हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “बेतार” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “बेतार?” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

मैं अपने परिवार सहित एक चाय की दुकान पर बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था और‌ सर्दी के चलते गर्मागर्म पकौड़े भी मंगवा रखे थे!

इतने में एक मजदूर किस्म का दिखने वाला आदमी आया ! मुझे लगा कि वह मेरे से कुछ मांगेगा या मांगना चाहता है लेकिन मेरे पास से निकल कर पीछे रखा पानी पीने चला आया। पानी पीकर वह फिर मेरे पास से गुजरा और‌ चुपचाप सड़क किनारे खड़ा हो गया – बिल्कुल उदास!

अचानक मैंने जैसे कोई संदेश उसकी आंखों में पढ़ लिया! मैंने बेटी से कहा कि इससे पूछकर आओ कि चाय पीओगे?

बेटी ने पूछा- पहले आप बताओ कि अगर वह हामी भर दे तो क्या आप चाय पिलाओगे?

– हां, क्यों नहीं?

बेटी भागकर गयी पूछने !

वह आदमी बिना ना नुकर‌ किये खामोशी से चला आया और बोला- बाबू जी, आया तो मैं इस सर्दी में आप से एक कप चाय पीने ही लेकिन यह कह नहीं पाया। आप कैसे जान गये?

-कभी डाकखाने गये हो?

– जी बाबू जी!

-वो टिक टिक करती तार देखी है?

– हां।

– तो वहाँ बिना किसी तार के संदेश जाता है कि नहीं?

– पता नहीं, बाबू जी!

– जाओ! चाय आ गयी!

और वह बिना कुछ समझे आंखें झपकाए चाय पीने लगा!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – आ लौट चलें ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ लघुकथा – आ लौट चलें ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“क्यों कलुआ की माँ,शहर में ही रहना है,या गाँव वापस चलना है ?”

“नहीं कलुआ के बापू हमें तो अपना गाँव ही भलौ है।क्या, करेंगे शहर में रहकर?”

“हां!दो-चार दिन के  रहने की बात और है,पर हमेशा को बिल्कुल नहीं,कलुआ की माँ।”

“हाँ!आप ठीक कह रहे हो। कलुआ तो सरकारी नौकर हो गया है,अब वह तो गाँव लौटने से रहा, वह तो यहीं शहर में ही रहेगा कलुआ के बापू।”

“बिल्कुल सही! पर हमारे तो अपने गांव,अपनी ज़मीन-जायदाद,अपनी माटी ,अपनी खेती-बाड़ी में जान बसती है, कलुआ की माँ।”

“अच्छा ठीक है हम यहाँ और नहीं रह रहे,कल ही गाँव लौट चलते हैं।”

“पर तुम खाना तो खा लो। गरम रोटियाँ गैस के चूल्हे पर सिंकी, कलुआ के बापू।”

” पर कलुआ की माँ! एक बात तो है कि यहाँ शहर में तो सब कुछ मशीनों से ही चलता है। चाहे रोटी हो चाहे ज़िन्दगी, गाँव के देशी चूल्हे पर सिंकी देशी रोटियों जैसा स्वाद यहाँ कहाँ?”

“हाँ कलुआ के बापू! चलो कल ही लौट चलें।”

इस पर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं।

 

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 20 ☆ लघुकथा – व्यथा-कथा धरती माता… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा  – “व्यथा-कथा धरती माता“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 20 ☆

✍ लघुकथा – व्यथा-कथा धरती माता… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

जैसे ही मुकुंद  फ्लैट में घुसे तो पत्नी ने पानी का गिलास हाथ में देते हुए कहा कि बच्चे कहते रहते हैं कि अपना घर कब होगा।  कुछ कीजिए न।

