आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (41) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥41॥

होता सदा अधर्म से कुल स्त्रियों में दोष

दुष्टाओं में वर्ण संकरों से बढता जन रोष।।41।।

भावार्थ :  हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥

By prevalence of impiety, O Krishna, the women of the family become corrupt and, women becoming corrupted, O Varsneya (descendant of Vrishni), there arises intermingling of castes. ॥41॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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मराठी साहित्य – कविता * मराठी दिवस व कुसुमाग्रजांच्या जन्मदिवसा निमित्त * हायकू * सुश्री स्वप्ना अमृतकर

मराठी दिवस व कुसुमाग्रजांच्या जन्मदिवसा निमित्त
हायकू : सुश्री स्वप्ना अमृतकर
जन्मदिवस
वर्षाव सदिच्छांचा
क्षण मोलाचा           १,
कुसुमाग्रज
दिव्य मराठी कवी
तेजाळ रवी             २,
थोर तो दिवा
अंधारात विझला
वाटतो हेवा            ३,
माय मराठी
उमेद लेखणीला
देऊनी गेला            ४,
मराठी दिनी
देव्हांर्‍र्रा शारदेचा
शब्दपंक्तिचा            ५….
© स्वप्ना अमृतकर (पुणे)
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हिन्दी साहित्य – आलेख – * मीठे जल का झरना है लघुकथा * – श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता

मीठे जल का झरना है लघुकथा 

(श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ.भावना शुक्ल की वार्ता  के अंश)

वरिष्ठ साहित्यकार ,लघु कथा के क्षेत्र में नवीन आयाम स्थापित करने वाले, लघुकथा के अतिरिक्त कहानियां, बाल साहित्य, लेख, आलोचना तथा अनुवाद के क्षेत्र में अपनी कलम चलाने वाले, संपादन के क्षेत्र में सिद्धहस्त, जनगाथा, लघुकथा वार्ता ब्लॉग पत्रिका के माध्यम से संपादन करने वाले, अनेक सम्मानों से सम्मानित, बलराम अग्रवाल जी सौम्य और सहज व्यक्तित्व के धनी हैं. श्री बलराम जी से लघुकथा के सन्दर्भ में जानने की जिज्ञासा रही इसी सन्दर्भ में श्री बलराम अग्रवाल जी से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश ……

भावना शुक्ल : आपके मन में लघुकथा लिखने के अंकुर कैसे फूटे? क्या घर का वातावरण साहित्यिक था?

बलराम अग्रवाल : नही; घर का वातावरण साहित्यिक नहीं था, धार्मिक था। परिवार के पास सिर्फ मकान अपना था। उसके अलावा न अपनी कोई दुकान थी, न खेत, न चौपाया, न नौकरी। पूँजी भी नहीं थी। रोजाना कमाना और खाना। इस हालत ने गरीबी को जैसे स्थायी-भाव बना दिया था। उसके चलते घर में अखबार मँगाने को जरूरत की चीज नहीं, बड़े लोगों का शौक माना जाता था। नौवीं कक्षा में मेरे आने तक मिट्टी के तेल की डिबिया ही घर में उजाला करती रही। बिजली के बल्ब ने 1967 में हमारा घर देखा। ऐसा नहीं था कि अखबार पढ़ने की फुरसत किसी को न रही हो। सुबह-शाम दो-दो, तीन-तीन घंटे रामचरितमानस और गीता का पाठ करने का समय भी पिताजी निकाला ही करते थे। बाबा को आल्हा, स्वांग आदि की किताबें पढ़ने का शौक था। किस्सा तोता मैना, किस्सा सरवर नीर, किस्सा… किस्सा… लोकगाथाओं की कितनी ही किताबें उनके खजाने में थीं, जो 1965-66 में उनके निधन के बाद चोरी-चोरी मैंने ही पढ़ीं। पिताजी गीताप्रेस गोरखपुर से छ्पी किताबों को ही पढ़ने लायक मानते थे। छोटे चाचा जी पढ़ने के लिए पुरानी पत्रिकाएँ अपने किसी न किसी दोस्त के यहाँ से रद्दी के भाव तुलवा लाते थे। वे उन्हें पढ़ते भी थे और अच्छी रचनाओं/वाक्यों को अपनी डायरी में नोट भी करते थे। उनकी बदौलत ही मुझे साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सरिता, मुक्ता, नवनीत, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के बहुत-से अंकों को पढ़ने का सौभाग्य बचपन में मिला।

लघुकथा को अंकुरित करने का श्रेय 1972 के दौर में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका ‘कात्यायनी’ को जाता है। उसमें छपी लघु आकारीय कथाओं को पढ़कर मैं पहली बार ‘लघुकथा’ शब्द से परिचित हुआ। उन लघु आकारीय कथाओं ने मुझमें रोमांच का संचार किया और यह विश्वास जगाया कि भविष्य में कहानी या कविता की बजाय मैं लघुकथा लेखन पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता हूँ। ‘कात्यायनी’ के ही जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा ‘लौकी की बेल’ छपी।

भावना शुक्ल : लघुकथा लिखने का मानदंड क्या है?

बलराम अग्रवाल : अनेक विद्वानों ने लघुकथा लिखने के अनेक मानदंड स्थापित किये हैं। उदाहरण के लिए, कुछेक ने लघुकथा की शब्द-सीमा निर्धारित कर दी है तो कुछेक ने आकार सीमा। हमने मानदंड निर्धारित करने में विश्वास नहीं किया; बल्कि लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिख डालने और कुछ भी छाप देने वालों के लिए कुछ अनुशासन सुझाने की जरूरत अवश्य महसूस की।  ‘मानदंड’ शब्द से जिद की गंध आती है, तानाशाही रवैये का भास होता है; ‘अनुशासन’ समय के अनुरूप बदले जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कि हमने अनुशासित रहते हुए, लघुकथा लेखन को कड़े शास्त्रीय नियमों से मुक्त रखने की पैरवी की है।

भावना शुक्ल : आपकी दृष्टि में लघुकथा की परिभाषा क्या होनी चाहिए ?

