हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 64 ☆ जीने का हुनर ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख जीने का हुनर। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 64 ☆

☆ जीने का हुनर ☆

‘अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरों के दिल में जो है, उसे समझने की कला से इंसान अगर अवगत है… तो रिश्ते कभी टूटेंगे नहीं।’ इससे तात्पर्य यह है कि मानव को साहसी, सत्यवादी व स्पष्टवादी होना चाहिए। यदि आप साहसी हैं, तो अपने मन की बात निसंकोच, स्पष्ट रूप से सबके सम्मुख कह देंगे और आपके व्यवहार में दोगलापन नहीं होगा। आपकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होगा, क्योंकि स्पष्ट बात कहने का साहस तो वही इंसान जुटा सकता है, जो सत्यवादी है। सत्य की इच्छा होती है कि वह उजागर हो और झूठ असल में असंख्य पर्दों में छुप के रहना चाहता है… सबके समक्ष आने में संकोच अनुभव करता है। इसलिए सदैव सत्य का साथ देना चाहिए। इसके साथ-साथ मानव को दूसरों को समझने की कला भी आनी चाहिए, जिसके लिए आप में संवेदनशीलता अपेक्षित है। ऐसा व्यक्ति ही दूसरे के मनोभावों को समझ सकता है और उसके सुख-दु:ख की अनुभूति करने में समर्थ होता है।

‘स्वयं का दर्द महसूस होना जीवित होने का प्रमाण है तथा दूसरों के दर्द को महसूस करना इंसान होने का प्रमाण है।’ इसलिए दूसरों की खुशी में अपनी खुशी देखना बहुत सार्थक है तथा बहुत बड़ा हुनर है। जो इंसान इस कला को सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। वैसे इस संसार में जीवित इंसान तो बहुत मिल जाते हैं, परंतु वास्तव में संवेदनशील इंसान बहुत ही कम मिलते हैं। आधुनिक युग में प्रतिस्पर्द्धा के कारण व्यक्ति आत्मकेंद्रित होता जा रहा है…संबंध व सरोकारों से दूर… बहुत दूर। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं, क्योंकि आजकल  सब के पास समय का अभाव है। हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में जुटा रहता है और इस कारण वह सब से दूर होता चला जाता है। एक अंतराल के पश्चात् एकांत की त्रासदी झेलता हुआ इंसान तंग आ जाता है। उसे दरक़ार होती है अपनों की और वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जिनके लिए सुख-सुविधाएं जुटाने में उसने अपना जीवन होम कर दिया था। परंतु ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयीं खेत’ अर्थात् अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् वह केवल प्रायश्चित ही कर सकता है, क्योंकि गुज़रा वक्त कभी लौटकर नहीं आता।

आधुनिक युग में हर इंसान मुखौटे लगाकर जीता है और अपना असली चेहरा उजागर हो जाने के भय से हैरान-परेशान रहता है…जैसे ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और ‘होते हैं। प्रदर्शन अथवा दिखावा करना दुनिया का दस्तूर है। इसलिए वह सबसे दूर रह कर अकेले अपना जीवन बसर करता है तथा अपने सुख-दु:ख व अंतर्मन की व्यथा-कथा को किसी से साझा नहीं करता। महात्मा बुद्ध के अनुसार ‘आप अपना भविष्य स्वयं निर्धारित नहीं करते, आपकी आदतें आपका भविष्य निश्चित करती हैं। इसलिए अपनी आदतें बदलिए, क्योंकि आपकी सोच ही आपके व्यवहार को आदतों के रूप में दर्शाती है।’ सो! लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार कीजिए।’ सो! दूसरों से बदलाव की अपेक्षा मत कीजिए, बल्कि स्वयं को बदलिए, क्योंकि दूसरों पर व्यर्थ

दोषारोपण करना समस्या का समाधान नहीं है। रास्ते में बिखरे कांटों को देखकर दु:खी मत होइए… दूसरों को बुरा-भला मत कहिए। आप रास्ते में बिखरे असंख्य कांटों को साफ करने में तो असमर्थ होते हैं, परंतु पांव में चप्पल पहन कर अन्य विकल्प को आप सुविधापूर्वक अपना सकते हैं।

