हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 90 – शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  शेर, बकरी और घास

☆ आलेख # 90 –  शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षक गण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टि प्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.

तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर  का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और  बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.

शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में

अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा. 

कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-६ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-६ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆

(मेघजल से सरोबार चेरापूंजी (सोहरा) और भी कुछ कुछ)

प्रिय पाठकगण,

आज भी फिरसे कुमनो! (मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कैसे हैं आप?)

डॉकी नदी पर बांग्ला देशवासी नौकाओंको, यानि मोटर बोटों को देखने के बावजूद मुझे हमारी चप्पा चप्पा चलने वाली नौका अधिक सुखकारक लगी! क्योंकि प्रकृति की हरीतिमा और नीलिमा को और गौर से देखने का और इस स्वर्गसुख को और अधिक क्षणों के लिए अनुभव करने का सौभाग्य मिला| मित्रों, आप भी नौका नयन करने का मौका मिले तो कभी कभी मोटर बोटों की स्पीड को नकारते हुए मन्द-मन्द, मद्धिम चाल से चप्पू चलने वाले नाविकों की नावों में बैठने का स्वर्गसुख अवश्य महसूस करें! इस नौकाविहार की स्मृतियाँ संजोकर हम बढे चेरापूंजी की ओर!

मेघजलसुंदरी चेरापुंजी! (यहाँ की जनजातियों में सोहरा नाम से ही प्रसिद्ध!) 

मेघालय को भेंट देते समय नयनरम्य चेरापुंजी पर्यटकों का आकर्षण रहना ही है, ऐसी है इसकी ख्याति! शिलाँग से ५६ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह स्थान यानि अनगिनत झरने, कभी कोहरे में खोया हुआ तो कभी कोहरे के तरल होने पर हमें दर्शन देता हुआ! यहाँ वर्षभर जलधरों की मर्जी के अनुसार और उनकी लय पर थिरकती हुई जलधाराओं का नृत्य जारी रहता है! वृक्षवल्लरियों की हरितिमा में पुष्पों की कढ़ाई से समृद्ध शाल ओढ़े हुए पर्वतों के प्राकृतिक सौंदर्य से निखरा रोमांचक चेरापुंजी(सोहरा)! यह स्थान समुद्र तल से १४८४ मीटर ऊंचाई पर है| जगत में सर्वाधिक वर्षा होने वाले स्थान के रूप में प्रसिद्ध चेरापुंजीने सर्वाधिक वर्षा को झेलने के रिकॉर्ड समय समय पर दर्ज किये हैं, गुगल गुरु इसकी जानकारी देते रहते हैं!

अब इस गांव के नाम के बारे में बताती हूँ| करीबन १८३० वर्ष के दशक में अंग्रेजों ने सोहरा को उनका प्रादेशिक मुख्यालय बनाया था, उन्हें इसमें स्कॉटलंड की छबि नजर आ रही थी| वर्षा का पानी और कोहरा इस छोटे से गांव को ढंक लिया करता था, इसलिए उन्होंने इस गांव को “पूर्व का स्कॉटलंड” ऐसी उपाधि दे डाली| मात्र उन्हें इसके नाम का उच्चारण करने में बहुत परेशानी होती थी! फिर क्या, सोहरा का चेहरा/चेरा बना| किन्हीं बंगाली नौकरशाहों उसमें पुंजो (यानि झुंड) यह और परिशिष्ट जोड़ा और गांव का नामकरण “चेरापुंजी” हुआ| चेरापुंजी का दूसरा अर्थ है संतरे का गांव| परन्तु जाहिर था कि खासी लोगों को यह बदलाव मंजूर नहीं था, इस नाम के खातिर काफी आंदोलन किये गए| स्थानीय लोग इस गांव को सोहरा ही कहते हैं| आश्चर्य की बात यह है कि, यहाँ इतनी अधिक वर्षा के रहते भी स्थानीयों को पेयजल की कमी महसूस होती है| मित्रों यहाँ पर भी मातृसत्ताक पद्धति है, स्त्रियों को स्वातंत्र्य है तथा उन्होंने विविध क्षेत्रों में अपना स्थान निर्माण किया है, शिक्षा और आर्थिक स्वातंत्र्य ही खासी स्त्रियों के सक्षमीकरण होने का मूल कारण है!

हम चेरापुंजी यहाँ के क्लीफ साइड होम स्टे (cliffside home stay) में कुल दो दिन रहे| इस घर की मालकिन है अंजना! उनके पति का देहांत होने के बाद उन्होंने आत्मबल के बलबूते बच्चों को बड़ा किया| अत्यंत कर्तव्यदक्ष, समर्पित और आत्मविश्वास से भरपूर इस अंजना की मैं प्रशंसक बन गई हूँ| उनका होम स्टे है काँक्रीट का, घर की दीर्घा और खिड़की से चेरापूंजी के मेघाच्छादित तथा कोहरे के आलिंगन में बद्ध क्षेत्र का अद्भुत नजारा देख नैनों की प्यास बुझ गई! अलावा इसके, उन्होंने जब एक रात को खुद बड़ी मेहनत और चाव से पकाया हुआ गरमागरम खाना हमें परोसा, तो वह हमारे लिए “खासमखास” मेहमाननवाजी ही हो गई! प्रिय अंजना, कितने धन्यवाद दूँ तुम्हें! मात्र दो दिनों के लिए आए हम जैसे पर्यटकों के लिए तुम्हारी यह आत्मीयता भला कैसे भूल सकूंगी मैं!

मित्रों, चेरापुंजी की वर्षा का प्रमोद कुछ निराला ही है! कुछ ठिकाना न रहना, यहीं उसका स्थायी भाव है| हमने थोडेसे बून्दनीयों के बूँद झेलने के बाद रेनकोट पहना कि यह अदृश्य होगा  और धूप को देखकर छाता या रेनकोट के बगैर बाहर आए तो यह बेझिझक बरसेगा| मेहमानों को कैसे मज़ा चखाया, ऐसा इसका बर्ताव! पाठकों, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे पुणे की वेधशाला से इसने स्पेशल कोर्स किया होगा! हम यहाँ दो दिन ही थे, उसमें हमने सेव्हन सिस्टर्स फॉल्स (Nohsngithiang Falls/Mawsmai Falls) देखे| सप्तसुरों के समान दुग्धधवल धाराओं को पूर्व खासी पर्वतश्रृंखला से गिरते हुए देखना यानि दिव्यानुभव! १०३३ फ़ीट से कल कल बहते ये जलप्रपात भारत के सर्वाधिक ऊंचाई से गिरने वाले झरनों में से एक हैं! मौसमयी गांव से १ किलोमीटर दूरी पर इनकी झूमती और लहराती मस्ती देखनी चाहिए वर्षा ऋतु में ही, याद रहे, बाकी दिनों में ये थोड़े मुरझाये से रहते हैं! हम खुशकिस्मत थे इसलिए हमें यह प्राकृतिक शोभा देखने को मिली| नहीं तो यौवन के दहलीज़ पर खड़ी सौंदर्यवती “घूंघट की आड़ में” जैसे अपना मुखचंद्र छुपाती है वैसे ही ये जलौघ घनतम कोहरे की आड़ में छुप जाते हैं और बेचारे पर्यटक निराश होते हैं| कोहरे की ओढ़नी की लुकाछिपी का अनुभव हमने भी कुछ कालावधि के लिए लिया! (यू ट्यूब का एक विडिओ शेअर किया है)

कॅनरेम झरना(The Kynrem Falls) पूर्व खासी पर्वत आईएएस जिले में,चेरापुंजी से १२ किलोमीटर अंतर पर है| थान्गखरांग पार्क के अंदर स्थित यह झरना ऊंचाई में भारत के सकल झरनों में ७ वे क्रमांक पर है| क्यनरेम झरना त्रिस्तरीय झरना है| उसका जल 305 मीटर(१००१ फ़ीट) की ऊंचाई से गिरता है! (इसका विडिओ लेख के अंतमें शेअर किया है)

प्रिय पाठकों, अगले प्रवास में हम चेरापुंजी और मेघालय के और कुछ स्थानों का अद्भुत प्रवास करेंगे| तैयारी में रहें!!!