बलराम अग्रवाल : लघुकथा मानव-मूल्यों के संरक्षण, संवर्द्धन है, न ही गणित जैसा निर्धारित सूत्रपरक विषय है। इसका सम्बन्ध मनुष्य की सांवेदनिक स्थितियों से है, जो पल-पल बदलती रह सकती हैं, बदलती रहती हैं। किसी लघुकथा के रूप, स्वरूप, आकार, प्रकृति और प्रभाव के बारे में जो जो आकलन, जो निर्धारण होता है, जरूरी नहीं कि वही निर्धारण दूसरी लघुकथा पर भी ज्यों का त्यों खरा उतर जाए। इसलिए इसकी कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, हो भी नहीं सकती। अपने समय के सरोकारों से जुड़े विषय और प्रस्तुति वैभिन्न्य ही लघुकथा के सौंदर्य और साहित्य में इसकी उपयोगिता को तय करते हैं। इसलिए जाहिर है कि परिभाषाएँ भी तदनुरूप बदल जाती हैं।

भावना शुक्ल : लघुकथा ‘गागर में सागर’ को चरितार्थ करती है; आपका दृष्टिकोण क्या है ?

बलराम अग्रवाल : भावना जी, ‘गागर में सागर’ जैसी बहुत-सी पूर्व-प्रचलित धारणाएँ और मुहावरे रोमांचित ही अधिक करते हैं; सोचने, तर्क करने का मौका वे नहीं देते। ‘गागर में सागर’ समा जाए यानी बहुत कम जगह में कथाकार बहुत बड़ी बात कह जाए, इस अच्छी कारीगरी के लिए उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए; लेकिन सागर के जल की उपयोगिता कितनी है, कभी सोचा है? लगभग शून्य। गागर में भरे सागर के जल से न किसी की प्यास बुझ सकती है, न घाव ही धुल सकता है और न अन्य कोई कार्य सध सकता है। ‘लघुकथा’ ठहरा हुआ खारा पानी तो कतई नहीं है। वह अक्षय स्रोत से निकला मीठे जल का झरना है; नदी के रूप में जिसका विस्तार सागर पर्यंत है। इसलिए समकालीन लघुकथा के संदर्भ में, ‘गागर में सागर’ के औचित्य पर, हमारे विद्वानों को पुनर्विचार करना चाहिए। छठी, सातवीं, आठवीं कक्षा के निबंधों में रटा दी गयी उपमाओं से मुक्त होकर हमें नयी उपमाएँ तलाश करनी चाहिए।

भावना शुक्ल : आपके दृष्टिकोण से लघुकथा और कहानी में आप किसे श्रेष्ठ मानते हैं; और क्यों?

बलराम अग्रवाल : ‘श्रेष्ठ’ मानने, ‘श्रेष्ठ’ बनाने और तय करने की स्पर्द्धा मनुष्य समाज की सबसे घटिया और घातक वृत्ति है। प्रकृति में अनगिनत किस्म के पेड़ झूमते हैं, अनेक किस्म के फूल खिलते हैं, अनेक किस्म के पंछी उड़ते-चहचहाते हैं। सबका अपना स्वतंत्र सौंदर्य है। वे जैसे भी हैं, स्वतंत्र हैं। सबके अपने-अपने रूप, रस, गंध हैं। सब के सब परस्पर श्रेष्ठ होने की स्पर्द्धा से सर्वथा मुक्त हैं। लघुकथा और कहानी भी कथा-साहित्य की दो स्वतंत्र विधाएँ हैं जिनका अपना-अपना स्वतंत्र सौंदर्य है, अपनी-अपनी स्वतंत्र श्रेष्ठता है। नवांकुरों की जिज्ञासाएँ अल्प शिक्षितों जैसी हो सकती हैं। इन्हें स्पर्द्धा में खड़ा करने की आदत से कम से कम प्रबुद्ध साहित्यिकों को तो अवश्य ही बाज आना चाहिए।

भावना शुक्ल : आप हिंदी में लघुकथा का प्रारंभ कब से मानते हैं और आपकी दृष्टि में पहला लघुकथाकार कौन हैं ?

बलराम अग्रवाल : हिंदी में लघुकथा लेखन कब से शुरू हुआ, यह अभी भी शोध का ही विषय अधिक है। मेरे पिछले लेखों और वक्तव्यों में, सन् 1876 से 1880 के बीच प्रकाशित पुस्तिका ‘परिहासिनी’ के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम का उल्लेख पहले लघुकथाकार के तौर पर हुआ है। इधर, कुछ और भी रचनाएँ देखने में आयी हैं। मसलन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में पहले हिंदी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ से एक ऐसी कथा-रचना उद्धृत की है, जो अपने समय की अभिजात्य क्रूरता को पूरी शिद्दत से पेश करती है। यह रचना लघुकथा के प्रचलित मानदंडों पर लगभग खरी उतरती है। मैं समझता हूँ कि जब तक आगामी शोधों में स्थिति स्पष्ट न हो जाए, तब तक इस रचना को भी हिंदी लघुकथा की शुरुआती लघुकथाओं में गिनने की पैरवी की जा सकती है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ की अधिकांश रचनाओं के स्वामी, संपादक और लेखक जुगुल किशोर शुक्ल जी ही थे—अगर यह सिद्ध हो जाता है तो, पहला हिन्दी लघुकथाकार भी उन्हें ही माना जा सकता है।

भावना शुक्ल : आप लघुकथा का क्या भविष्य देखते हैं?

