हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 99 ☆ मोती,  धागा और माला ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “मोती,  धागा और माला …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 99 ☆

☆ मोती,  धागा और माला… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कितना सहज होता है,  किसी के परिश्रम पर अपना हक जमाना। जमाना बदल रहा है किंतु मानवीय सोच आज भी लूट- खसोट के साए से बाहर आना नहीं चाहती है या आने की जद्दोजहद करती हुई दिखाई देती है। धागे ने माला पर हक जताते हुए कहा,  मेरे कारण ही तुम हो। तभी बीच में बात काटते हुए मोती ने कहा तारीफ तो मेरी हो रही है कि कितने सुंदर मोती हैं। सच्चे मोती लग रहे हैं।

माला ने कहा सही बात है तुम्हारी सुंदरता से मेरी कीमत और बढ़ जाती है।

धागा मन ही मन सोचने लगा कि ये दोनों मिलकर अपने गुणगान में लगे हैं कोई बात नहीं अबकी बार ठीक समय पर टूट कर दिखाऊंगा जिससे माला और मोती दोनों अपनी सही जगह पर दिखाई देंगे।

ऐसा किसी एक क्षेत्र में नहीं,  जीवन के सभी क्षेत्रों पर इसका असर साफ दिखाई देता है। नींव की उपेक्षा करके विशाल इमारतें खड़े करने के दौर में जीते हुए लोग अक्सर ये भूल जाते हैं कि समय- समय पर उनके प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त करनी चाहिए। स्वयं आगे बढ़ना और सबको साथ लेकर चलना जिसे आ गया उसकी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता है। योजना बनाना और उसे अमलीजामा पहनाने के मध्य लोगों का विश्वास हासिल करना सबसे बड़ी चुनौती होती है जिसे  सच्ची सोच से ही पाया जा सकता है। श्रेय लेने से श्रेस्कर है कि कर्म करते चलें, वक्त सारे हिसाब- किताब रखता है। समय आने पर उनका लाभ ब्याज सहित मिलेगा। 

थोथा चना बाजे घना,  आखिर कब तक चलेगा,  मूल्यांकन तो सबकी निगाहें करती रहती हैं। धागे को सोचना होगा कि वो भी अपने सौंदर्य को बढ़ाए,  सोने के तार में पिरोए गए मोती को देखने से पहले लोग तार को देखते हैं उसके वजन का अंदाजा लगाते हुए अनायास ही कह उठते हैं; मजबूत है। यही हाल रेशम के धागे का होता है। करीने से चमकीले धागों के साथ जब उसकी गुथ बनाई जाती है तो मोतियों की चमक से पहले रेशमी, चमकीले धागों की प्रशंसा होती है। सार यही है कि आप भले ही धागे हों किन्तु स्वयं की गुणवत्ता को मत भूलिए उसे निखारने, तराशने,  कीमती बनाने की ओर जुटे रहिए। अमेरिकी उद्यमी जिम रॉन ने ठीक ही कहा है – “आप अपने काम पर जितनी ज्यादा मेहनत करते हैं,  उससे कहीं ज्यादा मेहनत खुद पर करें।”

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #139 ☆ व्यंग्य – लाउडस्पीकर और हम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘लाउडस्पीकर और हम’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 139 ☆

☆ व्यंग्य – लाउडस्पीकर और हम  

लाउडस्पीकर की ईजाद इसलिए हुई थी कि दूर बैठा कोई आदमी यदि बात को सुनना चाहे जो वंचित न रहे। लेकिन अब लाउडस्पीकर का प्रयोग ऐसी बातों को हमारे कान में ठूँसने के लिए होता है जिन्हें हम सुनना नहीं चाहते।

दिन के कोलाहल में तो हम इस ज़ुल्म से बच लेते हैं, लेकिन रात को बचने का कोई रास्ता नहीं रहता। रात को शहर सन्नाटे में होता है। दो मील दूर की आवाज़ भी साफ सुनाई देती है। हम आधे नींद की आगोश में होते हैं। तभी वह शुरू होता है— ‘ठक ठक’ ‘हेलो माइक टेस्टिंग, वन टू थ्री फोर।’

और इसके बाद,  ‘हाज़रीन, अब मैं आपके सामने शहर के मशहूर गायक तानसेन को पेश करता हूं, जिनकी आवाज़ में मुकेश की खनक, रफी की लोच और तलत का सोज़ है। तो सुनिए हाज़रीन, मशहूर गायक तानसेन को।’

मशहूर गायक तानसेन आते हैं और खाँसने खूँसने के बाद मुकेश, रफी और तलत की सामूहिक कब्र खोदना शुरू कर देते हैं। हम अपनी खटिया पर छटपटाते हैं क्योंकि बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। मेरे जैसे लोग जिन्हें थोड़ा सुर ताल का ज्ञान है और भी ज्यादा कष्ट भोगते हैं।

उद्घोषक महोदय ऐसे उतार-चढ़ाव और ऐंठी ज़ुबान में घोषणा करते हैं जैसे अमीन सायानी के असली वारिस वे ही हों।

किसी रात को पुरुष स्वरों में कोई सोहर शुरू हो जाता है। खासे बेसुरे कंठ हैं लेकिन शुरू हो जाते हैं तो खत्म ही नहीं होते। जच्चा-बच्चा को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ, लेकिन सोचता हूँ भगवान ने कान दिये तो कान के ढक्कन क्यों न दिये? कान को दुनिया का कचरादान बना दिया।

रात को गाने वाला बड़े फायदे में रहता है। दिन को तो शायद उसे आठ श्रोता भी न मिलें, लेकिन रात को उसे अपनी-अपनी खटिया पर अवश पड़े आठ दस लाख श्रोता मिलते हैं। मैं कल्पना करता हूँ कि इस गायक के सामने कितने श्रोता होंगे? दो चार होंगे? या फिर वह हमीं खटिया वालों को लक्ष्य करके अँधेरे में तीर मार रहा है?

