हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 52 – बोल बच्चन बनायेंगे भारत! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बोल बच्चन बनायेंगे भारत! )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 52 – बोल बच्चन बनायेंगे भारत! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

नेताजी एक दिन अचानक मंच से चीख पड़े—”हमें नया भारत बनाना है!” जनता पहले तो समझी कोई नया टीवी सीरियल आ रहा है, फिर ताली बजा दी। नेताजी ने सोचा कि यह ताली उनके जोशीले भाषण के लिए है, पर असल में ताली इस बात की थी कि दो घंटे बाद होने वाली नल-जल योजना की घोषणा टल गई थी। नेताजी के मुंह से ये नारा ऐसा फिसला जैसे साबुन के केस से गीला साबुन—फिसल गया, पर महक छोड़ गया। उन्होंने पहली बार जब कहा “नया भारत”, खुद भावविभोर हो गए, मानो उन्होंने ‘शोले’ का डायलॉग मारा हो—”इस हाथ ले, उस हाथ दे!” अब नेताजी को इस वाक्य से ऐसा मोह हो गया जैसे बेरोजगार युवक को सरकारी नौकरी से। हर बार, हर मंच, हर पंचायत, हर शादी और यहाँ तक कि हर शौचालय उद्घाटन में भी नेताजी वही बात दोहराते—”हमें नया भारत बनाना है!” लोग कहते—”पहले शौचालय तो बना लो बाबू, भारत बाद में बनाना!”

जिनके घर की छत टपक रही थी, वे भी इस नारे से प्रभावित होकर बाल्टी हटाकर ताली बजाने लगते। नेताजी के भाषण में अब इतना लोहा था कि किसी दिन सुनते-सुनते जूते भी पिघल जाएँ। उनके हर भाषण के बाद जनता का मन करता कि भाषण के बदले कुछ ‘ईंट-रेत’ ही गिरवा देते तो अच्छा था। पर नेताजी को तो सिर्फ बोलने से फुर्सत नहीं थी। उनका हर भाषण ‘नये भारत’ की नयी किस्त लगता, पर किस्त बिना ब्याज की नहीं थी—हर बार वोट के ब्याज की डिमांड जुड़ी रहती। वो मंच से चिल्लाते—”देखो, नया भारत ऐसा होगा जैसे फिल्म ‘बाहुबली’ की सेटिंग!” जनता सोचती—”पर हम तो ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ ज़िंदगी जी रहे हैं!”

नेताजी से जब किसी पत्रकार ने पूछा—”नया भारत कब बनेगा?” नेताजी बोले—”पहले पुराना कुछ और खराब हो ले, फिर बनाएंगे!” जैसे डॉक्टर बोले—”पहले बुखार 105 पहुँचे, फिर दवा दूँगा!” नेताजी की विकास योजना ‘पेंडिंग’ नहीं, ‘पोस्टमार्टम’ में पड़ी रहती। वह कहते—”हम नया अस्पताल बनाएंगे, जहाँ मशीनें नहीं, मिशन होंगे!” फिर गांव की कोई प्रसूता महिला ट्रैक्टर की ट्रॉली में तड़पते तड़पते दम तोड़ देती। अस्पताल बना नहीं, कागज़ में खुल चुका होता। नेताजी फिर कहते—”ये एक योजनागत दुर्घटना थी।”

‘नया भारत’ अब ऐसा नारा बन चुका था कि बच्चों की लोरी से लेकर सरकारी फाइलों तक में गूंजता था। स्कूलों में किताबें न सही, पोस्टर थे—”हमें नया भारत बनाना है।” मास्टर साहब कहते—”बच्चो, पढ़ो मत, सिर्फ नारे लगाओ। UPSC अब नारे से ही निकलेगी!” एक बार नेताजी ने पुल का उद्घाटन करते हुए कहा—”यह पुल पुराने भारत की याद दिलाता है, नया भारत तो बिना पुल के ही जुड़ जाएगा!” लोग बोले—”तो क्या अब नाव से सफर करेंगे?” नेताजी बोले—”बिलकुल, नया भारत है, हर समस्या में अवसर ढूंढो।”

फिर एक दिन नेताजी को किसी ने टोका—”बोलिए मत, कुछ करिए!” नेताजी बोले—”कहना भी तो एक कला है, हर कोई नहीं कह सकता!” फिर उन्होंने नये भारत के लिए सौ नई योजनाएं घोषित कीं, जिनमें से 98 की फाइलें खो गईं, एक योजना ठेकेदार की ससुराल चली गई, और एक योजना एक सरकारी कर्मचारी की पेंशन से शादी कर बैठी। सब तरफ ढोल बजने लगे—”नेताजी नया भारत बना रहे हैं!” और वास्तव में कुछ बना भी—VIP गेट, नई गाड़ियाँ, और 5-स्टार मीटिंग हॉल। गाँव के चबूतरे में अब भी गोबर था, पर उसके ऊपर नया पोस्टर लग गया था—”नया भारत, हर गांव की शान!”

फिल्मी संवादों की तर्ज़ पर नेताजी बोले—”हम वो नया भारत बनाएंगे, जहाँ कोई भूखा न सोये!” जनता बोली—”पर अभी तो कई भूखे मारे गए हैं।” नेताजी बोले—”वो पुराने भारत के नागरिक थे!” फिर बोले—”हम नया भारत बनाएंगे, जहाँ बेटियाँ सुरक्षित रहेंगी।” तभी खबर आई कि मंत्रीजी की बहू का केस बंद हो गया है। नेताजी बोले—”हम न्याय में यकीन रखते हैं, लेकिन हमारी प्राथमिकता नया भारत है, न कि पुराने मामले!” अब जनता समझ चुकी थी—यह नया भारत एक सपना है, जिसे बस सपने में ही देखा जा सकता है। जैसे ट्रेन में बर्थ के लिए सपना देखते यात्री।

एक बार नेताजी के समर्थकों ने पूरे गांव को तंबू में बसा दिया—”क्योंकि पुरानी इमारत गिर रही है और नयी बनने वाली है।” छह महीने बीत गए। तंबू अब फटे हुए थे, लोग बारिश में भीग कर कहते—”कितना सुंदर सपना है, नये भारत का!” बच्चों को स्कूल के नाम पर नेताजी के भाषण दिखाए जाते। एक बच्चा पूछ बैठा—”सर, हमें पढ़ना नहीं है?” मास्टर जी बोले—”पढ़ाई की जरूरत किसे है, जब नया भारत बन रहा है?” एक बुजुर्ग दादी, जिनकी झोपड़ी गिर गई थी, कहती—”बेटा, नया भारत तो बन जायेगा, पर मैं कहाँ रहूँगी?” उत्तर में सिर्फ एक फोटो मिला—‘नेताजी ने आज पुनः घोषणा की—हमें नया भारत बनाना है।’

नेताजी अब भी भाषण दे रहे हैं—”हम नया भारत बनाएंगे जो आधुनिक होगा, आत्मनिर्भर होगा!” पर गाँव की सड़कों पर बच्चे आज भी मिट्टी में खेल रहे हैं, अस्पताल में बिन बिजली के मरीज मर रहे हैं, और स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर छुट्टी मिल रही है। एक दिन नेताजी के मंच के नीचे एक लाचार माँ अपनी बीमार बेटी को लिए बैठी थी। जब नेताजी चिल्लाए—”हम नयी संजीवनी योजना ला रहे हैं!”—तब बच्ची ने माँ की गोद में दम तोड़ दिया। भीड़ चुप हो गई। नेताजी बोले—”यह एक व्यक्तिगत दुखद घटना है।” माँ फूट-फूट कर रो पड़ी—”नया भारत बना लो बाबू, पर मेरी बेटी तो पुराने भारत की थी!” ताली नहीं बजी। कैमरा बंद हुआ। भाषण स्थगित हुआ। नेताजी मंच से उतरे और बोले—”अगली बार इसे कवरेज मत देना। मिजाज खराब हो जाता है!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 5 – हास्य-व्यंग्य – “विवाह की उम्र पर बतंगड़…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  “यहां सभी भिखारी हैं)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 5

