हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #136 ☆ व्यंग्य – राजधानी में अटका नेता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘राजधानी में अटका नेता’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 136 ☆

☆ व्यंग्य – राजधानी में अटका नेता  

बिल्लू परेशान हैं।दस बारह साल पार्टी में दरी उठाते और नेताओं की जय बोलते हो गये, लेकिन हाथ कुछ नहीं आया।हाथ खाली का खाली है।आखिरकार बिल्लू के सब्र का बाँध टूट गया।एक दिन मुख्यमंत्री से हाथ जोड़कर बोले, ‘भैया, आप लोगों के हुकुम पर विरोधी पार्टी को गरियाते और लाठी भाँजते सिर के बाल सफेद होने लगे।अब कुछ हम पर भी मेहरबानी हो जाए।’

मुख्यमंत्री जी विष्णु भगवान की तरह वरदान की मुद्रा में बोले, ‘क्या कष्ट है बिल्लू? क्या चाहिए?’

बिल्लू बोले, ‘अब हमें भी कहीं हिल्ले से लगा दो। कुछ इज्जत मिल जाए और कुछ खाने पीने का जुगाड़ हो जाए।’

मुख्यमंत्री जी ने अभय में हाथ उठाया, कहा, ‘चलो तुम्हें भ्रष्टाचार विकास निगम का अध्यक्ष बना देते हैं। खाओ, पियो और भ्रष्टाचार का संरक्षण करो।’

बिल्लू गदगद हुए, चरण छू कर बोले, ‘भैया की जय हो। भ्रस्टाचार के अध्यच्छ का काम क्या होगा?’

मुख्यमंत्री जी बोले, ‘काम क्या है। जो भ्रष्टाचार का विरोध करें उनके खिलाफ कार्रवाई करना है।’

बिल्लू बोले, ‘ठीक है। लाल बत्ती वाली गाड़ी तो मिलेगी न?’

मुख्यमंत्री ने जवाब दिया, ‘मिलेगी। बंगला भी मिलेगा।’

बिल्लू खुश होकर बोले, ‘जय हो। सुरच्छा मिलेगी?’

मुख्यमंत्री ने पूछा, ‘सुरक्षा का क्या करोगे? तुम्हें किस से खतरा है?’

बिल्लू बोले, ‘सुरच्छा का खतरे से क्या ताल्लुक? सुरच्छा गारद तो इज्जत के लिए होती है। ताम-झाम पूरा होना चाहिए।’

मुख्यमंत्री बोले, ‘चलो एक दो पुलिस वाले तुम्हारे साथ लगा देंगे। और बोलो।’

बिल्लू अभिभूत होकर बोले, ‘अब क्या बोलना है? आपने तो सब कुछ दे दिया। जल्दी आडर जारी कर दिया जाए।’

मुख्यमंत्री बोले, ‘आर्डर कल जारी हो जाएगा। जाओ, नये पद पर बैठने की तैयारी करो।’

बिल्लू मुख्यमंत्री जी की चरण- धूल माथे से लगाकर भागे। अपने शहर में अपने दोस्त मल्लू को फोन लगाया। चहक कर बोले, ‘गुरू, अपनी तो लाटरी खुल गई।’

मल्लू ने पूछा, ‘क्या हुआ? पेट्रोल पंप का एलॉटमेंट हो गया क्या?’

बिल्लू बोले, ‘नईं, मुख्यमंत्री जी ने भ्रस्टाचार बिकास निगम का अध्यच्छ बना दिया है। लाल बत्ती की गाड़ी मिलेगी और सुरच्छा गारद भी।’

मल्लू हँसे,बोले, ‘वा बेट्टा, घूरे के दिन भी फिर गए।ठाठ हो गए तुम्हारे। तो अपने शहर कब आ रहे हो?’

बिल्लू बोले, ‘इसीलिए तो फोन किया। बिना स्वागत की तैयारी के कैसे आयें? जुलूस का इंतजाम कर दो।चार पाँच ट्रक और दस बीस कारें हों। नारे लगाने के लिए कालेजों के सौ,दो सौ लड़के पकड़ लो। पहनाने के लिए दो तीन सौ माला जरूर मँगवा लेना। हमारी तरफ से दो तीन बड़े नेताओं से निबेदन कर देना कि सोभा बढ़ाने के लिए स्टेसन पर पहुँच जाएँ।सब युबा नेताओं से कहना कि लोकल अखबारों में बिज्ञप्ति दे दें।तीन चार स्वागत-द्वार बन जाएँ तो और अच्छा। रंग गुलाल मँगा लेना। जलवा हो जाएगा।’

मल्लू बोले, ‘गुरू, झंझट का काम है और खरचे का भी। कम से कम पचास हजार निपट जाएँगे।’

बिल्लू घबरा कर बोले, ‘क्या कह रहे हो? इतना पैसा कहाँ से आएगा?’

मल्लू बोले, ‘तो फिर जुलूस कैसे निकलेगा?’

बिल्लू गिड़गिड़ाकर बोले, ‘ऐसा जुलुम मत करो गुरू। हम गुल्लू को फोन कर देते हैं। उससे पंद्रह हजार ले लेना। बाकी उधार कर लेना। हम जल्दी चुका देंगे। स्वागत-द्वार छोड़ दो। बाकी काम कर लो। जरा कुर्सी पर ठीक से बैठ जाएँ तो पैसा भी आने लगेगा। अखबार में आ जाए कि हम निगम के अध्यच्छ हो गये हैं तो पैसे का रास्ता बनने लगेगा।’

मल्लू बोले, ‘हम देखते हैं। तुम दो तीन दिन बाद फोन करना।’

तीन दिन बाद फिर बिल्लू भाई का फोन आया— ‘क्यों भाई, आ जाएँ क्या? इंतजाम हो गया?’

उधर से जवाब आया, ‘कुछ नहीं हुआ भैया। अखबार वाले ऊटपटाँग पैसे माँग रहे हैं। कॉलेज के लड़के भी बहुत चालू हो गए हैं। नारे लगाने के लिए प्रति लड़का पाँच सौ रुपये मजूरी माँगते हैं।’

बिल्लू भाई दुखी होकर बोले, ‘यह नई पीढ़ी बिल्कुल बरबाद हो गयी है। पहले यह काम एक प्लेट नास्ते में हो जाता था। अब के लड़कों में देससेवा की भावना नहीं रही।नईं हो तो स्कूल के ग्यारहवीं बारहवीं के लड़के पकड़ लो।कोसिस करो भैया।’

मल्लू बोले, ‘देखते हैं। एक तो कोई बड़ा नेता तुम्हारे स्वागत के लिए स्टेशन आने को राजी नहीं है। कहते हैं बिल्लू का स्वागत करने से हमारा स्टैंडर्ड गिर जाएगा।’

बिल्लू फिर दुखी हो गए, बोले, ‘ये नेता लोग किसी के सगे नहीं होते भैया। अब हमारा स्टैंडर्ड बनना सुरू हो गया है। थोड़े दिन की बात और है। तुम और कोसिस कर लो।

हम कब तक यहाँ अटके रहें? जी फड़फड़ाता है। दो दिन और रुक जाते हैं।’

दो दिन बाद बिल्लू भाई का फिर फोन आया, ‘भैया, अब सबर टूट रहा है। हो गया इंतजाम?’

