हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #230 ☆ अनुभव और निर्णय… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 230 ☆

☆ अनुभव और निर्णय… ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है। 

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है। 

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 5 – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना

? रचना संसार # 5 – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

मन तुरंग उड़ता ही जाता

डालो भले नकेल।

 *

कभी पढ़े कबीर की साखी,

कभी पढ़े वह छंद।

तृषित हृदय की प्यास बुझाता,

पीकर मधु मकरंद।।

अंग-अंग में बजती सरगम,

चलती प्रीति गुलेल।

 *

संकल्पों की सीढ़ी चढ़ता,

हों कितने अवरोध।

हर चौखट पे अमिय ढूँढ़ता,

करता है अनुरोध।।

चढ़कर अनुपम शुचिता डोली,

नवल खेलता खेल।

 *

नव चिंतन है नवल चेतना,

शब्द-शक्तियाँ साथ।

शब्दकोश करता समृद्ध भी,

सजे गीत हैं माथ।।

मधुरिम नवरस अलंकरण की,

चलती जैसे रेल।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #230 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 230 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

द्वारे मालन बेचती,  भांति भांति के फूल।

ईश्वर को अर्पित किए, श्रद्धा के अनुकूल।

*

खुश होकर माला गुथी, श्रद्धा लिए अपार।

कृपा दृष्टि रखना प्रभु, हे करना आगार।।

*

चुनती मालन फूल है, धन्य हुए वो बाग।

भेंट मंदिरो में करे, खुलते उसके भाग।।

*

रंग बिरंगे फूल का, बने जतन से हार।

बेंच रही है रोज वो, बैठी प्रभु के द्वार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #212 ☆ गीत – उन्हें तसव्वुर हो ना हो मगर… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना – उन्हें  तसव्वुर हो ना हो मगर आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 212 ☆

☆ गीत – उन्हें  तसव्वुर  हो  ना हो  मगर… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

गीत प्यार  के हम  गाने लगे  हैं

देखो हम अब  मुस्कुराने लगे हैं

*

दिल में डेरा है अब हसरतों  का

ख्वाब कई  हम सजाने  लगे  हैं

*

पंख लग गये अरमानों के बहुत

कबूतर  प्रेम  के  उड़ाने  लगे हैँ

*

उन्हें  तसव्वुर  हो  ना हो  मगर

याद हमें वो हरदम आने लगे हैँ

*

दास्तां इश्क़ की इस कद्र फैली

लोग चुपके से बतियाने लगे हैँ

*

जिनको सहूर नहीं आशिक़ी का

पाठ इश्क़ का वही पढ़ाने लगे हैँ

*

इश्क़ जब सच्चा होता है संतोष

वहाँ आशियाने जगमगाने लगे हैँ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 220 ☆ महाराष्ट्र गौरव… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “आवाज दे कहा है…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

