हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “महबूबा ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “महबूबा“.)

☆ लघुकथा – महबूबा ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक वृद्ध महाशय अपनी छड़ी टेकते हुए पार्क में दाखिल हुए। उनके होंठ एक फिल्मी गीत गुनगुना रहे थे।

– आने से उसके आए बहार– बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा—महबूबा।

तभी एकाएक  सामने आई युवती को देखकर वह सकपका गए।

कहीं यह युवती छेड़छाड़ का उलाहना देकर तिल का ताड़ ना बना दे। वृद्धों पर इस तरह के इल्जाम जब तब लगते रहे हैं।

वह रास्ता बदलकर पतली गली से निकलना ही चाहते थे कि तरुणी बोली – ‘दादा जी आप तो इस उम्र में भी इतना अच्छा गा लेते हैं। यह गाना वहां बेंच पर बैठकर सुनाइए न, मजा आ जाएगा।’

वृद्ध महाशय अपनी आंखें झपकाने लगे। यह अजूबा कैसे हुआ, उसे तो इस युवती की अभद्र भाषा से दो चार होना था।

भाव विभोर होकर बोले – अरे कुछ खास नहीं बेटी, मन बहलाने के लिए थोड़ा बहुत गा लेता हूं।

मेरी पत्नी को भी यह गाना पसंद है। छै महीने अस्पताल में रहकर वह आज ही घर लौटी है। मैं यह गाना उसे सुनाने के लिए रिहर्सल कर रहा हूं।

उधर युवती सोच रही थी – कौन कहता है कि सारे बुजुर्ग एक से होते हैं जो अपने चेहरे पर एक दूसरा चेहरा लगाकर  घर से बाहर निकलते हैं। जिन पर महिलाओं को छेड़छाड़  का इल्जाम जब तब लगता रहता है।

युवती के चेहरे पर एक गुनगुनी मुस्कान खेलने लगी। उसे लगा कि यह वृद्ध महाशय थोड़ी देर के लिए ही सही अपने जवान जिस्म में परिवर्तित हो गए हैं और वह उनकी महबूबा बन गई है।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 133 ☆ लघुकथा – मुक्त कैद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘मुक्त कैद’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 133 ☆

☆ लघुकथा – मुक्त कैद ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मायके से विदाई के समय उसे समझाया गया था कि ‘पति परमेश्वर होता है। मायके की बातें ससुराल में नहीं कहना और ससुराल में तो जैसे रखा जाए, वैसे रहना। ‘ कैसे भूलती अपने पिता की वह बात– ‘डोली में जा रही हो, अर्थी ससुराल से ही उठनी चाहिए। ‘सुनने में ये किसी पुरानी फिल्म के संवाद लगते हैं, पर नहीं। भारतीय नारी को आदर्श नारी के फ्रेम में जड़कर घर की दीवार पर टाँग दिया जाता है। उसकी जिंदा मौत किसी को नजर नहीं आती, खुद उसे भी नहीं।

यह जीवन उसने इतनी गहराई से जिया कि अल्जाइमर रोग में वह सब भूल गई लेकिन यह ना भूली कि पति परमेश्वर होता है। उसे ना अपने खाने-पीने की सुध थी, ना अपनी। बौराई-सी इधर-उधर घूमती, बोलती रहती– ‘आपने खाना खाया कि नहीं? बताओ, किसी ने अभी तक इन्हें खाने के लिए नहीं पूछा। ‘ कभी वह सिर पीट रही होती– ‘हे भगवान! आज तो बहुत पाप लगेगा हमें, पति से पहले हमने खाना खा लिया। ‘ थोड़ी देर बाद वही बात दोहराती, फिर वही, वही —। सिलसिला थमता कैसे? ससुराल जाते समय दी गई सीख वह भूली नहीं थी। वह सीख नहीं, मंत्र होता था शायद, जिसे अनजाने ही स्त्रियां जीवन भर जपती रहतीं और धीरे-धीरे अपना खाना-पीना, सुख-दुख, अस्तित्व सब होम उसमें|