सफलता व संबंध आपके मस्तिष्क की योग्यता पर निर्भर नहीं होते, आपके व्यवहार की महानता और विचारों पर निर्भर होते हैं और आपकी सकारात्मक सोच आपके विचारों व व्यवहार को बदलने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए स्वार्थ भाव को तज कर  परहितार्थ सोचिए व निष्काम भाव से कर्म को अंजाम दीजिए। स्वामी विवेकानंद जी के मतानुसार ‘जीवन में समझौता मत कीजिए। आत्मसम्मान बरक़रार रखिए तथा चलते रहिए’ अथवा जीवन में उसे कभी भी दांव पर मत लगाइए। समझौता करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा कीजिए। समय, सत्ता, धन, शरीर जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते। परंतु अच्छा स्वभाव, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सहयोग देते हैं। शरीर नश्वर है, क्षणभंगुर है। समय बदलता रहता है। धन कभी एक स्थान पर टिक कर नहीं रह सकता और सत्ता में भी समय के साथ परिवर्तन होता रहता है। परंतु मानव का व्यवहार, ईश्वर के प्रति अटूट आस्था  विश्वास व समझ अथवा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उसके सच्चे साथी हैं… उसके व्यक्तित्व का अंग बन कर उसके अंग-संग रहते हैं। इसके लिए आवश्यकता है कि आप हर पल ज़िंदगी व उससे प्राप्त सुख-सुविधाओं के लिए प्रभु का शुक़्राना अदा करें। सुबह आंखें खुलते ही सृष्टि-नियंता के प्रति उसके शुक्रगुज़ार रहें, जिसने स्वर्णिम सुबह देने का सुंदर अवसर प्रदान किया है। मुस्कुराना अर्थात् हर हाल में सदा खुश रहना तथा जो मिला है, उसमें संतोष करना… जीने की सर्वोत्तम कला है तथा सर्वश्रेष्ठ उपाय है…किसी का दिल न दु:खाना अर्थात् हमें स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठना चाहिए तथा किसी के हृदय को मन, वचन, कर्म से दु:ख नहीं पहुंचाना चाहिए। जीवन में कैसी भी विषम परिस्थितियां हों, मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए…समभाव में रहना चाहिए, क्योंकि अहं ही मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! उसे सदैव नियंत्रण में रखना चाहिए। जब अहं, क्रोध के रूप में प्रकट होता है, उस स्थिति में मानव सब सीमाओं को लांघ जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा उसे अवश्य भुगतना पड़ता है… जो तन, मन, धन अर्थात् शारीरिक, मानसिक व आर्थिक हानि के रूप में भी हो सकता है। इसलिए सदैव मधुर वचन बोलिए, क्योंकि आपके शब्द आपके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। केवल शब्द ही नहीं, उनके कहने का अंदाज़ अधिक मायने रखता है। इसलिए अवसरानूकूल सत्य व सार्थक शब्दों का प्रयोग कीजिए। हमारी जिह्वा सदैव दांतों के बीच, मर्यादा में रहती है। परंतु उस द्वारा नि:सृत शब्द उसे जहां अर्श पर पहुंचा सकते हैं, वहीं फ़र्श पर गिराने का सामर्थ्य भी रखते हैं। इसलिए चाणक्य ने ‘वृक्ष के दो फलों…सरस, प्रिय वचन व सज्जनों की संगति को अमृत-सम स्वीकारा है तथा कटु वचनों को त्याज्य बताया है।’ इसलिए जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर, शेष को त्याग दें। क्रोध में मानव अक्सर कटु शब्दों का प्रयोग करता है। सो! ऋषि अंगिरा मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि ‘यदि आप किसी का अनादर करते हो, तो वह उसका अनादर नहीं; आपका अनादर है, क्योंकि इससे आपका व्यवहार झलकता है। इसलिए जब भी बोलो, सोच कर बोलो, क्योंकि शरीर के घाव तो समय के साथ भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव आजीवन नासूर बन रिसते रहते हैं, जिनके इलाज के लिए कोई मरह़म नहीं होती।

हमारी सोच, हमारे बोल, हमारे कर्म हमारे भाग्य- विधाता हैं। इनकी उपेक्षा कभी मत करो। ज़िंदगी में कुछ लोग बिना रिश्ते के, रिश्ते निभाते हैं, जो दोस्त कहलाते हैं। सो! संवाद जीवन-रेखा है…इसे बनाए रखिए। इसीलिए कहा गया है कि ‘वाकिंग डिस्टेंस भले ही रख लो, टाकिंग डिस्टेंस कभी मत रखो।’ संवाद की सूई व स्नेह का धागा भले ही उधड़़ते रिश्तों की तुरपाई तो कर देता है, परंतु संवाद जीवन की धुरी है। आजकल संवादहीनता समाज में इस क़दर अपने पांव पसार रही है कि संवेदनहीनता जीवन का हिस्सा बन कर रह गई है, जिससे संबंधों में अजनबीपन का अहसास स्पष्ट दिखाई पड़ता है।  वास्तव में यह मानव-मन में गहरायी से अपनी जड़ें स्थापित कर चुका है। संबंधों में गर्माहट शेष रही नहीं। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में कैद है, जिसका मुख्य कारण है–संस्कृति व संस्कारों के प्रति निरपेक्ष भाव व संबंधों में पनप रही दूरियां। हम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से आकर्षित हो ‘हैलो-हॉय व जीन्स-कल्चर’ को अपना रहे हैं। ‘लिव-इन’ का प्रचलन तेज़ी से पनप रहा है। विवाहेतर संबंध भी हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा दबदबा कायम कर रहे हैं और मी टू के कारण भी हंसते-खेलते परिवारों में मातम पसर रहा है, जो दीमक के रूप में परिवार-संस्था की मज़बूत चूलों को खोखला कर रहा है।

अक्सर लोग अच्छे कर्मों को अगली ग़लती तक स्मरण रखते हैं। इसलिए प्रशंसा में गर्व मत महसूस करो और आलोचना में तनाव-ग्रस्त व विचलित न रहो। ‘सदैव निष्काम कर्म करते रहो’ में छिपा है, सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का संदेश। इसके साथ ही मानव को जीवन में तीन चीज़ों से सावधान रहने की शिक्षा दी गई है… झूठा प्यार, मतलबी यार व पंचायती रिश्तेदार। सो! झूठे प्यार से सावधान रहें। सच्चे दोस्त बहुत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए प्रत्येक पर विश्वास कर के, मन की बात न कहने का संदेश दिया गया है। आजकल सब संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। संबंधी भी पद-प्रतिष्ठा को देख, आपके आसपास मंडराने लगते हैं। उनसे सावधान रहिए, क्योंकि वे आपको किसी भी पल कटघरे में खड़ा कर सकते हैं…आप का मान-सम्मान मिट्टी में मिला सकते हैं; आपकी पीठ में छुरा भी घोंप सकते हैं। सो! झूठे प्यार,दोस्त व ऐसे संबंधियों से सावधान रहिए। वे जी का जंजाल होते हैं और पलक झपकते ही गिरगिट की भांति रंग बदलने लगते हैं। इसलिए उन पर कभी भूल कर भी विश्वास मत कीजिए।

‘लाखों डिग्रियां हों/ अपने पास/अपनों की तकलीफ़/ नहीं पढ़ सके/ तो अनपढ़ हैं हम’…यह पंक्तियां हांट करती हैं; हमारी चेतना को झकझोरती हैं। यदि हम अपनों के सुख-दु:ख सांझे नहीं कर सके, हमारा शिक्षित होना व्यर्थ है। सो! जीवन में संवेदना अर्थात् सम+वेदना…दूसरे के दु:ख को उसी रूप में अनुभव करने में ही जीवन की सार्थकता है… जब आप दु:ख के समय अपनों की ढाल बनकर खड़े होते हैं; उन्हें दु:खों से निज़ात दिलाने के लिए जी-जान लुटा देते हैं; सदैव सत्य की राह का अनुसरण करते हुए मधुर वाणी का प्रयोग करते हैं; अहं को त्याग, समभाव से जीवन-यापन करते हैं और सृष्टि-नियंता के प्रति शुक़्रगुज़ार रहते हैं। दूसरों के दु:ख को महसूसते हैं तथा उनकी हर संभव सहायता करते हैं।

