हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विराट ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

समूह को कुछ दिनों का अवकाश रहेगा।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – विराट ??

जंजालों में उलझी

अपनी लघुता पर

जब कभी लज्जित होता हूँ,

मेरे चारों ओर

उमगने लगते हैं

शब्द ही शब्द,

अपने विराट पर

चकित होता हूँ..!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कराते रहते हैं।

☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें

( व्यंग्य स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

गायें पहले सीधी हुआ करती थीं। अब मूर्ख भी हो गई हैं।वे हिंसक चीतों के समर्थन में उतर आई हैं। चीते उन्हें खूबसूरत लगने लगे हैं। उनकी धारियां उन्हें आकर्षित कर रही हैं। किसी ने कहा कि चीते हिंसक होते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि यह बेहद पुराना और घिसापिटा विचार है, संकीर्ण सोच का प्रतीक और अब हम  पहले जैसी भोली-भाली गाएं नहीं रहीं। हमारी सोच प्रगतिशील है। हम चीतों को किसी के कहने से कब तक हिंसक मानते रहेंगे। हमें समय समय पर अपने विचारों में परिवर्तन करते रहना चाहिए। हम चीतों को हिंसक माने जाने के खिलाफ हैं। चीते जंगल की शान हैं। चीतों से ही हमारा वन्य प्रदेश सुशोभित होता है। चीते हमारी शान हैं। हमारा अलंकरण हैं। “बिन चीता सब सून।”

समझाने वाले ने फिर कहा  ” पागल मत बनो। एक दिन यही चीते मौका देखते ही तुम्हें और तुम्हारे बछड़ों को खा जायेंगे और तुम लोग कुछ नहीं कर पाओगी।”

“हम तुम्हारी चीता विरोधी मानसिकता को भलीभांति समझ गए हैं। हम लोग तुम्हारी बातों में आने वाली नहीं। हमें हमारे अपने ही लोगों से ज्ञात हुआ कि अब चीते शाकाहारी हो गए हैं। अब वे निरीह जानवरों का शिकार नहीं करते। नित्य स्नान और पूजापाठ करने लगे हैं। जंगल की अस्मिता और उसके पुराने वैभव को लौटाने के लिए वे कुछ भी त्याग करने को तत्पर रहते हैं। जंगल में उनकी वजह से सब तरह से मंगल है।भय , भूख का नामोनिशान नहीं रहा।जंगल दशकों बाद फिर से हराभरा  हो गया है।”

समझाने वाले को लगा कि जब मूर्ख को अपनी मूर्खता पर गर्व होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अब उसका अंत निकट आ गया है।अंधेरे के समर्थक रोशनी में आंखें मूंद लेते हैं। उसे लगा कि गाएं गांधारी से कुछ ज्यादा ही प्रभावित दिख रही हैं। चीतों के दलालों ने उनकी जो अहिंसक छवि जंगल में बना रखी है गाएं उसके प्रभाव में खुद का गाय होना भूल गई थीं।

चीतों का प्रचारतंत्र इतना तगड़ा था कि गंजों के मोहल्लों में कंघियों की सेल लगाते थे और सारे गंजे एक की बजाय चार चार कंघियां खरीद लेते थे।

फिर भी उसने अंतिम कोशिश की “देखो मैं फिर भी कह रहा हूं कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तुम्हें चीतों से सावधान रहना चाहिए।”

“तुम हमें हमारे हाल पर छोड़ दो और अपना कांमधंधा देखो।” गायों ने एक स्वर में कहा।

यह सुनकर वह जाने के लिए मुड़ा ही था कि चीतों का एक झुंड आया और गायों के ऊपर टूट पड़ा।

गायों के रंभाने की आवाज से वातावरण गूंज उठा।

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “Representing People …“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 49 – Representing People – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

सिर्फ शीर्षक इंग्लिश में है पर श्रंखला हिन्दी में ही रहेगी.