“आवाज दे कहाॅं है…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

..”अगं अल्के! तू मला काही विचारू नयेस आणि मी तुला सांगू नये अशी गत झाली आहे बाई अलिकडे माझी… आताच पाहते आहेस ना.. तुझ्या डोळ्यासमोरच त्यांचं काय चाललं आहे ते… अस्सं सारखं दिवसरात्र याचं पिणं चालूचं असतं घरात… जळ्ळा मेला काय तो करोना आला आणि तेव्हापासून माझ्या आयुष्याचं मातेरा करून गेला बघ… त्यावेळेपासून याचं वर्क फ्राॅम होम जे सुरू झालयं ना तेव्हा चोवीस तास त्या लॅपटॉपमध्ये डोकं खुपसून बसतात.. सारखा सारखा दहा दहा मिनिटाला चहाची ऑर्डर सोडत असतात… घर नाही तर कॅन्टीनच करून ठेवलयं त्यांनी.. आणि मला सारखी दावणीला जुंपून ठेवलीय त्यांनी… हक्काची बायको आहे मी त्यांची पण पगारदार मोलकरणीसारखी नाचवत असतात हरकामाला…पूर्वी ऑफिसला जात होते तेव्हा बरं होतं बाई.. आठवड्यातून एकदा सुट्टीच्या वेळेला काय तो  पिटृटा पडायचा.. पण आता हा माणूस चौविसतास घरात असतो त्यानं मला अगदी विट आलाय बघ… बाईच्या जातीला थोडा आराम, मनासारखं काही करु म्हटलं तर कसली सोय उरली नाही… हौसमौज तर केव्हाच केराच्या टोपलीत गेली… मगं अती  झालं नि हळूहळू आमच्यात तू तू मै मै सुरू झालं…घरं दोघाचं आहे.. जबाबदारी दोघांनी सारखी घेतली पाहिजे असं सगळ्याची समसमान वाटणी करुन घेऊया म्हटलं तर मला म्हणाले , मी इथं असलो तरी ऑफिसात असल्यासारखेच आहे असं समज.. जसा ऑफिसला जात होतो.. उशीराने घरी येत होतो कधी कधी पार्टी करून येत होतो अगदी तसचं वागलं तर मला ऑफिसात काम केल्याचा फिल येईल… त्यावेळी लाॅकडाऊन असल्याने बाहेर जाऊन असले काही थेरं करता येत नव्हती पण जसं लाॅकडाऊन बंद झालं पण ऑफिसने मात्र काॅस्टकटिंगच्या नावाखाली ऑफिसची जागाच विकून टाकली आणि सगळयांनाच  वर्क फ्राॅम होम सुरू करायला काय सांगितले… तेव्हा पासून रोजची यांची संध्याकाळ एका पेगने सुरू झाली… आणि हळूहळू हळूहळू आता  खंबा पर्यंत   पोहचली बघं.. मग कसली शुद्ध राहतेय… रात्रभर पेगवर पेग ढोसणं तोंडी लावायला चणेफुटाणे कधी काही.. आणि मग तर्र झालं कि तसचं लुढकणं.. सकाळी उशिरापर्यंत झोपणं.. हॅंगहोवर झाला कि तोंडाचा पट्टा सुरू करणं कि परत उतारा म्हणून पेग घेणं.. चढत्या क्रमानं वाढतं जातं… तरी बरं घरात आम्ही दोघचं असतो.. मुलबाळं, मोठं कुणी असतं तर शोभायात्राच निघाली असती… अलिकडे या बेसुमार नि बेताल पिण्या पुढे बायको देखील त्यांना ओळखेनाशी होते बऱ्याच वेळेला..कधी कधी अति पिणं झाल्यावर मलाच डोळा मारून सांगतात जानू चल माझ्याघरी… आय लव्ह यू व्हेरी व्हेरी मच… ती घरवाली नुसती कामवाली झालीयं.. तिच्यात तुझ्यासारखा काही चार्म राहिला नाही… असं बरळत असतात… आणि पुढे कुठेतरी सोफ्यावर पडून जातात… असं हे रोजचचं चाललंय बघं… माझा आयुष्याचा तमाशाच झालायं… सुदैव इतकं कि त्यांची नोकरी अजून शाबूत आहे… म्हणून घरं तरी चालतयं.. पण किराणाच्या बिलापेक्षा बाटलीचं बिलं कैकपटीने जास्त येतेयं… बाटल्यांचा हा खच पडतो आठवड्याला… चुकून मागच्या आठवड्यात दोनचार बाटल्या कमी झाल्या असतील नसतील.. तर त्या दिवशी कचरेवाल्यानं विघारलं देखील बाईजी इस हप्ते बाटली बहुत कम दिखती है…साब ने पिना छोड दिया लगता है… अरे ऐसा हमरा नुकसान मत करो भाभी… ‘आता सांग काय म्हणू मी या दुर्देवाला…सगळं ऑनलाईन मिळतं असल्याने बाहेर कुणाला कसलीच शंका येत नाही बघ.. आणि सोसायटीत आता याचंच तेव्हढेच वर्क फ्राॅम होम असल्याने बाकी सगळे ऑफिसला बाहेर जातात…तसं घरीही कुणाचं येणं जाणही नसतचं मुळी..म्हणजे घरी याचचं राज्य..अख्खी सोसायटी यांच्या या सुखी माणसाबद्दल असुयेने बघतात… . आणि त्या शेजारच्या पाजारच्या साळकाया माळकाया तर मला बघून सारखं नाकं मुरडत असतात… काय नशिबं एकेकीचं.. सगळं काही सुपात नि सुखात देतो देव त्यांना नाहीतर आपलं बघा.. मेला हा जन्म नकोसा करून टाकलाय या संसाराने… अगं अल्के  तुला सांगते… दिसतं तसं नसतंच मुळीच.. जावं त्याच्या वंशा म्हणजे कळतील त्या यातना… अगं अल्के मला तर बाई घरी कुणाला बोलवायचं म्हटलं तरी अंगावर काटा येतो.. हा माणूस कधी कसा बरळेल काहीही सांगता येत नाही… तरी बरं जास्त पिणं झालं कि यांची जीभ जड होते समोरच्याला त्यांचं बोलणं स्पष्ट कळतं नाही तेच बरं… मला आता त्याची सवय झाली आहे.. त्यामुळे मला सगळं बोलणं कळतं… आता हेच बघ.. इतकं पिणं चाललयं तर मला डोळा मारून सांगतात कि त्या स्विटहार्ट चा मोबाईल नंबर  मला देशील काय? म्हणजे तुझा नंबर त्यांना हवा आहे… आता सांग मी हसावं कि रडावं यांच्या पुढे नि माझ्या नशिबापुढे… मला वाटतं तू फार वेळ थांबू नये.. तू आता निघालेलं बरं… माझं कायं रोज मरे त्याला कोण रडे… पण बरं वाटलं बऱ्याच दिवसांनी कोणीतरी माझी आपुलकीने चौकशी केली!…मोहर गळून गेलेल्या वसंत ऋतूतल्या आम्रवृक्षासारखं जिवन झालयं माझं!… कोकिळाच्या प्रतिसादाच्या प्रतिक्षेत विराणी गात बसलेल्या कोकिळेसारखं!. “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय आठवा — अक्षरब्रह्मयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय आठवा — अक्षरब्रह्मयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

