हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा –  ??‍?  गुड्‍डी  ??‍? – सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी का e-abhivyakti  में स्वागत है। प्रस्तुत है उनकी लघुकथा ‘गुड्डी’। सुश्री सिद्धेश्वरी जी ने जीवन के कटु सत्य को बड़े ही सहज तरीके से लिपिबद्ध कर दिया है। संभवतः यही उनके लेखन की विशेषता है। ) 

??‍?  गुड्‍डी  ??‍?

गांव में एक संभ्रांत परिवार में जन्‍मी गुड्‍डी बहुत ही सुंदर, सुशील और गुणवान थी। बचपन बहुत सादगी से बीता। गांव में स्‍कूल नहीं होने से पढा़ई भी नही कर सकी। पढा़ई का बहुत शौक था उसे।  कहीं की किताब और कहीं का भी पेपर हमेशा पढ़ कर दूसरों को सुनाती थी । बाल विवाह बहुत खुशी खुशी कर दिया गया । गुड्‍डी दुल्‍हन बन गई। दुल्‍हन बनने के बाद जैसे उसका बचपन छीन सा गया। चहकती फिरती अब वह घर का काम करने लगी। विधी का विधान उसका पति जो उम्र में  २ साल बड़ा था, गांव में मस्तिष्क ज्‍वर के कारण उसकी मृत्‍यु हो गई ।

गुड्‍डी अब बाल विधवा बन चुकी थी । सारा समय कोई न कोई उसे ताने देता रहता । किसी के कारण वह बहुत परेशान भी होती । बचपन में उसे समझ में नहीं आया कि ये सब क्‍या हो रहा है । मगर थी तो बच्ची ही, खेलना कूदना उसे भाता था । दिनचर्या फिर से शुरु हो गई । मगर ताने का सिलसिला जारी रहा । जैसे जैसे बड़ी हुई उसे सब बातें बड़ों के द्‍वारा सुनने पर समझ में आने लगी। सुंदरता की मूरत मगर सफेद साडी़ सबका मन एक जैसा नहीं होता। कोई उसकी बेबसी और कोई उसकी तरफ अलग दृष्टि रखने लगा। वह भी सब जान रही थी। गांव में ही सिलाई केन्‍द्र खुला। उसने उसमे दाखिला ले अपनी जीविका चलाने लगी । घर वाले भी खुश थे कि अब उसका जीवन यापन चल जाएगा। पर सपने और हकीकत कुछ अलग अलग होते हैं ।

पास मे एक निम्‍न जात का एक अच्छा लड़का गुड्‍डी को बहुत ही चाहने लगा था। उसे आते जाते देखता, उसकी तकलीफ देखकर उसको सहारा देना चाहता था। पर बडे़ समाज के बंधन और रीति रिवाज के कारण वह बोल नहीं पा रहा था। एक दिन हिम्मत कर उसने गुड्‍डी से अपनी मन की बात रखी, वह भी उसको मन ही मन अच्छा लगता था। तो तैयार हो गई।  मंदिर में विवाह कर लिया दोनों ने।

दोनों के परिवारो ने उन्हें अलग कर दिया। अपनी दुनिया बसा ली उन्होंने। समय पंख लगा कर उड़ चला। दो सुंदर बेटियों को गुड्‍डी ने जन्म दिया। मगर तानों की कमी नही थी। हमेशा चलते आते जाते उसे सुनना ही पड़ता। धीरे धीरे वह मानसिक रूप से परेशान होने लगी। एक दिन उसका पति गांव से बाहर था और बच्‍चियां स्‍कूल में। मन में उठते सवाल जवाब को लेकर वह चुल्‍हे पर खाना बना रही थी। अचानक ही साडी़ का पल्‍ला आग की चपेट में आ गया। उसे सुध नहीं थी और ना ही उसने अपने आप को बचाने की कोशिश की। क्षण भर में जीवन समाप्त हो चला।

