हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है  ‘‘दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ।)

☆ लघुकथा – दिव्यांगता – दो लघुकथाएं ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(प्राची पत्रिका से साभार)

एक -> मानसिक विकलांगता

ट्रेन के इंजन के साथ ही लगा था विकलांगों का डिब्बा। एक यात्री, ट्रेन में जगह ढूंढते ढूंढते उसी डिब्बे के सामने से गुजरा। तभी विकलांग कोच में से उसका एक परिचित चिल्लाया- ‘अरे आ जाओ इसी डिब्बे में, और कहीं तिल भर जगह मिलने से रही’।

‘पर यह तो विकलांगों के लिए है’।

‘तो क्या हुआ हम किसी विकलांग से कम हैं जो पूरी ट्रेन में अपने लिए एक अदद जगह तक नहीं ढूंढ पाए।’

मानसिक विकलांगता का एक अच्छा उदाहरण था यह।

🔥 🔥 🔥

दो -> ट्राईसिकिल

विकलांगों के लिए बांटी जाने वाली ट्राईसिकिल भले चंगों में बांट दी गई तो मीडिया पीछे पड़ गया। हलचल मच गई। मामला आगे तक जा पहुंचा।

यहां से खबर भेजी गई- ‘मीडिया पीछे पड़ गया है’।

वहां से खबर आई- ‘घबराने की जरूरत नहीं है‌। मीडिया को बता दो कि ट्राईसिकिल कुछ बदमाशों ने छीन ली है। उन से छुड़ाकर जल्दी ही विकलांगो को दे दी जाएंगी। बदमाशों को सबक भी सिखाया जाएगा।’

अब मीडिया बगलें झांकने पर विवश हो गया।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 116 ☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘भगवान का क्या सरनेम है?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 116 ☆

☆ लघुकथा – भगवान का क्या सरनेम है? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

कक्षा में टीचर के आते ही विद्यार्थी ने एक सवाल पूछा – मैडम! नेम और सरनेम में क्या ज़्यादा इम्पोर्टेंट होता है? 

‘मतलब’? – मैडम सकपका गईं फिर थोड़ा संभलकर बोली – यह कैसा सवाल है निखिल? 

पापा कहते हैं कि किसी को उसके सरनेम से बुलाना चाहिए, नाम से नहीं। सरनेम इम्पोर्टेंट होता है। 

लेकिन क्यों? नाम से बुलाने में कितना अपनापन लगता है। नाम हमारी पहचान है। माता- पिता कितने प्यार से अपने बच्चे का नाम रखते हैं। 

 मैम! पर पापा कहते हैं कि सरनेम हमारी सच्ची पहचान होता है। हम किस जाति के हैं, धर्म के हैं, यह सरनेम से ही पता चलता है। दूसरों को इसका पता तो चलना चाहिए। 

अच्छा स्कूल में आपस में दोस्ती करने के लिए नाम पूछते हो या सरनेम? वैशाली! तुम बताओ। 

मैम! नेम पूछते हैं। 

मेरे पापा ने बताया कि सरनेम हमारा गुरूर है, नेम से बुलाओ तो सरनेम हर्ट हो जाता है। वह बड़ा होता है ना! – अक्षत ने कहा। 

कक्षा के एक बच्चे ने कुछ कहने के लिए हाथ उठाया। हाँ बोलो क्षितिज! मैडम ने कहा। 

मैम! भगवान का क्या सरनेम है? 

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मित्रता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मित्रता ??

मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, धीमी आवाज़ में उसने एक से कहा।

मैं श्रद्धावनत हो उठा।

मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, कुछ ऊँचे स्वर में उसने दो से कहा।

मैं मुस्करा दिया।

मैं इसका निकटतम मित्र हूँ…, उसने और ऊँचे स्वर में चार लोगों से कहा।

आगे यही बात उसने क्रमशः बढ़ते स्वर और लगभग चिल्लाते हुए आठ, सोलह, चौबीस और अनगिनत लोगों से कहीं।

उसकी मित्रता अब संदेह के घेरे में है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 115 ☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा मक्खी – सा । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 115 ☆

☆ लघुकथा – मक्खी – सा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

उसने गिलास में दूध लाकर रखा ही था कि कहीं से एक मक्खी भिनभिनाती हुई आई और उसमें गिर पड़ी । उसने मक्खी को उंगली और अंगूठे से बड़ी सावधानी से पकड़ा और निकालकर दूर फेंक दिया । फर्श पर पड़ी मक्खी हँस पड़ी और बोली – ‘ कहावत बनी तो मुझ पर है लेकिन लागू तुम इंसानों पर होती है । मैं तो कभी- कभी गलती से तुम्हारे दूध में गिर जाती हूँ पर तुम तो काम निकल जाने पर जब जिसे चाहो दूध की मक्खी – सा निकाल बाहर करते हो। ‘

©डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – काल☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा –काल ??