।। अथाष्टमोऽध्याय: ।।

अर्जुन उवाच :

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।।१।।

कथित अर्जुन

केशवा कथिले मज ब्रह्म अध्यात्म कर्म आहे काय

अधिदैव कशाला म्हणताती अधिभूत आहे काय ॥१॥

*

अधियज्ञ: कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभि: ।।२।।

*

अधियज्ञ कोण केशवा वास्तव्य देही कसे तयाचे

अंतःकाळी युक्तचित्त पुरुषा ज्ञान होते कसे तुमचे ॥२॥

*

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञित: ।।३।।

*

परब्रह्म अविनाशी स्वरूपस्थिती अध्यात्म नाव

जीवभावा निर्मितो विसर्ग त्याग कर्म तयाचे नाव ॥३॥

*

अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम् ।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।४।।

*

उत्पत्ती-नाश बंध जयासी जीव ते अधिभूत

देहात जीव अधिदैव तर मी अधियज्ञ कायेत ॥४॥

*

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय: ।।५।।

*

देहत्याग समयी जो करी माझे स्मरण

निःसंशये तो होत मम स्वरूपी विलीन ॥५॥

*

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ।।६।।

*

अंतकाळी जागृत ज्या भावना मनी

त्यांचीच प्राप्ती  तया देहास त्यागुनी

जीवनभर जयांचे सदैव करितो चिंतन 

अखेरच्या क्षणी त्यासी तयांचे स्मरण ॥६॥

*

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।७।।

*

जाणूनी वर्म मतीस पार्था करी माझे स्मरण

करशील प्राप्त मम करोनी मनप्रज्ञा मम अर्पण ॥७॥

*

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ।।८।।

*

भगवद्ध्यान अभ्यासपूर्ण योग अर्जुन 

एकाग्र चित्त मम ठायी माझेची चिंतन 

दिव्य पुरुषाप्रती होता एकरूप ध्यान

मजसी प्राप्त तो खचित हेचि विश्वज्ञान ॥८॥

*

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ।।९।।

*

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

भ्रूवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।।१०।।

*

सर्वज्ञ अनादि सकल नियंता अचिंत्यस्वरूप

अविद्यातीत तमारी आदित्यवर्ण प्रकाशरूप 

सूक्ष्मात सूक्ष्म असुनी धारक-पोषक सर्वांचा

सदैव करितो स्मरण जो अशा शुद्ध परमात्म्याचा

आज्ञाचक्रे सुस्थापित अंतकाले योगे प्राणाला

निरुद्धचित्ते करित तो प्राप्त दिव्य परमात्म्याला ॥९,१०॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 139 ☆ लघुकथा – दिन छुट्टी का ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा दिन छुट्टी का ?। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 139 ☆

