हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी – किताब और कैलेण्डर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

अल्प परिचय 

जन्म – १ अप्रैल १९४९,

सम्प्रति – बैंकिंग सेवा से सेवानिवृत्त, पेंशन भोगी ! संगीत (फिल्मी और इल्मी), अध्यात्म और साहित्य में अभिरुचि। फेसबुक में स्वान्तः सुखाय लेखन, नियमित स्तंभ “अभी अभी “

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार। अब आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “किताब और कैलेण्डर”।)  

? अभी अभी  – किताब और कैलेंडर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किताबें रोज छपती हैं, कैलेंडर हर वर्ष छपते हैं। किताब में क्या छपेगा, इसका निर्णय लेखक करता है, कैलेंडर में क्या छपेगा, इसका निर्णय समय करता है, इसीलिए किताब को कृति और कैलेंडर को काल निर्णय भी कहा जाता है। एक लेखक को लोग कम जानते हैं, लाला रामस्वरूप को कौन नहीं जानता।

मैं समय हूं। मेरे समय में किताब को पुस्तक कहा जाता था और टीचर को शिक्षक। टेक्स्ट बुक, पाठ्य पुस्तक कहलाती थी और lesson पाठ कहलाता था। सर और टीचर को अध्यापक और गुरु जी कहा जाता था और अटेंडेंस को हाजरी। जब क्लास में नहीं, कक्षा में हाजरी भरी जाती थी, तब छात्र यस सर अथवा प्रेजेंट सर नहीं, उपस्थित महोदय कहा करते थे।।

कैलेंडर की तरह हर वर्ष पाठ्य पुस्तकें भी बदली जाती थी। उधर कैलेंडर का साल बदलता, इधर हमारी कक्षा भी बदलती और पाठ्य पुस्तक भी।

किताबें पढ़कर और पढ़ लिखकर ही व्यक्ति पहले ज्ञान अर्जित करता है और फिर बाद में किसी किताब की रचना करता है। एक किताब की तुलना में एक कैलेंडर छापना अधिक आसान है। इसीलिए जो अधिक पढ़ लिख जाते हैं वे किताबें ही छापना पसंद करते हैं, कैलेंडर नहीं।।

हम भारतकुमार मनोजकुमार का उपकार नहीं भूलेंगे, जिसने कैलेंडर को एक नया अर्थ दिया और वह भी एक, इकतारे के साथ। हर साल कैलेंडर छाप दिया, और उसके बाद ? इकतारा बोले, सुन सुन, क्या कहे ये तुझसे, सुन सुन, सुन सुन सुन।

सृजन, सृजन होता है, चाहे फिर वह किसी कैलेंडर का हो, अथवा किसी पुस्तक का। उत्सव तो बनता है, कहीं सृजन की मेहनत कुछ महीनों की है, तो कहीं कई वर्षों की। प्यार के खत की तरह, किसी पुस्तक के सृजन में, किसी बालक के जन्म में, वक्त तो लगता है।।

जिन्हें गुरु नहीं मिलता, वे निगुरे कहलाते हैं, जिनकी संतान नहीं होती, वे निःसंतान कहलाते हैं लेकिन जो लेखक किसी पुस्तक का सृजन नहीं कर पाए, उसे आप क्या कहेंगे।

आप कैलेंडर छापें, ना छापें, एक पुस्तक अवश्य छापें, आप पर मां सरस्वती की कृपा हो।

जो खुशी एक मां को अपने बालक के जन्म पर होती है, वही खुशी किसी लेखक को अपनी पहली रचना प्रकाशित होने पर होती है। खुशी तो बनती है, एक विमोचन तो बनता है।।

हर साल कैलेंडर छपते हैं, लाखों करोड़ों किताबें छपती हैं, लेकिन समय का विधान देखिए, जब देश दुनिया की जनसंख्या बढ़ती है, तो हमें जनसंख्या नियंत्रण का खयाल आता है। लेकिन इसमें गलत कुछ भी नहीं।

जो गलत है, वह गलत है।

खूब किताबें छापो, खूब कैलेंडर छापो, खूब पैसा कमाओ, लेकिन जब कमाने वाले हाथों से खाने वाले हाथ बढ़ जाते हैं, तो गरीबी में आटा गीला हो ही जाता है। बच्चे दो ही अच्छे, लेकिन हां, मगर हों भी अच्छे।।

एक लेखक को भी अपनी रचना से उतना ही प्रेम होता है जितना मां बाप को अपनी औलाद से। पुत्र मोह तो महाराज दशरथ को भी था और महाराज धृतराष्ट्र को भी। कहां एक के चार और कहां एक के सौ। आजकल हमारे लेखक भी तेंदुलकर और विराट कोहली की तरह अपनी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या, रनों की तरह बढ़ा रहे हैं। कोई रन मशीन है तो कोई बुक मशीन। हाल ही में कुछ लेखक अपनी प्रकाशित पुस्तकों का अर्द्ध शतक तो मार ही चुके हैं। कुछ नर्वस नाइंटीज़ में अटके हैं, उनकी मां शारदे सेंचुरी पूरी करे।

आप कैलेंडर चाहे मोहन मीकिंस का लें, अथवा किंगफिशर का, एक लाइफ टाइम पंचांग से ही काम चला लें, हर साल नया कैलेंडर भी खरीदें, लेकिन कृपया खुद कैलेंडर ना छापें। अगर छापने का इतना ही शौक है, तो अपनी किताबें छापें, कोई बैन नहीं, कोई नियंत्रण नहीं।

और हां जो छाप रहे हैं, उनसे जलें नहीं। विमोचन तो पुस्तक के जन्म का अवसर होता है, उस पर बच्चा और जच्चा को आशीर्वाद दें, अनावश्यक कुढ़कर अपशुकन तो ना करें।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 134 – “अंततः” – श्री राजा सिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी के उपन्यास “अंततः” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 134 ☆

☆ “अंततः” – श्री राजा सिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

अंततः  (उपन्यास)

लेखक – राजा सिंह

पृष्ठ – १४४, मूल्य – ४५० रु

प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक सदन, दिल्ली ३२

अंततः उपन्यास की बेबाक समीक्षा स्वयं लेखक राजा सिंह ने पुस्तक के प्रारंभ में अपने दो शब्द के अंतर्गत कर रखी है. राजा सिंह एक उम्दा समकालीन कहानीकार हैं. यह उपन्यास उनकी छठविं कृति है. इससे पहले वर्ष २०१५ में अवशेष प्रणय, २०१८ में पचास के पार, २०२० में बिना मतलब और २०२१ में पलायन नाम से उनकी कहानियां पुस्तकाकार प्रकाशित हुई और सराही गई हैं. २०२१ में पहला उपन्यास बनियों की विलायत आया था. अंततः दूसरा उपन्यास है, यह वर्ष २०२२ में प्रकाशित हुआ है. राजा सिंह निरंतर लेकन कर रहे हैं, सभी उत्कृष्ट पतरिकाओ में समय समय पर उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते रहते हैं. वे अपने परिवेश से चरित्रों को ढ़ूंढ़कर कहानी में उतार देने की कला में माहिर हैं. प्रस्तुत ७पन्यास के लेककीय व्यक्त्व्य में वे लिखते हैं कि उपन्यास की उनकी नायिका यथार्थ है. जिसकी जिजीविषा की कहानी ही अंततः है. एक महत्वाकांक्षी लडकी की यंत्रणा को अनुभव कर संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्ति  दे पाना लेखकीय सफलता है. देहात और औसत शहरी वातावरण के कथानक के अनुरूप भाषा, और उपन्यास के पात्रों का नामकरण राजा सिंह के लेखन की विशेषता है. इस उपन्यास में उन्होंने रघु और सीता के इर्द गिर्द कहानी बुनी है.

“उन सबन की बराबरी जिन करा, हमरे पास कौनव खंती न गड़ी है, कहाँ से पढ़ाई करवाते ? घर मा खाना लत्ता तो मुश्किल से जुड़त है शाहबजादी को पढ़ाई कहाँ से करवाते ? माँ बिसुरने लगी ” बातचीत शैली में कही गई, सीता के संघर्ष की कहानी है अंततः. यद्यपि बेहतर होता कि भले ही वास्तविक जिंदगी में नायिका को सफलता न भी मिली हो पर उपन्यास में सफल सुखान्त किया जा सकता था. राजा सिंह की वर्णन शैली में चित्रात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता है.