अर्थी उठाई गई, अब गुड्‍डी को सब देवी मानने लगे। सभी गांव वालों की सहानुभूति अचानक जग उठी। मगर गुड्‍डी का पति इन सब को जानता था। वह सब काम निपटने के बाद अपनी बेटियों को लेकर दूसरे शहर चला गया। जहाँ वह स्कूल की जिन्दगी और अपनी बेटियों को पाल सके। बड़ी बिटिया ने शहर में पढ़ लिख कर ब्‍यूटिशियन का कोर्स कर अपनी  माँ के नाम पर “गुड्‍डी ब्‍यूटी पार्लर” खोल दिया और छोटी बिटिया स्‍कूल की अध्यापिका बन गई। गांव की सारी महिलाए उसके पार्लर पर आने लगी, अब गुड्‍डी उनके लिए देवी बन गई। और सब उसी के जैसी सुंदर और सुशील होना चाहती है। जिसको पल पल जिल्‍लत की जिन्दगी मिली उसी के तस्वीर की पूजा कर सब अपने परिवार की सुख शांति मांगने लगे है । उस गांव में अब गुड्डी,  ‘गुड्डी देवी ” बन चुकी थी।

© सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर मध्य प्रदेश

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ छुटकारा ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी का e-abhvyakti में हार्दिक स्वागत है। आप एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। हम भविष्य में ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।)  

 

☆ छुटकारा ☆

 

“अभिनव, पापा जी को बोलो न, वे वहाँ खड़े-खड़े क्या सामान गिन रहे हैं? एक तरफ जाकर बैठ क्यों नहीं जाते? कहीं किसी मजदूर का सामान ले जाते हुए धक्का लग गया तो व्यर्थ ही अस्पताल भागना पड़ेगा और तुम तो जानते ही हो कि अभी हम यह जोखिम नहीं उठा सकते। नये मकान में कितना काम पड़ा है। जाओ और उन्हें समझा दो कि हम केवल अपना ही सामान ले जा रहे हैं, वे निश्चिंत रहें, हम उनका कुछ भी नहीं ले जाएंगे।” पाठक जी को बरामदे में खड़ा देख कर नेहा ने कुढ़कर पति से कहा।

“हाँ, तुम ठीक कह रही हो, अभी कहता हूँ।” अभिनव ने कहा।

“अरे पापा जी, क्या आप से चैन से बैठा नहीं जाता? आते-जाते किसी मजदूर का धक्का लगेगा तो आपका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, बैठे-बिठाए हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। जाइये, अपने कमरे में आराम से बैठिये।” अभिनव ने मानो पिता को वहाँ से धकेलते हुए कहा।

सहसा पुत्र की झिड़की का कोई जवाब नहीं दे सके पाठक जी, चुपचाप अपने कमरे में आज्ञाकारी बालक की भाँति जा बैठे। उधर सामान ट्रक में लादा जा चुका था। तभी पाठक जी का पोता डुग्गू उन्हें ढूँढ़ता हुआ वहाँ पहुँच गया और बोला, “अरे दादू आप यहाँ क्यों बैठे हैं, क्या आप को चलना नहीं है? सारा सामान तो लादा जा चुका है और आप अभी तक तैयार भी नहीं हुए? चलिये जल्दी करिये।”

“अरे नहीं डुग्गू, मैं वहाँ भला कैसे जा सकता हूँ, यहाँ भी तो कोई रहना चाहिये ना!” पाठक जी ने अपने अंदर उठते तूफान को थामते हुए बोला।

“तो ठीक है, मैं अभी पापा जी को कह देता हूँ कि मैं भी यहीं रहूंगा। वैसे भी आप अकेले यहाँ कैसे रहेंगे? कोई तो आपके साथ होना चाहिये ना?” डुग्गू जैसे सहसा बहुत बड़ा हो गया था।

“चलो डुग्गू, देर हो रही है, गाड़ी में बैठो। आप भी पापा जी इसे बातों में उलझाए हुए हैं, क्या आपको दिखाई नहीं देता कि हम कितने व्यस्त हैं?”  नेहा ने पाठक जी को डांटते हुए कहा।