अंत में मैं कहना चाहूंगी, जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइये। हर क्षण को जियें, प्रसन्न रहें तथा जीवन से प्यार करें। आप बिना कारण दूसरों की परवाह करें; उम्मीद के साथ अपनत्व भाव बनाए रखें, क्योंकि अपेक्षा व प्रतिदान ही दु:खों का कारण है। इसलिए ‘खुद से जीतने की ज़िद है मुझे/ खुद को भी हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ आप खुद से बेहतर बनने के सत्- प्रयास करें, क्योंकि यह आपको स्व-पर व राग-द्वेष से मुक्त रखेगा। इसलिए मतभेद भले ही रखिए, मनभेद नहीं, क्योंकि दिलों में पड़ी दरार को पाटना अत्यंत दुष्कर है। क्षमा करना और भूल जाना श्रेयस्कर मार्ग है… सफलता का सोपान है। इसलिए सदैव वर्तमान में जीओ, क्योंकि अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, कभी लौटेगा नहीं और भविष्य कभी आयेगा नहीं। वर्तमान को सुंदर बनाओ, सुख से जीओ और अपना स्वभाव आईने जैसा साफ व सामान्य रखो। आईना प्रतिबिंब दिखाने का स्वभाव कभी नहीं बदलता, भले ही उसके टुकड़े हज़ार हो जाएं। सो! किसी भी परिस्थिति में अपना व्यवहार, आचरण व मौलिकता मत बदलो। दौलत के पीछे मत दौड़ो, क्योंकि यह केवल रहन-सहन का तरीका बदल सकती है, नीयत व तक़दीर नहीं। सब्र व सच्चाई को जीवन में धारण करो और धैर्य का दामन थामे रखो … विषम परिस्थितियां तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर पाएंगी। मन में कभी भी शक़, संदेह व शंका को घर मत बनाने दो, क्योंकि इससे पल भर में महकती बगिया उजड़ सकती है, तहस-नहस हो सकती है… परिणामत: खुशियों को ग्रहण लग जाता है। सो! आत्मविश्वास रखो, दृढ़-प्रतिज्ञ रहो, निरंतर कर्मशील रहो, फलासक्ति से मुक्त रहो। सृष्टि-नियंता पर विश्वास रखो अर्थात् ‘अनहोनी होनी नहीं, होनी है सो होय’ अर्थात् भविष्य के प्रति चिंतित व आशंकित मत रहो। सदैव स्वस्थ, मस्त व व्यस्त रहो।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 54 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 54☆

☆ संतोष के दोहे ☆

 

गुलाब

होरी मन महुआ हुआ, महका बदन गुलाब

पिया मिलन की लालसा, पल पल पलते ख्वाब

 

प्रफुल्लित

हृदय प्रफुल्लित देख कर, मन माँ का हर्षाय

बच्चों से माँ की खुशी, दुख में बने सहाय

 

कमान

बच्चों के हाथों लगे, अक्सर हाथ कमान

देख बुढ़ापे में यही, जीवन की पहिचान

 

क्वाँर

क्वाँर माह जस गाइये, माँ का कर गुणगान

माँ की महिमा जगत में, अजब निराली शान

 

करार

प्रियतम को देखे बिना, दिल में नहीं करार

जैसे चाँद-चकोर बिन, पाता नहीं करार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 66 – राष्ट्रपिता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  महात्मा गांधी जी के जन्मदिवस पर एक समसामयिक एवं विचारणीय कविता राष्ट्रपितामुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 66 ☆

☆ गांधी जन्मोत्सव विशेष – राष्ट्रपिता ☆

 

कळू लागलं लहान मुलाला की,

पहिले राजकिय नेते—-

येतात समोर ते गांधीजीच !

पद्धत आहे आपल्याकडे…

लहान मुलांच्या हाती नोट द्यायची!

 

मलाही भेटले गांधीजी

लहानपणी,

आजीने सांगितलेल्या गोष्टीत,

आजीही सहभागी झाली होती म्हणे,

स्वदेशीच्या चळवळीत!

 

ऐकलं जायचं, बोललं जायचं,

खुपच भक्तीयुक्त प्रेमभावाने गांधीजींबद्दल—-घरी, दारी, शाळेत, सिनेमा गृहात!

 

“ती पहा ती पहा बापूजींची प्राणज्योती, तारकांच्या सुमनमाला  देव त्यांना वाहताती”

ही कविताही तोंडपाठ होती,

एकसूरात म्हणत असू खुप आदराने!

गांधीजी भेटायचे कवितेत, धड्यात, शाळेच्या वार्षिक स्नेहसंमेलनाच्या एखाद्या नाट्यच्च्छटेत, पंधरा ऑगस्टच्या भाषणात!

 

अगदी आमच्या गावातला,

गणपत गायकवाड ही करायचा दावा, “येरवडा जेल मध्ये मी केली आहे गांधीजींची दाढी !”

हजामती करता करता मारायचा फुशारकी!

 

एकूण काय तर—

जनमानसात खुपच भक्तिभाव गांधीजींविषयी!

नंतर गांधीजी भेटले, आगा खान पॅलेस मध्ये,

बेन किंग्जले च्या ‘गांधी ‘ या सिनेमात

त्यानंतर अहमदाबाद ला गेले असताना,

साबरमती च्या आश्रमात!

मला सप्रेम भेट मिळालेल्या,

सविता सिंग लिखित “सत्याग्रहा”या इंग्रजी पुस्तकातही !

 

अलिकडे गांधीजी भेटतात इंटरनेटवर, बदलत्या विचारधारेत

लोकापवादात, उलट सुलट चर्चेत!

पण मला -आमच्या पिढीला,

ते माहित आहेत,

महात्मा, राष्ट्रपिता, गांधीजी म्हणूनच,

आणि त्यांची ती तीन माकडं आहेत आदर्श आमच्यासाठी—-

“बुरा मत कहो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो ।” सांगणारी!

