डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – भविष्य का भूत। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 239 ☆

☆ व्यंग्य – भविष्य का भूत

उसे दिन नन्दलाल की दूकान में घुसा तो देखा एक युवक नन्दलाल की हथेली अपने हाथों में लिये उसे गौर से देख रहा है। युवक दुबला पतला था, महीने दो-महीने की दाढ़ी बढ़ाये।

मुझे देखकर नन्दलाल बोला, ‘ये राम अरदास शास्त्री हैं। हस्तरेखा के अच्छे जानकार हैं।’

मैं आदतन मज़ाक के मूड में आ गया। प्रभावित होने का भाव दिखाकर मैंने ‘अच्छा’ कहा।

वह माथे पर बल डाले नन्दलाल को बता रहा था, ‘आपको कहीं से संपत्ति मिलने का योग है। चालीस साल की आयु के बाद से आपकी स्थिति में निश्चित सुधार है। कुछ परेशानियाँ भी हैं, लेकिन हल हो जाएँगीं।’

मैं बैठा बैठा मज़ा ले रहा था। जैसे ही उसने नन्दलाल का हाथ छोड़ा, मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया। कहा, ‘कुछ अपना भी देखो,शास्त्री जी।’

वह देर तक मेरी हथेली को उलटता पलटता रहा, फिर बोला, ‘अभी तक तो आपका समय अच्छा कटा, लेकिन अगला साल कुछ गड़बड़ है। आप अँगूठी में पुखराज धारण करें।’

मैंने झूठी गंभीरता से पूछा, ‘पुखराज कितने में आएगा शास्त्री जी?’

वह बोला, ‘करीब तीन चार हजार का।’

अब मैं अपनी असलियत पर आ गया। मैंने हँसकर कहा, ‘शास्त्री जी, तीन चार हजार का पुखराज पहनने के बजाय अगर यही रकम अपने साहब की मस्केबाज़ी में खर्च करूँ तो आगे आने वाले कई साल शुभ हो जाएँगे।’

वह स्पष्टतः नाराज़ हो गया। उसका चेहरा लाल हो गया। गुस्से में बोला, ‘तो साफ साफ सुनना चाहते हैं?’

मैंने कहा, ‘सुनाइए।’

वह आवेश में बोला, ‘तो सुनिए। अगले साल के सितंबर माह तक आपके गोलोक वासी होने का योग बनता है। इसे बिल्कुल निश्चित समझिए। अपनी वसीयत वगैरह कर डालिए और तैयार हो जाइए।’

मैंने कहा, ‘और अगर मैं इस धरती पर टिका रहा तो?’

वह हाथ पटक कर बोला, ‘मैं पाँच सौ रुपये की शर्त लगाने को तैयार हूँ।’

शर्त लग गयी। नन्दलाल हम दोनों के लिए जिम्मेदार बन गया। जो हारेगा उसकी तरफ से नन्दलाल पाँच सौ रुपये जीतने वाले को देगा।

मैंने बात को गंभीरता से नहीं लिया, बल्कि उसे भूल भी गया। अगला साल भी शुरू हो गया और महीने खिसकने लगे।

जुलाई में एक दिन नन्दलाल मुझसे बोला, ‘यार, यह शास्त्री तो आजकल बहुत परेशान कर रहा है।’

मैंने पूछा, ‘क्या हुआ?’

वह बोला, ‘वह अंतरे दिन तुम्हारे स्वास्थ्य की रिपोर्ट लेने आ जाता है। पूछता है तबियत कैसी चल रही है? स्वास्थ्य पहले जैसा ही है या कुछ गड़बड़ है? तुम्हारी तबियत पर गिद्ध जैसी नज़र जमाये है।’

उसी माह में मुझे सर्दी खाँसी हो गयी। आठ दस दिन तक नन्दलाल की दूकान पर नहीं जा पाया। एक दिन सड़क की तरफ वाले कमरे में लेटा था कि एकाएक देखा कि शास्त्री खिड़की में से झाँक रहा है। मैं बाहर आया तो वह दूर जल्दी-जल्दी जाता दिखा।