घातक हथियार लिए वह मेरे सामने खड़ा था। चिल्लाकर बोला, “मैं तुम्हें मार दूँगा। तुम्हारा काल हूँ मैं।”

मैं हँस पड़ा। मैंने कहा, “तुम मेरी अकाल मृत्यु का कारण भर हो सकते हो पर काल नहीं हो सकते।”

” क्यों, मैं क्यों नहीं हो सकता काल? मैं खुद नहीं मरूँगा पर तुम्हें मार दूँगा। मैं ही हूँ काल?”

” सुनो, काल शाश्वत तो है पर अमर्त्य नहीं है। ऊर्जा की तरह वह एक देह से दूसरी देह में जाकर चेतन तत्व हर लेता है। हारा हुआ अवचेतन हो जाता है, काल चेतन हो उठता है। खुद जी सकने के लिए औरों को मारता है काल।… याद रखना, जीवन और मृत्यु व्युत्क्रमानुपाती होते हैं। जीवन का हरण अर्थात मृत्यु का वरण। मृत्यु का मरण अर्थात जीवन का अंकुरण। तुम आज चेतन हो, अत: कल तुम्हें मरना ही पड़ेगा। संभव हो तो चेत जाओ।”

थरथर काँपता वह मारने से मरने के पथ पर आ चुका था।

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 8:51 बजे, 21 अक्टूबर 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ “राजनीति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “राजनीति”.)

☆ लघुकथा ☆ “राजनीति” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

अंधो की सभा थी.

विषय था किसे राजा बनाया जाय.

” मुझे बनाइये, मैं काना हूँ ” .एक अंधा बोला. ” चाहे तो आप देख लीजिए. “

” मगर हम देख नहीं सकते.” अंधे बोले.

” पर सुन तो सकतै हो ! आपने कहावत सुनी ही होगी कि ” अंधों में काना राजा होता है ” वैसे मैंने अपने घोषणापत्र में ब्रेललिपि में साफ लिख दिया है कि मेरे राजा बनते ही ” सरकारी आइ कॅम्पो” मे आपकी आंखों का मुफ्त इलाज होगा. तब देख भी लेना. “

सारे अंधे चुपचाप वोट देने चले गृए यह जानते हुए भी कि “सरकारी आइ कॅम्पो” के करण ही वे अंधे हुए थे। पर लोकतंत्र की मजबूती के लिए वोट देना उनका कर्तव्य है और संविधान की कहावत को मानना उनकी विवशता।

चुनावी विश्लेषण:- ” अंधो में “काना” राजा नहीं; अंधों में “सयाना” राजा होता है।”

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपका  एक विचारणीय लघुकथा  ‘‘संपादक का घर।)

☆ लघुकथा – एक मुर्दा गांव ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

गांव से शहर पढ़ने चले गये लड़के को जल्दी ही अपने गांव की याद सताने लगी। वर्ष बीतते न बीतते वह गांव की यादों से महरूम होने लगा। एक दिन गांव से शादी के मिले निमंत्रण पत्र ने उसका गांव जाने का रास्ता आसान कर दिया। वह खुशी-खुशी अपने गांव पहुंच गया।

गांव पहुंचते ही उसे उदासी ने घेर लिया। बचपन में ढेरों ढेर पक्षी आंगन नदी तालाब में उड़ान भरते थे। पूरा बचपन पक्षियों की सोहबत में बीता था।

उसे वे तीतर, बटेर, गौरैया, फडकुल-गल गल देखने नहीं मिल रहे थे। चकवी चकवा का वह जोड़ा जो शाम होते ही नदी के इस पार उस पार चले जाते थे। उसने अपने अभिन्न मित्र के साथ पूरी कोशिश की थी की उस जोड़े को पकड़ कर क्यों ना एक साथ रखा जाए पर सदियों से बना प्रकृति का वह नियम कैसे टूटता भला?