बलराम अग्रवाल : किसी भी रचना-विधा का भविष्य उसके वर्तमान स्वरूप में निहित होता है। लघुकथा के वर्तमान सर्जक अपने समय की अच्छी-बुरी अनुभूतियों को शब्द देने के प्रति जितने सजग, साहसी, निष्कपट, निष्पक्ष, ईमानदार होंगे, उतना ही लघुकथा का भविष्य सुन्दर, सुरक्षित और समाजोपयोगी सिद्ध होगा।

भावना शुक्ल : लघुकथा के प्रारंभिक दौर के 5 और वर्तमान दौर के 5 उन लघुकथाकारों के नाम दीजिए जो आपकी पसंद के हो ?

बलराम अग्रवाल : यह एक मुश्किल सवाल है। सीधे तौर पर नामों को गिनाया जा सकना मुझ जैसे डरपोक के लिए सम्भव नहीं है।  हिन्दी में प्रारम्भिक दौर की जो सक्षम लघुकथाएँ हैं, उनमें भारतेंदु की रचनाएँ चुटकुलों आदि के बीच से और प्रेमचंद तथा प्रसाद की रचनाएँ उनकी कहानियों के बीच से छाँट ली गयी हैं। 1916 में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ भी अपनी अन्त:प्रकृति में छोटे आकार की कहानी ही है। उसके लघु आकार से असन्तुष्ट होकर बाद में बख्शी जी ने उसे 4-5 पृष्ठों तक फैलाया और ‘झलमला’ नाम से ही कहानी संग्रह का प्रकाशन कराया।  उसी दौर के कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर आदि जिन अन्य कथाकारों के लघुकथा संग्रह सामने आते हैं, उनमें स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष की आग ‘न’ के बराबर है, लगभग नहीं ही है। किसी रचना में कोई सन्दर्भ अगर है भी, तो वह संस्मराणात्मक रेखाचित्र जैसा है, जिसे ‘लघुकथा’ के नाम पर घसीटा भर जा रहा है। कम से कम मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय रहा है कि स्वाधीनता संघर्ष के उन सघन दिनों में भी, जब पूरा देश ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ का नारा लगा रहा था, हमारे लघुकथाकारों ने जुझारुता और संघर्ष से भरी लघुकथाएँ क्यों नहीं दीं। वे ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ ही क्यों बघारते-सिखाते रहे?… और मेरी समझ में इसके दो कारण आते हैं—पहला, सामान्य जीवन में गांधी जी की बुद्ध-आधारित अहिंसा का प्रभाव; और दूसरा, दार्शनिक भावभूमि पर खड़ी खलील जिब्रान की लघुकथाओं का प्रभाव।

लेकिन, ‘नैतिकता’, ‘बोध’ और ‘आत्म दर्शन’ के कथ्यों की अधिकता के बावजूद सामाजिकता के एक सिरे पर विष्णु प्रभाकर अपनी जगह बनाते हैं। वे परम्परागत और प्रगतिशील सोच को साथ लेकर चलते हैं। 1947-48 में लेखन में उतरे हरिशंकर परसाई अपने समकालीनों में सबसे अलग ठहरते हैं। उनमें संघर्ष के बीज भी नजर आते हैं और हथियार भी।

अपने समकालीन लघुकथाकारों के बारे में, मेरा मानना है कि हमारी पीढ़ी के कुछ गम्भीर कथाकारों ने लघुकथा को एक सार्थक साहित्यिक दिशा देने की ईमानदार कोशिश की है। लेकिन, उन्होंने अभी कच्चा फर्श ही तैयार किया है, टाइल्स बिछाकर इसे खूबसूरती और मजबूती देने के लिए आगामी पीढ़ी को सामने आना है। लघुकथा में, हमारी पीढ़ी के अनेक लोग गुणात्मक लेखन की बजाय संख्यात्मक लेखन पर जोर देते रहे हैं। लघुकथा संग्रहों और संपादित संकलनों/पत्रिकाओं का, समझ लीजिए कि भूसे का, ढेर लगाते रहे हैं। वे सोच ही नहीं पाये कि भूसे के ढेर से सुई तलाश करने का शौकीन पाठक गुलशन नन्दा और वेद प्रकाश काम्बोज को पढ़ता है। साहित्य के पाठक को सुई के लिए भूसे का ढेर नहीं, सुई का ही पैकेट चाहिए। भूसे का ढेर पाठक को परोसने की लेखकीय वृत्ति ने लघुकथा की विधापरक स्वीकार्यता को ठेस पहुँचायी है, उसे दशकों पीछे ठेला है। जिस कच्चे फर्श को तैयार करने की बात मैं पहले कह चुका हूँ, उसमें अपेक्षा से अधिक समय लगा है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बाजारवादी सोच में फँसे नयी पीढ़ी के भी अनेक लेखक ‘संख्यात्मक’ वृद्धि के उनके फार्मूले का अनुसरण कर विधा का अहित कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में… और शायद अनेक प्रबुद्धों की दृष्टि में भी, वास्तविकता यह है कि लघुकथा का विधिवत् अवतरण इन हवाबाजों की वजह से अभी भी प्रतिक्षित है।

भावना शुक्ल : खलील जिब्रान के व्यक्तित्व से आप काफी प्रभावित हैं, क्यों ?