जवाब मिला, ‘नईं भैया! हमने आपके स्वागत के लिए धरमदास जी से बात कर ली थी, लेकिन वे कल भ्रष्टाचार के एक केस में जेल चले गये। मामला फिर उलझ गया है। लड़कों का इंतजाम करने में भी मुश्किल आ रही है। आजकल सब हुशियार हो गये हैं।’

बिल्लू भाई रुआँसे स्वर में बोले, ‘हम यहां कब तक अटके रहें भैया? जुलूस निकल जाता तो कुछ काम धाम सुरू करते। तुम्हें बताएँ कि हम रात भर के लिए ट्रेन से घर हो आये। चुप्पे चुप्पे गये और चुप्पे चुप्पे लौट आये।  कब तक धीरज रखते?’

मल्लू पुचकार कर बोले, ‘अब इतने दिन अटके रहे तो थोड़ा और अटके रहो। इंतजाम कर रहे हैं। भरोसा रखो। तुम्हारा जुलूस जरूर निकलेगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ उम्रकैद के सात साल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

जगत सिंह बिष्ट

(आदरणीय श्री जगत सिंह बिष्ट जी, मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं। ई-अभिव्यक्ति द्वारा आपका प्रसिद्ध व्यंग्य एक व्यंग्यकार की आत्मकथा 28 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित किया था.)

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा की कुछ पंक्तियाँ …….

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  ……….

शेष रचना को आप निम्न लिंक्स पर पढ़ /सुन सकते हैं  >>>>  

>>   हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट

>>  हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ व्यंग्य रचना/व्यंग्य पाठ – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट

☆ हिंदी साहित्य ☆ व्यंग्य ☆ उम्रकैद के सात साल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

(लगभग 31 वर्ष पहले, ‘उम्रकैद के सात साल’ शीर्षक से प्रकाशित हास्य-व्यंग्य रचना. ये उम्रकैद आज भी बदस्तूर जारी है. पढ़ें और आनंदित हों.. श्री जगत सिंह बिष्ट)

हम अपनी बीवी के शुक्रगुज़ार हैं कि तमाम लापरवाहियों के बावजूद, वह इन सात सालों में रसोई-घर में दुर्घटनाग्रस्त होने से किसी तरह बची रहीं, वरना अख़बारों में एक बार फिर सुर्ख़ियों में छपता – ‘एक और दहेज़ हत्या’ – और भारतीय डंडा संहिता की आड़ में, किसी खाकी वर्दीधारी को हमारी सूखी हजामत बनाने का मौका मिल जाता. इस तरह के अप्रत्याशित खतरों से घिरा होने के बाद भी बेचारा पुरुष अब तक बेड़ियों से मुक्त होने के मूड में नहीं आया है. इसे कहते हैं गुलाम मानसिकता.

उधर, हमारे जीवन को रंगीन और फिर संगीन बनाने वाली जीवन-संगिनी, इन सब बातों से बेखबर, ‘वूमेंस लिब’ की खुली हवा में स्वच्छंद विहार कर रही है. सात चक्कर में पड़ने से पहले, हम भी ‘चंद्रमुखी, सूरजमुखी, ज्वालामुखी’ वाले चुटकुले पर हंसा करते थे.उस उम्र में धर्मपत्नी के धार्मिक रोले को समझने में हमारी बुद्धि असमर्थ थी.

इन सात सालों में, हमारे विचारों में ऊपर से नीचे तक परिवर्तन हुआ है. आज हम – अन्य पति कहलाने वाले जीवों कि तरह – दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारी ‘मधुमुखी’ पत्नी के व्यंग्य के डंक की चोट, अच्छे-अच्छे व्यंग्यकारों से कहीं अधिक है. मधु, यदि कभी रहा भी हो तो, हमारे हिस्से में नहीं आया.

चलिए, आपको फ्लैशबैक में लिए चलते हैं..

वधु की विदाई की ह्रदय-द्रावक बेला है. फिल्मों में ऐसे सीन फिल्माने के लिए कनस्तर भर ग्लिसरीन खर्च हो जाती है. हमारे ससुरजी डबडबाई आखें लिए विवश खड़े हैं. रौबदार मूछों वाला ऐसा भयंकर व्यक्तित्व, जिसे देखते ही अच्छे-अच्छे मलखान सिंह भी उनकी बेटी को छोड़कर भाग जायें. एक नज़र हमने उनकी चमचमाती चाँद पर डाली, जो फिसलकर उनकी चाँद जैसी छुई-मुई बेटी पर पहुँच गयी.

अपना कर्त्तव्य पालन करते हुए, हम उनकी तथाकथित सुन्दर, गौरवर्ण, सुशिक्षित और घरेलु कामकाज में दक्ष कन्या को सोफे, पलंग और अलमारी सहित बड़ी शान से विदा कर लाये. परदे के पीछे, शहनाई की धुन थमने के पहले ही, हमारी नयी-नवेली श्रीमतीजी ने ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के नक़्शे जैसे रोटियाँ बनाकर, तत्पश्चात जलाकर, अपने होमेस्सिएंस के ज्ञान को प्रमाणित करना प्रारंभ कर दिया.

उनके परिवार की आधुनिकता का सम्मान करते हुए हमने, अपने सास-ससुर को तीर्थ-स्थल की बजाय ‘हिल-स्टेशन’ माना. गर्मियों में तो सभी राहें, ससुराल की तरफ जाती ही हैं, हम सर्दियों में भी वहाँ ‘स्नो-फॉल’ देखने के बहाने, जाने लगे. बरसातों में, काली घटाएं सालीजी का संदेश लाकर, हमें वहाँ खींच ले जातीं.

इसके आलावा, धर्मपत्नी के इशारे को धर्म समझकर, हम उनके दूर-दूर के चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहनों के शादी-ब्याह-मुंडन में बिना नागा शामिल होने लगे. पत्नी ही हमारी ‘फैमिली’ बन गयी. अपने ओरिजिनल मां-बाप को हमने प्राचीन सभ्यता के जर्जर खंडहरों की तरह अलग-थलग छोड़ दिया – इस उम्मीद के साथ कि देर-सबेर पुरातत्त्व विभाग उन्हें अपने संरक्षण में ले ही लेगा.