“मैं दादू के साथ ही रहूंगा मम्मी, यहाँ अकेले दादू कैसे रहेंगे? देखती नहीं हो कि दादू कितने बीमार हैं? मैं जाऊंगा तो दादू को भी ले जाना पड़ेगा।” डुग्गू ने जैसे अपना निर्णय सुना दिया।

“डुग्गू तुम्हारी बहुत जुबान चलने लगी है, चलो अब बकवास बंद करो और चलकर गाड़ी में बैठो। बड़ी मुश्किल से तो इनसे छुटकारा मिला है। रात भर खाँसते हैं, न खुद सोते हैं और न दूसरों को सोने देते हैं।” नेहा डुग्गू को बाजू से पकड़कर खींचकर ले जाते हुए बड़बड़ाई।

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उदासी ☆ – श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 

 

(श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है श्री अरोड़ा जी की मानवीय संवेदनाओं पर आधारित लघुकथा ‘उदासी’। हम भविष्य में श्री अरोड़ा जी से उनके चुनिन्दा साहित्य की अपेक्षा कराते हैं।)

 

☆ उदासी ☆

 

‘कभी कभी ऐसा क्यूँ हो जाता है कि बिना वजह हमे उदासी घेर लेती है? ‘

‘ तुम उदास हो क्या?’

‘ उदास तो नहीं पर खुशी भी महसूस नहीं कर पा रहा ।’

‘ मेरा साथ तो तुम्हें पसन्द है और मैं तुम्हारे साथ हूँ । फिर भी तुम उदास हो । कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारा मन मुझसे भर गया है ? ‘

‘ ऐसी बातें मत करो । इससे मेरी उदासी बढ़ जायेगी । ‘

‘ फिर तुम भी उदास होने की बात मत करो ।’

‘ यार! एक बात बताओ, जिंदगी क्या  सिर्फ हमारी – तुम्हारी  दिनचर्या का नाम है ? ‘

‘ ऐसा क्यों सोच रहे हो? हम हर दिन उन सारे लोगों से मिलतें हैं, जिनसे हमें कोई न कोई काम होता है । बेमतलब तो किसी से बात नहीं की जा सकती न ।’

‘ बस इसे ही जिंदगी कहते हैं क्या?’

‘ और क्या होती है जिंदगी? आज ऐसा क्या हुआ जो नहीं होना चाहिए था और ऐसा क्या नहीं हुआ जो होना चाहिए था कुछ समझ नहीं आया । आखिर कहना क्या चाहते हो ? ‘

‘ यही कि वो आदमी कितनी शिद्दत से जिन लोगों की जिंदगी के गड्ढे भरने की कोशिश कर रहा था ‘ वो उसी गड्ढे में गिरकर मर गया जिसे उन लोगों ने उसे भरने नहीं दिया । मतलब उसे जबर्दस्ती मार दिया गया ।’

‘ तो क्या इसीलिए उदास हो? ‘

‘ क्या मेरी उदासी के लिए ये वजह काफी नहीं है कि उस आदमी ने जिन लोगों के लिए गड्ढों को भरने की कोशिश की वही उसकी मौत का कारण बन गए! ‘

‘ समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारे साथ रहकर, तुम्हें पहले से ज्यादा प्यार करूँ या तुम्हें तुम्हारी कँकरीली  उदासियों के बीच  छोड़कर किसी  सरपटी  नरम  राह की राहगीर बन जाऊं ? ‘

‘ अच्छा तो यही होगा कि तुम कोई नरम राह चुन लो ।’

‘ तुम्हें पता भी है कि हर नरमी को कठोर धरातल की जरूरत होती है। नहीं तो वह नरमी कुछ देर बाद धंस कर गड्ढा बन जाती है । और हाँ, तुम्हारी उदासियों से वो आदमी जिन्दा नहीं हो जायेगा ।’

‘ तो क्या करूं? ‘

‘ उठो और उसकी तमाम कोशिशों के बाद भी जो गड्ढे भरे नहीं जा सके, उसकी वजह खोजों और उन्हें भरने की कोशिश भी करो । फिर देखना वो आदमी फिर से जिन्दा हो उठेगा ।’