☆ व्यंग्य ☆ “विवाह की उम्र पर बतंगड़…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

“गोरी चलो न हंस की चाल जमाना दुश्मन है, तेरी उमर है सोलह साल जमाना दुश्मन है”। जी हाँ, न सिर्फ हमारे देश में वरन विश्व भर में लड़कियों के यौवन की शुरूआत को उनके सोलहवें वर्ष से ही माना जाता है। सभी देशों, भाषाओं में सोलह वर्ष की तरुणी के रूप सौंदर्य, यौवन, अदाओं और नाज-नखरों से न सिर्फ गीत-कविताएं वरन गद्य साहित्य भरा पड़ा है। “पसंद आ गई है एक काफ़िर हसीना, उमर उसकी सोला बरस 6 महीना”। ऐसा नहीं है कि सोलह बरस की लड़की को देखकर सिर्फ लड़कों के दिल में ही “कुछ कुछ होता है”, लड़कों को देखकर लड़कियों का हाल भी बेहाल हो जाता है-“मैं सोला बरस की, तू सतरा बरस का। मिल न जाएं नैना, इक दो बरस जरा दूर रहना। कुछ हो गया तो फिर न कहना…। ” हमारे देश में प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार लड़कों को तो 25 वर्ष की उम्र तक ब्रम्हचर्य का पालन करने का नियम था, किन्तु लड़कियों के विवाह की आयु 16 वर्ष के आसपास ही रखी गई थी। विवाह होते ही लड़की अपने पति और घर में व्यस्त हो जाती थी। शायद यही कारण था कि तब यौन अपराध भी नगण्य थे।

अभी हाल ही में लड़कियों की विवाह आयु भी लड़कों की आयु के समान ही 21 वर्ष तय कर दी गई है।। इसके पूर्व सरकार द्वारा लड़कियों के विवाह की निर्धारित आयु 18 वर्ष थी। प्राकृतिक रूप से भले ही 18 वर्ष से कम आयु में लड़की बालिग हो जाती हो पर 18 वर्ष के पूर्व उसके साथ विवाह करना या उसकी मर्जी से भी उसके साथ सम्बन्ध बनाना दण्डनीय अपराध था। अब यह उम्र 21 वर्ष हो गई है। कानून के भय से कुछ बंदिश तो लगी पर सम्पूर्ण समाज का दृष्टिकोण न बदल सका, चोरी छिपे बाल विवाहों की ख़बरें और अविवाहित युवतियों से छेड़छाड़-बलात्कार अथवा उनकी सहमति से यौन शोषण और फिर धोखाधड़ी की ख़बरें रोज के समाचारों का हिस्सा हो गई हैं। सरकार ने लड़कियों के बालिग होने की कानूनी उम्र तो 21 वर्ष निर्धारित कर दी, किन्तु साहित्य सृजन में लड़कियों के यौवन पर चर्चा करने उम्र की बंदिश नहीं लगाई। यौवन के गीत 16 वर्ष पर ही बनते रहे- “सोला बरस की बाली उमर को सलाम, ए प्यार तेरी पहली नज़र को सलाम। ” एक समय मध्यप्रदेश में लड़कियों की शादी की उम्र को लेकर विवाद छिड़ गया था। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री लड़कियों के लिए विवाह की उम्र 21 वर्ष करना चाहते थे जबकि एक पूर्व मंत्री का कहना था कि जब चिकित्सकों के अनुसार लड़कियां 15 वर्ष की आयु में प्रजनन योग्य हो जाती हैं तो शादी की उम्र 21 वर्ष करने की क्या जरूरत है ? मंत्री जी के तर्क शायद लड़कियों के प्राकृतिक परिपक्वता के पक्ष में थे। वैसे आप सभी जानते हैं कि नेताओं की आदत मुहं चलाने की होती है। वे आम आदमी का ध्यान समस्याओं से हटाने के लिए दिनभर फालतू बातें करते हैं। अपने विरोधियों की बातों का बतंगड़ बनाना इनके लिए कठिन काम नहीं। व्यर्थ गाल बजाते रहना और अपनी बात पर कभी शर्मिंदा न होना, नेता के रूप में सफलता पाने की पहली शर्त है। विवाह की आयु बढ़ाने के पक्षधरों से मेरा कहना है कि आप तो विवाह का लड्डू खा चुके हैं अब आयु सीमा और बढ़ाकर नई पीढ़ी को क्यों तरसाना चाहते हैं ? जनसंख्या नियंत्रण हेतु बहुसंख्यकों के लिए फैमिली प्लानिंग तो है ही फिर विवाह के लिए आयु सीमा में वृद्धि की क्या आवश्यकता ? एक गोपनीय बात – मेरे एक परिचित ने अपना मुहं मेरे कान के पास लाकर कहा-“भाई साहब युवक/युवतियों को परेशान होने की जरूरत नहीं, बात सिर्फ विवाह के लिए उम्र बढ़ाने की चल रही है। “दिल विल-प्यार व्यार” को कौन रोक पाया है ? अस्तु, मैं तो यही कहूंगा नेताओं की बातों में मत पड़िये- “उम्र का हर दौर मजेदार है, अपनी उम्र का मजा लीजिये…। ”

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 289 ☆ कि रानी बेटी राज करेगी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘कि रानी बेटी राज करेगी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 289 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कि रानी बेटी राज करेगी

एक पुराना मशहूर फिल्मी गीत है— ‘खुशी-खुशी कर दो विदा, कि रानी बेटी राज करेगी।’ सोचने पर सवाल उठता है कि रानी बेटी के ‘राज’ करने का अर्थ क्या है? रानी बेटी कैसे राज करेगी और किस पर राज करेगी? जो समझ में आता है वह यह है कि रानी बेटी ऐसे घर में जाए जहां चार छः सेवक उसकी सेवा में रहें, काम-धाम कम से कम करना पड़े, हाथ-पांव कम से कम चलाना पड़े। गाव-तकिये पर टिकी हुकुम चलाती रहे। तिनका भी न तोड़ना पड़े। पुराने ज़माने में रानियां पालकी पर चलती थीं जिन्हें सेवक ढोते थे। यह नज़रिया दिखाता है कि श्रम के प्रति हमारा सोच क्या है।

हमारे दर्शन के अनुसार सबसे सुख की स्थिति वह है जिसमें काम कम से कम करना पड़े। भगवान ने हाथ-पांव भले ही चलने और काम करने के दिये हों, लेकिन उनका जितना कम उपयोग हो उतना अच्छा। फालतू पड़े रहने के कारण उन में ज़ंग लगे तो लगे। हाथों की हथेलियां और पैरों की गदेलियां गुदगुदी, साफ़ और मक्खन सी मुलायम बनी रहें। उनमें न घट्टे पड़ें, न कालिख लगे। लेकिन अगर  सभी बेटियां रानी बनने लगें तो फिर काम कौन करेगा? ‘तू भी रानी, मैं भी रानी, कौन भरेगा पानी?’

हमारे देश में अपने हाथ से काम करना घटिया और बेइज़्ज़ती की बात समझी जाती है। दफ्तर में फ़ाइल ले जाने का काम चपरासी ही करेगा। चपरासी  नहीं है तो फ़ाइल बाबू साहब की टेबिल पर पड़ी रहेगी, भले ही साहब का कमरा बगल में हो। कहते हैं नवाब वाजिद अली शाह अंग्रेज़ों से बचकर इसलिए नहीं भाग सके थे कि उनकी जूती सीधी करने वाला कोई नहीं था। नवाब साहब खुद ही अपनी जूती सीधी करने लगें तो नवाब कैसे?