मुकुंद सपरिवार किराए के एक फ्लैट में रहते थे। वह निजी कंपनी में काम करते थे। उनकी पत्नी सुनाम्या घर संभालती थी मतलब गृहिणी थी। उनके दो बच्चे थे, बेटा दस वर्षीय अक्षय और बेटी आठ वर्षीय आम्या।  अक्षय चौथी और आम्या दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। छोटा परिवार सुखी परिवार। बच्चे स्कूल में तरह तरह की बातें सुनते हैं और उसी प्रकार घर में अपनी मांग रखते हैं।  दोनों बच्चों की क्लास में अक्सर घर की चर्चा होती। जो अपने घर में रहते वे अपने पर गर्व करते। किराए पर रहने वालों को कुछ अजीब सी दृष्टि से देखते। इसका अक्षय और आम्या दोनों को अपमानजनक सा लगता।  वे मन ही मन धरती माता से प्रार्थना करते कि अपने एक टुकड़े पर हमारे लिए भी घर बना कर दे दो। उन्होंने सुन रखा था कि धरती माता सबकी माता है और सबकी सुनती है।

दोनों बच्चे घर आकर मां से कहते कि मां हमने धरती माता से प्रार्थना की है कि हमें अपने एक टुकड़े पर अपना घर बना कर दे दे। मां कहती कि घर में रह तो रहे हो, अपना और किराए का क्या। बच्चे कहते नहीं मां जिनका अपना घर होता है वे किराए वालों को नीची निगाह से देखते हैं। चाहती तो सुनाम्या भी थी कि अपना घर और पति से कहती भी रहती थी कि छोटा ही सही पर अपना घर होना चाहिए। अपना घर अपना ही होता है। उसने मुकुंद को बच्चों की मांग दोहराई।  मुकुंद मुस्कराते हुए बोले, सुनाम्या क्या मैं नहीं चाहता कि अपना भी घर हो। बस धरती माता जगह दे दे।

एक जमीन पर प्लॉट बिकने की एक विज्ञप्ति अखबार में छपी थी। उसे लेकर मुकुंद का एक दोस्त उसके पास आया और कहने लगा, यार  इस जगह पर प्लाटिंग हो रही है। चलो हम एक एक प्लॉट खरीद लेते हैं। धीरे धीरे घर भी बन जाएगा। कब तक किराया भरते रहेंगे। काम खत्म होने पर दोनों अखबार में छपे पते पर गए। डेवलपर ने  प्लॉट दिखाए और जमीन के बारे में कई आश्वासन दिए। उसने घर बनाने के लिए कर्ज दिलाने में मदद करने का वादा भी किया। मुकुंद और उसका दोस्त दोनों खुश हो गए।  घर आकर सुनाम्या को बताया तो बहुत खुश हुई और बच्चे तो उछल पड़े और धरती माता को धन्यवाद देने लगे। मुकुंद ने अपनी बचत और सुनाम्या ने अपने कुछ जेवर की बलि देकर प्लॉट खरीद लिया। डेवलपर ने एक निजी बैंक से कर्ज भी दिलवा दिया। यूँ एक साल के अंदर घर बन गया। धीरे धीरे तीस चालीस घरों की एक कालोनी बन गई।

बच्चों का एडमिशन इस कालोनी के पास ही बने एक नये स्कूल में हो गया। स्कूल ज्यादा दूर न होने से बच्चे पैदल ही स्कूल जाते आते। सब कुछ ठीक चल रहा था। यहां रहते हुए भी तीन चार साल हो गए थे। एक दिन बच्चे स्कूल से घर आ रहे थे तो उन्होंने देखा कि उनकी कालोनी में काफी शोर शराबा है और घरों से धूल उड़ रही है। नजदीक जाने पर देखा कि उनके घर को वुलडोजर से तोड़ा जा रहा है। दोनों बच्चे दहाड़ मार कर रो पड़े। थोड़ी दूर खड़े मां बाप भी रो रहे थे।  आम्या मां का हाथ पकड़ कर चिल्लाने लगी कि मां हमें जगह धरती माता ने दी थी न, फिर ये लोग क्यों घर को तोड़ रहे हैं। सुनाम्या ने बेटी को गले से लगाया तथा और जोर से रो पड़ी, हां बेटी धरती माता ने ही जगह दी थी पर अब वो हमसे रूठ गई है।  जिन्होंने वहां घर बनाए वे सभी रो रहे थे। कोई रोते रोते तोड़ने वालों को गाली देता, कोई चिल्लाता। पर किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। आम्या मां बाप की ओर देखते हुए रो रही थी और कहती जा रही थी कि अब हम कहां रहेंगे। धरती माता रोक क्यों नहीं रही इन्हें। और, सुनाम्या यह कह कर बेटी को सांत्वना दे रही थी कि यह जगह धरती माता की नहीं, इन लोगों की है। और रो पड़ी, हे धरती माता!