वो स्नेह सिक्त मुद्रा में उसे देखने लगा ।

 

© सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ भेड़िया ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा  भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी की शब्द चयन एवं सांकेतिक शैली  मौलिक है। )

 

☆ भेड़िया ☆

 

वह नियमित रूप से भगवान के पूजन अर्चन हेतु  मंदिर जाती थी । वैधव्य के अकेलेपन को वह भगवान के चरणों मे बैठकर दूर करने का प्रयास करती ।

कुछ दिनों से वह महसूस कर रही थी कि पुजारी उस पर ज्यादा ही मेहरबानी दिखा रहा है ।

एक दिन पुजारी ने उसके हाथ से पूजा की थाली लेते हुए कहा — ” शाम को हमारे निवास पर सत्संग का कार्यक्रम है , आप अवश्य पधारें । ”

उसने विनम्रता से पुजारी से कहा — ”  मैं अवश्य आती यदि आपकी आंखों में मुझे वासना की जगह वात्सल्य नजर आता । तुम भेड़िया हो सकते हो किन्तु में भेड़ नहीँ हूँ ।  ” वह मंदिर से लौटते हुए सोच रही थी कि भगवान ने हम महिलाओं को पुरुषों की नजर पढ़ने की

विशेष क्षमता दी है, फिर भी महिलाएं इन वहशियों के जाल में कैसे फँस जाती हैं?

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कोहराम ……. ☆ – डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता

 

(डॉ . मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की  मातृ दिवस पर विशेष लघुकथा कोहराम …… ।)

मातृ दिवस विशेष 

☆ कोहराम ……. ☆

रेवती के पति का देहांत हो गया था। अर्थी उठाने की तैयारियां हो रहीं थीं।

उसके तीनों बेटे गहन चिंतन में मग्न थे। वे परेशान थे कि अब माँ  को कौन ले जायेगा? उसका बोझ कौन ढोयेगा? उसकी देखभाल कौन करेगा? इसी विचार-विमर्श में उलझे वे भूल गये कि लोग अर्थी को कांधा देने के लिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

श्मशान से लौटने के बाद रात को ही तीनों ने माँ को अपनी-अपनी मजबूरी बताई कि उनके लिये वापिस जाना बहुत ज़रूरी है। उन्होंने माँ को आश्वस्त किया कि वे सपरिवार तेरहवीं पर अवश्य लौट आयेंगे।

उनके चेहरे के भाव देख कोई भी उनकी मनःस्थिति का अनुमान लगा सकता था।

उन्हें देख ऐसा लगता था मानो एक-दूसरे से पूछ रहे हों ‘क्या इंसान इसी दिन के लिये बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करता है? क्या माता पिता के प्रति बच्चों का कोई कर्त्तव्य नहीं है?’ वे आंखों में आंसू लिये हैरान, परेशान चिंतित एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे। उनके भीतर का कोहराम थमने का नाम नहीं ले रहा था।

ऐसी स्थिति में रेवती को लगा, सिर्फ पति ही नहीं, शेष संबंधों की डोरी भी खिंच गयी है। उसके टूटने की आशंका बलवती होने लगी है।

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003

ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ एक मुकदमा ☆ – श्री संदीप तोमर

श्री संदीप तोमर 

☆ एक मुकदमा ☆

(e-abhivyakti में श्री संदीप तोमर जी का स्वागत है। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में सृजन कार्य किया है और कई सम्मानों एवं अलंकरणों से सुशोभित हैं। आपके उपन्यास “थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स” ने आपको चर्चित उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। हम भविष्य में ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के लिए और भी साहित्य की अपेक्षा करते हैं।)

 

ऐतिहासिक मुकदमा था। कोर्ट परिसर लोगो से अटा पड़ा था। न्यायाधीश ने कहा-“सानन्द जी, आपने जो केस फाइल किया, उसमें आपने अपनी माँ की मृत्यु अस्थमा से बताई है, लेकिन साथ ही आपका कहना है कि आपकी माँ की की हत्या हुई है, आप क्या कहना चाहते हैं स्पष्ट कहिये।”