अंग्रेज़ी शब्दकोश में एक शब्द ‘व्हिपिंग बॉय’ मिलता है। ये वे लड़के होते थे जिन्हें राजपुत्रों के साथ स्कूल भेजा जाता था ताकि राजपुत्रों से कोई गलती होने पर उसकी सज़ा इन लड़कों को दी जा सके। मास्टर साहब राजपुत्रों पर हाथ नहीं उठा सकते थे। ये लड़के राजपुत्रों के एवज में पिटने के लिए स्कूल भेजे जाते थे।

आपको बहुत से लोग अपने बाप- दादा की तारीफ में यह कहते मिल जाएंगे कि उन्होंने कभी अपने हाथ से लेकर पानी नहीं पिया। एक पति की गाथा सुनी थी जो अपने मकान की दूसरी मंज़िल पर आराम फरमाते थे और प्यास लगने पर सबसे निचली मंज़िल से पत्नी को बुलाते थे ताकि पत्नी उनकी बगल में रखे घड़े से पानी निकाल कर उन्हें दे।

गांव में जब पुराने ज़माने में ‘पंगत’ यानी समूह-भोज होता था तो सामान्य लोग अपने-अपने लोटा गिलास लेकर जाते थे, लेकिन हैसियत वाले लोगों के पीछे उनका सेवक लोटा- गिलास लेकर चलता था। एक रईस का किस्सा याद आता है जो शौचालय से लौटने के बाद (उन दिनों फ्लश सिस्टम नहीं था) सेवक को मुआयना करने के लिए भेजते थे और सेवक की रपट के आधार पर ही उनकी उस दिन की भोजन-व्यवस्था होती थी। यदि  सेवक रपट देता कि उस दिन की उनकी उपलब्धि संतोषजनक नहीं है तो भोजन मुल्तवी भी हो सकता था।

हमारे देश को विश्व में सस्ते श्रम का स्वर्ग माना जाता है, इसलिए जिन बेटियों के पास खर्च करने के लिए पैसा है वे आराम से रानी बनकर रह सकती हैं। यहां महीने में आठ दस हज़ार के खर्च पर चार छः सेवक आसानी से रखे जा सकते हैं।

मुद्दा यह है कि यदि सभी बेटे- बेटियां अपनी हथेलियों को साफ़ और मुलायम बनाये रखने की सोचने लगें तो फिर रोज़मर्रा का कामकाज कैसे चलेगा? अभी हमारे देश का काम इसलिए चल रहा है क्योंकि कुछ बेटे-बेटियां राजकुमार और राजकुमारी बनने की दौड़ में नहीं हैं। इसलिए बेहतर होगा कि बेटियों को ‘राज’ करने के बजाय ‘काज’ करने की सीख दी जाए।

फिल्म ‘पाक़ीज़ा’ में पाकीज़ा का प्रेमी ट्रेन में उसके पांव देखकर पुर्ज़ा छोड़ जाता है —‘आपके पांव देखे। बहुत हसीन हैं। इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा। मैले हो जाएंगे।’ लेकिन पांव ज़मीन पर न उतरें और मैले न हों तो ज़िन्दगी की गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी?

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 51 – सरकारी घोंचू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सरकारी घोंचू)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 51 – सरकारी घोंचू ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

“कितना भी पढ़ लो बेटा, आखिर में तो नौकरी ही करनी है,” — यह वह महाग्रंथ वाक्य है जो पिताजी ने कक्षा पाँच से लेकर एम.टेक तक हर परीक्षा के बाद मेरे कान में घोंपा था। मगर मुझ नालायक की किस्मत कुछ ऐसी थी कि नौकरी नहीं मिली। मिला तो सिर पर बस्ता, पीठ पर झोला और मन में नौकरी की बोझिल गाथा। बेरोजगारी की इस महागाथा में जब अंततः मेरा चयन एक विभाग में ‘स्थायी अस्थायी’ पद पर हुआ, तो मां ने हलवे में चीनी कम कर दी — “बेटा अब नौकरी मिली है, शुगर फ्री खिला रही हूं।”

मैं सरकारी मुलाजिम बन गया। वह भी ऐसा कि ना काम का ना काज का, बस कुर्सी पर बोझ डालने वाला। मेरी टेबल पर फाइलें ऐसे इकट्ठा होती जैसे सास के गहनों पर बहुएं। एक दिन साहब बोले — “काम में जान डालो, वरना जान निकाल दूंगा।” मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया — “साहब, मेरी जान तो कॉलेज में निकल गई थी, अब तो बस शरीर लटका है।” साहब को मेरी बात इतनी पसंद आई कि उन्होंने अगले ही दिन मेरी ट्रांसफर फाइल को इतना तेजी से पास किया, जैसे बिजली का बिल बढ़ा हो।

नवीन कार्यालय पहुंचा तो पाया कि यहां तो और भी सरकारी बाघ बैठे हैं। एक अधेड़ बाबू बोले — “यहाँ काम करने की नहीं, टेबल पर बैठे रहने की तनख्वाह मिलती है।” एक अन्य ने जोड़ दिया — “जो ज्यादा मेहनत करता है, वो ज्यादा परेशान होता है।” मेरी आत्मा अंदर से चिल्लाई — “तो फिर मुझे क्यों नियुक्त किया गया? क्या मैं राष्ट्रहित में आलसी नहीं हो सकता?” एक दिन पंखा बंद हो गया, मैंने पसीने-पसीने होते हुए पूछा — “कोई मैकेनिक?” जवाब आया — “पंखा ठीक करवाना हमारी ड्यूटी नहीं, हम तो उसकी शिकायत की फाइल बनाएंगे।”

मैंने सोचा, कम से कम अपने विभाग के व्हाट्सऐप ग्रुप में तो कुछ क्रांति फैलाई जाए। एक मीम डाला जिसमें लिखा था — “हम वो कर्मचारी हैं जो ‘काम’ और ‘नाम’ के बीच फंसे हैं।” तुरंत कमेंट आया — “बेकार मीम है, अगली बार कुछ मजेदार डालो।” इतना तक तो ठीक था, लेकिन जब मीम का स्क्रीनशॉट उच्च अधिकारी के पास पहुंचा और मुझे नोटिस मिला — “आप विभाग की गरिमा गिरा रहे हैं”, तब जाकर समझ आया कि सरकार में हँसना मना है, मुस्कुराना अपराध है और मीम भेजना देशद्रोह।

फिर आया सरकारी निरीक्षण का दिन। निरीक्षक महोदय आए, टेबल पर बैठे और बोले — “कामकाज कैसा चल रहा है?” बाबुओं ने उत्तर दिया — “सर, जो चल रहा है, वही चल रहा है।” मैंने उत्साह में आकर कहा — “सर, हमने नई फाइलें बनानी शुरू की हैं।” उन्होंने पूछा — “पुरानी निपट गईं?” मैंने कहा — “नहीं सर, लेकिन नई फाइलों से उम्मीद है कि पुरानी भूल जाएं।” निरीक्षक ने सिर पकड़ लिया, फिर बोले — “तुम तो देश की विकास दर को पीछे घसीट रहे हो।” उस दिन पहली बार मेरे अंदर सरकारी कर्मचारी होने की भावना जगी — “हम काम नहीं करते, काम हमसे डरता है।”