बलराम अग्रवाल : खलील जिब्रान को जब पहली बार पढ़ा, तो लगा—यह आदमी उपदेश नहीं दे रहा, चिंगारी लगा रहा है, मशाल तैयार कर रहा है। कहानियों के अलावा, उन्होंने अधिकतर कथात्मक गद्य कविताएँ लिखी हैं जो हिन्दी में अनुवाद के बाद गद्यकथा बनकर सामने आई हैं, लेकिन उनमें भाषा प्रवाह और सम्प्रेषण काव्य का ही है। खलील जिब्रान के कथ्य, शिल्प और शैली सब की सब प्रभावित करती हैं। उनके कथ्यों में मौलिकता, प्रगतिशीलता और मुक्ति की आकांक्षा है। वे मनुष्य की उन वृत्तियों पर चोट करते हैं जो उसे ‘दास’ और ‘निरीह’ बनाये रखने के लिए जिम्मेदार हैं। वे सामन्ती और पूँजीवादी मानसिकता को ही बेनकाब नहीं करते, बौद्धिकता और दार्शनिकता के मुखौटों को भी नोंचते हैं। उनकी खूबी यह है कि वे ‘विचार’ को दार्शनिक मुद्रा में शुष्क ढंग से पेश करने की बजाय, संवाद के रूप में कथात्मक सौंदर्य प्रदान करने की पहल करते हैं, शुष्कता को रसदार बनाते हैं। उदाहरण के लिए, उनकी यह रचना देखिए—

वह मुझसे बोले–“किसी गुलाम को सोते देखो, तो जगाओ मत। हो सकता है कि वह आजादी का सपना देख रहा हो।”

“अगर किसी गुलाम को सोते देखो, तो उसे जगाओ और आजादी के बारे में उसे बताओ।” मैंने कहा।

भावना शुक्ल : आपने फिल्म में भी संवाद लिखे हैं। ‘कोख’ फिल्म के बाद किसी और फिल्म में भी संवाद लिखे हैं ?

बलराम अग्रवाल : वह मित्रता का आग्रह था। स्वयं उस ओर जाने की कभी कोशिश नहीं की।

भावना शुक्ल : आज के नवयुवा लघुकथाकारों को कोई सुझाव दीजिये जिससे उनका लेखन और पुष्ट हो सके ?

बलराम अग्रवाल : सबसे पहले तो यह कि वे अपने लेखन की विधा और दिशा निश्चित करें। दूसरे, सम्बन्धित विषय का पहले अध्ययन करें, उस पर मनन करे; जो भी लिखना है, उसके बाद लिखें।

भावना शुक्ला : चलते-चलते, एक लघुकथा की ख्वाहिश पूरी कीजिये जिससे आपकी बेहतरीन लघुकथा से हम सब लाभान्वित हो सकें ………

बलराम अग्रवाल : लघुकथा में अपनी बात को मैं प्रतीक, बिम्ब और कभी-कभी रूपक का प्रयोग करते हुए कहने का पक्षधर हूँ। ऐसी ही लघुकथाओं में से एक… ‘समन्दर:एक प्रेमकथा’ यहाँ पेश है :

समन्दर:एक प्रेमकथा

“उधर से तेरे दादा निकलते थे और इधर से मैं…”

दादी ने सुनाना शुरू किया। किशोर पौत्री आँखें फाड़कर उनकी ओर देखती रही—एकदम निश्चल; गोया कहानी सुनने की बजाय कोई फिल्म देख रही हो।

“लम्बे कदम बढ़ाते, करीब-करीब भागते-से, हम एक-दूसरे की ओर बढ़ते… बड़ा रोमांच होता था।”

यों कहकर एक पल को वह चुप हो गयीं और आँखें बंद करके बैठ गयीं।

बच्ची ने पूछा—“फिर?”

“फिर क्या! बीच में समन्दर होता था—गहरा और काला…!”

“समन्दर!”

“हाँ… दिल ठाठें मारता था न, उसी को कह रही हूँ।”

“दिल था, तो गहरा और काला क्यों?”

“चोर रहता था न दिल में… घरवालों से छिपकर निकलते थे!”

“ओ…ऽ… आप भी?”

“…और तेरे दादा भी।”

“फिर?”

“फिर, इधर से मैं समन्दर को पीना शुरू करती थी, उधर से तेरे दादा…! सारा समन्दर सोख जाते थे हम और एक जगह जा मिलते थे।”

“सारा समन्दर!! कैसे?”

“कैसे क्या…ऽ… जवान थे भई, एक क्या सात समंदर पी सकते थे!”

“मतलब क्या हुआ इसका?”

“हर बात मैं ही बतलाऊँ! तुम भी तो दिमाग के घोड़ों को दौड़ाओ कुछ।” दादी ने हल्की-सी चपत उसके सिर पर लगाई और हँस दी।

© डॉ.भावना शुक्ल

wz 21 हरी सिंह पार्क, मुल्तान नगर,  110056 मो 9278720311, ईमेल [email protected]

सम्पर्क :  श्री बलराम अग्रवाल, एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 / मो 8826499115

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥40॥

कुल विनाश से सहज है कुल धर्मो का नाश

धर्म नष्ट होता तो फिर सहज अधर्म विकास।।40।।

भावार्थ :  कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है ॥40॥

 

In the destruction of a family, the immemorial religious rites of that family perish; on the destruction of spirituality, impiety overcomes the whole family. ॥40॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * निसर्गायन * – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

निसर्गायन 

(प्रस्तुत है  सुश्री ज्योति  हसबनीस जी  का प्रकृति पर  एक अतिसुन्दर आलेख।)

पाऊस पडून आकाश अगदी मोकळं झालेलं! स्वच्छ निळाईचं छत माथ्यावर, आजूबाजूला तृप्त हिरवाई, आणि संगतीला पाखरांची किलबिल! प्रसन्न सकाळ आणि तृप्त भंवतालाचा नजरेने आस्वाद घेत पावलं झपझप पडत होती.