तब तक के लिए फिर एक बार खुबलेई! (khublei) यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!

डॉ. मीना श्रीवास्तव                                                     

टिप्पणी

*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें  और वीडियो (कुछ को छोड़) व्यक्तिगत हैं!

*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ,

चेरापुंजी (सोहरा) का मेघमल्हार!

https://photos.app.goo.gl/aFDhbS2nQToY21eQ9

कॅनरेम त्रिस्तरीय झरना (Kynrem three tier Waterfalls)

© डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 4 – खूब तरक्की ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – खूब तरक्की ।) 

☆ लघुकथा – खूब तरक्कीश्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अमित शारदा को ऐसी नजरों से देखा रहा था जाने वह क्या करेगा?

परंतु शारदा इग्नोर करती हुई, अपने किचन के कामों में भोजन बनाने के लिए जुट जाती है। अमित को बर्दाश्त नहीं होता और वह जोर जोर से गाली देने लगता है, बेटे आकाश को अपशब्द बोलने लगता है।

शारदा ने गंभीर स्वर में कहा-

“आप स्वयं जिम्मेदार पद पर हो और जब बेटा ड्यूटी ज्वाइन करने जा रहा है तो उसे अपशब्द बोल रहे हो।”

” असहाय नजरों से देखती हुई फूट -फूट कर बच्चों की तरह रोने लगी।”

तभी आकाश अपने कमरे से बाहर आता है।

माँ कहाँ हो?

जल्दी करो मुझे एयरपोर्ट जाना है, फ्लाइट पकड़नी है।

अपने आंसू को जल्दी से पल्लू से छुपाती हूई मुस्कुराते हुए कहती है,हां मुझे पता है इसीलिए तुम्हारा नाम मैंने आकाश रखा है, तुम गगन में उड़ो।

मैं चाहती थी कि तुम एयर फोर्स में जाओ । तुम्हारे पिताजी, दादाजी और नाना जी बरसों से देश की सेवा करते रहे है। बस तुम्हारे पिताजी को ही सरकारी नौकरी करनी थी।

तुम इतना सब कुछ जानने के बाद भी क्यों रोती रहती हो? सुबह से मेरे लिए इतना नाश्ता खाना क्यों बना रही हो?

बेटा तू एक मां के दिल को नहीं समझेगा कि उसके दिल पर क्या बीतती है, तू चला जाएगा तो यह सब मैं कहां बनाती हूं, तेरे बहाने मैं भी खा लेती हूँ।

रोते हुए नम आंखों से उसका सामान पैक करती है और कहती है कि बेटा क्या करूं?

मैं तुम्हारे पास रहूंगा तो तुम मुझे भगा दोगी, अब जा रहा हूं तो उदास हो।

क्या करूं बेटा? तुम्हारे भविष्य के लिए मुझे अपने दिल पर पत्थर रखना पड़ेगा । बेटा तुम बारिश की एक बूंद की तरह रहना जो हर जगह गिरकर सबको तृप्ति करती है। आकाश चरण स्पर्श करते हुए बोलता है – मां मुस्कुराते हुए विदा करो, अपना सामान उठाकर टैक्सी की ओर जाता है।

शारदा उसे मन ही मन ढेर सारा आशीर्वाद देती है और कहती है बेटा जीवन में हमेशा आगे बढ़ो कभी अपने कदम पीछे की ओर मत रखना खूब तरक्की करो।

उमा मिश्रा© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 212 ☆ लहान अभंग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 212 ?

लहान अभंग ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

पंढरीच्या विठूराया

आले तुलाच भेटाया ।

देवा थकला हा देह

नाही आता माया मोह ॥१॥

आयुष्याचा खेळ मोठा

खाच खळग्याच्या वाटा ।

तुझ्या कृपेने सरले

दिन थोडेच उरले ॥२॥

माझा विठ्ठल साजिरा

माझ्या हृदयीचा हिरा।

जीव भक्तीत रंगला

पंढरीत विसावला ॥३॥

तुझ्यावीण देवराया

कोण मार्ग दाखवाया ।

मोहमयी ही दुनिया

लाभो तुझी कृपा छाया॥४॥

चंद्रभागा माझी आई

दूजी असे रूखुमाई ।

बाप विठ्ठल सावळा

माझा भाव साधाभोळा ॥५॥

मी न जना, कान्होपात्रा

परी तूच माझा त्राता ।

जीव कुडीतून जावा

तुझ्या चरणी पडावा॥६॥

“प्रभा” म्हणे विठ्ठला रे

असे घडेल का बरे ।

नाही पुण्यवान फार

तरी जीव हा स्वीकार ॥७॥

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नातं… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

नातं… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

नात्यास आपल्या जरीही,

रुढ नाव कोणतेच नाही.

तरी  कसे निक्षून सांगू,

आपल्यांत नातेच नाही.

भान ठेऊ अंतराचे,

जे आजही रुंदावले.

थंडावले आवेग सारे,

मनोवेगही मंदावले.

मेघ कांही भरुन आले,

आत्ताच ते बरसून गेले.

मागमूस अवघे पुसोनी,

आकाश माझे स्वच्छ झाले.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “प्रवासी भारतीय दिन” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट ☆

सौ कल्याणी केळकर बापट

? विविधा ?

☆ “प्रवासी भारतीय दिन” ☆ सौ कल्याणी केळकर बापट

सध्याच्या युगात परदेशी प्रवास ही एक सहजासहजी शक्यप्राय गोष्ट झाली आहे.पूर्वी दळणवळणाच्या साधनांची कमतरता आणि आर्थिक दुर्बलता ह्यामुळे पंचक्रोशी ओलांडणे सुध्दा जिकीरीचे होते.हल्ली मात्र प्रगत तंत्रज्ञानामुळे उच्चशिक्षित विद्यार्थ्यांना आपल्या उन्नतीसाठी विदेशी शिक्षणाची गरज भासू लागली.सरकारी नोक-यांमध्ये मिळणारे एल.टी.सी. आणि सेवानिवृत्ती नंतर हाती आलेल्या एकरकमी पैशामुळे विदेशात हौशीखातर फिरणाऱ्या पर्यटकांची संख्याही वाढली.

9 जानेवारी,”प्रवासी भारतीय दिन”. 

ह्या दिवशी महात्मा गांधी दक्षिण आफ्रिकेतून आपल्या देशात परत आलेत. ह्या दिवसाचे औचित्य साधून आपल्या भारताचे माजी पंतप्रधान मा.अटलबिहारी वाजपेयी ह्यांनी 2003 सालापासून हा दिवस “प्रवासी भारतीय दिन”म्हणून साजरा करायला सुरवात केली.पहिला प्रवासी दिन भारताची राजधानी दिल्ली ला साजरा केल्या गेला.