उपन्यास का यह अंश पढ़िये…

… “मैं जानती थी तुम्हारी नजर कहाँ धरी है? मुझे क्या पड़ी है? बच्चों के लिए रख छोड़ा था बच्चों को भूख से बेहाल नहीं देखा जाता है. इस कारण रख छोड़ा था। वह बड़बड़ाती जा रही थी और कोठरी में खटर-पटर भी करती जा रही थी।

  वह असहायता और निरूपता से ग्रस्त इंतजार कर रहा था। थोड़े विराम के बाद कमला कोठरी से बाहर आयी। वह अशांत, क्लेशरहित, दीन भाव से युक्त थी। उसने एकदम सहज तरीके से कड़े रामदीन को सौंप दिए। वह अच्छी तरह से जानती थी कि इस स्थिति के लिए उसका पति किसी तरह से भी दोषी नहीं है। यह सिर्फ दैवयोग ही है।

रामदीन ने जुताई की रकम अदा की और पिछला उधार चुकता करके फिर उधार किया। उसने खाद बीज के लिए भी यही व्यवस्था अपनाई। पिछला उधार चुकता किया और नया उधार किया। सबसे ज्वलंत समस्या मुंह बाये खड़ी थी, घर का खाना खर्चा का क्या होगा? समझ से परे था यह इन्तजाम.? बैंकों का कर्ज पहले से ही था उसे पिछले तीन सालों से चुका नहीं पाया था। नोटिस पे नोटिस आ रहे थे। ब्याज पर ब्याज लगकर खाता अलाभकारी हो चुका था। बैंक के कोई दया ममता तो होती नहीं है परन्तु  अब क्या करें? सेठ साहूकार उनका ब्याज मूल से ज्यादा हो चुका है। एक बार खेत का एक टुकड़ा बेचकर उनके मोटे पेट को भोजन करा चुके हैं। मगर उनके अलावा कोई चारा तो नहीं है।

ससुरी खेती कब दगा दे जाये क्या पता….? चलते हैं, चिरौरी करते हैं, वे मानुष हैं, उनके दया ममता आ सकती है। अबकी बार खेत का एक टुकड़ा नहीं सारा का सारा खेत बेच कर ताँता ही समाप्त कर देंगे और सारा उधार निपटाकर शहर जाकर बस जायेंगे मेहनत-मजूरी करके दो वक्त की रोटी तो पा ही जायेंगे। कहते हैं कि शहर में कोई भूखा नहीं मरता । अच्छी लागत और भरपूर मेहनत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया था। फसलें अच्छी तरह पनप और विकसित हो रही थी। निराशाएँ और हताशाएँ बहुत पीछे छूट गयी थीं। उम्मीदों पर, पर लग गए थे। उत्पादन-विक्रय के बाद होने वाली आमदनी का हिसाब काफी अच्छा बैठ रहा था। भावी आमदनी से आवश्यकताओं और अभिलाषाओं के पूर्ण होने की उम्मीद बेहतर होती जा रही थी। बिके हुए गाय-बैल वापस आने कि उम्मीद बंध रही थी।…

लोकभाषा का प्रयोग, समकालिक परिस्थितियों और घटनाओ का वर्णन है, इसलिये उपन्यास पाठक को बांधे रखता है, पठनीय है. उपन्यास की कहानी कोई बड़ा संदेश तो नहीं देती पर वर्तमान सामाजिक परिवेश का यथार्थ चित्रण करती है. मेरी आशा है कि यह उपन्यास स्त्री विमर्श की मुखर कृति के रूप में स्थान बनाने में सफल होगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 02 ☆ मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 1 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… का पहला भाग )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 02 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को… भाग – 1 ?

 2015 अक्टोबर इस साल हमने स्पेन, पुर्तगाल और मोरक्को  घूमने का कार्यक्रम बनाया।

इस बार हम तीन सप्ताह हाथ में लेकर निकले थे।यात्रा के आने – जाने के दो दिन अलग ताकि पूरे इक्कीस दिनों का पूरा आनंद लिया जा सके। हमने  बहुत सोच-समझकर तीनों देशों की भौगोलिक  सुंदरता और ऐतिहासिक  विशेषताओं को ध्यान में रखकर देखने योग्य स्थानों का चयन किया।

सच पूछिए तो किसी भी देश में अगर हम अच्छी तरह से घूमना चाहें तो दो महीने तो  अवश्य ही लग जाएँगे पर यह हमेशा संभव नहीं होता। अगर हमारे देश के समान या उससे भी बड़ा देश हो तो और अधिक समय लग जाएगा। इसलिए विदेशों में घूमते समय सबसे पहले अपनी खर्च करने की आर्थिक क्षमता को जाँचना आवश्यक होता है फिर रुचि अनुसार शहरों का चयन किया जाना चाहिए। चूँकि हमारे पास इक्कीस दिन थे तो हमने भी अपनी रुचि अनुसार दर्शनीय स्थानों की सूचि बना ली थी और उसी के आधार पर सभी जगह रहने की सुविधानुसार व्यवस्था भी कर रखी थी। विदेश यात्रा के दौरान सुनियोजित बजट बना लेना उपयोगी और आवश्यक होता है क्योंकि हम विदेशी मुद्रा पर निर्भर करते हैं।

हमारी पहली मंजिल थी पुर्तगाल या पोर्त्युगल। हम पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन पहुँचे। हम यहाँ तीन दिन रहे। हमारा अधिक उत्साह उस पोर्ट को देखने का था जहाँ से 1497 में  वास्को डगामा चार जहाजों के साथ भारत के लिए रवाना हुए थे और पहली बार योरोप और भारत के बीच समुद्री मार्ग खुल गए थे। साथ ही हमारे देश में योरपीय दासता का इतिहास का अध्याय भी प्रारंभ हुआ था।

हम दोपहर तक उस विशाल पोर्ट पर रहे, पत्थरों से बने पुराने ज़माने के लाइट हाउस पर चढ़कर दूर तक समुद्र को निहारने का आनंद लिया। आस पास कई छोटी -छोटी जगहें हैं उन्हें देखने का आनंद उठाया।

लिस्बन शहर समुद्री तट पर बसा है। यहाँ के कई  संग्रहालयों से हमें काफी जानकारी मिली। यहाँ पर अधिकतर दर्शनीय स्थल विभिन्न क्रूज़ द्वारा ही किए जाते हैं। कुछ प्रसिद्ध किले भी हैं । इस शहर के अन्य दर्शनीय स्थानों का भ्रमण कर हम उनके बाज़ार देखने गए।

कई अलग प्रकार के फल, शाक और सब्ज़ियाँ देखी जो हमारे देश से अलग हैं। छोटी -छोटी लाल तेज़ गुच्छों में मिर्ची देखने को मिली।इसे यहाँ पिरिपिरि कहते हैं।

इस पिरिपिरि के साथ हमारे देश का एक पुराना इतिहास भी जुड़ा है।हमारे देश में पुर्तगालियों के आने से पूर्व केवल कालीमिर्च की पैदावार होती थी ,हरीमिर्च जिसका उपयोग  नित्य अपने भोजन में आज हम करते हैं वह पुत्रगालियों की ही देन है। वे मिर्च पहले गोवा में ले आए और 17वीं शताब्दी में शिवाजी की सेना इसे देश के  बाकी हिस्सों में ले जाने में सफल हुई।आज हमारे देश में कई प्रकार की मिर्चियाँ उगाई जाती हैं।

लिस्बिन देखकर हम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण शहर अल्बूफेरिया देखने के लिए रवाना हुए। यह यात्रा हमने यूरोरेल द्वारा की क्योंकि इन दोनों शहरों के बीच का अंतर 255 कि.मी.है और अढ़ाई घंटे का समय लगता है।यहाँ बसें भी चलती हैं पर समय अधिक लग सकता है।

हम अल्बूफेरिया में हम चार दिन रहे। यह सुंदर शहर समुद्र और पहाड़ों के बीच बसा है।

यहाँ हमने कई किले देखे जो अपने समय का इतिहास बयान करते हैं। पुरानी छोटी-बड़ी तोपें अब भी किले की शोभा बनी हुई हैं। यह ऐतिहासिक शहर है।पहाड़ी इलाका होने के कारण सड़कें संकरी और टाइल्स लगी हुई हैं। छोटी -छोटी बसें इन सड़कों पर चलती हैं पर किले तक जाने वाली  चढ़ाई चलकर ही चढ़नी पड़ती है।

किले के  प्रारंभ में सोवेनियर की दुकानें हैं।चाय-नाश्ता कॉफी की छोटी -छोटी सुसज्जित टपरियाँ हैं। यहीं पर पहली बार क्रॉसें खाने का स्वाद मिला।

