हिन्दी साहित्य – कविता ☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कराते रहते हैं।

☆ व्यंग्य – चीता समर्थक गायें

( व्यंग्य स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

गायें पहले सीधी हुआ करती थीं। अब मूर्ख भी हो गई हैं।वे हिंसक चीतों के समर्थन में उतर आई हैं। चीते उन्हें खूबसूरत लगने लगे हैं। उनकी धारियां उन्हें आकर्षित कर रही हैं। किसी ने कहा कि चीते हिंसक होते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि यह बेहद पुराना और घिसापिटा विचार है, संकीर्ण सोच का प्रतीक और अब हम  पहले जैसी भोली-भाली गाएं नहीं रहीं। हमारी सोच प्रगतिशील है। हम चीतों को किसी के कहने से कब तक हिंसक मानते रहेंगे। हमें समय समय पर अपने विचारों में परिवर्तन करते रहना चाहिए। हम चीतों को हिंसक माने जाने के खिलाफ हैं। चीते जंगल की शान हैं। चीतों से ही हमारा वन्य प्रदेश सुशोभित होता है। चीते हमारी शान हैं। हमारा अलंकरण हैं। “बिन चीता सब सून।”

समझाने वाले ने फिर कहा  ” पागल मत बनो। एक दिन यही चीते मौका देखते ही तुम्हें और तुम्हारे बछड़ों को खा जायेंगे और तुम लोग कुछ नहीं कर पाओगी।”

“हम तुम्हारी चीता विरोधी मानसिकता को भलीभांति समझ गए हैं। हम लोग तुम्हारी बातों में आने वाली नहीं। हमें हमारे अपने ही लोगों से ज्ञात हुआ कि अब चीते शाकाहारी हो गए हैं। अब वे निरीह जानवरों का शिकार नहीं करते। नित्य स्नान और पूजापाठ करने लगे हैं। जंगल की अस्मिता और उसके पुराने वैभव को लौटाने के लिए वे कुछ भी त्याग करने को तत्पर रहते हैं। जंगल में उनकी वजह से सब तरह से मंगल है।भय , भूख का नामोनिशान नहीं रहा।जंगल दशकों बाद फिर से हराभरा  हो गया है।”

समझाने वाले को लगा कि जब मूर्ख को अपनी मूर्खता पर गर्व होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि अब उसका अंत निकट आ गया है।अंधेरे के समर्थक रोशनी में आंखें मूंद लेते हैं। उसे लगा कि गाएं गांधारी से कुछ ज्यादा ही प्रभावित दिख रही हैं। चीतों के दलालों ने उनकी जो अहिंसक छवि जंगल में बना रखी है गाएं उसके प्रभाव में खुद का गाय होना भूल गई थीं।

चीतों का प्रचारतंत्र इतना तगड़ा था कि गंजों के मोहल्लों में कंघियों की सेल लगाते थे और सारे गंजे एक की बजाय चार चार कंघियां खरीद लेते थे।

फिर भी उसने अंतिम कोशिश की “देखो मैं फिर भी कह रहा हूं कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए तुम्हें चीतों से सावधान रहना चाहिए।”

“तुम हमें हमारे हाल पर छोड़ दो और अपना कांमधंधा देखो।” गायों ने एक स्वर में कहा।

यह सुनकर वह जाने के लिए मुड़ा ही था कि चीतों का एक झुंड आया और गायों के ऊपर टूट पड़ा।

गायों के रंभाने की आवाज से वातावरण गूंज उठा।

© रामस्वरूप दीक्षित

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