 

© प्रभा सोनवणे

२९ सप्टेंबर २०२०

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेखर साहित्य # 8 – कवितेशी बोलू काही ☆ श्री शेखर किसनराव पालखे

श्री शेखर किसनराव पालखे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेखर साहित्य # 8 ☆

☆ कवितेशी बोलू काही ☆

अनामिक हे सुंदर नाते

तुझ्यासवे ग जुळून यावे

तुझ्याच साठी माझे असणे

तुलाच हे ग कळून यावे

आनंदाने हे माझे मन

सोबत तुझ्या ग खुलून यावे

दुःखाचे की काटेरी हे क्षण

कुशीत तुझ्या ग फुलून यावे

भेटावी मज तुझी अशी ही

घट्ट मिठी ती हवीहवीशी

अथांगशा या तुज डोहाची

अचूक खोली नकोनकोशी

रुजावेस तू मनात माझ्या

प्रेमळ नाजूक सुजाणतेने

तूच माझे जीवन व्हावे

अन तुच असावे जीवनगाणे

 

© शेखर किसनराव पालखे 

पुणे

05/06/20

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझ्या राजा हास रगड ☆ श्री प्रकाश लावंड

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ माझ्या राजा हास रगड ☆ श्री प्रकाश लावंड ☆ 

( ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेते कविवर्य विंदा करंदीकर यांच्या “माझ्या मनात बन दगड” या कवितेचा आधार घेऊन केलेली ही रचना.)

 

हे रान खडकाळ आहे

नांगरटी शिवाय मेहनती शिवाय

पावसा शिवाय खतपाण्या शिवाय

गाड माजणारं हे कुसळ

उचल नांगर लाव फाळ

 

घेऊ नकोस मागं पाय

नांगरून काढ काळी माय

ऐन उन्हाळ्यात लागंल धाप

मुक्या जीवांना ही होईल ताप

तोड झुडपं उचल दगड

 

हा रस्ता साधा सरळ आहे

पण उटी लागली तर करळ आहे

करू नकोस आक्रोश

घशाला पडेल शोष

चाड्यावर मूठ धर

बियाण्याची सोड धार

म्हणून म्हणतो जुंप औत

सांभाळ सांभाळ आपली पत

 

राबणाऱ्या राबशील जरी

कष्टताना दमशील जरी

पेरणाऱ्या पेरशील जरी

धान्याच्या राशी येतील घरी

मान डोलवित म्हणू नको हो हो

आसूड फरकारीत तयार हो

 

हा धंदा सरळ आहे

पिकेल खंडोगणती माल

आढ्यापर्यंत जाईल पोत्यांची ठेल

तुझा माल तुझा तू वाली

तुझ्या कष्टाची लाव बोली

मध्यस्थांचा होऊन काळ

हुसकावून लाव सारे दलाल

कस कंबर लाव लंगोट

झगड आता झगड झगड

यश मिळेल तुला रगड

बळीराजा बन धगड

 

© श्री प्रकाश लावंड

करमाळा जि.सोलापूर.

मोबा 9021497977

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ गांधी ना येऊ दे ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ गांधींना येऊ दे ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर 

`वर्मा सर,  आपण या कार्यालयात सगळ्यात ईमानदार ऑफीसर म्हणून सुप्रसिद्ध आहात. म्हणूनच आपण आपल्या केबीनमध्ये गांधिजींच्या दोन तसबिरी लावल्या आहेत का?  एक मागे आणि एक पुढे?  वर्मांच्या हाताखाली काम करणारे शर्मा आपल्या वरिष्ठांना विचारत होते.

`ते अशासाठी शर्मा,  माझ्यासमोर बसलेल्या अपरिचिताने माझ्यामागे लावलेला गांधीजींचा फोटो बघून खोटे बलू नये आणि मी जेव्हा खोटे बोलेन, तेव्हा निश्चिंत असेन,  की मला खोटं बोलताना गांधीजी बघत नाही आहेत. ‘आता काय सांगायचं,  दहात आठ वेळा तरी मला खोटं बोलावं लागतं’  वर्मांच्या मनात आलं,  पण ते बोलले नाहीत.

`पण सर, गांधीजींचा फोटो तर आपल्या पुढेही लावलेला आहे. त्याचं काय?’

`त्याचं काय आहे,  मी. शर्मा, तुम्ही बघितलं असेल, की मी शिपायाला वारंवार बोलावून फोटो स्वच्छ पुसून आणायला सांगतो.’

`होय! बर्‍याचवेळा… म्हणूनच आपल्या समोरील फोटावर कधी धूळ दिसत नाही. पण मागचा फोटो मात्र धुळीनं भरलेला आहे.’

`त्याचं असं आहे शर्मा,  जेव्हा मला खोटं बोलण्याची वेळ येते,  तेव्हा, त्यापूर्वी मी शिपायाला बोलवून फोटो स्वच्छ पुसून आणायला सांगतो. शिपाई तसंही कुठलंही काम दोन तासांच्या आधी करतच नाही. भिंतीवरून फोटो हटवला जाताच,  मी दोन-तीन फ्रॉड ठेके निपटून टाकतो.

‘वा:! काय बोललात! आता यावर चहा झालाच पाहिजे.’

`जरा थांबा. गांधीजी येऊ देत. तसंही कुठल्याही सरकारी कार्यालयात चहा पिण्याइतकं  खरं काम दुसरं कोणतं होत असेल?’  आणि दोघेही हास्य-विनोदात बुडून गेले.

मूळ हिंदी कथा – गांधी को आने दो         मूळ लेखिका- मृदुला श्रीवास्तव

भावानुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ झुंबर ☆ सौ. उज्वला सहस्त्रबुद्धे

☆ विविधा ☆ झुंबर ☆ सौ. उज्वला सहस्त्रबुद्धे

आज सन्कष्टी चतुर्थी! सान्गलीच्या गणपती मन्दिराची आठवण आली. ‘झुम्बर’ म्हन्टल की मला सान्गलीचे गणेश मन्दिर डोळ्यासमोर येते. त्या दगडी कमानीतून प्रवेश करून प्रत्यक्ष मन्दिरात गेलं की ते काचेचे झुम्बर लक्ष वेधू न घेत असे. गणेशाची सुबक, सुंदर मूर्ती, प्रसन्न वातावरण आणि मन्दिराचा प्रशस्त अन्तर्भाग !विविध रंगाच्या हन्ड्यानी आणि एका  मोठया

काचेच्या झुम्बराने सजवलेले मन्दिर बघत बसावेसे वाटत असे. गणपतीत आणि सणासुदीला ही झुम्बरे दिवे लावल्यावर लखलखत असत. त्या  मोठया  झुम्बराचा प्रकाश मन्दिर उजळवून टाकत असे.

