हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – चित्रांगना – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कथा चित्रांगना ।)

~ मॉरिशस से ~

☆  कथा कहानी ☆ – चित्रांगना – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

“मेरी एक भावभीनी लघुकथा”

तरुण कवि प्रभंजय ने एक कविता में लिखा था आकाशमुखी राज्य के राजा सर्वजीत ने अपनी बेटी चित्रांगना के लिए ‘मानसरोवर’ नाम का एक तालाब बनवाया था। अपने पिता के इस उपहार से प्रसन्नचित चित्रांगना मानसरोवर में नित्य स्नान करती थी। वह जब भीगे शरीर मानसरोवर के किनारे बैठती थी तो हंस उसकी पीठ से पानी की बूँदें पी कर अपनी प्यास बुझाते थे।

चित्रांगना के मन में आता था कितना अच्छा हो कवि प्रभंजय स्वयं उसकी पीठ की बूँदों का रसपान करे। ऐसा हो तो मानसरोवर प्रेम का अलौकिक संसार बन जाता।

चित्रांगना के मन में प्रेम का यह रंग गाढ़ा होता चला जा रहा था कि उसे पता चला कवि प्रभंजय ने देश छोड़ दिया। इस सूचना से चित्रांगना के जैसे मन प्राण सूख गए। उसे अब मानसरोवर में स्नान करने की रुचि शेष न रहने से अब वह उधर जाती नहीं थी। उसकी पीठ की कोमल पानी की बूँदों को अपने कंठ में उतारने वाले रसिक हंस आ कर तट पर बैठे रहते थे और राजमहल की ओर निहारा करते थे। वे शोर करने लगते थे। पलंग पर पड़ी हुई चित्रांगना के कानों में वह आवाज पड़ती थी। वह समझ जाती थी उसी के लिए यह तड़प है। पर वह विवश थी। प्रभंजय के चले जाने से उसने मान लिया था उसका संसार नीरस, निस्तेज और निष्प्रेम हो गया है।

कालांतर में राजकुमारी चित्रांगना के लिए पड़ोसी राज्य के राजकुमार भानुप्रताप से उसके विवाह का प्रस्ताव आया तो उसने बड़ी ही आत्म व्यथा से स्वीकार किया। केवल उसके अपने अस्तित्व को पता था उसकी आत्म व्यथा क्या थी। विवाह होने पर वह अपने पति के राज्य में पहुँची। उसने डोली से उतरने पर जब तरुण माली को महल से लगे उद्यान में फूल बोते देखा तो अवसन्न रह गई। माली का चेहरा कवि प्रभंजय का चेहरा था। भ्रम हो सकता था कि कवि प्रभंजय ही यहाँ माली होता हो, लेकिन चित्रांगना कवि प्रभंजय को अलग हटा कर उसी बिंब में देखती, “वह तो कवि था।’

पर चित्रांगना अपनी इसी टेक पर न रह सकी। यहाँ प्रभंजय का प्रतिरूप माली था। चित्रांगना के कमरे में उसी माली के हाथों पले हुए फूल पहुँचते थे।

चित्रांगना इस तरह दो प्रभंजयों को एक बना कर खुशी का अपना संसार रच ही रही थी कि उसे पता चला माली प्रभंजय नौकरी छोड़ कर शायद कहीं चला गया। चिंत्रांगना को लगा जीवन पर्यंत सोचने के लिए अपने को विवश पाती रहेगी कहीं वह स्वयं कवि प्रभंजय की कल्पना तो न थी जो वास्तविक धरातल के लिए मूर्त होती ही न हो?

© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 12 — 2023

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 172 – कोरा कागज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है टेलीपेथी पर आधारित सात्विक स्नेह से परिपूर्ण एक लघुकथा “कोरा कागज ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 172 ☆

☆ लघुकथा – 📋कोरा कागज 📋 

आजकल मोबाइल के इस आधुनिक युग में लाईक, डिलीट, स्टार, ब्लॉक, शेयर,ओहह यह सब करते-करते मनुष्य भावपूर्ण मन की बातें पत्र लेखन चिट्ठियों को भूल ही गया है।

पत्र सहेज कर रखना, उसे फिर से दोबारा निकाल कर पढ़ना और फिर मन लगाकर कई बार पढ़ना। चाहे वह किसी प्रकार की बातें क्यों ना हो। जाने अनजाने मन को छू जाती थीं। कोरे कागज की बातें।

