हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 159 ⇒ अच्छे विचारों का अकाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अच्छे विचारों का अकाल”।)

?अभी अभी # 159 ⇒ अच्छे विचारों का अकाल? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आजकल मौलिक और अच्छे विचारों का इतना अभाव हो गया है, कि मेरा यह शीर्षक भी मौलिक नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “अच्छे विचारों का अकाल” इसका जीता जागता उदाहरण है, जिसके लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद श्री अनुपम मिश्र हैं। श्री मिश्र का इतना ही परिचय पर्याप्त है कि वे सुविख्यात कवि श्री भवानीप्रसाद मिश्र के सुपुत्र हैं।

मनुष्य ईश्वर की एक अनुपम कृति है। मनुष्य को इस जगत का सर्वश्रेष्ठ प्राणी यूं ही नहीं माना जाता। हमारी संभावनाओं का आकाश कितना विस्तृत और विशाल है, हम ही नहीं जानते। सीखने से ही तो जानना शुरू होता है। सतत अभ्यास, चिंतन मनन और अध्ययन का ही यह नतीजा है कि मनुष्य ने जितना खोजा है, उससे अधिक ही पाया है और विज्ञान इतने आविष्कार कर पाया है।।

शक्ति किसी की भी हो, होगा कोई अज्ञात अदृश्य नियंता, लेकिन यह मनुष्य ही हर जगह आगे बढ़ा है, कदम से कदम मिले हैं और उसने हर क्षेत्र में आशातीत सफलता पाई है, उसकी ही मेहनत और लगन का यह नतीजा है कि उसने एवरेस्ट पर और चांद पर भी विजय पताका फहराई है।

हम सब एक मिट्टी के ही तो बने हैं, फिर क्यों आज हमारी मौलिकता को जंग लग गया है। अचानक ऐसा क्या हो गया है कि हमने सोचना ही बंद कर दिया है। आजकल हमारे लिए कोई और ही सोचता है, और हम उसकी ही जबान बोलने लग गए हैं।।

याद आते हैं वे दिन, जब कैसे कैसे विचार अगड़ाई लेते थे, कभी दुनिया को बदल देने का ख्वाब आता था तो कभी उस दुनिया के रखवाले से जवाब तलब करने का मन होता था। एक आग थी, शायद वह अब बुझ गई है।

आज इस सोशल मीडिया के युग में हमारे लिए सोचने के लिए थिंक टैंक मौजूद है, फोटो शॉप के साथ साथ आईटी सेल भी हैं, और पूरी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है, जो हर पल आपको कथित ज्ञान फॉरवर्ड करती रहती है।

आप यंत्रवत, एक ऑपरेटर की तरह, किसी से ऑपरेट होते रहते हो।।

लगता है, हमारे विचारों को, हमारी मौलिकता को दीमक लग गई है। अगर अलमारी में रखी किताबों की देखभाल नहीं की जाए, तो इन्हें भी दीमक खा जाती है, हम कहां आजकल अपने दिमाग की खिड़की खुली रखते हैं।

बाहर के खुले विचारों की हवा का अंदर प्रवेश ही नहीं हो पाता। बस सोशल मीडिया ने जो आपको परोस दिया, उससे ही आपका पेट जो भर जाता है। यही तो है विचारों का जंक फूड, पास्ता, मैगी और बर्गर जो आपको ऑनलाइन स्टोर्स, भर भर कर, घर बैठे उपलब्ध करवा रहा है।

जब चिंतक और विचारक, राजनीतिक प्रचारक बन जाए तो समझिए, अच्छे और मौलिक विचारों का अकाल पड़ गया है। इस विकृति से बचने के लिए हमें वापस प्रकृति की गोद में ही जाना होगा। उन्मुक्त और स्वच्छंद विचार अभिव्यक्ति की प्राणवायु है। हमारे अंदर के प्रेम के झरने को फूटने दें, दिमाग के ओजोन परत की भी कुछ चिंता करें, जंक फूड ना खाएं, ना परोसें। आइए अच्छे विचारों की पैदावार बढ़ाएं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 207 ☆ लघुकथा – “डमी कैमरा…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – डमी कैमरा)

☆ लघुकथा – ‘डमी कैमरा’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

दीपावली में सब लोग मिलने मिलाने एक दूसरे के घर आया- जाया करते हैं, जो घर आता है उसे लोग अपनी हैसियत से खिलाते पिलाते भी हैं।  

दीवाली के दूसरे दिन मैं अपने एक मित्र के यहां गया, उसने ड्राइफ्रुट से भरी एक ट्रे लाकर मेरे सामने रख दी। थोड़ी देर बातचीत हुई, हैप्पी दिवाली, बधाई, शुभकामनाएं आदि की औपचारिकता के बाद वो चाय लेने अंदर चला गया तभी मैंने मुठ्ठा भरकर पिस्ते खाने के लिए उठाया ही था कि मेरी नजर सामने लगे CCTV कैमरे पर गई और फिर मैंने कैमरे को गाली देते हुए एक ही पिस्ता खाया।

जब चाय लेकर मित्र आया तो उससे पूछा कि ये कैमरे कितने में लगाए हो तो उसने हंसते हुए बताया कि ये तो डमी कैमरा है, हर साल दिपावली पर इस ड्राइंग रूम में लगा देता हूँ… आप तो जानते ही हैं कि दुनिया में तरह तरह के लोग होते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 148 ☆ # बेबंदशाही… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# बेबंदशाही… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 148 ☆