पूर्वी च्या काळी राजेरजवाड्याच्या महालान्ची, दरबाराची शोभा अशा झुम्बरानी खूपच वाढवली होती. बडोदा, म्हैसूर सारख्या ठिकाण चे राजवाडे पहाताना अशी झुम्बरे राजाच्या रसिकतेचे

आणि ऐश्वर्याचे प्रतीक म्हणून छताला टान्गलेले, दिसत असे. मोन्गलकालीन  कथा असलेल्या सिनेमात सुध्दा अशी काचेची झुम्बरे कौशल्याने वापरलेली असत!

आता हा झुम्बर प्रकार फारसा दिसत नसला तरी दिवाळीत, सणासुदीला, गणपतीच्या सजावटीत अशी झुम्बरे वापरली जातात. झुम्बराचा आकार कधी गोल तर कधी निमुळता होत गेलेला दिसतो. असन्ख्य काचेच्या लोलकानी झुम्बर बनलेले असते. त्यात रन्गीत दिव्याची भर टाकून

ते अधिक सुशोभित केले जाते !

रोषणाईतला हा झुम्बर प्रकार निसर्गातही आपल्याला पहायला मिळतो. जाम्भळ्या, पिवळ्या रंगाची कँशियाची फुले झुबक्यातून झुम्बरासारखी लोम्बकळताना पाहिली की ती नैसर्गिक झुम्बरे मनाला लोभवतात. केशरी फुलांचे गुच्छ ही असेच दिसतात !

आणखी एका ठिकाणी मला हे झुम्बर आवडलं, ते म्हणजे द्राक्षेबागेत !द्राक्षाच्या बागेतत्या मान्डवाखालून फिरताना द्राक्षाचे घोस झुम्बरासारखे आणि ती टपोरी द्राक्षे मण्यासारखी बघून मन हरखून जाते !

निसर्गात अशी वेगवेगळ्या प्रकारची झुम्बरे पहाताना पौर्णिमेच्या रात्री आकाशाच्या छताला चान्दण्यान्ची असन्ख्य झुम्बरे टान्गलेली आणि  त्यामध्ये चान्दोबा एखाद्या चांदव्यासारखा

दिसतो .त्यांच्या कडे बघता बघता माझ्या  मनात विचारांची छोटी छोटी झुम्बरे साकार होऊ लागतात! आठवणीची आणि विचारांची  अशी असन्ख्य झुम्बरे मनाच्या आकाशात लटकलेली

असतात. ती साकार, होऊ लागतात शब्दांच्या रूपात!

एक एक शब्दांची गुम्फण करतांना मनाच्या पटलावर अशा झुम्बरान्ची सुंदर आरास तयार होते. ही शब्द झुम्बरे शब्दात अशी काही उतरतात, की त्यांची एक सुंदर आरास तयार, होते आणि त्यातूनच एखादे कवितेचे किंवा लेखाचे ‘झुम्बर – शिल्प ‘कागदावर उतरते.

 

© सौ. उज्वला सहस्त्रबुद्धे

मो.नं . 8087974168

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ लागेबांधे ☆ श्री अरविंद लिमये

श्री अरविंद लिमये

☆ विविधा ☆  लागेबांधे ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

वेळा सांगून येत नाहीत असं म्हणतात. त्यामुळे येणारा प्रत्येक क्षण, सुखद असो वा दु:खद तो स्थितप्रज्ञतेने स्विकारावा असं म्हणतात. पण ते शक्य होतंच असं नाही. बर्याचदा नाहीच होत. क्षण दु:खाचा, संकटाचा असेल तर नाहीच. अशीच एखादी अप्रिय घटना पुढे येणार्या संकटातलं गांभिर्य कमी करायला निमित्तही ठरु शकते. नव्हे नियतीनेच या घटनांमागचा कार्यकारणभाव नियत केलेला असतो. फक्त ते आपल्याला माहित नसतं एवढंच. पण समजतं, तेव्हा मनाला होणारा  दिलाशाचा स्पर्श,  अंगाची लाहीलाही करणार्या, असह्य

चटके देणार्या उन्हात अचानक थंड गारव्याचा शिडकावा करणार्या ओलसर काळ्या ढगासारखा सुखद भासतो. त्याचीच ही गोष्ट!

२०१६ मधे आम्ही पुण्याच्या  ‘क्वेस्ट टूर्स ‘तर्फे’ सेव्हन सिस्टर्स’

टूरला गेलो होतो. आसाम, मेघालय, अरुणाचल करुन आमचा मुक्काम काझीरंगा अभयारण्याजवळच्या एका लाॅजवर होता. टूरचे अकरा दिवस मजेत गेले होते. चाळीस जणांचा मोठा ग्रूप, पण प्रत्येकाला नावाने ओळखण्याइतका जवळ आलेला. आता नागालॅंड,  मणिपूर, त्रिपुरा होईपर्यंत ओळखी अधिक घट्ट होण्यापूर्वीच ती अप्रिय घटना घडली. त्यामुळे आम्ही जवळ आलो खरे पण असे ‘समदु:खी’ म्हणून. . !