माया अपने पति सुधीर के साथ रहती थी। यूं तो दोनों का प्रेम विवाह हुआ था। शादी के पहले की सारी चिट्ठियाँ माया और सुधीर ने बहुत ही संभाल, सहेज कर रखा था।

विवाह के बाद सब कुछ अच्छा चल रहा था। अचानक सुधीर का तबादला किसी बड़े शहर में हो गया।

कहते हैं नारी मन बड़ा कांचा होता है। माया को उसके जाने और अकेले रहने में कई प्रकार की बातें सता रही थी। जो भी है सुधीर को जाना तो था ही। अपना सामान समेट वह शहर की ओर बढ़ चला।

माया अपने कामों में लग गई। एक सप्ताह तक कोई खबर नहीं आई। धीरे-धीरे समय बीत गया। अब तो मोबाइल था। फिर भी सुधीर बस हाँ हूं कह… कर काम की व्यस्तता बता बात ही नहीं करता था। माया इन सब बातों से आहत होने लगी।

उसे लगा सुधीर कहीं किसी ऑफिस में सुंदर महिला के साथ – – – – – “छी छी, ये मैं क्या सोचने लगी।” उसने झट कॉपी पेन निकाला और पत्र लिखने बैठ गई।

लिखने को तो वह बहुत सारी बातें लिखना चाह रही थी। परंतु केवल यही लिख सकी – – – ‘सुधीर तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे भरोसे में जी रही हूं। पत्र लिखकर पोस्ट करके जैसे ही घर के दरवाजे पर ताला खोलने लगी। सामने पोस्टमेन  खड़ा दिखाई दिया — “मेम साहब आपकी चिट्ठी।” आश्चर्यचकित माया जल्दी-जल्दी पत्र खोल पढ़ने लगी… सुधीर ने लिखा था.. ‘माया तुमसे दूर आने पर तुम्हारी अहमियत और भी ज्यादा सताने लगी है। मुझ पर विश्वास करना।

दुनिया की नजरों से नहीं मन की भावनाओं से देखना मैं सदैव तुम्हारे साथ खड़ा हूं। जल्दी आता हूं।’ कोरे कागज पर लिखी यह बातें..। माया पास पड़ी कुर्सी पर बैठ, अश्रुधार बहने लगी ।तभी मोबाइल की घंटी बजी उठी..

“हेलो” माया ने देखा पतिदेव सुधीर ने ही कॉल था। सुधीर ने कहा… “ज्यादा रोना नहीं जैसा तुम्हारा मन है वैसा ही यह कोरा कागज है। ठीक वैसे ही मैं भी उस पर लिखे अक्षरों का भाव हूँ। हम कभी अलग नहीं हो सकते। मन के कोरे कागज पर हम दोनों का नाम लिखा है। बस बहुत जल्दी आ रहा हूं। तुम्हें लिवा ले जाऊंगा।”

माया सुनते जा रही थी तुम मेरी कोरी कल्पना हो। रंग भरना और सहेजना, उसमें हंसना- मुस्कराना तुम्ही से सीखा है। बस विश्वास और भरोसा करना इस कोरे कागज की तरह। माया सामने लगे आईने पर अपनी सूरत देख मुस्करा उठी।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – इस पल ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  इस पल  ? ?

काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…! समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही पुराना घर, टूटी खपरैल, टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।

काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह!…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।

बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – शहीद ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘शहीद’।)

☆ लघुकथा – शहीद ☆

सुशीला जी ने, अपने बेटे राहुल के, शहीद होने की खबर, टीवी पर देख ली थी,  दिल धक करके रह गया, वह गश खाकर भूमि पर गिर पड़ी थी, ऐसा लगा जैसे,उसका सब कुछ विधाता ने छीन लिया है ये क्या हो गया,पर होनी थी, हो गई, और आज सेना के जवान उसके बेटे का शव लेकर उसके गांव आए थे, राहुल के दोस्त समीर ने घर का दरवाजा खटखटाया, वह घर में चुपचाप बैठी थी, सोच रही थी, अब कौन आएगा, जिसका इंतजार था जिसका इंतजार रहता था,उसके तो शहीद होने की खबर आ गई है,  फिर भी उसने, धीरे से सांकल खोली, दरवाजा खुला, तो सामने राहुल का दोस्त समीर यूनिफॉर्म में खड़ा था, समीर पास ही के गांव का था, राहुल के साथ पढा था,और दोनों एक साथ आर्मी में भर्ती हुए थे, समीर ने सुशीला के पैर छुए, और कहा, मां राहुल ने देश पर अपनी जान कुर्बान कर दी, शहीद हो गया है, सुशीला, समीर को एक टक देखती रही, और कहां मुझे टीवी पर समाचार मिल गया था, समीर ने कहा मां आज हम शहीद राहुल को लेकर आए हैं, अंतिम संस्कार के लिए, आप उसके अंतिम दर्शन कर लें, सुशीला बाहर निकली, उसने देखा, आर्मी के वाहन पर ताबूत रखा हुआ है,पीछे बहुत भीड़ थी, शायद सबको गांव में समाचार मिल गया था, वह भी साथ में, शमशान घाट पहुंची, चिता पर राहुल का शव लिटाया गया, राहुल का शव तिरंगे में लिपटा हुआ था, तिरंगा हटाकर सुशील ने राहुल का चेहरा देखा, और देखती रही, एक आंसू भी नहीं निकला, बस शव को एक टक देख रही थी, तभी पंडित जी ने कहा, मां जी शव को मुखाग्नि कौन देगा,, तो सुशीला ने कहा, मैं मैं दूंगी,,, मैं तो इंतजार कर रही थी कि मेरा बेटा मेरे शव को मुखाग्नि नहीं दे, पर विधाता ने मुझे अवसर दिया,

सज के तिरंगे में आया है मेरा लाल,कोई नजर उतारो, कोई नजर उतारो, और सुशीला ने अपने बेटे के शव को मुखाग्नि दी, गांव में शहीद अमर रहे, के नारे लग रहे थे,  सुशीला समीर का सहारा लेकर एक किनारे बैठकर बेटे की चिता को देख रही थी, कि, उसका एक सहारा था वह भी चला गया, पर, मौन थी,,तभी समीर ने कहा मां  राहुल ने खत दिया था मुझे, आपको देने के लिए कहा था, कि अगर मैं देश पर बलिदान हो जाऊं, तो मेरी मां को मेरी एक चिट्ठी दे देना, सुशील ने चिट्ठी ली और पढ़ी,

उसमें लिखा था, मां, मैंने पीठ नहीं दिखाई, दुश्मनों को मार कर, दुश्मन की गोली अपने सीने पर खाई है, मां मैंने उन नापाक हाथों को अपनी भारत माता के आंचल की तरफ बढ़ने नहीं दिया, मैंने उनको खत्म कर दिया, सुशीला ने अपना चेहरा उठाया, और कहा, मेरे लाल, तूने अपनी मां के दूध की लाज रख ली, तूने भारत माता का कर्ज उतार दिया, तू धन्य है पर कौन है वो, जो मां के लाल पर गोली चलाते हैं, वह भी तो किसी मां के लाल हैं, क्यों गोली चलाते हैं, उन्हें किसी ने नहीं समझाया कि तुम भी अपनी मां के लाल हो, और जो सामने खड़े हैं, वह तो तुम्हें जानते भी नहीं, तुम्हारी तो उनसे कोई दुश्मनी नहीं है, किस धर्म में लिखा है, कि धर्म की खातिर जान लो, किसी धर्म में नहीं लिखा, कि किसी का खून बहाया जाए, बंद करो यह रक्तपात, इससे किसी का भला नहीं है ,जैसे मेरा सहारा मुझसे छिन गया, जो मरे हैं वह भी तो किसी मां के लाल हैं ,उनका भी तो सहारा छिन गया, आज वह मां भी क्या सोच रही होगी, यह कैसा आतंक है, यह कैसा जिहाद है, बस करो, अब जिओ और जीने दो,अब सरहद पर खून की नदी बहाना बंद करो, और यह कहकर समीर के कंधे पर हाथ रखकर  अपने घर वापस आ गई,समीर ने कहा, मां राहुल नहीं है तो क्या हुआ, तुम्हारा दूसरा बेटा समीर तो है, वह किसी दुश्मन की नापाक  निगाहों से देश को देखने नहीं देगा, वह भी हर उसे हाथ को काट देगा, जो भारत माता की ओर बढ़ेंगे, सुशीला कुछ कहने की स्थिति में ही नहीं थी, क्योंकि उसकी सांस भी अब रुक गई थी, बेटे के साथ मां ने भी दम तोड़ दिया था, समीर चिल्लाया, मां, मां, पर मां कहां थी वह तो अपने बेटे के साथ अनंत यात्रा को निकल चली थी…

