हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #254 ☆ नीयत और नियति ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख नीयत और नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 253 ☆

☆ नीयत और नियति 

“जिसकी नीयत अच्छी नहीं होती, उससे कोई महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध नहीं होता” जेम्स एलन का उक्त वाक्य अत्यंत कारग़र है, जो नीयत व नियति का संबंध प्रेषित करता है। इंसान की नीयत के अनुसार नियति अपना कार्य करती है और उससे परिणाम प्रभावित होता है। जिस भावना से आप कार्य करते हैं, वैसा ही कर्म फल आपको प्राप्त होता है। ‘कर भला, हो भला’, ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ व ‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ अर्थात् ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही पल पाएगा इंसान’ पर प्रकाश डाला गया है। आप जो भी करते हैं, वही आपके पास लौट कर आता है – यह सृष्टि का अकाट्य सत्य है तथा इससे श्रेष्ठ कर्म करने का संदेश प्रेषित है। यह आकर्षण का सिद्धांत अर्थात् ‘लॉ आफ अट्रैक्शन’ है। जिसकी नीयत में खोट होता है, उससे किसी महत्वपूर्ण कार्य की अपेक्षा करना व्यर्थ है, क्योंकि वह कभी भी, किसी का अच्छा व हित करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। लाओटर्स का यह कथन “ज्ञानी संचय नहीं करता। वह ज्यों-ज्यों देता है, त्यों-त्यों पाता है” अत्यंत सार्थक है। जितना आप सृष्टि अर्थात् यूनिवर्स में देते हैं, उससे कई गुना आपके पास लौट कर आता है। सो! ज्ञानी के भांति संचय मत कीजिए तथा प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना कीजिए कि प्रभु आपको दाता बनाए तथा आप निरंतर निष्काम कर्म करते रहें।

“जिस परिमाण में हम में ज्ञान, प्रेम तथा कर्म का मिलन होता है, उसी परिमाण में हमारे अंदर पूर्णता आती है।” टैगोर का यह कथन श्लाघनीय है। संपूर्णता पाने के लिए ज्ञान, प्रेम व कर्म का सामंजस्य आवश्यक है। प्रसाद जी “ज्ञान दूर, कुछ क्रिया भिन्न है/  इच्छा क्यों पूरी हो मन की/ एक दूसरे से मिल ना सके/ यह विडम्बना है जीवन की” में वे ज्ञान की महत्ता को दर्शाते हैं। यदि बिना पूर्व जानकारी के किसी कार्य को अंजाम दिया जाता है, तो हृदय की इच्छा कैसे पूर्ण हो सकती है? एकदूसरे की भावनाओं के विपरीत आचरण करना ही जीवन की विडम्बना है। टैगोर भी ज्ञान, प्रेम व कर्म के व्याकरण के संबंध में प्रकाश डालते हैं तथा इसे आत्मिक शांति पाने का साधन बताते हैं। डॉ• विद्यासागर “सच्चा सम्मान पद या धन से नहीं, मानवता व करुणा से आता है” के माध्यम से वे बुद्ध की करुणा व मानवतावादी भावना प्रकाश डालते हैं। मानव मात्र के प्रति करुणा, दया व सहानुभूति का भाव वह दैवीय गुण है, जो स्व-पर, राग-द्वेष व अपने-पराये के संकीर्ण भाव से ऊपर उठ जाता है, जो स्नेह, अपनत्व व सौहार्द का प्रतीक है; जिसमें सामीप्य व सायुज्य भाव निहित है। सत्कर्म मानव की नियति को बदलने की क्षमता रखते हैं।

मानव स्वयं अपना भाग्य विधाता है, क्योंकि हम निरंतर परिश्रम, लगन, दृढ़ निश्चय व आत्मविश्वास द्वारा अपनी तक़दीर अर्थात् भाग्य-रेखाओं को बदलने का सामर्थ्य रखते हैं। इंसान नियति को बदल सकता है, बशर्ते उसकी नीयत अच्छी व सोच सकारात्मक हो। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जो हम देखते हैं, सोचते-विचारते हैं, वैसा ही हमें संसार दिखाई पड़ता है। इसलिए मानव को नकारात्मकता को त्यागने का संदेश प्रेषित किया गया है। यदि हम ऐसी सोच वाले लोगों के मध्य रहेंगे, तो सदैव तनाव में रहेंगे और एक दिन अवसाद-ग्रस्त हो जाएंगे। यदि हम  कूड़े के ढेर के पास से गुजरेंगे, तो दुर्गंध आपकी मन:स्थिति को दूषित कर देगी और इसके विपरीत बगिया के मलय वायु के झोंके आपका हृदय को हर्षोल्लास से आप्लावित कर देंगे।