साऱ्या बहराची भरभरून वाहणारी ओंजळ अनंत हस्ते रिती करून अतीव समाधानात अनंत उभा होता. बकुळ मात्र एखाद्या सम्राज्ञीच्या थाटात आपल्या ऐश्वर्याची मुक्त हस्ते उधळण करीत होती . कदंब दिवास्वप्न बघण्यात गढल्यासारखा भासत होता. आवडत्या झाडांवर मायेने नजर फिरवतांना कोण सुख होत होतं ! आणि तेवढ्यात चिरपरिचित ‘चीची’ जरा कर्कश्श आवाज कानी पडला ! नजर त्या दिशेने वळतेय तेवढ्यात झाडाच्या फांदीवरून ग्रे हाॅर्न बिल्सची जोडी मोठ्या डौलात आकाशात झेपावली ! निमिषार्धात दुसऱ्याही जोडीने त्यांच्या मागोमाग आकाशात झेप घेतली !

क्षणभर विश्वासच बसेना ! काय सुंदर दृष्य होतं ते ! मुक्त आकाशात आपल्या जोडीदाराबरोबरचा मुक्त विहार …! साथसंगत …जिवलगाची ..किती हवीहवीशी ! त्याच्या साथीने गगनभरारी घेण्यासाठी पंखात संचारणारं  बळ…त्याच्या संगतीने सारे ऋतू अंगावर घेण्याचं सामर्थ्य …बरोबरीने नवनव्या अवकाशाला घातली जाणारी गवसणी …! सहजीवनाचं सारच ती पक्ष्यांची जोडी नकळत सांगून गेली.

खरंच निसर्ग सा-या चरांचरांतूनच काही तरी सतत सांगत असतो, आपल्याशी संवाद साधत असतो ! निसर्गाची शिकवण ही अव्याहत सुरूच असते, उन्हाचे चटके सोसत तीव्र जीवनेच्छेने ग्रीष्मात तग धरून राहिलेली झाडं असू दे, की उन्हाचा चटका कमी करणारा, सुखवणारा मोगरा असू दे, की उन्हाच्या तडाख्यातही अंगांगी फुलणारा आणि सगळ्यांना खुलवणारा पळस, बोगन, गुलमोहोर असू दे, की पावसाच्या एका सरीतच उमलून आलेली लीली असू दे, की हातचं काहीही न राखता मुक्त हस्ते भरभरून देणारं झाड असू दे, किती आणि काय काय !!जगण्याची असोशी, जगण्याचं सार, जगण्याची कला सारं ह्या पठ्ठ्याला अगदी आत्मसात झालेलं !

मनोमन निसर्गाला मुजरा करत,  मनावर कोरल्या गेलेल्या दृष्याची उजळणी करत एका वेगळ्याच तृप्तीत पावलं घराकडे वळत होती !

© ज्योति हसबनीस, नागपूर

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हिन्दी साहित्य – आलेख – * परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई * –श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