दूसरे दिन हमने  एक बड़े जहाज़ द्वारा समुद्र पर सैर करने का आनंद लिया।इस बड़े जहाज से उतरकर समुद्र के बीच हमें छोटे लाइफबोट में बिठाया गया और समुद्र में स्थित गुफाओं का दर्शन कराया गया। यह एक अनूठा अनुभव था। छोटे मोटर बोट या लाइफबोट आसानी से  गुफाओं के भीतर प्रवेश कर सकते हैं। यहाँ की गुफाएँ ऊपर से खुली -सी हैं जहाँ से सूरज का प्रकाश स्वच्छ जल पर आ गिरता है।मोटर बोट से जहाज़ पर चढ़ना एक भारी कठिन काम था। विशेषकर जब जल से मन में भय हो! इन गुफाओं के पास हमें ऊदबिलाव के अनेक परिवार दिखे।ये बहुत शर्मीले प्राणी हैं तथा झुंड में ही रहते हैं।इन्हें तकलीफ न हो या वे डिस्टर्ब न हों इसलिए लाइफबोट का उपयोग किया जाता है जो चप्पू द्वारा चलाया जाता है।

इस शहर का  एक पहाड़ी हिस्सा भी है  जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है,हम तीसरे दिन यहाँ के बहुत खूबसूरत जंगल देखने के लिए निकले। यह पहाड़ी इलाका है और यहाँ बड़ी तादाद में वे वृक्ष उगते हैं जिनसे कॉर्क बनाया जाता है। हमें कॉर्क बनाने की फैक्ट्री, शराब बनाई जाने वाली फैक्ट्री आदि देखने का यहाँ मौका भी मिला। हमारे स्वदेश लौटने के कुछ माह बाद इस विशाल सुंदर जंगल में भीषण आग लगी और जंगल के राख हो जाने का समाचार मिला।हम इस बात से बहुत आहत भी  हुए।

इस शहर में कई  संग्रहालय भी हैं जहाँ अनेक प्रकार की मूर्तियाँ और पेंटिंग्स देखने को मिले। निरामिष भोजन के लिए हमें थोड़ी तकलीफ अवश्य हुई अन्यथा यह खूबसूरत देश है। सुंदर चर्च हैं।लोग देर से उठना और देर रात तक खाने -पीने में विश्वास करते हैं, जिस कारण यहाँ के लोगों की सुबह देर से प्रारंभ होती है। पुर्तगाल के पुराने शहरों को देखकर आपको हमारे देश का खूबसूरत गोवा अवश्य स्मरण हो आएगा।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग – 28 – चलते फिरते ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 28 – चलते फिरते ☆ श्री राकेश कुमार ☆

समय ऑनलाइन का है, घर बैठे खाद्य सामग्री, कपड़े, विद्युत उपकरण, दैनिक उपयोग का प्रायः सभी समान कुछ मिनट में आपके द्वार पहुंच जाता हैं।

अभी भी कुछ वस्तुएं जैसे पेट्रोल, बैंक से नक़द राशि आदि आपको स्वयं प्राप्त करने के लिए जाना पड़ता है। यहां विदेश में कुछ वस्तुएं “Drive thru” (चलते फिरते) के नाम से उपलब्ध करवाई जाती हैं। इसकी शुरुआत “मैकडोनाल्ड” नामक खाद्य प्रतिष्ठान ने किया था।

बैंक के एटीएम से भी आप अपनी कार में बैठे हुए ही राशि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक स्थान पर एक साथ पांच कार चालक राशि निकाल सकते हैं।

यहां पर सुबह के नाश्ते के लिए प्रातः छः बजे से “Dunken Donald” नाम के प्रतिष्ठान से कॉफी, नाश्ता और पानी इत्यादि कार में बैठ कर मशीन में आदेश देकर आगे खाद्य खिड़की से प्राप्त कर बिना कार से बाहर निकले प्राप्त कर अपनी यात्रा जारी रख सकते हैं। यहां के लोग कॉफी के बड़े बड़े ग्लास जिसका मुंह बंद रहता है, से पीते रहते हैं। एक दो मील की दूरी पर ये दुकान मिल जाती हैं। हमारे यहां भी किसी ना किसी कोने या गली के नुक्कड़ पर चाय की गुमटी/टपरी दिख जाती हैं। जहां पर टपरी में कार्यरत छोटू आपकी चाय बाइक या कार में पेश कर देता हैं। हमारे यहां तो कट या एक के दो कप चाय का प्रावधान हैं।

यहां पर कुछ दवा दुकानें भी ऑनलाइन ऑर्डर की डिलीवरी कार में बैठे बैठे ही निर्धारित खिड़की से कर देती हैं।

पेट्रोल पंप पर आपको कार से बाहर निकलना ही पड़ता है,और पेट्रोल पाइप को स्वयं कार में लगाना पड़ता है। पेट्रोल पम्प प्रांगण पर कोई भी कर्मचारी नहीं होता है। अंदर केबिन में कुछ व्यक्ति अवश्य बैठे हुए दिख जाते हैं। वाहन में हवा सुविधा के लिए डेढ़ डॉलर भुगतान कर स्वयं ही हवा भरनी पड़ती हैं।

सत्तर के आरंभिक दशक में हमारे यहां साइकिल के एक चक्के में हवा भरने के लिए पांच पैसे शुल्क था, बाद में इसे दस पैसे कर दिया गया था, तो हमारे जैसे साइकिल प्रेमियों ने इस बात को लेकर विरोध किया था कि सौ प्रतिशत की वृद्धि बहुत अधिक है। कुछ दुकानें मुफ्त में हवा भरने के पंप उपलब्द करवाती थी, वहां उस समय भीड़ बढ़ गई थी।

कार में बैठे बैठे सिनेमा का आनंद तो हमारे देश में भी विगत कुछ वर्ष से लिया जा सकता हैं। यहां तो विवाह भी अब Drive thru सुविधा के तहत होने लगे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 18 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(ई-अभिव्यक्ति ने समय-समय पर श्रीमदभगवतगीता, रामचरितमानस एवं अन्य आध्यात्मिक पुस्तकों के भावानुवाद, काव्य रूपांतरण एवं  टीका सहित विस्तृत वर्णन प्रकाशित किया है। आज से आध्यात्म की श्रृंखला में ज्योतिषाचार्य पं अनिल पाण्डेय जी ने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री हनुमान चालीसा के अर्थ एवं भावार्थ के साथ ही विस्तृत वर्णन का प्रयास किया है। आज से प्रत्येक शनिवार एवं मंगलवार आप श्री हनुमान चालीसा के दो दोहे / चौपाइयों पर विस्तृत चर्चा पढ़ सकेंगे। 

हमें पूर्ण विश्वास है कि प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठकों से स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। आपके महत्वपूर्ण सुझाव हमें निश्चित ही इस आलेख की श्रृंखला को और अधिक पठनीय बनाने में सहयोग सहायक सिद्ध होंगे।)   

☆ आलेख ☆ श्री हनुमान चालीसा – विस्तृत वर्णन – भाग – 18 ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

अर्थ:- आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास बुढ़ापा और असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।

भावार्थ:- यहां पर रसायन शब्द का अर्थ दवा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि हनुमान जी के पास में राम नाम का रसायन है। इसका अर्थ हुआ हनुमान जी के पास राम नाम रूपी दवा है। आप श्री रामचंद्र जी के सेवक हैं इसलिए आपके पास नामरूपी दवा है। इस दवा का उपयोग हर प्रकार के रोग में किया जा सकता है। सभी रोग इस दवा से ठीक हो जाते हैं।

संदेश:- ताकतवर होने के बावजूद आपको सहनशील होना चाहिए।

हनुमान चालीसा की इस चौपाई के बार बार पाठ करने से होने वाले लाभ:-

राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥

 इस चौपाई का बार बार पाठ करने से रहस्यों की प्राप्ति होती है।

विवेचना:- मेरा यह परम विश्वास है कि अगर आप बजरंगबली के सानिध्य में हैं,बजरंगबली के ध्यान में है तो किसी भी तरह की व्याधि और, विपत्ति आपका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती हैं। क्योंकि बजरंगबली के पास राम नाम का रसायन है। अज्ञेय कवि ने कहा है:-

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?

