हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “बोलता आईना” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ लघुकथा – “बोलता आईना” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

राजा तक खबर पहुँची कि नगर में एक गरीब  आदमी के पास आईना है, जो बोलता है।सवालों के जवाब भी देता है।

राजा ने आनन फानन में सिपाहियों को बुलाकर कहा –तुम गरीब से वो आईना लेकर आओ।वह जितनी भी मोहरें माँगे उसे दे देना पर आईना जरूर ले आना।

–गरीब ने धन लेने से इंकार कर दिया ये कहकर कि — ले जाओ पर इतना याद रखना , ये केवल सच बोलता है।ऐसा सच जो बर्दाश्त की हद से बाहर होता है ।नग्न सत्य।वो तो हम गरीबों के बस की बात है।

–सिपाही आईना ले आये। राजा परम प्रसन्न। उसने तोते से पूछकर बातचीत का मुहूर्त निकलवाया और बन ठन कर आईने के सामने बैठ गया।

—बोल आईने ! लोग मुझे कामदेव कहते हैं। महिलाएं  आहें भरती हैं। मुझे सपनों का राजकुमार समझती हैं जो सफेद घोड़े पर बैठकर आयेगा और उन्हें ले जायेगा।

—यह सच नहीं है।तुम्हारे मयूरासन का प्रताप है।

—मैं जहां भी जाता हूं लोग फूलों की पाँखुरियां बिछा देते हैं। जमीन पर चलने ही नहीं देते।

—झूठ। तुम्हें जमीन की एलर्जी है।

—मेरी तस्वीर की घर घर में पूजा की जाती है। मेरे लिये स्वतंत्र देवालय बनवा रखे हैं लोगों ने।

—‘झूठ। पता है पूजा उसी की करते हैं लोग जिससे खौफ़ खाते हैं।

—देख आईने। मुझे लगा था तू केवल सच बोलेगा पर तू तो मक्कार निकला।

—मैं मक्कार नहीं हूं। जब सारी दुनिया झूठ को सच और सच को झूठ समझ रही हो, तब अकेले तुम अपवाद कैसे हो सकते हो।

–राजा ने क्रोध में फुफकारते हुये आईना जमीन पर पटक दिया।

उसने देखा कि आईने के हजार हजार टुकड़े उसे देखकर ठठाकर हँस  रहे हैं।

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – ईश्वर का शृंगार… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ईश्वर का शृंगार…’।)

☆ लघुकथा – ईश्वर का शृंगार… ☆

आज ईश्वर बहुत उदास थे, चुपचाप मौन, किसी से कुछ बात ही नहीं कर रहे थे, किसी की हिम्मत भी नहीं थी, उनसे पूछने की, उनसे उदासी का कारण जानने की, कुछ देर बाद पवन ने उनसे पूछा, आज आप उदास क्यों हैं, वह थोड़ी देर शून्य में देखते रहे, और थोड़ी देर बाद बोले, बहुत दिनों से पृथ्वी पर, भारतवर्ष में, वहां के लोगों के कार्य कलाप और हरकतें देख रहा हूं, जिससे मन उदास हो गया।

लोग पार्क में जाते हैं, वहां पौधों पर खिले हुए फूल तोड़ते हैं, बड़ी-बड़ी प्लास्टिक की थैलियों में भरते हैं, कुछ लोग छड़ी या डंडे लेकर जाते हैं उसमें तार का हुक फसा लेते हैं उससे डाली को खींचते हुए डाली को झुकाकर, पुष्प तोड़ लेते हैं, पौधे की तकलीफ नहीं देखते हैं।  प्रकृति ने मुझे प्रार्थना की थी कि मैं उनका शृंगार करूं, मैंने प्रकृति को विभिन्न प्रकार के फूलों से भर दिया ,जो अपनी सुगंध, फिजाओं में बिखेरते थे,सभी लोग उन्हें देखकर प्रफुल्लित होते थे, परंतु लोग स्वार्थवश फूल तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, सोचते हैं इन सार्वजनिक स्थानों से की गई चोरी के फूलों से मुझे रिझाने का उनका प्रयास सफल हो जाएगा, पर मुझे दुख होता है कि मेरी ही प्रकृति को दी हुई भेंट वह निर्ममता से तोड़कर मुझ पर अर्पित करते हैं, जबकि मैं चाहता हूं कि वह अपना अहंकार,अपना क्रोध, अपनी वैमनष्यता, अपना लोभ, लालच, मुझको अर्पित करें और अच्छे इंसान बने जो एक दूसरे की मदद करें, अपने कर्मों की सुगंध से, वह संसार में अपनी सुगंध फैलाएं, सार्वजनिक उद्यानों में लगे पौधों के फूलों से मेरा श्रृंगार ना करें, पर्यावरण को बचाने के लिए पौधे लगाऐं और प्रकृति को संवारने में अपना योगदान दें।