1977 से 1980 और फिर 1989 से 2014 तक के वर्षों के बीच बनी केंद्र सरकारों का ध्यान, येन केन प्रकारेण विघटन से बचने के लिये समझौतों में ही निकल जाता रहा. भ्रष्टाचार और एक के बाद एक घोटाले, सरकारों की कमजोरी और नियत पर शक पैदा कर रहे थे. इस बीच ही आंतकवाद अपने चरम पर था और आतंकवादियों के होसले बुलंद. नागरिक भयभीत थे कि कब कोई घटना, उन पर संकट बन जाये. जनआकांक्षा स्थिर सरकार और मजबूत, निर्भीक और स्वतंत्र नेतृत्व चाहती थी. वर्तमान सत्तारूढ़ दल ने जनआकांक्षा को पहचाना और नये चेहरे के साथ चुनावी समर में कदम रखा. ये भी जनआकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व था, लोग जो चाहते थे और जिस बात की कमी महसूस कर रहे थे, वो विकल्प उनके सामने था. बाकी जो हुआ, वह कहने की ज़रूरत नहीं है. पर शायद हर शासक और नेतृत्व को ये समझने की जरूरत है कि वो अपने एजेंडे और कार्यप्रणाली से ऊपर वरीयता, इस बात पर दें कि लोग क्या चाहते हैं और क्या ये उनके लिये आवश्यक, न्यायोचित है. वरना हर वो नेतृत्व जो लोगों को भ्रमित करता है या फिर खुद भी भ्रम में रहता है, अक्सर अपना प्रतिनिधित्व का अधिकार खो बैठता है और निर्मम इतिहास उसे डस्टबिन के सुपुर्द ही करता है.

कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का रिप्रसेंटेशन, सामान्यतः निकटगामी मुद्दों के लिये ही होता है, शिक्षण संस्थान खुलने या नहीं खुलने का, एडमीशन में पक्षपात का, डोनेशन और फीस का, कॉलेजों, हॉस्टल की आंतरिक व्यवस्था का, परीक्षा होने या नहीं होने का, रिजल्ट में अनावश्यक देरी, शिक्षण संस्थानों के नियंत्रकों द्वारा छात्रों के लिये अहितकर निर्णयों के लिये. अगर छात्र संघ के चुने हुये (और सुलझे हुये भी), प्रतिनिधि हैं तो अक्सर मामले बातचीत से हल हो जाते हैं जब तक कोई राजनैतिक दखलंदाजी न हो तो, वरना महानगरीय शिक्षण संस्थानों में ये प्रतिष्ठा का सवाल भी बन जाता है. जब प्रतिनिधित्व तो हो पर आंदोलन का निर्णय कोई और ही, अपने फायदे के लिये ले रहा हो. फिर तो छात्रसंघ के ये पदाधिकारी, छात्रों के प्रतिनिधि नहीं बल्कि किसी परिपक्व और शातिर राजनेता के मोहरे बन जाते हैं .शिक्षण संस्थानों में अगर चुने हुये प्रतिनिधि न हों तो कोई भी आंदोलन अपनी जायज़ मांगों से भटककर गलत दिशा पकड़ लेता है. मुझे सागर विश्वविद्यालय के शिक्षण सत्र 1972-73 का एक वाकया याद है जब चार हॉस्टल के छात्रों को निलंबित कर दिया गया था और निर्वाचित प्रतिनिधि न होने के कारण, प्रोटेस्ट को गलत दिशा देने वाला छात्र तो फरार हो गया पर भीड़ के रूप में फालोअर्स के लिए नुकसानदेह रहा.

कॉलेज और विश्वविद्यालयों से लेकर हर संस्थानों और राजनैतिक परिदृश्य में भी, जिम्मेदार, परिपक्व और समझदार नेतृत्व आवश्यक होता है वरना आंदोलन निष्कर्ष हीन और अहितकर ही होते हैं. आंदोलनों की सफलता यही है कि प्रतिनिधित्व और पदासीन एक टेबल पर आकर मामले को हल करने का प्रयास करें हमारे वेज़ सेटलमेंट, वार्तालाप से ही हल हुये हैं और जहाँ न्यायालय जाना पड़ा वहाँ बस तारीख पर तारीख और वकील की फीस दर फीस. ये स्थिति प्रबंधन के लिये सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि वो अगले दस बीस सालों के लिये चिंतामुक्त हो जाता है. हम पैंशनर्स इसे साक्षात अनुभव कर रहे हैं. नादान हैं वो लोग जो फैसले और राहत का इंतजार करते हैं.