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 122 – स्वर्ण पदक – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  स्वर्ण पदक

☆ कथा-कहानी # 122 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 3🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जैसा की अनुमान था, स्वर्णकांत ने परिवीक्षाधीन अधिकारी की परीक्षा पास की और देश के प्रतिष्ठित बैंक में दो वर्षीय प्रशिक्षण के लिये स्टॉफ एकेडमी गुरुग्राम की राह पकड़ी. पर इसके पहले जब मां ने स्वर्णकांत को अपने गुरुजनों और मार्गदर्शकों से उनके घर जाकर उन्हें मिठाई भेंटकर आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ने की सलाह दी तो स्वर्णकांत जाकर मिलने की बात, समय की कमी का बहाना बनाकर टाल गये. अब उनके मन में “स्वंय ग्रंथि” ने जड़ जमाने की शुरुआत कर दी थी जब उन्होंने यह सोचना शुरु कर दिया कि “शिक्षक तो बहुतों को पढ़ाते हैं,ये तो उनकी नौकरी का अंग है, सफलता तो प्रतिभाशाली छात्र को ही वरण करती है जो उनमें कूट कूट कर भरी है. जो गुरु उन्हें पहले सफलता के गुर सिखाते थे अब उनकी नज़रों में नज़रअंदाज करने लायक बन गये थे. गुरुग्राम, हैदराबाद के विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों और सभी व्यवसायिक प्रखंडों के व्यवहारिक ज्ञान से लैस होकर स्वर्णकांत जी ने दूसरे सर्किल में ज्वाइनिंग की और अनुभवों के समृद्धि कोष में निरंतर पायदान चढ़ते हुये विशालनगर की विशाल शाखा के मुख्य प्रबंधक की कुर्सी पर पदासीन हुये. इस पद का पदभार ग्रहण करने के पहले स्वर्णकांत ने अपना रूरल, और लाईन असाइनमेंट नाम करने के नाम पर पूरा किया.वे इस अवधि में हाईवेल्यू एडवांसेस के दुर्लभ विशेषज्ञ बन चुके थे तो उनकी अपरिहार्यता को देखते हुये ठीक 731वें दिन वे अपनी सिद्धहस्तता के बल पर विशिष्ट क्रेडिट एनालिस्ट की मनपसंद पोस्ट प्राप्त कर लेते थे. पहले एकेडमिक सफलता, फिर प्रतियोगितात्मक सफलता और फिर मैनेजर क्रेडिट की एक्सप्रेस क्रेडिट की सफलता ने जब अतिआत्मविश्वास रूपी व्याधि से उन्हें संक्रमित किया तो वो आत्मविश्लेषण की विधा में निपुण होने की जगह उसे अनावश्यक एक्सेसरीज़ समझकर किनारा कर बैठे और उसे नाग की केंचुली के समान उतार फेंकने में कामयाब हो गये.

जब विशालनगर की विशाल सेंटर शाखा में उनकी पदस्थापना हुई तो उनके पास अतिआत्मविश्वास था जिसके सामने घमंड भी खुद को छोटा महसूस करने लगता था, शैक्षणिक योग्यता और कैडर के डंके थे,प्रसिद्घ क्रेडिट एनालिस्ट की सर्किल स्तर की ख्याति थी, पर जो नहीं थी वह थी आत्मविश्लेषण करने की योग्यता जिसे उन्होंने हासिल करने की जरूरत भी नहीं समझी, अगर समझते भी तो किताबों में नहीं मिलती. विधाता अगर हर उँगली एक सी बना देता तो हाथों से लिखने पकड़ने की जगह सिर्फ एक ही काम हो पाता “करबद्धता”.