नौकरी का पाँचवा साल चल रहा है। प्रमोशन नहीं मिला, पर तारीखें बदलती रहीं। हर साल जनवरी में पूछा जाता — “क्या नया लक्ष्य है?” और हर साल जवाब देता — “इस बार छुट्टी में घर जाऊँगा।” पर साहब का ट्रांसफर, अफसर का मूड, और मातहत की नियति — तीनों अनिश्चित होते हैं। बीवी रोज पूछती — “कब सुधरोगे?” और मैं जवाब देता — “जब विभाग सुधरेगा।” उसने चुपचाप मुझे रात का खाना परोसा — बिना नमक के, जैसे मेरी तनख्वाह से प्याज़ गायब हो गई हो।

आखिरकार रिटायरमेंट की तारीख आई। चाय के कप पर लिखा था — “शुभकामनाएँ!” और मिठाई के डिब्बे में रखे थे पुराने लेटर। एक चिट्ठी मिली — “आपके सेवा काल में कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही, फिर भी आप सरकार के लिए बोझ नहीं बने, इसके लिए धन्यवाद।” मेरी आँखों से आंसू टपक पड़े, जैसे बिन मौसम बारिश। मैंने फाइलें उठाकर अलमारी में रख दी और कहा — “अब फाइलें मुझसे डरेंगी।”

घर लौटा तो देखा, पोता पूछ रहा था — “दादा, आपने जिंदगी में क्या किया?” मैंने मुस्कुराकर कहा — “बेटा, मैंने सरकार की सेवा की।” उसने मासूमियत से पूछा — “वो क्या होती है?” मेरे जवाब में चुप्पी थी, और आंखों में एक अधूरी गाथा — जो न नौकरी में पूरी हुई, न रिटायरमेंट में।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 5 – हास्य-व्यंग्य – “बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा?” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  “बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा?)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 5

☆ व्यंग्य ☆ “बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा?” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

लोग नाम के लिए क्या-क्या नहीं करते। मंदिर-धर्मशालाएं बनवाना, कुएं-ट्यूबवेल खुदवाना, गरीबों को अनाज, साड़ियां, कंबल बाँटना, मदद के लिए मुस्कुराते हुए हाथ जोड़े खड़े रहना लेकिन ये महंगा और लंबा रास्ता सबके बस की बात नहीं। आजकल शॉर्टकट का जमाना है। हर व्यक्ति को कम खर्चे और कम समय में जोड़तोड़ से नाम कमाने की जल्दी पड़ी है। नाम चाहे अच्छे कामों के लिए हो या बुरे। कहते हैं कि “बदनाम जो होंगे तो क्या नाम न होगा”। जी हाँ, जैसे कुछ लोग अच्छे कामों के माध्यम से नाम कमाना चाहते हैं वैसे ही कुछ लोग चोरी-डाका, रिश्वतखोरी, जमाखोरी, भ्रष्टाचार करके, झूठ बोलकर, गाली गलौच, सट्टा, जुआ, शराब से, महिलाओं से छेड़ छाड़ करके, अपने वैभव का प्रदर्शन करके, सी बी आई, इनकम टैक्स के छापों में फंस कर बदनाम होते और नाम कमा लेते हैं। हालाकि इस तरह के नाम को यश नहीं अपयश कहा जाता है। भाइयो, पर जो जिस फील्ड में अपना कैरियर बनाना चाहता है उसे तो उसी क्षेत्र में अपना डंका बजवाना पड़ता है। चोर तो तभी नामी चोर कहलायेगा जब सब को पता हो की चोरी तो इसी ने की है, लेकिन वह पकड़ा न जाए। शातिर चोर तो खुले आम जोर जोर से गाते हैं, “चोरी मेरा काम यारो, चोरी मेरा काम”। गुंडागिरी की दुनिया में आप विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर नाम नहीं कमा सकते। आपको बड़ी मूंछ या दाढ़ी मूँछ दोनों रखना ही पड़ेंगी, गले में काला धागा भी पहिनना पड़ेगा। चेहरे पर कहीं चाकू का निशान हो तब तो “सोने में सुहागा”। आपको गाली गलौच के साथ मारपीट करना, धमकियाँ देना और ब्लैकमेल करना भी सीखना पड़ेगा। यदि आप किसी का खून करके बाइज्जत बरी हो गए हैं अथवा सजा काटकर लौट आये हैं तो यह आपके गुंडागिरी के कैरियर में चार चांद लगा देगा। विभिन्न राजनैतिक दल और नेता आपकी सेवाएं लेने और आपको सुरक्षा-सेवा देने आतुर होने लगेंगे।

यहाँ यह समझना जरूरी है कि किसी भी क्षेत्र में चाहे वह अच्छा हो अथवा बुरा नाम कमाने में साधना, समय और धीरज की जरूरत होती है। बदमाशी के क्षेत्र में नाम कमाने का इच्छुक कोई व्यक्ति यदि उतावले पन में कोई बड़ा अपराध कर असफल हो जाता है तो वह गुंडे के स्थान पर “टुच्चे” की उपाधि मात्र से विभूषित हो पाता है। कुख्यात गुंडे और टुच्चे में फर्क को इस तरह समझें, जैसे एक पी एच-डी होल्डर के सामने डिप्लोमाधारी। वैसे कोई भी टुच्चा खुद को टुच्चा नहीं बड़ा गुंडा ही समझता है। आप ही बताएं चौराहे पर खड़ा कोई सिपाही अपने को एस पी से कम समझता है क्या ? इसी तरह बाबू भी खुद को अधिकारी से कम नहीं समझता। नेता का दुमछल्ला, नेता से ज्यादा उछल कूद करता है। भाइयो हम स्वयं को जो चाहें समझ और प्रदर्शित कर सकते हैं। यह हमारा जन्म सिद्ध अधिकार तो है ही हमारे देश के लचीले संविधान द्वारा हमें दी गईं अनेक तरह की स्वतंत्रताओं में से एक विशिष्ट तरह की स्वतंत्रता भी है।

इसी सोच और सुविधा के कारण अनेक चुटकुलेबाज स्वयं को महाकवि कालिदास और मुंशी प्रेमचंद समझने लगे हैं। एक साहित्यकार बंधु के पास प्रतिदिन 25/30 आन लाइन सम्मान पत्र आ रहे हैं अभी तक 9991 हो चुके हैं। भाइयो, साहित्य सम्मान तो इस नवयुग के साहित्य जगत में आदान-प्रदान का एक अनोखा सामंजस्य है। मुझे विश्वास है कि जो इन्हें सम्मान भेज रहे हैं उनके पास भी लगभग इतनी ही मात्रा में सम्मान पहुँच रहे होंगे। समझने से बगुला हंस और गाजर घास वट वृक्ष नहीं बन जाता। व्यक्ति का सही मूल्यांकन समाज के द्वारा होता है वह भी बहुत धीरे-धीरे। खैर लोगों का काम है कहना अतः लोगों की बातों पर ध्यान न दें और अपने ढंग से साहित्य को समृद्ध करना और सम्मानों की संख्या बढ़ाना जारी रखें। बदनाम होकर और जुगाड़ करके नाम कमाने और खुश होने वालों को मेरी बहुत बहुत शुभकामनाएं।

 

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 288 ☆ व्यंग्य – चुन्नीलाल की मुअत्तली ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘चुन्नीलाल की मुअत्तली‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 288 ☆

☆ व्यंग्य ☆ चुन्नीलाल की मुअत्तली

सुबह के साढ़े  दस बज रहे हैं और चुन्नीलाल बनियाइन और लुंगी पहने  बरामदे में गमलों में लगे फूलों को पानी दे रहा है। ज़रूर छुट्टी लिए होगा।

मैंने चिल्ला कर पूछा, ‘आज कैजुअल ले ली है क्या?’

उसने हाथ के इशारे से मुझे पास बुलाया, पास पहुंचने पर बोला, ‘क्या पूछ रहे थे?’