Representing the people का अर्थ यही है कि उनकी न्यायोचित मांगों को आवाज और ताकत दी जाय, वो सुनी जायें और उनके समाधान मिलें. मुंबई में कपड़ा मिलों के बंद होने का कारणों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि एक कारण मार्केट परिदृश्यों को नजरअंदाज कर मज़दूर नेता दत्ता सामंत द्वारा अनाप शनाप मांगे रखना और नतीजा मिलों के बंद होने से मजदूरों को बेरोजगार होना पड़ा. मांग और देने वाले के अस्तित्व के बीच का असंतुलन ही पब्लिक सेक्टर की असफलता का कारक बना और सरकारों को निजीकरण की तरफ बढ़ना पड़ा. निजीकरण, बेहतर सर्विस के पर्दे में छुपी अभिजात्य सोच को प्रोत्साहित करता है और श्रमजीवियों को टॉरगेट के नाम पर टाइमलेस और लिमिट लेस शोषण के रास्ते खोलता है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण, होम डिलीवरी वाले कोरियर बॉय हैं जिन्हें फिक्स टाइम में आर्डर की डिलीवरी करनी पड़ती है वरना आर्थिक नुकसान और नौकरी से हाथ धोने की स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये युवक बाकायदा डिग्री धारक होते हैं और बेरोजगारी के कारण, अपनी बाइक सहित इन समस्याओं के जाल में उलझे रहते हैं. कौन हैं जो इनको रिप्रसेंट करेंगे. ये वह लडाई है जो लग्जरी और मजबूरी के बीच लड़ी जा रही है and no body is representing these people.  

श्रंखला जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ हिन्दी के कुछ साहित्यकारों के वास्तविक नाम  ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? हिन्दी के कुछ साहित्यकारों के वास्तविक नाम  ?  प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

(प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि यदि उनके पास और ऐसी जानकारी है तो वे हमसे साझा कर सकते हैं जिन्हें हम पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे।)

प्रेमचंद –धनपत राय

राहुल सांकृत्यान –केदारनाथ पाण्डे

रांगेय राघव –कृष्णाचार्य रंगाचार्य

सुमित्रा नंदन पंत – गुसांई दत पंत

त्रिलोचन – वासुदेव सिंह

नागार्जुन- वैद्मनाथ मिश्र

जैनेन्द्र कुमार –आनंदी लाल जैन

शैलेश मटियानी –रमेश चंद्र सिंह मटियानी

धूमिल – सुदामा प्रसाद पाण्डे

अमरकांत – श्री राम वर्मा

इब्बार रब्बी – रविन्द्र प्रसाद

मोहन राकेश – मदन मोहन गुगलानी

वेणुगोपाल –नंद किशोर शर्मा

चंचल चौहान- हरवीर सिंह चौहान

पंकज बिष्ट – प्रताप सिंह बिष्ट

से रा यात्री – सेवा राम गुप्ता 

विमल कुमार – अरविंद कुमार

अरुण कमल – अरुण कुमार

कुमार अंबुज – पुरुषोत्तम सक्सेना

राजेश जोशी- राजेश नारायण जोशी

बटरोही – लक्ष्मण सिंह बिष्ट

बोधिसत्त्व – अखिलेश मिश्र

पानू खोलिया – पान सिंह खोलिया

कमलेश्वर – कैलास प्रसाद सक्सेना

शानी- गुलशेर खान

वीरेन डंगवाल – वीरेंद्र डंगवाल

शिवानी- गौरा पंत

संजीव- राम सजीवन प्रसाद

गुलजार- संपूर्ण सिंह

आलोक धन्वा – नित्यानंद सिंह

मुद्राराक्षस – सुभाष चन्द्र गुप्ता

माया मृग – संदीप कुमार

उर्मिल कुमार थपलियाल – सोहन लाल थपलियाल

मोहन वर्मा- बद्री नाथ वर्मा

नरेंद्र पुंडरीक- नारायण दास मिश्र

शैलेश पंडित –भागवत मिश्र

गीता श्री – गीता कुमारी

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला‘-  सुर्जु कुमार

उदय प्रकाश – उदयराज सिंह

पहाड़ी – रमा प्रसाद घिल्डियाल

अभिज्ञात – ह्रदय नारायण सिंह

जितेंद्र जितांशु – जितेन्द्र नाथ शर्मा

उषा प्रियवंदा- – उषा सक्सेना

गीतांजलि श्री – गीतांजलि पांडेय

 

संग्राहिका : मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ २१ सप्टेंबर – संपादकीय – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? ई-अभिव्यक्ती – संवाद ☆ २१ ऑगस्ट -संपादकीय – सौ. उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

सदानंद शांताराम रेगे (२१जून १९२३ – २१ सप्टेंबर १९८२)