‘बुरी संगति से मानव अकेला भला’ के माधयम से मानव को सदैव अच्छे लोगों, मित्रों व पुस्तकों की संगति में रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि यह सब मानव को सुसंस्कृत करते हैं; हृदय की दूषित भावनाओं का निष्कासन कर सद्भावों, व सत्कर्मों करने को प्रेरित करते हैं। इसलिए मानव को बुरा देखने, सुनने व करने से दूर रहने का संदेश दिया गया है, क्योंकि मन बहुत चंचल है तथा दुष्कर्मों की ओर शीघ्रता से प्रभावित होता है। बुराइयाँ मनमोहक रूप धारण कर मानव को आकर्षित व पथ-विचलित करती हैं।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात ब्रह्म सत्य है। हमारे लिए प्रभु पर विश्वास कर, उस राह पर चलना दुष्कर है, क्योंकि उसमें अनगिनत काँटे व अवरोध हैं; जिन्हें पार करना अत्यंत कठिन है। परंतु जगत् मिथ्या है और माया के प्रभाव से यह सत्य भासता है। इंसान आजीवन माया महाठगिनी के जाल से मुक्त नहीं हो पाता और सुरसा के मुख की भांति बढ़ती इच्छाओं के जाल में उलझा उनकी पूर्ति में मग्न रहता है। अंत में वह इस दुनिया को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है और यह उसकी नियति बन जाती है, जो उसे उम्र-भर छलती रहती है। मानव इसके जंजाल व प्रभाव से लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो पाता।

सो! नीयत अच्छी रखिए। अच्छा सोचिए, अच्छे कर्म कीजिए। नियति सदैव आपकी संगिनी बन साथ चलेगी; आपको निविड़ तम से बाहर निकाल सत्यावलोकन कराएगी तथा मंज़िल तक पहुँचाएगी। आप पंक में कमलवत् रह पाने में समर्थ हो सकेंगे। आगामी आपदाएं व बाधाएं आपकी राह को नहीं रोक पाएंगी और आप निष्कंटक मार्ग से गुज़रते हुए अपनी मंज़िल अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य ख़ुशी पा जाएगा’  स्वरचित गीत की पंक्तियाँ मानव में एकांत में तन्हाई संग जीने का संदेश देती हैं, जो जीवन का शाश्वत् सत्य है। आपकी सोच, भावनाएं व मनोदशा सृष्टि में यथावत् प्रतिफलित होती है और नियति तदानुरूप कार्य करती है।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – हंसा चल घर आपने — कहानीकार-रजनी पाथरे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 17 ?

?हंसा चल घर आपनेकहानीकार-रजनी पाथरे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- हंसा चल घर आपने

विधा- कहानी

कहानीकार-रजनी पाथरे

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? प्रभावी और संवेद्य कहानियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

कहानी सुनना-सुनाना अभिव्यक्ति का अनादिकाल से चला आ रहा सुबोध रूप है। यही कारण है कि प्रकृति के हर चराचर की अपनी एक कहानी है। औपचारिक शिक्षा के बिना भी श्रवण और संभाषण मात्र से रसास्वाद के अनुकूल होने के कारण कहानी की लोकप्रियता सार्वकालिक रही है।

लोकप्रिय कहानीकार रजनी पाथरे के प्रस्तुत कहानी संग्रह ‘हंसा चल घर आपने’ की कहानियाँ कुछ मामलों में अपवादात्मक हैं। इस अपवाद का मूल संभवतः उस विस्थापन में छिपा है जिसे काश्मीरी पंडितों ने झेला है। अन्यान्य कारणों से विस्थापन झेलनेवाले अनेक समुदायों की कहानियाँ इतिहास के पन्नों पर दर्ज़ हैं। इन समुदायों के विस्थापन में एक समानता यह रही कि इन्हें अपने देश की मिट्टी से दूर जाकर नए देश में आशियाना बसाना पड़ा। काश्मीरी पंडित ऐसे दुर्भाग्यशाली भारतीय नागरिक हैं जो पिछले लगभग तीन दशकों से अपने ही वतन में बेवतन होने का दंश भोग रहे हैं। पिछले वर्षों में स्थितियाँ कुछ  बदली अवश्य हैं तथापि अभी लम्बी दूरी तय होना बाकी है।

यही कारण है कि काश्मीरी पंडित परिवार की कहानीकार का सामुदायिक अपवाद उनकी कहानियों में भी बहुतायत से, प्रत्यक्ष या परोक्ष दृष्टिगोचर होता है। इस पृष्ठभूमि की कहानियों में लेखिका की आँख में बसा काश्मीर ज्यों की त्यों कागज़ पर उतर आता है। घाटी के तत्कालीन हालात और क़त्लेआम के बीच घर छोड़ने की विवशता के बावजूद जेहलम, शंकराचार्य की पहाड़ी, दुर्गानाग का मंदिर, खिचड़ी अमावस्या, यक्ष की गाथा, अखरोट के पेड़, चिनार की टहनियाँ, बबा; गोबरा जैसे संबोधन, शीरी चाय, हांगुल, गुरन, कानुल साग, कहवा, चश्माशाही का पानी, काश्मीरी चिनान आदि को उनकी क़लम की स्याही निरंतर याद करती रहती है। विशेषकर ‘माइग्रेन्ट’, ‘मरु- मरीचिका’, ‘देवनार’, ‘पोस्ट डेटेड चेक’, ‘हंसा चल घर आपने’, ‘काला समंदर’ जैसी कहानियों की ये पृष्ठभूमि उन्हें प्रभावी और संवेद्य बनाती है।