कहीं से ‘हेलो हेलो’ के बाद कोई पाँच छः साल के चिरंजीव गाने लगते हैं—‘ऐं ऐं मेरे अंगने में। ऐं मेरे अंगने में।’ फिर माइक पर कुछ झगड़ा सुनाई पड़ता है— ‘अब हम गायेंगे।’ ‘नहीं, अभी हम गायेंगे।’ फिर कोई दस बारह साल वाली कुछ मोटी आवाज़ शुरू हो जाती है।

कभी किसी लड़की की शरमाती, झिझकती आवाज़। कल्पना कर सकते हैं कि कैसे नाखून से ज़मीन को खुरचते हुए, सिर झुकाये गा रही होगी। ठीक है भई, पिताजी ने लाउडस्पीकर के पैसे दिए होंगे। गाओ, खूब गाओ। सुनने के लिए हम तो हैं ही।

कहीं किसी विदुषी का प्रवचन चल रहा है— ‘ईश्वर में बिलीव किए बिना मुक्ति नहीं मिलेगी। यह माया सब यूज़लेस है। इससे अपने को मुक्त होना है, फ्री होना है। ईश्वर की शरण में आये बिना पीस और हैपीनेस नहीं मिलने वाली। यह बच्चे क्यों डिस्टर्ब कर रहे हैं? बिल्कुल साइलेंट हो जाइए।’

किसी कोने में कोई नेता गरजते हैं। सब वही बातें जिन्हें सुनते सुनते हम बौरा गये। उन शब्दों के अर्थ घिस गये, लेकिन उन्हीं सिक्कों को चला रहे हैं। विपक्ष की खिंचाई कर रहे हैं, चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं।

यह सारे भयानक स्वर हमारे कानों से टकरा रहे हैं, नींद हराम कर रहे हैं, चैन हराम कर रहे हैं। समझना मुश्किल है कि ये स्वर शहर के किस कोने से आते हैं।

इस अत्याचार से यह साबित होता है कि लाउडस्पीकर सिर्फ चोंगा ही नहीं है, वह एक हथियार भी है। जिस को परेशान करना हो उसके घर की तरफ लाउडस्पीकर का चोंगा घुमा दो और दो दिन तक चौबीस घंटे चालू रखो। यंत्रणा देने का यह नायाब तरीका है। चोंगे का शिकार बचकर जा भी कहाँ सकता है? ‘हम हाले दिल सुनाएंगे, सुनिए कि न सुनिए।’

हमारी कोई खुशी लाउडस्पीकर बजाये बिना पूरी नहीं होती। भाषण के लिए लाउडस्पीकर अनिवार्य है, भले ही कमरा इतना छोटा हो कि श्रोताओं से फुसफुसा कर भी बात की जा सके। दूसरी तरफ ऐसे शूरवीर हैं जो आठवीं संतान के जन्म पर भी भोंगा लगा लेते हैं।

इसलिए लाउडस्पीकर के अत्याचार से निजात पाना आसान नहीं लगता। सुनते रहो और दाँत पीसते रहो। पीसते पीसते दाँत टूट जाएंगे। इटली में पीसा की झुकती हुई मीनार के आसपास मोटर के हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ताकि शोर के दबाव से मीनार और न झुक जाए। लेकिन यहाँ आवाज़ें मीनार से ज्यादा कीमती आदमी की दुर्गति कर रही हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 98 ☆ लाइम लाइट की हाइट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “लाइम लाइट की हाइट …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 98 ☆

लाइम लाइट की हाइट … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

लाइम और लाइट दोनों की ही शॉर्टेज चल रही है। इसके फेर में पड़ा हुआ व्यक्ति हमेशा कुछ न कुछ अलग करने के चक्कर में घनचक्कर बना हुआ दिखाई देता है। अपनी अलग पहचान बनाना कौन नहीं चाहता, बस यहीं से असली खेल शुरू हो जाता है। समाज के बने हुए नियमों को ताक पर रखकर,एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए व्यक्ति आगे के रास्ते पर चल देता है।

दो सफल सहेलियाँ एक अवसर पर एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर दिखीं लेकिन दोनों के भावों में अंतर था। पहली सहेली नेह भाव को लेकर मिल रही थी तो दूसरी अपने सफल होने की चादर को लपेटे हुए मंद- मंद मुस्कुराते हुए केवल औपचारिक भेंट हेतु आयी थी। दरसल दोनों ही इस प्रतिक्रिया से निराश हुईं। पहली को लगा कि उसने व्यर्थ ही यहाँ आकर समय नष्ट किया क्योंकि यहाँ तो एक संस्था की पदाधिकारी आयी है तो वहीं दूसरी ने सोचा ये तो अभी तक उन्हीं यादों को सीने से लगाकर आयी है। मैं तो इसके पद से जुड़कर अपना गौरव और बढ़ाना चाह रही थी किन्तु ये बेचारी बहनजी टाइप ही रह गयी। ऐसी सफलता की क्या कदर करूँ जो लाइमलाइट से दूर भाग रही हो।

जो हम सोचते हैं; वही बनते जाते हैं क्योंकि कल्पना से ही विचार बनते हैं और वही अनायास  हमारे कार्यों द्वारा प्रदर्शित होते हैं। इसीलिए अच्छे लोगों का सानिध्य, अच्छे संस्कार, अच्छी पुस्तकें सदैव पढ़ें।

एक बहुत पुरानी कहानी जो लगभग सभी ने पढ़ी या सुनी होगी। दो तोते एक साथ जन्म लेते हैं किंतु उनकी परवरिश अलग- अलग माहौल में  होती है। एक महात्मा जी के आश्रम में लगे पेड़ पर पलता है तो दूसरा एक ऐसे पेड़ पर रहता है जिसके आश्रय तले चोर बैठ कर आपस में योजना बनाते व चोरी के सामान का हिस्सा बाँट करते हैं।