☆ # बेबंदशाही#

गरीबी निर्धन को कितना रूलाती है

जीवन ओर मृत्यु के बीच झुलाती है

झूठे वादों, खोखले आश्वासनों के झूले में

भूखे को खाली पेट सुलाती है

 

यह हमने कैसी व्यवस्था बनाई है

अमीर-गरीब के बीच खाई है

भूखे रोटी के लिए लड़ रहे हैं

अमीरों ने विश्व स्तर पर छलांग लगाई है

 

कुछ सूरमा नफरत का अस्त्र घोंप रहे हैं 

अपनी विचारधारा दूसरे पर थोप रहे हैं 

रक्तरंजित हो गई सामाजिक व्यवस्था

बुद्धिजीवी हतप्रभ बस सोच रहे हैं

 

गली गली में हो रही जंग है

दिवालों पर पुता लाल रंग है

भाईचारा, प्रेम, सद्भाव भस्म हो गया

आम आदमी देखकर दंग है

 

उद्दंडता सारी सीमाएं तोड़ रही हैं 

न्याय को अपने पक्ष में मोड़ रही हैं 

जो कह दे, वहीं सत्य है

कायदे, कानून पीछे छोड़ रही है

 

यह एक जुर्म है, जीवन मूल्यों की तबाही है

कैसा समय है, झूठ की वाहवाही है

हम सब है जिम्मेदार इसके लिए

क्योंकि,

यह तो एक बेबंदशाही है /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पाऊस… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पाऊस… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

आस फुलते मनात

देता चाहूल पाऊस

वादळाच्या सोबतीने

चळवळतो पाऊस

 

रान तापते उन्हात

मग मागते पाऊस

गंध मातीचा हुंगाया

तळमळतो पाऊस

 

शेती माती पिकवाया

येतो धावत पाऊस

हळू  हळू  धरेवरी

घरंगळतो पाऊस

 

आभाळाच्या गाभाऱ्यात

जातो धावत पाऊस

रान गारठा पाहून

अडखळतो पाऊस

 

बरसता धुवाधार

फार थकतो पाऊस

रान ओलं गंधाळता

डळमळतो पाऊस

 

जोर ओसरतो तेव्हा

शांत वाटतो पाऊस

मंदवा-याच्या तालात

कळवळतो पाऊस

 

ओढ्या नाल्यांचा सोबती

मग बनतो पाऊस

धार होऊन पाण्याची

खळखळतो पाऊस

तनामनात सारखा

रोज मुरतो पाऊस

चैतन्याच्या रुपातून

सळसळतो पाऊस

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अद्वैताचा साक्षीदार… ☆ डॉ. मधुवंती कुलकर्णी ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अद्वैताचा साक्षीदार… ☆ डॉ. मधुवंती कुलकर्णी ☆

पाऊस असा कोसळतो

धक धक धडकी भरतो

वणवाच उरी चेततो

बेभानपणे अवतरतो

 

गोष्टीत ॠतुंच्या रमतो

गालांवर टप टप पडतो

केसांत बटांवर झुलतो

ओठांवर चिंब नहातो

 

कंकणात किण किण करितो

मुरलीसम अधरी धरितो

तिन्हीसांजे वचनी बुडतो

झोपडीत अधीर होतो

 

पाऊस असा कोसळतो

राधे सह रंग बहरतो

सावळ्यात रंग विरघळतो

अद्वैत उराशी घेतो

 

पाऊस नभातून येतो

थेंब थेंब झिरपत रहातो

 ज्ञानदेवे ओवी गातो

अद्वैत मुळाशी धरितो

 

पाऊस सरींचा येतो

मुक्तेचे गाणे गातो

लखलखता प्रकाश देतो

गात्रात विजेसम भरतो.

 

पाऊस कधी पण येतो

टाळात तुकोबा रमतो

बेभान होत नाचतो

विठ्ठलात दंग रहातो

 

पाऊस साक्षही होतो

अध्यात्म मनाचे जपतो

पण प्रियाराधनी रमतो

द्वैतीद्वैत मिसळतो

 

पाऊस असा रिमझिमतो

मौनात मौन रिझवितो

अद्वैत पाहुनि खुलतो

निश्चिंत करुनिया जातो.

© डॉ. मधुवंती कुलकर्णी

जि.सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 144 ☆ निर्मळ… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 144 ? 

☆ निर्मळ…

मनाची औदार्यता असावी

मनाची सौंदर्यता जपावी

मन उदार करून सहज

स्नेहाची उधळण करावी…!!

 

स्नेहाची उधळण करावी

सहिष्णूता, जपावी

वाट्यातील वाटा देतांना

अहंकाराची झालर नसावी…!!

 

अहंकाराची झालर नसावी

सहजतेने मुक्त व्हावे

क्षणभंगूर जीवनात आपुल्या

काहीतरी निर्मळ कार्य करावे…!!