सदानंद रेगे हे कवी आणि भाषांतरकार म्हणून प्रसिद्ध होते. त्यांचा जन्म कोकणात राजापूर येथे झाला. त्यांचे बालपण मुंबईत गेले. शालांत परीक्षेनंतर ते मुंबईत आले. चित्रकलेची आवड असल्याने त्यांनी जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टसला प्रवेश घेतला. त्यानंतर १९४२मध्ये ते एका मिलमध्ये डिझायनर म्हणून कामाला लागले. काही वर्षे त्यांनी रेल्वेत नोकरीही केली. कीर्ती कॉलेजमधून एम. ए. केल्यानंतर माटुंगायेथील रुईया कॉलेजमध्ये ते रुजू झाले.

सदानंद रेगे यांची प्रकाशित पुस्तके –

कथा संग्रह – १.जीवनाची वस्त्रे,२. काळोखाची पिसे , ३. चांदणे, ४. चंद्र सावली कोरतो, ५. मासा आणि इतर विलक्षण कथा

कविता संग्रह – १.अक्षरवेल, २. गंधर्व, ३. वेड्या कविता, ४. देवापुढचा दिवा, ५. बांक्रुशीचा पक्षी           

अनुवादीत – १. जयकेतू ( ओडीपसचे रूपांतर ), २. राजा इडिपस (अनुवाद), ३.बादशहा, ४. ज्याचे होते प्राक्तन शापित, ५. ब्रांद, ६ गोची

बालगीते – १. चांदोबा चांदोबा, २. झोपाळ्याची बाग

अनुवादीत कविता – ब्लादिमिर मायक्रोव्हस्कीच्या कवितांचा अतिशय सुंदर अनुवाद ‘पॅंटघातलेला ढग म्हणून त्यांनी केला आहे.

त्यांच्या कविता तरल, हळुवार, संवेदनाशील आहेत. ‘अक्षरवेल’मधील कविता निसर्गाची विविध लावण्ये प्रगट करतात. ‘श्रावण’ कवितेत ते लिहितात, ‘आला श्रावण श्रावण गुच्छ रंगांचे घेऊन ऊन पावसाचे पक्षी आणी ओंजळीमधून ‘जाणीवेच्या पलीकडे नेणार्या  मृत्यूच्या व आत्महत्येच्या अव्याहत भयाचा प्रतिबिंब त्यांच्या कवितेत दिसून येतं. ख्रिस्ताच्या बलिदानावर ज्या जगभर अनेक कविता लिहिल्या गेल्या, त्यात सदानंद रेगे यांच्या ‘सोहळा’ कवितेचा समावेश आहे. कौस्तुभ आजगावकर लिहितात, रेगे कलासहित्यावर निष्ठेने प्रेम करत राहिले. स्वत:ची जाणीव गढूळ होऊ न देता व्यक्त होत राहिले.

एके वर्षी मुंबईमध्ये भरलेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनात, ते कविसंमेलनाचे अध्यक्ष होते.

सदानंद रेगे यांच्यावर प्र.श्री. नेरूरकर यांनी लिहिलेले ‘अक्षरगंधर्व’ हे पुस्तक १९८७ साली प्रकाशित झाले.

आज या प्रतिभावंत कवी, लेखकाचा स्मृतिदिनआहे. त्यानिमित्त त्यांच्या प्रतिभेला प्रणाम.? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी , गुगल, विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कळते कोठे ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कळते कोठे ☆  श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

(गागागागा गागागागा गागागागा)

प्रेमापोटी प्रेम कराया जमते कोठे

पण ममतेचे  दर्शन आता घडते कोठे

 

देणे घेणे सतत असावे गरजे पुरते

आत्म्यालाया शांती पुरती मिळते कोठे

 

नाही पर्वा म्हणताना ही मन घाबरते

धाडस तेव्हा औदार्याचे लपते कोठे

 

चुकल्यानंतर सावरण्याची होते घाई

मन वेड्यानो तुमचे तेव्हा असते कोठे

 

मोक्षासाठी तप करताना ध्यानी येते

जगण्यामधले बंधन सारे तुटते कोठे

 

कर्म धर्म पण जपले जाते तनमन लावत

संकट येता झगडत बसणे सरते कोठे

 

जगभवतीचे तुमचे असते तुमच्यासाठी

शांत मनाने उपभोगाया कळते कोठे

© श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 150 ☆ तीन सख्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 150 ?