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ हास्य रचना ☆ अटैची की सैर ☆ प्रो. नव संगीत सिंह ☆

प्रो. नव संगीत सिंह

☆ हास्य रचना ☆ अटैची की सैर प्रो. नव संगीत सिंह

आप सोच रहे होंगे कि ‘अटैची’ किसी देश या शहर का नाम है। अरे नहीं, यह वही ब्रीफकेस है, जिसमें कपड़े आदि रखे रहते हैं। तो जनाब, यह ढाई दशक पहले की बात है, मेरी शादी को एक हफ्ता ही हुआ था कि छुट्टियाँ खत्म हो गईं और मैं कॉलेज-टीचर की ड्यूटी के लिए पटियाला से तलवंडी साबो कॉलेज पहुँच गया। कुछ दिनों तक मैं अपनी पत्नी के साथ अपने माता-पिता के पास पटियाला में रहा।

एक दिन मेरे माता जी, जिन्हें मैं बी-जी कहता था, मेरी पत्नी के साथ तलवंडी साबो आये। मैं बस उन्हें स्टैंड पर लेने गया था। उनके पास मौजूद सामान में एक ब्रीफकेस था, जिसे कभी खोला नहीं गया था। दो-एक दिनों के बाद मैंने अपनी पत्नी से पूछा कि ब्रीफकेस में क्या है? पत्नी ने कहा, “मुझे नहीं पता, यह बी-जी का होगा।” मैंने बी-जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि मैंने सोचा कि यह तुम्हारी पत्नी का होगा, इसलिए हम इसे ले आए। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उन दोनों ने चार घंटे तक बस में एक साथ यात्रा की और एक बार भी एक-दूसरे से नहीं पूछा कि अटैची किसका है! दरअसल अटैची (ब्रीफकेस) मेरा ही था, जिसमें मैंने एक्स्ट्रा कपड़े डाल कर पटियाला रखा हुआ था। खैर… इस तरह अटैची पहले तलवंडी साबो आया फिर बस का सैर-सफ़र करके वापस पटियाला चला गया।

अब हम जब भी कहीं कुछ समान वगैरह लेकर जाते हैं तो एक-दूसरे से पूछते हैं, “यह किसका है भई?… कहीं अटैची जैसी बात न बन जाए…।”

© प्रो. नव संगीत सिंह

# अकाल यूनिवर्सिटी, तलवंडी साबो-१५१३०२ (बठिंडा, पंजाब) ९४१७६९२०१५.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “दरियादिली” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा “महबूबा“.)

☆ लघुकथा – दरियादिली  ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

एक महिला प्रतिदिन बिना नागा पार्क में प्रवेश करती। वहां मुंदी- अध मुंदी आंखों से लेटे हुए कुत्तों में जाग पड़ जाती।

उस महिला के पीछे -पीछे कम से कम दर्जन भर कुत्तों की फौज पीछे लग जाती। महिला रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े फेकती जाती और कुत्ता समूह रोटी चट करता जाता।
एक छोटा पिल्ला तो महिला की टांगों के बीच फंसा फंसा चलता। बड़े कुत्तों के कारण उसे रोटी कहां मिल पाती?