क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ— वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

मैं हनुमान जी के ध्यान में हूं तो मैं मृत्यु से भी क्यों डरूं। मैं अपने आप को छोटा क्यों समझूं। हमारे हनुमान जी के पास तो राम नाम का रसायन है।

यह राम नाम का रसायन क्या है। पहले इस चौपाई के एक एक शब्द की चर्चा करते हैं।

राम शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है रम् + घम। रम् का अर्थ है रमना या निहित होना। घम का अर्थ है ब्रह्मांड का खाली स्थान। इस प्रकार राम शब्द का अर्थ हुआ जो पूरे ब्रह्मांड में रम रहा है वह राम है। अर्थात जो पूरे ब्रह्मांड में जो हर जगह है वह राम है।

 राम हमारे आराध्य के आराध्य का नाम भी है। पहले हम यह विचार लेते हैं कि हम श्री राम को अपने आराध्य का आराध्य क्यों कहते हैं। हमारे आराध्य हनुमान जी हैं और हनुमान जी के आराध्य श्री राम जी हैं। इसलिए श्री राम जी हमारे आराध्य के आराध्य हैं। हनुमान जी स्वयं को, अपने आप को श्री राम का दास कहते हैं। यह भी सत्य है कि सीता जी ने भी हनुमान जी को श्री राम जी के दास के रूप में स्वीकार किया है।:-

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास

जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥13॥

(रामचरितमानस/ सुंदरकांड/ दोहा क्र 13)

अर्थ:- हनुमान जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥

हनुमान जी के सभी भक्तों को यह ज्ञात है श्री राम जी हनुमान जी की आराध्य हैं। फिर भी हनुमानजी के भक्त सीधे श्री राम जी के भक्त बनना क्यों नहीं पसंद करते हैं।

बुद्धिमान लोग इसके बहुत सारे कारण बताएंगे परंतु हम ज्ञानहीन लोगों के पास ज्ञान की कमी है।इसके कारण हम बुद्धिमान लोगों की बातों को कम समझ पाते हैं। मैं तो सीधी साधी बात जानता हूं। हम सभी हनुमान जी के पुत्र समान है और हनुमान जी अपने आप को रामचंद्र जी के पुत्र के बराबर मानते हैं। इस प्रकार हम सभी श्री राम जी के पौत्र हुए। यह बात जगत विख्यात है कि मूल से ज्यादा सूद प्यारा होता है या यह कहें पुत्र से ज्यादा पौत्र प्यारा होता है। इस प्रकार हनुमान जी के भक्तों को श्री रामचंद्र जी अपने भक्तों से ज्यादा चाहते हैं। इसलिए ज्यादातर लोग पहले हनुमान जी से लगन लगाना ज्यादा पसंद करते हैं।

हम पुर्व में बता चुके हैं श्रीराम का अर्थ है सकल ब्रह्मांड में रमा हुआ तत्व यानी चराचर में विराजमान स्वयं परमब्रह्म।

शास्त्रों में लिखा है, “रमन्ते योगिनः अस्मिन सा रामं उच्यते” अर्थात, योगी ध्यान में जिस शून्य में रमते हैं उसे राम कहते हैं।

भारतीय समाज में राम शब्द का एक और उपयोग है। जब हम किसी से मिलते हैं तो आपस में अभिवादन करते हैं। कुछ लोग नमस्कार करतें हैं। कुछ लोग प्रणाम करतें हैं और कुछ लोग राम-राम कहते हैं। यहां पर दो बार राम नाम का उच्चारण होता है जबकि नमस्कार या प्रणाम का उच्चारण एक ही बार किया जाता है। हमारे वैदिक ऋषि-मुनियों ने जो भी क्रियाकलाप तय किया उसमें एक विशेष साइंस छुपा हुआ है। राम राम शब्द में भी एक विज्ञान है। आइए राम शब्द को दो बार बोलने पर चर्चा करते हैं।

एक सामान्य व्यक्ति 1 मिनट में 15 बार सांस लेता छोड़ता है। इस प्रकार 24 घंटे में वह 21600 बार सांस लेगा और छोड़ेगा। इसमें से अगर हम ज्योतिष के अनुसार रात्रि मान के औसत 12 घंटे का तो दिनमान के 12 घंटों में वाह 10800 बार सांस लेगा और छोड़ेगा। क्योंकि किसी देवता का नाम पूरे दिन में 10800 बार लेना संभव नहीं है।इसलिए अंत के दो शुन्य हम काट देते हैं। इस तरह से यह संख्या 108 आती है। इसीलिए सभी तरह के जाप के लिए माला में मनको की संख्या 108 रखी जाती है। यही 108 वैदिक दृष्टिकोण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म का मात्रिक गुणांक भी है। हिंदी वर्णमाला में क से गिनने पर र अक्षर 27 वें नंबर पर आता है। आ की मात्रा दूसरा अक्षर है और  “म” अक्षर 25 वें नंबर पर आएगा। इस प्रकार राम शब्द का महत्व 27+2+25=54 होता है अगर हम राम राम दो बार कहेंगे तो यह 108 का अंक हो जाता है जो कि परम ब्रह्म परमात्मा का अंक है। इस प्रकार दो बार राम राम कहने से हम ईश्वर को 108 बार याद कर लेते हैं,।

 मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति राम नाम की महिमा का गुणगान कहां कर पाएगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :-

करऊँ कहा लगि नाम बड़ाई।

राम न सकहि नाम गुण गाई।।

स्वयं राम भी ‘राम’ शब्द की विवेचना नहीं कर सकते। ‘राम’ विश्व संस्कृति के नायक है। वे सभी सद्गुणों से युक्त है। अगर सामाजिक जीवन में देखें तो- राम आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श पति, आदर्श शिष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। अर्थात् समस्त आदर्शों के एक मात्र न्यायादर्श ‘राम’ है।

क्योंकि राम शब्द की पूर्ण विवेचना करना मेरे जैसे  तुच्छ व्यक्ति के सामर्थ्य के बाहर है अतः इस कार्य को यहीं विराम दिया जाता है।

इस चौपाई का अगला शब्द रसायन जिसका शाब्दिक अर्थ कई हैं। जैसे :-

  1. पदार्थ का तत्व-गत ज्ञान
  2. लोहा से सोना बनाने का एक योग
  3. जरा व्याधिनाशक औषधि। वैद्यक के अनुसार वह औषध जो मनुष्य को सदा स्वस्थ और पुष्ट बनाये रखती है।

अगर हम रसायन शब्द का इस्तेमाल पदार्थ के तत्व ज्ञान के बारे में करते हैं यह कह सकते हैं के हनुमान जी के पास राम नाम का पूरा ज्ञान है। पूर्ण ज्ञान होने के कारण हनुमान जी रामचंद्र जी के पास पहुंचने के एक सुगम सोपान है। अगर आपने हनुमान जी को पकड़ लिया तो रामजी तक पहुंचना आपके लिए काफी आसान हो जाएगा।अगर आप सीधे रामजी के पास पहुंचना चाहोगे यह काफी मुश्किल कार्य होगा। अगर हम लोकाचार की बात करें तो यह उसी प्रकार है जिस प्रकार प्रधानमंत्री से मिलने के लिए हमें किसी सांसद का सहारा लेना चाहिए। मां पार्वती से मिलने के लिए गणेश जी का सहारा, गणेश जी की अनुमति लेना चाहिए। इस चौपाई से तुलसीदास जी कहना चाहते हैं रामजी तक आसानी से पहुंचने के लिए हमें पहले हनुमान जी के पास तक पहुंचना पड़ेगा।

अर्थ क्रमांक 2 में बताया गया है लोहा से सोना बनाने का जो योग होता है उसको भी रसायन कहा जाता है। अब यहां लोहा कौन है ? हम साधारण प्राणी लोहा हैं और अगर हमारे ऊपर पवन पुत्र हनुमान जी की कृपा हो जाए तो हम सोने में बदल जाएंगे। हनुमान जी के पास रामचंद जी का दिया हुआ लोहे को सोना बनाने वाला रसायन है।

अब हम तीसरे बिंदू पर आते हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के अनुसार किसी भी रोग, ताप, व्याधि को नष्ट करने के लिए विभिन्न रसायनों का प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों का पूरा स्टॉक हमारे महाबली हनुमान जी के पास राम जी की कृपा से है। अगर हनुमान जी की कृपा हमारे ऊपर रही तो हमें कभी भी रोग या व्याधि से परेशान नहीं होना पड़ेगा। हमारा शरीर और मन सदैव स्वस्थ रहेगा। मन के स्वस्थ रहने के कारण हमारे ऊपर पवन पुत्र की और श्री रामचंद्र जी की कृपा बढ़ती ही जाएगी।

यहां पर यह ध्यान देने वाली बात है कि ब्याधि का अर्थ केवल शारीरिक बीमारी नहीं है। बरन मानसिक परेशानियां भी व्याधि के अंतर्गत आती है। यह संस्कृत का शब्द है और यह साहित्य में एक भाव भी है। किसी भी प्रकार के  कष्ट पहुंचाने वाली वस्तु को भी व्याधि कहते हैं।

आयुर्वेद में इन सभी प्रकार की व्याधियों को दूर करने के लिए रसायनों का प्रयोग होता है। इसके अलावा आयुर्वेद के अनुसार वह औषध जो जरा और व्याधि का नाश करनेवाली हो। वह दवा जिसके खाने से आदमी बुड़ढ़ा या बीमार न हो उसको भी हम रसायन कहेंगे। ऐसी औषधों से शरीर का बल, आँखों की ज्योति और वीर्य आदि बढ़ता है। इनके खाने का विधान युवावस्था के आरंभ और अंत में है। कुछ प्रसिद्ध रसायनों के नाम इस प्रकार है। – विड़ग रसायन, ब्राह्मी रसायन, हरीतकी रसायन, नागवला रसायन, आमलक रसायन आदि। प्रत्येक रसायन में कोई एक मुख्य ओषधि होता है ; और उसके साथ दूसरी अनेक ओषधियाँ मिली हुई होती हैं।