 

काहीतरी निर्मळ कार्य करावे

कीर्ती गंध पसरवून द्यावा

शेवटी काय राहते भूव-री

याचा विचार स्वतः करावा…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “शेतकरी शेतमाल आणि भाव….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

🌸 विविधा 🌸

☆ “शेतकरी शेतमाल आणि भाव…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

खरं म्हणजे याबाबतीत कित्येक वर्षै तेच चर्वित चर्वण ऐकतो आहे. शेतमालाला भाव का मिळत नाहीत ?  तसं पाहिलं तर भाज्या महाग झाल्या तर असा किती फरक कोणाचेही बजेटमध्ये पडणार आहे ?  नाही म्हणलं तरी कांदे बटाटे हे सुद्धा शंभरीच्या जवळपास अनेक वेळेला जाऊन आलेले आहेत. शेतमालाचे भाव वाढले की सगळ्यांचेच एकदम वाढत नाहीत. कुठल्यातरी  दोन तीन गोष्टींचेच भाव वाढतात. बाकीच्यांचे कमीच असतात. त्यामुळे ज्यांना बजेट सांभाळायचे आहे त्यांनी जास्त भाव असलेल्या भाज्या काही दिवस खाऊ नयेत.  भाव वाढले तरी किती दिवस वाढलेले राहतात? महिना दोन महिन्यात पुन्हा शेतकऱ्याला भाव मिळत नाहीतच. शेतकऱ्यांच्या हिताची सगळीच सरकारे येऊन गेली. प्रत्येक सरकार शेतकरी हिताचे निर्णय घेते असे म्हणतात.  तरीही शेतकऱ्यांना शेतमालाला भाव मिळावेत यासाठी आंदोलन करावेच लागते.  अगदी शरद जोशींच्या रस्ता रोको पासून आम्ही पाहतो आहोत.  कोणतेही सरकार शेतमालाच्या भावाच्या बाबतीत उदासीन का असते ? शेतमालाचे भाव वाढल्यास साधारण  मध्यमवर्गीयांमध्येच काहीशी नाराजी पसरते.  मला असे वाटते की मध्यमवर्गीयांची मते ही कोणत्याही पक्षाच्या दृष्टीने महत्त्वाची असतात. कारण तेच मोठ्या संख्येने मतदान करणारे मतदार असतात.  या मतदारांच्या नाराजीला घाबरून कोणतेही सरकार शेतमालाच्या भावांबद्दल निर्णय घेत नाही असे वाटते.

खरं म्हणजे सगळ्याच शेतमालाचे कमीत कमी भाव म्हणजेच बेसलाईन एकदा ठरवून घ्यावी आणि दरवर्षी सरकारी कर्मचाऱ्यांना जशी महागाई निर्देशांकाप्रमाणे वाढ मिळते त्याप्रमाणे शेतकऱ्यांच्या भावालाही महागाई निर्देशांका प्रमाणे वाढ मिळावी असे ठरवून टाकावे.  काय हरकत आहे ? सर्व पक्षांनी येत्या निवडणुकीत आम्ही निवडून आल्यावर शेतमालाच्या भावासंबंधी आम्ही काय करणार आहोत आणि शेतमालाला नक्की कमीत कमी किती भाव देणार आहोत हे जाहीर करून मते मागावीत. शेतकऱ्यांकडे पैसा आला तर शेतकरी तो खर्च करतोच. शेतकऱ्याकडून पैसा खर्च झाला की तो मार्केटमध्ये येतो. मार्केटमध्ये आला की मार्केट सुधारेल. मार्केट सुधारल्यावर उत्पादन सुधारेल उद्योग सुधारतील.  संपूर्ण अर्थव्यवस्थाच मजबूत होऊ शकेल असे आपले माझ्या अल्पमतीला वाटते. यात अडचण काय आहे हे सुद्धा सर्व राजकीय लोकांनी एकदा जाहीर करावे.  पण आम्ही शेतकरी हिताचे निर्णय घेणार एवढेच म्हणून मते मागून सत्ता मिळाल्यावर, कुठलाही शेतकरी हिताचा निर्णय घेतला जात नाही. असे मागील पन्नास साठ वर्षे मी पाहतो आहे. तर मला वाटते एकदा असे होऊन जाऊ द्या. सर्व राजकीय पक्षांनी ते निवडून आल्यानंतर शेतमालाला कमीत कमी कसा आणि किती भाव देतील आणि त्याची अंमलबजावणी कशी करतील हेच त्यांच्या निवडणूक जाहीरनाम्यात जाहीर करून टाकावे.  आहे कोणी डेरिंगबाज? अर्थात जो कधीच निवडून येऊ शकणार नाही अशांनी डेरिंग दाखवण्यात अर्थ नाही हेही खरे. परंतु महत्त्वाच्या मोठ्या राजकीय पक्षांनी याबाबत निश्चित योजना आकडेवारी सह जाहीरनाम्यात जाहीर करावी. करा तर खरं एकदा डेअरिंग! माझ्यासारखे मध्यमवर्गीय सुद्धा नक्की मत देतील अशा डेरिंगबाजांना !

©  श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

Email: [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ परिवर्तन – भाग ३ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

परिवर्तन – भाग ३ (भावानुवाद) – डॉ हंसा दीप ☆ सौ. उज्ज्वला केळकर 

(मागील भागात आपण पहिले – त्या दिवसापासून त्याने आजपर्यंत कधी सायकल चालवली नाही.  कुणावर मनापासून प्रेम केलं नाही. ना माणसावर ना एखाद्या वस्तूवर. आता इथून पुढे)

आपल्यावर खूप अन्याय झालाय आणि काही झालं तरी याचा बदला आपण घ्यायचाच असा ठाम निश्चयही त्याने आता केला. इतकी वर्षे आपल्यावर झालेल्या अन्यायाचा हिशेब करत, तो मानवी नात्यांपासून दूर राहिला. त्याने कुणाला संधीच दिली नाही, त्याच्याविषयी आत्मीयता निर्माण करायची.