आपली जिवाभावाची, जवळची व्यक्ती तिच्या उन्नतीसाठी परदेशात गेली तरी ती व्यक्ती परत कायम आपल्याजवळ येण्यासाठी आपण आतुरतेने वाट बघतो.आपल्या सगळ्यांच्या उत्कर्षाकरिता आपण तिचा विरह ही सहन करतो.पण ती व्यक्ती कायमची आपल्याकडे परत येण्याचा दिवस हा आपल्यासाठी “सोनियाचा दिवस”असतो.बस ह्याच सोनियाच्या दिवसाचे औचित्य साधून साजरा करण्यासाठी मा.अटलबिहारी वाजपेयी ह्यांच्या कडून ह्याचा श्रीगणेशा झाला.

2019 मध्ये हा सोहळा वाराणशीला तीन दिवसाच्या समारंभात साजरा झाला.मोठमोठे उद्योगपती आणि राजकीय संबंधित व्यक्ती ह्या सोहळ्यास आवर्जून हजर होते.ह्या सोहळ्यामुळे आपले जवळपास 110 देशांशी सौहार्दाचे संबंध प्रस्थापित होतात ही दूरदृष्टी मा.अटलजींची होती.देशाच्या उन्नतीसाठी आणि विकासासाठी असे उपक्रम राबवून घेणे हे सच्च्या देशप्रेमीचेच लक्षण होय.

प्रवासावरून वीणा वर्ल्ड वाल्या वीणाताई आठवल्या. परवाच त्यांचा सिंप्लीफाय ॲप्लीफाय हा खुप छान लेख वाचनात आला. आइनस्टाइन कायम एकाच रंगाचा आणि त्याच प्रकारचा ड्रेस परिधान करायचे. दुसऱ्या वेशात त्यांना कधी कुणी बघितले नाही असं म्हणतात. त्याचं म्हणणं हया अशा गोष्टींवर आपला वेळ, पैसा आणि मेंदूला होणारा शिण हे टाळून आपण आपला फायदा, प्रगती करू शकतो. अर्थात अगदीं साधी राहणी, साधं जीवन जगणं, संग्रह न करणं ह्या गोष्टी आचरणात आणण्यास खूपच कठीण पण कायम लक्षात ठेवल्या तर कधीतरी अमलात आणण्याची पण शक्यता वाढते.

तर अशा ह्या प्रवासी जागतिक दिनाच्या आपल्या भारतवासियांना शुभेच्छा,.

©  सौ.कल्याणी केळकर बापट

9604947256

बडनेरा, अमरावती

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मनोवेधक मेघालय…भाग -४ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

? मी प्रवासिनी ?

☆ मनोवेधक  मेघालय…भाग -४ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

(डॉकी, चेरापुंजी आणि बरंच कांही!)

प्रिय वाचकांनो,

कुमनो! (मेघालयच्या खासी या खास भाषेत नमस्कार, हॅलो!)

फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)

आज आपण डॉकी आणि चेरापुंजी येथे अद्भुत प्रवास करणार आहोत. झाली नव्ह तयारी! सोप्पंय! बॅग भरो और निकल पडो! 

डॉकी /उम्न्गोट (Dawki/Umngot) नदीवरील नयनरम्य नौकानयन

आम्ही सैलीच्या सुंदर “साफी होम कॉटेज” (Safi home cottage) चा निरोप घेतला अन पुढील प्रवासाला लागलो. मॉलीन्नोन्गपासून साधारण ३० किलोमीटर दूर डौकी (Dawki) कडे आम्ही निघालो. मुंबई ते गुवाहाटी हा प्रवास विमानातून केल्यानंतरचा मेघालयचा सर्व प्रवास आम्ही कारनेच केला, इथे रेल्वे नाही बरं का मंडळी! हे गाव मेघालयच्या पश्चिम जयन्तिया हिल्स जिल्ह्यात आहे. डॉकी(उम्न्गोट) नदीवर एक कर्षण सेतु (traction bridge) बनलेला आहे. १९३२ मध्ये इंग्रजांनी हा पूल बांधला. या नदीचे पाणी इतके स्वच्छ आहे की कधी कधी आपली नाव हवेत तरंगल्याचाच भास होऊ शकतो. इथले नयनाभिराम दृश्य अन नौकाविहार हेच प्रमुख आकर्षण! हे गाव भारत अन बांगला देशच्या सीमेवर आहे! नदी देखील अशीच विभागली गेली आहे. एकाच नदीवर विहार करणाऱ्या बांगला देशाच्या मोटर बोटी अन भारत देशाच्या नाविकांच्या वल्हवत्या साध्या बोटी! हा दोन्ही देशांना जोडणारा एक सडक मार्गी रस्ता! जातांना दोन्ही देशांच्या चेक पोस्ट दिसतात. डॉकी ही भारताची चेकपोस्ट तर तमाबील ही बांगला देशाची चेकपोस्ट!

मित्रांनो, या नौकाविहाराचे स्वर्गीय सुख काही आगळेच, हृदयात अन नेत्रात सकल संपूर्णरित्या साठवावे असेच,  नाविकाने हळू हळू चालवत नेलेली विलंबित तालासारखी डुलत डुलत सरकणारी नौका, आजूबाजूला नौकेला भिडून नितळाहून नितळ असे संगीतमय झालेले जलतरंग, दोन्ही काठांवर नदीला जणू घट्ट कवेत घेणारे वृक्षवल्लींचे हिरवे बाहुपाश! निर्मल नीर असल्याने त्यांची सावली हिरवीगार तर तिला लगटून निळ्याशार  किंवा मेघाच्छादित गहिऱ्या रंगाची सावली, मध्येच नदीच्या तळाचे वेगवेगळे पाषाण देखील आपली छटा उमटवत होते! थोडक्यात काय तर सिनेमास्कोपिक पॅनोरमा! कुठेही कॅमेरा लावा अन निसर्गाच्या रंगांची क्रीडा टिपून घ्या! मध्येच या सिनेमास्कोप सिनेमाचा इंटर्वल समजा हवं तर, छोटासा रेतीचा किनारा, तिथे देखील मॅगी, चिप्स अन तत्सम पदार्थांची सर्विस द्यायला एक मेघालय सुंदरी हजर होतीच! कोल्ड ड्रिंक कोल्ड ठेवण्याकरता नदीच्या किनारी छोटयाश्या फ्रिज सारखं जुगाड करणारा तिचा नवरा खासच! नदीकिनारी लहान मोठे पर्यटक सुंदर धोंडे (नाही तर काय!) किंवा दगड गोळा करीत सुटले. परतीचा प्रवास नकोसा होत होता. पण “नाविका रे” ला नाही म्हणता म्हणता त्याने नाव किनारी लावलीच.

टाइम प्लीज!!!      

प्रिय वाचकांनो समजा तुम्ही एक घड्याळ मनगटाला लावलय अन एक बघायला सोप्पं घड्याळ तुमच्या स्मार्ट फोनवर असणारच. तुम्ही जे सोपे असेल ते बघणार नाही का! मात्र तुम्ही बांगला देशच्या सीमेच्या आसपास फिरत असाल तर गम्मतच येते, आम्हाला स्थानिकांनी सांगितलं म्हणून, नाही तर वाद तर होणारच. बांगला देशचे (फक्त) घड्याळ आपल्या देशापेक्षा ३० मिनिटे पुढे आहे, अन आपल्या स्मार्ट फोनला (नको तेव्हा) जास्त स्मार्टनेस दाखवायची सवय आहेच! त्यानं त्या देशाचं नेटवर्क पकडलं की स्मार्टफोनचं घड्याळ पुढं, अन मनगटी घड्याळ आपलं इथलं टाइम सांगणार! तेव्हा अशा ठिकाणी (बांगला देशच्या सीमेच्या आसपास) भारताचे सुजाण अन देशभक्त नागरिक या नात्याने आपण मनगटी घड्याळाची मर्जी सांभाळा, अन स्मार्ट फोनला आवरा! आम्ही हा अनुभव बऱ्याच ठिकाणी घेतला. आणखीन गम्मतच (हायेच की) येते, बांगला देशच्या सीमेच्या अन आपल्या अंतराप्रमाणे स्मार्ट घड्याळ किती पुढे जायचे ते ठरवत असते!        