स्त्री को प्रकृति का प्रतीक कहा गया है। स्त्री वंश की बेल जिस मि‌ट्टी में जन्मती है और फिर जहाँ रोपी जाती है, उन दोनों ही घरों को हरा-भरा रखने का प्रयास करती है। यही कारण है कि रजनी पाथरे ने केवल अपने मायके की पृष्ठभूमि पर कहानियों नहीं लिखी हैं। ससुराल याने महाराष्ट्र की भाषा और संस्कृति भी उतनी ही मुखरता और अंतरंगता से उनकी कहानियों में स्थान पाती हैं।’ आजी का गाँव’, ‘जनाबाई’, ‘कमली’ जैसी कहानियाँ इसका सशक्त उदाहरण हैं।

स्त्री का मन बेहद जटिल होता है। उसकी थाह लेना लगभग असंभव माना जाता है। लेखिका की दृष्टि और अनुभव ‘कुँवारा गीत’, ‘नाम’ और ‘ज़र्द गुलाब’ के माध्यम से इन परतों को यथासंभव खोलते हैं। इस भाव की कहानियों की विशेषता है कि इनमें स्त्री को देवी या भोग्या में न बाँटकर मनुष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। स्त्री स्वतंत्रता या नारी विमर्श का नारा दिए बिना कहानीकार जटिल बातों को सरलता से प्रस्तुत करने का यत्न करती हैं। ‘नाम’ में यह जटिलता व्यापक रूप से उभरती है। ‘कुँवारा गीत’ यह संप्रेषित करने में सफल रहती है कि स्त्री को केवल शारीरिक नहीं अपितु मानसिक ‘ऑरगेज़म’ की भी आवश्यकता होती है।

स्त्री को केवल देह और उसकी देह को अपनी प्रॉपर्टी मानने की अधिकांश पुरुषों की मानसिकता को ‘परतें’ और ‘राजहंस’ कहानियाँ पूरी तल्ख़ी से सामने रखती हैं। ‘परतें’ में एक स्त्री के साथ विभाजन के दौरान हुआ बलात्कार अफगानिस्तान की नाजू के माध्यम से वैश्विक हो जाता है। युद्ध किसीका, किसीके भी विरुद्ध हो, उसका शिकार सदैव स्त्री ही होती है। ‘राजहंस’ रिश्तों की संश्लिष्टता की थोड़ी कही, खूब अनकही दास्तान है जो पाठक को भीतर तक मथकर रख देती है।

संग्रह की कहानियों में विषयों की विविधता है। सांप्रदायिकता की आड़ में आतंकवाद के शिकार अपने अपने पात्रों में लेखिका ने समुदाय भेद नहीं किया है। इन कहानियों को पढ़ते समय घाटी का सांप्रदायिक सौहार्द पूरी आत्मीयता से उभरकर आता है। स्त्री पात्रों के मन की परतें खोलने की प्रक्रिया में जहाँ कहीं तन का संदर्भ आया है, लेखिका की भाषा और बिंब शालीन रहे हैं। ‘बात का बतंगड़’ करने की वृत्ति के दिनों में ‘बतंगड़ से बात बनाने’ का यह अनुकरणीय उदाहरण है।

वातावरण निर्मिति की सहजता संग्रह की सभी कहानियों को स्तरीय बनाती है। कथानक का शिल्पगत कसाव और क्रमिक विकास कथ्य को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करता है। कहानियों में कौशल, त्वरा और वेग अनायास आए हैं। कथोपकथन समुचित उत्सुकता बनाए रखता है। अवांतर प्रसंग न होने से कहानी अपना प्रभाव बनाए रखती है। कहानियों के पात्र सजीव हैं। इन पात्रों का चित्रण प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में हुआ है। पात्रों का अंतर्द्वंद्व कहानीकार और पाठक के बीच संवाद का सेतु बनाता है। देश काल का चित्रण कहानीकार की मूल संवेदना और भाव क्षेत्र से पढ़नेवाले का तादात्म्य स्थापित कराने में सफल है।

लेखन का अघोषित नियम है कि लिखनेवाला जब भी कलम उठाए, अमृतपान कराने के लिए ही उठाए। रजनी पाथरे के भीतर मनुष्योचित संवेदनाओं का यह अमृत प्रस्तुत कहानी संग्रह में यत्र-तत्र-सर्वत्र है। संग्रह की अंतिम कहानी ‘काला समंदर’ के अंत में हत्यारों के लिए भी ‘या देवी सर्वभूतेषु क्षमारूपेण संस्थिता’ का मंत्र मानो सारी कहानियों का सार है। विश्वास है कि पाठक इस अमृत के आस्वाद से स्वयं को तृप्त करेंगे। शुभं भवतु ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #26 – गीत – चलते रहिए… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत चलते रहिए

? रचना संसार # 26 – गीत – चलते रहिए…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर  चलते रहिए।

