांचा अभ्यास केला होता. त्यांनी शोधून काढले की वैदिक मंत्रांचे स्मरण केल्याने अल्प आणि दीर्घकालीन स्मृतीसह संज्ञानात्मक कार्याशी संबंधित मेंदूच्या क्षेत्रांचा आकार वाढतो. हा शोध भारतीय परंपरेच्या श्रद्धेला पुष्टी देतो, ज्यामध्ये असे मानले जाते की मंत्रांचे स्मरण करणे आणि पाठ करणे स्मरणशक्ती आणि विचार वाढवते.

डॉ. हार्टझेलच्या अलिकडील अभ्यासात असा प्रश्न निर्माण झाला आहे की अशाप्रकारच्या प्राचीन ग्रंथांचे स्मरण अल्झायमर आणि इतर स्मरणशक्तीवर परिणाम करणाऱ्या रोगांचे विनाशकारी आजार कमी करण्यासाठी उपयुक्त ठरू शकते का? वरवर पाहता, भारतातील आयुर्वेदिक डॉक्टर असे सुचवतात, आणि संस्कृतमध्ये अधिक संशोधनासह भविष्यातील अभ्यास नक्कीच केले जातील.

आपल्या सर्वांना सजगता आणि ध्यान पद्धतींचे फायदे माहित असताना, डॉ हार्टझेलचे निष्कर्ष खरोखरच नाट्यमय आहेत. कमी होत चाललेल्या लक्षांच्या जगात, जिथे आपल्याला दररोज माहितीचा पूर येतो आणि मुले लक्ष वेधून घेणारे अनेक विकार दाखवतात, तिथे प्राचीन भारतीय शहाणपणामध्ये पश्चिमेला (आणि पूर्वेकडील त्यांच्या ‘आधुनिक’ बौद्धिक सेवकांना) शिकवण्यासारखे बरेच काही आहे.

गायत्री मंत्रासारख्या सामान्य संस्कृत मंत्रांचे थोडय़ा प्रमाणात जप आणि पठण करूनही आपल्या सर्व मेंदूवर आश्चर्यकारक परिणाम होऊ शकतो.

https://upliftconnect.com/neuroscience-and-the-sanskrit-effect/

हा संदेश वाचणाऱ्या सर्वांना एक छोटी सूचना आणि विनंती…

*कृपया हा MSG वैयक्तिकरित्या तुमच्या सर्व शाळा आणि प्ले स्कूल चालवणाऱ्या मित्रांना पाठवा…

Better late than never!

लेखक  :  अज्ञात 

संग्राहिका : डॉ. ज्योती गोडबोले 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 105 ☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता  ‘बेटी ! मत बन मेरी जैसी’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 105 ☆

☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ना जाने क्यों

मुझे आईने में

आज अपना नहीं

माँ का चेहरा नजर आया

पनीली-सी आँखें

बोल उठीं मुझसे

छोड़ दिया ना

तुम्हें भी सबने अकेला ?

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

घर के कामों को निपटाती

इधर-उधर, ऊपर-नीचे, आती-जाती

बोलोगी खुद से

सवाल तुम्हारे,

जवाब भी तुम्हारे ही होंगे | 

सन्नाटे को चीरती आवाज,

लौटेगी तुम तक बार-बार

टी. वी. चलाकर –

दूर करना चाहोगी,

घर में पसरे सूनेपन को

पर कोई नहीं तुम्हारी बात सुननेवाला |

मानों मेरी बात  |

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

शुरू हो गई है प्रक्रिया

तुम्हें पागल बनाने की

बड़े सलीके से

आईने में दिखती आँखें

मानों रो रही थीं –

कह रही थीं –

निकलो बाहर इस

भीतर – बाहर के सूनेपन से

इससे पहले तुम्हें कोई

पागल करार दे

बेटी ! माँ हूँ तेरी

पर मत बन मेरे जैसी |

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 125 ☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “फॉलो अनफॉलो का चक्कर । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 125 ☆