मेघजलसुंदरी चेरापुंजी! (इथल्या जनजातींमध्ये सोहरा हेच नांव प्रसिद्ध!) 

मेघालयाला भेट देतांना नयनरम्य चेरापुंजी हे पर्यटकांचे आकर्षण असणारच अशी याची ख्याती! शिलाँगपासून ५६ किलोमीटर अंतरावर असलेले हे ठिकाण म्हणजे अमोप धबधबे, कधी धुक्यात हरवलेले तर कधी ते विरळ झाल्यावर आपल्याला दर्शन देणारे! इथे वर्षभर जलधरांच्या मर्जीप्रमाणे अन त्यांच्या लयीप्रमाणे बरसणाऱ्या जलधारांचे नृत्य सुरूच असते! वृक्षवल्लींच्या हिरवाईच्या रंगात फुलांची बुट्टी, अशा श्रीमंत शाली पांघरलेले पर्वत असे निसर्गरम्य चेरापुंजी (सोहरा)! हे ठिकाण समुद्र सपाटीपासून १४८४ मीटर उंचावर आहे. जगातील सर्वाधिक पावसाचे ठिकाण म्हणून प्रसिद्ध असलेल्या चेरापुंजीने सर्वाधिक पाऊस झेलण्याचे विक्रम वेळोवेळी नोंदवले आहेत, गुगल गुरुजी वेळोवेळी याची माहिती देतच असतात!

आता या गावाच्या नावाबद्दल! १८३० सालच्या दशकात इंग्रजांनी सोहराला त्यांचे प्रादेशिक मुख्यालय बनवले होते, त्यांना यात स्कॉटलंडसारखे चित्र दिसत होते. वर्षा अन धुके यांनी हे छोटे गाव व्यापले होते, म्हणून त्यांनी या गावाला “पूर्वेकडील स्कॉटलंड” अशी उपाधी दिली. मात्र त्यांना याचे नाव उच्चारतांना भारीच त्रास व्हायचा! मग काय सोहराचे चेहरा/चेरा झाले, कोण्या बंगाली नोकरशहांनी त्यात पुंजो (म्हणजे पुंजका) अशी पुस्ती जोडली अन गावाचे नामकरण “चेरापुंजी” असे झाले. चेरापुंजीचा दुसरा अर्थ आहे संत्र्यांचे गाव. खासी लोकांना मात्र अर्थातच हे बदल मंजूर नव्हते, या नावाकरता बरीच आंदोलने झालीत. स्थानिक मंडळी या गावाला सोहराच म्हणतात. आश्चर्य म्हणजे इथे इतका धो धो पाऊस असूनही स्थानिकांना मात्र पेयजलाची ददात जाणवते. मित्रांनो, इथे सुद्धा मातृसत्ताक पद्धत आहे, स्त्रियांना स्वातंत्र्य आहे व त्यांनी विविध क्षेत्रात आपले स्थान निर्माण केले आहे. शिक्षण आणि आर्थिक स्वातंत्र्य हेच खासी स्त्रियांचे सक्षमीकरण होण्याचे मूळ आहे!

आम्ही चेरापुंजी येथे क्लीफ साइड होम स्टे (cliffside home stay) येथे दोन दिवस वास्तव्य केले. या घराच्या मालकीणबाई अंजना! त्यांचे यजमान गेल्यावर त्यांनी स्वबळावर मुलांना मोठे केले. अत्यंत कर्तृत्ववान, तडफदार व आत्मविश्वासाने भरपूर अश्या या अंजनाचे मला फार कौतुक वाटले. त्यांचे घर काँक्रीटचे, घराच्या ग्यालरीतून अन खिडकीतून चेरापुंजीच्या मेघाच्छादित अन धुक्याने कवटाळलेल्या परिसराचे अद्भुत दर्शन बघून डोळे तृप्त झालेत! याशिवाय त्यांनी एका रात्री स्वतः कष्टाने रांधून आणलेले गरम जेवण म्हणजे आमच्यासाठी “खासमखास” पाहुणचारच म्हणा ना! प्रिय अंजना, किती धन्यवाद देऊ तुला! फक्त दोन दिवसांकरता आलेल्या आमच्यासारख्या पर्यटकांसाठी तू दाखवलेला जिव्हाळा न विसरण्याजोगाच!               

मित्रांनो,चेरापुंजीच्या पावसाचा आनंद न्याराच! नेम नसणं हाच त्याचा स्थायी भाव. आम्ही मारे जरासे पावसाचे थेंब झेलून रेनकोट घातला की हा अदृश्य, अन ऊन आहे म्हणून छत्री किंवा रेनकोट न घेता बाहेर पडलो की हा बिनदिक्कत बरसणार| पाव्हण्यांची कशी खासी जिरली असा याचा आविर्भाव! मंडळी, मला वाटते, आपल्या पुणे येथील वेधशाळेतून याने स्पेशल कोर्स केला असावा! आम्ही इथे दोनच दिवस होतो, त्यात आम्ही सेव्हन सिस्टर्स फॉल्स Nohsngithiang Falls/Mawsmai Falls बघितले. सप्तसुरांसम दुग्धधवल धारा पर्वतराजींमधून कोसळत असतांना बघणे म्हणजे दिव्यानुभव! १०३३ फुटांवरून पूर्व खासी पर्वतरांगांतून धो धो वाहणारे हे जलप्रपात भारतातील सर्वाधिक उंचीवरून पडणाऱ्या धबधब्यांपैकी एक! मौसमयी गावापासून १ किलोमीटर दूर असून यांची खळाळणारी मस्ती बघावी पावसाळ्यातच, इतर वेळी हे जरा कोमेजलेले असतात, बरं का! आमचे नशीब थोर म्हणून ही निसर्गशोभा बघायला मिळाली. नाहीतर ऐन यौवनातली सौंदर्यवती “घूंघट की आड़ में” जसा मुखचंद्र लपवते तसे हे जलौघ (निर्झर) घनदाट धुक्याच्या आत लपतात, अन पर्यटक बिचारे निराश होतात. हा धुक्याच्या ओढणीचा लपंडाव आम्ही देखील काही काळ अनुभवला! (यू ट्यूब वरील विडिओ शेअर केलाय)

कॅनरेम धबधबा (The Kynrem Falls) पूर्व खासी पर्वत या जिल्ह्यात, चेरापुंजीहून १२ किलोमीटर अंतरावर आहे. थान्गखरांग पार्कच्या आत असलेला हा धबधबा उंचीत भारतातल्या धबधब्यातल्या ७ व्या क्रमांकावर आहे. हा त्रिस्तरीय जलप्रपात आहे, त्याचं पाणी 305 मीटर (१००१ फूट) उंचीवरून कोसळतं!  

प्रिय वाचकहो पुढील प्रवासात आपण चेरापुंजी आणि मेघालयातील इतर ठिकाणी अद्भुत प्रवास करणार आहोत. चालतंय ना मंडळी!!! 