 दूर बहुत मंजिल  है तो क्या ,

 आगे ही बढ़ते रहिए।।

 **

उदित जगत में नव रवि होगा,

काली रजनी बीतेगी ।

प्रेम दीप फिर नए जलेंगें,

तम की गागर रीतेगी।।

जग कल्याण करो अब मानव,

घातों से बचते रहिए।

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

 **

चिंतन मनन करो निशदिन ही,

निज मंजिल की आस रखो।

व्यंग वाण से मत घबराओ ,

खुद  पर तुम विश्वास रखो।।

बिन संघर्ष नहीं कुछ हासिल

नवल सृजन रचते रहिए,

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

 **

करो भीष्म सी आज प्रतिज्ञा,

अर्जुन लक्ष्य करो धारण।

जीत मिलेगी निश्चित तुमको,

सत्य सुभग मन के कारण।।

शौर्य वीरता दिखलाकर के,

धर्म युद्ध लड़ते रहिए।

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

 **

तोड  चक्रव्यूहों को तुम अब,

विजय पताका लहराओ।

ऊँचा होगा नाम जगत में

तारे नभ से  ले आओ।।

संदल जैसे सुरभित हो कर,

सबके हिय म़े बसते रहिए।

 *

पाना तुमको लक्ष्य अगर तो,

निशिवासर चलते रहिए।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #254 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 254 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(शब्दाधारित सृजन )

जीवंत

सोच रहे है आज हम, होगा दुख का अंत।

आशाओं के दीप को, रखना तुम जीवंत।।

सरोजिनी

सरोजिनी मन में खिले, हुआ प्यार गुंजार।

देख तुम्हें लगने लगा, खिलते फूल हज़ार।।

पहचान

खिली-खिली है आज तू, प्यारी है मुस्कान।

आज तुम्हें तो मिल रही, अपनी ही पहचान।।

अथाह

संग मुझे तेरा मिले, अपनी ऐसी चाह।

मिलने को तुम आ रहे, मिलती ख़ुशी अथाह।।

अपनत्व

दिखता नहीं अपनत्व तो, जीना है बेकार।

मुझको अपना जान लो, कर लो मुझसे प्यार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #235 ☆ संतोष के दोहे – तर्पण ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 235 ☆

☆ संतोष के दोहे – तर्पण  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जीते  जी  भी  चाहत  रखना

उनके  दिल  में  राहत रखना

*

तभी  मिलेगा  पुण्य  आपको

माँ बाप  से न अदावत रखना

*

कष्ट  दिया  गर  तुमने उनको

संघर्षों   की   ताकत   रखना

*

स्वर्ग  समान चरण  हैं  उनके

श्रद्धा   और   इबादत  रखना

*

तर्पण  होगा  सार्थक तब  ही

कभी न कोई शिकायत रखना

*

मिलेगा  “संतोष”  तुम्हे   जब

नेकी  और   शराफत   रखना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १५ — पुरुषोत्तम योग — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १५ — पुरुषोत्तम योग — (श्लोक १ ते १0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