☆ लघुकथा – दिन छुट्टी का ?  ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

रविवार का दिन। छुट्टी के दिन सबके काम इत्मीनान से होते हैं। बच्चे तो दस बजे तक सोकर उठते हैं। रिया सबसे पहले नहाने चली गई, छुट्टी के दिन बाल ना धो तो फिर पूरे हफ्ते समय ही नहीं मिलता। ऑफिस से लौटते हुए सात बज जाते हैं फिर वही रात के खाने की तैयारी। उसने नहाकर पूजा की और सीधे रसोई में चली गई नाश्ता बनाने। रविवार को नाश्ता में कुछ खास चाहिए सबको। आज नाश्ते में इडली बन रही है। नाश्ते करते-करते ही ग्यारह बज गए। बच्चों को आवाज लगाई खाने की मेज साफ करने को। तभी पति की आवाज सुनाई दी –‘सुनो! मेरी पैंट शर्ट भी वाशिंग मशीन में डाल देना। ‘ झुंझला गई – ‘अपने गंदे कपड़े भी धोने को नहीं डालते, बच्चे तो बच्चे ही हैं, पर ये —

बारह बजने को आए, जल्दी से खाने की तैयारी में लग गई। दाल-चावल , सब्जी बनाते-बनाते दो बजने को आए। गरम-गरम फुलके खिलाने लगी सबको। तीन बजे उसे खाना नसीब हुआ। रसोई समेटकर कमर सीधी करने को लेटी ही थी कि बारिश शुरू हो गई। अरे, मशीन से निकालकर कपड़े बाहर डाल दिए थे, जब तक बच्चों को आवाज लगाएगी कपड़े गीले हो जाएंगे, खुद ही भागी। सूखे कपड़े तह करके सबकी अल्मारियों में रख दिए जो थोड़े गीले थे कमरे में सुखा दिए। शाम को फिर वही क्रम रात का खाना, रसोई की सफाई— । छुट्टी के दिन के लिए कई काम सोचकर रखती है पर कई बार रोजमर्रा के काम में ही रविवार निकल जाता है। छुट्टीवाले दिन कुछ ज्यादा ही थक जाती है। छुट्टी का तो इंतजार ही अच्छा होता है बस। थककर चूर हो गई, आँखें बोझिल हो रही थीं कि पति ने धीरे से कंधे पर हाथ रखकर कहा– ‘आज सारा दिन मैं घर पर था पर तुम दो मिनट आकर बैठी नहीं मेरे पास, क्या करती रहीं सारा दिन? प्यार करती हो ना मुझसे? वह जैसे नींद में ही बोली— ‘प्यार?’ आगे कुछ बोले बिना ही वह गहरी नींद में सो गई।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 194 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 194 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण

भक्ति और भावना को समेटे अक्षयलाल जी अपनी दिनचर्या से समय बचाकर नेक कार्यों में बिताने का संकल्प लिए हुए हैं। सच्ची बात तो ये है कि जहाँ संकल्प होता है वहाँ विकल्प शान से पहले ही विराजमान होकर सभा की शोभा बढ़ाने लगता है। बहानेबाजी करने में जिनको महारत हासिल हो वो तरह- तरह के कारण- निवारण बताने लगते हैं। एक झूठ सौ तरकीबें बनाने में माहिर होता है।यहाँ हम लोग अपने में भी व्यस्त होने का दिखावा कर रहे हैं और वहाँ संभावनाओं में भावना की तलाश जारी है। कहा भी गया है- जिन खोजे तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ …। सो एकता के साथ कामकाजी होने का बहाना साधे अवसर न मिलने का रोना रोते हुए चाय पानी में लगे हुए हैं। जन जाग्रति हेतु जनमानस के बीच जाना और अपना मनोरंजन करके वापस आ जाना, बस यही कार्यप्रणाली बरसों से चली आ रही है। न तो टू डू लिस्ट का पालन न कार्यकर्ताओं के विचारों पर अमल, बस अपनी डफली अपना राग इसी लक्ष्य को साधते हुए आगे बढ़े जा रहे हैं। कहते हैं जो निरन्तर चलता रहेगा वो कुछ न कुछ तो अवश्य पायेगा। यही उनकी जिंदगी का मूलमंत्र है। रास्ते में कितने लोग हाथ छोड़कर चले गए इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता बस अपनी धुन में मगन अपना राग अलापते हुए चलते जाना है।