डॉ. हंसा दीप

कोर्टाने जेव्हा त्याला, जोएना आणि कीथ या दांपत्याच्या हवाली केलं तेव्हा त्याच्या माथ्यावर एक छत आलं. रहाण्यासाठी चांगलं घर, आणि जगण्यासाही जे जे आवश्यक, ते सारं तिथे होतं. या दोघा पती-पत्नीमध्ये कधी भांडणे झालेली त्याने पाहिली नाहीत. सगळे कसे हळू आवाजात विनम्र होऊन बोलायचे. त्या घराने कधी, कुणाचा मोठा आवाज ऐकला नव्हता. त्याच्यावर त्यांचं मनापासून प्रेम आहे, हे कधी ल्क्षातच आलं नाही त्याच्या. त्याला वाटायचं, पोलीस आणि कोर्ट यांच्या भीतीमुळे, ते त्याच्याशी चांगलं  वागतात. थोडा जरी आवाज झाला, तरी तो खडबडून उठून बसे. त्याला वाटायचं, आत्ता त्याच्या थोबाडीत बसेल. असेच दिवस जात राहिले. होता होता तो सतरा, अठरा वर्षाचा झाला. या दरम्यान त्याचे दत्तक आई-वडीलही गेले. तो शाळेत गेला होता. दोघेही रेग्युलर चेक आपसाठी डॉक्टरांकडे गेले होते. ते परत कधी आलेच नाहीत. तो शाळेतून परत आला, तेव्हा नातेवाईकांची, परिचितांची तिथे गर्दी झाली होती. त्याच्या कानावर आलं, की रस्त्यावर एका अपघातात, त्या दोघांचा मृत्यू झालाय. त्याच्या नातेवाईकांनी त्याला तिथे राहायला सांगितलं. पण तो आपल्याच नादात मुक्त पक्षाप्रमाणे, आपली वाट शोधत आपलं घरटं बनवण्यासाठी तिथून बाहेर पडला.

आता तो एकटा… अगदी एकटा होता. त्याच्या आई-वडलांना त्याच्यापासून हिरावून घेणं, हा त्याच्यावर झालेला अन्याय होता. त्यानंतर तो मिळेल ते आणि जमेल तसं काम करू लागला आणि स्वत:च स्वत:चा चरितार्थ चालवू लागाला. स्वत:ला खूश ठेवण्यासाठी जे जे म्हणून करता येणं शक्य होतं, ते सारं त्याने केलं, पण तो कुणाचा मित्र नाही बनू शकला. त्याला एकच भीती होती, कुणी त्याच्या जवळ आलं आणि हिंसक बनलं, तर काय होईल?

तो बुद्धिमान होताच. मनापासून अभ्यासही केला. जोएना आणि कीथने त्याच्या शिक्षणासाठी भरपूर खर्च केला होता. तो त्यांना निराश करणार नव्हता. ते चांगले होते, पण त्याला सतत वाटायचं, की त्यांनी त्याच्याबद्दल एवढी सहानुभूती दाखवायला नको. त्याचंच त्याला दु:ख व्हायचं. त्यांचं लाडा-कोडाचं वागणं, त्याला पोकळ वाटायचं. सगळ्यात त्याला जास्त भीती कशाची वाटायची, तर त्याच्या आत धुमसणार्‍या संतापाची. तो कधीही उसळून बाहेर येऊ शकत होता.

सगळ्याचा विचार करता करता तो खूप पुढे आला होता. आता या मनोकामनेचा अंत करण्याच्या दृष्टीने तो खूप जवळ पोचला होता. बस्स! ही शेवटचीच लाल बत्ती. त्यानंतर तो लगेचच त्या ठिकाणी पोचेल.

‘अरे साशा तू? ‘ शेवटच्या लाल दिव्याशी गाडी थांबली, तेव्हा कुणी तरी हवेत हात फडकावत म्हंटलं.

आपलं नाव ऐकल्यावर तो गडबडून गेला. त्याला वाटलं, कुणी तरी आपली चोरी पकडलीय. त्याने वळून पाहिलं. ती लीसा होती. ती आत्ता इथे काय करतेय? साशाला प्रश्न पडला. ती नेहमीच साशाच्या अवती-भवती रेंगाळायची. पण काम झाल्यावर. ‘आत्ता इथे…?’ ही तर कामाची वेळ होती. आज त्याच्याप्रमाणेच लीसानेही कामातून रजा घेतली आहे का? यावेळी लीसाशी बोलत राहीलं, तर तो आपल काम करू शकणार नाही. तिची नजर चुकवून निघून जाणंच योग्य होईल. त्याने तिला न पाहिल्याचं दाखवण्याचा प्रयत्न केला आणि गाडीत काही तरी शोधत असल्याचे नाटक करू लागला. तिथे खरं तर काहीच नव्हतं.

“साशा, साशा!” ती इतकी मोठमोठ्याने ओरडत होती, की आता तिच्याकडे लक्ष दिलं नाही, तर लोक तिला वेडीच समजतील. त्याला हार मानावी लागली.

हो. मीच! सगळं ठीक आहे ना? तू यावेळी इथे कशी? कामावर गेली नाहीस का? ‘ साशाच्या स्वरात आश्चर्य होतं आणि पाठ सोडवून घ्यायची घाईही होती.

‘आज मी रजा घेतलीय, पण तू इथे कसा? तू पण रजा घेतलीयस का?’