महान भारतीय मानवों की गौरवशाली परंपरा को निभाते हुए, हमने भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय का मान रखा और देश को अपना अमूल्य योगदान दिया. विवाहित जीवन का अगला दौर प्रारंभ हुआ. ईश्वर की असीम अनुकम्पा से प्राप्त पुत्ररत्न की, कभी पीली तो कभी हरी चड्ढीयां, बिना नाक-भौं सिकोड़े, उतारने और धोने का सुगन्धित दौर. 

हमारा बेटा किसी टाईमटेबल का पाबंद नहीं था. न ही अमरीका और स्कैनडीनेविया के देशों  की तरह हमारे दफ्तर में पैतृत्व अवकाश का कोई प्रावधान था. राजू की मम्मी चैन से अपनी ‘ब्यूटी-स्लीप’ पूरी करती और हम अपने बेटे का घोड़ा बना करते. उसकी मम्मी की निगाहों में गधे तो हम पहले ही थे.

अपनी तमाम हरी-पीली नादानियों के बावजूद हमें राजू बड़ा प्यारा लगता है. वैसे ही जैसे सबकुछ जानने-समझने के बाद भी दूसरों की बीवियां अच्छी लगती हैं. राजू कन्धों पर किताबों का बोझ लादे स्कूल जाने लगा है – शायद भविष्य में घोड़ा और गधा बनने का अभ्यास कर रहा है. सुबह हम उसे तैयार करवाते हैं और शाम को उसका होमवर्क करवाते हैं.

इस बीच राजू की गुड़िया जैसी बहन के लिए कुछ फरमाइशें हमें प्राप्त हुई हैं लेकिन हमने ठान ली है की हम तो वही करेंगे जो रात को ठीक नौ बजे दूरदर्शन पर साफ़-साफ़ बताया जाता है. (अगर आप अब भी नहीं समझे हों तो कभी आकर हमारे होनहार बेटे को गुनगुनाते हुए सुन लीजिये – ज़रा सी सावधानी, ज़िन्दगी भर आसानी.)

यूँ उम्रकैद के सात साल कट गए हैं. पहले स्कूल जाती बालिकाएं ‘अंकल’ कहा करती थीं, अब कॉलेज जाती किशोरियां भी हमारे लिए इस संबोधन का प्रयोग करने लगी हैं. शायद हमारी अर्धांगिनी ने भी कबूल कर लिया है की हम युवावस्था की ड्योढ़ी लांघ चुके हैं. तभी तो आस-पड़ोस की गोलमटोल भाभियों से हमारी नोकझोंक को अब वह नज़रंदाज़ कर देती हैं.

हम जानबूझकर थोड़ा ऊँचा सुनने लगे हैं. पत्नी की कई बातों को हम सुनकर भी अनसुना कर देते हैं. पत्नी के आंशिक अंधेपन और हमारे आंशिक बहरेपन की बदौलत हम लोग आंशिक रूप से सुखी हैं.

कल हमारी शादी की सातवीं सालगिरह है. विवाहित जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आपके साथ बांटने के लिए हमने कल शाम को खट्टी-मीठी चाट पार्टी का आयोजन किया है. आप सभी इसमें शामिल होने के लिए सादर आमंत्रित हैं.

©  जगत सिंह बिष्ट

इंदौर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #135 ☆ व्यंग्य – नेताजी का विकास-मंत्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘नेताजी का विकास-मंत्र’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 135 ☆

☆ व्यंग्य – नेताजी का विकास-मंत्र  

नेताजी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलायी है। नेताजी नाराज़ हैं क्योंकि लोग खुलेआम कहते हैं कि सूबे का विकास नहीं हुआ। न बिजली है न पानी, न आवागमन के लिए सड़कें। न लड़कों को रोज़गार। कहते हैं सूबा उन्नीसवीं सदी में अटका है। विकास के नाम पर नेताजी के कुनबे का विकास हुआ है।

नेताजी का मानना है कि जनता एहसान- फरामोश है। इतना विकास करने के बाद भी आलोचना करती है। इसीलिए आलोचकों का मुँह बन्द करने के लिए नेता जी ने प्रेस को बुलाया है।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेताजी के दोनों तरफ तीन तीन मंत्री बैठे हैं। संयोग से इन छः में से दो उनके भाई और तीन उनके बेटे हैं। छठवाँ मंत्री नेताजी का साला है।

कॉन्फ्रेंस में नेता जी फरमाते हैं, ‘मेरे कुछ विरोधियों ने ये बातें फैलायी हैं कि सूबे का विकास नहीं हुआ है। मैं आज इन्हीं बातों का जवाब देना चाहता हूँ। आप लोग मेरी बात को समझें और मेरी बातों को जनता तक पहुँचायें ताकि वे किसी के बहकावे में न आयें।’

‘अभी जो सूबे में पैंतीस मंत्री हैं उनमें से अट्ठाइस या तो मेरे खानदान के हैं या मेरे रिश्तेदार हैं। लोग इसे वंशवाद कहते हैं लेकिन मेरा कहना यह है कि मैंने अपने परिवार वालों को इसलिए मंत्री बनाया है ताकि प्रशासन पर मेरी पकड़ मजबूत रहे और साधनों का अपव्यय या भ्रष्टाचार न हो। जब विकास का सारा काम मेरे खानदान के पास होगा तो भ्रष्टाचार कौन करेगा? मेरी दो बहुएँ सांसद हैं। उन्हें भी इसीलिए संसद में भेजा है ताकि वे सूबे के हित में अपनी आवाज उठाती रहें और सूबे के विकास में केन्द्र सरकार की मदद मिलती रहे। तीसरे बेटे की शादी अगले साल होगी, तब संसद में हमारे सूबे का प्रतिनिधित्व और बढ़ेगा। आज अगर प्रशासन के हर महकमे में मेरे कुनबे के लोग बैठे हैं तो उसका फायदा यह है कि हम उनके कान पकड़कर सूबे का विकास करा सकते हैं। जनता के दुख दर्द को हमारे खानदान से बेहतर कौन समझ सकता है?’

