श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  हँसी ? ?

भीड़ को चीरती-सी एक हँसी

मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी

कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक

कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी

मैं टूटा था, दरक-सा गया था

क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी…..?

 

पुष्पा गाँव की एक घसियारिन थी,

सलीके से उसके  हाथ

आधा माथा ढके जब घास काटते थे

तो उसके रूप की कल्पना मात्र से

कई कलेजे कट जाते थे…..

 

थी फूल अनछुई-सी

जंगली घास में जूही-सी

काली भरी-भरी सी देह

बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें

मुझे शायद आँखों से सुंदर

उसमें तैरते उसके भाव लगते थे

भाव जिनकी मल्लिका को

शब्दों की जरूरत ही नहीं

यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी…..

पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली

पर कुँआरी लड़कियाँ भी

उसके रूप से जल जाती थीं,

गांव के मरदों के अंदर के जानवर को,

कल्पनाओं में भी

उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था

लोक-लाज-रिवाज़ों के कपड़ों के भीतर भी

उनका प्राकृत रूप नज़र आ ही जाता था…..

 

पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी

पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी

पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक  अपेक्षा थी…..

 

गाँव के छोटे ठाकुर …… बस ठाकुर थे

नतीजतन रसिया तो होने ही थे,

जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती

वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती,

मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी

कोर्ई अपेक्षा पुरुष बसा है,

अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में

कुछ क्षण ठाकु र के,

उन्हें किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे

काँटों की शैया को सोने के पलंग

सपने सलोने से कम नहीं लगते थे…..

 

खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी

डूबते क्षितिज को चूमता सूरज

पक्षियों क ा कलरव,

घर लौटते चौपायों का समूह

दूर जंगल में शेर की गर्जना

अपने डग घर की ओर बढ़ाती

आतांकित बकरियों की छलांग,

इन सब के बीच,

सारी चहचहाट को चीरते

गूँज रही थी पुष्पा की हँसी …..

 

सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया

घर लौटकर, पसीना सुखाकर

कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना

मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना…..

 

स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी

ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा

प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी

चली जा रही थी पुष्पा …..

 

एकाएक,

शेर की गर्जना ऊँची हुई

मेमनों में हलचल मची

एक विद्रूप चौपाया

मासूम बकरी को घेरे खड़ा था

ठाकुर का एक हाथ मूँछोें पर था

दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था …..

 

हँसी यकायक चुप हो गई

झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया

सर पर रखा घास का झौआ

बगैर सहारे के तन गया था

हाथ की हँसुली

अब हथियार बन गया था…..

 

रणचंडी का वह रूप

ठाकुर देखता ही रह गया

शर्म से ऑँखें झुक गई

आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा,

निःशब्द शब्दों की जननी

सारे भाव ताड़ गई

ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है

तू तो गाँव का मुखिया है

हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है

फिर क्यों तू ऐसा है,

क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है …..?

 

ऐ भाई!

आज जो तूने मेरा हाथ थामा

तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा,

ये मैंनेे माना है,

एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था,

ठाकुर के पाप की गठरी को

उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था,

ठाकुर का जीवन बदल चुका था

छोटे ठाकुर, अब सचमुच के ठाकुर थे…..

 

पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था

निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था,

फिर शहर में घास बेचती

ग्राहकों को लुभाकर बातें करती

ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप,

पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप ?

 

उसे मुझे देख लिया था

पर उसकी तल्लीनता में

कोई अंतर नहीं आया था,

उलटे कनखियों से

उसे देखने की फ़िराक़ में

मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था

वह फिर भी हँसती रही……

गाँव के खेतों के बीच से जाती

उस संकरी पगडंडी पर

उस शाम पुष्पा फिर मिली थी

वह फिर हँसी थी…..

 

बोली, बाबूजी! जानती हूँ,

शहर की मेरी हँसी

तुमने गलत नहीं मानी है,

पुष्पा वैसी ही है

जैसी तुमने शुरू से जानी है

हँसती चली गई, हँसती चली गई

हँसती-हँसती चली गई दूर तक…..

 

अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए

अस्तित्व को लिए

निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं

क्षितिज को देखता रहा

जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा,

खुद ने खुद से प्रश्न किया

ठाकुर और तेरे जैसों की

सफेदपोशी क्या सही थी,

उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी !

(यह रचना लिखते समय लगभग बीस वर्ष पहले पढ़ी महान कथाकार प्रेमचंद जी की कहानी ‘घासवाली’ का धुँधला चरित्र मस्तिष्क में था।)

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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