तर आतापुरते परत एकदा खुबलेई! (Khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)

टीप – लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेटवर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो आणि वीडियो (काही अपवाद वगळून)

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

ठाणे 

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मातीची ओढ… भाग-१ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ मातीची ओढ… भाग-१ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली   

किसनरावांच्या डोळ्यांसमोर तो प्रसंग जसाच्या तसा उभा राहिला. वीस वर्षे तरी झाली असतील, त्या गोष्टीला. एका दसरा सणाला गावाकडचा वाडा मुलं, सुना, जावई आणि नातवंडं यांनी गजबजून गेला होता. गप्पागोष्टींना रंग चढला होता. हरिभाऊंच्या नातवंडांनी कल्ला करीत आजोबांना विचारलं होतं, “आजोबा, वडिलार्जित मिळालेलं चार एकराचं रान तुम्ही आपल्या हिंमतीवर बारा एकरापर्यंत वाढवलं आहे म्हणून ऐकलंय. आम्हाला सांगा ना त्याबद्दल.” 

हरिभाऊ मिशीतच हसत म्हणाले. “होय, मी हिंमत केली होती कारण मला फकस्त शेतीचाच नाद होता. काय झालं, त्या काळात शहरात कारखाने उभे राहायला लागले तेंव्हा गावाकडच्या शेतकऱ्यांचं लक्ष शहरातल्या रोजगाराकडे गेलं. कधी कधी वर्षभर राबूनदेखील हातात काहीच पडायचं नाही. दरमहा हमखास मिळणाऱ्या पैश्याच्या मोहापायी त्यांचं शेतीकडे दुर्लक्ष होत गेलं. शहरातच राहायचं असल्यानं त्यांना शेती विकावी लागली. मी मात्र मिळेल तेंव्हा पैसा गाठीला बांधत होतो. आजच्या तरूणांच्यासारखं आम्हाला बुलेट गाड्या मिळायच्या नाहीत. खिल्लारी बैलांची घुंगराची गाडी म्हणजेच आमच्यासाठी चैन होती.” 

इतक्यात आजीनं नातवांना जेवायला बोलावलं. सदरेवर फक्त सदाशिव, काशिनाथ आणि किसन बसले होते. हरिभाऊ म्हणाले, “तुम्ही भावंडं असंच गुण्यागोविंदाने राहा. बहिणीला कधी अंतर देऊ नका. ही बारा एकराची शेती चौघात वाटून घ्या. पंचांना कधी बोलवू नका. एवढंच माझं सांगणं आहे.” 

सदाशिव लगेच म्हणाले, “आबा, अशा निर्वाणीच्या गोष्टी आता कशाला करताय?” 

हरिभाऊ म्हणाले, “पिकलं पान कधी गळून पडंल सांगता यायचं नाही. आज तुम्ही एकत्र जमलात म्हणून मनातलं बोलून टाकलं.”

किसन म्हणाला, “आबा, शेतात भाऊच राबतात. मी कुठे शेती करतोय? तुम्ही मला शिकवलंत हेच खूप झालं. माझाही वाटा त्यांनाच द्या.”

“अरे, मी सगळ्यांनाच शाळेत पाठवलं होतं. ते शिकले नाहीत. किसन तू शिकलास. तुझ्या कर्तबगारीने आता हेडमास्तर झालास. त्यात तुझी मेहनत आहे. एक बाप म्हणून सगळ्या मुलांना समान वाटा देणं हे माझं कर्तव्य आहे. माझ्या माघारी तुझा हिस्सा कुठल्याही भावाला देऊन टाक. पण मिळालेली ही शेतजमीन मात्र बाहेरच्या कुणाला कधी विकू नकोस, एवढंच माझं कळकळीचं सांगणं आहे.”

किसनरावांना हे सगळं आठवायचं कारण म्हणजे कालच जावई अविनाश आणि कन्या विशाखा त्यांना भेटायला आले होते. अविनाशने क्लिनिक उघडायचा विचार बोलून दाखवला. बॅंकेचे लोन मिळणार होते पण मार्जिनसाठी पांच लाख रूपये पाहिजे होते. सुपुत्र सुधीरनेही फ्लॅटच्या मार्जिनसाठी सात लाख रूपयांची मागणी केली होती. ‘आमच्या हातून कधी शेती होणारच नाही तर गावाकडे असलेली शेतजमीन विकून टाकावी’ असं सुधीर आणि विशाखा या दोघांचं मत पडलं होतं. 

गेल्या वीस वर्षात पुलाखालून किती पाणी वाहून गेलं आहे. आबा गेले, आई गेली. आपली मुलं सुधीर आणि विशाखा शिकून सवरून मोठी झाली. किसनरावांचे प्राव्हिडंट फंडाचे पैसे दोन्ही मुलांच्या लग्नांत संपले होते. मुलीचं अन मुलाचं लग्न पार पाडताच आपलं कर्तव्य संपलं असं समजून सुमन एकट्याला अर्ध्यावर सोडून अचानक निघून गेली. मुलगा सुधीर एका प्रायव्हेट फर्ममध्ये चार्टर्ड अकाउंटंट आहे. कन्या विशाखादेखील चांगल्या नोकरीत होती. पण तिच्या पहिल्या डिलीव्हरी नंतर जावयाने तिला नोकरी सोडायला लावली होती. प्रेमळ जावई लाभल्याने कन्येची चिंता नव्हती. मुलांच्या पुढे हात पसरायला लागू नयेत इतपत तुटपुंजी का होईना, पेन्शन मिळत होती. 

आता शेतजमीन विकायचं म्हटल्यावर किसनराव पेचात पडले. सकाळची बस पकडून ते गांवाकडे निघून गेले. 

गावात पाऊल टाकताच किसनराव भावाकुल झाले. इतकी वर्षे आपल्याला या मातीची कशी भूल पडली होती याची खंत वाटली. झपझप पावलं टाकीत वाड्याजवळ आले. अंगणात तुळशी वृंदावन पाहून त्यांना आईची आठवण आली. 

किसनरावांना असं अनपेक्षितपणे आलेलं पाहून दोन्ही भाऊ आनंदून गेले. दुपारची जेवणे झाल्यानंतर किसनरावांनी येण्याचे कारण सांगत सदाभाऊंच्या कानांवर सगळी हकिगत घातली. 

सदाभाऊंचा मुलगा प्रशांत एका महाविद्यालयात रसायनशास्त्राचा प्राध्यापक आहे. सदाभाऊ म्हणाले, “आज शनिवार आहे, सांजच्याला प्रशांत येईल तेव्हा त्याच्याशी बोलू. सध्या शेताचं काम प्रशांतच बघतो. अवकाळी पाऊस आणि वाढत्या उत्पादन खर्चामुळे द्राक्ष पीक परवडेनासे झालं होतं म्हणून प्रशांतने गेल्या वर्षी द्राक्षबाग काढून टाकली होती.   

बाजारपेठेची मागणी आणि हंगामानुसार वेगवेगळ्या भाजीपाला पिकांच्या लागवडीचे नियोजन करतो. आमच्या तिघांच्या हिश्श्यातल्या शेतीपैकी सहा एकर शेतजमीनीत चार एकर टोमॅटो, एक एकर वांगी, एका एकरात कांदा, घेवडा आणि चारापिकांची लागवड केलीय. 

गेल्या वर्षी टोमॅटोपासून एकरी पंचेचाळीस हजार तर वांग्यातून सत्तर हजाराचा नफा निघाला. याशिवाय हंगामानुसार कोबी, फ्लॉवर, ज्वारी पिकांची लागवड करतो. प्रशांत दर रविवारी येतो आणि पुढील आठवड्याचे नियोजन करून जातो. वेळोवेळी फोनवरूनदेखील आमच्याशी संपर्कात असतो, त्यामुळे वेळेवर निर्णय घेणे शक्य होते.” 

