हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – लोकतन्त्र का महाभारत – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

लोकतन्त्र का महाभारत

निजी टी वी चैनल “हमारे अपने” के स्टुडियो से टी वी पत्रकार संजय को बार-बार फोन आ रहे थे। बहुत दिनों से कुछ नया और कोई अच्छी रिपोर्टिंग नहीं हुई है। आखिर दूर-दराज के गाँव के एकमात्र अंधों में काने शिक्षित बुजुर्ग मातादीन को बड़ी मुश्किल से मोबाइल पर इंटरव्यू के लिए पटाया। फिर उस दिन तो बड़ा गज़ब हो गया। संजय की दूर-दराज के गाँव में खड़ी ओ बी वेन का संचार परलोक में बैठे धृतराष्ट्र से जुड़ गया। दूसरी ओर से पिक्चर नहीं आ रही थी सिर्फ आवाज ही आ रही थी।

“सर! मैं संजय!”

“हाँ, कहो मैं धृतराष्ट्र!”

संजय चौंका – “धृतराष्ट्र!”

संजय को लगा कि जरूर स्टुडियो में कोई वरिष्ठ मित्र ले रहा है मजा, या पा गया है कोई मौका। धृतराष्ट्र को लगा कि महाभारत हुए एक युग बीत चुका है और ये संजय क्यों लगा रहा है धरती से चौका?

“संजय तुम्हारी आँखों देखी महाभारत को युग बीत गया। अब कौन सी महाभारत बाकी है?”

“यहाँ तो आये दिन महाभारत होती रहती है।“

“आए दिन! क्या कह रहे हो? मुझे विस्तार से बताओ।”

अब संजय को भी मजा आने लगा।

“सर, मेरे कहने का मतलब है आए दिन तो चुनाव होते रहते हैं। कभी ग्राम, कभी जिला, कभी प्रदेश तो कभी देश के। और हर चुनाव में महाभारत होता है।“

“ये क्या कह रहे हो? क्या धर्म नाम की वस्तु नहीं रही?”

“सर, वो तो आपके युग की बात है। आपके समय में या तो धर्म होता था या अधर्म और जातियाँ भी गिनती की चार होती थीं। अब तो इतने धर्म और इतनी जातियाँ हो गईं हैं कि आपको क्या बताऊँ सर? चीरहरण और शीलहरण तो मामूली बात है। फिर शीलहरण की तो कोई उम्र ही नहीं रही। पांडव दिखने वाले भी बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं।“

“फिर शासन कैसे चलता है? और महाभारत किसके मध्य हो रही है?”

अब संजय के चौंकने की बारी थी। फिर भी संभलते हुये बोला।

“सर, जितने महाभारत में राजा नहीं थे उतने तो नेता हो गए हैं। क्योंकि कोई भी नेता राजा से कम नहीं है। रही बात महाभारत किसके मध्य हो रहा है? तो मैं आपको अपनी रिपोर्टिंग देने से पहले बता दूँ कि यदि आज देवकीनंदन भी यहाँ आ जाएँ तो कहीं कन्फ़्यूज ना हो जाएं कि कौरव कौन हैं और पांडव कौन हैं? शकुनि तो अनगिनत हो गए हैं सर। आज तो शकुनि भी कन्फ़्यूज है कि जिस दुर्योधन को चुनाव के द्यूतक्रीडा की चाल समझा रहा है वो कल सारे दाँव सीख कर कहीं पांडवों से न जा मिले। दुर्योधन की सेना का कौन नेता कब पांडव के पक्ष से लड़ेगा और पांडवों की सेना का कौन नेता दुर्योधन के पक्ष से लड़ेगा ये तो आप काल से ही पूछ लेना। रही बात युधिष्ठिर की, तो उनके जैसे जुआरी तो बहुत मिलेंगे पर सत्य बोलने वाला सारी धरती पर एक भी नहीं मिलेगा। फिर आपके समय में युद्ध में थोड़ा बहुत छल कपट तो हुआ होगा। अब तो हर युद्ध छल से ही जीता जाता है। सूर्यास्त पर युद्ध की समाप्ति का शंख नहीं बजता। आए दिन अभिमन्यु चक्रव्यूह में घेर कर मारा जाता हैं। इसे लोकतंत्र में चक्रव्यूह नहीं भीडतंत्र (मोबोक्रेसी) कहते हैं। लोग कहते हैं कि युद्ध और प्यार में सब जायज है। अब अर्जुन जैसा कोई योद्धा नहीं जिसे भगवत गीता के ज्ञान की आवश्यकता पड़े। मुरलीधर तो सब जानते हैं इसलिए शान्त हैं, मुस्कुरा रहे हैं, बांसुरी की धुन पर सबको नचा रहे हैं और “यदा यदा हि धर्मस्य …..” के तर्ज पर अवतार लेने को तैयार ही नहीं हैं। पता नहीं दीनदयाल स्वयं को प्रकट करने के लिए कितना समय और लगाएंगे? क्या इन राजाओं द्वारा इतने धर्मों और जातियों के दीनों की आपस में कोई और महाभारत करवाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं? टीआरपी के लिए चैनलों पर लोकतन्त्र के मतदाता सैनिकों को गुमराह करने वाली बहस और फेक न्यूज़  के बारे में कुछ कह नहीं सकता सर, मेरी तो नौकरी ही चली जाएगी।”