☆ फॉलो अनफॉलो का चक्कर ☆ 

एक दूसरे को देखकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।  सोशल मीडिया ने लगभग सभी को रील / शार्ट वीडियो बनाना सिखा दिया है। बस उसमें प्रचलित ऑडियो को सेट करें और वायरल का हैस्टैग करते हुए सब जगह फैला दीजिए। ये सब देखते हुए विचार आया कि इसे तकनीकी यात्रा का नाम दिया जाए तो कैसा रहेगा। वैसे भी यात्राएँ रुचिकर होती हैं। पुस्तकों में भी यात्रा वृतांत पढ़ने में आता है।

एक शहर से दूसरे शहर जाना अर्थात कुछ  बदलना। ये बदलाव हमारे अवलोकन को बढ़ाता है। जगह – जगह का खान- पान, रहन-सहन, वेश- भूषा सब कुछ अलग होता है। चारों धाम की यात्रा  यही सोच कर सदियों से की जा रही है। जब हम यात्रा संस्मरण पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि इस पुस्तक के माध्यम से हमने भी यात्रा कर ली। रास्ता नापने के मुहावरा शायद यही सोचकर बनाया गया होगा। आजकल सड़कें भी बायपास हो गयीं हैं। बिना धक्के का रास्ता आनन्द के साथ- साथ रुचिकर भी होने लगा है। तेजी से बढ़ते कदम मंजिल की ओर जब जाते हों तो लक्ष्य मिलने में देरी नहीं लगती। आस- पास हरियाली हो, वन वे ट्रैफिक हो, बस और क्या चाहिए।

यात्राएँ हमें जोड़ने का कार्य बखूबी करतीं हैं। बहुत बार हम किसी विशेष स्थान से प्रभावित होकर वहीं बसने का फैसला कर लेते हैं। हम तो ठहरे तकनीकी युग के सो सारा समय फेसबुक, इंस्टा, व्हाट्सएप व ट्विटर पर बिताते हैं। जब मामला अटकता है तो गूगल बाबा या यू ट्यूब की शरण में पहुँच कर वहाँ से हर प्रश्नों के उत्तर ले आते हैं। ये सब कुछ बिना टिकट के घर बैठे हो रहा है। पहले तो किसी से कुछ पूछो तो काम की बात वो बाद में करता था अनावश्यक का ज्ञान मुफ्त में बाँट देता था। चलो अच्छा हुआ इक्कीसवीं सदी में कम से कम इससे तो पीछा छूट गया है।

ये सब मिलेगा बस अच्छी पोस्ट को फॉलो और खराब को अनफॉलो करने की कला आपको आनी चाहिए। पहले अवलोकन करें जाँचे- परखे और सीखते- सिखाते हुए  सबके साथ आगे बढ़ते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उत्सवधर्मी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – उत्सवधर्मी ??

जीवन की अंतिम घड़ी,

श्यामल छाया सम्मुख खड़ी,

चित्र चक्र-सा घूमा;

क्षण भर विहँसा ;

छाया के संग चल पड़ा,

छाया विस्मित.. !

जीवन से वितृष्णा

या जीवन से प्रीत?

न वितृष्णा न प्रीत;

ब्रह्मांड की सनातन रीत,

अंत नहीं तो आरंभ नहीं,

गमन नहीं तो आगमन नहीं,

मैं आदि सूत्रधार हूँ,

आत्मा का भौतिक आकार हूँ,

सृष्टि के मंच का रंगकर्मी हूँ,

सृजन का सनातन उत्सवधर्मी हूँ!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #126 – “राम जाने” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “राम जाने”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 126 ☆

☆ लघुकथा – राम जाने ☆ 

बाबूजी का स्वभाव बहुत बदल गया था। इस कारण बच्चे चिंतित थे। उसी को जानने के लिए उनका मित्र घनश्याम पास में बैठा था, “यार! एक बात बता, आजकल तुझे अपनी छोटी बेटी की कोई फिक्र नहीं है?”

बाबू जी कुछ देर चुप रहे।

“क्या होगा फिक्र व चिंता करने से?” उन्होंने अपने मित्र घनश्याम से कहा, “मेरे बड़े पुत्र को में इंजीनियर बनाना चाहता था। उसके लिए मैंने बहुत कोशिश की। मगर क्या हुआ?”