संध्याकाळी प्रशांत आला. किसनरावांना पुतण्याचा अभिमान वाटला. प्राध्यापक असूनदेखील त्याचं शेतीवरचं प्रेम कौतुकास्पद होतं. प्रशांतची पाठ थोपटत किसनराव म्हणाले, “प्रशांत तू ग्रेट आहेस. लोकांनी शेतीपुढे हात टेकले आहेत. तू मात्र चांगलीच प्रगती करतो आहेस.” 

“काका, शेतीपुढे हवामानातल्या बदलांचे मोठे आव्हान नेहमीच असते. बाजारभावात सातत्याने चढउतार होतच असतात. पिकांना अपेक्षित भाव मिळत नाही. हे सगळं तुम्हाला ठाऊक आहे. या स्थितीत आम्ही बहुपीक पद्धतीकडे वळलो. कारण काही पिकांना जरी चांगला भाव मिळाला तरी इतर पिकांच्या नुकसानीची भरपाई होऊन जाते. बाजाराचा अभ्यास करून लागवडीची वेळ ठरविण्यावर आणि आंतरपीक पद्धतीच्या अवलंबावर भर देतो. 

काका, शेतीत ताळेबंद महत्वाचा असतो. बाजारभावावर आपले नियंत्रण नसते हे जरी खरं असलं तरी मी प्रत्येक पिकाचं अंदाजपत्रक तयार करतो. 

पिकानुसार जमा खर्चाचा हिशेब नीट ठेऊन अनावश्‍यक खर्च टाळतो. शेतीत आर्थिक व्यवस्थापन महत्वाचे असते. शेतातून आलेल्या उत्पन्नाचा उपयोग उत्पादक कामांसाठीच खर्च करतो. 

काका, तुम्ही म्हणत असाल तर या वर्षी तुमचंही रान करायला घेतो. मी जमाखर्चाचा हिशेब ठेवीन. सगळा नफा तुम्हालाच देईन. सांगा, मी तयार आहे.” 

प्रशांतच्या म्हणण्यावर किसनराव अंतर्मुख झाले. ‘आपण शेतजमीन पडीक ठेवून, फक्त शाळा एके शाळा करत बसलो,’ याबद्दल त्यांना स्वत:चीच कीव वाटली. ते काही बोलले नाहीत. 

सदाभाऊंनी किसनरावांची खरी अडचण प्रशांतच्या कानांवर टाकली. सदाभाऊंनी रात्रीच फोन करून आक्काला, सुधीरला आणि विशाखाला गांवाकडे बोलवून घेतलं. वाड्यावर बैठक बसली. पीक नियोजन आणि योग्य तंत्रज्ञान यांचा योग्य समन्वय साधला तर शेती व्यवसाय कशी किफायतशीर ठरू शकते हे प्रशांतने सांगण्याचा प्रयत्न केला. पण एखाद्याला सोन्याचे अंडे खाण्यापेक्षा कोंबडीच कापून खायची असेल तर त्याला कोण काय करणार?  

— क्रमशः भाग पहिला 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ शहाणपणाचं  वेडेपण… ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सुश्री नीता कुलकर्णी

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शहाणपणाचं  वेडेपण ☆ सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी ☆

सायली भेटायला आली.

“नीता मावशी आईबद्दल तुझ्याशी जरा बोलायचं आहे…”

“अगं काय झालं मीनाला?”

“आई सध्या काहीतरी वेगळंच वागते आहे.”

“म्हणजे?”

” अचानकपणे तिच्या आत्ये बहिणीला भेटायला गेली .”

“पण मग त्यात काय झाल?”

“इतके दिवस ती  सहज अशी  कधीच गेली नाही. दारातली रांगोळी सकाळची कधी चुकली नाही …आता पेपर वाचत बसते मग  कधीतरी नऊला काढते …. पूर्वी खरेदीला मला घेऊन जायची. आता आपली आपण जाते… जे मनाला येईल ते घेऊन येते.. मध्ये चतुर्श्रुंगीला जाऊन आली …”

सायली एक एक सांगायला लागली….

“अशी का गं वागत असेल ?”

“तुम्हाला तिचा काही त्रास होतो आहे का ?तिची ती जाते तर जाऊ दे ना…”

“अग पण..असं कसं ..”

” घरात कशी असते?”

“अगदी नॉर्मल नेहमीसारखी..”

” बरं ती जाते तर तुमची काही अडचण होते का?”

“नाही काहीच नाही..”

“ मग झालं तर..”

“अग रविवारी अचानकच देहू आळंदीला गेली मैत्रिणींना घेऊन…….. म्हणाली जेवायचं काय ते तुम्ही तुमचं मॅनेज करा.. केलं आम्ही ते …..”

“अगं मग प्रॉब्लेम काय आहे?”

“अगं नीता मावशी हे सगळं अॅबनॉर्मलच  वाटतंय … मी आनंदशी बोलू का?  काही सायकॉलॉजिकल प्रॉब्लेम तर नसेल ना …”

मी जरा स्तब्ध झाले..

म्हटलं “ तुला वाटत असेल तर तू जरूर बोल…”

“हो बोलतेच ..” .. असं म्हणून ती गेली.

मनात आलं…. 

… समाजाच्या घराच्या चौकटीत बाईने अगदी तसंच वागलं पाहिजे .. जरा कुठे वेगळं घडलं ..  मन इकडे तिकडे लावलं तर …कुठे बिघडलं ? ….पण नाही…लगेच ते खटकतं ..

मी मैत्रिणींना हे सांगितलं तर त्यांच्या प्रतिक्रिया ….

“मी पण माझ्या चुलत वहिनीला उद्या भेटायला जाते …खूप दिवस घोकते आहे…”

“मला कॅम्पात जरा एकटीने जाऊन यायचं आहे आता मी जातेच..”

“मला सारसबागेत गणपतीच्या सकाळच्या सातच्या आरतीला जायचं आहे उद्या जाऊन येते…

कितीतरी वर्ष मनात आहे पण असं उठून जावं हे काही कधी सुचलंच नाही बघ …”

एक मैत्रीण  म्हणाली..

 “नीता मला कॅफे कॉफी डे ची ती महागडी कॉफी एकदा प्यायचीच आहे. तुझ्या घराजवळच आहे . उद्या आपण जाऊया  ..कशी असते ती बघूया तरी…”

मैत्रिणी धडाधड सगळं मनातलं बोलायला लागल्या. 

सायलीचा फोन आला .

“आनंदशी बोलले. त्यांनी छान समजावून सांगितलं मला .” ती शांत झाली होती. वाटलं  तिला सांगावं …

“ अग त्यापेक्षा आईचं मन वाचलं असतंस तर…फार काही नसतात  ग बाईच्या अपेक्षा… साध्या साध्या गोष्टी तर आहेत ..करू दे की तिला .. इतके वर्ष तुमची सेवा केली, आता थोडं मनासारखं वागते आहे वागू दे की…” 

तुम्हाला एक  कानमंत्र देते..

वागावं थोडं मनासारखं …. निदान आता तरी …

ही अशीच वागते हे कळलं की ते आपोआप शहाणे होतील…

आता तुम्हाला अजून एक आतली गंमत सांगते बरं का …

मीनाने हे संकल्प मला सांगितले होते…

तिला म्हटलं, “अगं नवीन वर्षाची कशाला वाट बघतेस ? आत्ताच  सुरु कर की..” .

तिने मनासारख वागणं सुरू केलं आणि ही सगळी मज्जा सुरू झाली…..