इधर संजय पूरी महाभारत का पोस्टमार्टम करने को तैयार था और उधर धृतराष्ट्र को कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था।

“संजय, तुम ये सब क्या कह रहे हो? मुझे तुम्हारी महाभारत समझ ही नहीं आ रही।“

अब संजय का दिमाग भी कुछ पक सा रहा था। उसे लगा कि उसे अब मुद्दे पर आना चाहिए। फिर मातादीन भी बार-बार उठने की फिराक में था।

“सर, मज़ाक छोड़िए। ये आपकी महाभारत जाए … । मेरे सामने मातादीन अपने चार-पाँच कार्ड ले कर बैठा है। उसका इंटरव्यू सीरियसली रिकार्ड करेंगे, लाइव दिखाएंगे या रिकार्ड कर के भेजूँ?”

“संजय, महाभारत में ये मातादीन कौन आ गया और ये रिकार्डिंग, कार्ड … ये सब क्या है?”

संजय अब झल्ला गया था। मोबाइल में अभी भी सिग्नल नहीं थे और बैटरी भी जा रही थी।

“सर, अब आप चुपचाप सुनते जाइए। मैं अपने मोबाइल पर भी रिकार्ड कर रहा हूँ। आपको नहीं दिख रहा हो तो रिकार्डिंग से काम चला लेंगे।“

धृतराष्ट्र आश्चर्यचकित – “क्या……?”

इधर संजय ने मातादीन का इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया।

“आइये हम अपने दर्शकों को मिलवाते हैं, गाँव के एक ऐसे एकमात्र शिक्षित निवासी श्री मातादीन जी से जिनके गाँव तक बिजली के तार तो पहुँच गए पर करंट नहीं पहुंचा। इनका कहना है कि ये कई बार तारों को छू कर भी देख चुके हैं। हमने इन्हें समझाया कि आप ऐसी गलती ना करें दुर्घटना हो सकती है। और मातादीन जी आप ये इतने सारे कार्ड लेकर क्यों आए हैं और आपको इन कार्डों से क्या शिकायत है? जरा हमारे दर्शकों को बताएं।”

मातादीन जिंदगी में पहली बार कैमरे के सामने आया था। गाँव के लोग-लुगाइयाँ और बच्चे सतर्क हो गए। मातादीन कैमरे से आँख ही नहीं मिला पा रहा था। संजय ने आँखों और हाथों से इशारा किया। और मातादीन दायें बाएँ देखते हुए धाराप्रवाह शुरू हो गया।

“सब लोगन को हाथ जोड़ के राम राम। वो तो साहब हम बीच-बीच में तार इसलिए छू के देख लेते रहे। काहे कि हमने देखा रहा पिछली बार मंत्री जी ने तीस मील दूर के पड़ोस के पहाड़ी गाँव की बिजली का साठ मील दूर के जिले दफ्तर में बैठ कर बटन दबा कर उदघाटन करी रही। काहे कि उनकी गाड़ी पहाड़ पे नहीं चढ़ पाई रही।“

“अच्छा और आप ये कार्ड क्यों ले कर आए हैं?”

