हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 3 – एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 3 – एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

न मैं आकाश अंबानी हूँ। न अच्छी-खासी सैलरी वाला इंसान। मैं निरा मोटू हूँ। सौ कैरट शुद्ध सोने की तरह शुद्ध सौ फीसदी चर्बी वाला मोटू। मोटुओं के लिए जीने की जिम्मेदारी बड़ी चैलेंजिंग होती है। उससे भी बड़ा भैया बनने का ख्याल। जब लड़कियाँ मुझ जैसे मोटुओं को देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि इन्हें सच्चे प्यार के बजाय खाना पसंद है। शायद इसीलिए वे मोटुओं को देखते ही “भैया” कह देती हैं। पर क्या वे जानती हैं कि मोटुओं का भी दिल होता है, और उनमें भी प्यार के ख्वाब होते हैं? यह जानकर मुझे भी विचार आता है कि कहीं भैया बनने का ख्याल परमानेंट न हो जाए, क्या मुझे प्यार करने का अधिकार नहीं है? यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं बहुत मोटू हूँ। मोटुओं की परेशानियाँ मोटू ही जानते हैं। जिस तरह महात्मा गांधी देश के राष्ट्रपिता हैं, ठीक उसी तरह हर मोटू लड़का देश भर की लड़कियों के लिए भैया होते हैं।  पता नहीं क्यों लड़की मुझे देखते ही भैया कह देती है। क्या उसे नहीं पता कि मेरा भी एक मन होता है। मुझे भी प्यार करने की इच्छा होती है। जब से खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, मुहावरा सुना है, तब से लड़कियाँ तो लड़कियाँ बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ भी मुझे भैया कहकर दूर बैठने की सलाह देती हैं। मानो ऐसा लगता है मुझ जैसे मोटुओं को देखते ही उनके भीतर की ऐसी ग्रंथियाँ जो गबरू जवान को पहचानकर नैन मटक्का करने लगती हैं, तुरंत संस्कारों में बदलकर दुनियाभर का सम्मान परोसने पर आमादा हो जाती हैं। मेरा हाल तो उस समय और बुरा हो जाता जब माँ की उम्र सी लगने वाली महिला जिसके बाल चूने की सफेदी से चुनौती लेने के लिए मचल उठते हैं, वे भी मुझे भैया कहकर बुलाने में कोई झिझक महसूस नहीं करती हैं। मुझे भी लगा कि उन्हें माँ कहकर पुकारूँ, लेकिन मैं उनकी तरह खुले विचारों वाला नहीं था।

मुझ जैसों का एक फेवरेट ड्रेस होता है। एक इसलिए क्योंकि मोटुओं के लिए कंपनियाँ ड्रेसेस ही नहीं बनातीं। न जाने इनको किसने सिखा दिया कि मोटुओं के लिए सिलेंडर टाइप का कुछ बना दो उसी में वे खुद को अडजस्ट कर लेंगे। न हमारे लिए कोई कलर की च्वाइस होती है न कोई डिजाइन की। कभी-कभी तो लगता  है कि इन कंपनियों को आग लगा दूँ। फिर सोचता हूँ कि ऐसा करने पर जो एकाध ड्रेस मिल रहा है, वह भी भला देने वाला कौन बचेगा। शॉपिंग मॉल जाकर ड्रेस खरीदने की पीड़ा शब्दों में बयान करना मुश्किल है। सेल्समैन चुहल करने की फिराक़ में या फिर कुछ और सोचकर जानलेवा मज़ाक करते हुए पूछता है – बताइए सर आपके लिए किस साइज की जिंस दिखाऊँ? 32  कि 34 या फिर स्लिम फिट? अब मैं उसे कैसे बताऊँ मोटुओं के लिए स्लिम नाम के शब्द से कोई ड्रेस नहीं बनता। फिर वही थक-हारकर 44 साइज़ का एक झिंगोला देते हुए उसे कुछ अंग्रेजी वाले नाम से मुझे चिपका देता है।  शॉपिंग मॉलों में ड्रेस खरीदने का यह स्टंट मुझ जैसे मोटुओं के लिए कितना विचित्र होता है, यह जानने के लिए कोई अद्भुत सोच नहीं हो सकती।