विशालनगर की ये शाखा कुरूक्षेत्र का मैदान थी जहां अच्छे अच्छे सूरमा ढेर हो जाते थे और उच्च प्रबंधन ने इनके प्रोफाईल को देखते हुये और इनकी क्रिटिकल ब्रांच संचालन की अनुभवहीनता को नज़रअंदाज करते हुये इन्हें कुरूक्षेत्र का अर्जुन समझकर रणभूमि में उतार दिया. ये उतर तो गये पर न इनके साथ कृष्ण थे न ही गीता का ज्ञान जो आध्यात्मिक से ज्यादा व्यवहारिक है.

पराक्रम कथा जारी रहेगी… 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 71 – हृदय के झरोखे में.… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हृदय के झरोखे में.।)

☆ लघुकथा # 71 – हृदय के झरोखे में…  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

” दिल करता है, बात न करूँ। “

” ऐसा क्यों कहते हो कि बात नहीं करोगे?”

” वो तो यूँ ही। ”  

” बड़े आये, यूँ ही कहने वाले! यूँ ही भी कुछ होता है क्या ?

” एक रोमांटिक गाना सुना दो”

” अच्छा आज तुम्हें क्या हो गया है रोज तो मेरे गाने से चिढ़कर चली जाती थी ।”

” वो मेरा मन – पसंद गीत जो तुम शादी से पहले मुझसे मिलने आए थे तब सुनाए थे।”

” तुम्हारा ही क्यों, वो तो मेरा भी है। ”

” तुमसे बात करना किसी संगीत से कम होता है क्या?”

” बहुत शैतान हो गयी हो। “

” इसमें शैतानी वाली क्या बात है?”

” मैंने तो कोई गीत नहीं गाया?”

” क्या ये जरुरी है कि गीत वही सुनाई दे, जिसे गाया भी जाय। मेरे लिए तो तुम्हारी आवाज ही संगीत है।”

” ये बात तो तुम पर ज्यादा सुहाती है। जब भी बात करती हो, लगता है कुछ न कुछ गुनगुना रही हो।

“और क्या कर रही हूँ।”

“ सच ही ये है कि तुमसे बात करते हुए, तुम्हारे ह्रदय की भाषा में, तुम्हारे भावों में डूबकर, हवा की तरंगों के वाद्यों के साथ तुम गा रही होती हो…।

“ जिसे सिर्फ तुम सुन रहे होते हो क्योंकि उसे सिर्फ तुम ही समझते हो।“

” शब्द संगीत भी बन सकते हैं, इसका एहसास तो तुमसे बात करने के बाद ही होता है।”

” मस्के की जरुरत है क्या?”

” तुम नहीं चाहतीं तो ठीक है।”

घनश्याम दास जी बिस्तर से नीचे गिर जाते हैं और उनका सपना टूट जाता है।

संगीता तुम इतनी जल्दी मुझे छोड़कर क्यों ऊपर चली गई, अब तो बस  हृदय के झरोखे में तुम्हारा एहसास रह गया है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 228 – सिंदूर में आशीष ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा सिंदूर में आशीष”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 228 ☆

🌻लघु कथा🌻 सिंदूर में आशीष🌻

मम्मी पापा बहुत ही नाज- नखरे से अपने बच्चों का परवरिश करते हैं। हर वह साधन उपलब्ध कराते हैं, जहाँ तक उनकी पहुंँच होती है। दिन-रात कड़ी मेहनत करके संतान के उज्जवल भविष्य की कामना सदैव ईश्वर से करते रहते हैं।

ऐसा ही परिवार कुसुम सोहन का। घर का वातावरण, सुंदर दो बच्चों की देखरेख, मध्यवर्ग का परिवार जैसा होता है, ठीक उसी प्रकार न ज्यादा खोने का डर, न पाने की चिंता।

बड़ा बेटा पढ़ाई के सिलसिले में बाहर गया था। शहर की हवा ऐसी लगी कि अब मम्मी-पापा पुराने ख्यालात के लगने लगे। फैशन की दुनिया में कदम रखा। छोटा बेटा अपने घर में आँखों का तारा बनकर रहा, परंतु फिर भी मां-बाप बड़े बेटे की याद में आँसू बहाते रहते।