मैंने कहा, ‘पूछ रहा था कि आज दफ्तर नहीं जाना है क्या?’

उसके माथे पर बल पड़ गये, बोला, ‘तुम्हें नहीं मालूम?’

मैंने पूछा, ‘क्या?’

वह उसी अप्रसन्नता की मुद्रा में बोला, ‘चिराग तले अंधेरा। पूरे मुहल्ले को मालूम हो गया और तुम मुंह बाये खड़े हो। मैं सस्पेंड हो गया हूं।’

मेरा मुंह आश्चर्य से और ज़्यादा खुल गया। मैंने पूछा, ‘सस्पेंड हो गये? क्यों?’

वह भौंहें टेढ़ी करके बोला, ‘कल का अखबार पढ़ा था?’

मैंने कहा,’पढ़ा तो था।’

वह तिरस्कार के भाव से बोला, ‘खाक पढ़ा था। मेरी समझ में नहीं आता तुम लोग अखबार खरीदते ही क्यों हो। कल के अखबार में सारी घटना छपी है। मेरा नाम भी छपा है। पहली बार अखबार में मेरा नाम छपा है।’

मैंने पूछा, ‘कौन सी घटना? क्या छपा है?’

वह लापरवाही से बोला, ‘मेरे ऊपर बीस लाख की गड़बड़ी का आरोप लगा है। मेरे साथ चन्दू भी सस्पेंड हुआ है।’

घबराहट के मारे मेरी सांस जहां की तरह रह गयी। मैंने कहा, ‘बीस लाख? यह कैसे हुआ?’

वह बोला, ‘अरे भई, हम लोग बैंक से दफ्तर का पैसा लेकर लौट रहे थे। रास्ते में स्कूटर खड़ी करके लघुशंका करने लगे। रुपयों का बैग पीछे स्कूटर में लगा था। लघुशंका के बाद मुड़कर देखा तो बैग गायब था।बहुत से लोग आ जा रहे थे। किसे दोष देते ?’

मैंने कहा, ‘दोनों लोग एक साथ लघुशंका कर रहे थे?’

वह बोला, ‘हां भई।’

मैंने कहा, ‘दोनों को एक साथ लघुशंका करने की क्या ज़रूरत थी? एक थोड़ा रुक जाता।’

उसने जवाब दिया, ‘अब दोनों को एक साथ लगी तो उसमें हमारा क्या कसूर? ये जो लघुशंका वगैरह हैं इन्हें अपने चिकित्सा शास्त्र में वेग कहा जाता है। वेगों को रोकना शरीर के लिए नुकसानदेह होता है। प्राणघातक भी हो सकता है। इन्हें तुरन्त निपटा देना चाहिए।’

मैंने कहा, ‘तो एक हाथ में रुपये का बैग पकड़े रहते। जिम्मेदारी का काम था।’

वह बोला, ‘तुम भी अजीब आदमी हो। अरे भई, लक्ष्मी पवित्र होती है। लक्ष्मी हाथ में लेकर लघुशंका करता? भारी पाप लगता।’

मैंने दुखी भाव से कहा, ‘मुझे अफसोस है।’

वह कुछ नाराज़ी दिखा कर बोला, ‘अफसोस की क्या बात है? तुम्हारे साथ यही गड़बड़ है। मुझे थोड़ा आराम मिला तो तुम्हें अफसोस होने लगा। और फिर मैं तो यह मानता हूं कि जो काम करेगा उसी से गलती होगी। जो काम ही नहीं करेगा उससे क्या गलती होगी?’

मैंने कहा, ‘लेकिन अब तुम क्या करोगे?’

वह इत्मीनान से बोला, ‘करना क्या है। रोज दफ्तर जाकर दस्तखत करूंगा, वहां दोस्तों से गप लड़ाऊंगा और हर महीने आधी तनख्वाह लूंगा।’

मैंने कहा, ‘लेकिन इस केस में कुछ तो होगा।’

वह बोला, ‘हां, विभागीय जांच चलेगी। पुलिस केस भी बनेगा। कुछ परेशानी तो होगी। लेकिन आखिर में सब ठीक हो जाएगा। नौकरी में यह सब तो चलता ही है।’

मैंने कहा, ‘जब तक मामले का फैसला नहीं होगा पैसे वैसे की परेशानी तो होगी।’

वह बोला, ‘अरे तो तुम क्या यह समझते हो कि मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा? साले के नाम से दो टैक्सियां डाल रहा हूं। बिजली के सामान की एक दुकान भी खोल रहा हूं। बाल- बच्चों के भविष्य का भी तो सोचना है। नौकरी में आजकल कुछ नहीं धरा है।’

मैंने ताज्जुब से पूछा, ‘लेकिन इस सबके लिए पैसा कहां से आएगा?’

वह मुस्कराया, बोला, ‘तुम घामड़ ही रहे यार। ये सब बातें तुम्हारी समझ में नहीं आएंगीं। तुम तो बस नौकरी करते रहो और हाय हाय करके जिन्दगी काटते रहो।’

मैंने कहा, ‘लेकिन तुम तो कह रहे थे कि सरकारी पैसे तुमने नहीं लिये।’

उसकी मुस्कान और चौड़ी हो गयी। बोला, ‘अब भी कह रहा हूं और आखिर तक कहता रहूंगा। चोरी कबूल करके मैं अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारूंगा क्या? कानून भी कहता है कि जब तक जुर्म साबित न हो जाए, आदमी को अपराधी न माना जाए। इसलिए मैं बिलकुल सौ प्रतिशत पाक साफ हूं ।’

मैंने कहा, ‘लेकिन यह तो देश के पैसे का दुरुपयोग है।’

वह ज्ञानियों की नाईं बोला, ‘यह तुम्हारी नासमझी है,बंधु। इस देश की आबादी एक  सौ चालीस करोड़ है। बीस लाख रुपये को एक  सौ चालीस करोड़ में बांटो तो एक आदमी पर चवन्नी का भार भी नहीं आता। लेकिन वही पैसा जब बीस लाख  रुपये के रूप में एक आदमी के हाथ में आ जाता है तो वह उससे अपना, अपने परिवार का, समाज का और देश का कल्याण कर सकता है। आया कुछ समझ में?’

मैंने कहा, ‘आया महाप्रभु।’

वह संतुष्ट होकर बोला, ‘फिलहाल तो मेरा एक ही उद्देश्य है।’

मैंने कहा, ‘वह क्या?’

वह बोला, ‘कोशिश यही करना है कि विभागीय जांच लंबी से लंबी चले। बहाल तो होना ही है, लेकिन कहीं जल्दी बहाल हो गया तो सब गड़बड़ हो जाएगा।’

मैं फिर मूढ़ की तरह पूछा, ‘बहाल होने से क्या दिक्कत हो जाएगी भैया? तुम्हारी बातें आज मेरी समझ से परे हैं। लगता है कि मेरा दिमाग कुछ कुन्द हो गया है।’

वह बोला, ‘अरे श्रीमान, मुअत्तली जितनी लंबी खिंचेगी, धंधा जमाने के लिए उतना ही ज्यादा टाइम मिलेगा। वैसे भी रिटायरमेंट के बाद कोई धंधा करना ही है। वह अभी जम जाएगा तो नौकरी तो फिर साइड बिज़नेस जैसी हो जाएगी। इसीलिए मैं वकील से सलाह ले रहा हूं कि केस कैसे लंबा लंबा खिंच सकता है। जल्दी खत्म हो जाएगा तो भारी परेशानी हो जाएगी। दूसरी बात यह है कि मुअत्तली का पीरियड जितना लंबा होगा, बहाल  होने पर उतना ही ज्यादा इकठ्ठा पैसा दफ्तर से मिलेगा। धंधे में काम आएगा।’