‘रजा नाही घेतली. पण एका मित्राला घर बदलण्यासाठी मदत करतोय. त्यानंतर कामावर जाईन.’

‘चल साशा! कॉफी घेऊयात. नंतर जा म्हणे.’ लीसाच्या डोळ्यात चमक होती, ’ठीक आहे’ साशा म्हणाला. दिवा बदलला होता आणि त्याला आपल्या लक्ष्यापर्यंत पोचायचं होतं. मधेच लीसा आली, तर सगळंच अवघड झालं असतं. त्यापूर्वी तिच्याबरोबार कॉफी होऊन जाऊ दे. काही बिघडत नाही. थोड्या वेळाने तो आपलं काम करू शकतो.

लीसाला पसंतीचा अंगठा दाखवून त्याने आधी विचार करून ठेवला होता, तिथे गाडी पार्क केली. आजचीही मुलाखत लीसाला संस्मरणीय वाटायला हवी, असा विचार करत तो तिच्यासोबत आत जाऊन बसला. त्याच्या आतल्या धोकादायक इच्छांचा तिला वासही लागू नये, यासाठी नेहमीपेक्षा तो जास्तच काळजी घेत होता. लीसाला जरा आश्चर्यच वाटलं.

‘काय झालं? आज जरा वेगळा वाटतोयस तू! ‘ लीसा म्हणाली. या आकस्मिक झालेल्या भेटीचा आनंद लीसाच्या चेहर्‍यावर झळकत होता. 

‘लीसा आज तू फार गोड दिसते आहेस.’ लीसाच्या डोळ्यात बघत तो प्रेमाने म्हणाला.

 ‘आज तू प्रथमच माझ्याकडे नीटपणे बघतोयस.’ आपले खोडकर डोळे नाचवत लीसा म्हणाली.

‘ मग काय आधी डोळे बंद होते? ‘ सगळं माहीत असूनही साशा आजाण बनू पहात होता. त्याला अभिनय काही करता येत नव्हता. आज प्रथमच तो अगदी मनापासून बोलत होता.

‘मला तरी असंच वाटतय, की तू कधी माझ्याकडे नीटपणे पाहीलंच नाहीस. मीच तेवढी अशी आहे, की कित्येक दिवसापासून तुझ्या मागे मागे फिरते आहे आणि एक तू आहेस, जो माझ्यापासून दूर दूर पळतो आहेस.’

‘माहीत आहे.’ हत्यार खाली ठेवण्यातच आपली भलाई आहे, हे साशाच्या लक्षात आलं.

‘शाळेपासून हे असंच चाललय. कधी कधी मला वाटतं मी वेडी आहे, जी तुझ्यावर एकतर्फी प्रेम करतेय. मरतेय तुझ्यासाठी. आता तर आपण दोघे मिळवायलाही लागलोत. आता तू कुठल्या गोष्टीसाठी वाट बघतोयस, कुणास ठाऊक?’ लीसा आणखी थोडी त्याच्याजवळ सरकली. तिची जवळीक साशाला चांगली वाटली. शरीराच्या ऊबेचं आकर्षण प्रथमच त्याला जाणवलं. एक वेगळीच ओढ, ज्याच्या पकडीत तो यापूर्वी कधीच आला नव्हता.

लवकरच कळेल तुला, मी कोणत्या गोष्टीची वाट पाहत होतो.’ तिचे हात आपल्या हातात घेऊन साशा म्हणाला आणि क्षणभर विसरलेलं त्याचं लक्ष्य त्याच्यासमोर आलं.

‘खरच!’  त्याच्या हाताचं चुंबन घेत लीसा म्हणाली, ‘ओह! साशा, चल, मग आपण लग्न करू. आता प्रतीक्षा करणं आवघड झालय! ‘

‘लीसा तू चांगली मुलगी आहेस. किती तरी चांगली मुले तुला मिळू शकतील. ‘ तिचा आनंद साशाला जाणवत होता, पण एक शंकाही होतीच.

‘अनेक जण मिळतील, पण तू नाही ना मिळणार! बरं ते जाऊ दे. हा भाड्याचा ट्रक घेऊन तू निघलाहेस कुठे? घर बदलण्यासाठी कुठल्या मित्राची मदत करायला निघाला आहेस?’

‘आहे एक जुना दोस्त. ‘ पुन्हा एकदा आपली विचारांची गाडी रुळावर आणीत साशा म्हणाला. ‘लीसा प्लीज़ आता मला जाऊ दे. जरा घाईत आहे. ल्ग्नासारख्या गोष्टीवर विचार करण्यासाठी थोडा वेळ तरी हवा ना!’

‘ हो! हो! नक्कीच! जरूर वेळ घे, पण इतकाही वेळ लावू नको, की आपण म्हातारे होऊ. पण साशा आज आणखी थोडा वेळ थांब ना! जीवनातील हे रोमांचक क्षण, मी आणखी थोडा वेळ अनुभवू इच्छिते.’ लीसाला प्रथमच इतक्या निवांतपणे    साशा भेटला होता आणि हे क्षण ती हातचे जाऊ देऊ इच्छित नव्हती.  

‘ नाही लीसा मला जायला हवं. मी माझ्या दोस्ताला वेळ दिलीय.’  साशाच्या डोक्यातील विचारांची वावटळ त्याला घाई करायला उसकत होती.

‘मी पण येऊ का तुझ्याबरोबर?’

