जगत सिंह बिष्ट

(आदरणीय श्री जगत सिंह बिष्ट जी, मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं। ई-अभिव्यक्ति द्वारा आपका प्रसिद्ध व्यंग्य एक व्यंग्यकार की आत्मकथा 28 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित किया था.)

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा की कुछ पंक्तियाँ …….

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  ……….

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>>   हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट

>>  हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ व्यंग्य रचना/व्यंग्य पाठ – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट

☆ हिंदी साहित्य ☆ व्यंग्य ☆ उम्रकैद के सात साल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

(लगभग 31 वर्ष पहले, ‘उम्रकैद के सात साल’ शीर्षक से प्रकाशित हास्य-व्यंग्य रचना. ये उम्रकैद आज भी बदस्तूर जारी है. पढ़ें और आनंदित हों.. श्री जगत सिंह बिष्ट)

हम अपनी बीवी के शुक्रगुज़ार हैं कि तमाम लापरवाहियों के बावजूद, वह इन सात सालों में रसोई-घर में दुर्घटनाग्रस्त होने से किसी तरह बची रहीं, वरना अख़बारों में एक बार फिर सुर्ख़ियों में छपता – ‘एक और दहेज़ हत्या’ – और भारतीय डंडा संहिता की आड़ में, किसी खाकी वर्दीधारी को हमारी सूखी हजामत बनाने का मौका मिल जाता. इस तरह के अप्रत्याशित खतरों से घिरा होने के बाद भी बेचारा पुरुष अब तक बेड़ियों से मुक्त होने के मूड में नहीं आया है. इसे कहते हैं गुलाम मानसिकता.

उधर, हमारे जीवन को रंगीन और फिर संगीन बनाने वाली जीवन-संगिनी, इन सब बातों से बेखबर, ‘वूमेंस लिब’ की खुली हवा में स्वच्छंद विहार कर रही है. सात चक्कर में पड़ने से पहले, हम भी ‘चंद्रमुखी, सूरजमुखी, ज्वालामुखी’ वाले चुटकुले पर हंसा करते थे.उस उम्र में धर्मपत्नी के धार्मिक रोले को समझने में हमारी बुद्धि असमर्थ थी.

इन सात सालों में, हमारे विचारों में ऊपर से नीचे तक परिवर्तन हुआ है. आज हम – अन्य पति कहलाने वाले जीवों कि तरह – दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारी ‘मधुमुखी’ पत्नी के व्यंग्य के डंक की चोट, अच्छे-अच्छे व्यंग्यकारों से कहीं अधिक है. मधु, यदि कभी रहा भी हो तो, हमारे हिस्से में नहीं आया.

चलिए, आपको फ्लैशबैक में लिए चलते हैं..

वधु की विदाई की ह्रदय-द्रावक बेला है. फिल्मों में ऐसे सीन फिल्माने के लिए कनस्तर भर ग्लिसरीन खर्च हो जाती है. हमारे ससुरजी डबडबाई आखें लिए विवश खड़े हैं. रौबदार मूछों वाला ऐसा भयंकर व्यक्तित्व, जिसे देखते ही अच्छे-अच्छे मलखान सिंह भी उनकी बेटी को छोड़कर भाग जायें. एक नज़र हमने उनकी चमचमाती चाँद पर डाली, जो फिसलकर उनकी चाँद जैसी छुई-मुई बेटी पर पहुँच गयी.

अपना कर्त्तव्य पालन करते हुए, हम उनकी तथाकथित सुन्दर, गौरवर्ण, सुशिक्षित और घरेलु कामकाज में दक्ष कन्या को सोफे, पलंग और अलमारी सहित बड़ी शान से विदा कर लाये. परदे के पीछे, शहनाई की धुन थमने के पहले ही, हमारी नयी-नवेली श्रीमतीजी ने ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के नक़्शे जैसे रोटियाँ बनाकर, तत्पश्चात जलाकर, अपने होमेस्सिएंस के ज्ञान को प्रमाणित करना प्रारंभ कर दिया.