मैंने कहा, ‘समझ गया, भैया जी। आज मुझे बड़ा ज्ञान दिया तुमने। नौकरी में कितनी संभावनाएं हैं यह आज ही जाना।’

वह खुश होकर बोला, ‘तारीफ के लिए शुक्रिया। दो-चार दिन मेरे पास बैठो तो तुम्हें नौकरी के गुर समझा दूंगा। नौकरी तो सब करते हैं लेकिन नौकरी की खान में छिपे रत्नों को सब नहीं ढूंढ़ पाते। बिना गुरू के ज्ञान नहीं मिलता।’

मैंने हाथ जोड़कर चुन्नीलाल से कहा, ‘ज़रूर बैठूंगा, भैया। आजकल इस तरह बुला बुलाकर मुफ्त में ज्ञान देने वाले गुरू मिलते कहां हैं? फिलहाल तो मैं यह कामना करता हूं कि तुम्हारी इच्छा पूरी हो और तुम्हारी मुअत्तली लंबी से लंबी खिंचे।’

चुन्नीलाल भी हाथ जोड़कर बोला, ‘बहुत बहुत धन्यवाद। तुम सब की दुआएं रहेंगीं तो मेरे रास्ते की सब बाधाएं दूर होंगीं। वैसे मैं निर्भय हूं। जब कुछ किया ही नहीं तो चिन्ता किस बात की?’

मैं चलने लगा तो वह पीछे से बोला, ‘दो-चार दिन आ जाना तो कुछ ज्ञान दे दूंगा तुम्हें। अभी दो-चार दिन फुरसत है। बाद में बिज़ी हो जाऊंगा। मित्रों का कुछ फायदा कर सकूं तो मुझे खुशी होगी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ श्वान और मालिक का प्रात: कालीन भ्रमण… ☆ श्री यशवंत कोठारी ☆

श्री यशवंत कोठारी

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री यशवन्त कोठारी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आपके लगभग 2000 लेख, निबन्ध, कहानियाँ, आवरण कथाएँ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राजस्थान पत्रिका, भास्कर, नवज्योती, राष्ट्रदूत साप्ताहिक, अमर उजाला, नई दुनिया, स्वतंत्र भारत, मिलाप, ट्रिव्यून, मधुमती, स्वागत आदि में प्रकाशित/ आकाशवाणी / दूरदर्शन …इन्टरनेट से प्रसारित। अमेज़न Kindle, Pocket FM .in पर ऑडियो बुक्स व् Matrubharati पर बुक्स उपलब्ध। 40 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित। सेमिनार-कांफ्रेस:– देश-विदेश में दस राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों में आमंत्रित / भाग लिया। राजस्थान साहित्य अकादमी की समितियों के सदस्य 1991-93, 1995-97, ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार की राजभाषा समिति के सदस्य-2010-14.)

☆ व्यंग्य ☆ श्वान और मालिक का प्रात: कालीन भ्रमण… ☆ श्री यशवंत कोठारी ☆

रोज़ सुबह इस पोश कोलोनी में घूमने के साथ साथ कई काम एक साथ हो जाते हैं. कचरा फेंक देता हूँ दूध ले आता हूँ, गाय को रोटी दे आता हूँ और घूम भी लेता हूँ. बड़े लोग, बड़े बंगले, बड़ी गाड़ियाँ और छोटे छोटे दिल लेकिन बड़े बड़े पेट्स इनको श्वान या कुत्ता कहना मालिक या मालकिन का अपमान है.

अक्सर मुझे अमिताभ बच्चन की फिल्म का एक डायलॉग याद आता है जिसमे वे एक सुबह घूमने वाले को देख कर कहते हैं –इस गधे के साथ कहाँ जा रहें हैं पेट- मालिक बोलता है –यह गधा नहीं मेरा पेट डॉग है अमित जी मासूमियत से कहते हैं मैंने यह सवाल आप से नहीं पेट से ही पूछा था. खैर छोडिये.

अब तो अदालत ने भी गली मोहल्लों के कुत्तों के लिए स्थान सुनिश्चित करने को बोला है कोलोनी वाले उनके लिए खाने की भी व्यवस्था करेंगे. अब तो पेट डॉग्स के लिए पार्क भी बनने लग गए हैं. पेट ट्रेनर की रेट कोचिंग से भी ज्यादा हो गयी है, घुमाने के लिए स्टाफ रखा जाता है. सुबह पेट को घुमाने वाले उसे पट्टे से आजाद कर के खुला छोड़ देते हैं, पेट अपना पेट साफ कर लेता है सुसु से धरा को पवित्र कर देता है तब तक मालिक दूर खड़ा रहता है ताकि आक्षेप करने पर यह कह सके की यह पेट मेरा नहीं है, निवृत्त हो कर पेट मालिक के पास आ जाता है मालिक उसे पट्टे से बांध कर घर की और चल देता है. कुछ समझदार पेट मालिक अपने श्वान की पोट्टी थेली में भर कूड़े दान में डाल देते हैं अपनी संतानों की नेपि भले न बदली मगर पेट के लिए कर देते हैं. कॉलोनी में पेट्स का सामना अक्सर आवारा कुत्तों से हो जाता है गली के श्वान बंगले के श्वान से सेमिनार और वर्कशॉप करने लग जाते हैं इस सामूहिक रुदन से देर से उठने वाले परेशान हो जाते हैं, मगर विरोध करने पर पशुप्रेमी स्वयं सेवी संस्था के महारथी लोग आ जाते हैं और आवारा कुत्तों को उठाने वाली गाड़ी के आगे लेट जाते हैं स्थिति हर गली मोहल्ले में एक जैसी है. श्वान प्रेमी होना अच्छा है लेकिन क्या मानवतावादी होना गलत है, हर शहर में नवजात बच्चों, बूढों बुजुर्गों, महिलाओं को ये श्वान अपना शिकार बना चुके हैं एक दान्त गड़ने पर दस हज़ार का मुआवजा देने के आदेश है लेकिन ऐसी स्थिति ही क्यों आये ?

पेट पालें, मगर दूसरों की जिन्दगी से खिलवाड़ न करें. कुत्तों के अलावा बिल्ली, तोता, चिड़िया, खरगोश, कछुआ या अन्य जानवर पाले जा सकते हैं. आवारा जानवरों के खतरें बहुत है. सड़क पर रा त- बिरात निकलना तक मुश्किल हो गया है श्रीमान. पेट्स के भी खान दान होते हैं असली नस्ल को पहचानने के लिए विशेषज्ञ है, नस्ल सुधारने वाले भी मिल जाते हैं. लेकिन मानव की कौन सोचता है? कुत्ते नवजात तक भी पहुँच जाते हैं. चीर फाड़ देते हैं, लेकिन कौन सुनता है ?

डॉग के सामानों की दुकानें हैं और वहां पर खरीदारों की भीड़ भी है, विदेशों मे तो अलग से पूरे बाज़ार है भारत में भी खुलने की प्रक्रिया है लेकिन आम राहगीर, पैदल चलने वाले, सुबह घूमने के शौक़ीन लोग इस पेट प्यार से दुखी परेशान है. नगर निगम सुनता नहीं कभी सुन ले तो एन जी ओ चलाने वाले पशु प्रेमी गाड़ी को घेर कर कुत्तों को छुड़ा लेते हैं. उनका प्रेम आवारा जानवरों के प्रति नहीं उमड़ता है गरीब दलित आदिवासी के लिए भी नहीं केवल पेट प्यार के मारे हैं ये सब. हजारों लोग हर साल कुत्तों के काटने से मर जाते हैं, कुत्ता नियंत्रण क़ानून बना है लेकिन इस से क्या होता है ? पेट मालिक पर मुकदमें चलाये जाने चाहिए. आंकड़ों के अनुसार रेबीज से हर साल हजारों लोग घायल होते हैं या मर जाते हैं

पेट मालिकों को दूसरों की जिन्दगी से खेलने का कोई ह़क नहीं हैं, सुनो क्या मेरी आवाज तुम तक पहुंचती है ?