श्रीभगवानुवाच 

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । 

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥ १ ॥ 

कथिती भगवंत 

विचित्र संसाराचा वृक्ष अव्यय अश्वत्थ 

मुळे वरती शाखा खाली पर्णरूपि छंद

जाणुन घेता या तरुराजा होई सर्वज्ञानी

वेद जाणिले अंतर्यामी तोचि ब्रह्मज्ञानी ॥१॥

*

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । 

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २ ॥ 

*

विषयभोगी संसारवृक्ष शाखा पसरल्या वरती खाली

तयासि वेढूनिया टाकले त्रिगुणांनी सभोवताली

मुळे मनुष्यलोकाची कर्मबंधांची तीही वरती खाली

सर्वत्र ती पसरली समस्त लोका व्यापून राहिली ॥२॥

*

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । 

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥ 

*

न दिसे येथे रूप तयाचे वर्णन केले तसे

आदी न यासी अंतही नाही त्यासी स्थैर्य नसे

वासना रूपी मुळे तयाची घट्ट नि बळकट

संसाराश्वत्थाला या वैराग्य शस्त्राने छाट ॥३॥

*

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्त्न्ति भूयः । 

तमेव चाद्यम पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥ 

*

शोध घ्यावा त्या परमेशाचा आदी पुरुषाचा

मनन चिंतन करुनिया तयाचे निदिध्यास त्याचा

तया पासुनी विस्तारली ही प्रवृत्ती संसाराची

तेथे जाता नाही भीति पुनश्च परतुनी यायाची ॥४॥

*

 निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः । 

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌ ॥ ५ ॥

*

अहंकार ना मोहही नष्ट आसक्ती दोषा जिंकले

कामना नष्ट सुखदुःखांच्या द्वंद्वांतुनिया मुक्त जाहले

परमेशस्वरूपी स्थिति जयांची निरुद्ध नित्य राहे

ज्ञानीयांसी त्या अविनाशी परमपद खचित प्राप्त आहे ॥५॥

*

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः । 

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ६ ॥ 

*

जननमरणा फेऱ्यातुन मुक्ती प्राप्त करिता परमपदाला

स्वतेजी मम परमधामा सूर्य चंद्र ना अग्नी प्रकाश द्यायाला ॥६॥

*
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः । 

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥ 

*

जीवांश या देहातला माझाच अंश सनातन 

प्रकृतिस्थित मनषष्ठेंद्रिया घेतो आकर्षुन ॥७॥

*

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः । 

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌ ॥ ८ ॥ 

*
पवन वाहतो गंधितातुनी गंध लहरीसवे

देह त्यागता जीवात्मा नेई मनैंद्रियासी सवे

पुनर्पाप्ती करिता कायेची नेई अपुल्या संगे

सकल गुणांना पूर्वेंद्रियांच्या स्थापी आत्म्या संगे ॥८॥

*

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । 

अधिष्ठायं मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥ ९ ॥ 

*

जीवात्मा हा विषय भोगतो इंद्रियांकरवी

कर्ण नेत्र रसना घ्राण स्पर्श मनाकरवी ॥९॥

*

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १० ॥ 

*

 देहत्यागा समयी वा देहात वास करता

भोग भोगता विषयांचा वा त्रिगुणे युक्त असता

आत्मस्वरूप आकलन न होई मूढा अज्ञानी

विवेकी परी जाणुन असती ज्ञानदृष्टीचे ज्ञानी ॥१०॥

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 26 – “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध”।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 26 – “आधुनिक महाभारत: वॉट्सएप युग का महायुद्ध”☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कलियुग में अगर महाभारत होती, तो हस्तिनापुर की जगह “वॉट्सएप नगर” होता और कुरुक्षेत्र की जगह “ग्रुपचैट”। कौरवों और पांडवों के बीच की लड़ाई अब तलवार और तीर-कमान से नहीं, बल्कि स्मार्टफोन और डेटा पैक से लड़ी जाती।

कहानी कुछ यूं है कि हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र अपने मोबाइल से चिपके रहते हैं, पर उन्हें एक छोटी सी दिक्कत है – वो टेक्स्ट पढ़ नहीं सकते, क्योंकि आँखें कमजोर हो गई हैं। उनकी जगह उनका सचिव संजय हर मैसेज पढ़कर सुनाता है, चाहे वो मीम हो या कोई फ़ॉरवर्डेड जोक।

दुर्योधन अब अपने भाइयों के साथ वॉट्सएप पर एक ग्रुप बनाता है – “कौरव आर्मी”। इस ग्रुप में दिन-रात षड्यंत्र चलते हैं कि कैसे पांडवों को ‘ब्लॉक’ किया जाए। वहीं दूसरी ओर, पांडवों का एक ग्रुप है “धर्मराज पार्टी”, जिसमें युधिष्ठिर हर मैसेज को सत्यापन के बाद ही फ़ॉरवर्ड करते हैं। अर्जुन का स्टेटस हर दिन बदलता रहता है – कभी “वारियर मोड”, तो कभी “चिलिंग विद कृष्णा”।

भीष्म पितामह ग्रुप में बैठे निष्क्रिय हैं। वो कुछ बोलते नहीं, बस सब पढ़ते रहते हैं। उनका विश्वास है कि जब तक कोई उन्हें “मौन मोड” से बाहर नहीं बुलाएगा, तब तक वो सिर्फ़ दर्शक बने रहेंगे।

कृष्ण की भूमिका अब “ग्रुप एडमिन” की हो गई है। वो अर्जुन को गीता का उपदेश नहीं दे रहे, बल्कि उसे “डिलीट फॉर एवरीवन” और “म्यूट ग्रुप” जैसे फीचर्स समझा रहे हैं। अर्जुन थोड़े असमंजस में है – “हे केशव, मैं किसे ब्लॉक करूं? कौरवों को या अपने डेटा प्लान को?”

युद्ध शुरू होता है – नहीं, तलवार से नहीं, बल्कि “वायरल वीडियो” और “मीम वॉर” से। दोनों ओर से तेज़ी से मैसेज भेजे जाते हैं, कोई ‘ट्रेंडिंग’ करने में जुटा है, तो कोई ‘कमेंट सेक्शन’ में शांति स्थापित करने में। भीम को कोई चिंता नहीं, वो सिर्फ़ ‘फूड डिलीवरी’ ग्रुप में एक्टिव हैं और खाने के मेन्यू पर चर्चा कर रहे हैं।

आखिरकार, युद्ध का परिणाम यह निकलता है कि कौरवों का डेटा पैक खत्म हो जाता है और पांडवों को जीत मिलती है। पर असली सवाल यह है कि इस महायुद्ध के बाद कौन जीता? शायद मोबाइल कंपनियाँ, जिनकी कमाई इस “डिजिटल महाभारत” में सबसे ज्यादा हुई!

इस आधुनिक महाभारत का यही निष्कर्ष है – जहां पहले धनुष-बाण थे, अब इमोजी और वॉट्सएप स्टीकर्स हैं। और अंत में, धर्म की जीत नहीं, बल्कि ‘नेटवर्क कवरेज’ की जीत होती है!