समय किसी के लिए कहाँ रुकता है। आज घर के आँगन में बैठी मम्मी सब्जी की टोकरी के साथ अपने ख्यालों में थी। अचानक उठी और आवाज लगाई— अजी सुनते हो, चलो जल्दी से तैयार हो जाओ बेटे के पास जाना है। मन बहुत परेशान हो रहा है। पतिदेव ने पत्नी की आवाज ममत्व को व्याकुल होते देखा, जाना ही उचित समझा।

कुछ लेकर नहीं जाओगी? सुना है। उसने शादी कर लिया है। माँ ने कहा— आप चिंता ना करें। छः घंटे की सफर के बाद दरवाजे की घंटी बजी।

अस्त-व्यस्त, परेशान अपने उम्र से सयानी दिखती महिला ने दरवाजा खोला। अंदर कराहने की आवाज!!! कौन है, कौन है, शैली कोई आए हैं क्या??

अंदर ले आओ आँखे जैसे पत्थर की बन चुकी थी। समझते देर न लगी यह बहू ही है। परंतु यह क्या यह तो घर की बाई जैसे दिख रही है। इशारे को समझ वह दो गिलास पानी लेकर सिर पर पल्लू डाल ली।

माँ ने देखा दुनिया की चका चौध, फालतू के खर्चे, बीमारी से कुछ ना बचा था, नौकरी भी हाथ से निकल चुकी थी, चरणों पर वह गिर पड़ी— माँ!!  मैं यहां से चली जाऊंगी। आप इन्हें घर ले जाइए इन्हें बचा लीजिए।

रोते-रोते वह बदहवास सी होने लगी। माँ ने धीरे से आँचल की गाँठ से लाल सिंदूर निकाल शैली की मांग पूरी भरते आशीषों की झड़ी लगा दी।

घर बाद में जाएंगे। चलो पहले अस्पताल चलते हैं। सब ठीक हो जाएगा।

आईने में अपने को शैली ने देखा मांग पूरी भरी हुई – – सिंदूर की लालिमा से वह आज चमक उठी है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गद्य क्षणिका – थपेड़े… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– थपेड़े…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ — थपेड़े — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

आकाश प्रेम से देखता था, चाँद आत्मीयता से तकता था, पृथ्वी खुशी से स्पंदित होती थी। यह एक बालक के जन्म का उत्सव था। अच्छा करने में बालक की अद्भुत लगन थी। पर बालक बड़ा होने की प्रक्रिया में परिवर्तित दिखायी दिया। तब तो आकाश, चाँद और पृथ्वी का उत्सव शिथिल पड़ गया। बालक पूर्व जन्म से कुछ ले कर धरती पर आया था जिसे जमाने के थपेड़ों ने नष्ट करके उसे अपने धरातल पर खड़ा कर लिया था।

 © श्री रामदेव धुरंधर

16 – 05 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – उनकी खुशी… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा उनकी खुशी

? लघुकथा – उनकी खुशी ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

उनका विवाह 18 वर्ष की उम्र में हो गया था. शादी की रस्में निभाते हुए दो-तीन दिन बीत गए. अगली सुबह नहा धोकर वे रसोई में गईं. सास नाश्ता तैयार कर रही थी. उन्होंने सास के चरण स्पर्श किए फिर बोलीं – “मांजी, लाइए मैं नाश्ता बनाती हूं. “ सास गदगद हो उठी. आशीर्वाद देते हुए बोली- “ बहू अभी तो तुम्हारे हाथों की मेहंदी भी नहीं छूटी है. जाओ कुछ दिन आराम कर लो फिर तो तुम्हें ही सब संभालना है. . ” वह बोलीं – “ मांजी, आप भी तो अकेले काम करते हुए थक जाती होंगी मैं बना लेती हूं आप आराम करिए. . ” सास ने निहाल होकर बहू को देखा और रसोई से बाहर आ गई. वे रसोई में गईं तो फिर बाहर नहीं आ पाईं. एक एक करके सभी कार्यों की जिम्मेदारी उन पर डाल दी गई. बड़े यत्न पूर्वक काम करके सास को खुश रखने में जुटी रहतीं. सास बेहद खुश थीं. सभी से कहती मेरी बहू तो हीरा है. वे स्वयं को धन्य मानती.