यह सब शॉपिंग मॉल के बगल लगाई तीन दुकानों की वजह से होता है। जब भी यहाँ आता हूँ इन तीन दुकानों के दर्शन करना नहीं भूलता। पहली दुकान का नाम हंगर ग्रिल्स, दूसरी का भोलेनाथ चाटभंडार और तीसरी का डिलिशियस आइसक्रीम। यहाँ आने से पहले जितना भी जिम कर दो-तीन इंच घटाकर आता हूँ उतना ही बढ़ाकर जाता हूँ। वह क्या है न कि मैं किसी का हिसाब बाकी नहीं रखता। जिम का एहसान इन दुकानों को चुकाकर परमशांति का आभास होता है।  यह शॉपिंग मॉल न केवल मुझ जैसे मोटुओं की पसंदीदा जगह है, बल्कि इसे एक विशेष क्रांतिकारी जगह के रूप में भी देखा जा सकता है – ‘शॉपिंग जिम’। जी हाँ, आपने सही सुना, जिम। शॉपिंग के साथ-साथ पेटफोड़ एक्सरसाइज करने के लिए स्वादिष्ट व्यंजन भी मिलते हैं। जिम करने के बजाय, आप यहाँ पर भी अपने मास्टर कुकिंग की बजाय ईटिंग कौशलों को बढ़ा सकते हैं। शॉपिंग मॉल के इस क्रांतिकारी आविष्कार की वजह से अब मैं दुकानों की भीड़ में खो जाने की बजाय, अपने मोटू जीवन के हर क्षण को सही ढंग से एंजॉय करने का आदी हो जाता हूँ।     

लोग सोचते हैं कि मोटू लड़कों को केवल ड्रेस ढूँढ़ने की परेशानी होती है। जब वह कपड़े की दुकान में कदम रखता है, तो यह उनके लिए जंगल के अंदर एक खतरनाक सफर जैसा होता है, जहाँ हर आउटफिट उनके आत्मसम्मान को हजारों टुकड़ों में कुचलने की धमकी देता है। मुझ जैसे मोटू लड़के समाज की लगातार निगरानी में रहते हैं, जहाँ यह मोटी चर्बी वाली उदरकथा आम जनता के लिए चर्चा का विषय बनी रहती हैं। लोग मेरे खाने-पीने की आदतों, व्यायाम शैलियों, और उठने-बैठने के आधार पर निःशुल्क सलाह देने को अपना अधिकार समझते हैं। और ऊपर से उनकी व्यंग्योक्तियों के अंतहीन कथन -: “तुम्हारे पास इतना चब्बी-चब्बी चेहरा है, अगर तुम थोड़ा वजन कम कर लो तो।” जैसे मूल्यांकन सहने पड़ते हैं। सच कहें तो पतलेपन के पवित्र मंदिर में पूजा करने वाली दुनिया में, मोटुओं को अपना अंतरिक्ष खुद बनाना पड़ता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 202 ☆ बाल कविता – बागों में कोयलिया बोले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 202 ☆

बाल कविता – बागों में कोयलिया बोले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बारहमासी आम फला है

बागों में कोयलिया बोले।

कहीं बौर की खुशबू महके

पवन बहे हौले – हौले।

नीतू , जीतू का मन खुश है

अमियाँ घर पर लाएँगे।

धनिया , मिर्ची डाल उसी में

चटनी स्वयं बनाएँगे।।

 *

खूब रायता बथुआ वाला

दाल मूंग छिलके वाली।

और पराठा आलू भर – भर

खाएँ हम लेकर थाली।।

 *

माँ अपनी तो बड़े भाव से

खाना रोज बनाती हैं।

जिस दिन चटनी साथ रहे तो

जिव्हा पानी लाती है।।

 *

माँ होती है प्रेम स्वरूपा

पिता हमारे हैं दीवार।

हम सब उनका कहना मानें

मात – पिता को करें दुलार।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #168 – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “लघुकथा – प्रायश्चित)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 168 ☆