परंतु राम रसायन एक ऐसी औषधि है जिनमें हर प्रकार की व्याधियों को दूर करने की क्षमता है। यह राम रसायन हमारे पवन पुत्र के पास है।

इस चौपाई का अगला वाक्यांश है “सदा रहो रघुपति के दासा”। जिसका सीधा साधा अर्थ भी है की हनुमान जी सदैव रामचंद्र जी के सेवा मैं प्रस्तुत रहे। रघुनाथ जी के शरण में रहे। हनुमान जी ने सदैव मनसा वाचा कर्मणा श्री रामचंद्र की सेवा की और और इसी बात का श्री रामचंद्र जी से आशीर्वाद भी मांगा।

बचपन में एक बार परमवीर हनुमान जी ने भगवान शिव के साथ अयोध्या के राजमहल में भगवान श्री राम को देखा था। बाद में सीता हरण के उपरांत जब श्री रामचंद्र जी ऋषिमुक पर्वत के पास पहुंचे तब वहां पर हनुमान जी सुग्रीव जी के आदेश से ब्राम्हण रुप में श्रीरामचंद्र जी के पास गये। हनुमान जी श्री रामचंद्र जी को पहचान नहीं पाए। बाद में श्री राम जी द्वारा बताने पर वे श्री रामचंद्र जी को पहचान गये। उन्होंने श्री रामचंद्र जी को अपना प्रभु बताते हुए कहा मैं मूर्ख वानर हूं। अज्ञानता बस आपको पहचान नहीं पाया परंतु आप तो तीन लोक के स्वामी हैं आप तो मुझे पहचान सकते थे।

पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥

मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥

(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/1/4)

अर्थ:- फिर धीरज धर कर स्तुति की। अपने नाथ को पहचान लेने से उनके हृदय में हर्ष हो रहा है। (फिर हनुमान्‌जी ने कहा-) हे स्वामी! मैंने जो पूछा वह मेरा पूछना तो न्याय था, (वर्षों के बाद आपको देखा, वह भी तपस्वी के वेष में। मेरी वानरी बुद्धि इससे मैं तो आपको पहचान न सका। अपनी परिस्थिति के अनुसार मैंने आपसे पूछा), परंतु आप मनुष्य की तरह कैसे पूछ रहे हैं?॥4॥

जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥

नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥

 (रामचरितमानस/ किष्किंधा कांड/ 2/1)

अर्थ:- हे नाथ! यद्यपि मुझ में बहुत से अवगुण हैं, तथापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। (आप उसे न भूल जाएँ)। हे नाथ! जीव आपकी माया से मोहित है। वह आप ही की कृपा से निस्तार पा सकता है॥1॥

ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥

सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥

(रामचरितमानस /किष्किंधा कांड/2/2)

अर्थ:- उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥

श्री रामचंद्र जी का अयोध्या में राजतिलक हो चुका था। रामराज्य अयोध्या में आ गया था। रामचंद्र जी ने तय किया पुराने साथियों को उनके घर जाने दिया जाए। पहली मुलाकात के बाद से ही सुग्रीव, जामवंत, हनुमान जी, अंगद जी, विभीषण जी, सभी उनके साथ अब तक लगातार थे। अब आवश्यक हो गया था कि इन लोगों को घर जाने की अनुमति दी जाए। जिससे यह सभी लोग अपने परिवार जनों के साथ मिल सकें। विभीषण और सुग्रीव जी अपने-अपने राज्य में जाकर रामराज लाने का प्रयास करें। वहां की शासन व्यवस्था को ठीक करें। जाते समय श्री रामचंद्र जी सभी लोगों को कुछ ना कुछ उपहार दे रहे थे। जब सभी लोगों को श्री रामचंद्र जी ने विदा कर दिया उसके बाद हनुमान जी से पूछा कि उनको क्या उपहार दिया जाए। हनुमान जी ने कहा कि आपने सभी को कुछ ना कुछ पद दिया है। मुझे भी एक पद दे दीजिए। उसके उपरांत उन्होंने श्री रामचंद्र जी के पैर पकड़ लिए।

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥

(रामचरितमानस /उत्तरकांड /दोहा क्रमांक 16)

अर्थ:- हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना॥

हनुमान जी द्वारा वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं-

यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले।

तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।।

(वाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड 40 / 17)

अर्थ : – ‘हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।’

जिसके बाद श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं-

‘एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:।

चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका

तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा।

लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।।’

(बाल्मीकि रामायण /उत्तरकांड/40/21-22)

अर्थात् :- ‘हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण रहेंगे। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।

एक दिन, विभीषण जी ने समुद्र की दी हुई एक उत्तम कोटि का अति सुंदर माला सीता मां को भेंट की। सीता मां ने माला ग्रहण करने के उपरांत श्री राम जी की तरफ देखा। रामजी ने कहा कि तुम यह माला उसको दो जिस पर तुम्हारी सबसे ज्यादा अनुकंपा है। सीता मैया ने हनुमान जी को मोतीयों की यह माला भेट दी। हनुमान जी ने माला को बड़े प्रेम से ग्रहण किया। उसके उपरांत हनुमान जी एक एक मोती को दांतोसे तोड़ कर कान के पास ले जाते और फिर फेंक देते। अपने भेंट की इस प्रकार बेइज्जती होते देख विभीषण जी काफी कुपित हो गए। उन्होंने हनुमान जी से पूछा कि आपने यह माला तोड़ कर क्यों फेंक दी। इस पर हनुमान जी ने कहा कि हे विभीषण जी मैं तो इस माला की मणियों में सीताराम नाम ढूंढ रहा हूं। परंतु वह नाम इनमें नहीं है। अतः मेरे लिए यह माला पत्थर का एक टुकड़ा है। इस पर किसी राजा ने कहा कि आप हर समय आप हर जगह सीताराम को ढूंढते हो। आप ने जो यह शरीर धारण किए हैं क्या उसमें भी सीता राम हैं और उनकी आवाज आती है। इतना सुनते ही हनुमान जी ने पहले अपना एक बाल तोड़ा और उसे उन्हीं राजा के कान में लगाया। बाल से सीताराम की आवाज आ रही थी। उसके बाद उन्होंने अपनी छाती चीर डाली। उनके ह्रदय में श्रीराम और सीता की छवि दिखाई पडी साथ ही वहां से भी सीताराम की आवाज आ रही थी।

अपनी अनन्य भक्ति के कारण हनुमान जी के हृदय में श्रीराम और सीता के अलावा संसार की किसी भी वस्तु की अभिलाषा नहीं थी।

इस प्रकार यह स्पष्ट है की हनुमान जी सदैव ही श्री राम जी के दास रहे और श्री रामचंद्र जी सदैव ही हनुमान जी के प्रभु रहे।

जय श्री राम। जय हनुमान।

चित्र साभार – www.bhaktiphotos.com

© ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्राणायाम… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री सुहास सोहोनी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्राणायाम… ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆ 

श्वास हिणवतो निश्वासाला

कनिष्ठ तू, मी श्रेष्ठ,

जीवनदायी, सत्वशील मी

प्रदूषीत तू भ्रष्ट — ॥

 

सात्विक, तेजस रुपडे माझे

शुद्ध नि जीवनदायी

श्वास खिजवितो निश्वासाला

तू तर धोकादायी —॥

 

प्राणवायु आधार जिवांचा

माझ्यातुन वाहतो

कर्ब विखारी दूषित तूझा

जीवांना संपवितो — ॥

 

श्वासाचे  वक्तव्य ऐकुनी

झाला अवमानित

जळफळतो निश्वास, करोनी

मुद्रा क्रोधीत — ॥

 

रागाने मग निश्वासाने

चढवुनिया आवाज

दिधले प्रत्युत्तर श्वासाला

चढला तुजला माज — ॥

 

जाइन ना बाहेर यापुढे

निश्चय करतो पक्का

दार बंद तूज, तुला न आता

आत यावया मोका — ॥

 

श्वास तसे निश्वास जाहले

ठप्प जेथल्या तेथे

शरिर तळमळे, प्राण विव्हळे

जीव घुटमळे जेथे — ॥

 

एकच मग कल्लोळ उडाला

विश्वी, तीन्ही लोकी

सूर्य चंद्र अन् इंद्रहि स्वर्गी

भीतीने कांपती — ॥

 

कलह मिटविण्या अवतरला मग

ब्रह्मदेव साक्षात

नाण्याच्या दो बाजू तुम्ही

भांडत बसलात — ॥

 

लहान मोठे बंधू तुम्ही

छापा कांटा जसे

तुमच्या मधील नाणे तुमचा

मधला भाऊ असे — ॥

 

जाणे-येणे, येणे-जाणे

काही क्षण मध्येच थांबणे

कर्तव्यासी करा साधुनी

अखंड आवर्तने — ॥

 

प्राणवायु तू घेउन येसी

नाम तुझे पूरक

कोंडुन धरिसी श्वास रोखुनी

नाम तुझे कुंभक

सर्व अशुद्धे फेकुन देसी

नाम तुझे रेचक

तुमच्या एकोप्याच्या मधुनी

जन्मतील ‘साधक’ — ॥

 

पूरक कुंभक रेचक यांचे

कथिले रामायण

रोज करावी क्रिया अशी जिस

म्हणती ‘प्राणायाम’ — ॥

© सुहास सोहोनी

रत्नागिरी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #182 ☆ चेहरा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 182 ?