☆ तीन सख्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

किती दिवसांनी सख्या भेटल्या…

सांजवेळी पाणवठ्यावर ,

व्यथा मनीच्या अशा  उमटल्या

आपोआपच ओठांवर….

तहानलेल्या नदीपरी त्या नांदती संसारी…

शल्य मनीचे असे जाहले

व्यक्त विहीरीच्या साक्षीने

कितिक मेल्या..बुडून गेल्या

या पाण्यात खोल…

सख्या बोलल्या निश्चयाने..

“बेला च्या पानापरी राहू…

ढळू न देऊ तोल…”

समजून घेऊ आपण आता

या जगण्याचे मोल..

मुक्त होऊनी जळात न्हाल्या,

डोण जाहली तृप्त…

रूपवती त्या बनल्या आता..

मासोळ्या स्वच्छंद…

अशा घागरी स्वच्छ घासल्या

सोन्यावाणी लख्ख…

डोईवर ते घडे घेऊनी निघाल्या

तिनही गरती झोकात…

 

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चंदन ☆ कै सदानंद शांताराम रेगे ☆

कै सदानंद शांताराम रेगे

(२१जून १९२३ – २१ सप्टेंबर १९८२)

? कवितेचा उत्सव ?

☆ चंदन ☆ कै सदानंद शांताराम रेगे ☆

आषाढाने खाली लवून

दिले पालवीला आलिंगन

अन् विजेच्या ओठांनी

तो लागला घेऊ

जेव्हा क्षितिजाचे जांभळे चुंबन

जेव्हा वादळाच्या कवेत

वितळलेली मातीही झाली

लाजेने हिरवी

अन् दरवळले

तिच्या वक्षावर

श्रावणाचे कोवळे चंदन….

 – सदानंद रेगे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मी आणि काॅफी… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

? विविधा ?

☆ मी आणि काॅफी… ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ 

कॉफी ही माझ्या आयुष्याशी चहाइतकीच जोडली गेलेली आहे. एखाद्या पावसाळी संध्याकाळी खिडकीत बसून गरम कॉफीचे घोट घेताना त्या निसर्ग सौंदर्याची, मोहक वातावरणाची मनावर होणारी जादू किंवा जेव्हा पहिल्यांदा डेटला जातात त्यावेळी त्या प्रेमळ क्षणांची साथ द्यायला सोबत असते ती कॉफी किंवा मग रात्रीच्या निरव शांततेत मंद गाण्याच्या सोबतीने वाफाळत्या कॉफीचा आस्वाद घेताना मिळणारी कमालीची स्वस्थता किंवा पुस्तक वाचताना कॉफीची सोबत असली तर वाचनाचा आनंद द्विगुणीत होतो.. एखाद्या सुंदर दिवसाची सुरुवात व्हावी ती गरमा-गरम कॉफी आणि चविष्ट केक स्लाईससोबत तर क्या बात है…!

कॉफी म्हणजे  विचार, निवांतपणा, संगीत, दरवळणारा सुगंध, मनाची तरतरी, हसू, गप्पा, वाचन, पाऊस, तो आणि ती, आनंद, मैत्र व मी आणि लिखाण…

कॉफीचे माझ्या आयुष्यात निश्चितच एक स्थान आहे. फिल्टर कॉफी असो की कॅफे मोका, कोल्ड काॅफी असो वा कॅपिचुना काॅफी इ. या साऱ्याच प्रकारांनी माझ्या मनात जागा केली आहे..

माझी दिवसाची सुरुवात कॉफीने होते…कॉफी नुसतं असं म्हटलं तरी माझ्या आजूबाजूला कॉफीचा सुगंध दरवळायला लागतो.. काॅफीचा मग ओठांना लावण्याआधीच तिचा मस्त सुगंध काहीतरी आत हलकेच जागं करतं असतो अगदी तसचं जसा पावसाच्या सरींनी दरवळणारा मातीचा गंध… येणा-या आठवणींच्या वर्षावाची जाणीव करून देत असतो.

आठवणींच्या सुगंधात मन चिंब चिंब भिजत असते… काय सांगायचे असते त्याला ? एक वेगळीच आभा का दाटते मनात ?