‘जो लोग हम पर विकास न करने का आरोप लगाते हैं वे सब झूठे हैं। हमारे खानदान ने सूबे का जैसा विकास किया है वैसा देश में कहाँ मिलेगा? आज से पच्चीस साल पहले हमारे खानदान के पास क्या था? खाने के लाले थे। आज हमारे पास कई मॉल हैं, फाइव-स्टार होटलों की चेन है, चार मल्टीप्लेक्स हैं, छः फार्महाउस हैं, दो अखबार और दो टीवी चैनल हैं, सौ से ज्यादा बसें और इतने ही ट्रक हैं, जो दिन रात सूबे के विकास के लिए दौड़  रहे हैं।’

‘जो लोग सूबे में बिजली-पानी का रोना रोते हैं वे हमारे मॉलों और होटलों में आयें। सब चौबीस घंटे जगमगाते हैं। आधे घंटे को भी बिजली नहीं जाती। हर मॉल और होटल में शुद्ध मिनरल वाटर मिलता है। हमारे आलोचक पता नहीं कहाँ सूँघते फिरते हैं।’

‘हमने अपने होटलों, मॉलों, फार्महाउसों, बसों, ट्रकों में हजारों नौजवानों को रोजगार दिया है। पचीसों आदमी तो सिर्फ हमारे खानदान के सयानों के पैर दबाने और हुक्का भरने के लिए रखे गये हैं। इसके अलावा हमारे खानदान ने तीन इंटरनेशनल स्तर के स्कूल और इंजीनियरिंग कॉलेज, मैनेजमेंट कॉलेज और होटल मैनेजमेंट कॉलेज खोले हैं, दो सुपर स्पेशेलिटी अस्पताल खोले हैं जहाँ बड़े-बड़े डॉक्टर जनता की सेवा के लिए एक पाँव पर खड़े रहते हैं। स्कूलों का हर क्लासरूम ए.सी. है। यह सब किस लिए किया?  इसलिए कि हमारे नौजवान शिक्षित और स्वस्थ हों। शिक्षा और स्वास्थ्य ही न हो तो विकास कहाँ से होगा? हम लगातार नये विषयों के कॉलेज खोल रहे हैं। आप विषय बताइए, हमारे बेटे कल बोर्ड टाँग कर एडमीशन शुरू कर देंगे। विकास के काम में देरी हमें बर्दाश्त नहीं। हमारे बेटे-भतीजे दूसरे देशों के चक्कर लगाते रहते हैं ताकि सूबे के विकास के नये तरीके लाये जा सकें। हमारे लिए आराम हराम है। हम अपने भाइयों, बेटों, भतीजों, बहुओं के लिए आपका और जनता का आशीर्वाद चाहते हैं ताकि वे ऐसे ही सक्रिय और सूबे के विकास के प्रति समर्पित बने रहें।’

‘हमने अपने बेटों-भतीजों को समझा दिया है कि ज्यादा से ज्यादा विकास-पुरुष पैदा करें जो होश सँभालते ही विकास के यज्ञ में लग जाएँ। अभी सूबे में विकास की बहुत गुंजाइश है। हमें अपने सूबे को विकास के शिखर पर खड़ा करके आलोचकों को मुँहतोड़ जवाब देना है। जय हिन्द। भारत माता की जय।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #134 ☆ व्यंग्य – एक हैरतअंगेज़ हृदय-परिवर्तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘एक हैरतअंगेज़ हृदय-परिवर्तन’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 134 ☆

☆ व्यंग्य – एक हैरतअंगेज़ हृदय-परिवर्तन

रज्जू भाई ग्रेजुएशन करके दो साल से घर में बैठे हैं। काम धंधा कुछ नहीं है। घरवालों के ताने-तिश्ने सुनते रहते हैं। चुनाव के टाइम पर वे किसी नेता के हाथ प्रचार के लिए ‘बिक’ जाते हैं तो कुछ कमाई हो जाती है। निठल्ले होने के कारण शादी-ब्याह की संभावना भी धूमिल है।

कुछ दिन से रज्जू भाई नंदन भाई के संस्कृति-रक्षक दल में शामिल हो गए हैं। उन्हीं के साथ शहर में संस्कृति के लिए खतरा पैदा करने वाले वास्तविक या काल्पनिक कारणों को तलाशते रहते हैं। सरवेंटीज़ के डॉन क्विक्ज़ोट की तरह कहीं भी लाठी भाँजते टूट पड़ते हैं। रज्जू भाई को इन कामों में मज़ा भी आता है। अपने महत्व और अपनी ताकत का एहसास होता है।

रज्जू भाई का दल ‘वेलेंटाइन डे’ के सख्त खिलाफ है। उनकी नज़र में यह दिन देश की संस्कृति के लिए घातक है। उस दिन रज्जू भाई का दल छोटी-छोटी टोलियों में पार्कों और दूसरी मनोरंजन की जगहों पर सबेरे से घूमने लगता है। जहाँ भी जोड़े दिखते हैं वहीं कार्रवाई शुरू हो जाती है। पूरी बेइज़्ज़ती और धक्का-मुक्की के बाद ही जोड़े को मुक्ति मिलती है। जोड़े की जेब में कुछ पैसा हुआ तो टोली के सदस्यों की आमदनी भी हो जाती है, जिसे वे अपना सेवा-शुल्क मानते हैं। रज्जू भाई जोड़ों के चेहरे पर छाये आतंक को देखकर गर्व महसूस करते हैं।

एक बार जब नंदन भाई एक जोड़े को समझा रहे थे कि प्यार व्यार शादी के बाद यानी पत्नी से ही होना चाहिए, शादी से पहले का प्यार अपवित्र और गलत होता है, तो लड़का उनसे बहस करने लगा। उसने नंदन भाई को ग़ालिब का शेर सुनाया कि इश्क पर ज़ोर नहीं, वह ऐसी आतिश है जो लगाये न लगे और बुझाये न बने। इस शेर के जवाब में लड़के की खासी मरम्मत हो गयी और उसे समझा दिया गया कि आइन्दा वह ग़ालिब जैसे बरगलाने वाले शायरों को पढ़ना बन्द कर दे।

लेकिन हर ‘वेलेंटाइन डे’ के विरोध में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने वाले रज्जू भाई इस ‘वेलेंटाइन डे’ पर आश्चर्यजनक रूप से ग़ायब हैं। नंदन भाई ने एक लड़का उनके घर भेजा तो वे महात्मा बुद्ध की तरह चादर लपेटे प्रकट हुए। संतों की वाणी में बोले, ‘ये जोड़ों को पकड़ने और परेशान करने वाली नीति हमें अब घटिया लगती है। यह ठीक नहीं है। प्यार करना कोई गलत बात नहीं है। यह तो इस उमर में होता ही है। प्यार को रोकना प्रकृति के खिलाफ जाना है।’

लड़के ने लौटकर नंदन भाई तक रज्जू भाई के ऊँचे विचार पहुँचा दिये। नंदन भाई आश्चर्यचकित हुए। समझ में नहीं आया कि चेले का हृदय-परिवर्तन कैसे हो गया। तब रज्जू भाई के परम मित्र मनोहर ने रहस्योद्घाटन किया। बताया कि प्यार के घोर विरोधी रज्जू भाई दरअसल एक लड़की के प्यार में गिरफ्तार हो गये हैं। रोज सबेरे आठ बजे लड़कियों के हॉस्टल के सामने की चाय की दूकान पर पहुँच जाते हैं और दूकान की दीवार पर कुहनियाँ टेक कर दो-तीन घंटे तक मुँह उठाये, दीन-दुनिया से बेखबर, हॉस्टल के ऊपरी बरामदे की तरफ ताकते रहते हैं जहाँ उस लड़की की झलक पाने की संभावना रहती है। ग़रज़ यह कि इस प्यार नाम के ख़ब्त ने रज्जू भाई की अक्ल पर मोटा पर्दा डाल दिया है।