जब कभी महिला का ध्यान उस ओर जाता तो वह रोटी के एक दो टुकड़े उसके मुंह में डाल देती।

कुत्ता समूह खुश था। बैठे ठाले रोज उनकी दीवाली थी। दर्शक उस महिला की डटकर प्रशंसा किया करते।

एक दिन उस महिला की पड़ोसन यह दृश्य देखकर बोली-‘बड़ी आई धन्ना सेठी, खुद के सास ससुर को वृद्ध आश्रम में छोड़ आई और यह इधर कुत्तों को रोटियां खिलाकर पुण्य लूट रही है।’

महिला इन सब बातों से बेपरवाह थी। उल्टे उसने कुत्तों की रोटी की व्यवस्था के लिए एक महरी रख ली थी।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – पहरा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – पहरा )

☆ लघुकथा – पहरा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी। मेरे शिक्षक ने कहा – सोच पर पहरा नहीं होता। जो जी में आए, लिखो। मैंने डायरी लिखना शुरू किया।

मेरी शादी तय हो गई। माँ ने कहा – औरतों को सोच पर पहरा लगाना आना चाहिए। मेरी सारी डायरियाँ जला दी गईं।

अब मेरी बेटी दसवीं में पढ़ती है और डायरी लिखती है…!

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – दुनिया ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – दुनिया ? ?

समारोह के आमंत्रितों की सूची बनकर तैयार थी। जुगाड़ लगाकर प्रदेश के एक राज्यमंत्री को बुला लिया था। शहर के प्रमुख अख़बार के संपादक और एक चैनल के एक्जिक्यूटिव एडिटर थे। सूची में कलेक्टर थे, डीएसपी थे। कई बड़े उद्योगपति, जाने-माने वकील थे। अभिनेत्री को तो बाकायदा पेमेंट देकर ‘सेलिब्रिटी इनवाइटी’ बनाया था।

‘वे सब लोग आ रहे हैं जिनके दम पर दुनिया चलती है..’ लोअर डिवीजन की क्लर्की से रिटायर हुए अपने वयोवृद्ध पिता को लिस्ट दिखाते हुए इतरा कर साहब ने कहा।

‘ देखूँ ज़रा.., पर इसमें ईश्वर का नाम तो दिखता ही नहीं कहीं जिसके दम पर..,’ पिता ने चश्मे की गहरी नजर से एक-एक शब्द ध्यान से पढ़ते हुए अधूरा वाक्य कहकर अपनी बात पूरी की थी।

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 5.08 बजे, 21.12.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 3 – जूठन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा – जूठन।) 

☆ लघुकथा –  जूठन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जूठन समेटकर  एहतियात से पन्नी में भर रही थी। मैंने उसे बड़े गुस्से की नजरों से देखा

” मैं गुस्से में बोली यह क्या जाहिल पन है?”

तुम्हें शर्म नहीं आती है ऐसा करते हुए।

उस काम वाली बाई के ऊपर मेरी बातों का कोई असर नहीं हो रहा था। वह मेरी बातों को अनसुना सा कर रही थी।

बड़े ही इत्मीनान से वह सारी जूठन पन्नी में गांठ लगाते हुए बोली मेम साहब घर में मेरी मां बीमार है बहन और 5 साल की छोटी बेटी भी है।

उन्हें आज भरपेट खाना खिलाऊंगी आज खाने में बहुत सारे पकवान है मैं तो भगवान से यही प्रार्थना करती हूं कि आप और आपके बच्चे रोज इसी तरह खाना बनाने को काहे लेकिन वह खाना खाते कहां है प्लेट में थोड़ा सा लेते हैं यह पतीले का खाना जूठन कहां हुआ। छोड़ें में साहब आप लोग खाने की कीमत कहां समझोगे?

हम जैसे भूखे मरते लोगों का पेट तो भरेगा, और यह अच्छा खाना मिलेगा।  हमारी किस्मत में ऐसा परोसा  भोजन नहीं है। आप के कारण हमें यह सब अच्छी चीजें भी खाने को मिल जाती हैं।

मैं अवाक रह गई उसकी बातें सुनकर मैं स्वयं को बहुत बौना महसूस कर रही थी। उसकी आंखों में खुशी झलक रही थी।

जल्दी पहुंचने का उतावलापन उसकी आंखों में दिख रहा था। और तुरंत सारा सामान एक झोले में भरकर वह घर की ओर जाने लग गई मैं भी उसे दरवाजे में खड़ी हो कर देखती रह गई जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 175 – झरोखा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा झरोखा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 175 ☆