“तू ही बता?” घनश्याम ने कहा तो बाबूजी बोले, “इंजीनियर बनने के बाद उसने व्यवसाय किया, आज एक सफल व्यवसाई है।”

“हां, यह बात तो सही है।”

“दूसरे बेटे को मैं डॉक्टर बनाना चाहता था,” बाबू जी बोले, “मगर उसे लिखने-पढ़ने का शौक था। वह डॉक्टर बन कर भी बहुत बड़ा साहित्यकार बन चुका है।”

“तो क्या हुआ

” घनश्याम ने कहा, “चिंता इस बात की नहीं है। तेरा स्वभाव बदल गया है, इस बात की है। ना अब तू किसी को रोकता-टोकता है न किसी की चिंता करता है। तेरे बेटा-बेटी सोच रहे हैं कहीं तू बीमार तो नहीं हो गया है?”

“नहीं यार!”

“फिर क्या बात है? आजकल बिल्कुल शांत रहता है।”

“हां यार घनश्याम,” बाबूजी ने एक लंबी सांस लेकर अपने दोस्त को कहा, “देख- मेरी बेटी वही करेगी जो उसे करना है। आखिर वह अपने भाइयों के नक्शे-कदम पर चलेगी। फिर मेरा अनुभव भी यही कहता है। वही होगा जो होना है। वह अच्छा ही होगा। तब उसे चुपचाप देखने और स्वीकार करने में हर्ज ही क्या है,” कहते हुए बाबूजी ने प्रश्नवाचक मुद्रा में आंखों से इशारा करके घनश्याम से पूछा- मैं सही कह रहा हूं ना?

और घनश्याम केवल स्वीकृति में गर्दन हिला कर चुप हो गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-02-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 135 ☆ बाल कविता – खेल खिलौने टुनटुन वाले… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 135 ☆

☆ बाल कविता – खेल खिलौने टुनटुन वाले… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

नौनू – मौनू की है जोड़ी

कभी खेलते घोड़ा – घोड़ी।।

 

घुँघरू बजते रुनझुन – रुनझुन

निश्छल मनभावन बड़े मगन।।

 

खेल खिलौने टुनटुन वाले

खेल खेलते हैं मतवाले।।

 

चूमें – झूमें  प्यार बढ़ाते

तनिक नहीं हैं वे शरमाते।।

 

सीख सिखाएँ हमको हरदम।

प्रेम सत्य है बाजे सरगम।।

 

ईश्वर के हैं रूप निराले

खुशियों से भर देते प्याले।।

 

बचपन है प्यारा सतरंगा

जैसे पावन बहती गंगा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कैवल्य… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कैवल्य… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

(वृत्त : समुदितमदना) – (मात्रा १६+११)

     कधीकाळचे विझलेले ते

          गगन उजळती दीप

    अथांगातुनी आले वरती

          ते सोन्याचे द्वीप !

 

     दिनरात्रीचे सुखदुःखाचे

          द्वैतचि सारे सरे

     आर्त दिशांचे केवळ नयनी

          करुणामय पाझरे !

 

     दाहमुक्तिच्या पंथी वणवे

          शीत समीरण वनी

     येत परतुनी प्राणपाखरे

          शोधित घरटी जुनी !

 

     कणकण उजळे दिव्य दीप्तिने

          तिमिर युगांचा सरे

     प्राणामधुनी झुळझुळती गा

          नक्षत्रांचे झरे !……

 

     क्षण दीप्तीचा क्षण तृप्तीचा

          आता कसली खंत

     दर्शनव्याकुळ भक्ता दर्शन

          अवचित दे भगवंत !

 

     हाकेसरशी दिगंत एका

          स्वर्ग धरेवर झुके

     ह्रदयनंदनी गर्द निरामय

          कैवल्याचे धुके !

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #135 ☆ संत सोपान देव… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 135 ☆ संत सोपान देव … ☆ श्री सुजित कदम ☆

 

ज्ञाना निवृत्ती सोपान

आणि मुक्ताई धाकली

चार वेद अध्यात्माचे

जणू एकात्म आवली…! १

 

सुसंस्कृत जीवनाचा

ठरे सोपान वारसा

अध्यात्मिक उन्नतीचा

संत सोपान आरसा…! २

 

ग्रंथ सोपान देवीत

केल्या अभंग रचना

उरी अपार करूणा

विश्व शांती  संकल्पना…! ३

 

तीर्थाटन माधुकरी

भटकंती समाजात

केली मलिनता दूर

भक्तीभाव अभंगात…! ४

 

