श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 184 ☆ सुगंध
सिग्नल खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। एक व्यक्ति गुलाब के पुष्पगुच्छ और पंखुड़ियों की माला बेच रहा है। सौदा लेकर मेरे पास भी आता है। खरीदने का कोई कारण नहीं है तथापि चिंता और चिंतन का कारण अवश्य है। माला हो या पुष्पगुच्छ, दोनों में से किसी तरह की कोई सुगंध नहीं आ रही। एकाएक नथुने लगभग चार दशक पीछे लौटते हैं और तन-मन सुगंधित हो उठते हैं।
स्मरण आता है कि उन दिनों महाविद्यालय में कोई युवक किसी युवती को देने के लिए अपने बैग में छिपाकर गुलाब का एक पुष्प ले आता तो सारी कक्षा महक उठती। पुष्प किसके लिए लाया गया, यह तो पता नहीं चलता पर कक्षा में किसीके पास गुलाब है, इसकी जानकारी हर एक को हो जाती। गुलाब की गंध ही उसका सबसे बड़ा परिचय थी।
तब और अब का मंथन हुआ, विचार जन्मा। पिछले कुछ दशकों से पुष्पों की भाँति ही जीवन से भी सुगंध कहीं दूर हो चली है। सारे हाइब्रीड पुष्प अब एक जैसे, बड़े आकार के और अधिक सुंदर दिखने लगे हैं। विचार की परिधि में मनुष्य भी आया। पैसे और पद के अहंकार से हाइब्रीड-सा एलिट मनुष्य पर भीतर से सद्गुणों को डिलीट कर चुका मनुष्य। प्रदर्शन के भाव का मारा मनुष्य, भीतरी सुगंध के अभाव से हारा मनुष्य।
प्रदर्शन के समय में दर्शन की बात करना बहुधा हास्यास्पद हो सकता है किंतु विचारणीय है कि प्रदर्शन में मूल शब्द दर्शन ही है। दर्शन बचा रहेगा तो अन्य संभावनाएँ भी बची रहेंगी। मूल नष्ट हुआ तो अन्य सभी के नष्ट होने की आशंका भी बनी रहेगी।
संत कबीर लिखते हैं,
शीलवंत सबसे बड़ा, सब रत्नन की खान।
तीन लोक की संपदा, रही शील में आन।।
शील अर्थात सद्गुण ही सबसे बड़ी सम्पदा और रत्नों की खान है। शील में ही तीनों लोकों की संपत्ति अंतर्निहित है।
भौतिक संपदा के साथ-साथ यह आंतरिक त्रिलोकी भी व्यक्ति पा ले तो व्यक्तित्व को सुगंधित होने में समय नहीं लगेगा।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
💥 आपदां अपहर्तारं साधना श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को संपन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र सूचित की जावेगी।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।