‘नको.’ तिचा पाठलाग चुकवणं, तसं आधीपासूनही त्याला अवघड वाटायचं. तिला खूप आवडायचा तो, पण तिला माहीत नाही, आज त्याचा वाढदिवस आहे. हा वाढदिवस त्याच्यासाठी खास आहे. आज त्याचात परिवर्तन होणार आहे. यानंतर ना आठवणी रहातील, ना तो. ना भूतकाळ राहील, ना भविष्यकाळ.

कॉफी शॉपमधून उठून आता तो तिला बाय म्हणत होता, एवढ्यात त्याच्या समोरून एक ट्रक धडधडत- खडखडत निघाला आणि फुटपाथवर चढला. फुटपाथवर चढताच त्याने अशी गती पकडली की जणू जमिनीवर कुणीच नाही आहे. त्याचा अ‍ॅक्सीलेटर दाबला जात होता आणि किंचाळ्यांचा आवाज  आकाश फाडू पाहात होता. भूकंप झाला होता जसा. जो तो जीव वाचवण्यासाठी पळू लागला होता. कुणी वाचले. कुणी टायरच्या खाली आले. कुणी मधेच अडकून ओढले जाऊ लागले. आता सगळीकडून पायी चालणारे वाट फुटेल तिकडे अंदाधुंद पळत सुटले. गर्दीला डोळे नव्हते. गर्दी मेंढीच्या चालीने निघाली होती. सगळे पळत होते, बस! जो कुणी फुटपाथवर मधे होता, तो त्या ट्रकच्या पकडीत होता. डाव्या-उजव्या बाजूला पळणारे लोक धक्क्यांनी कधी या बाजूला, तर कधी त्या बाजूला पडत होते. असं वाटत होतं, की ट्रक चालवणारा डोळे बंद करून ट्रक चालवतोय. लोकांना चिरडत पुढे पुढे निघालाय. अशा तर्‍हेने तर कुणी किडा—मुंग्यांनाही चिरडत नाही.

क्रमश: भाग ३

मूळ हिंदी  कथा 👉 शत प्रतिशत’– मूळ लेखक – डॉ हंसा दीप

अनुवाद –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ दि लास्ट एम्परर… भाग-१ – लेखक : श्री राज ठाकरे ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

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☆ दि लास्ट एम्परर… भाग-१ – लेखक : श्री राज ठाकरे ☆ श्री सुनीत मुळे ☆

‘प्रभुकुंज’मध्ये मी एकदा ‘विम्बल्डन’ची एक जबरदस्त मॅच पाहिली होती. मी आणि लतादीदी सोफ्यावर गप्पा मारीत बसलो होतो. तेवढ्यात समोरून मीनाताई आल्या. आमच्या गाण्यांबद्दलच्या गप्पा ऐकून त्याही बसल्या. मग ‘अगं दीदी, ही हरकत अशी नाही, अशी आहे’ वगैरे त्या सांगू लागल्या. इतक्यात उषाताई आल्या, त्या गप्पांत सामील झाल्या. या गप्पा सुरू असल्याचं पाहून हृदयनाथजी आले आणि तेही गाण्यांबद्दल अधिक माहिती देत सामील झाले. मग दीदींनी ‘अरे बाळ. ते गाणं कुठलं’ वगैरे विचारणं सुरू झालं. वेगवेगळ्या गाण्यांच्या आठवणी निघू लागल्या, त्या गाण्यांचे मुखडे गायले जाऊ लागले, गाण्यांची बरसात सुरू झाली आणि त्याच क्षणी समोरून आशाताई आल्या. आशाताई आल्यावर त्या गप्पांची लज्जत अशी काही वाढली, की मला ऐकायला दोन कान कमी पडू लागले. माझ्यासाठी तर रॉजर फेडरर, नदाल, जोकोविच, अँडी मरे, बोर्ग, बेकर हे सगळे जणू एकाच वेळी खेळत होते. ‘दीदी, हे गाणं तसं नाही गं’, ‘आशा, ही ओळ अशी होती’, ‘उषा, ते जरा गाऊन दाखव बरं…’ मी फक्त आणि फक्त श्रवणभक्ती करीत होतो. हे सगळं सलग काही तास सुरू होतं. त्या गप्पा आणि चर्चा रेकॉर्ड करता आल्या असत्या, तर ती चिरंतन स्मृती राहिली असती. मला आजही ती हुरहूर लागून राहिली आहे. ‘आपण किती भाग्यवान आहोत’ असं वाटणारे जे मोजके क्षण आयुष्यात येतात, त्यातला हा एक क्षण होता. दीदी आज आपल्यात नाहीत. सुदैवानं आशाताई आहेत आणि त्यांच्या वयाची नव्वदी साजरी होताना आपण पाहत आहोत. एका अभिजात, श्रेष्ठ आवाजाची नऊ दशकं! आपल्याला अवर्णनीय आणि कालातीत असा आनंद देणारी नऊ दशकं!