आज उनका बेटा अपनी मनपसंद बहू ले आया. दो चार दिनों बाद बहू रसोई में आई – “ मम्मा मेरे करने लायक क्या काम है?” उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा. अपना अतीत याद आ गया बोलीं – “ बेटा, अभी कुछ दिन आराम कर लो. काम करने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है.” वह रसोई से बाहर निकल गई और फिर पलटकर नहीं आई. उसके पास समय ही कहां है.! सहेलियां, क्लब, किटी पार्टी, ब्यूटी पार्लर, टीवी में इतनी व्यस्त रहती है रसोई में कैसे जाए!

बहू की सहेलियों की महफिल जमती है तो वे पकौड़े, चाय, नाश्ते बनाकर पेश करती हैं. बहू सहेलियों से कहती है – “ मम्मा इतनी ग्रेट हैं मुझे तो कुछ काम करने ही नहीं देती. मैं बड़ी लकी हूं.. ” सुनकर वे खुश तो होती है पर फुर्सत के क्षणों में सोचती हैं आधी उम्र सास को खुश रखने में बीत गई अब बहू को खुश रखने में बीत रही है फिर उनकी अपनी खुशी का क्या हुआ..?

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपर्क –  सी-१२०३, वाटर्स एज, विशालनगर, पिंपले निलख, पुणे- ४११०२७ (महाराष्ट्र) मो.  9325261079 

Email-  [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “मिसफिट…!” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “मिसफिट…!” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

अचानक वह एक ऊंचे पद पहुंच गया। उसे उच्च पद के मुताबिक बड़ी गाड़ी भी मिली और सरकारी बंगला भी ! वह हैरान हुआ यह देखकर कि उसका ऑफिस कुछ कदमों की दूरी पर ही है। वह सुबह ड्राइवर को गाड़ी के लिए मना कर पैदल ही मस्ती में ऑफिस पहुंच गया ! सबके सब चौंक गये और दूसरे अधिकारी समझाने आये कि ऐसे ऑफिस थोड़े आते हैं।

 – फिर कैसे आते हैं?

– ऑफिस की गाड़ी पर ! आप तो सारा डेकोरम ही तहस नहस कर दोगे !.

दूसरे दिन वह ऑफिशियल गाड़ी में तो आया लेकिन इससे पहले कि ड्राइवर उतर कर आये और गाड़ी का दरवाजा खोले, वह अपने आप ही दरवाजा खोल कर उतर गया!.

फिर साथी अधिकारियों ने हल्ला मचा दिया और ऑफिस में आकर समझाने लगे कि ड्राइवर को गाड़ी का दरवाजा खोलने की परंपरा निभाने दीजिये, नहीं तो ये सिर पर चढ़ जायेंगे !

वह फिर अनाड़ी ही साबित करार दिया गया !

फिर वह एक क्लब में दोपहर का खाना खाने गया और ड्राइवर को सामने बिठा कर लंच का ऑर्डर दे दिया!.

तभी फोन की घंटी बजी, ऐसी बात सुनने को मिली, जैसे कानों में कोई गर्म गर्म तेल डाल गया हो!

फोन क्लब के प्रेजिडेंट का था जो कह रहा था कि आप कितने स्ट्रगल के बाद इस पद पर पहुँचे हो और ड्राइवर यहाँ अलाउड नहीं हैं, आप इसे बाहर बिठा कर लंच करवा सकते हो !.

ओह! शिमला का माॅल रोड याद आ गया, पता नहीं क्यों?

वहाँ कभी लिखा रहता था – डाग्स ए़ंड इंडियन्स आर नाट अलाउड!