वह अब घर की चहारदीवारी में कैद है, कहने को मुक्त। पतिदेव छुटकारा पाने के लिए निकल लेते हैं दोस्तों– यारों से मिलने। उनके आने पर वह कोई शिकायत ना कर कभी उन्हें प्यार भरी नजरों से देखती है, कभी सिर पर हाथ फेरती है, कहती है- ‘बहुत थक गए होगे, आओ जरा पैर दबा दूँ , कुछ खाओगे?’ वे झिड़क देते हैं – ‘हटो, जाओ यहाँ से, हर समय पीछे पड़ी रहती हो। अपना काम करो’।

‘अपना काम ???’ वह दोहराती है। इधर- उधर जाकर फिर लौटती है। उसी प्यार और अपनेपन के साथ फिर पूछती है – ‘थक गए होगे, पैरों में तेल लगा दूँ? — फिर झिड़की।

‘लगता है नाराज हो गए  हैं हमसे’ – वह दूर बैठकर अपनेआप से बोलती है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा – यात्रा और यात्रा ??

जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? लोग दोहरा जीवन क्यों जीते हैं? फिर इस तरह तो जीवन में कोई अपना होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?

बार-बार सोचता कि क्या साधन किया जाय जिससे लोगों का मन पढ़ा जा सके? उसकी सोच रंग लाई। अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन।

विधाता भी अजब संजोग रचता है। वह मशीन लेकर प्रसन्न मन से लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। कुछ हड़बड़ा-सा गया। पढ़ने चला था जीवन और पहला सामना मृत्यु से हो गया। हड़बड़ाहट में गलती से मशीन का बटन दब गया।

मशीन पर उभरने लगा शव के साथ चल रहे हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी का कोई प्रभाव नहीं था।

आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारी टीका, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच चल रही होती है अंतिमयात्रा।

अंतिमयात्रा से उसने पढ़ा जीवनयात्रा का पाठ।

© संजय भारद्वाज 

( प्रातः 11:10 बजे, 6.6.2019 )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 2 – उलझन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – उलझन।) 

☆ लघुकथा –  उलझन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

वर्षा ने अपनी मां से पूछा – मां क्या हो गया, किसका फोन था? कहीं आप की सखी का तो नहीं। हद हो गई अब तो?

देखो ! अब हम लोग उनके बच्चों को बर्दाश्त नहीं करेंगे, गाली देकर बात करते हैं, और हमारे पूरे घर को अस्त-व्यस्त कर देते हैं । सारा दिन खाने की फरमाइश करते हैं कभी मैगी, तो कभी पास्ता और कोल्ड ड्रिंक और न जाने क्या-क्या? देखो मैं कुछ नहीं बनाऊंगी। मुझसे मदद की उम्मीद मत करना!

आंटी को तो मॉल घूमना फिरना और शॉपिंग करना रहता है और हमारे पास अपने बच्चों को छोड़कर चली जाती हैं।

डैडी देखो मां को…,

बात को काटते हुए रितेश ने कहा- क्या हो गया ? फिर से तो अपनी सहेली की नौकरानी बन रही है।

क्या करोगी बेटा तुम्हारी मां खुद बेवकूफ है, और हम सब को पूरे समाज में बेवकूफ साबित करती है, पता नहीं कब तुम्हारी मां को अक्ल आएगी, मैं जा रहा हूं ऑफिस।

सुरीली ने कहा रुको- “पराठा सब्जी बना है, तुम टिफिन लेकर जाओ।”

रितेश ने कहा रहने दो, तुम्हें तो घर फूंक कर तमाशा देखने में मजा आता है।

वर्षा ने अपनी मां को गुस्से में बोला देखो मां तुम्हारे कारण डैडी भी नाराज होकर बिना टिफिन लिए चले गए?

इस समस्या का मैं तुम्हें एक उपाय बताती हूं तुम कुछ मत करो बस बिस्तर पर चुपचाप लेट जाओ।

मैं तुम्हारे पैर में पट्टी बांध देती हूं, लेकिन तुम्हारी दोस्त जब आएगी तब तुम चुपचाप आंख बंद करके सोती रहना।

इतने में बाहर से रितु की चिल्लाने की आवाज आई, कहां हो नीचे मेरा ऑटो खड़ा …..?”