एकाध बार देखा वह मुहल्ले के बच्चों से मेरे मकान की तरफ उँगली उठाकर कुछ पूछ रहा है। मुहल्ले के लोगों ने बताया कि वह अक्सर मुहल्ले में मंडराता रहता है और मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछता रहता है। ज्यों ज्यों समय बीतता जा रहा था, उसकी परेशानी बढ़ती जा रही थी।

अगस्त माह के अन्त में मेरे साले साहब की शादी पड़ गयी। बहुत दिनों से ससुराल नहीं गया था। एक महीने की छुट्टी लेकर चल दिया।

जिस दिन मुझे रवाना होना था उसके पहले दिन शाम को शास्त्री नन्दलाल की दूकान में मुझे मिला। पूछने लगा, ‘सुना है आप बाहर जा रहे हैं?’

मैंने ‘हाँ’ कहा तो वह थोड़ा रुक कर बोला, ‘ध्यान रखिएगा, यह अगस्त का महीना है। मेरे लिए पाँच सौ रुपये और प्रतिष्ठा का सवाल है। दो-तीन दिन में नन्दलाल जी के पते से पत्र देते रहिएगा। मेरा जी आपका स्वास्थ्य में लगा रहेगा।’

मैंने हँसकर कहा, ‘ज़रूर।’

ससुराल पहुँचने पर हर तीसरे दिन उसका कार्ड पहुँचने लगा— ‘प्रिय भाई, अपने स्वास्थ्य की सूचना दें। मैं बहुत उत्सुक हूँ।’

एक दिन पत्नी ने इन कार्डों का रहस्य पूछा तो मैंने उन्हें पूरा किस्सा बताया। सुनकर वे चिन्तित और कुपित हो गयीं। बोलीं, ‘तुम हमेशा उल्टे सीधे मज़ाक करते रहते हो। मुझे यह पसन्द नहीं। किसी तरह इससे पिंड छुड़ाओ।’

मैंने कहा, ‘इससे तो मर कर ही पिंड छूट सकता है।’

मैंने समझ लिया कि शास्त्री मेरे ससुराल के सारे आनन्द को किरकिरा कर देगा। उसके हर कार्ड के साथ पत्नी की नाराज़गी बढ़ती जा रही थी। हारकर मैंने विचार किया और मुक्ति पाने के लिए उसे इस प्रकार का पत्र लिखा—

‘परम शुभचिन्तक शास्त्री जी,

आपको जानकर दुख/ सुख होगा कि मैं दिनांक 6 सितंबर को शुभ मुहूर्त में इंतकाल फरमा गया। चूँकि मैं शर्त हार गया हूँ, अतः आप पाँच सौ रुपये की रकम नन्दलाल से प्राप्त कर लें। मैं उन्हें पत्र लिख रहा हूँ। किन्तु अपने इन्तकाल की बात को मैं कुछ विशेष कारणों से फिलहाल गोपनीय रखना चाहता हूँ,अतः इसे अपने तक ही सीमित रखें। शर्त जीतने के लिए बधाई।’

इसके साथ ही मैंने सारी स्थिति को समझाते हुए नन्दलाल को भी पत्र लिखा और उसे पाँच सौ रुपये शास्त्री को देने के लिए कहा।

छठवें दिन शास्त्री का जवाब आ गया। लिखा था—

‘परम प्रिय भाई जी,

आपका कृपा पत्र प्राप्त हुआ। आपके गोलोक वासी होने की बात पढ़ कर कुछ दुख हुआ लेकिन अपनी भविष्यवाणी सच होने और पाँच सौ रुपये की रक्षा हो जाने के कारण कुछ संतोष भी हुआ। आप जानते ही हैं कि यह मेरी प्रतिष्ठा का सवाल था। आप जहाँ भी रहें सुख से रहें। आप विश्वास रखें यह बात पूर्णतया गोपनीय रखी जाएगी।

आपका शुभचिन्तक

राम अरदास शास्त्री’

उसके बाद मैं ससुराल में बाकी दिन चैन से रहा। बाद में अपने शहर पहुँचने पर मेरे भूत को देखकर शास्त्री किस तरह चौंका, यह किस्सा अलग है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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