☆ लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

ए को जैसे ही पता चला बी बहुत बीमार है वह तुरंत उससे मिलने के लिए आई, “तू अपनी बहू को अमेरिका से यहां क्यों नहीं बुला लेती। वह तेरी इतनी सेवा तो कर ही सकती है।”

“वह गर्भ से है,” बड़ी मुश्किल से बी बिस्तर पर सीधे बैठते हुए बोली, ” उसने मुझे ही अमेरिका बुलाया था। ताकि मैं जच्चे-बच्चे की देखभाल कर सकूं।”

“ओह! मतलब वह नहीं आ पाएगी।”

“हां, उसकी मजबूरी है,” बी ने इशारा किया तो काम वाली लड़की चाय रख कर चली गई। तब तक ए अपने घर परिवार के दुख-सुख की बातें करती रही। तभी अचानक बी की दुखती रग पर हाथ चला गया, “काश! तूने मेरी बात मानी होती तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ता,” ए ने कहा।

“हां यार, वह मेरी जीवन की सबसे बड़ी गलती थी,” बी ने कहा, “काश! मैंने उस समय भ्रूण हत्या न की होती तो आज मेरी बेटी भी तेरी तरह मेरी सेवा कर रही होती,” कहते हुए उसने अपने बड़े से घर को निहारा तथा काम वाली लड़की की ओर देखकर बोली, “क्या तुम मेरी बेटी बनोगी?”

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

27-06-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ६ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ६ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – भोवतालच्या मीट्ट काळोखातही मनातला श्रद्धेचा धागा बाबांनी घट्ट धरून ठेवला होता. कांहीही करून हरवलेल्या त्या पादुका घरी परत याव्यात एवढीच त्यांची इच्छा होती. पण ती फलद्रूप होण्यासाठी कांहीतरी चमत्कार घडणं आवश्यक होतं आणि एक दिवस अचानक,..?)

पुढे एक दोन दिवसांनी बाबा पोस्टातून घरी आले ते आठ दिवसांची रजा मंजूर करून घेतल्याचे सांगतच.

” मी गाणगापूरला जाऊन येईन म्हणतो”

” असं मधेच?”

” हो.तिथे जाऊन पादुकांचे दर्शन घेतो. नाक घासून क्षमा मागतो. तरच माझ्या मनाला स्वस्थता वाटेल.”

ते बोलले ते खरंच होतं गाणगापूरला जाण्यासाठी त्यांनी घर सोडलं त्याच दिवशी घरातलं फरशा बसवण्याचं काम पूर्ण करून गवंडी माणसं शेजारच्या घरी त्याच कामासाठी गेलेली होती. बाबा परत आले ते अतिशय उल्हसित मनानंच! त्यांच्या चेहऱ्यावर एवढ्या दूरवरचा प्रवास करून आल्याचा किंवा जागरणाच्या थकावटीचा लवलेशही नव्हता.आत येताच पाय धुवून त्यांनी स्वतःच देवापुढे निरांजन लावलं.मग कोटाच्या खिशातून एक पुरचुंडी काढली. ती अलगद उघडून देवापुढे ठेवली. त्यावर कोयरीतलं हळद-कुंकू वाहून नमस्कार केला.

“काय आहे हो हे?काय करताय?”आईने विचारलं.

” हा दत्तमहाराजांनी दिलेला प्रसाद.” ते प्रसन्नचित्ताने हसत म्हणाले.

“म्हणजे हो..?”