सुनकर पूरे समूह ने आह भरी कि रज्जू भाई जैसा उपयोगी और जाँबाज़ सदस्य अब उनके काम का नहीं रहा। नंदन भाई को लगा कि ज़रूर रज्जू भाई ग़ालिब जैसे किसी बहके हुए शायर के फेर में पड़ गये होंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 93 ☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 93 ☆

☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

लाइन में लगकर न जाने क्या- क्या कार्य किए जाते रहे हैं। राशन, बिल, रेल व पिक्चर के टिकिट, रोजगार हेतु फॉर्म जमा करना,  फीस जमा करना, बैंक के कार्यों में आदि। वैसे सबसे पहले स्कूल में प्रार्थना करते समय लाइन का अभ्यास बच्चों को शुरू से कराया जाता है। ऊँचाई के आधार पर, कक्षा, वर्ग की लाइन लगती है। जरा सी तिरछी होने पर तुरंत कड़क आवाज द्वारा सीधा करा दिया जाता है।

कृपया लाइन से आइए तभी सारे कार्य सुचारू रूप से हो सकेंगे। ऐसा कहते और सुनते हुए हम लोग बड़े हुए हैं। तकनीकी के प्रभाव से भले ही, लाइन लगाने के अवसरों में कमीं आयी है किंतु हम लोग इस अधूरेपन को कहीं न कहीं महसूस अवश्य कर रहे हैं। लाइन में लगकर बातचीत करते हुए अपने अधिकारों की चर्चा करना भला किसको याद नहीं होगा। सारी रामकथा वहीं पर कहते – सुनते हुए लोग देखे जा सकते थे किंतु ऑफलाइन के बढ़ते प्रभाव ने इस भावनात्मक मेलजोल को कम कर दिया है। 

इधर सारे कार्य भी वर्क फ्रॉम होम होने से उदास लोग मौका ढूंढते हुए दिखने लगे हैं कि ऑफलाइन में जो मजा था वो फिर से चाहिए। हालांकि अब कोई रोक- टोक नहीं है किंतु सब कुछ गति में आने पर वक्त तो लगता ही है। हर नियमों के  लाभ और हानि को मापना संभव नहीं  है। इस सबमें सबसे अधिक नुकसान स्कूली बच्चों का हुआ है। वे अब ऑफलाइन जाने में डर रहे हैं। दो वर्षों से ऑनलाइन परीक्षा देने पर जो लाभ उन्हें मिला है उससे उनकी पढ़ने व याद करने की आदत छूट गयी है। गूगल की सहायता से उत्तर लिखते हुए जो मजा उन्हें आ रहा था अब वो नहीं मिलेगा सो चिड़चिड़ाते हुए स्कूल जाते देखे जा सकते हैं। स्कूल प्रशासन को चाहिए कि उन्हें धैर्य के साथ समझाए। ज्यादा भय देने पर अरुचि होना स्वाभाविक है। बाल मन जब खेल- कूद की ओर लगेगा तो धीरे- धीरे पुनः गति आएगी।

माता- पिता को भी शिक्षकों के साथ तारतम्यता बैठाते हुए बच्चों को पुनः पहले जैसा बनाने की पहल करनी चाहिए। ऑफ लाइन की लाइन भले ही कष्टकारी हो किंतु सच्ची सीख, परस्पर प्रेम, देने का भाव, मेलजोल, सहनशीलता व संवाद को जन्म देती है इसलिए आइए मिलकर पुनः उसी धारा की ओर लौटें थोड़े से परिवर्तन के साथ क्योंकि परिवर्तन सदैव हितकारी होते हैं। इनसे ही सुखद भविष्य की नींव गढ़ी जा सकती हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 26 ☆ जिनके लिए कोई फायर फायर नहीं, कोई वॉल वॉल नहीं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “जिनके लिए कोई फायर फायर नहीं, कोई वॉल वॉल नहीं”। इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ शेष कुशल # 26 ☆

☆ व्यंग्य – “जिनके लिए कोई फायर फायर नहीं, कोई वॉल वॉल नहीं” – शांतिलाल जैन ☆ 

प्रिय पाठक,

मेरी कोशिश है कि आगे जो आप पढ़ने जा रहे हैं उसे व्यंग्य कहानी की तरह पढ़ें तो ये आपको सच्ची कहानी लगे और सत्यकथानुमा पढ़ें तो व्यंग्यसा लगे. तो कहानी में नायिका गुनगुना रही है – “जोगी (यूपी वाले नहीं), हम तो लुट गये तेरे प्यार में, जाने तुझको खबर कब होगी.” तभी एक आकाशवाणी होती है –

घबराओ मत चित्रे,  हमें खबर है. हम तुम्हें लुटने नहीं देंगे बल्कि करोड़ों लूट लेने का मंत्र सिखाएँगे.

नमन शिरोंमनीजी, परंतु आप वहाँ हिमालय में हैं और मैं मुंबई में. आप निराकार, अदृश्य, अलौकिक, सिद्ध पुरुष और मैं चराचर मिथ्याजगत में एक अबला नारी. आपसे कैसे बात करूँ ? हर बार तो आकाशवाणी से बात हो नहीं सकती ना!

बजरिये ई-मेल के. हम सागर तल की गहराईयों से लेकर हिमालय की ऊंची चोटियों तक कहीं से भी ई-मेल कर सकते हैं बालिके.

और नेटवर्क, कम्प्यूटर, पॉवर?

हमारी शक्तियों से कुछ भी बाहर नहीं है सुदर्शने.

धन्य हैं आप प्रभु, आपका मेल आई-डी प्लीज़ ?

सिम्पल, तीन वेदों के नाम से मिलकर बना है हमारा आई-डी, तुम [email protected] पर मेल कर सकती हो सुंदरी.

मगर एनएसई के सर्वर में तो फायरवॉल लगी है.

योगियों के लिए कोई फायर फायर नहीं है, कोई वॉल वॉल नहीं है मनोहारिणी.

शिरोंमनीजी, मेल तो अँग्रेजी में…और आप….,आई मीन कैसे !!! मैं समझ नहीं पा रही.

योगी भाषा बोली से बहुत ऊपर होते हैं सारिके. वे किसी भी भाषा में लिख-बोल-पढ़ सकते हैं. इन दिनों हम अँग्रेजी में लिखते हैं, तमिल में भक्तिगीत सुनते हैं.

वहाँ, हिमालय में शिरोंमनीजी ??