मी त्या विशिष्ट काळाचा जेव्हा जेव्हा विचार करतो, तेव्हा मला आशाताई शम्मी कपूरसारख्या वाटतात. शम्मी कपूरसमोर राज कपूर होते, देव आनंद होते, दिलीपकुमार होते. या सगळ्यांनी चित्रपटसृष्टीचा अवकाश व्यापला होता. त्यांच्या प्रचंड लोकप्रियतेतून मार्ग काढत, शम्मी कपूर यांनी मोठं यश मिळवलं. स्वतःची वेगळी शैली प्रस्थापित केली. नृत्याची वेगळी स्टाइल लोकप्रिय केली. सोलो फिल्म हिट करून दाखवल्या. हे तीन दिग्गज समोर असताना इतकं सगळं करून दाखवणं महाकठीण होतं. आशाताईंच्या बाबतीतही आपल्याला तेच म्हणता येईल. साक्षात दीदी समोर असताना, गीता दत्तसारखी व्हर्सटाइल गायिका ऐन भरात असताना, आधीच लोकप्रिय झालेल्या शमशाद बेगम, सुरैया या गायिका असताना, स्वतःचं वेगळं स्थान निर्माण करणं, ही खरं तर अशक्यप्राय भासणारी गोष्ट होती; पण आशाताईंनी ती करून दाखवली. आजबाजूला चौफेर प्रतिभांचा सुकाळ असतानाही, शम्मी कपूर यांनी आपल्या नावाचा स्वतंत्र ब्रँड तयार केला; तशीच किमया आशाताईंनीही करून दाखवली.

उत्तुंग काम केलेले काय एकेक कलावंत होऊन गेले आहेत! आजच्या क्षणाचा विचार केला, तर ज्या व्यक्ती हयात आहेत, त्यात केवळ आशाताई या एकच अशा आहेत, की ज्यांना ‘भारतरत्न’ मिळायला हवं. भारताच्या सांगीतिक क्षेत्राकडं पाहिलं, तर माझ्या मते, संगीताच्या क्षेत्रातली आपली जी श्रेष्ठ आणि संपन्न परंपरा आहे, त्यातील आशाताई ‘लास्ट एम्परर’ आहेत. अखेरच्या सम्राज्ञी आहेत. एकाच घरात दोन दोन ‘भारतरत्न’ कसे देता येतील वगैरे सारखे प्रश्न विचारणं हा निव्वळ मूर्खपणा आहे. एका घरात दोन महान व्यक्ती जन्माला आल्या आहेत, त्याला काय करणार? ही जर भारताची रत्नं नसतील, तर मग कोण आहेत? ‘भारत माझा देश आहे, सारे भारतीय माझे बांधव आहेत’ असं आपण तोंडानं म्हणतो; परंतु ‘भारतरत्न’ देण्याची वेळ आली, की प्रत्येक जण आपापल्या प्रांतातली नावं पुढं करतो. ‘भारत माझा देश आहे’ हे साफ विसरून जातो.

आशाताईंना दुय्यम गाणी मिळाली, असं अनेकांना वाटतं. मला काही ते फार पटत नाही. दुसरं म्हणजे, त्या काळात फक्त ओ. पी. नैयर यांनीच आशाताईंना नायिकेची आणि महत्त्वाची गाणी दिली, या म्हणण्यातही तथ्य नाही. ओपीनं गाणी दिली हे खरं आहेच, त्याबद्दल वादच नाही. ‘आँखो से जो उतरी है दिल में’, ‘आओ हुजूर तुम को’, ‘ये है रेशमी जुल्फों का अंधेरा’, ‘आईये मेहरबाँ’ अशी पन्नास-शंभर गाणी मी लागोपाठ सांगू शकेन. या दोघांच्या गाण्यातलं कुठलं अधिक चांगलं, ते कसं ठरवणार आपण? एकाच ताटात आमरसाची वाटी असेल आणि श्रीखंड असेल, तर त्यातलं कुठलं अधिक चांगलं, ते कसं सांगणार? प्रत्येकाची स्वतःची चव आहे आणि ती तेवढीच श्रेष्ठ आहे; तसंच या गाण्यांचं आहे.

त्या काळातली आशाताईंनी म्हटलेली एस. डी. बर्मन यांची गाणी बघा. मी काही उदाहरणं सांगतो. ‘सुजाता’मधलं ‘काली घटा छाए मोरा जियरा तरसाए’, ‘काला बाजार’मधलं ‘सच हुए सपने तेरे’, ‘बंबई का बाबू’मधलं ‘दिवाना मस्ताना हुवा दिल…’ कसली अफाट गाणी आहेत ही! दीदी आणि एस. डी. बर्मन यांच्यात त्या काळात काही कारणानं वाद झाला होता, म्हणून आशाताईंना ही गाणी मिळाली, असं म्हणणंही साफ चुकीचं आहे. त्या वादामुळं कदाचित चार गाणी जास्त मिळाली असतीलही; परंतु दीदींशी संबंध उत्तम असतानाही एस.डी.नं अत्यंत वेगळी आणि महत्त्वाची अनेक गाणी आशाताईंना दिली आहेत. नायिकांची गाणी आशाताईंना मिळाली नाहीत, असं उगाचच कुणी तरी हवेत पसरवलेलं आहे. हजारो गाणी आहेत आशाताईंनी नायिकांसाठी गायलेली. ‘बंदिनी’ या चित्रपटाच्या वेळेस लतादीदी आणि बर्मनदा यांच्यातला वाद मिटला. त्या चित्रपटातही दीदींना दोन गाणी आहेत आणि आशाताईंनाही दोन गाणी आहेत. मला वाटतं गुलजार साहेबांचं कारकीर्दीतलं पहिलं गाणं ‘मोरा गोरा अंग लईले…’ याच चित्रपटातलं आहे आणि ते दीदींचं आहे. याच चित्रपटातली ‘अब के बरस भेज भैया को बाबूल’ आणि ‘ओ पंछी प्यारे’सारखी दोन अतिशय मोहक, मधाळ गाणी आशाताईंनी गायली आहेत. या गाण्यांना दुय्यम म्हणायची हिंमत कोणी करील का? 