खेत खलिहान, नदी तालाब सब खाली पड़े थे। पक्षी राज्य का नामोनिशान तक नहीं था। ‌ मित्र बोला-खेतों में कीटनाशक दवा के छिड़काव ने और शहर से आकर शिकारियों ने चोरी छुपे पक्षी मारना शुरू कर दिया तो बेचारे पक्षी कहां रहते भला?

‘यह गांव तो मुरदा हो गया है।’ मुश्किल से बोल पाया मित्र।

‘किस बात का गांव जहां पक्षियों का बसेरा ना हो—उनका कलरव ना हो–उनकी आकाश छूती उड़ान ना हो–‘ मित्र भावुक हुआ जा रहा था।

दूसरे दिन वह उदास-उदास गांव से शहर लौट गया। ऐसे मुर्दा गांव में अब एक पल भी ठहरना उसे मुश्किल हो रहा था।

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 207 ☆ लघुकथा – मरते मरते… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा मरते मरते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 207 ☆  

? लघुकथा – मरते मरते ?

किसी गांव के एक मुखिया थे। गांव में हर किसी को किसी न किसी तरह उन्होंने बहुत परेशान कर रखा था। लोग उनसे बेहद दुखी थे। एक दफे मुखिया बहुत बीमार पड़ गए। उन्हे समझ आ गया कि- वे अब बच नहीं सकेंगे।

मुखिया को देखने जब गांव के लोग पहुंचे तो वे बोले मैंने जीवन भर आप सब को बेहद परेशान किया है, मैं आप से विनती करता हूं की मुझे आप सब मेरे हाथ पैर बांधकर खूब पिटाई कीजिए जिससे मैं मर जाऊं, और मेरी आत्मा से आप लोगों को दुख पहुंचाने का बोझ उतर सके। पहले तो लोग इस बात पर तैयार नहीं हुए किंतु मुखिया के बारंबार अनुनय विनय करने पर भोले भाले गांव वाले मुखिया को बांधकर मारने के लिए राजी हो गए। मुखिया को खटिया से बांधकर पीटा गया। मुखिया मर गए। थानेदार तक घटना की खबर पहुंची। अब सारा गांव थाने में पकड़ लाया गया, सब मुखिया को मारने की सजा भोग रहे हैं । मरते मरते भी सारे गांव को परेशान करने में मुखिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

इस कहानी का किसी की कहानी से कोई रिश्ता नहीं है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ शाश्वत प्रेम ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा शाश्वत प्रेम।

☆  लघुकथा – शाश्वत प्रेम

अपनी जिंदगी का लंबा सफर मिलकर तय कर चुके हैं अशोक तथा गायत्री जी। 50 सालों के वैवाहिक जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों को महसूस करते आज भी अपने दमखम पर जीवन यापन कर रहे हैं। शाम की सैर करने के बाद जब अशोक जी घर आए तो उनके हाथ में एक पैकेट था।पत्नी को बोले- “जरा आईने के पास चलो।“ उसने हैरानी से पूछा- “क्या बात है?” अशोक जी बोले – “तुम चलो तो सही…”

 वहां जाकर उन्होंने पैकेट खोला और उसमें से फूलों का महकता गजरा निकालकर पत्नी के बालों में लगा दिया। एक लाल गुलाब का फूल उसके हाथों में थमा दिया। वे बोलीं- “ इस बुढ़ापे में यह सब क्या! “ अशोक जी बोले – “आज वैलेंटाइन डे है प्रेम का प्रतीक और प्रेम कोई जवानों की बपौती नहीं। प्रेम तो शाश्वत निर्मल धारा है जो बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में बहती है।“ पत्नी तो प्रेम से अभिभूत हो गई।

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – बीज ??

वह धँसता चला जा रहा था। जितना हाथ-पाँव मारता, उतना दलदल गहराता। समस्या से बाहर आने का जितना प्रयास करता, उतना भीतर डूबता जाता। किसी तरह से बचाव का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, बुद्धि कुंद हो चली थी।

अब नियति को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।

एकाएक उसे स्मरण आया कि जिसके विरुद्ध क्राँति होनी होती है, क्राँति का बीज उसीके खेत में गड़ा होता है।

अंतिम उपाय के रूप में उसने समस्या के विभिन्न पहलुओं पर विचार करना आरम्भ किया। आद्योपांत निरीक्षण के बाद अंतत: समस्या के पेट में मिला उसे समाधान का बीज।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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