“माता जी दीवाली पर सदा परेशान रहती थी। मेरा घर कालोनी के ऊपर के माले पर है, नीचे बमों की लड़ी, और बम पटाखों का धुआं सीधा ऊपर आता था। जज साहब यकीन करिये , माँ का  दम घुटने लगता था। वो  80 वर्ष की थी, मेरी माता जी का क्या हाल होता होगा, आप अंदाजा लगा सकते है। वो तड़पती थी।“

लेकिन आप जाकर बोल सकते थे, पुलिस के पास जा सकते थे।“-न्यायधीश ने कहा।

“दीवाली पर किसे नीचे जाकर बोलता जज साहब कि बंद करो ये सब, मेरी माँ को तकलीफ है और नीचे ही क्यो? धुंआ तो पूरे इलाके में है, पूरे शहर में ये ही आलम है, माँ चद्दर लेकर मुँह ढक लेती थी, लेकिन राहत कहाँ मिलती उसे।“

“एक आपकी माँ ही बुजुर्ग नहीं शहर में बहुत बुजुर्ग हैं।“

“शायद दुनिया के सारे बुजुगों को ऐसा महसूस नही होता होगा, पर मेरी माँ को होता था।  पूरी रात बैचैन रहती थी माँ।“

“ठीक है, लेकिन बिमारी के चलते उनकी मृत्यु हुई आप उसे हत्या कैसे कह सकते हैं”

“जज साहब वो रात बड़ी भयानक थी, लोग दीपावली की खुशियाँ मना रहे थे, जैसे-जैसे पटाखों का धुआं और शोर बढ़ता जाता था, उसकी साँस फूलती जाती थी, वो तकलीफ अपने आँखों से देखी थी,  मैं बार बार बालकनी तक आता था, माँ को नुबेलाइज करता और सोचता था  अब बंद हो पटाखें, लेकिन रात जैसे जैसे सबाब पर आती गयी आतिशबाजी बढती गयी, माँ ने आँखें बंद कर ली, वो चली गयी जज साहब, वो चली गयी।“

लेकिन ये एक धर्म पर आरोप का मामला हुआ।“

“नहीं जज साहब, वो सब्बेबारात, गुरुपरब, गुड फ्राइडे सब दिन ऐसे ही जीती-मरती रहती थी।“

“हाँ सानन्द आपने अब मेरी मुस्किल आसान कर दी,  कोर्ट के फैसले का इन्तजार कीजिये।“

“जी जज साहब, आप इन्साफ करेगे इसका मुझे विश्वास है लेकिन मेरे भारत में मायलार्ड को गाली देने वालो की कमी नही है। कोर्ट में बैठे मेरे कई साथी मुझसे असहमत होंगे, मुझे उनसे कोई शिकायत नही, मैं स्वार्थी हूँ, मुझे आज भी अपनी माँ की वो तस्वीर, उसका चेहरा याद आता है तो तकलीफ होती है, किसी भी धर्म का मेरी बात से लेना-देना नही है। मैंने तो बम-पटाखों से फैलते धुंए की वजह से अपनी माँ की तकलीफ से, कोर्ट को अवगत कराया है। निस्वार्थी और बम पटाखों के प्रबल समर्थकों और धर्म के रखवालों से माफी चाहूँगा, आज मेरी माँ नही है, मुझे उसकी तकलीफें है, कल आपको भी होगी।“

सानन्द बोले जा रहे थे।

जज साहब ने टाइपिस्ट को फैसला टाइप करने का इशारा किया।

© श्री संदीप तोमर 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – वैज्ञानिक लघुकथा – ☆ दी एस्ट्रो वेइल ☆ – श्री सूरज कुमार सिंह 