अब वह सोचता जा रहा है कि कैसा विहेव करे ! कहीं वह मिसफिट तो नहीं?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ८ – लघुकथा – सन्नाटा ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ८ ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ सन्नाटा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

मुकुंद साहब की गाड़ी के पोर्च में पहुंचते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। इधर-उधर, आने -जाने और हर वक्त तफरी की मूड में रहने वाले कर्मचारी बाएं दाए हो लिये। गाड़ी के पास सिर्फ एक-दो गार्ड और चपरासी मिलन मोढ़ा के सिवाय कोई नहीं था।

गाड़ी के रुकने के साथ ही गार्ड ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला। मुकुंद साहब अपनी गाड़ी से उतर कर चेम्बर की ओर बढ़ गए। ऑफिस प्यून मिलन मोढ़ा ने बड़े साहब का ब्रीफकेस उठाया और उनके पीछे हो लिया।

इधर मुकुंद साहब, अपने चेम्बर में दाखिल हुए तो मिलन मोढ़ा पुनः वापस आकर बारामदे में बैठ गया।

मुकुंद साहब के ऑफिस में अभी कुछ देर पहले जहाँ शोर-गुल, चहल पहल थी, अचानक सन्नाटा सा छा गया।

मुकुंद साहब का एकाकी जीवन, उनसे न जाने कितने सवाल पूछ रहा था। वहीं आफिस से जुड़े अनेकों सवाल मुकुंद साहब का जीना हराम कर दिए थे।

मुकुंद साहब के ऑफिस की ढेर सारी जिम्मेदारियाँ तो अलग थीं हीं थीं, मुकुंद साहब के घर में ही नाग की तरह फन फैलाये हुए कई उलझें मामले उन्हें बेचैन करने के लिये काफी थे।

मुकुंद साहब के इकलौते बेटे की आदत, बड़े लोंगो की संगत, ऐशोआराम और हास्टल में रहने के कारण काफी खराब हो गई थी। इस बात की चिंता साहब को बार-बार बेचैन किये जा रही थी।

लेकिन साहब होने की सजा यह थी कि उनके पास इस बात को शेयर करने के लिए एक अदद आदमी नहीं था। वे अपने जूनियर अधिकारियों के सामने अपने घर का राज नही खोलना चाहते थे, वहीं अपने बॉस से ऐसी घरेलू बातें करना प्रोटोकॉल तोड़ना था।

आज मुकुंद साहब का मन बुरी तरह से घबरा रहा था। एक तरफ जहाँ ऑफिस की फाइलें उनका सिर नोच रहीं थी तो दूसरी तरफ घरेलू मानसिक तनाव से वे इस कदर परेशान थे कि अपने कमरे में अकेले बैठे हुए अपने सिर के बालों को अपने दोनों हाथों से नोच रहे थे।

मिलन मोढ़ा खिड़की की दरार से यह सबकुछ देख रहा था। उसका मन उससे बार-बार कह रहा था कि वह साहब से जाकर पूछ ले कि आखिर उन्हें परेशानी क्या है। लेकिन साहब के आगे कुछ कहने की क्या, मुंह खोलने की हिम्मत उसके पास नहीं थी। आखिरकार वे उसके विभाग के सबसे बड़े साहब थे।

अपने तनाव से मुकुंद साहब इतने परेशान हो गए कि अंततोगत्वा वे थक कर केबिन के पीछे बने रेस्ट रूम में पड़े बेड पर जाकर लेट गए।

एक बार तो उनके मन में आया कि वे अपनी इस बात को अपने आफिस चपरासी मिलन मोढ़ा को बुलाकर कह दे ताकि उनका तनाव कुछ हल्का हो जाए, लेकिन इतना कहने की भी हिम्मत वे जुटा नही पाए। जबकि उनके साथ सबसे अधिक समय बिताने वाला इकलौता मिलन मोढ़ा ही था। बाकी उन्हें तो अपने चेंबर में अकेले रहना ही रहना होता था।

कार के पास से उनकी ब्रीफकेस को आफिस तक ले जाने से लेकर पूरे टाइम, उनके नाश्ते – पानी का सारा इंतजाम मिलन मोढ़ा ही करता था। लेकिन वह उनके कमरे में देर तक रुकता ही कहां था। साहब का आदेश पूरा होता और वह बाहर आकर एक छोटी सी चेयर पर बैठ जाता था।

आफिस का हर कोई डरते डरते उनके कमरे में प्रवेश करता था और अपनी फाइल हो जाने के बाद, जी साहब नमस्ते! कहते हुए वहां से खिसक लेना चाहता था।