मातादीन कार्ड दिखाते हुए बोला “साहब हम ठहरे गाँव के। साहब हमें अपनी छोटी सी बुद्धि में या बात समझ नहीं आ रही कि ये तीन-चार कारड किस काम के?”

संजय ने एक-एक कार्ड कैमरे में दिखाते हुए समझाया।

“देखो ये है आधार कार्ड जो आपकी पहचान है। ये है वोटर कार्ड जिसकी मदद से आप वोट डाल सकते हैं और यह है पैन कार्ड जिसकी मदद से आप अपनी आयकर की जानकारी दाखिल कर सकते हैं। और जो ये जो चौथा कार्ड आपके हाथ में है उसे एटीएम कार्ड कहते हैं जिसकी मदद से आप बैंक के एटीएम से पैसा निकाल सकते हैं।“

“साहब ये जो आपने पहले तीन कारड बताए हैं इनको सम्हाल सम्हाल कर हमारी जान निकल रही है। चौथे एटीएम कारड ने तो हमारी जान ही निकाल दी।?

“ऐसा क्या हो गया?

“हमारी मोटी बुद्धि के मुताबिक जब आधार कारड बनाते समय हमारी उँगलियों के निशान और आँख की पुतलियाँ तक जांच लई और एटीएम कारड से हवा में हमारे बैंक से जोड़ दई तो पहले तीन कारड की जानकारी जोड़ के एकई कारड काहे नहीं दे देते। आखिर सभी दफ्तर तो एकई सरकार के ठहरे। लगता है उनमें कोई तालमेल ही नहीं है। जब पिछली बार वोट डालने गए रहे तो पता चला कोई और मातादीन नकली वोटर कारड से हमारा वोट डाल चुका रहा। काहे नहीं हमारे आधार कारड को वोटिंग मशीन से जोड़ देते जो हमारे अंगूठे के निशान से हमें पहचान लेता। ऐसई इसी कारड से आयकर की जानकारी भी ले लेते। साहब ये तो हम अपनी छोटी मोटी बुद्धि से कह रहे हैं। यदि गलत कह रहे तो साहब हमें माफ करना आप लोग हमसे बहुतई समझदार ठहरे। हम तो कह रहे हैं साहब आप तो इसमें हमारे ट्रेक्टर और मोटर साइकिल की भी जानकारी ठूंस दो। फिर देखो हम कैसे इस कारड को अपनी जान से भी ज्यादा संभाल कर रखते हैं? फिर मजाल है कोई दूसरा मातादीन हमारा नकली कारड लेके बजार में घूमता फिरे? आगे तो आप लोग बहुतई समझदार हो साहब?“

“आपका अपना चैनल मातादीन जी की समस्या को शासन से अवगत कराने की पूरी कोशिश करेगा। मातादीन जी कार्डों के बारे में आपकी और कोई समस्या हो तो आप हमें बताइये हम आपकी समस्या को ऊपर तक पहुंचाने की पूरी कोशिश करेंगे।“

“बस साहब एटीएम कार्ड से भी बहुत परेशान हैं। बैंक वाले बार-बार कहते हैं कि किसी को अपने कार्ड की जानकारी बिलकुल ना देना और बैंक वाले खुद फोन कर-कर के जानकारी मांगते हैं।“

“मातादीन जी आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि बैंक कभी भी ऐसी कोई जानकारी नहीं मांगता। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। अब हम आपको स्टुडियो ले चलते हैं। आपका अपना चैनल के लिए कैमरा मेन अर्जुन के साथ मैं संजय। आप देखते रहिए आपका अपना चैनल।“

इतने में क्लिक की आवाज आई और ओ बी वैन में स्टुडियो का चित्र उभरा। संजय का संपर्क स्टुडियो के टेकनीशियन दिनेश से जुड़ गया।

संजय चौंक कर स्क्रीन की ओर देखते हुए पूछता है – “धृतराष्ट्र कहाँ है?”