जाहिर है वातावरण के अनरूप उनके स्वभाव भी निर्मित  हुए जहाँ आश्रम का तोता मन्त्र जाप करता व राहगीरों को राह बताता वहीं  दूसरा तोता राहगीरों को अपशब्द कहता व उनको गलत मार्ग बताता जिससे वे रास्ता भटक जाते।

ये सब घटनाक्रम दर्शाते हैं कि यदि अंतरात्मा को शुद्ध रखना है तो सत्संगत के महत्व को पहचाने। अब पुनः लाइम लाइट की ओर  आते हैं, और एक प्रश्न सभी के लिए है कि क्या रिश्तों और संबंधों में इसकी उपस्थित इतनी जरूरी हो जाती है कि हम सब कुछ खोकर भी बस सफलता की नयी परिभाषा गढ़ने में ही पूरा जीवन जाया करते जा रहे हैं?

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #138 ☆ व्यंग्य – फत्तेभाई का स्वर्ग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘फत्तेभाई का स्वर्ग’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 138 ☆

☆ व्यंग्य – फत्तेभाई का स्वर्ग  

फत्तेभाई नगर में एक धर्मयोद्धा के रूप में विख्यात रहे। जहाँ भी धर्म के नाम पर कहीं फ़साद की खबर मिलती, वहाँ उड़ कर पहुँच जाते। दृश्य पर उनके अवतरित होते ही वातावरण का पारा ऊपर चढ़ जाता। फिर कोई तर्क, कोई समझाइश, कोई प्रार्थना कारगर न होती। होता वही जो फत्तेभाई चाहते। पुलिस-प्रशासन उन पर हाथ डालने में डरते थे क्योंकि उन्होंने शिष्यों की एक बड़ी फौज तैयार कर ली थी,जो उनके इशारे पर कहीं भी जूझने को तैयार रहती थी।

ऐसे ही फ़साद की एक जगह पर एक दिन फत्तेभाई पहुँचे थे और वहाँ जनता को प्रभावित करने के लिए अपने बाहुबल का प्रदर्शन कर रहे थे। वे चीख चीख कर दूसरे पक्ष के लोगों को ललकार रहे थे कि अचानक उनके दिमाग़ की नस जवाब दे गयी और वे ‘कोमा’ में चले गये। शिष्य तत्काल उन्हें लाद कर अस्पताल ले गये जहाँ दो दिन ‘कोमा’ में रहने के बाद उनके गौरवशाली जीवन पर ‘फुलस्टॉप’ लग गया।

फत्तेभाई की आत्मा सीधी उड़कर परलोक चली गयी। (आत्मा बिना गाइडेंस के इतनी दूर परलोक कैसे पहुँच जाती है यह मुझे नहीं मालूम।) वहाँ पहुँची तो देखा सामने एक लंबी पर्णकुटी है और सब तरफ वैसी ही कुटियाँ फैली हैं। सब तरफ अजीब सा सन्नाटा था। सामने वाली कुटी में तीन चार लोग ख़ामोश बैठे थे और आठ दस लोग इधर-उधर डोल रहे थे।

फत्तेभाई की आत्मा अकड़ती हुई कुटिया में घुसी। सामने बैठे लोगों से बोली, ‘हम भोपाल के फत्तेभाई की आत्मा हैं। शायद आपने हमारा नाम सुना होगा। हमारे शहर में तो बच्चा बच्चा हमें जानता है। हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए बहुत काम किया है और आज धर्म की राह में ही अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है। हमारा नाम स्वर्ग की लिस्ट में होगा। बताइए, हमारे ठहरने का इंतज़ाम कहाँ है?हमने तो सोचा था कि यहाँ गाजे-बाजे के साथ हमारी अगवानी होगी, लेकिन यहाँ तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता। लगता है यहाँ का हाल भी धरती जैसा ही है।’

वहाँ बैठे लोगों में से जो प्रमुख दिखता था वह बोला, ‘पता नहीं लोगों को यह क्या रोग हो गया है। जो आता है वह स्वर्ग स्वर्ग रटता हुआ आता है। भैया, यहाँ स्वर्ग वर्ग कुछ नहीं है। यहाँ पर आत्माओं के अन्तरण का काम होता है। आपकी जाँच की जाएगी कि आपको जिस योनि में भेजा गया था उसके अनुरूप आपने काम किया या नहीं। जैसे कि आपको इंसान बनाकर भेजा गया था तो अगर आपने इंसान के अनुरूप जीवन यापन नहीं किया तो आपको किसी दूसरी योनि में भेजा जा सकता है। और अगर इंसान जैसे रहे तो दुबारा इंसान बनने का मौका मिल सकता है। इसी को स्वर्ग नरक कह सकते हो। बाकी स्वर्ग नरक कुछ नहीं है।

‘और आप यह जो बार बार धर्म की बात करते हो यह हमारी समझ से बाहर है। हम कोई धर्म वर्म नहीं समझते। इंसान का धर्म इंसानियत है, बाकी बातें हमारी समझ से परे हैं।’

फत्तेभाई सुनकर चक्कर में पड़ गये। बोले, ‘भैया, यह इंसानियत का धर्म क्या है?जरा समझाइए।’

प्रमुख बोला, ‘इंसानियत का धर्म यही है कि दूसरे इंसानों और सभी जीवों से प्रेम करो, उनकी मदद करो, अपनी दुनिया और अपने समाज को बेहतर बनाने के लिए जो कर सको, करो। खुद शान्ति से रहो और दूसरों को चैन से रहने दो।’

फत्तेभाई बोले, ‘और यह जो हम अपने धर्म के लिए जान हथेली पर लिये रहते हैं, उसके लिए कोई क्रेडिट नहीं है?’