ज्ञानगंगा सोपानाची

ठेवा अक्षय अभंग

काळजाला काळजाने

भेटवीला पांडुरंग…! ५

 

पांडुरंग चरणांची

हवी अंतराला ओढ

एका एका अभंगाला

लाभे हरिनाम जोड…! ६

 

भक्तीमय भावनांनी

दिली अलौकिक ठेव

संत सोपान देवाची

सांप्रदायी देवघेव…! ७

 

स्वर्गलोक शब्दांकन

पंढरीचा थाट माट

अभंगात वर्णियेला

प्रपंचाचा हरी घाट…! ८

 

दिला जीवन विचार

अंतर्मुख झाले जन

सोपानाच्या अभंगात

लीन झाले तन मन…! ९

 

समाधिस्थ ज्ञानदेव

गेला जीवन आधार

हरी रूप झाला देह

पंचतत्व उपचार…! १०

 

मार्गशीर्ष वद्य पक्षी

संपविला अवतार

संत सोपान समाधी

सासवडी अंगीकार…! ११

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ जपूया संस्कृती… ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

सौ. दीपा नारायण पुजारी

?विविधा ?

☆ जपूया संस्कृती… 🤔 ☆ सौ. दीपा नारायण पुजारी ☆

आपण उत्सवप्रिय आहोत. श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक या महिन्यात विविध व्रतवैकल्ये, धार्मिक सण, उत्सव यांची रेलचेल असते. या काळात संपूर्ण निसर्ग बहरलेला असतो. वर्षाऋतुनं अवघ्या अवनीवरती जलाभिषेक केलेला असतो. सृष्टी सौंदर्यानं नटलेली असते. प्राणी पक्षी आनंदी असतात. झाडं,वेली पानाफुलांनी नटलेली असतात. आपले सण उत्सव   आपल्या संस्कृतीची ओळख सांगतात. तसेच ते निसर्गाशी नातं सांगतात, निसर्गाशी जवळीक साधतात. निसर्गातल्या बदलांचं निरिक्षण करून त्यांचं आपल्या जीवनाशी असलेलं नातं शोधणं म्हणजे सण, उत्सव साजरे करणं , हो ना? सणांच्या निमित्तानं माणसं एकत्र येतात, सुसंवाद घडतात. वैयक्तिक, सामाजिक ताणतणाव कमी होतात. याबरोबरच सण, नैसर्गिक बांधिलकीची जाणीव देखील करून देतात. सृष्टीतील प्रत्येक सजीवांप्रती प्रेम, आदर, व्यक्त करण्याचा मार्ग म्हणून या सणांच्याकडं, बघायला हवं.

आपल्या चालीरीती, परंपरा आपल्याला निसर्गाविषयी कृतज्ञता व्यक्त करायला शिकवतात. आपल्या परिसरातील झाडं, वेली, शेती, प्राणी, पक्षी या सर्वांना मानाचं स्थान देण्यासाठी सण निर्माण केले आहेत. असा विचार केला तर परंपरा जपल्या जातीलच, पण त्याशिवाय निसर्गाचं जतन करायला, संवर्धन करायला, परिसंस्था टिकवायला हातभार लागेल.

वटपौर्णिमा, नागपंचमी, ऋषीपंचमी साजरी करायची असेल तर घरातून बाहेर जावं लागतं. निसर्गाशी संवाद साधावा लागतो.गणेशाला लाल फुले, दुर्वा, आघाडा प्रिय. अर्जुन, रुई, पिंपळ, कण्हेर, शमी, डाळिंब,शंखपुष्पी अशी एकवीस प्रकारची पत्री पूजेसाठी लागते. बाप्पासाठी हे सर्व लागते म्हणून या वनस्पतींची लागवड केली जाते. त्यांची काळजी घेतली जाते, संवर्धन केले जाते. पर्यायानं आपण आपल्या सभोवती असलेल्या निसर्गाचं  संवर्धन करतो, जतन करतो. त्यामुळंच तर पर्यावरणाचा समतोल राखला जातो. शहरात पूजेसाठी लागणारी फुलं, फळं,पत्री विकत मिळते. परंतु खरेतर या वनस्पती आपल्या परिसरात आपण स्वतः लावणं अपेक्षित आहे. देवपूजेचं निमित्त करून, पूजेसाठी लागणारी सामग्री गोळा करण्यासाठी आपण त्यांच्या जवळ, त्यांच्या सान्निध्यात काही काळ व्यतीत केला पाहिजे. मोकळी हवा, भरपूर ऑक्सिजन मिळवण्यासाठी परिसरात फिरलं पाहिजे. सृजनातला आनंद मिळवला पाहिजे.सर्जनशीलता वाढली पाहिजे. या वनस्पतींच्या औषधी गुणधर्मांची माहिती करून घेतली पाहिजे. सगळ्यात महत्त्वाचं म्हणजे, त्या त्या ऋतूत मिळणाऱ्या भाज्या,फळं यांचं सेवन केलं पाहिजे.