“मी संगमावर स्नान करून  वर आलो आणि वाळूतून चालताना सहज समोर लक्ष जाताच एकदम थबकलो. समोर सूर्यप्रकाशात काहीतरी चमकत होतं. मी जवळ जाऊन खाली वाकून ते उचलून घेतलं. पाहिलं तर तो वाळूत पडलेला हुबेहूब पादुकेसारखा दिसणारा गारेचा एक तुकडा होता.पण ही अशी एकच पादुका घरी कशी आणायची असं मनात आलं.काय करावं सुचेचना. मग सरळ मागचा पुढचा विचार न करता तिच्यासोबत हा दुसरा तेवढ्याच आकाराचा लांबट गारेचा खडा उचलून आणला…”ते उत्साहाने सांगत होते.हे वाचताना त्यांनी दुधाची तहान ताकावर  भागवून घेतली असं वाटेलही कदाचित,पण ते तेवढंच नव्हतं हे कांही काळानंतर आश्चर्यकारक रितीने प्रत्ययाला आलं.तोवर तत्काळ  झालेला एक बदल म्हणजे त्यानंतर घरातलं वातावरण हळूहळू पूर्वीसारखं झालं. यामधेही चमत्कारापेक्षा मानसिक समाधानाचा भाग होताच पण हे सगळं पुढे चमत्कार घडायला निमित्त ठरलं एवढं मात्र खरं!

आमच्या घरात फरशा बसवून झाल्यानंतरचा अंगणात रचून ठेवलेला फुटक्या शहाबादी फरश्यांच्या तुकड्यांचा ढीग अद्याप मजूरांनी हलवलेला नव्हता. त्यातल्याच एका आयताकृती फरशीच्या तुकड्यावर त्या गारेच्या दोन पादुका शेजारच्या घरी काम करत असलेल्या गवंडी मजुरांकडून बाबांनी सिमेंटमधे घट्ट बसवून घेतल्या. आश्चर्य हे की तेच मजुर त्या संध्याकाळी कामावरून घरी जाण्यापूर्वी आपणहून आमच्या घरी आले. बाबांना विचारुन त्यांनी त्या ढीगातले त्यातल्या त्यात  मोठे चौकोनी तुकडे शोधून त्या पादुका ठेवायला एक कट्टा आणि त्या भोवती तिन्ही बाजूंनी आणि वर बंदिस्त आडोसा असं जणू छोटं देऊळच स्वखुशीने बांधून दिलं! त्या कष्टकऱ्यांना ही प्रेरणा कुणी दिली हा प्रश्न त्या बालवयात मला पडला नव्हताच आणि आईबाबांपुरता तरी हा न पडलेला प्रश्न निरुत्तर नक्कीच नव्हता! आमच्या घरासमोरच्या अंगणातलं ते पादुकांचं मंदिर आजही मला लख्ख आठवतंय!

दुसऱ्या दिवशी पहाटे लवकर उठून आंघोळ आवरून बाबांनी मनःपूर्वक प्रार्थना करून त्या पादुकांची तिथे स्वतःच प्रतिष्ठापना केली आणि त्यांची ते स्वत: नित्यपूजाही करु लागले.हे  सुरुवातीला निर्विघ्नपणे सुरु राहिलं खरं पण एक दिवस बाबांना अचानक पहाटेच फोनच्या ड्युटीवर जाण्याचा अनपेक्षित निरोप आला. परत येऊन अंघोळ पूजा करायची असं ठरवून बाबा तातडीने पोस्टात गेले पण दुपारचे साडेअकरा वाजत आले तरी ते परत आलेच नाहीत.आज पादुकांची पूजा अंतरणार या विचाराने आई अस्वस्थ झाली. आम्ही भावंडांनी आपापली दप्तरं भरून ठेवली.आईनं हाक मारली की  जेवायला जायचं न् मग  शाळेत.आईची हाक येताच आम्ही आत आलो.आई आमची पानंच घेत होती पण नेहमीसारखी हसतमुख दिसत नव्हती.

“आई, काय झालं गं?तुला बरं वाटतं नाहीये का?” मी विचारलं.आई म्लानसं हसली.तिच्या मनातली व्यथा तिने बोलून दाखवली.यात एवढं नाराज होण्यासारखं काय आहे मला समजेचना.

“आई, त्यात काय?आमच्या मुंजी झाल्यात ना आता?मग आम्ही पूजा केली म्हणून काय बिघडणाराय?खरंच..,आई, मी करू का पादुकांची पूजा?” मी विचारलं.आई माझ्याकडे आश्चर्याने बघतच राहिली.

” नीट करशील?जमेल तुला?”

” होs.न जमायला काय झालं? करु?”

“शाळेला उशीर नाही का होणार?”

“नाही होणार.बघच तू”

“बरं कर”आई म्हणाली.