☆ लघुकथा – 🏠 झरोखा 🏠 

मन को भाए आनंदित, हर्षित, उमंग, और प्रेम से भरा बहुत ही सुंदर शब्द झरोखा। बड़े बुजुर्गों के पास बैठकर उनकी बातें सुनने में झरोखे में ही पूरी  रात की चर्चा हो जाती है। मन को अति प्रेमिल रोशन करती वह रोशनदान जिसे झरोखा कहें, न जाने कितने प्रेम गीत इस झरोखे पर बने और जीवन पर आधारित कहानी बनी।

रोमांचित करता झरोखा आज नवल किशोर को बहुत ही झकझोर रहा था। एक समय था जब उसके प्रेम में पागल वह दीवानी बस झरोखे से ही उसे देखा करती। न बातचीत ना कोई संदेश न और न मोबाइल का चलन कि झटपट मैसेज लिख दिया जाए। दिन का उजाला कोई देख न ले इस बात से, वह झरोखा सिर्फ पर्दा हिलता नजर आता।

सांझ ढले दीप जले कभी टिक-टाक बिजली का बटन जब जल बुझ जाए, झरोखा अपनी कहानी बनाना शुरु करती।

यूं ही मस्ती भरी शाम रात ढलते न जाने कितना समय निकल गया। नवल किशोर बस उस झरोखे का दीदार करते रहता था।

बस एक झलक और फिर टकटकी। यही पूरे दिन रात का काम हुआ करता था। पेशे से वकील न जाने कितने केस के बारे में पढ़ता और मनन करता।

परंतु जीवन का यह  झरोखा किसी जज के ऑर्डर की तरह मन की और भी व्याकुलता को बढ़ा रहा था।

आज वह ठान चुका था कि इस झरोखे पर वह जबरदस्त बिल पास करेगा। चाहे अंजाम कुछ भी हो।

नए वर्ष का जश्न गाँव, शहर, गली, मोहल्ला, सिटी सभी जगह अपने शबाब पर था। नवल किशोर खास समय के इंतजार में था। शहर में पढ़ा लिखा। भोर होते ही चल पड़ा उस झरोखे की ओर।

नए वर्ष की शुभकामना और बधाइयाँ  कुछ बात कह दूंगा। द्वार खुला एक वयोवृध्द दादा जी ने दरवाजा खोला— नवल किशोर प्रणाम करके ‘नूतन वर्ष मंगलमय हो’ – – अभी वह कुछ कह भी नहीं पाया कि रंग विहीन श्वेत फटी साड़ी में लिप्त वह झरोखा में जिसे देखा करता।

आज देखते ही आँखें बाहर होने लगी। अपने आप को संभाल वह उसे देखने लगा और देखते-देखते उसकी आँखों से आँसुओं की धार बहने लगी।

हाथों में सिंदूर का डिब्बा था। मुट्ठी बंद, खोलती, बंद करती वह यही कह रही थी – – – “क्या अब भी आप???” बस इतना सुनना था उंगली से उसका मुँह बंद करते हुए नवल किशोर ने– सिंदूर ले माँथे पर लगा कहने लगा – – “अब यह झरोखा मेरे जीवन की रोशनी होगी सदा सदा के लिए। नूतन वर्ष में हमारे नये जीवन की शुरुआत करते!!!!!”

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – विचारणीय… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘विचारणीय…’।)

☆ लघुकथा – विचारणीय… ☆

मच्छरों की आपातकालीन बैठक बुलाई गई थी, उसमें विभिन्न प्रकार के मच्छर थे, एनाफ्लीस मच्छर, क्यूलेक्स मच्छर, एडीज मच्छर,जीका वायरस का मच्छर, डेंगू बुखार का मच्छर और भी कई प्रकार के मच्छर थे,जो आदमियों से परेशान हो गए थे, सभी भिन भिन कर रहे थे,आपस में बातें कर रहे थे,शोरगुल था, तभी एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, कृपया शांत हो जाएं,आज की बैठक,आपके लिए,अपनों के लिए ही बुलाई गई है, पहले हमसे बचने के लिए, आदमी, हमसे बचाव के लिए मच्छरदानी लगा लेता था, फिर कुछ दिन बाद दवाइयां लगाने लगे कई कंपनियों की, फिर ऑल आउट,वगैरह जला देते थे, जिससे हम भाग जाते थे, परंतु अब उन्होनें नया काम किया है, मॉस्किटो नेट का जो रैकेट होता है,उसको बिजली से चार्ज करते हैं और जिससे जल कर हमारी मृत्यु हो जाती है,बहुत दुखदाई है, इससे बचाव के क्या साधन अपना सकते हैं, हमें विचार करना है, सभी मच्छर विचार कर रहे थे, पर कोई सुझाव नहीं सूझ रहा था.