दिनेश पूछता है – “कौन धृतराष्ट्र?”

“अरे यार जिससे अभी मेरी बात हो रही थी? माता दीन का इंटरव्यू रिकार्ड हो गया ना।”

“कौन धृतराष्ट्र? कौन मातादीन? कैसा इंटरव्यू?”

“संजय सर …..  संजय सर ….. उठिए वो गाँव आ गया है। कोई मातादीन पंचायत भवन के बाहर गाँव के लोग लुगाइयों और बच्चों के साथ आपका इन्तजार कर रहा है।”

ड्राइवर कृष्ण कुमार ओ बी वैन में पीछे लेटे टी वी पत्रकार संजय को नींद से उठा रहा था। और संजय नींद में उठकर कभी ओ बी वेन के मॉनिटर को तो कभी ओ बी वेन की खिड़की के बाहर शोर मचाती भीड़ को देख रहा था।

© हेमन्त बावनकर

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व्यंग्य
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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट

जगत सिंह बिष्ट

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  क्षमा करें, हमारी भाषा ही कुछ ऐसी होती है।

इस आत्मकथा में जितने प्रयोग सत्य के साथ किये गये हैं, उससे कहीं अधिक असत्य के साथ।  यह निर्णय आपको करना होगा कि क्या सत्य है और क्या असत्य।  मोटे तौर पर, उपलब्धियों के ब्यौरे को झूठा मानें और चारित्रिक कमज़ोरियों के चित्रण को सच्चा जानें।  आत्मकथा का जो अंश अच्छा लगे, उसे चुराया हुआ समझें और जो घटिया लगे, उसे मौलिक मान लें।  जहां कोई बात समझ में न आये तो उसका ठीक विपरीत अर्थ लगायें क्योंकि व्यंग्यकार शीर्षासन के शौकीन माने जाते हैं।

व्यंग्यकार ज़माने के साथ चलता है और उनको पहचानता है जो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं।  आपकी रुचि और रुझान की भी उसे पहचान है. इसलिये उसकी आत्मकथा में आपको भरपूर मसाला मिलेगा. इस व्यंग्यकार की हार्दिक और शारीरिक ख्वाहिश है कि वह भी कमला दास और खुशवंत सिंह की तरह चर्चित हो. इसलिये वह आवश्यक हथकंडे अपनाने को भी तैयार है।

अब आत्मकथा आरंभ होती है…..

संयोग से मेरा कलयुगी अवतार संस्कारधानी जबलपुर में हुआ जहां से ओशो रजनीश, महर्षी महेश योगी और हरिशंकर परसाई ताल्लुक रखते हैं।  आज तक मैं यह नहीं समझ पाया कि लुच्चों-लफ़ंगों के लिये मशहूर इस शहर को संस्कारधानी क्यों कहा जाता है? भगवान रजनीश की प्रवचन-पुस्तक ’संभोग से समाधि की ओर’ का गहन अध्ययन मैंने जवानी के दिनों में गैर धार्मिक कारणों से किया था।  महर्षि महेश योगी के प्रति मेरी गहरी श्रद्धा तब से है जब उन्होंने भावातीत ध्यान के माध्यम से विश्व शांति का अनुष्टान किया था और अमरीका ने इराक पर ’कारपेट” बमबारी कर दी थी।  हरिशंकर परसाई का प्रभाव अलबत्ता मेरी सोच पर पर्याप्त रूप से पड़ा है।  शायद वे ही इस व्यंग्यकार के प्रेरणा पुरुष हैं।  उनकी तरह लिखना-पढ़ना चाहता हूं लेकिन टांगें तुड़वाने में मुझे डर लगता है।  मैं प्रतिबद्धता का जोखिम मौका देखकर उठाता हूं।