श्री सूरज कुमार सिंह 

☆ दी एस्ट्रो वेइल ☆

(ई-अभिव्यक्ति में  मानवता के लिए एक सार्थक संदेश की कल्पना के साथ यह पहली अन्तरिक्ष विज्ञान पर आधारित  लघुकथा  है जो  युवा साहित्यकार श्री सूरज कुमार सिंह द्वारा लिखी गई है । यह लघुकथा  हमें पर्यावरण के अतिरिक्त मानव जीवन के कई पहलुओं पर प्रकाश डालती है। हिन्दी साहित्य में ऐसे  सकारात्मक प्रयोगों  की आवश्यकता है ।  ) 

त्रयाक के नियंत्रण कक्ष तथा कमान  कक्ष मे काफ़ी चहल-पहल थी।  और होती  भी क्यों न? त्राको वासियों का यह दल सिग्नस-अ आकाशगंगा से छह सौ करोड़ प्रकाश वर्ष  की दूरी तय  कर मिल्कीवे आकाशगंगा पहुँच चुके थे और उनका यान त्रयाक सौर मंडल के छोर पर आकर रुक चूका था l अब त्रयाक के कर्मी सबसे महत्वपूर्ण कार्य की तैयारी में जुट  गए।  पृथ्वी पर एक चालक रहित यान भेज कर यह सुनिश्चित करना की पृथ्वी की सतह तथा जीव दोनों अनुकूल हैं या नही।  हालाँकि पिछले कई

Satellite, Moon, Earth, Planet, Universeवर्षो से जिस पृथ्वी से त्राको वासियों को  लगातार रेडियो सिग्नल मिल रहे थे उस गृह के जीवों से वे एक दोस्ताना रवैये की  ही उम्मीद कर रहे थे परन्तु प्रोटोकॉल तो प्रोटोकॉल था।  न चाहते हुए भी टोह लेना आवश्यक था।  तो परिणामस्वरूप चालक रहित यानों को त्रयाक से उतारा गया और पृथ्वी की ओर रवाना किया गया।  इन यानों से मिलने वाले डाटा को रिसीव कर उनकी समीक्षा और एनालिसिस करने को त्रयाक का हर कर्मी उत्साहित था।  वे तो सोच रहे  थे की कब इन यानों से जानकारियां आना शुरू हो जाए और कब मानव तथा अन्य प्रजातियों से सीधा संपर्क करने को हम पृथ्वी पर उतरें।  यानों ने पृथ्वी की कक्षा को इंटरसेप्ट किया और फिर वायुमंडल मे दाखिल होने लगे।  त्राको वासियों की बेसब्री बढ़ते ही जा रही थी।  पृथ्वी पर मानव के आलावा भी कई प्रजातियां हैं वे पहले से जानते थे और यह भी मान चुके थे की मानव एक इंटेलीजेंट प्रजाति है।   अन्यथा इतने स्पष्ट रेडियो सिग्नल इतने दूर अंतरिक्ष मे कैसे भेज पाते? बस अब देरी थी तो उनको और बेहतर ढंग से समझने की और उनसे सीधा संपर्क बनाने की।