प्रमुख बोला, ‘हमें न बताओ। हमें सब पता है कि तुम्हारे लोक में धर्म के नाम पर क्या क्या होता है। जो तुम्हारा धर्म निश्चित किया गया है उसे छोड़कर तुम सब करते हो। न खुद चैन से बैठते हो, न दूसरों को बैठने देते हो।’

फत्तेभाई बोले, ‘वहाँ लोग स्वर्ग के लालच में शरीर और मन पर भयंकर कंट्रोल लगा रहे हैं, शरीर को पत्ते जैसा सुखा रहे हैं, धर्म के नाम पर सिरफुटौव्वल कर रहे हैं, और आप कहते हो कि स्वर्ग जैसी कोई चीज़ ही नहीं। यह बात नीचे तक पहुँच जाए  तो पूरे भूलोक में हाहाकार मच जाएगा।’

प्रमुख हँसकर बोला, ‘बताने के लिए लौट कर कौन जाएगा?’ फिर बोला, ‘अब आप कुटिया नंबर 173 में जाओ। वहाँ आपकी गहन जाँच होगी। आपके किये कर्मों की जाँच-पड़ताल होगी। फिर तय होगा कि आपको अब कौन सी योनि ‘एलॉट’ की जाए।’

फत्तेभाई दुखी मन और भारी कदमों से कुटिया नंबर 173 की तरफ अग्रसर हुए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 119 ☆ व्यंग्य – ऊँची मूँछ नीची सोच ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय व्यंग्य “व्यंग्य – ऊँची मूँछ नीची सोच। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 119 ☆

☆ व्यंग्य – ऊँची मूँछ नीची सोच 

निश्चित तौर पर ऊंची मूंछ  सम्मान, वैभव, दबंगता और कुछ विशिष्ट ओहदों की निशानी मानी जाती है।  पुरानी कहावत है मूँछ नीची न हो चाहे गर्दन कट जाए, आज भी प्रासंगिक लगती है। भाई मूँछ रखना तो समझ में आता है पर यह ऊंच-नीच का भाव कहीं न कहीं व्यक्ति के अहम को दर्शाता है अब आप ही बताएं, क्या जिनकी मूँछ नहीं होती या जो मूंछ नहीं रखते क्या उनकी कोई  कीमत नहीं है? पुराने जमाने में हमने बुजुर्गों से सुना था की मालगुजारों और ठाकुरों के सामने कोई अपनी मूंछ ऊंची नहीं कर सकता था उन्हें अपनी मूंछें नीची रखना पड़ती थीं।

सिर्फ जागीरदारों, मालगुजार और ठाकुरों की मूँछें ही सदा ऊंची रहती थी। यदि किसी ने जाने-अनजाने इनके सामने अपनी मूंछ ऊंची कर ली या तान ली तो समझ लें उनकी खैर नहीं लट्ठ चल जाते थे साहब.!!

अब जागीरदारी-मालगुजारी और ठकुरासी तो रही नहीं पर विश्व पटल में अमेरिका, रूस, चीन जैसी महाशक्तियां अभी भी अपनी मूछें ऊंची रखना चाहती हैं और मानसिकता भी वही पुरानी कि उनके सामने कोई दूसरा अपनी मूंछ कैसे तान सकता है यूक्रेन-रूस का युद्ध पिछले 2 माह से सिर्फ इसी बात को लेकर चल रहा है। एक तरफ चीन है जो ताइवान पर कब्जा करना चाहता है, इजरायल सीरिया पर! ऐसे दुनिया में तमाम उदाहरण हैं जिनमें ये बड़े देश छोटे विकासशील देशों को छोटी मोटी आर्थिक मदद कर, उन्हें दबाकर, उनकी जमीन हथिया कर, अपना साम्राज्य विस्तारित करना चाहते हैं। विश्व में इन महाशक्तियों की विस्तारवादी नीतियां ही विश्व युद्ध की जनक हैं!!

इन महाशक्तियों के अहम का ग्रास बनते हैं आम नागरिक? जो न इनकी मूछों से कोई मतलब रखते हैं न इनके ऊंचा-नीचा होने से! फिर भी ये बेवजह शिकार हो जाते हैं इन मूंछ वालों के?

लाखों आम लोग बेबजह ही इनके अहम की बलि चढ़ रहे हैं, शहर बर्बाद हो रहे हैं, बमों की मार से जल रहे हैं, खाक हो रहे हैं! लोगों का जीना दुश्वार हो गया है, आम ज़िंदगी दूभर हो गई है, लोग भूखे मर रहे हैं! परिवार बिखर रहे हैं। इनके अहम की मूछों का दंश पीड़ितों से पूछो तो आपका हृदय विदीर्ण हो जाएगा।

ऐसा नहीं कि इन मूँछ वालों की दादागिरी की खबर विश्व मानव अधिकार संगठन को नहीं है? पर उसके स्वर मुखर नहीं हो पाते! लगता है महाशक्तियों के प्रभाव से वो उबर नहीं पा रहे हैं.! शायद यह भी महाशक्तियों की मूंछों का ही आतंक है! आज विश्व में जरूरत है शांति और सद्भाव की! पर क्या यह इन मूँछ वालों के सामने यह संभव है? 

इन बड़े देशों की मूछों के चक्कर में अब बहुत से छोटे मोटे देश भी मूंछें उगाने लगे हैं जिसके चलते मूछों का आतंक बढ़ा है। मूछें यदि स्वयं के स्वाभिमान तक सीमित होती तब भी ठीक था पर ज्यादातर मामलों में ये अपने अहम की पूर्ति का सबब बनी हुई हैं। स्वाभाविक है जहां अहम होगा वहां टकराव सुनिश्चित है। अहम अपने आगे किसी को समझता कहां है? इन मूंछ वालों के अहम के साथ इनके अहम का पोषक बन कुछेक खड़े हो जाते हैं जिसका परिणाम गुटबाजी के रूप में सामने आता है! और यही गुटबाजी संघर्ष को जन्म देती है.!