हरिशंकर परसाई के सान्निध्य में कुछ बातें सीखीं।  व्यंग्यकार कोई विदूषक या मसखरा नहीं होता।  वह पूरी गंभीरता और सूक्ष्मता के साथ घटनाओं को देखता है और विसंगतियों पर निर्ममता से प्रहार करता है।  एक बात में अवश्य वे मुझे ’मिसगाइड’ कर गये – उन्होंने मुझे ध्यानपूर्वक रवीन्द्रनाथ त्यागी की रचनाएं पढ़ने की सलाह दी।  मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया।  प्रारंभ में तो बहुत आनन्द आया लेकिन जब प्रत्येक व्यंग्य में महिलाओं का नख-शिख वर्णन आने लगा तो मैं दिग्भ्रमित-सा हो गया।  लिखते-पढ़ते वक्त मुझे जगह-जगह गद्य में उरोज और नितंब छिपे दिखाई देने लगे और मेरी बुद्धि और गद्य भ्रष्ट होते गये।  मुझे लगता है कि सम्मानित व्यंग्यकार की खोपड़ी में कोई रीतिकालीन पुर्जा आज भी फ़िट है।  मेरे लेखन में जहां कहीं घटियापन नज़र आये तो उसके लिये आदरणीय रवीन्द्रनाथ त्यागी को ज़िम्मेदार माना जाये।

शरद जोशी के व्यंग्य मैं मंत्रमुग्ध हो कर पढ़ता और सुनता था।  उनकी शब्द छटा अलौकिक होती थी और मैं मुक्त मन और कंठ से उसकी प्रशंसा करता था लेकिन उनके चेलों में एक अजब-सी संकीर्णता व विचारहीनता दृष्टिगोचर होती है।  वे हरिशंकर परसाई और उनके स्कूल के सभी व्यंग्यकारों को खारिज करते हैं जबकि उनके स्वयं के लेखन में दृष्टिशून्यता है।  मैंने व्यंग्य लेखन की शुरुआत भोपाल में की थी लेकिन ऐसे व्यंग्यकारों से दूर ही दूर रहा।  छ्त्तीसगढ़ अंचल के कुछ नामी व्यंग्यकारों के प्रति मेरी श्रद्धा, काफ़ी कोशिशों के बाद भी, उमड़ नहीं पाती।

आज तक मैं यह नहीं समझ सका कि इतने बड़े सरकारी अधिकारी होते हुए भी श्रीलाल शुक्ल और रवीन्द्रनाथ त्यागी इतने अच्छे व्यंग्य कैसे लिखते रहे।  मैं एक अदना-सा बैंक अधिकारी हूं लेकिन लाख चाहते हुए भी लिखने-पढ़्ने के लिये उतना समय नहीं दे पाता जितना उच्चकोटि के लेखन के लिये आवश्यक है।  नतीज़ा यह है कि मेरी गिनती न तो अच्छे अधिकारियों में होती है और न ही अच्छे व्यंग्यकारों में। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था।  यह मेरी ताकत भी है और कमज़ोरी भी।  जीवन और लेखन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि मेरा ’असेट’ है और साहित्य का घोर अज्ञान मेरी कमी।

व्यंग्य की दुनिया में महिला व्यंग्य लेखिकाओं और प्रशंसिकाओं की कमी बेहद खलती है।  शायद ’व्यंग्य’ शब्द में ही विकर्षण प्रतिध्वनित होता है।  फ़िर भी, भविष्य के प्रति यह व्यंग्यकार आशावान है और इंतज़ार के मीठे फ़लों के लिये पलक पाँवड़े बिछाये बैठा है।  एक गृहस्थ व्यंग्यकार इससे अधिक खुले आमंत्रण का खतरा मोल नहीं ले सकता।  मेरी इकलौती बीवी और मेरा इकलौता बेटा सब कुछ जानते समझते हुए भी मुस्कुराकर सब कुछ झेलते रहते हैं।  उन पर दो अलग अलग व्यंग्य महाकाव्य बुढ़ापे में रचूंगा।  अभी ’रिस्क’ लेना ठीक नहीं।  अपने प्रेम-प्रसंगों पर भी  फ़ुरसत में कभी लिखूंगा।  इनमेम धर्म, संप्रदाय और प्रदेशों की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर अनेकता में एकता की राष्ट्रीय भावना आपको दिखाई देगी।  प्रारंभिक प्रेम कथाएं ’प्लेटोनिक’ हैं और बाद वाली ’फ़्रॉयडियन’ – यानि मैं निरंतर विकास क्रम में आगे बढ़ता रहता हूँ।