कारण काॅफीच नातचं असतं हळव्या  जगाशी बांधलेलं रूजू पाहणारं नवं नातं…हे नवं नात स्वीकारताना येणा-या आनंदाच्या सरी झेलू पाहणारं…  खरचं काॅफीचा तो मस्त सुगंध जेव्हा अलगद जवळ येतो तेव्हा नव्या जाणीवांचा बांध अलगद बांधला जातो…

माझ्यासाठी अतिप्रिय काही असेल तर ते म्हणजे गरम स्ट्राँग कॉफी. कॉफी म्हटलं की आठवते तिची जिभेवर रेंगाळणारी थोडी स्ट्राँग कडवट चव.. हो कडवट कारण कॉफी प्यायची तर स्ट्राँगच…कडवट

गोड आणि कॉफी… झोप उडवून तरतरी आणणाऱ्या पेयामध्ये कडक कॉफीचा नंबर पहिला असेल असे माझे मत .. कॉफीला पर्यायी एकतर काही नसावं आणि असलंच तरी कॉफीची सर त्याला नसावी… सुस्ती-आळस-कंटाळा दूर सारून स्फूर्ती आणि ताजंतवानं करण्यात कॉफी फायदेशीर असल्याचं मी तरी अनुभवलं आहे आणि अनुभवत आहे

कामाचा लोड कितीही असू द्या किंवा शीण आला असेल आणि त्याच वेळी समोर कॉफीचा वाफाळलेला कप जेव्हा समोर दिसतो त्या कॉफीचा घोट जेव्हा घशाखाली उतरतो ना तेव्हा हा सगळा शीण, कंटाळा व आळस क्षणार्धात कुठच्या कुठे पळून जातो..

कॉफीचं महत्त्व माझ्या लेखी खूप आहे कारण वेळोवेळी सुख-दुःखात, महत्त्वाच्या क्षणी माझा आत्मविश्वास वाढवण्यात आणि मला खंबीर करण्यात जर कोणाची साथ असेल तर ती माझी सखी कॉफीची..!

लेखन हा माझा आवडता छंद त्यामुळं काही सुचत नसेल आणि कॉफी प्यायली तर माझं डोकं जाम भारी काम करतं थोडक्यात काय तर  माझ्या रिफ्रेशमेंटसाठी कॉफी तिचं काम चोख पार पाडते..

माझ्यासाठी कॉफी म्हणजे बिस्मिल्ला खाँसाहेबांच्या सनईसारखी आहे… रोज हवी असे नाही पण जशी विशेष प्रसंगी ती असल्याशिवाय पूर्णता नाही तसेच काहीसे कॉफीचे आहे.. निवांत आहे, सुंदर माहोल आहे, निसर्ग त्याच्या सौंदर्याची उधळण करत आहे अशा प्रसंगी कॉफी हवीच.. ! त्याशिवाय त्या प्रसंगाला, त्या क्षणाला पूर्तता नाही…

मी एकटीनं एन्जॉय करायची जागा म्हणजे बुक कॅफे..  पुस्तकांच्या दुकानात असलेलं कॉफी शॉप किंवा कॉफी शॉपमध्ये असणारी लायब्ररी असं बुक कॅफेचं स्वरूप.. निवांतपणे, पुस्तक आणि कॉफीच्या सान्निध्यात वीकएंड साजरा करायला हे हक्काचं ठिकाण मनाला आनंद देऊन जाणारं असं मनापासून नमूद करीन.. शांत तरीही छान पॉझिटिव्ह वातावरण..,

पुस्तके वाचताना सोबतीला वाफाळत्या कॉफीचा कप आणि काही समविचारी मित्र- मैत्रिणी सोबत मैफल जमवता आली तर ? ही कल्पनाच भन्नाट नाही ..!

काॅफीचा घुटका घेताना फेसबुक न्याहाळणे हा माझा आवडता संध्याकाळचा कार्यक्रम.. माझ्यासाठी ते फार मोठे विरंगुळय़ाचे चार क्षण.. आजही मी तेच करते..

कॉफी हा प्रवास आहे ठिकाण नाही

जी चालण्यात मजा आहे ती पोचण्यात नाही…अशी ही बहुरंगी, बहुरूपी आणि अनेक आठवणींची साक्षीदार असलेली कॉफी मी तरी दैवी पेयच मानते..!

माझ्या आजवरच्या आयुष्याच्या प्रत्येक टप्प्यावर साक्षीदार म्हणून या कॉफीने मला सोबत केलीये..!

लव्ह यू कॉफी!