हिन्दी आलेख – परिवर्तनकामी थे: हरिशंकर परसाई

(प्रस्तुत है श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी का स्व. हरीशंकर परसाईं  जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक खोजपरख आलेख।)
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 
‘बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही’ कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह की उपरोक्त पंक्तियां हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर बिल्कुल सटीक बैठती हैं । हरिशंकर परसाई अगर चौदहवीं शताब्दी में पैदा होते तो कबीर होते और कबीर यदि बीसवीं शताब्दी में पैदा होते तो हरिशंकर परसाई होते । आजादी के पहले के भारत को जानना हो तो प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए और आजादी के बाद के भारत को जानना हो तो हमें परसाई को पढ़ना होगा । इन मशहूर कथनों से हमें पता चलता है कि परसाई किस परंपरा में आते हैं ?
हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1922 को होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ इनके पिता का नाम श्री झूमक लाल परसाई था। माता का नाम श्रीमती चंपाबाई था । पांच भाई बहनों में परसाई जी सबसे बड़े थे ।उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव की प्रायमरी शाला में हुई और मिडिल एवं हाई स्कूल की पढ़ाई टिमरनी हाई स्कूल में  ।1940 में मैट्रिक परीक्षा पास कर कुछ दिन वन विभाग में नौकरी की जहां से जबलपुर आ गये और जुलाई 1943 में मॉडल हाई स्कूल जबलपुर में शिक्षक हो गये । होशंगाबाद से लेकर जबलपुर तक नर्मदा उनके साथ रहीं । ‘नर्मदा तीरे’ नामक कालम में से ही उनका लेखन प्रारंभ हुआ ।  सुदीप बनर्जी की कविता की पंक्ति है -मैं जहां जहां गया, नदियां मेरे बहुत काम आईं । यही हाल परसाई जी का था । नर्मदा को कुंवारी नदी कहा जाता है परसाई जी भी आजीवन कुंवारे रहे ।
आजादी से मोह भंग की प्रक्रिया हिंदी के रचनाकारों को छठे दशक में शुरू हुई जबकि परसाई जी का मोहभंग आज़ादी के 3 माह बाद ही हो गया था इसी से हम उनकी पैनी दृष्टि का अंदाजा लगा सकते हैं उनकी पहली रचना प्रहरी में 23 नवंबर 1947 को ‘पैसे का खेल ‘शीर्षक से प्रकाशित हुई ।आजाद भारत में जो  पैसे का खेल शुरू हुआ उसे उन्होंने देख लिया था । प्रेमचंद जी ने ‘महाजनी सभ्यता’ लिखी बहुत बाद में किंतु महाजनी सभ्यता के विस्तार से परसाई लिखना प्रारंभ करते हैं ।
आजादी के बाद पनपते पाखंड, अनीति, अनाचार, अत्याचार, शोषण, संप्रदायवाद एवं साम्राज्यवाद के ख़तरों से परसाई जी आजीवन  लड़ते रहे तथा देशवासियों को सतर्क करते रहे । मुक्तिबोध जैसे युग प्रवर्तक कवि से उनकी मित्रता उनके जीवनकाल की अमूल्य निधि थी । खतरा उठा कर भी अभिव्यक्ति देने का संस्कार उन्होंने कबीर और मुक्ति बोध से पाया । मुक्तिबोध के अलावा ग़ालिब ,निराला एवं फ़ैज़ को अत्यधिक पसंद करते थे ।
परसाई जी व्यंग को विधा नहीं मानते थे उनके लेखन को किस खाने में रखा जाए यह बात हमेशा समीक्षकों के लिए समस्या रही है ।इसी तरफ इशारा करते हुये उन्होंने लिखा था- ‘मैं लेखक छोटा हूँ किन्तु संकट बड़ा  हूँ ‘। ‘मैं ‘ को आधार बनाकर जिस तरह उन्होंने अपने ऊपर निर्मम प्रहार किए हैं वैसा साहित्य में दुर्लभ है ।जो व्यंग्य लेखक अपनी आलोचना नहीं कर सकता सिर्फ दूसरों की आलोचना करता है उन पर व्यंग करता है वह सफल व्यंग्यकार नहीं हो सकता । परसाई की रचनाओं में गंभीर चिंतन है । रचना पूरी तरह व्यंग्य  के माहौल में डूबी रहती है पर दैनिक जीवन की वास्तविकतायें  हमारे सामने आती रहती हैं । उदाहरणत: एक स्थान पर भी लिखते हैं –‘हमारे जीवन में नारी को जो मुक्ति मिली है क्यों मिली है ।कैसे मिली आंदोलन से ,आधुनिक दृष्टि से ,उसके व्यक्तित्व की स्वीकृति से -नहीं उसकी मुक्ति का कारण महंगाई है। नारी मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा एक कमाई से पूरा नहीं पड़ता ।’
अपनी खुद की मुफलिसी पर उन्होंने बहुत लिखा है:- ‘वे नेता पर गर्व करते हैं ‘दुख का ताज में लिखते हैं-‘ जिसके पास कुछ नहीं होता, अनंत दुख होता है वह धीरे धीरे शहादत के गर्व के साथ कष्ट भोगता है ।जीने के लिए आधार चाहिए और तब अभाव में यह दुख ही जीवन का आधार हो जाता है ।’
बाबा नागार्जुन ने वाणी ने पाये प्राणदान नामक कविता में उनके व्यंग्य बाणों के बारे में लिखा है –
छूटने लगे अविरल गति से
जब परसाई के व्यंग बाण
सरपट भागे तब धर्मध्वजी
दुष्टों के कम्पित हुए प्राण ।
आईये उनके कुछ व्यंग्य बाणों को भी देख लें—
इज्ज़तदार ऊंची झाड़ की ऊंची टहनी पर दूसरों के बनाए घोसले में अंडे देता है।
दानशीलता, सीधापन, भोलापन असल में इस तरह का इन्वेस्टमेंट है।
सड़ा विद्रोह एक रुपए में चार आने किलो के हिसाब से बिक जाता है ।
धर्म धंधे से जुड़ जाए इसी को योग कहते हैं। अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चाहे बैठता है तब गौ रक्षा आंदोलन के नेता पंडित जूतों की दुकान खोल लेते हैं।
परसाई जी जन जीवन से  जुड़े रचनाकार थे । मेरे समकालीन शीर्षक से लिखते हुए साहित्यकार अपने समय के साहित्यकारों पर लिखते हैं किंतु परसाई ने रिक्शा वाले, पान वाले, चाय वाले को समकालीन लिखा । हजारों हजार छात्रों और नौजवानों ने उनके लेखक एवं सानिध्य से प्रेरणा ली उनके ऊपर जब किसी संस्था वालों ने हमला किया तो बरसते पानी में जबलपुर के 5000 मजदूरों ने जुलूस निकाला और उनके निवास पर उनके प्रति समर्थन व्यक्त करने गए। ऐसी घटना दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र हुई हो ।
उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ मध्य प्रदेश में अग्रणी बनाए रखा और ‘वसुधा’ जैसी पत्रिका का संपादन किया । आवश्यक लिखना, निरंतर लिखना परसाई जी से सीखने की चीज़ है । वे ऐसी विचारधारा को जरूरी मानते हैं  जिसमें जीवन का ठीक विश्लेषण हो सके और निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। इसके बिना लेखक गलत निष्कर्ष का शिकार हो जाता है । वे मानते हैं ,प्रतिबद्धता एक गहरी चीज है जो इस बात से तय होती है इस समाज में जो द्वंद है उनमें लेखक किस तरफ खड़ा है? पीड़ितों के साथ या पीड़कों के साथ । वे मानते हैं जीवन जैसा है उसे बेहतर होना चाहिए ।जो गलत मूल्य हैं उन्हें नष्ट होना चाहिए क्योंकि साहित्य के मूल्य जीवन मूल्यों से बनते हैं ।निश्चित है परसाई के व्यंग शिष्टता का संबंध उच्च वर्गीय मनोरंजन से ना होकर समाज में सर्वहारा की लड़ाई से अधिक है जो आगे जाकर मनुष्य की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है ।वे प्रगतिकामी होने के साथ-साथ मानवता के लिए समर्पित रहे।
© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार 
– साभार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी , जबलपुर 
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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (38-39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।

कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌।।38।।

 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌।

कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।39।।

 

लोभ भरी हुई दृष्टि से हो ये अंधे आप

इन्हें न दिखता ,मित्र वद्य कुल विनाश में पाप।।38।।

 

कुल विनाश के दोष का लखकर फिर सरकार

पाप से बचने के लिये क्यों न करें उपचार।।39।।

 

भावार्थ :  यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

 

Though they, with intelligence overpowered by greed, see no evil in the destruction offamilies, and no sin in hostility to friends. Why should not we, who clearly see evil in the destruction of a family, learn to turn away from this sin, O Janardana (Krishna)? ॥38-39॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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मराठी साहित्य – मराठी आलेख – * भारत स्वतंत्र आहे का? * – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

भारत स्वतंत्र आहे का ?