लेखन और प्रकाशन के क्षेत्र में मैं बहुत ’लकी’ रहा।  थोड़ा लिखकर खूब छ्पा और प्रसिद्धि पाई।  कुछ साहित्य-संपादक मेरे खास मित्र हैं और कुछ पंकज बिष्ट के धोखे में मुझे बेधड़क छाप देते हैं।  कई बार आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी मैं पंकज बिष्ट के नाम से वार्ताएं प्रसारित कर चुका हूँ।  स्थानान्तरण के बाद जब किसी नये नगर में पहुंचता हूं तो शायद इसीलिये मेरा परिचय ’सुविख्यात’ लेखक के रूप में कराया जाता है।  मैं खामोश रहता हूँ।  मेरा पहला व्यंग्य-संग्रह ’तिरछी नज़र’ भी उसी धोखे में छप गया।  प्रकाशक बेचारा आज तक पछता रहा है।  पुस्तक का शीर्षक देखकर गलतफ़हमी में नौजवान और बूढ़े सभी इसे रस लेकर एकांत में पढ़ते हैं।  बच्चे उसको पढ़कर बाल-साहित्य का आनंद पाते हैं।  कुछ विद्वान आलोचकों ने इस भ्रम में पहले संकलन की तारीफ़ कर दी कि शायद आगे चलकर मैं बेहतर लिखने लगूँ ।  पाठकों को मैं, खुशवंत सिंह की तरह, मसाले का प्रलोभन देता रहता हूं और वो मेरी रचनाएं किसी झूठी उम्मीद में पढ़ते चले जाते हैं।  साहित्यिक मित्रों को बेवकूफ़ बनाना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता।  उन्होंने लिखना-पढ़ना, सोचना- समझना, काफ़ी समय पहले से बंद किया होता है।  उनसे मिलते ही मैं उनकी कीर्ति की चर्चा करने लगता हूँ और वे जाते ही मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाने में लग जाते हैं।  साहित्य का संसार अंदर और बाहर बड़ा मज़ेदार है।

समाज में व्यंग्यकार कोई सम्माननीय जीव नहीं माना जाता।  इस जंतु को थोड़ी-बहुत स्वीकृति ’भय बिनु होय न प्रीति’ के सूत्र के अंतर्गत ही मिलती है।  नासमझ लोग उससे उसी तरह खौफ़ खाते हैं जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज तूफ़ानी गेंदबाजों से आतंकित होते हैं।  मुझे तो ‘लेग स्पिन’ गेंदबाजी में ज़्यादा आनंद आता है।  लाइन, लैंग्थ और फ़्लाइट में परिवर्तन करते हुए, लैग स्पिन के बीच अचानक गुगली या फ़्लिपर फ़ैंकने का जो आनंद है, वो बाऊन्सर पटकने में कहाँ ! सार्थक और मारक व्यंग्य वही है जिसमें खिलाड़ी क्लीन-बोल्ड भी हो जाए और अपनी मूर्खता पर तिलमिलाने भी लगे।  व्यंग्य में लक्ष्य-भेदन की कुशलता के साथ-साथ खेल भावना, क्रीड़ा-कौतुक और खिलंदड़पन भी हो तो आनंद कई गुना बढ़ जाता है।  गंभीरता अपनी जगह है और छेड़छाड़ का मज़ा अपनी जगह।

यह आत्मकथा मैंने बड़ी संजीदगी के साथ शुरु की थी लेकिन लंबा लिखने का धैर्य मुझमें नहीं है और जो कुछ भी आड़ा-तिरछा लिखता हूं, उसे छपवाने की मुझे जल्दी रहती है।  अतः आत्मकथा न सही, फ़िलहाल आत्मकथा की भूमिका पढ़कर ही कृतार्थ हों।  शुभचिंतकों की सलाह पर धीरे-धीरे मैं अपने व्यंगों को ’चुइंगम’ की तरह खींचने का अभ्यास कर रहा हूं।  अगर सफ़ल हुआ तो कभी न कभी आत्मकथा अवश्य लिखूंगा……..

