(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा मरते मरते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 207 ☆  

? लघुकथा – मरते मरते ?

किसी गांव के एक मुखिया थे। गांव में हर किसी को किसी न किसी तरह उन्होंने बहुत परेशान कर रखा था। लोग उनसे बेहद दुखी थे। एक दफे मुखिया बहुत बीमार पड़ गए। उन्हे समझ आ गया कि- वे अब बच नहीं सकेंगे।

मुखिया को देखने जब गांव के लोग पहुंचे तो वे बोले मैंने जीवन भर आप सब को बेहद परेशान किया है, मैं आप से विनती करता हूं की मुझे आप सब मेरे हाथ पैर बांधकर खूब पिटाई कीजिए जिससे मैं मर जाऊं, और मेरी आत्मा से आप लोगों को दुख पहुंचाने का बोझ उतर सके। पहले तो लोग इस बात पर तैयार नहीं हुए किंतु मुखिया के बारंबार अनुनय विनय करने पर भोले भाले गांव वाले मुखिया को बांधकर मारने के लिए राजी हो गए। मुखिया को खटिया से बांधकर पीटा गया। मुखिया मर गए। थानेदार तक घटना की खबर पहुंची। अब सारा गांव थाने में पकड़ लाया गया, सब मुखिया को मारने की सजा भोग रहे हैं । मरते मरते भी सारे गांव को परेशान करने में मुखिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी।

इस कहानी का किसी की कहानी से कोई रिश्ता नहीं है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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