त्यादिवशी पुन्हा आंघोळ करून आणि पादुकांची पूजा करून घाईघाईने दोन घास कसेबसे खाऊन मी पळत जाऊन वेळेत शाळेत पोचलो. दत्तसेवेच्या मार्गावरचं माझ्याही नकळत आपसूक पुढे पडलेलं माझं ते पहिलं पाऊल होतं! पुढे मग बाबांना खूप गडबड असेल, वेळ नसेल, तेव्हा पादुकांची पूजा मी करायची हे ठरुनच गेलं.

काही महिने असेच उलटले.सगळं विनासायास आनंदाने सुरु होतं.आणि एक दिवस मी पूजा करत असताना अचानक माझ्या लक्षात आलं, की त्यातल्या पादुकेच्या शेजारच्या गारेच्या दुसऱ्या लांबट तुकड्यालाही हळूहळू पादुकेसारखा आकार यायला लागलाय.

त्याच दरम्यान त्या छोट्याशा देवळावर सावली धरण्यासाठीच जणूकांही उगवलंय असं वाटावं असं देवळालगत बरोबर मागच्या बाजूला औदुंबराचं एक रोप तरारून वर येऊ लागलं होतं!!

ते रोप हळूहळू मोठं होईपर्यंत कांही दिवसातच त्या गारेच्या लांबट दगडाला त्याच्यासोबतच्या पादुकेसारखाच हुबेहूब आकार आलेला होता!!

आईबाबांच्या दृष्टीने हे शुभसंकेतच होते. हळूहळू ही गोष्ट षटकर्णी झाली तसे अनेकजण हे आश्चर्य पहायला येऊ लागल्याचं मला आजही आठवतंय.

कुरुंदवाड सोडण्यापूर्वीच बाबांना वाचासिद्धीची चाहूल लागलेली होती तरीही आम्हा मुलांच्या कानापर्यंत त्यातलं काहीही तोवर आलेलं नव्हतं.पण खूपजण काही बाही प्रश्न घेऊन बाबाकडे येतात ,मनातल्या शंका बाबांना विचारतात, बाबा त्यांचं शंकानिरसन करायचा प्रयत्न करतात आणि ते सांगतात ते खरं होतं हे येणाऱ्यांच्या बोलण्यातून अर्धवट का होईना  आमच्यापर्यंत पोचलो होतंच.

संकटनिवारण झाल्याच्या समाधानात ती माणसं पेढे घेऊन आमच्या घरी यायची. बाबांचे पाय धरू लागायची पण बाबा त्यांना थोपवायचे. ‘नको’ म्हणायचे. नमस्कार करू द्यायचे नाहीत.पेढेही घ्यायचे नाहीत.

“अहो, मी तुमच्या सारखाच एक सामान्य माणूस आहे. मला खरंच नमस्कार नका करु. तुमच्या देव मी नाहीय.मी हाडामासाचा साधा माणूस.तुमचा देव तो.., तिथं बाहेर आहे. त्याला नमस्कार करा. यातला एक पेढा तिथं,त्याच्यासमोर ठेवा आणि बाकीचे त्याचा प्रसाद म्हणून घरी घेऊन जा” ते अतिशय शांतपणे पण अधिकारवाणीने सांगायचे.

तो बाहेर देवापुढे ठेवलेला पेढाही आम्ही कुणीच घरी खायचा नाही अशी बाबांची सक्त ताकीद असे. त्या दिवशी कोणत्याही निमित्ताने जो कुणी आपल्या घरी येईल,त्याला तो पेढा प्रसाद म्हणून द्यायचा असं बाबांनी सांगूनच ठेवलं होतं. मग कधी तो प्रसाद दुधोंडीहून डोईवरच्या पाटीत दुधाच्या कासंड्या घेऊन घरी दुधाचा रतीब घालायला येणाऱ्या दूधवाल्या आजींना मिळायचा, तर कधी आम्हा भावंडांबरोबर खेळायला, अभ्यासाला आलेल्या आमच्या एखाद्या मित्राला किंवा पत्र टाकायला घरी येणाऱ्या पोस्टमनलाही त्यातला वाटा मिळायचा!