क्यूँ नहीं, हम अपनी सिद्धियों से गानों की रेडियो तरंगें कैच कर लेते हैं. आनंद की अनुभूति के लिए मैं तुम्हें मकरा-कुंडला गीत भेज रहा हूँ. बहरहाल, आज तुम बहुत नयनाभिराम लग रही हो, वेरी चार्मिंग. लंबे, घने, काले केश हैं तुम्हारे, इनका विन्यास रोजाना अलग अलग डिजाईन से किया करो रूपमति.

आप मुझे देख पा रहे हैं !!!

हम त्रिकालदर्शी हैं सुकन्या, हम हर समय, हर जगह, हर कुछ देख सकते हैं. हम देख पा रहे हैं लक्ष्मी आने के लिए तुम्हारे माऊस पर सवार होकर तैयार खड़ी है, जस्ट क्लिक इट. एनएसई के सर्वर लॉगिन में कुछेक सेकेंड्स आगे-पीछे एक्सेस देने से विपुल धन-प्राप्ति का योग बन रहा है कंचने.

संशय से मन बहुत घबरा रहा है शिरोंमनी. बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स को पता चल गया तो.

घबराओ मत तनुजे, धन प्राप्ति केक की तरह होनी चाहिए. काटना-बांटना साथ साथ चले. मुँह में केक भरा हो तो खोलना-बोलना मुश्किल होता है. लायन्स शेयर तुम्हारा होगा रमणे. केक हम सेशेल्स के खूबसूरत समंदर किनारे तैरते हुवे एंजॉय करेंगे. आनंद में डूबना ध्यान की परम अवस्था है कमनिया.

और नियामक संस्थान भी तो हैं ?

उनको केक का इतना बड़ा टुकड़ा खिलाना कि चार-छह साल तो मुँह बंद ही रहे. इस बीच अहम सबूत भस्म कर देने का काम हम पर छोड़ देना.

महाराज एक बात और ?

अब और प्रश्न करके समय खराब मत करो सुंदरी. उठो, जागो, धन ग्रहण करो, को-लोकेशन सर्वर्स में प्रिफ्रेंशियल एक्सेस देने का समय आ गया है. मेरा आशीर्वाद और रुहानी ताकत तुम्हारे साथ है. और हाँ,. हर्षद मेहता, केतन पारेख जैसी सुर्खियां न बनें इसीलिए केक का एक हिस्सा खबरचियों के लिए रिझर्व रखना, ये नब्बे-दो हज़ार का दशक नहीं है. तुम्हारे लिए थोड़ा सा कठिन समय दो हज़ार बाईस में आएगा परंतु जल्द गुजर जाएगा. अपरिमित धन-सुख के मुक़ाबिल इतना कष्ट सहनीय है, चित्रे.

सफलता तुम्हारी राह देख रही है सारिके – स्कैम स्टार भवः

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तो प्रिय पाठक, जोगी की कहानी पर सेबी ने एतबार कर लिया है, और आपने ?

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #133 ☆ व्यंग्य – प्यार पर पहरा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘प्यार पर पहरा’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 133 ☆

☆ व्यंग्य – प्यार पर पहरा

ख़बर गर्म है अमरावती के एक स्कूल में प्राचार्य जी ने लड़कियों को शपथ दिलवायी कि वे प्रेम-विवाह नहीं करेंगीं। समझ में नहीं आया कि प्राचार्य जी को इश्क से इतनी चिढ़ क्यों है। लगता है उन्होंने इश्क में गच्चा खाया होगा, तभी उन्हें इश्क से एलर्जी हुई। कबीर कह गये, ‘ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय’ और बुल्ले शाह ने फरमाया, ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, पर प्यार भरा दिल कभी ना तोड़ो’, लेकिन प्राचार्य जी प्यार भरा दिल तोड़ने के लिए हथौड़ा लेकर खड़े हैं।

‘जिगर’ ने लिखा, ‘ये इश्क नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरया है और डूब के जाना है’, और ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘इश्क पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब, जो लगाये न लगे और बुझाये न बने।’ प्राचार्य जी ने सही सोचा कि कोमलांगी कन्याओं को इस ख़तरनाक आग में कूदने से बचना चाहिए और अगर नासमझी में यह नामुराद आग लग जाए तो तुरंत अग्निशामक यंत्र की मदद से उसे बुझाने का इंतज़ाम करना चाहिए।

प्रेम-विवाह से बचने का अर्थ यह निकलता है कि शादी अपनी जाति और अपने धर्म में और माता-पिता की सहमति से की जाए, और दिल के दरवाज़े पर मज़बूत ताला लगा कर रखा जाए ताकि उसमें इश्क की ‘एंट्री’ ना होने पाए।

पारंपरिक परिवारों में लड़की के बड़े होने के साथ माता-पिता का चैन और नींद हराम होने लगते हैं। नाते-रिश्तेदारों की मदद से वर के लिए खोजी अभियान चलाना पड़ता है। ज़िन्दगी भर की बचत लड़की की शादी के लिए समर्पित हो जाती है। कहीं बात चली तो कन्या-दर्शन का कार्यक्रम होगा। खुद लड़का, उसके माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची, फूफा-फूफी, मामा- मामी, दादा-दादी, सब अपने-अपने चश्मे से लड़की का चेहरा झाँकेंगे। कोई छूट जाएँ तो बाद में पधार सकते हैं। लड़की नुमाइश के लिए उपलब्ध रहेगी। वर-पक्ष का निर्णय मिलने तक कन्या-पक्ष की साँस चढ़ी रहती है, रक्तचाप बढ़ा रहता है।

लड़की पसन्द आ गयी तो फिर दहेज की बात। प्रस्ताव बड़ी सज्जनता के साथ आते हैं— ‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन लड़के के ताऊजी चाहते हैं कि—‘, ‘हमें तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन लड़के के दादा की इच्छा है कि—‘। जब तक शादी नहीं हो जाती लड़की के माता-पिता की जान साँसत में रहती है। कई मामलों में शादी के बाद भी कन्या-पक्ष का जीना हराम रहता है। हमारे समाज में वर-पक्ष को कन्या-पक्ष से श्रेष्ठ समझा जाता है। इसीलिए मामा भांजे के पाँव छूता है और साले-साली के साथ मनचाही मसखरी की छूट रहती है। अपनी बहन और पत्नी की बहन में बहुत फर्क होता है। कहीं कहीं बूढ़े नाना को नाती के पाँव छूते देखा है।

कन्या के दर्शन के बाद वर-पक्ष अस्वीकृत कर दे तो लड़की अवसाद में घिर जाती है। दो चार बार ऐसा हुआ तो लड़की का आत्मविश्वास और आत्मसम्मान दरकने लगता है। माता-पिता की परेशानी देख कर लड़की अपने को अपराधी महसूस करने लगती है।