©  जगत सिंह बिष्ट

(श्री जगत सिंह बिष्ट जी मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं।)

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य- सेल की शाॅल – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

सेल की शाॅल 

करेला और नीम चढ़ा की तरह सेल में डिस्काउंट चढ़ बैठता है पुरुष सेल और डिस्काउंट से चिढ़ते हैं और महिलाएं सेल और डिस्काउंट के चक्कर मे सीढ़ी चढ़तीं हैं। माल में सेल और डिस्काउंट का बोलबाला है।माल  के बाहर बैठा हुआ एक फिलासफर टाइप का आदमी एक डेढ़ घंटे से S. A. L. E और डिस्काउंट शब्दों की उधेड़बुन में इतना परेशान दिख रहा है कि उसके चेहरे में हवाईयां उड़ रही हैं। बीच बीच में बुदबुदाता हुआ वो आदमी कभी दाढ़ी के बाल नोंचता है कभी नाक में ऊंगली डाल के नाक छिंनकता है। कभी पेन खोलकर हाथ की गदेली में एस ए एल ई लिखकर आसमान की तरफ देखता है तो कभी दूसरे हाथ की गदेली में डिस्काउंट लिखकर थूक से मिटाता है। जिस चमचमाते वैभवशाली अलबेले मॉल के सामने वह बैठा है वहां लड़के लड़कियों के झुंड फटे जीन्स पहने कूल्हे मटका रहे हैं, बीच बीच में कुछ लड़के लड़कियां अल्हड़ सी आवारगी के साथ भटकते हुए स्वचलित सीढ़ियों से माल की रंगत और जगमगाहट का आनंद लेते हैं माल के गेट का कांच दरवाजा शर्म से पानी पानी हो जाता है जब ये करीब आते हैं।

वह फिलासफर टाइप का आदमी अपने आप से ही पूछता है कि क्या बाजार संस्कृति का मायावी तिलिस्म हमसे हमारा समय बोध छीनने पर उतारू है? माल के सामने दो आटो वाले डिस्काउंट पर बहस करते हुए मजाकिया अंदाज में कह रहे हैं कि सेल में अधिकांश चीजें एक खरीदो साथ में एक फ्री मिलतीं हैं जिसके पास बीबी नहीं होती उसको भी सुविधा मिलती है। माल के गेट पर दो तीन मनचले माल में आते जाते मनभावन माल की फटी जीन्स पर फिदा लग रहे हैं।

माल की सारी दुकानों के गेट पर चमचमाते शब्दों में अंग्रेजी में सेल और डिस्काउंट लिखे शब्दों को वह कांच से देख रहा है पत्नी अंदर माल की सेल में है। वह बार बार सोचता है कि ये सेल और डिस्काउंट शब्दों में लार टपकता गजब का आकर्षण क्यों होता है जो महिलाओं और खाऊ पुरुषों को आकर्षित कर चुम्बक की तरह खींचता है। उसे याद आया पड़ोसन जब भी सेल से कुछ खरीद कर लाती है उस दिन घर में खूब उठापटक और गालीगलौज का माहौल बनता है।

सुबह अखबार आता है अखबार के अंदर सेल के पम्पलेट से उसे चिढ़ होती है इसलिए वह चुपके से उस पम्पलेट को फाड़ कर छुपा देता है। एक बार फाड़ते समय बीबी ने रंगे हाथों पकड़ लिया और खूब सुनाया बोली – ‘तुम मेरी भावनाओं और इच्छाओं से खिलवाड़ करते हो, मेरे शापिंग के शौक में अडंगा डालते हो’….. और भी बहुत बोला, बताने लायक नहीं है।