कौन समझाए इन देश के दुश्मनों को, कि जो रक्तपात तुम करते हो तो तुम्हारी गोली किसी एक को नहीं मारती, उसके साथ जाने कितनी जान चली जाती हैं, कितने घर उजड़ जाते हैं, कितनी मांगे उजाड़ जाती हैं, जिन्हें तुम जानते भी नहीं हो, उन पर गोली चलाते हो, बंद करो ये सब,ये जिहाद नहीं,दहशत गर्दी है,इससे मानवता लहूलुहान होती है,धरती को खून से नहीं सींचना है,धरती पर तो प्रेम का संदेश फैलाना है.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 218 ☆ कहानी – एक फालतू आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है वर्तमान सामाजिक परिवेश पर विमर्श करती एक सार्थक एवं विचारणीय कहानी एक फालतू आदमी। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 218 ☆

☆ कहानी – एक फालतू आदमी 

(लेखक के कथा-संग्रह ‘खोया हुआ कस्बा’ से) 

चन्दन कॉलोनी की रौनकें बहुत कुछ उजड़ गयी हैं। पाँच दस साल पहले यहाँ ख़ूब रौनक थी। शाम होते ही झुंड की झुंड लड़कियाँ कॉलोनी की सड़कों पर साइकिलें लेकर निकल पड़ती थीं, जैसे चिड़ियों के आकाश में तैरते झुंड हों। उनका अल्हड़पन और हँसी पूरी कॉलोनी को गुलज़ार कर देती थी। कॉलोनी में रहने वाले लड़कों के दोस्तों की भी खूब आवाजाही बनी रहती थी। कॉलोनी के किसी भी कोने पर उन्हें बेफिक्री से ज़ोर-ज़ोर से बतयाते हुए देखा जा सकता था। कॉलोनी में बुज़ुर्गों के चेहरे पर भी उत्साह और सुकून पढ़ा जा सकता था। लेकिन अब यह गुज़रे ज़माने की बातें थीं। पिछले पाँच दस साल में ज़्यादातर लड़के लड़कियाँ पढ़ाई या नौकरी के लिए शहर से निकल गये थे और कॉलोनी की रौनक कम हो गयी थी। लड़के लड़कियों की सोच थी कि इस शहर में उनके पंख फैलाने की जगह नहीं है, इसलिए उन्होंने उड़ जाना ही बेहतर समझा था। उनके उड़ जाने के बाद पीछे छूट गये उनके माता-पिता के चेहरे पर रीतापन नज़र आता था।

कई माता-पिता ने अपने बेटे-बहू के साथ भावी जीवन बिताने की उम्मीद में अपने मकानों में कई कमरे बना लिये थे और अब वे परेशान थे कि बड़े मकानों का वे क्या करेंगे। कुछ ने किरायेदार रख लिये थे जबकि कुछ ने किरायेदारों की झंझट में पड़ने के बजाय अकेले ही रहना बेहतर समझा था। बुज़ुर्ग अपनी सुरक्षा के प्रति बेहद सावधान हो गये थे। दरवाज़े की घंटी बजाने पर बिना पूरी ताक-झाँक और इत्मीनान के दरवाज़ा खुलना मुश्किल होता था।

अब शाम होते ही बुज़ुर्ग अपना मोबाइल लेकर बैठ जाते थे और घंटों बेटों-बेटियों और नाती-पोतों से बात करने में मसरूफ रहते थे। यही सुकून पाने का बड़ा ज़रिया था। मोबाइल पर आवाज़ के अलावा प्रियजन को बात करते हुए देखा भी जा सकता था, जो बड़ी नेमत थी। बात ख़त्म होने के बाद भी बुज़ुर्ग बड़ी देर तक फोन पर हुई बातों को ही उठाते-धरते रहते थे।

कॉलोनी में अब बहुत कम लड़के- लड़कियाँ बाकी रह गये थे। अब वहाँ वे ही लड़के रह गये थे जो पढ़ाई-लिखाई में कोई तीर नहीं मार पाये थे या जिनके लिए अपना शहर छोड़ पाना मुश्किल था। ऐसे लड़के-लड़कियांँ अब शहर में ही कोई नौकरी या छोटा-मोटा धंधा खोजते थे।