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 308 ☆ आलेख – “मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 308 ☆

?  आलेख – मोबाइल वोटिंग की अभिनव चुनाव प्रणाली ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स इंडिया देश की 100 वर्षो से पुरानी संस्था है। यह प्राइवेट तथा शासकीय विभिन्न विभागों, इंजीनियरिंग शिक्षा की संस्थाओं, इंजीनियरिंग की सारी फेकल्टीज के समस्त इंजीनियर्स का एक समग्र प्लेटफार्म है। जो विश्व व्यापी गतिविधियां संचालित करता है। नालेज अपडेट, सेमिनार आयोजन, शोध जर्नल्स का प्रकाशन, इंजीनियर्स को समाज से जोड़ने वाले अनेक आयोजन हेतु पहचाना जाता है। यही नहीं स्टूडेंट्स चैप्टर के जरिए अध्ययनरत भावी इंजीनियर्स के लिए भी संस्था निरंतर अनेक आयोजन करती रहती है।

इंस्टिट्यूशन सदैव से नवाचारी रही है।

लोकतांत्रिक प्रणाली से प्रति वर्ष चुने गए प्रतिनिधि संस्था का संचालन करते हैं। संस्था के सदस्य सारे देश में फैले हुए हैं अतः चुनाव के लिए ओ टी पी आधारित मोबाइल वोटिंग प्रणाली विकसित की गई है।

जब देश में इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या सीमित थी तो इंस्टिट्यूशन ने बी ई के समानांतर ए एम आई ई डिग्री की दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से परीक्षा लेने की व्यवस्था की। अब इंजीनियरिंग कालेजों की पर्याप्त संख्या के चलते AMIE में नए इनरोलमेंट तो नहीं किए जा रहे किंतु पुराने विद्यार्थियों हेतु परीक्षा में नवाचार अपनाते हुए, प्रश्नपत्र जियो लोकेशन, फेस रिक्गनीशन, ओ टी पी के तिहरे सुरक्षा कवच के साथ आन लाइन भेजने की अद्भुत व्यवस्था की गई है। सात दिनों, सुबह शाम की दो पारियों में लगभग 50 से ज्यादा पेपर्स, सरल कार्य नही है।

मुझे अपने कालेज के दिनों में इस संस्था के स्टूडेंट चैप्टर की अध्यक्षता के कार्यकाल से अब फैलो इंजीनियर्स होने तक लगातार सक्रियता से जुड़े रहने का गौरव हासिल है। मैने भोपाल स्टेट सेंटर से नवाचारी साफ्टवेयर से चुनाव में चेयरमैन बोर्ड आफ स्क्रुटिनाइजर्स और परीक्षा में केंद्र अध्यक्ष की भूमिकाओं का सफलता से संचालन किया है।

इंस्टिट्यूशन के चुनाव तथा परीक्षा के ये दोनो साफ्टवेयर अन्य संस्थाओं के अपनाने योग्य हैं, इससे समय और धन की स्पष्ट बचत होती है। आज पेपर लीक्स, चुनावों में धांधलियां आम शिकायतें हैं, इन साफ्टवेयर से इस पर रोक लगाई जा सकती है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

FIE Civil

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #191 – कहानी – “बाबा का घर” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी  “बाबा का घर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 191 ☆

कहानी — बाबा का घर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दीनानाथ अपने दोस्त केशवराम के घर आए हुए थे. उसी समय केशवराम अपने मकान के कागज पर हस्ताक्षर कर रहे थे. यह देख कर दीनानाथ कुर्सी से उठ बैठे. केशवराम के पास पहुंच गए. तुरंत हाथ पकड़ कर बोले, ” केशव ! भूल कर हस्ताक्षर मत करना.”

यह सुन कर केशवराम का पेन हाथ में रूक गया, ” अरे भाई ! क्या हुआ ? ” उन्हों ने दीनानाथ की आंखों में बरसती चिंगारी देख कर कहा,  ” ये सब संपत्ति इन्हीं की है. आज नहीं रो कल इन्ही के पास जाना है. फिर .. ”

” ना भाई ना ! जिदंगी में भूल कर ऐसा मत करना, ”  कहते हुए दीनानाथ ने हाथ से कागज और कलम छीन ली,  ” अन्यथा तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में दिन काटना पड़ेंगे,” यह कहते हए उन की आंखों से आंसू निकल पड़े.

पास ही योगेश खड़ा था. उस ने दीनानाथ को पकड़ कर बिस्तर पर बैठाया. फिर उन से कहा, ” अरे बाबा ! सभी तो आप गिर जाते .” कहते हुए योगेश सीधा खड़ा हो गया.

” मुझे हाथ मत लगा योगेश, ” दीनानाथ ने कहा,  ” सभी बेटे एक जैसे होते हैं. शुरूशुरू में ऐसी ही बातें करते हैं.”

इस पर दूर खड़ी कोमलांगी से रहा नहीं गया. वह बोली, ”  बाबा ! आप गलत सोच रहे हैं. वह बात नहीं है….”  उस ने कुछ कहना चाहा कि दीनानाथ बीच में ही बोले, ”  मुझे पता है कि बात क्या है,”  कहने के साथ उन्हों ने केशवराम को देख कर कहा,  ” भाभीजी नहीं दिख रही है. यदि वे होती तो ….”

योगेश ने आगे बात बढ़ाना ठीक नहीं समझा. उस ने अपनी पत्नी से कहा, ”  कोमल ! बाबा के लिए चाय बना ला.”  वह नहीं चाहता था कि बात का बतंगड बने. बिना बात के कोमलांगी दीनानाथ से उलझ पड़े. 

कोमलांगी उठी. चाय बनाने चली गई. योगेश ने वहां रूकना उचित नहीं समझा. वह पत्नी के पीछे चल दिया, ” मैं पानी ले कर आता हूं बाबा .”