एक छोटेसे टेबल सोबत मी व काॅफी

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

ठाणे

9870451020

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पुनर्जन्म –  भाग १ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ?

☆ पुनर्जन्म –  भाग १ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे☆

कात्रज घाटातल्या गर्दीतून जमेल तशी वाट काढत स्नेहल तिची टू-व्हिलर दामटत चालली होती.

“अहो ताई जरा हळू जा— फुकट धडपडाल “ असं एकदोघांनी तिला ओरडून सांगितलं सुद्धा. पण तिचं कुठेच लक्ष नव्हतं. आज तिला लवकरात लवकर हॉस्पिटलमध्ये पोहोचायचंच होतं. आणि घाट संपल्यानंतर पुढे आणखी १२ कि.मी. वर ते हॉस्पिटल होतं, जिथे ती नुकतीच प्रत्यक्ष प्रॅक्टिस करायला लागली होती.—- हो– ती डॉ. स्नेहल– स्त्री रोग तज्ज्ञ.

कामाचा दांडगा उत्साह आणि सर्वांशीच असणारे आपुलकीचे वागणे, यामुळे त्या हॉस्पिटलमध्ये तिचे नाव आदराने घेतले जाऊ लागले होते. त्यात तिच्या हाताला चांगला गुण  आहे असा लौकिकही मिळायला लागला होता. अगदी खूष होती ती. बाळाला जन्म देईपर्यंत वेदनेने व्याकूळ होऊन अक्षरशः आरडाओरडा करणारी स्त्री, स्वतःचे बाळ पाहताच, सगळे दुःख क्षणात कसे विसरते, आणि  कमालीच्या थकलेल्या तिच्या चेहेऱ्यावर आनंद आणि एक वेगळेच अनामिक समाधान जरा जास्तच ठळकपणाने कसे उठून दिसते, हे खरं तर ती प्रत्येक प्रसूतीच्या वेळी पहात असे. आणि अशा प्रत्येक वेळी तिलाही खूप आनंद आणि समाधान वाटायचं . 

पण आज मात्र तिच्या मनावर एक अनाहूत दडपण आलं होतं. नुकताच सातवा महिना लागलेली एक बाई काल रात्री हॉस्पिटलमध्ये दाखल झाली असल्याचा फोन अगदी पहाटेच आला होता, आणि म्हणून तिला लवकरात लवकर पोहोचायचं होतं. 

स्कुटर पार्क करून जवळजवळ पळतच ती आत गेली. पटकन हात धुवून, ग्लोव्हज आणि एप्रन घालून ती लेबर रूममध्ये गेली— अतिशय कृश आणि अशक्त दिसणारी ती बाई बेडवर अक्षरशः तडफडत होती— बाई कसली– जेमतेम सोळा-सतरा वर्षांची मुलगीच होती ती.  डॉ. स्नेहल तिला तपासायला लागताच त्या मुलीने तिचा हात घट्ट धरून ठेवला— “ आता तुम्ही इथून जाऊ नका डॉक्टर— मला खूप भीती वाटतेय. “– आणि ती एकदम रडायलाच लागली. स्नेहल तिला धीर देत होती.

“ तुझ्याबरोबर कोण आलंय ? ” या प्रश्नाचं ‘ कोणी नाही ‘ असं मानेनेच उत्तर दिलं तिने. आता तिच्या कळाही मंदावल्या होत्या. बाळाचे ठोकेही नीट लागत नव्हते. नॉर्मल प्रसूती होईल अशी कोणतीच चिन्हे दिसत नव्हती. आणि सिझेरिअनसाठी घरच्या कुणाचीतरी लेखी परवानगी घेणे भाग होते. इतक्या वेळात कुणीही तिची चौकशी करायला आले नव्हते. ‘ माझं नाव बेबी ‘ एवढंच ती सांगत होती. आडनाव सांगता येत नव्हतं. दहाबारा मिनिटांनी एक बाई कुठूनतरी आली आणि “ सुटली का नाही बया अजून ?” असं त्रासिकपणे विचारायला लागली. सिझेरियनसाठी सही द्या असं म्हटल्यावर एकदम भडकलीच. “ काही नको. त्याचा खर्च कोण करणार ? मरू दे मेली तर–कायमची पीडा टळेल एकदाची “— असं म्हणत ती बाई झटकन तिथून पसार झाली.