(कविराज विजय यशवंत सातपुते का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। पढ़िये श्री सातपुते जी का एक विचारणीय आलेख) 

भारत स्वतंत्र  आहे का? या प्रश्नाचे उत्तर जरी  ‘होय, आहे, असे  असले तरी, तरी हा प्रश्न लोकसत्ताक राज्यातील प्रत्येक सदस्याला विचार करायला लावणारा आहे.  लोकप्रतिनीधी निवडून स्थापन झालेली लोकशाही राजवट,  अजूनही सर्व सामान्य जनतेच्या मुलभूत गरजांचे निवारण करू शकलेली नाही.

विकसनशील देशात  आपल्या देशाचा डांगोरा पिटताना,  गरीब, श्रीमंत यांच्या मधील दरीत विषमतेच्या,  असंतोषाच्या,  भ्रष्टाचाराच्या, विळख्यात सर्व सामान्य माणूस  खितपत पडला आहे हे विसरून चालणार नाही.  हातावरच पोट  असणारी लाखो, करोडो बेरोजगार जनता  आज  उदरभरणासाठी गुन्हेगारी प्रवृत्ती कडे वळत आहे.  अन्न,  वस्त्र, निवारा यांची भ्रांत  असलेला माणूस पैशासाठी वाट्टेल ते करायला तयार आहे. गुन्हेगारी ही पहिली पायरी आहे. . . पण पैशाची चटक लागलेले पैशाचा गुलाम बनले आहेत.

भारता सारख्या कृषी प्रधान देशात, कर्जबाजारी, शेतमालाला रास्त दर न मिळाल्याने शेतीमालाचे होणारे नुकसान, पतसंस्थाची ,  भूविकास बॅकांची दिवाळखोरी, बेरोजगारी, वाढती लोकसंख्या,  शिक्षण श्रेत्रातील डोनेशन गीरी या सर्व समस्या सामान्य नागरीकाला अडचणीत  आणत आहेत.  सरकारी मदतीचा एक रूपया ,  लाभार्थी पर्यंत पोहोचताना,  सरकारी दरबारी त्याच्या तिप्पट खर्च दाखवला जातो.  ईमानदारी शब्दाचा वापर काचेवर लावलेल्या पार्यासारखा केला जात आहे.  प्रत्येकाच्या नजरेतून हे भीषण वास्तव समोर येत आहे.

मित्र हो,  या विदारक वास्तवतेचा उहापोह करण्याचे कारण इतकेच की  आपला देश ही आर्थिक, मानसिक, सामाजिक गुलामगिरी सहन करीत येईल त्या परिस्थितीतून मार्ग काढीत आहे. ही सहनशीलता त्याला स्वाभिमान विकायला भाग पाडते आहे. आणि जिथे स्वाभिमान विकला जातो तिथे माणूस माणसाला बळीचा बकरा बनवू पहातो. राजकारणी व्यक्ती मनुष्य बळाचा वापर करून सत्ता काबीज करते व त्याच सत्तेचा वापर करून, ‘रंकाला राव  आणि रावाला रंक करते’.

ही  गुलामगिरी, बळी तो कान पिळी, दाम करी काम  ही विचारसरणी  आज  आमचे विकसनाचे हक्क, तंत्र,  हिरावून नेत  आहे. बोल्ड कवी,  म.  भा. चव्हाण म्हणतात,

” इथे कोण लेकाचा कुणाची देशसेवा पाहतो. 

  तू मला ओवाळ आता, मी तुला ओवाळतो.”

जर  असे  इथले वास्तव  असेल तर, स्वतंत्रता, स्वराज्य  या संकल्पनांना येथेच सुरूंग लागतो.  आज कौटुंबिक स्तरावर जर विचार करायला गेलो तर प्रत्येक जण स्वतःच्या कौटुंबिक समस्यामध्ये पुरता गुरफटून गेला आहे.  मुलभूत गरजा,  सोयीसुविधा  उपलब्ध  असणारा माणूसच देशाचा, समाजाचा विचार करू  शकतो.

शेतकरी कुणबी यांचीअवस्था अतिशय बिकट  आहे .  वावरात दिवसभर काबाड कष्ट करायचे, घाम गाळायचा आणि पिकलेल्या पिकाचा मोबदला, हमीभाव परस्पर सरकारने,दलालाने ठरवायचा. असे भीषण वास्तव आहे.  पण कुचकामी झालेली राजकीय किंवा सरकारी यंत्रणा यांना या वास्तवाचे  काहीच सोयर सुतक नाही . केवळ मतांचा बाजार मांडून सत्ता काबीज करणारी  ,लाचार  भ्रष्टाचारी लोकप्रतिनिधी  देशासाठी नाही तर स्वार्थासाठी  इथले मनुष्य बळ वेठीस धरतात  .

परिस्थितीने लादलेली गुलामगिरी,  आणि वैचारिकता स्वराज्य या संकल्पनेला दूर नेत  आहे.  आज भारतीय संविधानाने दिलेले स्वातंत्र्याचे सर्व  मूलभूत  हक्क,  अधिकार,  आरक्षणे सुरक्षित असताना नागरीक सुखी, समाधानी नाही हे स्वतंत्र भारताचे ‘वास्तव’ आहे.