माझे आई बाबा तेव्हाच नव्हे तर अखेरपर्यंत निष्कांचनच होते. त्यांच्या संसारात आर्थिक विवंचना,ओढग्रस्तता तर कायमचीच असे. पण तरीही बाबांनी लोकांच्या मनातल्या त्यांच्याबद्दलच्या विश्वासाचा कधीच बाजार मांडला नाही. ते समाधानीवृत्तीचे होतेच आणि सुखी व्हायचे कोणतेच सोपे जवळचे मार्ग त्यांनी जवळ केले नव्हते. देवावरची आम्हा मुलांच्या मनातली श्रद्धासुद्धा तशीच निखळ रहाणं आणि आमच्या मनात अंधश्रद्धेचे तण कधीच न रुजू देणं ही माझ्या आई-बाबांनी आम्हा भावंडांना दिलेली अतिशय मोलाची देनच म्हणावी लागेल!

क्रमशः …दर गुरुवारी

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #229 – कविता – ☆ आत्मस्थ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “आत्मस्थ….” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #229 ☆

☆ आत्मस्थ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

  हाँ, मैंने तोड़ी है रूढ़ियाँ

  लाँघी है सीमाएँ

  छोड़ दी है कई अंध परंपराएँ।

 

  रूढ़ियाँ –

  जिन्होंने मुझे बाँध रखा था।

  सीमाएँ –

  जिसमें मैं सिमट गया था

  रूढ़ियाँ –

  जिनने मुझे भीरू बना दिया था,

 

  मुक्त हूँ मैं अब बंधनों से

  दूर हूँ औपचारिक वंदनों से

  विचरता हूँ मुक्त गगन में

  नहीं रही अपेक्षाएँ मन में

  सुख मिलने पर

  अब खुशी से उछलता नहीं

  दूसरों का वैभव देख

  ईर्ष्या से जलता नहीं,

  दुख के क्षणों में

  अब रोना नहीं आता

  आत्ममुग्ध हो कभी

  खुद पर नहीं इतराता 

  विषयी संस्कारों के

  नए बीज बोता नहीं हूँ

  स्वयं से दूर

  कभी होता नहीं हूँ,

 

  अब आ जाती है मुझे नींद

  जब मैं सोना चाहता हूँ

  हो जाता हूँ निर्विचार

  जब होना चाहता हूँ,

  इनसे उनसे आपसे

  मधुर संबंध है

  न कोई राग न विराग

  जीवन

  एक मीठा सा छंद है

  दर्द भी है दुख भी है

  प्यास है भूख भी है

  बावजूद इन सब के

  सब कुछ निर्मल है 

  जीवन में अब जो भी

  शेष है-

  स्वयं का आत्म बल है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 51 ☆ हम मजदूर सर्वहारा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “हम मजदूर सर्वहारा…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 51 ☆ हम मजदूर सर्वहारा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(मजदूर दिवस)

हमने फूलों को खुशबू दी

बंजर को हरियाली दी,

हमने रूप संवारे हैं।।

*

हम आगत की पदचापें

थे अतीत की मुस्कानें,

वर्तमान जिंदा हमसे

हमी समय की पहचानें।

*

हम ऋतुओं के अनुयायी,

मौसम के हरकारे हैं।।

*

हम महलों की नीव बने

अपनापन भरपूर जिया,

हम हीरा गढ़ने वाले

अँधियारे में एक दिया।

*

जला खुशी की किरणों से,

हम लिखते उजियारे हैं।।

*

परिभाषित है श्रम हमसे

हम मजदूर सर्वहारा,

हमसे जंगल वनस्पति

हम यायावर बंजारा।

*

हम हैं जीवन का दर्शन,

बस अपनों से हारे हैं।।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नजर उठा के गुनहगार जी न पायेगा…… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “नजर उठा के गुनहगार जी न पायेगा“)

✍ नजर उठा के गुनहगार जी न पायेगा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