काश हमारी भारतीय संस्कृति से ये मूंछ वाले कुछ सबक लेते और समझ सकते कि” सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।। का मंत्र समूचे मानव कल्याण के लिए कितना जरूरी है! काश ऊंची मूंछ के साथ सोच भी ऊंची होती? ऊंची मूंछ, नीची सोच रख कर अमन और शांति सद्भाव की तलाश कदापि मुमकिन नहीं है।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 97 ☆ नयी सोच के साथ-साथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  नयी सोच के साथ-साथ…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 97 ☆

☆ नयी सोच के साथ-साथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

बदलाव बहुत जरूरी होता है। मानव मन एक जैसी चीजों से बहुत जल्दी ऊबने लगता है। अब देखिए किस तरीके से कंप्यूटर, मोबाइल, आई फोन अपडेट हो रहे हैं। जिसका भी प्रयोग करो वही मैसेज देता हुआ मिल जाएगा स्वयं को बदलिए। सारे डिजिटल फॉर्म समय के साथ आगे बढ़ रहे हैं। बस सैटिंग करते बननी चाहिए। ये शब्द भी कितना उपयोगी है जन्म से लेकर मृत्यु तक सब कुछ सैटिंग्स के भरोसे ही चल रहा है। चलते रहो, रुको नहीं यही तो मूल मंत्र है तरक्की का। हम लोग चाँद से लेकर मंगल तक  की दूरी करते हुए निरंतर अपडेट हो रहे हैं। 

वक्त बहुत कीमती होता है, ये सभी जानते हैं। इसके बदलते ही न सिर्फ  लोगों के व्यवहार बदलते हैं, वरन स्वयं का भी व्यवहार बदल जाता है। जिसका समय अच्छा हुआ वहीं अहंकार  के चंगुल में फस कर दम तोड़ने लगता है और अपना रवैया दूसरों के प्रति सख्त कर देता है।

समय के साथ लोग अपनी पसंद बदलने लगते हैं, कारण साफ है; एक को ही महत्व देने से वो सिर पर चढ़ जाता है तथा इस बात का भी डर बना रहता है कि कहीं वही सब कुछ  लेकर चंपत न हो जाए सो अधिकारी वर्ग समय – समय पर अधीनस्थों को  उनकी सही जगह दिखाते रहते हैं।

खैर ये बात अलग है कि वक्त का तकाजा तो एक न एक  दिन सबका होगा तब  मूल्याँकन ईश्वर करेंगे। जिसकी सुनवाई कहीं नहीं होगी।

वस्तु वही रहती है केवल परिस्थिति हमारा नजरिया बदल देती है। जब आपको प्यास लगी हो तब कोई खाने को कितना भी अच्छा पदार्थ दे वो रुचिकर नहीं लगेगा। इसी तरह जब व्यक्ति भूखा हो तो उसे  कोई भी सत्संग नहीं भाता। कहने का अर्थ यह है कि आवश्यकता के अनुसार ही  वस्तु की उपयोगिता निर्धारित होती है।

हमारा दृष्टिकोण भी परिस्थिति जन्य  होता है। कई बार न चाहते हुए भी  समझौता आवश्यक होता है। अकर्मण्य लोगों के साथ रहने से कहीं बेहतर ऐसे लोगों का साथ होता है जो कुछ न कुछ करते हैं, भले ही जल्दबाजी और ज्यादा लाभ के चक्कर में कई ग़लतियाँ भी कर बैठते हों।

यदि कोई बार – बार प्रश्न पूछे तों उत्तर देते समय कभी विचलित न हों क्योंकि कठिन घड़ी में  ही  आपके सही उत्तरों  का मूल्याँकन होता है। अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक रखें। याद रखें प्रश्न व उत्तर का साथ चोली- दामन  के सरीखा होता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 134 ☆ वोटर की आकांक्षा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक व्यंग्य “वोटर की आकांक्षा”।)  

☆ व्यंग्य  # 134 ☆ वोटर की आकांक्षा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

चुनाव में जो जीतता है वही सिकन्दर कहलाता है… भले वो पहले लल्लू पंजू कहलाता हो, येन केन प्रकारेण  कैसे भी करके जीत का मुकुट पहन लेने से सांढ़ बनने से अहंकार पैदा होता है। चुनाव में  हारने को बड़े बड़े दिग्गज हार जाते हैं और टक्कर देकर गिर  जाते हैं। 

जब चुनाव परिणाम आ रहे होते हैं  तो सांसे चलते चलते रुक जातीं हैं। आगे बढ़ने और पीछे होने के खेल में टीवी वाले विज्ञापन के जरिए खूब धन बटोर लेते हैं। परिणाम आते हैं… न आर, न पार… बहुमत मिलने के लिए पांच विधायक का कांटा फंस जाता है। जोड़ तंगोड़ करके बहुमत पे आते हैं तो रात को ढाई बजे राज्यपाल को जगाने पहुंच जाते हैं।

दूसरे दिन अस्थायी स्पीकर बनवा लेते हैं। अस्थायी स्पीकर के निर्देशन में अस्थिर सरकार को शक्ति परीक्षण कराने के निर्देश करा लेते हैं। पर जनता मजा लेना चाहती है, वह चाहती है सभी विधायक गणों से कहा जाए  कि हर विधायक जनता की आकांक्षाओं का ट्रस्टी होने के नाते जिम्मेदार विधायक होने का उदाहरण पेश करें। जनता की इच्छा है कि दोपहर दो बजे चिलचिलाती धूप में शक्ति परीक्षण किया जाए। जनता की अदालत चाहती है कि शक्ति परीक्षण के एक घंटे पहले सभी विधायक सब कपड़े उतार कर सिर्फ पट्टे की ….पहन लें, फिर नंगे पांव सड़क पर खड़े हो जाएँ और हारे लोग उन्हें इंसान और इंसानियत का पाठ पढ़ायें। फिर हर विधायक इस चिलचिलाती आग उगलती तेज धूप में नंगे पांव पांच किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए गांधी जी को याद करे। गांधी जी के भजन गाते हुए पदयात्रा निकाली जाए और ठीक दो बजे विधानसभा के सामने वाली सड़क पर नंगे पांव विधायक लाइन लगाकर खड़े हो जाएं।  यदि अस्थायी स्पीकर …. बनियान पहनकर डगमगाते नजर आयें तो समझ लेना कि बाकी विधायकों के साथ अन्याय हो रहा है, और उन्हें ठंडा ठंडा कूल कूल जौ के रस की बोतल नहीं दी गई है। 