इंग्रजांनी जेव्हा जेव्हा भारत देश ताब्यात घेतला तेव्हा, “फोडा , झोडा , दुही माजवा , एकी तोडा, आणि राज्य करा हे दबाव तंत्र होते. तेव्हा भारत देश संस्थानिकांच्या ताब्यात होता. . .  आणि  आता राजकारण्यांच्या ताब्यात  आहे.  शेतकरी शेतात राबला तरच या देशाची आर्थिक घडी सुरळीत होणार आहे.  अन्न, वस्त्र, निवारा, यातून निर्भर रहाणाराच स्वतंत्र भारतातील समृद्धीचा उपभोग घेऊ शकतो.  व्यक्ती, कुटुंब, समाज, देश, धर्म, जात पंथ,  भाषा,  आचार विचार, गरीब, श्रीमंत यामधील तफावत ‘स्वतंत्र भारत’

आहे का? या प्रश्नावर प्रत्येकास चिंताक्रांत करते म्हणून भारत स्वतंत्र  आहे का? या प्रश्नाचे उत्तर होय  असे जरी दिले तरी मग या देशाचे  आजचे चित्र  असे का? ही गुलामगिरी का? हे प्रश्न  उपस्थित होतात.

“भारत”, या  शब्दाचा  अर्थ  ‘भा -रत’ म्हणजे  प्रकाशात रत रममाण झालेला  असा सांगितला गेला आहे.  बुद्धी च्या  आणि सुर्याच्या प्रकाशात रममाण झालेला हा देश आजही ‘परिस्थितीचा गुलाम ‘ आहे हे वास्तव नाकारून चालणार नाही. कर्जबाजारी ठाळण्यासाठी होणाऱ्या शेतकऱ्यांच्या आत्महत्या ही वेठबिगारीची लक्षणे पांढर पेश्या वर्गालाही विचार करायला भाग पाडतात.

परदेशातून  उच्च शिक्षण घेणारा भारतीय नागरिक त्याचे ज्ञान,  कला,कौशल्य,  परकियांना विकतो. . . सुखासीन  आयुष्य जगण्यासाठी परदेशात स्थायिक होतो. म्हणजे खत, पाणी, वीज, कच्चा माल सारे देशी  आणि उत्पन्न मात्र परकीयांनी घ्यायचे. भारतीयांनी त्यांची बौद्धिकता भारत देशासाठी खर्च केली तर नक्कीच भारत देश पुन्हा एकदा सुजलाम सुफलाम होईल. भारतीय विकसित व्हायचा  असेल तर ही वास्तवाची गुलामगिरी नष्ट व्हायला हवी.  परदेशी गोष्टीच आकर्षण, हव्यास यांनी आणि इथली राजकीय परीस्थिती यामुळं  आपण स्वावलंबी नाही. आपले स्वातंत्र आज या  वास्तविकतेचे गुलाम बनले आहे. म्हणून म्हणावेसे वाटते,

“.. भारत माझा देश आहे,

सारे भारतीय माझे बांधव आहेत.

त्यांना परिस्थितीच्या गुलामगिरीतून

मुक्त करण्यासाठी साठी पुन्हा एकदा संघर्ष करीन. ”

हा जीवन संघर्ष जोवर चालू आहे तोवर खेदाने म्हणावे लागेल.

..”होय,  आजही भारत स्वतंत्र नाही. . . !”

जय हिंद. . . !

माझ्यातला माणसाला. . !

स्वतंत्र, स्वावलंबी,

समृद्ध  आणि सुखासीन

देशी  आयुष्य जगण्यासाठी. . . . !

वंदे मातरम. . . . !

 

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

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आध्यात्म / Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – प्रथम अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रथम अध्याय

अर्जुनविषादयोग

(मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता, स्नेह और शोकयुक्त वचन)

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌।

स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।।37।।

इन स्वजनों धृतराष्ट्रों का तो उचित नही वध तात

कैसे सुख दे पायेगा,अपनों का आघात।।37।।

भावार्थ :  अतएव हे माधव! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥

Therefore, we should not kill the sons of Dhritarashtra, our relatives; for, how can we be happy by killing our own people, O Madhava (Krishna)? ।।37।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – * शहादत * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

शहादत

(डा. मुक्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता ‘शहादत’)

 

आज मन बहुत हैरान-परेशान सा है

दिल में उठ रहा तूफ़ान-सा है

हर इंसान पशेमा-सा है

क्यों हमारे राजनेताओं का खून नहीं खौलता

पचास सैनिकों की शहादत को देख

उनका सीना फट क्यों नहीं जाता

 

कितने संवेदनहीन हो गए हैं हम

चार दिन तक शोक मनाते

कैंडल मार्च निकालते,रोष जताते

इसके बाद उसी जहान में लौट जाते

भुला देते सैनिकों की शहादत

राजनेता अपनी रोटियां सेकने में

मदमस्त हो जाते

सत्ता हथियाने के लिए

विभिन्न षड्यंत्रों में लिप्त

नए-नए हथकंडे अपनाते

 

काश हम समझ पाते

उन शहीदों के परिवारों की मर्मांतक पीड़ा

अंतहीन दर्द, एकांत की त्रासदी

जिसे झेलते-झेलते परिवार-जन टूट जाते

हम देख पाते उनके नेत्रों से बहते अजस्र आंसू

पापा की इंतज़ार में रोते-बिलखते बच्चे

दीवारों से सर टकराती पत्नी

आगामी आपदाओं से चिंतित माता-पिता

जिनके जीवन में छा गया है गहन अंधकार

जो काले नाग की भांति फन फैलाये

उनको डसने को हरदम तत्पर

 

दु:ख होता है यह देख कर

जब हमारे द्वारा चुने हुये नुमाइंदे

सत्ता पर काबिज़ रहने के लिए

नित नए हथकंडे अपनाते,

शवों को देख घड़ियाली आंसू बहाते,सहानुभूति जताते

सब्ज़बाग दिखलाते,बड़े-बड़े दावे करते

परंतु स्वार्थ साधने हित,पेंतरा बदल,घात लगाते

 

© डा. मुक्ता,

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत,drmukta51 @gmail.com

 

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