निगाह से न गिराना भले फ़ना कर दो

अगर नहीं है मुहब्बत उसे ज़ुदा कर दो

 *

किसी गिरे को कभी लात मत लगाना तुम

बने अगर जो ये तुमसे तो कुछ भला कर दो

 *

नजर उठा के गुनहगार जी न पायेगा

मुआफ़ उसकी अगर दिल से तुम  ख़ता कर दो

 *

कफ़स की कैद में दम घुट रहा परिंदे का

वो नाप लेगा फ़लक बस उसे रिहा कर दो

 *

अभी तलक मैं जिया सिर्फ खुद की ही खातिर

किसी के काम भी आऊ मुझे ख़ुदा कर दो

 *

लगा ज़हान बरगलाने सौ जतन करके

झुके ख़ुदा न कभी यूँ मेरी अना कर दो

 *

अरुण नसीब का लिख्खा नहीं मिले यूँ ही

उठो तो दस्त से कुछ काम भी बड़ा कर दो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 21 – पुराना फर्नीचर ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पुराना फर्नीचर।)

☆ लघुकथा – पुराना फर्नीचर श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरुणा जी अपने बेटे से कह रही थी, इतना बड़ा हो गया है अपने सारे काम क्यों नहीं करता?

तेरे कपड़े  रखते मैं थक जाती हूं कड़क स्वर में अपने बेटे अरुणेश को डांट रही थी।

अरुणेश ने कहा तुम मेरी अच्छी मां हो चलो कोई बात नहीं एक काम वाली तुम्हारी मदद के लिए रख देता हूं।

अरुणा जी ने कहा मुझे कामवाली नहीं बहू चाहिए,

मेरी एक सहेली विमला है जानते तो हो, मुझे कल ही पता चला कि वह तुम्हारे ऑफिस में ही काम करती है आज मैं तुम्हें टिफिन नहीं दे रही हूं ?

दोपहर का लंच तुम उसी के साथ करना उसका नाम पूजा है।  

मेरा ऑफिस बहुत बड़ा है मैं कैसे किसी भी लड़की से जाकर पूछूंगा?

अरुणा जी ने कहा- दोपहर में तू अपने ऑफिस के बगल वाले रेस्टोरेंट में चले जाना।

अरुणेश ने हां कर दिया।

दोपहर में उसे भूख लगी थी, मां की आज्ञा थी वह रेस्टोरेंट में गया तभी वहां पर एक लड़की ने उसे आवाज देकर बुलाया और  यहां आ जाओ, आपकी मां ने मुझे आपका फोटो भेज दिया था इसलिए मैं पहचान गई।

खाने में क्या खाओगी?

मुझे तंदूरी रोटी और पनीर कढ़ाई पसंद है वह मैंने आर्डर कर दिया है आप क्या लेंगे ?

 तुमने जो आर्डर किया है उसी को खा लूंगा, बाद में मैं अपने लिए चावल मंगवा लूंगा।

खाना खाते हुए अरुणेश ने कहा यदि तुम्हारी कोई शर्त हो तो मुझे बता दो?

पूजा ने कहा मुझे तुम पसंद हो और मेरी कोई शर्त नहीं है बस एक बात मैं कहना चाहती हूं कि शादी के बाद  अलग फ्लैट में रहना चाहूंगी और खाना मैं नहीं बनाऊंगी  टिफिन लगा लेंगे।

 मुझे घर में रोज की झिक झिक होती  है मेरे और तुम्हारे दोनों के घरों में पुराना फर्नीचर है।

 अरुणेश को एकाएक ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं है  एक ही क्षण में विचार करके बोला- पूजा ऑफिस में मेरी एक जरूरी मीटिंग है।

बिल मैं काउंटर में पे करते हुए जा रहा हूं।

अरे! खाना तो खत्म करो और जवाब देते जाओ?