पांचो टोही यानों से डाटा आने शुरू हो गए।  अभी पृथ्वी के समय के हिसाब से कुछ मिनट हुए ही होंगे की पांच मे से एक यान ने अपने ओर तेज़ गति से आ रहे कुछ हथियारों को इंटरसेप्ट किया।  उस यान ने आसानी से खुद को उन हाथियों की पथ में आने से बचा तो लिया परन्तु हमले जारी रहे।  यान ने इनके सोर्स का पता लगाया और उनकी पहुँच से दूर चला गया।  दरअसल वे अमरीकी मिसाइलें थीं।  जो पैसिफ़िक के उन अमरीकी द्वीपों पर तैनात थीं जिनके ऊपर से वो यान गुज़र रहा था।  शायद उन्होंने त्राको अंतरिक्ष यान को कोई दक्षिण-कोरियाई मिसाइल समझ लिया था।  अब त्रयाक पर मौजूद नियंत्रण कर्मी और उनके लीडरों का महकमा सकते मे आ गया था! इस किस्म के व्यवहार की किसी  ने  भी  उम्मीद नही की  थी।  किसी ने भी नही सोचा था की पृथ्वी वासी हथियारों से स्वागत करेंगे।  पर फिर  भी टोही मिशन को जारी रखने की अनुमति वैज्ञानिक दल की सलाह के बाद कमांडर ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद दे दी।  खैर टोही यानों ने अपना काम जारी रखा और डाटा त्रयाक तक  पहुंचाते रहे।  इस कार्य की पूर्ति के बाद पांचो टोही यान वापस बुला लिए गए।  काफी ज़्यादा डाटा एकत्रित हो  चूका था।  इसे  पूरी  तरह एनालाइज़ करने मे थोड़ा वक़्त लगा।  परन्तु फिर भी परिणाम काफी जल्दी मिल गए।  परिणाम काफी चौंकाने वाले साबित हुए! इसकी रिपोर्ट बना कर कमांडर को तथा अन्य लीडरों को सौंप दी गयी।  इस रिपोर्ट के अंत मे जो  लिखा  हुआ  था वह सबके  लिए एक बड़ा झटका था।  लिखा हुआ था – मानवों मे  से ज़्यादातर मानसिक रूप  से विकृत है जो उन्हे हिंसावादी और तबाही-पसंद बनाता है।  यह एक  ऐसी प्रजाति के जीव हैं जो सिर्फ एक दूसरे को ही नही अपितु अन्य प्रजातियों  को  भी भरसक  हानि पहुंचाते हैं।  इनमे इंटेलीजेंट और शांतिप्रिय जन बहुत ही कम  हैं।  और जितने  हैं उन्हे इन का समाज ईशनिंदा करने वाला बताकर धिक्कारता है।  इनका समाज वैज्ञानिको की निंदा और धोखाधड़ों को पूजता है।  इसलिए वे मेल-जोल के लायक नही हैं।  इनसे किसी तरह का संपर्क हमे इनसे तालुकात रखने पर मजबूर कर देगा जो हमारे  लिए घातक सिद्ध हो सकता है।  कल को यह  हमारी ही तकनीक  का प्रयोग  कर  हम तक हथियारों के साथ  पहुंच  जाएँ तो यह  हमारा  क्या करेंगे कहना बड़ा  मुश्किल है।  इसलिए इनके समक्ष अपनी उपस्थिति उजागर करना मूर्खता है।  जब रिपोर्ट मे इस गंभीर मानसिक विकृति तथा अधिक  वक़्त  मे  कम तकनिकी तरक़्क़ी के मुख्य कारणों पर नज़र डाली  गयी  तो और भी रोचक  बात सामने आयी! बताया गया की जब भी मानव जाति विज्ञान और तकनीक में तरक़्क़ी करने लगती है  और मानव जाति का विकास होने लगता है, उसी वक़्त असामाजिक ताक़तें खुद सशक्त होने के लिए पूरी मानव जाति को पीछे धकेल देती है।  इसलिए मानव जाति के विकास की गति बहुत धीमी है।  साथ ही इन लोगों  ने अपनी बुनियादी सम्पदाओं के दोहन के साथ-साथ प्रकृति को भी इतना नुक्सान पंहुचा दिया है की अब इनका पर्यावरण बचाया नहीं जा सकता।

कमांडर ने  इस रिपोर्ट का संज्ञान लेते  हुए सबसे कहा- इस रिपोर्ट में मौजूद तथ्यों को ध्यान मे लेते हुए आप  सब  को शायद अब कोई शक नही होगा कि मेरा निर्णय क्या होने वाला है।  मै इस मिशन का कमांडर  होने के नाते यह फैसला लेता  हूँ की त्रयाक दल फ़िलहाल मानव जाति से कोई संपर्क स्थापित  नही करेगा और हम पृथ्वी के सूर्य से त्रयाक के सभी इंजनों को रिचार्ज कर वापस अपनी आकाशगंगा की ओर चलेंगे।  इस पर एक  त्रको लीडर  ने एतराज़ जताया।  उनका कहना था कि सौर  मंडल के  सूर्य से  इंजन  रिचार्ज करने का अर्थ है सूर्य का फ्यूल कम कर देना।  इससे सूर्य की उम्र कई गुना घट जाएगी।  इसका सीधा असर भविष्य  मे मानव तथा पृथ्वी की अन्य प्रजातियों पर पड़ेगा।  तो  क्या  ऐसा करना उचित होगा।  इस पर कमांडर ने उन्हें दिलासा दिया और कहा- मित्र मै आपकी  चिंता  समझता हूँ पर  क्या  आपको लगता  है कि मानव जाति के पास इतना समय है भी।