एक दिन के लिए जनता की इच्छा है कि अस्थायी स्पीकर डगमगाते हुए लाइन में सभी विधायक की विश्वसनीयता चैक करें। वे ये देखें कि लाइन में कोई नकली विधायक तो नहीं लगा है। जनता की अदालत में जनता मूकदर्शक बनकर यह सब देखना चाहती है। जनता की आकांक्षाओं के ट्रस्टी प्रत्येक विधायक को ध्यान रखना होगा कि कोई इशारेबाजी करके बरगलाने की कोशिश करता है तो उसकी रिपोर्ट राज्यपाल को तुरंत करें। यदि कोई सौ करोड़ से ज्यादा की रकम आफर करता है तो तुरंत लाइन से अपने आप को अलग कर लें।

नयी परंपरा की शुरुआत है इसलिए विधायक होने की गरिमा का ध्यान रखते हुए अनुशासन और शान्ति का भरपूर नाटक करें। असली और अर्ध नकली देशभक्ति का सही परिचय देवें। शक्ति परीक्षण के दौरान मोबाइल पर अश्लील पिक्चर न देखें। मीडिया पर इस नयी परंपरा को पूरी दुनिया देख रही होगी इसलिए सेल्फी वगैरह न लेवें इस दौरान कोई सुंदर महिला दिख जाए तो उसे गलत निगाहों से न देखें। अस्थायी और सच्ची सरकार देने के लिए भेदभाव की नीति से दूर रहें, दल विहीन सोच के साथ सच्चे भारतीय नागरिक होने का उदाहरण पेश करे, हालांकि आज के नेताओं के लिए एक दिन के लिए ऐसा सब कुछ करना असंभव है पर पब्लिक ऐसा चाहती है और पब्लिक ये सब कुछ जानती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #137 ☆ व्यंग्य – छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 137 ☆

☆ व्यंग्य – छोटू भाई का आखिरी इन्तज़ाम  

कुछ दिनों से छोटू भाई चिन्तित नज़र आते हैं। एक दिन आकर बैठ गये। कुछ इधर उधर की करने के बाद बोले, ‘देख भैया, अब अपन उमर के पचास पार कर गये। अब जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। कौन सा रोग चिपक जाये पता नहीं। वैसे भी सब तरफ मरने की सुविधा उपलब्ध है। मोटरें, मोटरसाइकिलें सड़कों पर इसीलिए दौड़ती फिर रही हैं। जो चाहे इस सुविधा का लाभ उठाकर स्वर्ग पहुँच सकता है। इस सेवा की कोई   फीस नहीं लगती।

‘अब चूँकि जिन्दगी अनिश्चित हो गयी है इसलिए हमने सोचा है कि अपनी पसन्द के हिसाब से अपनी मौत के बाद का इन्तजाम कर लिया जाए। जब जिन्दगी के हर कदम की प्लानिंग की तो इसे ही क्यों छोड़ दिया जाए। अब दिखावे और प्रचार का जमाना है। जो दिखावा नहीं करता उसे कोई नहीं पूछता। इसलिए मौत के बाद का काम भी स्टैंडर्ड और सलीके से होना चाहिए ताकि लोग पाँच दस साल याद करें कि मौत हो तो छोटू भाई की जैसी हो।’

मैंने कहा, ‘बात अक्ल की है। क्या इरादा है?’

छोटू भाई बोले, ‘ऐसा है कि तुम मुझसे तीन-चार साल छोटे हो इसलिए माना जा सकता है कि मेरे रुखसत होने के तीन चार साल बाद तुम्हारा नंबर लगेगा। मेरा इरादा है कि बीस पच्चीस हजार रुपये तुम्हारे पास छोड़ दूँ ताकि तुम स्टैंडर्ड से हमारा सब काम करा दो। खर्च करने के बाद कुछ बच जाए तो अपनी भाभी को लौटा देना। मुझे भरोसा है तुम बेईमानी नहीं करोगे।’

मैंने पूछा, ‘क्या चाहते हो?’

छोटू भाई बोले, ‘पहली बात तो यह है कि लोग उल्टे सीधे कपड़े पहन कर शवयात्रा में पहुँच जाते हैं। गन्दा कुर्ता-पायजामा पहन लिया और कंधे पर तौलिया डालकर चल पड़े। इससे शवयात्रा का स्टैंडर्ड गिरता है और मुर्दे की इज्जत दो कौड़ी की हो जाती है। मैंने अभी से अपने दोस्तों से कहना शुरू कर दिया है कि मेरी शवयात्रा में आयें तो ढंग के कपड़े पहन कर आयें, नहीं तो अपने घर में ही विराजें। मैंने यह भी बता दिया है कि जो मित्र सूट पहनकर आएँगे उनके सूट की धुलाई का पैसा तुमसे मिल जाएगा।
‘दूसरी बात यह कि शवयात्रा में कारें ज्यादा से ज्यादा हों। मैं कारवाले दोस्तों-रिश्तेदारों को बता रहा हूँ कि कार से ही पहुँचें और चाहें तो पेट्रोल का पैसा तुमसे ले लें। जरूरी समझो तो चार छः किराये की कारें बुलवा लेना। हाल में मेरे पड़ोस में हिकमत राय मरे थे तो उन की शवयात्रा में एक सौ दस कारें मैंने खुद गिनी थीं। क्या  ठप्पेदार शवयात्रा थी! श्मशान में लोग मुर्दे को भूल कारों के मॉडल देखते रह गये। वह शवयात्रा अब तक आँखों में बसी है।