अब लड़कियाँ फाइटर प्लेन चला रही हैं, हर पेशे में आगे बढ़ रही हैं, खुद का व्यवसाय चला रही हैं, सरकार में मंत्री बन रही हैं, लेकिन अब भी बहुत से लोगों की सोच पिछली सदी में अटकी है। लड़की प्रेम-विवाह करती है तो वह माता-पिता को ज़िम्मेदारी और परेशानी से मुक्त करती है और उनके कमाये धन को उनके बुढ़ापे के लिए छोड़ जाती है। पारंपरिक शादियाँ उन धनाढ्यों को ‘सूट’ करती हैं जिनके पास उड़ाने और दिखाने के लिए बहुत माल होता है। परसाई जी ने ‘सुशीला’ उस कन्या को कहा है जो भाग कर अपनी शादी कर लेती है और माता पिता का धन बचा लेती है। लेकिन बहुत से लोगों के मन में अभी वही सिर झुका कर बैठने वाली, मौन रहने वाली, पैर के अँगूठे से ज़मीन खुरचने वाली सुशील कन्या बैठी है।

इश्क की मुख़ालफ़त करने वालों को याद दिलाना ज़रूरी है कि कभी एक बादशाह (एडवर्ड अष्टम) ने अपनी प्रेमिका से शादी करने के लिए अपनी गद्दी छोड़ दी थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 92 ☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना बदलते समीकरण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 92 ☆

☆ बदलते समीकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

आवेश में दिया गया आदेश खाली रह जाता है। ऐसा मैंने नहीं कहा ये तो भुक्त भोगी कहते हुए देखे व सुनें जा सकते हैं। कहते हैं, कार्यों का परिणाम जब आशानुरूप होता है तो मन सत्संगति की ओर चला ही जाता है।

दिव्य शक्ति के प्रति विश्वास आपको एक नयी ऊर्जा से भर देता है, जो कुछ हुआ वो अच्छा था और जो होगा वो और अच्छा होगा ऐसी सोच  जीने की चाहत को बढ़ाती है।  मन में उमंग हो तो वातावरण सुखद लगता है। किन्तु इन सबमें हारे हुए सिपाही कुछ अलग ही गाथा कहते हुए दिखाई देते हैं।

कुछ लोग इतने निराशावादी होते हैं कि पूरे जीवन भर न तो खुद  करते हैं न किसी को करने देते हैं। जब एक- एक बूंद जुड़कर महासागर  बन सकता है तो थोड़ा- थोड़ा  अनवरत किया गया परिश्रम क्या  जिंदगी को नहीं  बदल सकता ?

इसी उधेड़बुन में दिमाग़  उलझा हुआ था तभी सजगनाथ जी आ पहुँचे।

सजगनाथ जी अपने नाम के अनुरूप हमेशा सजग रहते, आखिर रहे भी क्यों न ? इधर का उधर करना उनकी आदत में शुमार था। पहले तो पुस्तकों को पढ़कर फिर दूसरे का लेख अपने नाम से करने में कुछ मेहनत तो लगती है थी किन्तु जब से तकनीकी ज्ञान से जुड़े तब तो मानो  सारा साहित्य ही उनकी  मुट्ठी में आ गया या ये भी कहा जा सकता है कि बस एक क्लिक करने कि देर  और कोई भी रचना उनके नाम से तैयार ।

अब तो सजग साहब हमेशा ही काव्यपाठ,  उद्घाटन व अन्य समारोह में व्यस्त रहते। एक दिन  अखिलभारतीय स्तर के काव्य पाठ में उनको बुलाया गया वहाँ बड़े- बड़े नेता जी भी आमंत्रित थे   अब तो सजग साहब बड़े घमंड से संचालन करने बैठे उन्होंने  जैसे ही पहली पंक्ति पढ़ी तो लोग वाह- वाह करने लगे तभी  मंच से एक कवि बोल पड़ा अरे सजग  दादा यही कविता तो मुझे पढ़नी है इसे आप बोल दोगे तो मैं क्या करूँगा उन्होंने  बात सम्भालते हुए कहा बेटा तुम्हारे लिए ही तो भूमिका बना रहा था पर क्या करें ये नई पीढ़ी का जोश भी जल्दी होश खो देता है। ये बात तो जैसे- तैसे निपटी पर जैसे ही उन्होंने दूसरी कविता की पंक्ति पढ़ी तो दर्शक दीर्घा से एक महिला उठ खड़ी हुई  अरे ये क्या यह कविता  तो   प्रसिद्ध  छायावादी रचनाकार की है, आप इसे अपनी बता कर श्रोताओं को  उल्लू बना रहे हैं।

तभी पीछे से आवाज़ आयी सज़ग  नाथ जी अब श्रोता भी सजग हो गए हैं, केवल आप ही फेसबुक में रचनाएँ नहीं पढ़ते हम  लोग भी पढ़ते हैं साहब।

खैर ये सब तो उनके लिए कोई नई बात तो थी नहीं ऐसी मुसीबतों से निपटना वो अच्छी तरह जानते थे।

कार्यक्रम बड़े जोर शोर से चल रहा था।  उनकी सजगता  श्रोताओं को बाँधे हुए थी अब सजगनाथ जी के काव्यपाठ की बारी आयी  उनको बड़े आदर सत्कार से एक वरिष्ठ कवि ने आमन्त्रित किया,   आते ही उन्होंने  बड़ी- बड़ी भूमिका बाँधी फिर दो लाइन कविता की बोली, फिर वही हास्य से परिपूर्ण चर्चा शुरू की फिर दो पंक्ति पढ़ी  उसमें भी ये दो पंक्ति उनकी नहीं मशहूर शायरों की थी पूरे एक घण्टे उन्होंने मंच पर काव्यपाठ किया  (संचालन का समय अतिरिक्त) पर स्वरचित पंक्ति के नाम पर कुछ भी नहीं केवल मुस्कुराहट बस उनकी थी बाकी सब कुछ  साहित्यतेय स्तेय था। ऐसा ही सभी क्षेत्रों में होता हुआ दिखाई देता है – क्या नेता क्या अभिनेता।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 150 ☆ व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 150 ☆

? व्यंग्य – उल्लू बनाओ मूर्ख दिवस मनाओ  ?