उनके परिवार की आधुनिकता का सम्मान करते हुए हमने, अपने सास-ससुर को तीर्थ-स्थल की बजाय ‘हिल-स्टेशन’ माना. गर्मियों में तो सभी राहें, ससुराल की तरफ जाती ही हैं, हम सर्दियों में भी वहाँ ‘स्नो-फॉल’ देखने के बहाने, जाने लगे. बरसातों में, काली घटाएं सालीजी का संदेश लाकर, हमें वहाँ खींच ले जातीं.

इसके आलावा, धर्मपत्नी के इशारे को धर्म समझकर, हम उनके दूर-दूर के चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहनों के शादी-ब्याह-मुंडन में बिना नागा शामिल होने लगे. पत्नी ही हमारी ‘फैमिली’ बन गयी. अपने ओरिजिनल मां-बाप को हमने प्राचीन सभ्यता के जर्जर खंडहरों की तरह अलग-थलग छोड़ दिया – इस उम्मीद के साथ कि देर-सबेर पुरातत्त्व विभाग उन्हें अपने संरक्षण में ले ही लेगा.

महान भारतीय मानवों की गौरवशाली परंपरा को निभाते हुए, हमने भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय का मान रखा और देश को अपना अमूल्य योगदान दिया. विवाहित जीवन का अगला दौर प्रारंभ हुआ. ईश्वर की असीम अनुकम्पा से प्राप्त पुत्ररत्न की, कभी पीली तो कभी हरी चड्ढीयां, बिना नाक-भौं सिकोड़े, उतारने और धोने का सुगन्धित दौर. 

हमारा बेटा किसी टाईमटेबल का पाबंद नहीं था. न ही अमरीका और स्कैनडीनेविया के देशों  की तरह हमारे दफ्तर में पैतृत्व अवकाश का कोई प्रावधान था. राजू की मम्मी चैन से अपनी ‘ब्यूटी-स्लीप’ पूरी करती और हम अपने बेटे का घोड़ा बना करते. उसकी मम्मी की निगाहों में गधे तो हम पहले ही थे.

अपनी तमाम हरी-पीली नादानियों के बावजूद हमें राजू बड़ा प्यारा लगता है. वैसे ही जैसे सबकुछ जानने-समझने के बाद भी दूसरों की बीवियां अच्छी लगती हैं. राजू कन्धों पर किताबों का बोझ लादे स्कूल जाने लगा है – शायद भविष्य में घोड़ा और गधा बनने का अभ्यास कर रहा है. सुबह हम उसे तैयार करवाते हैं और शाम को उसका होमवर्क करवाते हैं.

इस बीच राजू की गुड़िया जैसी बहन के लिए कुछ फरमाइशें हमें प्राप्त हुई हैं लेकिन हमने ठान ली है की हम तो वही करेंगे जो रात को ठीक नौ बजे दूरदर्शन पर साफ़-साफ़ बताया जाता है. (अगर आप अब भी नहीं समझे हों तो कभी आकर हमारे होनहार बेटे को गुनगुनाते हुए सुन लीजिये – ज़रा सी सावधानी, ज़िन्दगी भर आसानी.)

यूँ उम्रकैद के सात साल कट गए हैं. पहले स्कूल जाती बालिकाएं ‘अंकल’ कहा करती थीं, अब कॉलेज जाती किशोरियां भी हमारे लिए इस संबोधन का प्रयोग करने लगी हैं. शायद हमारी अर्धांगिनी ने भी कबूल कर लिया है की हम युवावस्था की ड्योढ़ी लांघ चुके हैं. तभी तो आस-पड़ोस की गोलमटोल भाभियों से हमारी नोकझोंक को अब वह नज़रंदाज़ कर देती हैं.

हम जानबूझकर थोड़ा ऊँचा सुनने लगे हैं. पत्नी की कई बातों को हम सुनकर भी अनसुना कर देते हैं. पत्नी के आंशिक अंधेपन और हमारे आंशिक बहरेपन की बदौलत हम लोग आंशिक रूप से सुखी हैं.

कल हमारी शादी की सातवीं सालगिरह है. विवाहित जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आपके साथ बांटने के लिए हमने कल शाम को खट्टी-मीठी चाट पार्टी का आयोजन किया है. आप सभी इसमें शामिल होने के लिए सादर आमंत्रित हैं.

©  जगत सिंह बिष्ट

इंदौर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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