‘तीसरी बात यह कि श्मशान में कम से कम तीन चार वीआईपी जरूर पहुंँचें। मैं इसके लिए लोकल वीआईपी लोगों से सहमति और वादा ले रहा हूंँ। साधारण जनता कितनी भी पहुँच जाए लेकिन बिना वीआईपी के किसी भी मजमे में रौनक नहीं आती। मीडिया वालों से भी बात कर रहा हूँ। उन्हें बता रहा हूँ कि एकाध दिन बाद तुम उन्हें बुलाकर चाय पानी करा दोगे। ध्यान रखना कि श्मशान में सभी वीआईपी मेरी तारीफ में थोड़ा-थोड़ा बोलें।

‘तुम्हारे पास अपना फोटो छोड़ जाऊँगा। चार छः दोस्तों के नाम से चार छः शोक- सन्देश फोटो के साथ अखबारों में छपवा देना। टीवी में भी ढंग से आ जाए। गुमनामी में मरे तो क्या मरे। जितना बन सके उतना प्रचार कर देना। एक दो दिन बाद दोस्तों और मीडिया वालों को बुलाकर किसी सार्वजनिक स्थान में शोकसभा कर लेना। इसके लिए एक बड़ा फोटो बनवा लिया है। सबको बता देना कि शोकसभा के बाद चाय- पकौड़े का इन्तजाम रहेगा ताकि उपस्थिति अच्छी हो जाए।’

छोटू भाई थोड़ा साँस लेकर बोले, ‘ये सब बुनियादी बातें हैं। इनमें तुम और जो जोड़ सको, जोड़ लेना। पाँच दस हजार तुम्हारे भी लग जाएँ तो लगा देना। आखिर दोस्ती किस दिन के लिए होती है। लेकिन मेरी आखिरी यात्रा जलवेदार होना चाहिए। बजट में आ जाए तो एक दो अच्छे से बैंड बुलवा सकते हो। लेकिन शानदार हों, जैसे आर्मी के होते हैं। कोई ढपर ढपर करने वाला मत बुलवा लेना। बढ़िया बैंड होगा तो हम भी रास्ते भर म्यूजिक सुनते चले जाएँगे। तुम जानते हो मैं संगीत का शौकीन हूँ।

‘विदेशों में किराये पर रोने वाले मिलते हैं जो काले कपड़े पहन कर पूरी ईमानदारी और जोश से रोते हैं। यहाँ भी यह सिस्टम शुरू हो जाए तो शवयात्रा में चार चाँद लग जाएँ।’
मैंने कहा, ‘छोटू भाई, आपने मेरे ऊपर बड़ी गंभीर जिम्मेदारी डाल दी, लेकिन जैसा आपने खुद कहा जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं है। कहीं मैं आपसे पहले दुनिया से रुखसत हो गया तो आपके दिये पैसों का क्या होगा?’

छोटू भाई मेरा कंधा थपक कर बोले, ‘उसकी चिन्ता तुम मत करो। तुम मेरे पैसे बहू के पास रख देना। तुम पहले चल बसे तो मैं उनसे ले लूँगा। वे धरम-करम वाली हैं। मेरा पैसा कहीं नहीं जाएगा।’

मुझसे पूरे सहयोग का आश्वासन पाकर छोटू भाई निश्चिंत उठ गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 27 ☆ भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ? ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?”। इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ शेष कुशल # 27 ☆

☆ व्यंग्य – “भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?” – शांतिलाल जैन ☆ 

मान लीजिए कभी मन करे आपका कि कोई आपको बुरी तरह से झिड़क दे, बदतमीज़ी करे, जलील करने की सीमा तक डांट दे. आपको अपनी एक छोटी सी उतावल पर बड़ी सी ग्लानि के दौर से गुजरने का अनुभव लेना हो तो सलाह ये कि आप एक बेहद भीड़वाले व्यस्त डॉक्टर के यहाँ परामर्श लेने जाएँ और लंबी प्रतीक्षा के बीच उसके चेम्बर के दरवाजे के ठीक बाहर मौजूद अटेंडेंट-बॉय से दो बार पूछ लें – ‘भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?’

उस रोज़ पहलीबार लगा कि पेट का दर्द कितना भी असहनीय क्यों न हो – अटेंडेंट-बॉय की झिड़की से ज्यादा असहनीय तो नहीं होता. नंबर सात बजे का मिला था और साढ़े आठ बज चुके थे. प्रतीक्षा-बेंचो पर बिखरी पड़ीं, कवर फटी पुरानी स्टार-डस्टों को कई बार पलटकर देख चुका था, पेट का  दर्द और इंतिजारजनित ऊब उर्मिला मतोंडकरों की मुस्कानों से कम नहीं होती थी. वाट्स-अप देखने का भी मन नहीं किया.   डॉक्साब के घर से डिस्कार्डेड कूबड़ निकले पुराने टीवी पर समझ नहीं पड़ता था ये एम-टीवी है कि एफ-टीवी है. बेचैनी अपने चरम पर थी, इस बीच मेरी मति मारी गई जो दो बार पूछ लिया – भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ? यकीनन, यहाँ नौकरी करने से पहले उसने व्यवहार कला का प्रशिक्षण पुलिसवालों से लिया होगा. झिड़की से पेट दर्द में टेंपरेरी रिलीफ मिला, आहत् होने के दर्द के मुक़ाबिल पेट का दर्द कुछ देर को मैं भूल ही गया. मेरी खुशनसीबी यह रही कि मुझे एंटी-रैबीज का इंजेक्शन लगवाने की जरूरत भी नहीं पड़ी.