– क्रमशः भाग पहिला 

लेखक : श्री राज ठाकरे

प्रस्तुती –  श्री सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ हिंदू म्हणजे काय हो ?… – लेखक : अज्ञात ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ हिंदू म्हणजे काय हो ?… – लेखक : अज्ञात ☆ सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

आपण हिन्दू आहोत हे खरे आहे परंतु, हिंदू म्हणजे काय हो???

सांगाल का???

तर मंडळी वाचा आणि एखाद्याने विचारले की हिंदू म्हणजे  काय, तर, चट्दिशी सांगता आले पाहिजे…!!!

“हिंदू” शब्द ‘सिंधु’ शब्दाचा अरबी अपभ्रंश आहे, असे आपल्याला आतापर्यंत सांगितले गेले आहे, पण, खालील लेखामध्ये ते कसे असत्य आणि दिशाभूल करणारे आहे, हे सप्रमाण सिद्ध करून दाखवले आहे.

“हिंदू” हा शब्द “हीनं दुष्यति इति|

हिन्दु: म्हणजे- ‘जो अज्ञान *आणि हीनतेचा त्याग करतो’ त्याला हिन्दू म्हणतात’.

‘हिन्दू’ हा शब्द अनन्त वर्षांपासून असलेला प्राचीन मूळ संस्कृत शब्द आहे.

या संस्कृत शब्दाचा सन्धीविग्रह केल्यास तो हीन+दू=हीन भावना+पासून दूर असलेला,मुक्त असलेला तो हिन्दू होय *आणि आपल्याला हे वारंवार खोटे सांगून फसविले जात होते, की, ‘सिन्धूचे अपभ्रंशित रूप म्हणजे हिन्दू’ हा शब्द आपल्याला मोगलांनी दिला. खरे म्हणजे ‘हिन्दू’ या शब्दाची उत्पत्ती ‘वेदकाळा पासून आणि वेदातूनच झालेली आहे, म्हणून, हिन्दू हा शब्द कुठून आला आणि त्याची उत्पत्ती कशी झाली, हे अवश्य जाणून घेऊयात, आपल्या वेद आणि पुराणातही ‘हिन्दू’ या शब्दाचा उल्लेख सापडतो.

आज आपण ‘हिन्दू’ या शब्दाची उत्पत्ती कशी झाली, ते पाहूयात… 

‘बृहस्पति अग्यम’ (ऋग्वेद) मध्ये हिन्दू शब्दाचा उल्लेख असा आलेला आहे. “हिमलयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।l” 

म्हणजेच … 

‘हिमालयापासून इन्दू सरोवरा (हिन्दी महासागर) पर्यन्त ईश्वर निर्मित राष्ट्र म्हणजे हिन्दुस्थान (‘हिन्दूं’ चे स्थान) होय.

केवळ ‘वेदांत’ च नव्हे, पण, ‘शैव’ ग्रंथातही ‘हिन्दू’ शब्दाचा उल्लेख असा आलेला आढळतो, “हीनं च दूष्यते एव्, हिन्दुरित्युच्चते प्रिये।”

म्हणजेच- “जो अज्ञान आणि हीनत्व यांचा त्याग करतो तो हिन्दू होय.”

कमीअधिक प्रमाणात असाच श्लोक ‘कल्पद्रुमा’तही आढळतो- “हीनं दुष्यति इति हिन्दु:।” म्हणजे- “जो अज्ञान आणि हीनत्व यांचा त्याग करतो त्याला हिन्दू म्हटले जाते.”

“पारिजात हरण” या संस्कृत नाटकात हिन्दूंचा असा उल्लेख आलेला आढळतो-

“हिनस्ति तपसा पापां,दैहिकां दुष्ट.

हेतिभिः शत्रु वर्गंच,स हिन्दुरभिधीयते।।”

.. म्हणजे,”जो आपल्या तप:सामर्थ्याने शत्रू,दुष्ट आणि पापाचा नाश करतो,तो हिन्दू होय.”

“माधव दिग्विजय,”मध्ये हिन्दू या शब्दाचा असा उल्लेख केला गेलाय- “ओंकारमन्त्रमूलाढ्य,पुनर्जन् गौभक्तो भारत:,गरुर्हिन्दुर्हिंसन दूषकः।।”

.. म्हणजे- “जोॐ काराला ईश्वर रचित रचना मानतो,ज्याची पुनर्जन्म आणि कर्मसिद्धान्त यावर श्रद्धा आहे,जो गौ पालन करतो आणि वाईटाला दूर ठेवतो, तो हिन्दू आहे.”

केवळ एव्हढेच नव्हे, तर, आपल्या ऋग्वेदात (८:२:४१) विवहिन्दू नावाच्या अति पराक्रमी आणि दानी राजाचे वर्णन आलेले आहे, ज्याने ४६००० गाईंचे दान केल्याचा उल्लेख आहे आणि ‘ऋग्वेद मंडला’तही त्याचा उल्लेख येतो.

“हिनस्तु दुरिताम्।” … ‘वाईटाला दूर सारण्यासाठी सतत प्रयत्नशील असणारे आणि सनातन धर्माचे पालन पोषण करणारे हिन्दूच आहेत.’

लेखक : अज्ञात 

प्रस्तुती : सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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