तब एक बुजुर्ग मच्छर खड़ा हुआ, उसने कहा, सच है, आदमी हमें देख लेता है,और हम पर वार करता है, हमें जला देता है,मार देता है, परंतु आपको एक बात बताऊं, आदमी में अहम बहुत होता है,इस अहम के कारण खुद को नहीं देखता, आसपास देखता है, दूसरों को देखता है,खुद को नहीं देखता, आवश्यकता है कि मच्छर उससे कपड़ों से चिपके, आदमी अपने पास नहीं देखेगा,मच्छर सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि आदमी अपने अहम के कारण खुद को नहीं देखता है, सभी लोगों ने तालियां बजा कर सुझाव का स्वागत किया.

और इनके सामने मनुष्य की एक कमजोरी आ गई ,अहम के कारण व्यक्ति अपने आप को नहीं देखता, अपने आसपास नहीं देखता,हमेशा दूसरों को देखता है,दूसरों के पास क्या है, यही देखता है,खुद के पास क्या है,नहीं देखता.

सोचिए जरूर…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – खेल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा “खेल”।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – खेल – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

पिता को एक खेल सूझा। उसने अपने तीनों बेटों से कहा चलो देखते हैं कौन साँसें देर तक रोक सकता है।
पिता का कहना हुआ साँसे रोक कर जीवित रहना साधारण नहीं होता। पर जो ऐसा कर लेता है उसका नाम हो जाता है। पिता ने अब बात इस रूप में आगे बढ़ायी नाम रह जाने का वह स्वयं में एक प्रमाण है।
अब तो साल बीते। इस जमाने के लोग नहीं जानेंगे वह देर तक साँसें रोकने में कितना बड़ा खिलाड़ी था। उस समय के मित्र मिल जाते हैं तो उनके बीच यही बात सब के ओठों पर होती है। सारे मित्र तो हारने वाले थे। जीत के इस बंदे को आज भी वे सलाम करते हैं।
पिता ने इस खेल का जो खाका सामने रखा इसकी एक हल्की सी याद उसके मन में शेष थी। यही अपने बेटों को उकसाने का उसके लिए आधार हुआ। यह खेल अपने मित्रों के बीच एक बार हुआ था। जिस मरियल से लड़के ने अपने को जयी कहा था यह किसी ने माना नहीं था। हारे हुए सभी कहते रहे थे तुम बीच बीच में साँसें ले तो रहे थे। यह बहुत सूक्ष्म क्रिया होने से हमें दिखाई न दे पाता था। सच कहें तो तुम्हारे इस झूठ से हमारी आँखें खुल रही हैं। हम दस मिनट तक साँसें रोकने का कीर्तिमान स्थापित कर सकते थे।
पिता ने सदा अपनी जीत का जो बनावटी चिट्ठा बाँचा यह बेटों को रोमांचित कर रहा था। इस रोमांच का परिणाम कुछ देर में सामने आ जाता !
एक मित्र ने झूठ की आड़ से साँसें रोक कर बाकी को जिस तरह मूर्ख बनाया था पिता ने वही झूठ अपने बेटों के साथ किया। खेल तीनों बेटों के साथ शुरु हुआ तो पिता बेहद चुपके से साँसें ले कर सब को मात देता रहा। दो बेटों ने साँसों के इस खेल में पराजय मान कर पिता से कहा तुम जीते। पर एक बेटा हार न मान कर साँसें रोकने में तल्लीन बना रहा। पहले पिता को तो दुख हुआ वह अपने बेटे से हार गया। पर दूसरे क्षण जब उसमें बोध जागा कि इतनी देर तक कोई साँसें रोक नहीं सकता तो वह बेटे को झिकझोरने लगा। पर बेटा तो मर चुका था ! बेटा साँसें रोकने के इस खेल में सच्चा था। यही सच उसकी जान का दुश्मन हुआ।
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© श्री रामदेव धुरंधर

17 – 12 — 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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