वैसे देखा जाए तो मुझे उस समय उससे सवाल नहीं पूछना चाहिए था जिस समय वह मोबाईल पर फन्नी वीडियो देखने में मशगूल था. दस मिनिट के बाद दूसरीबार गलती तब हुई कि जब पेट में एक तेज़ मरोड़ सी उठी. वह अपनी अभिसारिका से मोबाइल पर इज़हार-ए-ईश्क कर रहा था और मैंने पूछ लिया – ‘भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?’ आप ऐसी गलती मत कीजिएगा. और हाँ अगर दर्द पेट का हो तो एक वयस्क साईज़ का डायपर जरूर पहनकर जाएँ. हो सकता है बीमारी के कारण नहीं तो झिड़की के कारण वह उपयोग में आ जाए.

एक बार आँखों के डॉक्टर के यहाँ भी यही गलती की थी मैंने. ‘नंबर कब आएगा’ के जवाब में एक नर्स आई और आँखों में जाने-कौन से ड्रॉप की दो बूंद डाल कर पैंतालीस मिनिट आँखें और मुँह दोनों बंद रखने का फरमान जारी करके चली गई. चालीस मिनिट बाद एक बार पलकें ऊँची करके उसने टॉर्च मारी और फिर से दो बूंद डाल कर पैंतालीस मिनिट को आँखें और मुँह दोनों लॉक कर गई.

बहरहाल, ‘नंबर कब आएगा’ ये वो मुझे क्यों बताता ? वेटिंग हॉल उसकी टेरेटरी है, उसका साम्राज्य है, यहाँ उसकी अपनी एक सत्ता है, उसने जो कह दिया वही कानून है, उसने जो दे दी वही व्यवस्था है. लांग-कॉपी से फाड़े गए एक पन्ने पर बेतरतीबी से दर्ज़ किए गए नाम हैं जो सीएए-एनआरसी के रजिस्टर से ज्यादा डरावने हैं. उसके पास पॉवर है. क्रम में हेरा-फेरी उसका गुनाह नहीं उसका विशेषाधिकार है. भाई-भतीजे विधायकों मंत्रियों के ही नहीं होते, उसके भी होते हैं. आंटियाँ उसके मोहल्ले में भी रहती हैं.

खैर, नौ बजकर चार मिनिट और सत्ताईस सेकेंड्स पर गोचर का प्रभाव दिखा, राहू के नीच घर में प्रवेश करते ही अनुकूल परिवर्तन हुआ. जब डॉक्साब पर्चा लिख रहे थे तब मन किया कि पूछ ही लिया जाए – सर आप इस कदर शिष्ट, सौम्य, शालीन, सुसभ्य, शाईस्तगी से पेश आनेवाले ज़हीन शख्स हैं और आप ही का मुलाज़िम इस कदर ……? चलो, जाने भी दो यारों.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 96 ☆ बहकते कदम दर कदम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “बहकते कदम दर कदम…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 96 ☆

☆ बहकते कदम दर कदम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

जिधर देखो उधर बस हंगामें  की स्थिति नज़र आ रही है। कभी पिक्चर, कभी शोभा यात्रा, कभी अजान, कभी चालीसा। कोई भी कहीं थमना नहीं चाहता। बस भागम- भाग में अशांति का वातारण बनाते हुए दोषारोपण की राजनीति हो रही है। ऐसा लगता है मानो सारे निर्णय पलक झपकते ही होने लगे हैं। पहले तो वर्षों बीत जाते थे, फाइल खिसकने में तब कहीं जाकर कोर्ट से डेट मिलती वो भी इलास्टिक की तरह खींच- तान का शिकार होकर कई बार टूट कर अपना अस्तित्व तक खो देती थी। 

शायद यही सब वजह है लोगों के इतना अशांत होने की। शांति और सन्नाटा दो अलग- अलग चीजे हैं। एक में सुकून की आहट छुपी होती है तो दूसरे में अनचाहा डर समाहित होता है। एक छोर को  दूसरे छोर से मिलाने की होड़ में हम लोग अपने -अपने दायित्व भूलकर अधिकारों की माँग जब -तब उठाते हुए देखे जा सकते हैं। सही भी है लोगों ने हर चीज का इतना इंतजार किया है कि अब वे बात- बात पर भड़कने लगे हैं। इसी संदर्भ में एक किस्सा याद आता है।

पिक्चर देखकर  लौटते हुए चार दोस्त आपस में बात- चीत करते हुए चले आ रहे थे।  पहले ने कहा नाम देखकर ही पता चल जाता है कि पिक्चर अच्छी होगी या नहीं, दूसरे ने कहा इतंजार नाम था  बेचारे दर्शक इंतजार ही करते रहे गए, तीसरे ने कहा गीत तो अच्छे थे हीरोइन भी अच्छी होती तो बात बन जाती। चौथे ने कहा  अधूरी सी लग  रही थी फिल्म इसका मतलब इंतजार करो, आगे भाग दो भी आयेगा, तब सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जायेंगी।

क्या यार? यही तो मुश्किल है, पहले पहली तारीख़ का इंतजार करो फिर फ़िल्म के पहले शो का पहला टिकिट, फिर दोस्तों का,फिर फिल्म के पसंद आने का फिर इसके रिटर्न्स इंतजार 2 का बस यही  जिंदगी है? ऐसा लगने लगा है।

दूसरे ने कहा तू  इतने से ही घबरा गया अभी तो बहुत से इम्तहान बाकी हैं,तीसरे ने कहा बिल्कुल वैसे ही जैसे पिक्चर अभी  बाकी है, चौथे ने दार्शनिक अंदाज़ में कहा इंतजार का फल मीठा होता है सखे।

चारो  दोस्त खिलखिला कर हँस पड़े और गुनगुनाते हुए  चल  दिए …..

इन्तहा हो गयी, इंतजार की,

आयी न  कुछ ख़बर मेरे…भविष्य की।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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