मला काय म्हणायचं आहे ते आता तुम्हाला समजलच असेल..  फोड करून सांगत नाही… 

सख्यांनो  फार मोठी मागणी नसतेच हो आपल्या मनाची …  

वागा की थोडं मनासारखं…

मग कोणी नवीन वर्षाच्या शुभेच्छा दिल्या नाहीत तरीसुद्धा तुमचे दिवस आनंदाचे आणि सुखाचे जातील याची खात्री मी तुम्हाला देते….

© सुश्री नीता चंद्रकांत कुलकर्णी

मो 9763631255

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ समाधी संजीवन… लेखिका : सुश्री विद्या हर्डीकर सप्रे ☆ प्रस्तुती – श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ समाधी संजीवन… लेखिका : सुश्री विद्या हर्डीकर सप्रे ☆ प्रस्तुती – श्री सुनील देशपांडे ☆

बराच वेळ नकाशातून वाट काढत काढत  मी आणि माझा नवरा  एका दफन भूमीच्या दारात पोहोचलो. मला पहाताच समोरची बाई चटपटीतपणे पुढे आली आणि हसतमुखाने विचारती  झाली, “Are you here for Dr Joshi?” मी चकितच झाले. “How do you know?” मी विचारले.. 

तिन सांगितलं की ,” तू भारतीय  दिसते आहेस. इथे खूप भारतीय येतात डॉ. जोशींच्या समाधीला भेट द्यायला.! खरं तर   या दफन भूमीत सर्वात  जास्त  भेट दिली जाणारी .. सर्वात लोकप्रिय समाधी आहे ही ! “ 

आणि आमच्या वॉकिंग टू र मध्ये आम्ही या समाधीचाही समावेश केलाआहे.” 

हे ऐकून मला अभिमानानं भरून आलं ! 

त्या स्वागतिकेन मला दफनभूमीचा नकाशा दिला. ‘कार्पेन्टर/ Eighmie लॉट’ कुठे आहे त्याची खूण  नकाशावर केली आणि तिथे जायचा मार्गही दाखवला. आमचे मिशन ‘ए २१६’ सुरु कझाले ! (Eighmie हे कार्पेन्टर मावशीच्या माहेरचे नाव.) 

मी  त्यांच्या नोंदणीपत्रकात मोठ्या अभिमानाने आमची नाव नोंदवली आणि आम्ही मार्गस्थ झालो. 

कार्पेन्टर लॉट तसा मोठा आहे. आता इतक्या सगळ्या थडग्यातून आनंदीबाईंची समाधी कशी शोधायची असा विचार करत आम्ही चालत होतो. तेवढ्यात मला’ ती’ दिसली.  मी समाधीचा फोटो पाहिला होता. त्यामुळे चटकन दिसली. “ भेटलीस ग बाय ..” असं म्हणत मी    उंचवटा चढून लहानशा   टेकाडावर गेले, ..काहीशा  अधीरपणे! 

समाधीच्या दगडाच्या एका बाजूला अक्षर अस्पष्ट होती. पण दुसऱ्या  बाजूला सुस्पष्ट अक्षरात 

“द फर्स्ट ब्राह्मण वुमन टू  लीव्ह इंडिया टू ऑबटेन  ऍन एज्युकेशन “  असे आनंदीबाईंबद्दल कोरून ठेवले आहे. 

माझ्या डोळ्यांसमोरून दीडशे वर्षांपूर्वीचा आनंदीबाईंच्या जीवनाचा  सगळा पट उलगडला होता…. कादंबऱ्या आणि चरित्रातून वाचलेला.. पण  मनावर त्याचा सुस्पष्ट अक्षरातला खोल ठसा उमटवून गेलेला. 

समोरून उतरत्या सूर्याची  किरणे समाधीवर पडली होती. बाजूला काही हिरवळ, काही पाचोळा होता. आम्ही ते सर्व बाजूला करून आमच्या बरोबर आणलेली फुले समाधीसमोर ठेवली.  काही फुले समाधीवर छान रचून ठेवली. कातर मनाने , भरल्या डोळ्यांनी मी तिला वाकून  नमस्कार केला… आणि मग  तिच्या जवळ थोडा वेळ निशब्द पणे बसून राहिले. मध्ये उलटलेल्या काळाचा वारा मनात सळसळत होता.  

किती वर्षे या भेटीची आस लागून राहिली होती ! 

मन काही वर्षे मागे गेले. .. १९९१ पर्यंत..मी फिलाडेल्फयाला  एका स्नेह्यांकडे गेले होते, तो दिवस आठवला.  त्यांच्याकडे आलेल्या पाहुण्यांना भेटण्यासाठी मलाही मुद्दाम बोलावले होते.  जवळच्याच एका लहान गावात रहाणारे अशोक आणि मनीषा गोरे आणि त्यांच्याबरोवर आलेल्या त्यांच्या नातेवाईक ‘अंजली कीर्तने !’  हे नाव मी ऐकलं होत. मला वाटत चेरी ब्लॉसम की  अशा काही नावाचं त्यांचं पुस्तक वाचलं होत. अंजलीताई मुद्दाम आल्या होत्या त्या आनंदीबाई जोशींवर संशोधन करायला. फिलाडेल्फियातल्या कॉलेज मध्ये आनंदीबाईंची डॉक्टर ची डिग्री झाली होती. तिथे  अंजलीताईना घेऊन जाऊन श्री. गोरे यांनी तिथल्या पुरातत्व विभागात कागदपत्रे शोधायला सुरवात केली होती. आजवर कधीच माहिती नव्हता तो माहितीचा खजिना तिथे मिळाला होता. त्यात एक पुस्तक हाती आलं. कॅरल डॉल ने लिहिलेलं आनंदीबाईंचं चरित्र !   त्यात एका वाक्याचा उल्लेख होता : आनंदीबाईंची अमेरिकेत  कार्पेन्टर मावशींकडे पाठवलेली रक्षा कुठे जतन केली जाणार आहे त्याचा. 

तेवढ्या धाग्यावरून ती समाधी शोधून काढण्याचा खटाटोप चालू होता.  गोपाळराव जोशी यांनी  आनंदीबाईंचा रक्षाकलश बोटीने अमेरिकेत पाठवल्याचे उल्लेख आहेत. पण त्याच पुढे काय झालं ते कोणाला माहिती नव्हतं. 

मी  अमेरिकेत आल्यावर त्यांची समाधी शोधून काढण्याचा विचारही  मी कधी केला नव्हता !  पण आपल्याला देवतेसारख्या वाटणाऱ्या आनंदीबाईंच्यासाठी चाललेल्या या  प्रकल्पाबद्दल आता मात्र मलाही उत्सुकता वाटायला लागली. 

गोरे पतिपत्नी आणि अंजलीताई यांची ओळख  नुकतीच झाली होती, पण पहिल्याच भेटीत  त्यांच्याशी कुठेतरी  सूर जुळले .त्यामुळे  न्यूयॉर्क राज्या मध्ये एका लहानशा गावात कुठेतरी असणारा तो   कार्पेन्टर लॉट शोधण्यात त्यांना कशी मदत करता येईल याचा विचार मी करु  लागले.  गुगल , विकिपीडिया आणि इंटरनेट  यांच्या आधीचे ते दिवस.  म्हणजे “आपल्या ओळखीचं कोण कोण आहे न्यूयॉर्क राज्यात” अशी आठवणींची साखळी बांधून माझी विचारांची साखळी सुरु झाली.    योगायोग असा की  कार्पेन्टर लॉटबद्दल चा उल्लेख  आहे त्या गावाच्या आसपास   माझे एक मित्र विराज आणि लीना सरदेसाई रहात होते, हे मला एकदम आठवलं.  