किशमिश, काजू, बादाम सब महज 300रु किलो,  फेसबुक पर विज्ञापन की दुकानें भरी पड़ी हैं। सस्ते के लालच में रोज नए नए लोग ग्राहक बन जाते हैं।  जैसे ही आपने पेमेंट किया दुकान बंद हो जाती है। मेवे नहीं आते, जब समझ आता है की आप मूर्ख बन चुके हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इस डिजिटल दुकानदारी के युग की विशेषता है कि मूर्ख बनाने वाले को कहीं भागना तक नहीं पड़ता, हो सकता है की वह आपके बाजू में ही किसी कंप्यूटर से आपको उल्लू बना रहा हो।

सीधे सादे, सहज ही सब पर भरोसा कर लेने वालों को कभी ओ टी पी लेकर, तो कभी किसी दूसरे तरीके से जालसाज मूर्ख बनाते रहते हैं।

राजनैतिक दल और सरकारें, नेता और रुपहले परदे पर अपने किरदारों में अभिनेता,  सरे आम जनता से बड़े बड़े झूठे सच्चे वादे करते हुए लोगों को मूर्ख बनाकर भी अखबारों के फ्रंट पेज पर बने रहते हैं।

कभी पेड़ लगाकर अकूत धन वृद्धि का लालच, तो कभी आर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर खुली लूट, कभी बिल्डर तो कभी प्लाट के नाम पर जनता को मूर्ख बनाने में सफल चार सौ बीस, बंटी बबली, नटवर लाल बहुत हैं। पोलिस, प्रशासन को बराबर धोखा देते हुए लकड़ी की हांडी भी बारम्बार चढ़ा कर अपनी खिचड़ी पकाने में निपुण इन स्पाइल्ड जीनियस का मैं लोहा मानता हूं।

अप्रैल का महीना नए बजट के साथ नए मूर्ख दिवस से प्रारंभ होता है, मेरा सोचना है की इस मौके पर पोलिस को मूर्ख बनाने वालों को मिस्टर नटवर, मिस्टर बंटी, मिस बबली जैसी उपाधियों से नवाजने की पहल प्रारंभ करनी चाहिए। इसी तरह बड़े बड़े धोखाधड़ी के शिकार लोगों को उल्लू श्रेष्ठ, मूर्ख श्रेष्ठ, लल्लू लाल जैसी उपाधियों से विभूषित किया जा सकता है।

इस तरह के नवाचारी कैंपेन से धूर्त अपराधियों को, सरल सीधे लोगों को मूर्ख बनाने से किसी हद तक रोका जा सकेगा।

बहरहाल ठगी, धोखाधड़ी, जालसाजी से बचते हुए हास परिहास में मूर्ख बनाने  और बनने में अपना अलग ही मजा है,  इसलिए उल्लू बनाओ, मूर्ख दिवस मनाओ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 149 ☆ व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  व्यंग्य बुरा मानकर भी कर क्या लोगे !

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 149 ☆

? व्यंग्य – बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! ?

बुरा न मानो होली है कहकर, बुरा मानने लायक कई वारदातें हमारे आपके साथ घट गईं. होली हो ली. सबको अच्छी तरह समझ आ जाना चाहिये कि बुरा मानकर भी हम सिवाय अपने किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते.बुरा तो लगता है जब धार्मिक स्थल राजनैतिक फतवे जारी करने के केंद्र बनते दिखते हैं. अच्छा नहीं लगता जब  सप्ताह के दिन विशेष भरी दोपहर पूजा इबादत के लिये इकट्ठे हुये लोग राजनैतिक मंथन करते नजर आते हैं. बुरा लगता है जब सोशल मीडीया की ताकत का उपयोग भोली भीड़ को गुमराह करने में होता दिखता है. बुरा लगता है जब काले कपड़े में लड़कियों को गठरी बनाने की साजिश होती समझ आती है. बुरा लगता है जब भैंस के आगे बीन बजाते रहने पर भी भैंस खड़ी  पगुराती ही रह जाती है.  बुरा लगता है जब मंच से चीख चीख कर भीड़ को वास्तविकता समझाने की हर कोशिश परिणामों में बेकार हो जाती है. इसलिये राग गर्दभ में सुर से सुर मिलाने में ही भलाई है. यही लोकतंत्र है. जो राग गर्दभ में आलाप मिलायेंगे, ताल बैठायेंगे,  भैया जी ! वे ही नवाजे जायेंगे. जो सही धुन बताने के लिये अपनी ढ़पली का अपना अलग राग बजाने की कोशिश करेंगे, भीड़ उन्हें दरकिनारे कर देगी. भीड़ के चेहरे रंगे पुते होते हैं. भीड़ के चेहरों के नाम नहीं होते. भीड़ जिससे भिड़ जाये उसका हारना तय है. लोकतंत्र में भीड़ के पास वोट होते हैं और वोट के बूते ही सत्ता होती है.

सत्ता वही करती है जो भीड़ चाहती है. भीड़ सड़क जाम कर सकती है, भीड़ थियेटर में जयकारा लगा सकती है,  भीड़ मारपीट, गाली गलौज, कुछ भी कर सकती है. फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री राशन और मुफ्तखोरी के लुभावने वादों से भीड़ खरीदना लोकतांत्रिक कला है.  बेरोजगारी भत्ते, मातृत्व भत्ते, कुपोषण भत्ते, उम्रदराज होने पर वरिष्ठता भत्ते जैसे आकर्षक शब्दों के बैनरों से बनी योजनाओ से बिन मेहनत कमाई के जनोन्मुखी कार्यक्रम भीड़ को वोट बैंक बनाये रखते हैं.

भीड़ बिकती समझ आती है पर बुरा मानकर भी कर क्या लोगे ! खरीदने बिकने के सिलसिले मन ही मन समझने के लिये होते हैं, बुरा भला मानने के लिये नहीं. खिलाड़ियो को नीलामी में बड़ी बड़ी कीमतों पर सरे आम खरीद कर, एक रंग की पोशाक की लीग टीमें बनाई जाती हैं. मैच होते हैं, भीड़ का काम बिके हुये खिलाड़ियों को चीयर करना होता है. चीयर गर्ल्स भीड़ का मनोरंजन करती हैं. भीड़ में शामिल हर चेहरा व्यवस्था की इकाई होता है. ये चेहरे सट्टा लगाते है, हार जीत होती है करोड़ो के वारे न्यारे होते हैं. बुद्धिमान भीड़ को हांकते हैं. जैसे चरवाहा भेड़ों को हांकता है. भीड़ को भेड़ चाल पसंद होती है. भीड़ तालियां पीटकर समर्थन करती है.  काले झंडे दिखाकर, टमाटर फेंककर और हूट करके भीड़ विरोध जताती है. आग लगाकर, तोड़ फोड़ करके भीड़ गुम हो जाती है.  भीड़ को कही गई कड़वी बात भी किसी के लिये व्यक्तिगत नहीं होती. भीड़ उन्मादी होती है. भीड़ के उन्माद को दिशा देने वाला जननायक बन जाता है. 

भीड़ के कारनामों का बुरा नहीं मानना चाहिये, बल्कि किसी पुरातन संदर्भ से गलत सही तरीके से उसे जोड़कर सही साबित कर देने में ही वाहवाही होती है. भीड़ प्रसन्न तो सब अमन चैन. सो बुरा न मानो, होली है, और जो बुरा मान भी जाओगे तो कुछ कर न सकोगे क्योंकि तुम भीड़ नही हो, और अकेला चना भाड़ नही फोड़ सकता. इसलिये भीड़ भाड़ में बने रहो, मन लगा रहेगा.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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