वर्षा बोली- “आंटी अंदर आइये, मुझे आपसे मदद चाहिए। आंटी देखिए न मम्मी को पता नहीं अचानक क्या हो गया है ? पैर में लग गई और अचानक बेहोश हो गई है। मुझे मम्मी को डॉक्टर के पास लेकर जाना है। क्या आप मम्मी को डॉक्टर के पास लेकर चलेंगी मेरे साथ, क्योंकि पापा न जाने कहां चले गए हैं, उनका फोन भी नहीं लग रहा है?

यह सब सुनकर रितु ने कहा- अरे! मैंने सुबह फोन किया था तो एकदम ठीक थी।

वर्षा ने कहा – हां आंटी लेकिन उसी के बाद जब काम करने मम्मी किचन में गई तो उनका पैर फिसल गया आंटी आप तो मम्मी की अच्छी दोस्त हैं आप प्लीज मदद करेंगी।

रितु ने कहा- मुझे एक बहुत जरूरी काम से जाना है। मैं जरूर उन्हें लेकर अस्पताल जाती। ऐसी हालत में छोड़ कर नहीं जाती। तुम ऐसा करो अपने पापा को फोन लगाने की कोशिश करते रहो? ठीक है अपना और मम्मी का ख्याल रखना, मैं चलती हूं। अपने बच्चों को लेकर रितु जल्दी से चली गई।

संध्या उठी वर्षा से बोली – हे प्रभु ! क्या अच्छे लोगों की दुनिया नहीं है?

दुनिया में नेकी का फायदा सभी लोग‌ उठाते हैं वर्षा तुमने सारी उलझन दूर कर दी इसी खुशी में शाम को पार्टी करेंगे।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – जी साहब अब ठीक है… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘जी साहब अब ठीक है…’।)

☆ लघुकथा – जी साहब अब ठीक है… ☆

मैं उस समय सागर जिले में, थाना खिमलासा में, थाना प्रभारी के पद पर पदस्थ था। 

खिमलासा, सागर जिले में अपनी एक विशिष्ट प्रसिद्ध रखता है, यहां राज कपूर की फिल्म, तीसरी कसम, की शूटिंग हुई थी, जहां पर, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई, गाने की शूटिंग हुई थी, मैं शासकीय कार्य से बीना गया था, बीना से लौट रहा था, तभी देखा कि सामने जीप में अंदर सवारियां भरी हुई थीं, और एक लड़का पायदान पर पैर रखकर जीप के बाहर लटका हुआ था, कभी भी कोई दुर्घटना हो सकती है, यह सोचकर जीप को रूकवाया, और जीप पर लटके लड़के को उतार कर उसको थप्पड़ मारा, और कहा कि अगर तुम्हारा हाथ छूट जाए तो तुम गिर जाओगे, मर भी सकते हो, क्यों लटकते हो, जीप ड्राइवर को भी डांटा, इतना कहकर मैं वापस अपनी जीप में बैठने लगा।

वह लड़का जो लटका हुआ था, दौड़ के मेरे पास आया, उसने कहा कि साहब एक विनती है आपसे, मैंने कहा बस लटकन मत, तो उसने कहा, अब मैं कभी नहीं लटकूंगा, मगर जीप के अंदर मेरा साला बैठा हुआ है, आप उसे भी एक थप्पड़ मार दो, नहीं तो वह घर जाकर मेरी पत्नी से, जो उसकी बहन है, से कहेगा, कि आज जीजा पिट गए, मेरी बेइज्जती हो जाएगी, मैं मुस्कुराया और जीप के पास आकर उसके साले को बाहर निकाला और उसको एक थप्पड़ मारा, कि तेरा जीजा बाहर लटका हुआ है, और तू आराम से अंदर बैठा है, और उसे डांट कर, फिर मैंने उसके जीजा से कहा, अब ठीक है ना, वह बहुत खुश हुआ, जी साहब अब ठीक है… 

 आज तक इस वाक्य को याद करके मेरे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “बंदरबांट” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “बंदरबांट“.)