मी लगेच  विराज ला फोन केला.तोपर्यंत  विराजचा संदर्भ आणखी कोणीतरी सुद्धा  अंजलीताईना दिला. होता.    गावातल्या दफन भूमी विंचरून हा कार्पेन्टर लॉट शोधण्याची  आणि तिथेच रक्षाकलश असण्याचे पुरावे शोधण्याची जबाबदारी विराजने घेतली. पुष्कळ परिश्रम करून त्याने हे इतिहास संशोधन केलं. आणि अंजलीताईना तिथे पोहोचता आलं. मला त्यावेळी जण शक्य नव्हतं. पण अंजलीताईनी समाधीचा फोटो  आठवणीने मात्र पाठवला.( मी तो अजूनही जपून ठेवला आहे. )…. 

शंभर वर्षे उलटून गेल्यावरही आनंदीबाईंची समाधी तिथे होती .. वादळ वारे , हिमवर्षाव सहन करत होती. खोदलेली अक्षरे पुसट  झाली होती. त्यात खडू भरून त्या अक्षरांना उठाव देत कोरलेली वाक्ये वाचावी लागली. 

दफनभूमीवरील यादीत आनंदीबाईंचं नाव होत. पण बाकी माहिती कुणालाच नव्हती. ती अंजलीताईनी दिली आणि कागद प्रत्रातले रिकामे रकाने भरले गेले.  इतिहासाच्या अक्षरांना पुन्हा  उठाव मिळाला.

आनंदीबाई आली अमेरिकेत तेव्हा इथे कोणी नव्हतं.  पण आनंदीबाईनी इथे जात, धर्म, भाषा यांचे तट ओलांडत  कॅरल डॉलशी मैत्रीचे बंध  जुळवले. कार्पेन्टर मावशीनं तर तिला कुटुंबातच सामावून घेतलं आणि  माहेरच्या दफनभूमीत तिच्यासाठी खास जागा निर्माण केली. तिची समाधीशिळा उभारली. 

त्याकाळच्या मराठी बाईची चाकोरी माजघर, स्वयंपाकघर ते मागील आंगण एवढीच होती. ती ओलांडून आनंदीबाई वेगळ्या वाटेने चालल्या. .. ती वाट शिक्षणाची होती. अमेरिकेत जाऊन शिक्षण घेणे .. म्हणजे केवळ चाकोरीबाहेरची वाट चोखाळणे नव्हते, तर व पायवाट सुद्धा नव्हती तिथे राजमार्ग उभारणे होते.. पहिली  भारतीय डॉकटर स्त्री होण्याचा सन्मान घेताना आनंदीबाईंच्या या अलौकिक कार्याचं सार्थक झालं खरं; पण त्या राजमार्गावरून पुढे जाण्यापूर्वीच त्यांना  मृत्यूने कलाटणी दिली आणि त्यांच्या रक्षा या  न्यूयार्क  मधल्या आडगावात एका दफनभूमीत एकाकी होऊन पडून राहिल्या होत्या. नंतर इतके मराठी लोक आले, त्यांनाही याचा पत्ता  नव्हता. .. 

बाविसाव्या वर्षी पराक्रम करून गेलेल्या झाशीच्या राणीच्या समाधीस्थळी 

‘रे हिंद बांधवा थांब  या स्थळी  अश्रू दोन ढाळी …..” अशी भा रा तांबे यांनी घातलेली साद … 

तशी बाविसाव्या वर्षी  पराक्रम करून गेलेल्या आनंदीबाईच्या समाधीस्थळी अंजली कीर्तने , विराज , लीना सरदेसाई, अशोक, मनीषा गोरे यांनी घातलेली ही साद … 

मराठी, भारतीय  लोकांपर्यंत हळू हळू पोहोचली. आणि आता  इथे लोक दर्शनाला येऊ लागले. 

हे सगळं आठवत मी समाधीपाशी स्तब्ध झाले होते…

माझी ही  तीर्थ यात्रा पूर्ण झाली ती विराज आणि लीना यांच्या घरी जाऊनच.. लीना आणि विराज आता त्या गावात रहात नाहीत. ते आता दूरच्या एका गावात असतात.  मधल्या काळात  आमच्या भेटी झाल्या होत्या, काही प्रकल्पसुद्धा आम्ही एकत्रित पणे केले होते. 

पण तरीही समाधीदर्शनानंतर लगेच  त्यांना भेटल्याशिवाय तीर्थयात्रा पूर्ण होणार नव्हती. म्हणून आम्ही पुढे निघालो.  त्या दोघांनाही  आमच्या या विशेष भेटीचा  खूप आनंद झाला. .पुष्कळ जुन्या आठवणींना उजाळा मिळाला. तेव्हाच्या आठवणी विराजने सांगितल्या. संशोधनाचं आव्हान, समाधी सापडल्याचा आनंद, कितीतरी गोष्टी.! आम्ही ऐकताना भारावून गेलो होतो… 

समाधीच्या शिळेवरची अक्षर पुसट  झाली, ती महत्प्रयासाने परवानग्या काढून विराजने पुन्हा खोल करून घेतली. त्यामुळे एका बाजूला आता सुस्पष्ट खोदकाम दिसते.  हा ऐतिहासिक दुवा मला कळला. 

आनंदीबाईंवर अंजलीने पुस्तक लिहिले. लहान माहितीपट केला. लेख लिहिले. (अलीकडेच आनंदीबाई गोपाळरावांवर एक चित्रपटही निघाला)

या समाधी संशोधनानंतर अनेक लोकांनी  समाधीला भेट द्यावी अशी तिची इच्छा होती आणि आहे. तिच्या संशोधनाचे आणि धडपडीचे सार्थक झाले.  आज खरोखरच जास्तीत जास्त लोक येऊन या समाधीला भेट देतात…..  अमेरिकेत आलेल्या प्रत्येक भारतीय  डॉकटर ने विशेषतः: महिला डॉक्तरने समाधीला  भेट द्यावी असे मला मनोमन वाटते. त्यासाठी मी काही लेख लिहून समाधीचा पत्ता प्रसिद्ध केला. आमच्या दुसऱ्या पिढीच्या  मुलींनी ही  समाधी  पहावी  आणि काही प्रेरणा त्यांना मिळावी! कारण आनंदीबाईनी  चाकोरीचे आणि परंपरांचे अवघड घाट ओलांडून,  आमचे मार्ग सोपे केले. आम्ही आज इथे आहोत, ते त्यांच्यामुळे आणि आमच्या मुली आज मोठ्या मोठ्या भराऱ्या  घेत आहेत , त्या त्यांच्याचमुळे !  आम्ही आनंदीबाई जोशींच्या लेकी आहोत !   

तेव्हा आनंदीबाईनी विराज, लीना, अशोक, मनीषा , अंजली आणि मी यांचे बंध अनुबंध  जुळवले, ते आज तीस वर्षांनंतरही जुळलेले आहेत. आनंदीबाईंच्या संजीवन नामाने नामांकित झालेले आहेत !        

लेखिका : विद्या हर्डीकर सप्रे 

(समाधीस्थळ :  Poughkeepsie Rural Cemetery, 342 Sounth Ave, N.Y. 12602

दूरध्वनी: (845) 454-6020   https://poughkeepsieruralcemetery.com/

या दफनभूमीच्या वॉकिंग टूर मध्ये आनंदीबाईंच्या समाधीला असते.

Her ashes were sent to Theodicia Carpenter, who placed them in her family cemetery at the Poughkeepsie Rural Cemetery in Poughkeepsie, New York. The inscription states that Anandi Joshi was a Hindu Brahmin girl, the first Indian woman to receive education abroad and to obtain a medical degree). 

प्रस्तुती – श्री सुनील देशपांडे

पुणे

मो – 9657709640 Email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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