उस के जाते ही दीनानाथ ने कहा, ” केशव ! तूझे मेरी कसम. कभी इन के चारे मत लगना. नहीं तो तूझे भी मेरी तरह अनाथ आश्रम में शरण लेनी पडेगी,” कहते हुए व्यथित मन से दीनानाथ चले गए.

वे बहुत दुखी थे. उन के दिल में समाए घाव हरे हो गए थे. उन के मन में एक ही वाक्य निकला- सभी औलादें ऐसी ही होती है. जो जन्म देता है उसे ही दुत्कार कर भगा देती है.

तभी उन के मन ने कहा. वे गलत हो सकते हैं. जो सोच रहे हैं वह सही हो जरुरी नहीं है. . यह भी जरूरी नहीं कि सब औलादें ऐसी हो. मगर  नहीं,  उन का मन इस बात की गवाही नहीं दे रहा था. योगेश भला लड़का होगा. वे भी उस की तरह अपने पिता को आश्रम में भेज देगा .

नहींनहीं. केशव ऐसी गलती नहीं करेगा. वह मेरी बात मानेगा. बिना सोचेसमझे कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करेगा.

मगर,  वह अपनी औलाद के विरूद्ध कैसे जा सकता हैं. औलाद चाहेगी तो उसे दस्तखत करना पड़ेंगे. तब उस की कसम भी कोई मायने नहीं रखेगी . फिर जरूरी नहीं है कि सब ओलादें एक जैसी ही हो. यह सोचते हुए वे अनाथालय के दरवाजे तक आ गए.

” क्या हुआ काका ! आज चुपचाप चले जा रहे हो ? कोई रामराम और श्यामश्याम नहीं की. ” गेट के दरवाजे पर बैठे रामूकाका ने जोर से आवाज दी.

दीनानाथ स्वभाव के विरुद्ध चुपचाप अन्दर जा रहे थे.

” कुछ नहीं भाई,”  दीनानाथ ने बिना रूके ही कहा, ” आज मुड़ ठीक नहीं है.” कह कर वे सीधे अपने कमरे में चले गए. बिस्तर के पास एक आराम कुर्सी पड़ी थी. उस पर बैठ गए. मन में विचारों का तूफान उमड़ने लगा.

यह उन का दोष नहीं है. कहीं दूर बैठा हुआ दिमाग बोला. जिस की आवाज सुन कर वे चौंक उठे.

” क्या कहा ?” वे स्वयं से बोल उठे.

यही कि यह करीयुग है. करों ओर भरो. भूल गए. एक अनजान आवाज ने उन्हें टोका. वह शायद उन के अंदर से आ रही थी. जो जैसा करता है वैसा भरता है. यदि तुम अपने पिता की सेवा नहीं करोगे तो पुत्र आप की सेवा नहीं करेगा.

नहींनहीं ! वह मेरा दोष नहीं था. वे विचारमग्न हो गए. मेरी पत्नी से मेरी मां की लड़ाई होती रहती थी. उन के बीच बनी नहीं. बस उसी से बचने के लिए मैं ने अलग घर ले लिया था. उन की सेवा तो करना चाहता था. मगर, सेवा कर नहीं पाया.

पत्नी नहीं जाने देना चाहती थी. इस वजह से. अन्यथा मैं तो मातापिता को चाहता था. उस के अंतर्मन ने उसे कचोटा. वह उस का विरोध करने लगा.

इस तरह बहुत देर तक विचारों के प्रवाह में वह गोते लगाते रहे . उन्हें कब नींद आ गई. पता ही नहीं चला.

यह बात बीते एक वर्ष हो गया था. वे भूल चुके थे. उन का कोई दोस्त था केशवराम . वे  दोबार उस के घर गए. किसी से पता चला कि वे घर बेच कर जा चुके थे. दीनानाथ ने अनुमान लगा लिया. केशवराम ने उस की बात नहीं मानी. उस ने संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर लिए.

योगेश ने संपत्ति बेच दी होगी. इसलिए वे दूसरे जगह चले गए. केशवराम उसे मिलना नहीं चाहता था. वह किस मुंह से उस के पास आता,  इसलिए वह दूसरी जगह चला गया होगा. यह सोच कर उन्हों ने धीरेधीरे केशवराम को भूला दिया.

अचानक दो साल बाद,  एक दिन दरवाजे पर एक गाड़ी आ कर रूकी. उस में से एक बूढ़ा व्यक्ति उतरा . वह सीधा उन्हीं की ओर चला आ रहा था. सफेद धोतीकुर्ता और हाथ में छड़ी लिए उसी चाल से चल रहा था. उस ने बड़ी ध्यान से देखा. चेहरा पहचाना हुआ लगा रहा था.

पास आने पर मालुम हुआ, ” अरे केशव ! तू,” वह चौंक कर खड़ा हो गया.

” हां दीनानाथ मैं ! ” केशवराम ने उन के कधे पर हाथ रख कर कहा,” तू ने ठीक कहा था. आजकल की औलादें ठीक नहीं होती है.”

” क्या ! ” दीनानाथ ने कहा, ” आखिर तूझे मेरी बात समझ में आ गई.”