कारण काझीरंगाला दुपारचं जेवण आवरुन आम्ही नागालॅंडसाठी प्रस्थान ठेवलं ती अनपेक्षित अरिष्टाची सुरुवात होती. आम्ही हास्यविनोद,

गप्पा, गाणी यात सर्वजण दंग असणातानाच नागालॅंड बाॅर्डरच्या खूप आधीच एका चेकपोस्टजवळ आमच्या गाड्या अडवण्यात आल्या. टूर मॅनेजर आणि ड्रायव्हर काय झालंय ते पहायला खाली उतरले आणि हताश होऊन परत आले. नागालॅंड बाॅर्डरपासून आत सर्वदूरपर्यंत सशस्त्रपोलिसांचा बंदोबस्त होता. अचानक सुरु झालेल्या आंदोलनाने उग्ररुप धारण केले होते. त्याच दरम्यान एके ठिकाणी बाॅंम्बस्फोट होताच १४४ कलम लागू केले होते. यामुळे पुढे जाणं

शक्यच नव्हते आम्ही पुन्हा मागे फिरुन काझीरंगाच्या त्याच लाॅजवर आश्रयाला आलो. टूरचा मनसोक्त आनंद घेत

असतानाच दूधात मिठाचा खडा पडावा तसं झाल़ं न् सगळ्यांचा आनंद विरजून गेला. इतर सर्वजण अगदी माझी पत्नीसुध्दा स्वत:चं वैषम्य लपवू शकले नव्हते पण मी मात्र स्वस्थचित्त होतो. त्यामागचं खरं कारण जाणवायला पुढे पुलाखालून बरंच पाणी जायला हवं होतं. पण त्याक्षणी मात्र आमच्यापेक्षाही कितीतरी पटीने टूर मॅनेजरच्यासमोर असंख्य प्रश्न आ वासून उभे असल्याचे मला जाणवले. विचार करण्यात वेळ न घालवता त्याने सगळी सूत्रे तत्परतेने हलवायला सुरुवात केली होती. परिस्थितीचे गांभीर्य ओळखून त्याने क्वेस्टच्या मॅनेजमेंटशी त्वरीत संपर्क साधला. सविस्तर चर्चा करुन टूर पॅकअप करायचा निर्णय घेतला. अशा अपरिहार्य कारणाने

टूर अर्धवट सोडायला लागली तर करारानुसार टूरकंपनी पैसे परत करायला बांधील नसते. तरीही कंपनीमार्फत आम्हा सर्वांची परतीची मूळ रिझर्वेशन्स कॅन्सल करुन कंपनीखर्चाने लगेचची रिझर्वेशन्स लगोलग करुन दिली गेली आणि हिशोबाने होईल ती बाकी रक्कम प्रत्येकाच्या बॅंक खात्यावर थेट जमा करण्याचे आश्वासन दिले. (आणि नंतर ते पाळलेही!)

परतीच्या प्रवासासाठी निरोप घेताना, आनंदाऐवजी असा

विरसच सर्व प्रवाशांच्या मनात होता. अर्थात हे अपरिहार्यही होतंच. म्हणूनच सर्वानी मनाविरुध्द का होईना ते स्विकारलंही.

परतीचा प्रवास सुरु झाला, तरी आरती, माझी पत्नी मात्र गप्पगप्पच होती. तिला बोलतं केलं, तर विषय तोच.

“खूप आधीपासून प्लॅनिंग करुन, एडवांस बुकिंग करुनसुध्दा काय झालं ते पाहिलंत ना?”ती म्हणाली.

“आपण नागालॅंडच्या लाॅजवर चेक इन केल्यानंतर कर्फ्यू लागला असता तर काय करणार होतो आपण?उरलेले दिवस आणि पैसे सगळंच फुकट गेलं असतं आणि आपण पुन्हा अधांतरीच. आत्ता आपण सुखरुप आहोत आणि मार्गीही लागलोय हे महत्वाचं. . “स्वत:चीच समजूत काढल्यासारखं मी बोललो तरी ते खरंही होतंच. पण नियतीने माझ्यापुरता नियत केलेला या घटनेमागचा नेमका कार्यकारणभाव मलातरी तेव्हा कुठे माहित होता?

आम्ही दोघे अकल्पितपणे खूप दिवस आधीच परत आल्याचं पाहून आमच्या दोन चिमुरड्या नातींच्या उत्साहाला तर उधाणच आलं. त्यांच्या त्या बालसुलभ उत्साहात आमचं ट्रीप अर्धवट राहिल्याचं दु:ख नकळत विरुन गेलं. चहापाणी, बॅगा आवरणं, आणि ट्रीपमधे आलेल्या अडचणीबद्दल सविस्तर सगळं सांगणं यात रात्रीची जेवणंही आवरत आली. गप्पात सून भाग घेत असली तरी नेहमीसारखी मोकळी वाटत नव्हती आणि सलील, माझा मुलगा कांहीसा गंभीर. माझं जेवण झालं तसं तो जवळ येऊन बसला.

“बाबा, तुम्ही टेन्शन घेणार नसाल तर एक सांगायचं होतं. ”

“बोल ना, काय झालंय?”

“उदयदादाचा काल कोल्हापूरहून फोन आला होता. पुष्पाआत्याबद्दल”

“तिचं काय?”मी मनोमन चरकलो होतोच. माझ्या आवाजातली थरथर त्यालाही जाणवली असणाराच. . .

ती माझी मोठी बहीण. आम्हा लहान भावंडांसाठी तिने खाल्लेल्या खस्तांवरच तर आमचं स्थैर्य उभं राहू शकलं होतं. तरीही स्वत: कांही केल्याचा टेंभा कधी मिरवला नाहीन. उलट आमच्या लहानसहान गोष्टींचंही कौतुक मात्र उदंड. अतिशय मितभाषी, हसतमुख. माझ्या तर विशेष जवळची. तिला कांही झालं असल्याच्या कल्पनेनेच मी कासावीस झालो.

“तुम्ही ट्रीपला गेला होतात.  तुम्ही तिकडे काळजी करीत रहाल म्हणून तुम्हाला फोन न

करता त्याने काल मला कळवलं होतं. ”

“झालंय काय पण?”

“आत्याच्या डाव्या हाताचं बोट खूप दिवसांपासून दुखत होतं म्हणे. आधी तिने फार लक्ष दिलं नव्हतं. बोटाला थोडी सूज जाणवली तेव्हा मग डाॅ. ना दाखवलं. बरेच दिवस औषध घेऊनही फरक पडेना म्हणून आर्थोपेडिकना दाखवलं.  एक्सरेमधे बोटाच्या हाडाला इन्फेक्शन झाल्याचं दिसून झा्

आलं. आठ दिवसांच्या अॅंटिबायोटीक्सनंतरही सूज वाढलीच. आता बोटाच्या हाडाचा भूगा होऊन इन्फेक्शन वाढत चालल्याने इतर बोटाना त्रास नको म्हणून बोट कापायचं ठरलंय.  दादाने दुसर्या आर्थोपेडिकचं सेकंड ओपिनीयनही घेतलंय आणि दोन दिवसानी सोमवारी आॅपरेशन करायचं ठरलंय. “ऐकता ऐकता मी गंभीर झाल्याचं पाहून सलिल बोलायचं थांबला क्षणभर.