मजे की बात ऐसे लोगों के सलाहकार भी जमीन से जुड़े न होकर सात समंदर पार बैठे हुए लोग होते हैं जो उल्टी ही चाल चलते हैं ताकि कोई न कोई बखेड़ा हो और न्यूज़ के फ्रंट फुट पर बिना कुछ किये ही बने रहा जा सके। कुछ लोग समय के इशारे को समझ कर अपनी राहें बदल लेते हैं किंतु कुछ अड़िग होकर बस भ्रमण को ही लक्ष्य समझते हैं। टाइमपास करते हुए टाइम मशीन के युग तक जाना, तकनीकी मुद्दों से दूरी बनाना बस विकास कब ,कैसे और क्यों होगा? इसी को समय- समय पर उठाते रहना। रोजगार और रेजगारी सबके बस की बात नहीं है, इन्हें संभालने के लिए बल बुद्धि दोनों चाहिए, जो मेहनती हैं उन्हें सब मिल रहा है , जो खाली हो हल्ला कर रहे हैं वे इस उम्मीद के सहारे बैठे हैं कि आज नहीं तो कल घूरे के दिन भी फिरेंगे। वक्त क्या रंग दिखायेगा ये तो तय है फिर भी औपचारिकता जरूरी होती है। सो गर्मजोशी के साथ सत्कर्मों का स्वागत करिए। अच्छे और सच्चे के साथी बन नेकनीयती का परिचय दीजिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 157 ☆ “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” – डॉ. जवाहर कर्नावट ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. जवाहर कर्नावट जी द्वारा लिखित पुस्तक – “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 156 ☆

☆ “विदेश में हिंदी पत्रकारिता” – डॉ. जवाहर कर्नावट ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा 

विदेश में हिंदी पत्रकारिता

जवाहर कर्नावट

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

पहला संस्करण २०२४,

पृष्ठ ३००, मूल्य ४००रु

ISBN 978-93-5743-322-8

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

डॉ. जवाहर कर्नावट

मान्यता है कि हिंदी भाषा की उत्पत्ति लगभग 1200 ईसा पूर्व संस्कृत के विकास के साथ हुई थी। समय के साथ इसकी विभिन्न बोलियां विकसित हुईं, जिनमें आधुनिक हिंदी भी एक है। देवनागरी लिपि के उद्भव के साथ 1000 ई.पू. के आसपास हिंदी का लिखित रूप सामने आया। लगभग 260 मिलियन लोगों द्वारा हिंदी वैश्विक स्तर पर बोली जाती है। ऐसी भाषा की पत्रकारिता का इतिहास स्वाभाविक रूप से प्रचुर है। आंकड़ो के अनुसार हिन्दी दुनिया में चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत में एक लोकप्रिय भाषा होने के साथ-साथ भारतीयों के वैश्विक विस्थापन के चलते यह अंतर्राष्ट्रीय रूप में भी महत्वपूर्ण भाषा बन गई है। समय के साथ हिंदी ने अंग्रेजी, फ़ारसी और अरबी सहित कई अन्य भाषाओं से कई शब्द समाहित कर लिए हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि राष्ट्रभाषा के बिना कोई भी राष्ट्र गूँगा हो जाता है। उन्होंने हिन्दी के विषय में कहा है कि “मैं हिंदी भाषा उसे कहता हूं जिसे उत्तर में हिंदू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या उर्दू में लिखते हैं। गांधीजी चाहते थे कि देश में बुनियादी शिक्षा से उच्च शिक्षा तक सब कुछ हिन्दी के माध्यम से हो। नागपुर में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मेलन जनवरी, 1975 में यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए तथा एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय जिसका मुख्यालय वर्धा में हो। अगस्त, 1976 में मॉरीशस में आयोजित द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन में यह तय किया गया कि मॉरीशस में एक विश्व हिंदी केंद्र की स्थापना की जाए जो सारे विश्व में हिंदी की गतिविधियों का समन्वय कर सके। इसी प्रस्ताव के अनुरूप चौथे विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना मॉरीशस में हुई।