☆ लघुकथा – बंदरबांट ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक ग्रहणी ने  रोटी पकाकर अपने पति से कहा-रोटी गाय को दे आइए जी।

पति रोटी लेकर दरवाजे पर पहुंचा तो धर्म संकट खड़ा हो गया। गाय के साथ ही कुत्ता और एक बिल्ली भी आ खड़े हुए।

आदमी सोच विचार में पड़ गया।

तभी गाय बोली मैं तुम्हारी संतानों को दूध पिलाती हूं इसलिए रोटी पर मेरा अधिकार है। रोटी मुझे दीजिए।

कुत्ता बोला ना ना, रोटी मुझे दीजिए। मैं रात भर जाग जागकर तुम्हारे घर की रखवाली करता हूं। चोर डाकुओं से तुम्हें बचाता हूं। रोटी का हकदार मैं हूं जी।

बिल्ली बोली – तुम्हारे अनाज के भंडार को चूहों से मैं बचाती हूं।

अनाज ही नहीं रहेगा तो रोटी कहां से बनेगी। रोटी की सच्ची हकदार मैं हूं। रोटी मुझे दीजिए।

आदमी का धर्म संकट बढ़ता ही गया। रोटी किसे दे, भ्रमित हो गया।

तब उस रोटी को वह स्वयं ही खा गया।

गाय और कुत्ता नाराज होकर वहां से चले गये परंतु उसी दिन से बिल्ली के  हाथों अनायास ही बंदरबांट का अनोखा सूत्र हाथ लग गया।

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© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “ऐसा भी या ऐसा ही” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ “ऐसा भी या ऐसा ही” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

शहर के सुप्रसिद्ध काॅर्डियोलाॅजिस्ट डाॅ वसीम से मिलने आये थे अधिवक्ता समीर।

बचपन के दोस्त।खूब सारी यादों का जमा खर्च  शुरू हुआ।स्कूल, काॅलेज ,व्यवसाय ,शादी और भी बहुत कुछ—-

शादी की बात चली तो समीर मन ही मन मुस्कुराने लगे।

डाॅ वसीम ने उनके मुस्कुराने का राज़ पूछा—बरसों पुरानी  याद आज भी रूमानी बना देती है शायद।

अरे नहीं यार—तुम्हें याद है मेरी शादी से जुड़ा वाकया–

कुछ याद नहीं आ रहा है !

तो सुनो—हमारी शादी की सारी तैयारियां हो चुकी थीं।मेहमान भी आ चुके थे।पूरे एक घंटे तक भी मौलाना जी का अता पता न था।

तब तो फोन भी नहीं थे।थक हार कर एक लड़के को दौड़ाया कि जाओ मौलानाजी को लेकर आओ।

उस लड़के के साथ मौलाना प्रकट हुये।उनसे पूछा गया–आपने इतनी देर क्यों कर दी ?

जवाब मिला—“टी वी पर रामायण देख रहा था।”

* * *

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “और तुम—?” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ “और तुम—?” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

हरे भरे खेत से कुछ दूर, चिड़िया, कौए, तोते, मुनिया, मैना और दूसरे पक्षी चिन्तामग्न दिखाई दिए। एक बुद्धिजीवी जो  पक्षियों की भाषा जानता था,वहां से गुजर रहा था।

उसने उनसे कहा—कितने डरे हुए और चिन्तित हो तुम ? बात क्या है ?

अरे! खेत में खड़ा है वो “बिजूका” है।

उसके भेजे में भूसा है।

कपड़े भी दूसरे के हैं।

हाथ पाँव, आँखें – सब कुछ नकली है !

उसकी मूंछें भी !

एक कौआ जो बड़ी देर से सुन रहा था, बोला–‘—-”’–“और तुम”—–?