“बाबा, आत्ता नऊच तर वाजलेत.  तुम्ही फोन करता का आत्याला? बोला तिच्याशी. म्हणजे तिला न् तुम्हाला दोघानाही बरं वाटेल. “मी मानेनेच नको म्हंटलं.  “मी उद्या कोल्हापूरला जाऊन येतो. समक्षच भेटतो. त्याशिवाय मलाच चैन पडणार नाही. . “मी शांतपणे सांगितलं खरं, पण ती शांतता वरवरचीच होती. आतून मात्र मी तिळतिळ तुटत होतो. रात्रभर डोळ्याला डोळा नव्हता.  माझ्यासाठी खस्ता खाल्लेल्या,  माझ्यावर उदंड प्रेम करणार्या माझ्या ताईचं माझ्या आयुष्यातल़ं नेमकं स्थान ती संकटात असल्याचं कळल्यानंतर असं

जाणवलं आणि हतबल मी कासावीस होत कूस बदलत राहिलो. तिचं हे दुखणं काय किंवा आॅपरेशनचा निर्णय काय, तिने नेहमीच्याच सहनशीलतेने आणि धिरोदात्तपणे स्विकारला असेलही कदाचित, पण मलाच ते स्विकारता येईना. ट्रीप अर्धवट सोडून यावं लागल्याने मला आधी समजलं तरी. आणखी दोन आठवड्यांनी आलो असतो तर तिचा बोट कापलेला हातच पहावा लागला असता. नुसत्या कल्पनेनेच अंगावर सरसरुन काटाच आला. पण मला आधी समजून तरी उपयोग काय?तिचं बोट मी वाचवू शकणाराय थोडाच?माझ्या हतबलतेने मी अधिकच अस्वस्थ झालो. उलटसुलट विचारांच्या ग्लानीत तरंगत असतानाच माझ्या

मिटू लागलेल्या नजरेसमोर

सांगलीच्याच डाॅ. परांजपेंचा मला आश्वस्त करणारा चेहरा तरळून गेल्याचा भास मला झाला आणि त्याच ग्लानीत झोप कधी लागली समजलंच नाही. सकाळी उशीरा जाग येत असतानाच नजरेसमोर तरळून गेलेला तो चेहरा आठवला न् मी कांहीतरी सापडल्याच्या आनंदाने  ताडकन् उठून बसलो.  मी सावरलोय हे पाहूनसलिललाही बरं वाटलं.

“लगेच चहा घेऊन आवरताय का?कोल्हापूरला जाऊन येऊ लगेच. “ही म्हणाली.

“नाही. . नको. दुपारनंतरच निघू म्हणजे तिचाही आराम होईल. “मी म्हणालो. सकाळी लवकरची अपाॅईंटमेंट घेऊन डाॅ. परांजपेना भेटलो. ताईच्या तक्रारीबद्दल सविस्तर कल्पना दिली.

“मला जखम बघावी लागेल. सगळे रिपोर्टसुध्दा. मगच कांही सांगता येईल. “डाॅ. म्हणाले आणि ते योग्यही होतंच.

“पण आज शनिवार. मी दुपारनंतर तिला भेटायला जाणाराय. तिला आणायचं म्हंटल़ं तर उद्या रविवार. सोमवारी तर ऑपरेशन होणाराय. ”

डाॅ. आमच्या घराजवळच रहातात. त्यामुळे त्यानी रविवारी घरी आलात तरी चालेल असं सांगितलं. मला तर तो शुभशकुनच वाटला.

दुपारच्या कोल्हापूरच्या भेटीत सविस्तर चर्चा झाली. माझ्या आग्रहाखातर त्यांनी डाॅ. परांजपेना भेटायची तयारी दाखवली. दुसर्या दिवशी माझा भाचा न् सून ताईला कारने घेऊन आले. जखम पाहून त्यानी सगळे रिपोर्टस् नजरेखालून घातले. ते काय बोलणार याची जीवाचे कान करुन वाट मी पहात राहिलो.

“बोट वाचेल. पण आत्ता १००% खात्री देत नाही. आत्ता फक्त ८०%. बाकी २०% माझी औषधं सुरू झाल्यानंतर मिळणार्या प्रतिसादावर अवलंबून असेल. तरीही तुमच्या आर्थोपेडिकना विश्वासात घेऊन हे सगळं सांगा. मला खात्री आहे, आॅपरेशन पुढे ढकलायला ते विरोध नाही करायचे. ”

डाॅ. परांजपेनी स्वत: तयार केलेलं एक विशिष्ठ तेल रोज बोटाला मसाज करण्यासाठी दिलं. ड्रेसिंग करायची न् मसाज करायची पध्दत, औषधाच्या गोळ्या घ्यायच्या वेळा, सगळं समजावून सांगितलं. ताईच्या सूनेनं ती सगळी जबाबदारी मनापासून स्विकारली आणि पारही पाडली. पुढे जवळजवळ सहा महिने हे प्रोसेस सुरु होतं. कणाकणानं सुधारणा होत अखेर बोट वाचलं. . !

त्यानंतरच्या प्रत्येक राखीपौर्णिमेला आणि भाऊबिजेला जेव्हा ताई मला ओवाळते तेव्हा त्या निरांजनांच्या प्रकाशात माझ्याही नकळत माझी नजर तिच्या हातातल्या तबकाखाली लपलेल्या त्या बोटाचा वेध घेत रहाते. . !

या घटनेनंतर पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेलंय पण ही आठवण मात्र वाहून नाही गेली. जाणं शक्यही नाही. ट्रीप अर्धवट राहून परत यावं लागण्यात माझ्या न् ताईच्या लागाबांध्यातला एक हळवा धागा नियतीने असा अलगद गु़ंफलेला होता या  जाणिवेच्या दिलासा देणार्या गारव्याने मनाला मिळणारं अनोखं समाधान कधीच न विरणारं आहे. . . !