©  श्री यशवन्त कोठारी

संपर्क – 701, SB-5, भवानी सिंह रोड, बापू नगर, जयपुर -302015 मो. -94144612 07

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 50 – चाय, चमचा और चुटकी नमक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चाय, चमचा और चुटकी नमक)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – चाय, चमचा और चुटकी नमक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कहते हैं कि अगर आपकी चाय में नमक पड़ जाए तो या तो आप बहुत बड़े नेता बनने वाले हैं, या फिर किसी ने आपके जीवन की मिठास में सेंध लगा दी है। मेरे मोहल्ले के शशिकांत जी ने दोनों कर डाले – नेता भी बन गए और मोहल्ले की बहुओं की आँखों से गंगाजल भी बहवा दिया। वो जब सुबह-सुबह अपनी बीवी को “गुड मॉर्निंग” कहते थे तो बीवी नमकदानी फेंक देती थी – “तुमसे तो गुडनाइट ही बेहतर है।” मोहल्ले में कोई मरता, तो शशिकांत जी सांत्वना देने से पहले पूछते, “मौत अचानक हुई या रूटीन की?” उनके चेहरे पर हमेशा एक स्थायी व्यंग्य होता – मानो जिंदगी को उन्होंने ईएमआई पर ले रखा हो।

पिछले महीने उन्होंने समाज सेवा का नया स्टार्टअप खोला – ‘चाय विद चुटकी’। उद्देश्य था – “एक कप में समाज की सारी समस्याओं को घोलना और फिर उसे गर्मागरम परोस देना।” लेकिन पहले ही दिन समस्या घुल नहीं पाई, चाय में नमक घुल गया। वो चाय पीने वालों से बोले, “भाइयों और बहनों, यह चाय नहीं, व्यवस्था का घड़ा है – पी जाओ, तभी तो सुधार होगा।” लोगों ने पिया… और उल्टी भी की। पर शशिकांत जी मुस्कराए – “क्रांति ऐसे ही होती है।”

हर मोहल्ले में एक चमचा होता है। पर शशिकांत जी के यहाँ तो चमचों की पूरी पंचायत थी – रामलाल, जमुना प्रसाद, और विमलेश। ये लोग हर बात पर ताली बजाते – “वाह साहब! आपने तो गधे को भी घोड़ा बना दिया!” शशिकांत जी मुस्कराते, “सही पकड़े हैं।” उन्होंने हर समस्या का हल चाय में ढूंढा – बेरोजगारी? एक चाय दो, नौकरी लग जाएगी। गड्ढों वाली सड़क? चाय पर चर्चा कर लो, सड़क तो न बदलेगी, मन जरूर बदल जाएगा। एक बार तो उन्होंने कहा – “जीडीपी गिर रही है? कोई बात नहीं, कप तो उठ रहा है न?” और पूरा मोहल्ला हँसते-हँसते रो पड़ा।

घर में शशिकांत जी के बच्चे उन्हें ‘पापा’ नहीं, ‘पब्लिक स्पीकर’ कहते थे। जब भी उनकी बेटी उनसे नए जूते मांगती, वो कहते – “बेटी, असली सुंदरता आत्मा की होती है, पैर की नहीं।” बेटे ने एक बार कहा, “पापा, स्कूल में सब मेरा मज़ाक उड़ाते हैं।” जवाब मिला – “तो क्या हुआ? मैं भी नेता बना हूं, मेरा भी मज़ाक उड़ता है, फिर भी जनता मुझे वोट देती है।” घर की रसोई में नमक खत्म हो जाए, तो शशिकांत जी कहते – “चलो बेटा, समाज को सुधारने चले चलते हैं, वापसी में नमक भी ले आएंगे।”

उनकी पत्नी – गीता देवी – अब तक तो भगवद्गीता की भी सारी शिक्षाएँ भूल चुकी थीं। कहती थीं, “जैसे कृष्ण ने अर्जुन को समझाया, वैसे ही मैं भी हर रोज इन्हें समझाती हूं – लेकिन ये महाभारत तो क्या, महाअव्यवस्था रचकर ही दम लेते हैं।” एक दिन गीता देवी ने गुस्से में कहा, “अब बस! या तो तुम, या चाय की दुकान।” शशिकांत जी बोले – “तो फिर मैं चाय को चुनता हूं।” और मोहल्ले में पहली बार तालियाँ नहीं, सिसकियाँ सुनाई दीं।

उनकी दुकान पर रोज़ नए-नए नारे लगते – “देश बदलेगा, जब चाय उबलेगा!” लेकिन धीरे-धीरे उनकी चाय में न नशा रहा, न चर्चा। ग्राहक कम हुए, और व्यंग्य ज्यादा। लोग कहते – “शशिकांत जी की चाय पीने से पेट तो नहीं भरता, पर दुख जरूर उबल जाता है।” एक दिन एक बूढ़ी अम्मा आईं, चाय पी और बोलीं – “बेटा, यह चाय नहीं, यह तो मेरी बुढ़ापे की दवा बन गई है।” और वहीं कुर्सी पर बैठकर रो पड़ीं। शशिकांत जी ने उन्हें देखा और पहली बार उनकी आँखों में व्यंग्य नहीं, पानी था।

समाज सुधारते-सुधारते शशिकांत जी अब खुद समाज की चाय बन चुके थे – जिसे कोई पीता नहीं, सिर्फ छोड़ देता है। एक दिन दुकान बंद मिली। दरवाज़े पर लिखा था – “अब न चाय बचेगी, न चुटकी नमक। समाज में सब कुछ नमकीन है, पर दिल अब बेस्वाद हो चुका है।” मोहल्ला ठहरा, लोग ठिठके – और पहली बार, उनकी गैर-मौजूदगी में शोर नहीं, सन्नाटा था।

शशिकांत जी अब नहीं हैं। कहते हैं, अंतिम समय में उन्होंने कहा – “मेरी अस्थियाँ किसी सरकारी गड्ढे में बहा देना… कम से कम वहाँ कुछ भराव तो होगा।” मोहल्ले में उनकी याद में एक पत्थर रखा गया – उस पर लिखा है – “यहाँ वो आदमी बैठता था, जो समाज को चाय के प्याले में घोलकर पी जाना चाहता था।”
हर शाम अब वहाँ लोग चुपचाप बैठते हैं – बिना चाय, बिना नमक – पर आँखों में नमी, और दिल में ‘उरतृप्त’ पीड़ा लिए हुए।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #212 – व्यंग्य- कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद? – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद?)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 211 ☆

☆ व्यंग्य- कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

जब भी मैं ‘आतंकवाद’ शब्द सुनता हूँ, भीतर तक काँप उठता हूँ। मुझे अपने साथ हुए ‘आतंकवादी’ हादसे याद आ जाते हैं। भले ही सेना के एक नायक ने कहा हो कि इसमें आश्चर्य नहीं कि तीन आतंकवादियों ने सीधे 26 लोगों को गोली मार दी! कारण स्पष्ट है – हम प्रतिकार नहीं करते।

वे कहते हैं, कई सैनिक लड़ाई में जब स्पष्ट लक्ष्य नहीं होते, तब वे प्रतिरोध के कारण 20-25 गोलियाँ खाने के बावजूद जिंदा बच जाते हैं। उनकी यह बात याद आते ही मुझे मोहम्मद गौरी का आक्रमण याद आ जाता है, जिसने कुछ लोगों के बल पर हमारे मंदिर लूट लिए थे। यदि देखने वाले लोग उसके सैनिकों पर टूट पड़ते, तो सब मारे जाते।