” हां यार,” केशवराम ने कहा, ” इसीलिए तूझे लेने आया हूं. तेरी भाभी तूझे बहुत याद कर रही है. कहती है कि दीनानाथ को बुला लाओ.”

” क्या !” दीनानाथ ने चकित होते हुए कहा, ” मैं तो समझा ​था कि भाभी…”

” वह अभी जिंदा है,”  केशवराम ने कहा ओर दीनानाथ का हाथ पकड़ कर वह कार की ओर खींच लाया. दोनों गाड़ी में बैठे. गाड़ी चल दी.

”यार ! ये गाड़ी !”

” इस के मालिक की है,”  केशवराम ने कहा, ” तू सही कहता था औलादें अच्छी ….”

”… नहीं होती है,” दीनानाथ ने केशवराम की बात पूरी की.’ ‘ तूने मेरी बात नहीं मानी. संपत्ति के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए होंगे.”

” हां यार ! उस संपत्ति के अच्छी पैसे आ रहे थे. बेटे को व्यापार के लिए पैसे की जरूरत थी. इसलिए मजबूरन मुझे वह संपत्ति बेचना पड़ी.”

” ओह !  फिर तू कहा चला गया था ?  ” दीनानाथ बोले, ” तूझे मेरे पास इस अनाथालय में आ जाना चाहिए था. ”

” नहीं यार ! वक्त खराब चल रहा था. मुझे बच्चे के साथ जाना पड़ा. वहां बहुत काम था- वही करना पड़ा. तेरी भाभी को भी काम करना पड़ा. हम ने बहुत मुसीबत देखी हैं .”

” वह तो देखना ही थी.”  दीनानाथ ने कहा, ” तू ने मेरी बात नहीं मानी थी. औलादों को कभी संपत्ति नहीं देना चाहिए. जब तक संपत्ति रहती है तब तक वे सेवा करते हैं. अन्यथा बाद में भगा देते हैं.”

” तू ठीक कहता है. ” केशवराम ने जवाब दिया, ” यह तेरा अनुभव है. यह गलत कैसे हो सकता है. मगर, परिस्थिति और स्वभाव एक जैसा नहीं होता है. ”

दीनानाथ ने कहा, ” मैं समझा नहीं,”

“ घर के अंदर चलते हैं. फिर समझाता हूँ,” केशवराम ने कहा.

तभी ड्राइवर ने ब्रेक लगाया. गाड़ी एक मोड़ पर मुड़ रही थी. सामने एक गेट था. जिस पर बड़े अक्षर में लिखा हुआ था— बाबा का घर— केशवनाथ.

उस पर निगाहें जाते ही दीनानाथ चौंक उठे, ” अरे केशव ! यह क्या लिखा है ?”

” बाबा का घर— केशवनाथ !”

” मगर,  तेरा नाम तो केशवराम है. फिर यह क्या है ?” दीनानाथ को कुछ समझ में नहीं आ रहा था , ”  क्या यह घर तेरा घर है ?”

” नहीं !”

” फिर किस का है ?”

” हमारा. यानी केशवराम का केशव और दीनानाथ का नाथ यानी केशवनाथ का घर .”

” क्या !” दीनानाथ आवाक रह गए.

” यह मेरे पुत्र का तौहफा है हम दोनों के लिए,” केशवराम के यह कहते ही दरवाजे पर कोमलांगी और उस की सास यानी दीनानाथ की भाभी स्वागत की थाली लिए खड़े थे.

” भाई साहब ! आप का इस नए घर में स्वागत है !” भाभी मुस्करा कर स्वागत कर रही थी.

यह सुन कर दीनानथ के आंखों में से ख़ुशी के आंसू निकल पड़े. उन्हों ने अपने दोनों हाथ कोमलांगी की ओर आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिए.

कोमलांगी आरती करने के बाद उन के चरण स्पर्श करने के लिए झुक गई थी. दीनानाथ के आंसूओं ने उस के हृदय का सारा मैल धो दिया था. उन का हाथ कोमलांगी के सिर पर चल गया, ” ऐसे मातापिता ओर बेटाबहू सभी को मिले.” वे केवल इतना ही बोल पाए. उन का गला रुंध गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14/04/2019

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 224 ☆ बाल कविता – मकड़ी रानी चली सैर को… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 224 ☆ 

बाल कविता – मकड़ी रानी चली सैर को ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मकड़ी रानी चली सैर को,

दीवारों के ऊपर।

जिस कोने में मिली गंदगी

बुने जाल से है घर।

भूख लगी थी उसे जोर की

ढूँढे मक्खी , मच्छर।

हुई सुबह से शाम उसे पर,

नहीं मिला है अवसर।

 *

सोच रही वह लेटी- लेटी,

कैसे भूख मिटाऊँ।

पेट किलोलें करता मेरा

प्रभु से आस लगाऊँ।

 *

शिकार को निकली चुपके से

दिखीं चींटियाँ उसको।

पकड़ीं उसने कई चींटियाँ

लिए चली वह घर को।

 *

भूख मिटाई, तृप्त हुई वह

श्रम से मिलता खाना।

समझ गई जीने का ढंग वह

जीवन कटे सुहाना।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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