© श्री सूरज कुमार सिंह, रांची 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ उम्मीद ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ उम्मीद ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  की एक विचारोत्तेजक लघुकथा। कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है। किन्तु, डॉ कुन्दन सिंह जी नें यह सिद्ध कर दिया है कि उम्मीद पर दुनिया ही नहीं इंसानियत भी टिकी है। लघुकथा की अन्तिम पंक्ति के लिए तो मैं निःशब्द हूँ।  मैं आभारी हूँ डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का जिन्होने अपनी कालजयी लघुकथा उम्मीद को e-abhivyakti के माध्यम से आप तक पहुंचाने का सौभाग्य प्रदान किया।)

महीनों से शहर में हिंसा का नंगा नाच हो रहा था। रोज़ सबेरे सड़क के किनारे दो तीन लाशें पड़ी दिखायी देतीं। पता नहीं यह हत्या वहीं होती थी या लाश दूर से लाकर सड़क के किनारे छोड़ दी जाती थी। लोगों के मन में हर वक्त डर समाया रहता। दूकानें खुलतीं, जन-जीवन भी चलता, लेकिन किसी भी अफवाह पर दूकानें बन्द हो जातीं और लोग घरों में बन्द हो जाते। सब तरफ जले मकानों और मलबे का साम्राज्य था। लोग आत्मसीमित हो गये थे। ज़िन्दगी का हिसाब-किताब एक दिन के लिए ही होता—पता नहीं कल का सबेरा देखने को मिले या नहीं।

लोग धीरे-धीरे तटस्थ और उदासीन हो रहे थे।पहले सड़क के किनारे घायल आदमी या लाश को देखकर भीड़ लग जाती थी। लोग आँखें फैलाकर, गर्दन बढ़ाकर उत्सुकता से देखते। जो ज़्यादा संवेदनशील थे वे उसे देखकर बार-बार सिहरते। बाद में उसके बारे में दूसरों को बताते। वह दुर्घटना उनके लिए दिन भर चर्चा का विषय बनी रहती।

लेकिन हत्याओं की आवृत्ति इतनी बढ़ी कि हिंसा और हत्या के प्रति लोगों की दिलचस्पी कुन्द होने लगी। भीड़ों का आकार क्रमशः कम होने लगा। फिर धीरे-धीरे हाल यह हुआ कि लाशें सड़क के किनारे पड़ी रहतीं और लोग तटस्थ भाव से उनकी बगल से गुज़रते रहते।

स्थिति यह हो गयी कि सामने लाश पड़ी रहती और लोग दूकानों पर चाय पीते रहते या सौदा-सुलुफ लेते रहते। लेकिन इस सहजता के बावजूद सबके चेहरे पर गंभीरता रहती थी। संबंधों में ठंडापन आ गया था। गर्मी और उत्साह ख़त्म हो गये थे। लगता था जैसे सब इंसानियत के मर जाने का मातम कर रहे हों।

फिर एक दिन एक जगह भीड़ दिखायी दी। वहाँ से गुज़रने वाले उत्सुकतावश भीड़ में शामिल होते जा रहे थे, लेकिन भीड़ इतनी घनी थी कि पीछे वालों को आगे का कुछ ठीक-ठीक दिखायी नहीं दे रहा था।

एक आदमी भीड़ से अलग होकर लौटा तो पीछे से देखने का उपक्रम कर रहे एक दूसरे आदमी ने पूछा, ‘क्या हो रहा है?’

लौट रहे आदमी के चेहरे पर पुलक और आँखों में चमक थी। मुस्कराकर बोला, ‘बच्चे गेंद खेल रहे हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

Please share your Post !

Shares
image_print