मगर, तभी मुझे अपनी स्थिति का स्मरण हो आता है। भले ही सेनानायक ने उक्त बात कही हो, मैं भी इस आतंकवाद का शिकार रहा हूँ। चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया, क्योंकि मेरी मानसिकता ही ऐसी बन गई है। मेरा बेटा यह बात अच्छी तरह जानता था।

उसे पता था कि पापा को आतंकवाद कब दिखाना है। इस कारण वह अपनी एक माँग हमेशा तैयार रखता। जब भी घर में मेहमान आते, वह उसी माँग को लेकर जिद करने लगता। मैं मना करता, तो वह मेहमानों के सामने धूल-मिट्टी में लोटने लगता। नतीजतन, मुझे उसकी माँग पूरी करनी पड़ती।

मगर एक दिन मैंने ठान लिया कि अब उसके आतंकवाद को नहीं चलने दूँगा। इससे मुक्त होकर रहूँगा। अपने एक खास मित्र को मेहमान के तौर पर बुलाया। बेटा फिर आतंकवाद मचाने लगा, लेकिन मैंने ठान लिया था कि अब मुक्ति पाकर रहूँगा। मैं जमीन पर बैठकर उसे मारने की कोशिश करने लगा, ताकि उसके गाल पर थप्पड़ जड़ सकूँ।

शायद उसने सेनानायक का कथन पढ़ रखा था। वह तेजी से इधर-उधर लोटने लगा। मैं थप्पड़ लगाने के लिए गाल ढूंढ रहा था, मगर उसका गाल स्थिर नहीं था। कभी थप्पड़ पाँव पर, कभी हाथ पर लग जाता। मैं समझ गया कि इस फुर्तीले लड़के को गाल पर थप्पड़ नहीं मारा जा सकता। तब मैंने उसके पैर पकड़कर उसे धर दबोचा।

जैसे ही मैंने उसे पकड़ा, मित्र आ पहुँचा। मेरा आतंकवादी पुत्र काबू में आ गया था। मेरा शेरदिल कलेजा खुशी से फूल गया। मगर तभी मेरी पत्नी, यानी शेरनी, आ पहुँची। आते ही बोली, “क्या कर रहे हो? मेरे लाडले को मार डालोगे क्या?”

यह सुनते ही लाडला फिर आतंकवादी बन गया। मेरे हाथ-पाँव फूल गए। तब समझ आया कि शेर, शेरनी के सामने; मोर, मोरनी के सामने; और बड़ा से बड़ा डाकू, अपनी पत्नी के सामने क्यों नाचता है! काश, मैं भी पत्नी और बच्चों से कुछ गुर सीख पाता, ताकि इस आतंकवाद से मुक्त हो सकता।

तभी मुझे एक घटना याद आई। एक बार शिक्षक ने कहा था, “बोलने वाले की गुठली बिक जाती है, नहीं बोलने वालों के आम पड़े रह जाते हैं।” मुझे मंच पर बोलने के लिए प्रेरित किया गया। पूरा भाषण रटकर मंच पर गया, लेकिन हजारों की भीड़ देखकर डर का आतंकवाद हावी हो गया। बोलती बंद हो गई, सब भूल गया। चुपचाप मंच से लौट आया।

तब पहली बार जाना कि डर का आतंकवाद क्या होता है। यह हर किसी को सताता है। शायद आपको भी सताया हो। अगर आपको इसका इलाज मिल जाए, तो मुझे जरूर बताइएगा, ताकि मैं भी अपने डर के आतंकवाद से मुक्त हो सकूं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 676 ⇒ तिल धरने की जगह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “तिल धरने की जगह।)

?अभी अभी # 675 ⇒ तिल धरने की जगह ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी भाषा इतनी संपन्न है कि हम इसके साथ कलाबाजियां भी कर सकते हैं, और खिलवाड़ भी। अलंकारों, मुहावरों, लोकोक्तियों की तो छोड़िए, अतिशयोक्ति तो इतनी कि, बस पूछिए मत।

पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था, कहीं तिल धरने की भी जगह नहीं थी। वैसे तो श्रोता खचाखच के प्रयोग से ही निहाल हो गया था, बेचारा एक तिल, यानी तिल्ली का दाना, अब उसके रखने की जगह भी हॉल में नहीं बची। हुई न यह, तिल से ताड़ बनाने वाली बात। ।

अब सबसे पहले तो हॉल में आपको तिल लाने की आवश्यकता ही क्या थी। चलो अगर आप एक तिल का दाना ले भी आए, तो उसे कहां रखकर लाए थे, किसी माचिस की डिबिया में अथवा भानुमति के पिटारे में। अगर लाते तो पर्स में तिल गुड़ के दो तीन लड्डू ही ले आते आराम से खा तो सकते थे। खुद भी खाते और पड़ोसी श्रोता को भी ऑफर कर देते।

वह तो गनीमत है कि वहां कोई सिक्योरिटी चेक अथवा हाय अलर्ट नहीं था वर्ना एक तिल हॉल में लाना आपको बहुत भारी पड़ जाता। कहीं मेटल डिटेक्टर आपकी तिल में कोई खुफिया माइक्रो चिप अथवा सेल्यूलर बम, ना ढूंढ निकालता। ऐसे गैर जिम्मेदाराना, बेवकूफी भरे बयानों से बचकर रहा कीजिए, साइबर और डिजिटल क्राइम का जमाना है। ।

हो सकता है, दुश्मनों ने टाइम बम की तरह कोई विस्फोटक तिल बम ईजाद कर लिया हो, और आतंकवाद निरोधक दस्ता, खुफिया रिपोर्ट के आधार पर, वहां पहले से ही मौजूद हो। और आपकी यह तिल तक रखने की जगह नहीं, वाली बात उन्होंने सुन ली हो। पहले तो आप अंदर, आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के आरोप में। तिल को तिल बम बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। पहले पूरा हॉल खाली कराया जाता, आपकी तिल तिल की तलाशी ली जाती, हॉल का चप्पा चप्पा छान मारा जाता, और अगर कहीं गलती से, तिल गुड़ वाला तिल का टुकड़ा किसी कुर्सी के नीचे से बरामद हो जाता तो क्या उसे हाथ कोई लगाता।

उसे सुरक्षित तरीके से कब्जे में ले लिया जाता, प्रेस, पत्रकार और इलेक्ट्रिक मीडिया के सौजन्य से आपकी तस्वीर भी सनसनीखेज तरीके से कैद कर ली जाती। उधर कोई भी आतंकवादी संगठन अपनी पब्लिसिटी के लिए आपको उस गिरोह का सदस्य घोषित कर देता। ।

क्या यह सब बेसिर पैर की बातें हैं अथवा अतिशयोक्ति की पराकाष्ठा ! तो बताइए, तिल की बात शुरू किसने की थी। खुद को आसानी से बैठने की जगह मिल गई थी, लेकिन नहीं, इन्हें अपने तिल को रखने की भी जगह चाहिए थी। अब तिल तिल पुलिस कस्टडी में सड़ो।

ऐसी बददुआ सुबह सुबह हम अपने दुश्मन को भी नहीं देते। बस एक तिल की बात को लेकर दिमाग का दही हो गया था, तो हमने अनजाने में ही रायता फैला दिया। ।

सुबह सुबह इस गुस्ताखी के लिए हम आपसे करबद्ध माफी मांगते हैं, लेकिन आपसे गुजारिश है, तिल देखो, तिल की साइज देखो, पहले अपने मुंह में तिल धरने की जगह तो तलाशो, फिर उसके बाद मुंह खोलो। अतिशयोक्ति सदा बुरी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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