सब शापिंग पीड़ित पतियों को आज तक समझ नहीं आया कि महिलाओं को सेल और डिस्काउंट से इतना प्रेम क्यों होता है। सेल और डिस्काउंट से पति लोग चिढ़ते हैं पर पत्नियां सेल और डिस्काउंट से अजीब तरह का प्रेम करतीं हैं। प्रेम करते समय उनसे पूछो तो कहतीं हैं “पता नहीं क्या हो जाता है खरीदारी का भूत सवार हो जाता है” हांलाकि हर बार घर पहुंच कर दबी जुबान से ठगे जाने का अहसास करातीं हैं और दुकान मालिक की ‘ठठरी बंध जाए’ कहके पति का दिल जीतना चाहतीं हैं। ऐसे में पति का बाप कवि हो तो बहू बेटे की ये बातें सुन सुन कर सेल और डिस्काउंट विषय पर महाकाव्य लिख लेता है।

माल संस्कृति ने सेल और डिस्काउंट को बढ़ावा दिया है। सेल से निकली एक महिला से एक भिखारी ने पूछा कि सेल में महिलाओं की ज्यादा भीड़ क्यों रहती है?

महिला ने तपाक से जबाब दिया – वहां सब टंगी चीजों को बार – बार छूने का सुख मिलता है और सबको उलटा पलटा के पटकने का मजा आता है वहां खूब मन भी भटकता है मन भटकने से गुदगुदी होती है और इंद्रधनुषी निर्णय के महासागर में बार बार डुबकी लगाने का अवसर भी मिलता है, अंडर गारमेंट के पोस्टर देखने का आनंद भी लूटते हैं और तरह-तरह से सज धज के आयी औरतों को देखकर ईर्ष्या का चिपचिपा रस भी पैदा होता है।

भिखारी बोला – पर मेडम यहां तो सब माल रिजेक्टेड वाला रखा जाता है, ऐसा माल जो कहीं नहीं बिकता। सेल और डिस्काउंट का लोभ ऐसे सब माल को बिकवा देता है यहां मन ललचाने का पूरा प्रपंच रचा जाता है।

भिखारी की सच बात सुनकर मेडम नाराज हो जाती है पुरानी चौवन्नी उसके कटोरे में फैंक कर माल के बाहर इंतजार कर रहे पति की तलाश करने लगती है।

हाथ में दो बड़े बड़े चमचमाते मुस्कराते बैग भारी लग रहे हैं इसलिए पति को थमा दिये गये, पति लद गया है कार पार्किंग तक पहुंचते पहुंचते हांफने लगता है।

कार चलाते हुए रास्ते भर इसी उधेड़बुन में रहता है कि घर पहुंच कर पहले चाय बनानी पड़ेगी, उनके थके पैर दबाना होगा फिर सेल से खरीदे गए हर सामान की चुम्मी ले लेकर झूठी तारीफ करनी पड़ेगी।

जैसा रास्ते भर सोचा था वही सब सब करने का आदेश हुआ। चमचमाते फिसलते पहले बैग से एक से एक साड़ियाँ और अंडर गारमेंट निकाल कर तारीफ के पुल बांधे गए। दूसरे बैग से निकाले गए शाल को देखकर उसका गला सूख गया, काटो तो खून नहीं, दिन में तारे नजर आने लगे, आसमान धरती पर गिर पड़ा, होश उड़ गए…. वह वही शाॅल था जो उसके पिता की शव यात्रा में उसके फूफा ने पिता के शव के ऊपर डाला था।

तीन महीने पहले ही उसके पिता कविता लिखते लिखते चल बसे थे उन्हें जीवन भर शाॅल श्रीफल से सम्मानित किया जाता रहा इसलिए दोस्तों ने अंतिम यात्रा में मंहगे मंहगे शाॅल उनके शव पर डाले थे………….

शाॅल की सलवटें ठीक करती पत्नी चहकते हुए बोली – ये शाॅल तुम्हारे लिए लिया है, कई महिलाओं को ये शाॅल ज्यादा पसंद आ रहा था इसलिए इसमें डिस्काउंट भी नहीं मिला……….

© जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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