जवाहर कर्नावट की सद्यः प्रकाशित पुस्तक विदेश में हिंदी पत्रकारिता में कुल चार अध्यायों में क्षेत्र के अनुसार विभिन्न देशों में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास समेटा गया है।

किताब के पहले ही अध्याय मारीशस में हिन्दी पत्रकारिता में कर्नावट जी लिखते हैं कि मारीशस में हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास ११२ वर्ष पुराना है। दरअसल गिरमिटिया देशों में हिन्दी पत्रकारिता का वैश्विक हिन्दी स्वरूप भक्ति मार्ग से प्रशस्त होता है, क्यों कि जब एक एग्रीमेंट के तहत हजारों की संख्या में भारतीय मजदूरों को विभिन्न औपनिवेशिक देशों में ले जाया गया तो उनके साथ गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरित मानस भी वहां पहुंची और इस तरह हिन्दी के वैश्वीकरण की यात्रा चल निकली। कर्नावट जी ने बड़े श्रम से व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास कर मारीशस, आफ्रीका, फिजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिदाद टुबैगो आदि गिरमिटिया देशों में हिंदी पत्रकारिता की ऐतिहासिक यात्रा को संजोया है। उनका यह विशद कार्य भले ही क्रियेटिव राइटिंग की परिभाषा से परे है पर निश्चित ही यह मेरी जानकारी में पुस्तक रूप में संग्रहित विलक्षण प्रयास है।

वर्ष २०११ में पवन कुमार जैन की पुस्तक “विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता” शीर्षक से राधा पब्लिकेशन्स दिल्ली से प्रकाशित हुई थी, उसके उपरान्त इस विषय पर यह पहला इतना बड़ा समग्र प्रयास देखने में आया है, जिसके लिये जवाहर कर्नावट जी को हिन्दी जगत की अशेष बधाई जरूरी है।

मुझे अपने विदेश प्रवासों तथा सेवानिवृति के बाद बच्चों के साथ अमेरिका, यूके, दुबई में कई बार लंबे समय तक रहने के अवसर मिले, तब मैने अनुभव किया कि हिन्दी वैश्विक स्वरूप धारण कर चुकी है। कई बार प्रयोग के रूप में जान बूझकर मैने केवल हिन्दी के सहारे ही इन देशों में पब्लिक प्लेसेज पर अपने काम करने की सफल कोशिशें की हैं। यूं तो मुस्कान और इशारों की भाषा ही छोटे मोटे भाव संप्रेषण के लिये पर्याप्त होती है किन्तु मेरा अनुभव है कि हिन्दी की बालीवुड रोड सचमुच बहुत भव्य है। नयनाभिराम लोकेशन्स पर संगीत बद्ध हिन्दी फिल्मी गाने, मनोरंजक बाडी मूवमेंट्स के साथ डांस शायद सबसे लोकप्रिय मुफ्त ग्लोबल हिन्दी टीचर हैं। टेक्नालाजी के बढ़ते योगदान के संग जमीन से दस बारह किलोमीटर ऊपर हवाई जहाज में सीट के सामने लगे मानीटर पर सब टाईटिल के साथ ढ़ेर सारी लोकप्रिय हिन्दी फिल्में, और हिन्दी में खबरें भी मैंने देखी हैं। प्रस्तुत पुस्तक में जवाहर जी ने उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया महाद्वीप के देशों में हिन्दी पत्रकारिता खण्ड में अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, और न्यूजीलैंड देशों के हिन्दी के प्रकाशनो को जुटाया है। उन पर कर्नावट जी की विशद टिप्पणियां और परिचयात्मक अन्वेषी व्याख्यायें महत्वपूर्ण दस्तावेजी करण हैं।