© श्री अरविंद लिमये

सांगली

मो ९८२३७३८२८८

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ जेष्ठ नागरिक दिन ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुश्री संगीता कुलकर्णी

☆ मनमंजुषेतून ☆ जेष्ठ नागरिक दिन ☆ सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆

(काही तांत्रिक अडचणीमुळे  ‘जेष्ठ नागरिक दिन,’ हा  लेख काल लागू शकला नाही. तो आज लावत आहोत. –  ब्लॉग संपादक)

आयुष्यात घडलेल्या घटनांच्या माध्यमातून मला जे काही शिकायला मिळाले किंवा समाजात इतर ठिकाणी पाहावयास मिळाले त्याचेच हे सार. .

एक पिढी आणि दुसरी पिढी. . .  दरम्यान कोसळून पडलेल्या पुलाप्रमाणे घडलेल्या घटनांवर आधारित. .

वार्धक्याने वाकलेल्या खांद्याविषयी. . ज्यावर बसून आपण अनेक गोष्टींचा मनमुराद आनंद लुटला. . कंपवायूने थरथरत असलेल्या हातांनी कधी काळी मुलांना हाताला धरून चालायला शिकविले पडता पडता सावरले त्या हातांनी. . . मुलांना शांत झोप लागावी म्हणून ज्या ओठांनी अंगाई गीत म्हटले. . . त्याच ओठांना आपल्या मुलांकडून “गप्प बसा,  एक शब्दही बोलू नका ” असा धमकीवजा आदेश मिळतो.  हे सत्य आहे. . .  पण जमाना बदलला आहे.  त्याच बरोबर जीवनही बदलले आहे. . .

आमच्या वयाच्या लोकांनी आठवावे? कसे आपण नात्यांमध्ये एकमेकांच्या बंधनात गुरफटलेलो होतो.  आई वडिलांच्या हसर्‍या चेहर्‍यात साक्षात ईश्वराचे रूप बघत होतो.  त्यांच्या चरणी स्वर्ग दिसत होता. . पण आताची पिढी जरा जास्तच हुशार झाली आहे.  आणि खरं सांगायचे झाले तर अगदी प्रॅक्टिकल झाली आहेत. . . आजकालची पिढी (मात्रं काही अपवाद आहे हं बरं ) आई वडिलांना शिडीसमान मानते.  शिडीचा उपयोग फक्त वर जाण्यासाठीच असतो असा त्यांचा झालेला गोड गैरसमज. . . शिडी जुनी झाली की इतर अडगळीच्या वस्तूंबरोबर ती सुद्धा अडगळीत जाते किंवा कधी जाईल याचा भरवसा देता येत नाही. . आपल्या संसाराच्या ह्या रहाटगाडयात मुलांना योग्य संस्कार देण्यात कुठे कमी पडलो की काय? असा प्रश्न उपस्थित राहतो किंवा कळत देखील नाही. .  असो. . . .

जीवन हे एखाद्या वृक्षासारखे असते.  आई- वडील हे काही कुठल्या शिडीच्या पायर्‍या नव्हेत.  तर ते जीवनाच्या वृक्षांचे मूळ आहेत.  झाड कितीही मोठे होऊ दे हिरवेगार राहू दे. . परंतू त्याचे मूळच कापून टाकले तर ते हिरवेगारपणाचच काय ?मग ते समूळ झाडचं नष्ट होईल.

मुलांच्या जीवनातील पहिले पाऊल उचलण्या मध्ये ते मदत करू शकतात तर तीच मुलं आपल्या वृद्ध आई वडिलांच्या लडखणार्‍या पावलांना सावरण्याचा प्रयत्न का करू शकत नाही?  आयुष्यभर आपल्या मुलांच्या सुखाची,  त्यांच्या आरोग्याची कामना करणारे,  त्यांच्या साठी कष्ट करणारे आई वडील या जगात कमी आहेत का? ज्यांच्यासाठी आपल्या आवडीनिवडीला तिलांजली देऊन त्यांना मोठे करणाऱ्या,  समाजात त्यांना मानाचे स्थान प्राप्त करून देणाऱ्या या आई वडिलांना आजच्या पिढीकडून किती उपेक्षा सहन करावी लागते/होते. त्यांना किती कष्टमय जीवन जगावे लागते.  आधार असूनही निराधार अवस्थेत रहावे लागत आहे.  आजकाल तर  असे चित्र पाहावयास मिळत आहे आणि पाहण्यातही आले आहे.  परंतू आजची ही पिढी हे विसरू पहात आहे कि आज ही स्थिती त्यांची झाली आहे तीच परिस्थिती उदया तुम्ही जेंव्हा वृद्ध व्हाल त्यावेळी तुमच्यावरही येणार आहे.

आपण देखील उद्या वृद्ध होणार आहोत.  आपल्यालाही प्रेमाची,  शारिरीक व मानसिक आधाराची गरज भासणार आहे. . . .  म्हणूनच म्हणते वेळीच सावध व्हा. . .

आपल्या वृद्धपकाळासाठी शक्यतो आधीपासूनच तरतूद करून ठेवा. . . जर आपण मुलांचे पालनपोषण करू शकतो तर स्वतःचे पालनपोषण शेवटपर्यंत नाही का करू शकणार?

असा मी मनाला विचारलेला प्रश्न. . . . पण त्याचे उत्तर मात्र अनुत्तरीतच. . .

 

©  सुश्री संगीता कुलकर्णी 

लेखिका /कवयित्री

9870451020

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (5) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18  

(सन्यास   योग)

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्‌ ।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्‌ ।।5।।

यज्ञ, ज्ञान, तप, कर्म तो, कभी नहीं है ज्याज्य

ये तो पावन कर्म हैं ,करते मन को साफ।।5।।

 

भावार्थ :  यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं।।5।।

Acts of sacrifice, gift and austerity should not be abandoned, but should be performed; sacrifice, gift and also austerity are the purifiers of the wise.।।5।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

[email protected] मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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