इधर साहब की हनक और आफिस के प्रोटोकॉल के कारण स्थिति ऐसी थी कि वे यह कैसे कह दे कि…नौटियाल साहब दो मिनट रुक जाइए, मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं।

जबकि नौटियाल साहब उनके आफिस में ए0ओ0 थे और बड़े ही मिलनसार एवं सज्जन प्रवृत्ति के व्यक्ति थे।

बड़े बाबू और साहब के बीच का रिश्ता फाइल, नोटशीट और प्रस्ताव से अधिक कुछ भी नहीं था।

मुकुंद साहब जिस आवासीय कॉलोनी में रहते थे उस कॉलोनी में उनके स्तर के दो तीन ही अधिकारी ही रहते थे, बाकी सभी मीडियम क्लास के लोग रहते थे।

उन्हें अपने आवासीय कैंपस के पार्क में भी अकेले ही टहलना पड़ता था। इसके लिए भी उन्हें अलग से समय निकालना पड़ता था ताकि कॉलोनी के अन्य सामान्य लोग उनसे टकरा न जाएं।

वैसे भी कॉलोनी के अन्य सारे रेजिडेंट उनको देखकर यह कहते हुए रास्ता बदल देते थे कि इनसे बातचीत करने से फायदा ही क्या है। ये तो बड़े लोग हैं, हम मध्यमवर्गीय लोगों से क्या बात करेंगे।

वहीं दूसरी तरफ पार्क के झूलों पर और वहां पड़े तखत पर बैठे, मध्य स्तर के लोंगो को आपस में मस्ती करते हुए देखकर मुकुंद साहब का मन दुखी हो जाता था लेकिन न जाने कौन सी ऐसी बात थी, जो उन्हें इन सामान्य लोगों से मिलने से रोक देती थी।

आखिरकार एक दिन मुकुंद साहब के अंदर का तनाव इस कदर बढ़ गया कि वे आफिस से घर जाने के लिए जल्दी निकल लिए। मेट्रो स्टेशन के पास पहुंच कर ड्राइवर को कार रोकने के लिए बोलते हुए कहा –

महेश ! तुम मुझे यहीं उतार दो और वापस लौट जाओ। मुझे कहीं और जाना है। महेश को कुछ भी समझ में नहीं आया कि आखिरकार साहब ने उससे ऐसा क्यों कहा। ऐसा तो उन्होंने आज तक कभी भी नहीं किया था। कहीं जाना भी होता था तो कार से ही जाते थे।

मुकुंद साहब ने ऐसा क्यों किया, यहां से वे कहां जाएंगे यह सब सोचते हुए, कार का ड्राइवर कार को लेकर वापस लौट गया।

आज बहुत दिनों बाद मिलन मोढ़ा समय से पहले घर वापस जा रहा था। कारण यह था कि साहब आज समय से पहले ही निकल गए थे, वरना तो हर रोज मिलन को घर पहुंचने में देर रात हो जाया करती थी। मिलन मोढा आज बहुत खुश था। बहुत दिनों के बाद मिलन को शाम के समय अपने परिवार- बच्चों के पास बैठने और उनसे बातचीत करने का मौका मिलने वाला था।

मिलन अपने घर के नजदीक के मेट्रो स्टेशन पर पहुंचकर स्टेशन से बाहर को निकला। मेट्रो स्टेशन के निकास द्वार के सबसे निचली सीढ़ी के एक किनारे एक व्यक्ति को अपने हाथ में ब्रीफकेस लिए हुए, सिर को दोनों घुटनों के बीच में झुकाए हुए बैठा देखकर मिलन मोढ़ा कुछ देर के लिए ठिठका लेकिन फिर वह आगे बढ़ लिया। उसे सीढ़ी बैठा हुआ व्यक्ति कुछ जाना पहचाना सा लगा।

कुछ दूर आगे बढ़कर उसने दुबारा पीछे मुड़कर देखा तो वह हक्का-बक्का रह गया। लेकिन वह खुद से इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पाया कि सीढ़ियों के पास लौटकर आकर पूछ ले कि साहब आप यहाँ ऐसे क्यों बैठे हैं।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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