☆ चेहरा…  ☆

कधी शब्द तर कधी चेहरा खोटा निघतो

असा चेहरा जरी बोलका उघडा पडतो

 

लहान मासा सुटून जातो अडकत नाही

अशाच वेळी विशाल मासा अलगद फसतो

 

जरी गव्हाचा घरात नाही माझ्या कोंडा

तरी चुलीवर मनात मांडे कायम करतो

 

कठीण होते कठीण आहे जीवन कायम

गरीब आहे भुकेस घेउन वनवन फिरतो

 

कधी न वर्षा प्रसन्न झाली माझ्यावरती

उन्हात आहे जरी उभा मी तरिही भिजतो

 

नभात तारे मनी शहारे गोंडसवाणे

अशा क्षणांना मिठीत घेण्यासाठी जगतो

 

गुलाब, चाफा असो नसो त्या डोईवरती

सुवर्ण चाफा मनात माझ्या रोजच फुलतो

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पिंपळ एकटा उभा… ☆ श्री सुनील यावलीकर ☆

? विविधा ?

☆ पिंपळ एकटा उभा… ☆ श्री सुनील यावलीकर 

पिंपळ एकटा उभा

आप्पाजी गेले तेव्हा मी आठ नऊ वर्षांचा असेल ..त्यांच्या जाण्याच्या स्मृती अजूनही कायम आहेत. त्यांनी मातीच्या मोठ्या भांड्यात लावलेला पिंपळ त्यांच्याशिवाय पोरका उभा होता. दर दिवशी मध्यान्ही ते त्याची तांब्याच्या छोट्या गडूतून बुडाशी पाणी ओतून पूजा करायचे.आप्पाजी गेल्यानंतर त्याला पोरकेपणाचे चटके बसायला लागले. त्याचा पुरुष भरा पेक्षाही उंच असलेला देह मलूलपणे उभा होता. मातीच्या भांड्यातील माती सुकत चालली होती. शेवटी वडिलांनी त्याला घराबाहेर लावायचे ठरवले. घराच्या मागच्या भागात असलेल्या मारुतीच्या देवळा समोर लावावे असे मी सुचवले. देवळाच्या बाजूला विहीर होती विहिरीच्या खालच्या बाजूला थोड्या अंतरावर दोन तीन हात खोल खड्डा खणला. मातीच्या भांड्यासह पिंपळाचे झाड उचलून त्या खड्ड्याजवळ आणले. भोवतालचे मातीचे भांडे फोडताच मातीत एकजीव झालेली एकमेकांना घट्ट धरून गुंतून असणारी त्याची मुळे मोकळी झाली. त्याला तसेच त्या खड्ड्यात सोडले आणि स्थानांतर होऊन एका जागी तो स्थिर झाला .

खड्ड्यात अजून थोडी माती ढकलली. त्याच्या खोडाभोवती वर्तुळाकृती छोटी नाली खोदली. विहिरीवर बाया सकाळ-संध्याकाळ पाणी भरायच्या. विहिरी भोवती पाणी सांडायचे .

विहिरीच्या उतारावरून एक छोटी नाली काढून पिंपळाच्या आळाशी जोडली. विहिरीच्या काठावर सांडलं उबडलं पाणी नालीतून थेट पिंपळाच्या आळ्यात पोहोचायचं.  पिंपळाचे खोड हाताच्या मुठीत मावेल एवढे होते. त्याला गाय-बैल या कोणत्याही प्राण्याने अंग घासले तर मोडून जाईल या चिंतेनं त्याच्याभोवती बोराटीच्या काट्यांचे कुंपण केले. आता जोमाने वाढेल. आपल्यासोबत त्याची वाढही अनुभवता येईल…

 त्याची वाढ अनुभवताना आपल्या बालवयाची किती वर्षे उलटून गेली कळलंच नाही.

आता त्याचे खोड दोन्ही हातांच्या पंजात मावण्यापेक्षाही मोठे झाले होते .त्याने आपली जागा कोणत्याही संरक्षणाशिवाय पक्की केली होती. काट्यांच्या बाह्य कुंपणाची गरजच नव्हती .

या आठ वर्षात विहिरही खोल  गेली होती. आटत चालली होती .तिथे पाणी भरणाऱ्या बाया हातपंपा कडे वळल्या होत्या …त्याची मुळे खोलखोल गेली होती. आता त्याला बाहेरून मिळणाऱ्या पाण्याची गरज नव्हती. तो खऱ्या अर्थाने स्वावलंबी झाला होता. त्यामुळे मीही निश्चिंत झालो होतो. तो सर्वांगानं फुलत होता .त्याच्या या फुलत्या वयात आपलेही फुलते वय मिसळत होते. त्याच्या उमलत्या तांबूस कोवळ्या पानांची लव वात्सल्य जाणीव फुलवत होती. कालांतराने पाने पोपटी होत गडद हिरवी होऊन सळसळत होती .त्या सळसळण्यातून आपण कितीदा मावळणारा चंद्र अनुभवला,कितीदा सूर्यास्त  अनुभवला..त्याच्यापाठीमागे उमटलेले

 सूर्यास्ताची फिके केशरी रंग गडद होई पर्यंत त्याचे सळसळणे अनुभवलेले.. बाल रंगात रंगविलेल्या चित्रांच्या जीर्ण कागदी स्मृतींच्या रंगछटा अजूनही जपून ठेवल्या आहेत.. आपण त्याच्यासोबत एकांत घालवलेले कितीतरी क्षण अंतर्मनाच्या तळ कप्प्यात साठवून ठेवले आहेत…..

…शेती माती जगवण्यास असमर्थ ठरली.. त्यामुळे पोटापाण्यासाठी गाव सोडावे लागले ..

दररोजची त्याची भेट दोन तीन महिन्यांवर गेली. गावाला आलो की त्याला भेटल्याशिवाय आपली भेटच पूर्ण व्हायची नाही.  घरासमोरच बाभूळबन, वाहणारी  रायघोळ माय आणि आपला पिंपळ हेच खऱ्या अर्थाने आपलं जैव कुटुंब होतं बालपणात .त्यांची उराउरी भेट झाल्याशिवाय समाधान होत नव्हतं .त्यांच्या भेटीचा गंध उरात भरून पुढचे दोन-तीन महिने काढता यायचे .

पुढे पुढे बाभूळबन ,नदी यांच्या भेटीत त्रयस्थता जाणवायला लागली ..

त्यांच्या देहबोलीत एक प्रकारची उदासीनता दिसायला लागली ..

ते पहिल्यासारखं मन उघडे करून वागत नव्हते. घर ही आपले खांदे पाडून बसलं होतं. त्याला कितीही डागडुजी केली तरी पहिल्यासारखं खुलत नव्हतं. पिंपळाचे मात्र तसे नव्हते, तो नव्या झळाळीने सळाळत होता. त्याची सळसळती  भेट आपलं बालवय जागवून तीच सळसळ निर्माण करीत होती. आता त्याच्या खोडाने हाताच्या मिठी इतका आकार धारण केला होता. एका हाताच्या मुठीत मावणारा त्याचा आकार आणि आताचा ही त्याची वाढ स्तिमित करणारी होती .आपण त्याला घट्ट मिठी मारून कितीतरी वेळ बिलगलेलो.. त्याच्या खोडावर डोकं टेकवून त्याची सळसळ अनुभवलेली. पश्चिमेचे क्षितीज तेच आणि मावळणारा चंद्रही तोच .बाकी सर्व बदलत गेले. पिंपळ ,क्षितिज आणि चंद्र मात्र आपल्या अवस्थेत कायम असलेले .काहीही न बोलता त्याचा माझा संवाद सुरू व्हायचा …

……..गावावरून कोणी आलं की,आपली पिंपळाची चौकशी ठरलेली…

 नेहमीप्रमाणे भावाकडे पिंपळा बद्दल बोलायला लागलो.. तेव्हा तो काही वेळ स्तब्ध राहिला. तो काहीच बोलत नाही हे पाहून त्याला पुन्हा विचारलं, त्यांनं जे सांगितलं ते ऐकून खूपच हादरलो ..शक्तिपात झाल्यासारखं वाटायला लागलं. पिंपळा शेजारी राहणाऱ्याने पिंपळाला मुळापासून तोडले होते. बालपणापासूनचा माझा जीवसखा एका मूर्ख माणसाच्या क्रूर कुर्‍हाडीचे घाव झेलून उन्मळला होता …..