मैं जवाब बाद में तुम्हें देता हूं और वह रास्ते भर यह सोचता रहा पुराना फर्नीचर यह बात उसे सुई की तरह चुभ गई मां इस लड़की के साथ शादी के लिए परेशान हैं…..।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 101 – मिलन मोशाय : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 2

☆ कथा-कहानी # 101 –  मिलन मोशाय : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

मिलन बाबू जब धीरे धीरे वाट्सएप ग्रुप में रम गये तो उन्होंने पाया कि दोस्तों से बातचीत और हालचाल की जगह वाट्सएप ग्रुप में फारवर्डेड मैसेज पोस्ट करने का ही चलन बन गया है, त्यौहारों पर बधाई संदेशों के तूफानों से मिलन मोशाय परेशान हो गये, चार पढ़ते चालीस और आ जाते.फिर पढ़ना छोड़ा तो मैमोरी फुल, दोस्तों ने डिलीट फार ऑल का हुनर सिखाया तो फिर तो बिना पढ़े ही डिलीट फॉर ऑल का ऑप्शन बेधड़क आजमाने लगे.

इस चक्कर में एक बार किसी का SOS message भी डिलीट हो गया तो भेजने वाला मिलन बाबू से नाराज़ हो गया, बोलचाल बंद हो गई. पहले जब वाट्सएप नहीं था तब मिलन बाबू अक्सर त्यौहारों पर, जन्मदिन पर ,एनिवर्सरी पर, अपने दिल के करीबियों और परिचितों से फोन पर बात कर लेते थे. किसी के निधन की सूचना पर संभव हुआ तो अंत्येष्टि में शामिल हो जाते थे या फिर बाद में मृतक के घर जाकर परिजनों से मिल आते थे पर अब तो सब कुछ वाट्सएप ग्रुप में ही होने लगा. मिलन बाबू सारी मिलनसारिता और दोस्तों को भूलकर दिनरात मोबाइल में मगन हो गये और ईस्ट बंगाल क्लब के फैन्स के अलावा उनके कुछ दुश्मन, उनके घर में भी बन गये जो खुद को नज़रअंदाज किये जाने से खफा थे और उनमें नंबर वन पर उनकी जीवनसंगिनी थीं. कई तात्रिकों की सलाह ली जा चुकी है और ली जा भी रही है जो इस बीमारी का निदान झाड़फूंक से कर सके.निदान उनके कोलकाता के दुश्मन याने ईस्ट बंगाल क्लब के फैन ने ही बताया कि दादा, फिर से मिलन मोशाय बनना है तो वाट्सएप को ही डिलीट कर डालो. जब गोलपोस्ट ही नहीं रहेगी तो गोल भी नहीं हो पायेगा.आप भी खुश रहेंगे और घर वाले भी.

😊😊

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 228 ☆ मॅडम ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 228 ?

☆ मॅडम ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(स्मृति शेष – प्रोफेसर वंदना जोशी, नासिक)

ते काॅलेजचे फुलपंखी दिवस,

 नेहमीच आठवतात,

मॅडम, तुमच्या घरी जागवलेली,

हरतालिका!

कुणी कुणी म्हटलेली गाणी!

माया नं म्हटलेलं,

“आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे “

लक्षात राहिलंय!

मला ते काॅलेज सोडावं लागलं,

मधेच—–

पण तुम्ही भेटत राहिलात,

नंतरही,

कुठल्या कुठल्या कविसंमेलनात!

 

“तू माझी विद्यार्थिनी आहेस,

याचा खूप अभिमान वाटतो “

 असं म्हणायचा नेहमी,

 

मॅडम कविता त्याच काॅलेजात गवसली,

कुठे ? कशी आणि का?

ते सांगायचं मात्र राहून गेलं….

कधीतरी निवांत भेटू….

“काही प्रश्न विचारायचे आहेत”

म्हणालात!

 

“सगळ्या आवडत्या विद्यार्थिनींचं गेट-टुगेदर

घेऊया शिरूरच्या माझ्या “मन्वंतर” बंगल्यात!”

दोन महिन्यांपूर्वीच म्हणालात,

 

आणि अशा कशा निघून गेलात?

न परतीच्या प्रवासाला ?

माझा अर्धवट सोडवलेला पेपर,

मी आता कुणाकडे पाठवू…

तपासायला??

 

परत एकदा,

मी निरुत्तर… अनुत्तीर्णच,

परिक्षा न देताच!!!!

© प्रभा सोनवणे

३० मे २०२३

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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