आपली संस्कृती रोजच दारात रांगोळी काढायला सांगते. यामुळे घरासमोरील अंगण, घराचा बाह्य भाग, यांची स्वच्छता होते. सकाळचा कोवळा सूर्यप्रकाश मिळतो. ताजा प्राणवायू उत्साह द्विगुणित करतो. थोडासा व्यायाम होतो. शेजाऱ्यांची खुशाली समजते. कलागुणांना वाव मिळतो. मन प्रसन्न होतं. अनेक आजार दाराबाहेर रोखले जातात.

सणासुदीच्या काळात म्हंटल्या जाणाऱ्या आरत्या, स्तोत्र पठण, यांनी सात्विक वातावरण निर्माण होतं. आरती गाताना आपण टाळ्या वाजवतो. यामुळं जशी गेयता येते, तालाचं, चालीचं भान राहतं तसंच रक्ताभिसरण सुधारतं. ओवी, श्लोक, ऋचा, आरत्या जिभेला वळण लावतात, स्मरणशक्ती वाढवतात. विचार करावा तेवढे फायदे आहेत. आपल्या पूर्वजांनी अभ्यास करून रितीरिवाज, परंपरा, सणसमारंभ यांची आखणी केली आहे. आधुनिक काळात पाश्चिमात्य देशांमधील विचार, पद्धती, खाद्यसंस्कृती, वेषभूषा आपण स्वीकारतो. ती वाईट नाही. पण आपल्या हवामानाला पूरक नाही हे मात्र नक्की. निसर्गाचा समतोल राखत, मानवी जीवन आरोग्यपूर्ण, आनंदी आणि समाधानी करण्यासाठी परंपरा जपण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे. अन्न,वस्त्र, निवारा देणारी अवनी जपली पाहिजे.

‘सहनाववतु, सहनोभुनोक्तु सहवीर्यं करवावहै’ ची अनुभूती घेतली पाहिजे.

© सौ. दीपा नारायण पुजारी

इचलकरंजी

9665669148

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘हद्द…’ – भाग – 2 ☆ श्री आनंदहरी ☆

श्री आनंदहरी

?जीवनरंग ?

 ☆ ‘हद्द…’ – भाग – 2 ☆  श्री आनंदहरी  ☆ 

तो बाहेरुन आल्यावर त्याला तात्या येऊन धीर देऊन , ‘ काहीअडलं -नडलं सांगा ‘ असं सांगून गेल्याचे समजलं, तेंव्हा तो उफाळून म्हणाला,

” काही नको त्यांची मदत आपल्याला. तशीच वेळ आली तर विष खाऊन जीव देऊ पण त्यांच्या दारात जाणार नाही. “

‘ काहिही झाले तरी त्यांच्या दारात जायचे नाही ‘ असे त्याने आईला तसेच निक्षून सांगितले होते.

चारच दिवसांनी तो आपल्या वडिलांच्या वयाच्या असणाऱ्या तात्यांच्या अंगावर धावून गेला होता.  साधे फुले तोडण्याचे कारण घेऊन. त्यावेळी तात्या त्याला समजुतीने सांगत होते पण  त्याने त्यांचे काहीही ऐकून न घेता, त्याच्या हद्दीतील फुलझाडाची चार फुले तोडली म्हणून त्यांच्या हातातील फुलांची परडी हिसकावून घेऊन त्यातील सारी फुले पायदळी तुडवली होती. तात्या त्यावरही काहीच न बोलता निमूटपणे त्यांच्या घरात परतले होते.  त्याची मात्र स्वतःच्या दारात उभा राहून शिव्यां-शापांची लाखोली वहात बडबड चालू होती.