आता गावात कसे जावे.. असे किती दिवस सुन्न गेले आपले ..

मोठा धीर धरून आपण गावात गेलेलो… घरा मागचे दार उघडून  पिंपळाच्या जागेकडे पाहिले .बुडापाशी बुंध्याची  निर्जीव खूण शिल्लक फक्त.. दार बंद केले डोळे डबडबले ..

 

त्याने पिंपळावर नाही घाव घातला.. आपल्या बालपणावर घातला….

ही तीव्र भळभळती जाणीव ओघळायला लागली..

आता गावात काय उरले..

बाभुळबनाची अनोळखी तिसरी पिढी  म्हातारपण भोगत उभी आहे ,ती आपल्याला ओळखत नाही. वाहणार्‍या रायघोळ नदीमायचे  रूप स्मृतिभ्रंश झालेल्या म्हातारी सारखे झालेले आहे ..

भावकीत घर ही हरवलं . गावात आता आपल्यासाठी उरलंच काय ही जाणीव देह मनाला कुरतडत राहते.

 

© श्री सुनील यावलीकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ।। अरब आणि उंट ।। — भाग 2 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले

?जीवनरंग ?

☆ ।। अरब आणि उंट ।। — भाग 2 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

( तिकडे काहीच पैसे  सेव्ह नाही झाले.मला दुसरा फ्लॅट घेणं शक्य नाही. आणि औंधचा माझा फ्लॅट किती लहान आहे. मी कसला तिथे रहातोय. आजींचा केवढा प्रशस्त आहे ग !” रमाला हे ऐकून भयंकर संताप आला.) इथून पुढे —

तिला हे ऐकू गेलंय, हे सुदैवाने अखिलला समजले नव्हते. रमा उठून संध्याकाळी वीणाकडे गेली. वीणाला हे सगळे सांगितलं तिने. म्हणाली, “ वीणा मी आत्तापर्यंत तुला काही सांगितलं नाही ग. आपलेच दात आणि आपलेच ओठ ! माझ्याच मुलीचा मुलगा ग हा … पण काय वागते त्याची ती बायको ! आणि कसली  ती   मॉंटेसरीतली नोकरी आणि काय तो रुबाब..  वीणा, हे लोक आल्यापासून माझं स्वातंत्र्य आणि स्वास्थ्य हरवून गेलंय. तुला सांगितलं नाही मी, पण अखिलने घरात एक पैसाही दिला नाही, की किराणा, दूध किती लागतं तेही विचारलं नाहीये. मला कशालाच कमी नाहीये ग, पण हा युरोमध्ये पैसे मिळवून, परदेशी राहून आलेला मुलगा ना ? इतकी स्वार्थी असतात का ग आपली मुलं?” .. रमाच्या डोळ्यात पाणी आलं. वीणाने सगळं शांतपणे ऐकून घेतलं. “ रमा, तू का रडतेस? हे बघ! कित्ती शहाणपणा केलाय आपण, की पूर्वीच मृत्युपत्र करून ठेवलं. तेही रजिस्टर केलं, म्हणजे कोणतीही कायदेशीर त्रुटी नको. त्यात तू स्पष्ट लिहिलं आहेस ना, की हा तुझा फ्लॅट, तुझ्या पश्चात मुलगा आणि मुलीला जावा ! मग आता या नातवाचा संबंधच येतो कुठं? मुळीच देऊ नकोस. हा तुला घराबाहेर काढायलाही कमी करणार नाही रमा.  त्यातून तुझ्याच मूर्ख लेकीची फूस आहेच त्याला. तू आता शांतच बस. नुसती गम्मत बघ आता, काय काय होते ते. मग बघू या त्याची चाल. मी आहे ना तुझ्यासाठी ? कशी ग ही आपलीच म्हणायची माणसं … अजिबात खचून जाऊ  नकोस तू. घर आपलं, पैसा आपला … का म्हणून भ्यायचं ग यांना. जा निवांत घरी ! काहीही समजलंय असं दाखवूच नकोस. येऊ दे त्यांच्याचकडून पहिली खेळी.” …. वीणाकडून रमा मानसिक बळ घेऊनच आली.

 महिना काही न होता गेला आणि एक दिवस अखिल म्हणाला, “आजी, तू अशी एकटी किती दिवस राहू शकणार? आता सत्तरी उलटली की तुझी ! मी काय म्हणतो, आता गेले वर्षभर आपण एकत्र राहतोय, तसं कायम राहायला काय हरकत आहे? मामाच्या मुलाला या घरात इंटरेस्ट नाही. तो परदेशातून काही परत येत नाही बघ. मग राहिलो मीच ! मी कायम राहीन तुझ्याजवळ !” .. रमा धूर्तपणे म्हणाली,” हो रे अखिल, किती छान होईल तू शेवटपर्यंत माझ्याजवळ राहिलास तर ! मलाही नातवाचा आधार होईल.”  

— अखिल आणि रेणूची नेत्रपल्लवी रमाच्या लक्षात आलीच.

अखिल म्हणाला, “आजी, मग  तू हा फ्लॅट माझ्या नावावर कर ना ! म्हणजे मलाही कायदेशीर हक्क राहील ग …  तुला खात्री आहे ना, आम्ही तुला कधीच अंतर देणार नाही याची ? तुझं दुखलं खुपलं, म्हातारपण नीट बघू?” …. “ होय रे अखिल. मला तू आणि शिरीषमामाची दोन, अशी तिघेच तर आहात तुम्ही. ” 

अखिलच्या  कपाळावर  आठी उमटली. “ मामाची मुलं? अमोल आणि अपूर्व? छेछे.. ती काय करणार तुझं ? इथंआली तर करतील ना ! कायम एक दुबईला दुसरा  फ्रान्स ला! काय कमी आहे त्यांना? आणि इथं कशाला येतील ती दोघे? अग आजी, मीच  बघणार तुझं सगळं ! तू माझ्या नावावर करून दे फ्लॅट. मी फुलासारखा जपेन तुला ! “  रमा तिथून निघून गेली, काहीही न बोलता ! 

एक महिना तसाच गेला. रमा सगळे अपडेट्स वीणाला देत होतीच. एक दिवस अखिल म्हणाला, “आजी, उद्या आई येतेय. कित्ती दिवसात आलीच नव्हती. मध्यंतरी  आम्हीच आईबाबांना भेटून आलो, त्यानंतर ती कुठे आलीय ना पुण्याला? आता खास आपल्या सगळ्यांना  भेटायला येतेय आई.” … ‘ आता ही कोणती नवी चाल ‘  असं मनात आलंच रमाच्या ! ठरल्यादिवशी  माया बंगलोरहून आली. आल्याआल्या आईच्या गळ्यात पडली !  ‘ किती ग आई तू करतेस, किती पडतं तुला सगळं ‘ , असं म्हणून झालं. चार दिवस लेक सून नात यांच्याबरोबर फिरण्यात गेले.

जायच्या चार दिवस आधी म्हणाली, “आई, किती म्हातारी होत चाललीस ग तू. बरं झालं ना देवानेच अखिल ला पाठवलं,तुझ्यासाठी ! तू आता असं कर..  हा फ्लॅट अखिलच्या नावाने करून  टाक. ती शिरीषची पोरं कशाला येतात इकडं आई? आपला अखिलच तुला सांभाळेल बरं! कधी करूया ट्रान्सफर मग डॉक्युमेंट्स? म्हणजे हे पण येतील बंगलोर हून. “

रमा हे ऐकून थक्क झाली. स्वतःच्या पोटची मुलगी इतकी स्वार्थी होऊ शकते? हा अखिल आणि त्याची ती आळशी उनाड  बायको काय सांभाळणार मला? देवा ! मी हे जर प्रत्यक्ष माझ्या कानांनी ऐकलं नसतं  तर माझाही विश्वास बसला नसता यांच्या मनातल्या स्वार्थी हेतूवर. रमा म्हणाली, “ माया उद्या बोलूया आपण हं.”  

दुसऱ्या दिवशी सगळी मंडळी हॉलमध्ये जमली. रमाची अशी सुटका होणार नव्हती. 