* * *

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 132 ☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘तुम संस्कृति हो ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 132 ☆

☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

शादी की भीड़ -भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पड़ी- ‘अरे! यह तो संस्कृति है शायद? पर वह कैसे हो सकती है?’ मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन–सहन? भला कोई इतना कैसे बदल सकता है? हाँ, यह सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। हम साथ ही पढ़े थे। स्कूल से निकलने पर कुछ सहेलियां छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया, किसकी कहाँ शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। उस समय ‘फेसबुक’ तो थी नहीं। फिर से ध्यान उसकी ओर ही चला गया। तब तक उसने ही मुझे देख लिया, बड़ी नफासत से मुझसे गले मिली – ‘हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम ? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना!‘ ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी। चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। स्टाइलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में हिंदी बोलती हुई वह बहुत बनावटी लग रही थी। मैं अब भी मानों सकते में थी, हिचकिचाते हुए मैंने धीरे से पूछ ही लिया – ‘तुम संस्कृति ही हो ना?’ उसे झटका लगा – ‘अरे! पहचाना नहीं क्या मुझे?’ मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – ‘बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।‘

वह खिलखिला कर हँस पड़ी – ‘यार! पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना?’ मैंने ओढ़ी हुई मुस्कान के साथ कहा –‘हाँ, तुम पर सूट कर रहा है। अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है?’ – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – ‘क्या करेंगे हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है।‘

वह बोलती जा रही थी और मुझे उसके माता -पिता याद आ रहे थे, जो हमेशा अपना देश, बोली-भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। बच्चों को अपना देश, अपनी माटी के संस्कार दिए थे उन्होंने। खरे देसीपन के वातावरण में पली–बढ़ी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 1 – नजरबट्टू ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – नजरबट्टू।) 

☆ लघुकथा –  नजरबट्टू ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ 

शर्बरी सुबह कॉलेज जा रही थी तभी रास्ते में  पाखी और शंन्मुखा से मुलाकात हो जाती है।

अरे वाह आज कितना बढ़िया हुआ हम सभी सहेलियां एक साथ कॉलेज जा रही हैं। आज सुबह से मैं तुम लोगों को याद कर रही थी आज तो मेरी सब इच्छा पूरी हो रही है, हम सभी ऑटो से चलते हैं।

तभी उन्हें  कुछ दूर पर रास्ते में कालिंदी दीदी रोती हुई दिखती हैं और उनके साथ एक आदमी है वह लोग गाड़ी में बैठ कर  जा रहे हैं।

दीदी के साथ क्या हुआ? अचानक पाखी ने अपने दोस्तों से कहा।

“ऑटो वाले भैया उस गाड़ी के पीछे पीछे चलो?”

शंन्मुखा ने कहा- “भैया पैसे की चिंता मत करो हम तुम्हें पैसे देंगे पूरे।”

उनकी गाड़ी एक रेस्टोरेंट के पास रूकती है तीनों सहेलियां भी पीछे-पीछे उसी रेस्टोरेंट में जाती हैं ।

ओह ! ये क्या  लड़का तो दीदी से पैसे मांग रहा है? तभी अचानक दौड़कर पाखी दीदी के पास जाती है।

“ये कौन है दीदी?”

पाखी हमारे ऑफिस का बॉस है। मुझसे गलत काम कराना चाहता है ऑफिस में और मेरे साथ अभद्र भाषा का  भी उपयोग करता है और मुझे बदनाम करने की धमकी भी दे रहा है मेरा कोई नहीं है यह बात इसे पता है इसलिए मेरी मजबूरी का फायदा उठाकर रहा है।

“दीदी दीदी आप चिंता मत करो।”

वह जोर जोर से चिल्लाने लगती हैं बहुत सारे  लोग इकट्ठे हो जाते हैं, होटल के स्टाफ की मदद से उसे पुलिस में पकड़  दिया ।

कालिंदी ने कहा – तुम लोगों ने आज मुझे  मुसीबत से बचा लिया।

दीदी आप नौकरी की चिंता मत करो, जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक आप मां के साथ टिफिन सर्विस में मदद करना।

कालिंदी  ने गंभीर स्वर में कहा- “आज जो कुछ भी हुआ उस विषय में किसी को कुछ मत कहना।”

तुम सभी छोटी बहनों ने मुझे इस दलदल से बाहर निकाला आज पार्टी मेरी तरफ से…।

सभी एक दूसरे को देख कर जोर से हंसने लगती हैं और कहती है दीदी हमने आपके उदासी की वजह जान ली। कालिंदी कहती है  अरे ! नज़र बट्टू तुम लोगों ने मेरे जीवन की बुरी नजर को उतार दिया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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