तात्यांची दोन्ही मुले त्याच्याबरोबरीचीच. तशीच गरम डोक्याची. ती नोकरीनिमित्त मुंबईला होती. ती तिथं असती तर भांडण हमरीतुमरीवर  यायला कितीसा वेळ लागणार होता?  त्याच्या आईने त्याला त्यावेळीही समजवण्याचा प्रयत्न केला होता पण उपयोग झाला नव्हता.

पिढी-दर-पिढी चाललेल्या त्यांच्या हद्दीच्या वादात खरे कुणाचे होते, कुणास ठाऊक ? प्रत्येकाला आपलीच बाजू बरोबर आहे, खरी आहे, योग्य आहे असे वाटत होते. दुसरा आपल्या मालकीच्या जाग्यावर अतिक्रमण करतोय असे वाटत होते आणि तेच मत पुढच्या पिढीत संक्रमित होत होते.. अगदी वारसा हक्काने !

रोहिणी नक्षत्रात पाऊस चांगला झाला होता. भाताची खाचरे भरून गेली होती. विहिरीचे पाणी उपसून खाचरात आणण्याची आवश्यकता नव्हती.प्रत्येकाने निसर्गाच्या, पावसाच्या कृपेचा फायदा घेत, भाताची लावण अगदी वेळेवर केली होती. मृग सरला, आर्द्रा सरल्या पण पुनर्वसू नक्षत्र लागले तेच मुळात वेगळे वातावरण घेऊन. पावसाने संततधार धरली.वादळी वारे वाहू लागले.त्या वादळी वाऱ्याने कितीतरी मोठमोठाली झाडे उन्मळून धारातीर्थी पडली होती. पुनर्वसू नक्षत्रात असा पाऊस, असे वादळी वारे नसते असे म्हातारी माणसे म्हणत होती.पण निसर्गाला काय झाले होते काय की..?  तो जणू बेभान झाला होता, बेफाम झाला होता. ‘निसर्गाचा प्रकोप का काय म्हणतात, तोच झाला असावा. आपण काय करतोय याची त्याला जाणीवच नसावी.’ असे हे निसर्गाचे रूप पाहून सारे अवाक झाले होते, सारे भयभीत झाले होते, सगळेच हवालदिल झाले होते. गावात, परिसरात ,कितीतरी कुटुंबांच्या डोक्यावरचे छत वादळाने उडून जाऊन ती कुटुंबे उघड्यावर आली होती. कुणी देवळाचा आसरा घेतला होता कुणी शाळेचा.  निसर्गाचा हा कहर पाहून पक्क्या घरात राहणाऱ्यांच्या मनातही भीती जागली होती. ‘ ही अमावस्या पार पडेपर्यंत काही खरं नाही.. ‘ म्हातारी-कोतारी माणसे मनाशीच पुटपुटत होती.. एकमेकांशी बोलत होती,  कुटुंबातील सदस्यांना सांगत होती.

अमावस्येच्या दिवशी तर वादळ-वाऱ्याने, पावसाने कहरच मांडला होता. आठवडाभर लाईटही गेलेले होते. रात्र अगदी मुंगीच्या पावलाने सरकत होती. मध्यरात्र उलटून गेली असावी आणि कसल्याशा आवाजाने तात्यांना जाग आली. पुन्हा काहीतरी धाडs धाड ss असा कोसळल्यासारखा मोठा आवाज आला. तात्यांनी उशाची बॅटरी घेतली आणि घरातच सभोवतार फिरवली आणि ते उठले.  तात्यांची बायकोही आवाजाने दचकून भिऊन जागी झाली होती.

” कसला .. कसला आवाज झाला हो ?”

तिने घाबरूनच तात्यांना विचारले.

” काहीतरी पडल्यासारखा आवाज वाटतोय. पावसाने नीट ऐकू आला नाही पण काहीतरी पडले असणार.. तसा मोठा आवाज झाला. बघतो बाहेर जाऊन..”

” अहो, नको. नका जाऊ बाहेर..”

                                  क्रमशः...

© श्री आनंदहरी

इस्लामपूर जि. सांगली – मो  ८२७५१७८०९९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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