रमा म्हणाली, ” कालपर्यंत तुम्ही सगळे बोलत होतात आणि मी ऐकत गेले, पण आता माझं  नीट ऐका. अखिल,आज दीड वर्ष झालं, तू तुझी बायको, मुलगी इथं रहाताय. किती खर्च केलात घरात? परदेशी राहून आलेले लोक ना तुम्ही? साधं  दुधाचं बिल, सुलूबाईंचा तुमच्यासाठी वाढवलेला पगार, किराणा, भाजी, याची तरी कधी चौकशी केलीत का? नशीब मला भरपूर पेन्शन आहे. नाहीतर मी कुठून केला असता हा डोईजड खर्च रे?  तू खुशाल म्हणतोस, मामाच्या मुलांना गरज नाहीये या फ्लॅटची. हे तू कोण ठरवणार रे? जसा मला तू नातू, तसेच तेही नातूच. कधी पाच वर्षात म्हणालास का, ‘आजी लंडनचा काही फार मोठा प्रवास नाही, ये ना माझा संसार बघायला.’  मी सहज येऊ शकले असते रे,,स्वतः  तिकीट काढून ! तू तरी म्हणालीस का ग माया? उलट अपूर्वने मला दुबईला स्वतः बरोबर नेऊन आणले. सगळी दुबई दाखवली. मी फ्रान्सलाही गेलेली आठवतेय का रे? अमोलकडे? काडीची तोशीस पडू दिली नाही मला पोरांनी. आणि किती गोड त्यांच्या बायका… खरोखर सांगते, मला इकडची काडी नाही तिकडे करू दिली त्या मुलींनी ! दुबईची सून तितकीच गोड आणि फ्रान्सची पण अशीच लाघवी. यात तुझी सून कुठेतरी बसते का माया? तूच बघ ना. मारे लंडनहून आजीकडे हक्काने आलात, काय आणलेत आजीला? हे बघ.. मला तुमच्याकडून खरंच काहीही नकोय. इथे सगळं मिळतं. पण तुमची नियत समजली मला ! अनेकवेळा हॉटेलमध्ये जाऊन जेवून येता तुम्ही, कधीही वाटलं नाही का, आजीलाही न्यावं ? मस्त आहे अजून मी तब्बेतीने ! विचारलंत का कधी एकदा तरी?— मी तुमचे दोष उगाळायला इथं बसली नाहीये. खूप दुनिया बघितलीय बरं मी ! म्हणूनच तुमच्या धोरणी आजोबांनी हा फ्लॅट फक्त माझ्याच नावावर केला. मी भाबडी आहे, व्यवहारी नाही, हे त्यांना माहीत होते. किती उपकार फेडू त्यांचे मी? “—- रमाने डोळे पुसले…. “ तर बरं का मंडळी, आहे हे असं आहे. स्वतःचा औंधचा तो तीन खोल्यांचा फ्लॅट भाड्याने दिला आहेस ना, तो लगेचच रिकामा करायला सांग. मला काही माहीत नाही असं वाटलं का? आजीने सुद्धा बँकेत 30 वर्ष नोकरी केलीय आणि ती  एम.कॉम. पण होती, हे विसरू नका. जवळजवळ दोन वर्षे आजीकडे अलिशान  चार बेडरूमच्या फ्लॅटमध्ये राहिलात. आता चार महिने मुदत देतेय. लवकरात लवकर तिकडे शिफ्ट व्हा. नाहीतर मग कुठं जायचं हा सर्वस्वी तुमचा प्रश्न आहे. माया, तुझ्या ह्यांना इथे यायची काहीही गरज नाहीये. मुळीच नको बोलावू त्यांना. मी आत्ता हा फ्लॅट तुझ्याच काय, कोणाच्याच नावावर करणार नाही. माझ्या नंतरच तुम्हाला समजेल, त्याचे काय करायचे ते. सहा वर्षाची ही तन्वी मला विचारते — ‘ आजी तू इथे का राहतेस? दुसरीकडे का नाही जात?’  हिचा बोलविता धनी कोण आहे, हे समजायला कोणा ज्योतिषाची गरज नाही. माझं बोलून  संपलं आहे. चार महिन्यात  गाशा गुंडाळायचं बघा. माझ्या म्हातारपणाची नका बरं काळजी करू! तीही व्यवस्था केलीय मी.” 

— रमा स्वतःच्या बेडरूममध्ये निघून गेली आणि  सगळे अचंबित होऊन एकमेकांची तोंडे बघत बसले.

— समाप्त —  

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ पालवी… ☆ श्री संजय आवटे ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆  पालवी… ☆ श्री संजय आवटे ☆

वसंताचा सांगावा घेऊन येणा-या चैत्राच्या पालवीचा धर्म कोणता? रणरणत्या वणव्यात बहरणा-या झाडांचा धर्म कोणता? ‘उन्हाच्या कटाविरुद्ध’ त्वेषाने फुलून येणा-या गुलमोहराचा धर्म कोणता?  

तरीही नववर्षाला धर्माशी जोडणारे जोडोत बापडे, आपला धर्म मात्र पालवीचा. आपला धर्म बहरण्याचा. आपला धर्म फुलून येण्याचा. हा धर्म ज्याला कळतो, त्यालाच झाडांची हिरवाई खुणावते, त्यालाच निळं आकाश समजतं. आणि, 

“चंद्रोदय नव्हता झाला, आकाश केशरी होते”, हा केशरी रंगही त्यालाच मोह घालतो ! 

परवा असंच तळेगावला जायचं होतं. ड्रायव्हर म्हणाला, ” सर, मामुर्डीचं जे चर्च आहे ना, तिथून पुढं गेलं की बुद्ध विहार आहे. तिथून सरळ पुढं जाऊ. तसे आलो, तर आयोजकांचा फोन आला- तळेगाव स्टेशनच्या जैन मंदिराकडं या. मग आपण पुढं जाऊ. आयोजक तिथं भेटले. गेलो, तर प्रत्यक्ष कार्यक्रम गणपती मंदिरात. तिथं शेजारीच डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरांचा टुमदार बंगला. बौद्ध धर्माची दीक्षा घेण्याचा त्यांचा विचार इथंच अंतिम झाला, असं म्हणतात. अवघ्या दहा किलोमीटरच्या प्रवासात कुठं कुठं जाऊन आलो!  

हा भारत आहे. 

उद्यापासून रमजान सुरू होईल. 

पुण्याजवळच्या खेड शिवापूरला दर्गा आहे. हजरत कमर अली दुर्वेश रह दर्गा. रमजान आला की या गावातले सगळे कोंडे-देशमुख रोझे ठेवतात. एवढेच नाही, रमजानमध्ये, तिथल्या उरूसात देशमुखांचा मान असतो.

अशी कैक उदाहरणं देता येतील. 

भारताची ही गंमत आहे. 

हिंदुत्वाचं राजकारण करून थकलेल्या नेत्याला अखेर जावेद अख्तरांचा आदर्श जाहीरपणे सांगून नववर्ष साजरं करावं लागतं, ही खरी मजा आहे. जावेद यांनी पाकिस्तानात जाऊन बरंच सुनावलं, हे भारी आहेच. पण, भारतात राहून ते रोज काही सुनावत असतात. तेही ऐकावं लागेल मग ! कारण काहीही असो, पण हिंदू मतपेटीचं राजकारण करणा-यांना जावेद अख्तर सांगायला लागणं, असा ‘क्लायमॅक्स’ सलीम-जावेद जोडीला सुद्धा कधी सुचला नसता. 

पण, तीच भारताची पटकथा आहे ! 

साळुंब्र्याच्या प्राथमिक शाळेपर्यंत चालत चालत आलो. तर, पोरं ‘ खरा तो एकचि धर्म, जगाला प्रेम अर्पावे ‘, ही साने गुरूजींची प्रार्थना म्हणत होती. 

वाटलं, हे वेगळं सांगण्याची गरजही भासू नये, इतकं भिनलेलं आहे ते आपल्या मनामनात. इतकं नैसर्गिक आहे हे. अर्थात, उगाच नाही उगवलेलं हे. त्यासाठी मशागत केलीय आमच्या देहूच्या तुकारामानं. आळंदीच्या ज्ञानेश्वरानं. कबीरानं. त्याहीपूर्वी बुद्धानं. म्हणून तो वारसा सांगत आज ही पोरं प्रेमाचा धर्म सांगू शकताहेत. 

या प्रेमाच्या धर्मावर आक्रमण करणारे मूठभर प्रत्येक काळात असतात. त्यांचा विजय झाला, असं काही काळ वाटतंही. पण, युद्ध संपतं. बुद्ध मात्र उरतो. मंबाजी संपतो, तुकोबा उरतो. शेणगोळे विरतात, सावित्री-ज्योतिबा उरतात. 

विष्णुमय जग वैष्णवांचा धर्म। 

भेदाभेद-भ्रम अमंगळ॥ 

हाच धर्म अखेरीस जगज्जेता ठरतो. 

आपण चालत राहायला हवं, या पोपटी पालवीकडं पाहात. जोवर ही पालवी येते आहे, तोवर निसर्गानं आशा अद्याप सोडलेली नाही, हे नक्की आहे ! 

तुम्ही का सोडता? 

© श्री संजय आवटे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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