मेरे अभिमत में पिछली सदी में भारत से ब्रेन ड्रेन के दुष्परिणाम का सुपरिणाम विदेशों में हिन्दी का व्यापक विस्तार रहा है। जो भारतीय इंजीनियर्स, डाक्टर्स विदेश गये उनके परिवार जन भी कालांतर में विस्थापित हुये, उनमें से जिनकी साहित्यिक अभिरुचियां वहां प्रस्फुटित हुईं उन्होंने किसी हिन्दी पत्र पत्रिका का प्रकाशन विदेशी धरती से शुरु किया। उन छोटे बड़े बिखरे बिखरे प्रयासों को किताब की शक्ल में एकजाई रूप से प्रस्तुत करने का बड़ा काम जवाहर जी ने इस कृति में कर दिखाया है। यद्यपि यह भी कटु सत्य है कि विदेशों के प्रति एक अतिरिक्त लगाव वाले दृष्टिकोण की भारतीय मानसिकता के चलते विदेश से हुये किंचित छोटे तथा पत्रकारिता और साहित्य के गुणात्मक मापदण्डो पर बहुत खरे न होते हुये भी केवल विदेश से होने के कारण भारत में ऐसे लोगों की स्वीकार्यता अधिक रही है। विदेशों में अलग अलग स्थान से बाल साहित्य, विज्ञान साहित्य, कथा साहित्य, कविता, हिन्दी शिक्षण आदि आदि विधाओ पर अनेकों लोगों ने अनियतकालीन कई पत्र पत्रिकायें शुरू कीं जो, छपती और जल्दी ही बंद भी होती रहीं है। इस सबका लेखा जोखा करना इतना सरल नही था कि एक व्यक्ति केवल अपने स्तर पर यह सब कर सके। लेखक ने अपने संबंधो के माध्यम से यह काम कर दिखाया है। लेखक ने किताब के अंत में विविध देशों की पत्र पत्रिकायें उपलब्ध करवाने वाले महानुभावों तथा संस्थाओ की सूची भी दे कर अनुगृह व्यक्त किया है।

किताब के प्रत्येक चैप्टर्स के शीर्षक देश के नाम के साथ ” …. में हिंदी पत्रकारिता” हैं। इससे शीर्षको में एक रसता लगती है। यह भी ध्वनित होता है कि समय समय पर स्वतंत्र रूप से पत्रिकाओ के लिये लिखे गये लेखों को संग्रहित कर पुस्तक बनाई गई है। संपादित कर हर चैप्टर के कंटेंट के अनुरूप बेहतर शीर्षक दिये जाने चाहिये। आशा है कि किताब के अगले संस्करण में यह सरल वांछित सुधार किया जा सकेगा। उदाहरण के लिये अमेरिका में हिन्दी पत्रकारिता शीर्षक की जगह वहां के एक साप्ताहिक समाचार पत्र के आधार पर शीर्षक ” नमस्ते यू एस ए ” हो सकता है, जिसे अंदर लेख में स्पष्ट किया जा सकता है। इसी तरह न्यूजीलैंड में हिंदी पत्रकारिता शीर्षक की जगह ” हस्तलिखित रिपोर्टिंग से शुरुवात ” शीर्षक बेहतर हो सकता था। क्योंकि वहां द इंडियन टाईम्स में हस्तलिखित रिपोर्टो से हिन्दी पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ था। मोटी शीट पर अलग से विभिन्न विदेशी पत्र पत्रिकाओ के चित्र छापे गये हैं, जिन्हें सहज ही संबंधित चैप्टर्स के साथ लगाया जाना चाहिये। पुस्तक में लेखक का परिचय भी दिया जाना चाहिये जिसका अभाव है। उल्लेखनीय है की कर्णावट जी को उनकी सतत हिंदी सेवाओ के लिए अनेकानेक सम्मान तथा विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। यूरोप के महाद्वीप देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, नार्वे, हंगरी और बुल्गारिया तथा रूस में हिंदी पत्रकारिता का वर्णन है। एशिया महाद्वीप के देशों में जापान, यू ए ई, कुवैत, कतर, चीन, तिब्बत, सिंगापुर, म्यांमार, श्रीलंका, थाईलैंड, और नेपाल को लिया गया है। इस तरह हिन्दी पत्र पत्रिकाओ के परिचय पाते हुये पाठक विश्व भ्रमण पूरा कर डालता है।

मेरी दृष्टि में जवाहर जी का यह प्रयास प्रशंसनीय है, जिसके लिए हिन्दी जगत उनका आभारी है, विभिन्न छोटे बड़े देशों मे सौ से ज्यादा वर्षो में किए गए प्रिंट मीडिया के तथा अब ई पत्रिका सामग्री के तथ्य जुटाकर उन्हें किताब के रूप में ढालना कठिन काम था। निश्चित ही पत्रकारिता के युवा शोधार्थियों को यह किताब विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता की लम्बी यात्रा पर एकजाई प्रचुर सामग्री देती है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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