आता त्या मुलीची अवस्था फारच वाईट झाली होती. स्नेहलने क्षणभरच विचार केला– फॉर्मवर स्वतःच सही केली– आणि त्या मुलीला ताबडतोब ऑपरेशन-टेबलवर घेतलं. एक जेमतेम तीन पौंड वजनाची मृतावस्थेतली मुलगी जन्माला आली—’ पण ती जन्माला आली असं तरी कसं म्हणायचं ‘ हा तत्क्षणी मनात आलेला विचार स्नेहलने कसातरी दूर ढकलला. असे जन्मजात मृत मूल तिने पहिल्यांदाच पाहिलं होतं — तिने महत्प्रयासाने स्वतःला सावरलं, आणि ती त्या मुलीकडे वळली. एव्हाना तिची अवस्थाही ‘ मरते की काय ‘ अशी झाली होती. पण स्नेहलने आता त्या मुलीला जगवण्यासाठी आवश्यक ते सर्व उपचार देण्यास सुरुवात केली. संध्याकाळपर्यंत  तिच्या जिवाचा धोका टळला असल्याची खात्री झाली, आणि स्नेहल कितीतरी वेळाने आपल्या खोलीत जाऊन शांतपणे खुर्चीत रेलली.

पण तिचं मन मात्र आता जास्तच अस्वस्थ झालं होतं—‘ कोण असेल ही मुलगी? आणि तिला अशा अवस्थेत सोडून बिनदिक्कत निघून गेलेली ती बाई ? ती हिची आई नक्कीच नसणार — मग कोण असेल ? आणि आपल्याला तिच्या ऑपरेशनची जोखीम स्वीकारावी असं  अचानक का वाटलं ?– याबद्दल  मोठे डॉक्टर नक्कीच रागावणार होते, ते वेगळंच ‘—नियमात बसत नसलं तरीही त्या मुलीशी सविस्तर बोलायचंच असं तिने ठरवूनच टाकलं.

चार-पाच दिवसात त्या मुलीला खूपच बरं वाटायला लागलं. सगळ्याच पेशंटना जेवण-खाण हॉस्पिटलमध्येच दिलं जायचं, ते त्या मुलीसाठी फारच बरं झालं होतं, कारण तिला नुसतं भेटायलाही इतक्या दिवसात कुणीच आलं नव्हतं— आणि कदाचित त्या मुलीला त्यामुळेच लवकर बरं वाटायला लागलं असेल असं स्नेहलला उगीचच वाटून गेलं होतं. संध्याकाळी ड्युटी संपल्यावर स्नेहल  ठरवूनच तिच्या खोलीत गेली, आणि सहज चौकशी करावी तसं तिच्याशी बोलू लागली——

— आणि तिने तिची कहाणीच सांगायला सुरुवात केली—

‘‘ डॉक्टर त्यादिवशी तुम्ही मला माझं नाव विचारत होतात. काय नाव सांगितलं होतं मी?”

‘‘ बेबी… पण फक्त एवढंच सांगितलं होतंस.”

‘‘ हो. कारण तेव्हढंच नाव आहे माझं.”

‘‘ म्हणजे? आडनाव काय ते तरी सांग. ” 

‘‘ म्हणजे मला माझं आडनाव माहितीच नाहीये. कारण माझे वडील कोण आहेत हेच मुळात मला माहिती नाहीये. म्हणजे माझे वडील कोण? हे माझी आईसुध्दा बहुतेक सांगू शकली नसती.”

‘‘अगं…काहीतरीच काय ? ” डॉ. स्नेहल बुचकळ्यात पडली. 

‘‘ हो अहो, खरंच सांगते. कारण माझ्या मोठ्या बहिणीला असं बोलताना ऐकल्याचं मला आठवतंय् ना…”

‘‘ मोठी बहीण? मग कुठे असते ती…?”

‘‘ ढगात…”

‘‘अगं बाई, जरा नीट, मला कळेल असं सांगू शकतेस का काही?”

‘‘ हो सांगू शकते… खूप मोठी स्ष्टोरी आहे ती. पण तुम्हाला जमेल तेवढी थोडक्यात सांगते…”

आता डॉ.स्नेहलही जरा सरसावून बसली…

‘‘डॉ. मी तुम्हाला ताई म्हणू का?”… तिने अगदी अनपेक्षितपणे विचारलं, आणि का कोण जाणे, पण डॉ.स्नेहललाही लगेच ‘हो’ म्हणावंसं वाटलं. 

– क्रमशः भाग पहिला…

© मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
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