ऐसे ही लड़कों में नीलेश था जो अपने दोस्तों की तुलना में पीछे छूट गया था। पढ़ाई में वह लाख सिर मारने के बाद भी औसत ही रहा था और इसीलिए न कोई दीवार तोड़ सका, न लंबी उड़ान भर पाया। शहर को न लाँघने का एक कारण यह भी था कि उसे शहर से बहुत प्यार था। अपना शहर छोड़ने के लिए जो बेरुखी चाहिए उसे वह पैदा नहीं कर पाया था। उसने अपने शहर में एम.बी.ए. की कक्षाओं में भी प्रवेश लिया था लेकिन वह दुनिया भी उसे थोथी लगी। उसकी समझ में नहीं आया कि हर वक्त अंग्रेज़ी में ही बातचीत क्यों की जाए या क्लास में टाई लगाकर जाना क्यों ज़रूरी हो। अन्त में वह उस कोर्स को छोड़ कर वापस अपनी दुनिया में आ गया।

कॉलोनी के कोने पर एक छोटा सा पार्क भी था जो बुज़ुर्गों के लिए वरदान था। सुबह-शाम कॉलोनी के बुज़ुर्ग वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। बातें ज़्यादातर अपने अपने बच्चों के बारे में ही होती थीं। ज़्यादातर बुज़ुर्गों को इस बात का गर्व था कि उनके बच्चे अच्छी संस्थाओं या मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों में पहुँच गये थे। जिनके बच्चे देश से बाहर निकलकर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों में नौकरी पा गये थे वे अपने को वी.आई.पी. समझते थे।

नीलेश पार्क के इस जमावड़े से बचता था क्योंकि उसे बुलाकर बुज़ुर्ग ऐसे सवाल करते थे जो उसके लिए तकलीफदेह थे। वही सवाल कि अब तक वह कहीं निकल क्यों नहीं पाया, और फिर अपने बच्चों का उदाहरण देते हुए ढेर सारी नसीहतें। नीलेश के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाता। किसी तरह उनसे पीछा छुड़ाता।

बुज़ुर्गों में सबसे ज़्यादा परेशानी उसे वर्मा जी से होती है। उसे देखते ही वे आवाज़ देकर बुलाते हैं। फिर पहला सवाल— ‘क्यों कुछ जमा, या ऐसे ही भटक रहे हो?’ फिर लंबा भाषण— ‘आदमी में एंबीशन होना चाहिए। बिना एंबीशन के आदमी लुंज-पुंज हो जाता है। कुछ दिन बाद वह किसी काम का नहीं रहता। सोसाइटी पर ‘डेडवेट’ हो जाता है। एंबीशन पैदा करो तभी कुछ कर पाओगे।’ फिर वे अपने बेटे का उदाहरण देने लगते हैं जो नीलेश का दोस्त है, लेकिन मुंबई में एक कंपनी में ऊँचे पद पर बैठा है।

वैसे नीलेश अपनी ज़िन्दगी से संतुष्ट है। नौकरी नहीं है लेकिन पिता की हार्डवेयर की दूकान पर बैठकर उन्हें कुछ राहत दे देता है। रोज़ शाम को बूढ़े दादाजी की बाँह पकड़कर उन्हें कुछ देर टहला लाता है। दो बड़ी बहनों की ससुराल आना-जाना होता रहता है और मुसीबत या ज़रूरत में एक दूसरे की मदद होती रहती है। कहीं लंबा रुकना पड़े तो नौकरी का दबाव न होने के कारण तनाव नहीं होता। रिश्तो का रस पूरा मिलता रहता है।

वर्मा जी का बेटा प्रशान्त नीलेश का दोस्त है। शहर आने पर नीलेश को ज़रूर याद करता है। नीलेश की सरलता और उसका औघड़पन उसे अच्छा लगता है। स्वभाव विपरीत होने के कारण उसकी तरफ आकर्षण महसूस होता है। लेकिन प्रशान्त की ज़िन्दगी में फुरसत नहीं है। सारे वक्त जैसे उसके कान कहीं लगे होते हैं। लैपटॉप हर वक्त उसके आसपास होता है। मोबाइल पर व्यस्तता इतनी होती है कि उसके साथ वक्त गुज़ारने के लिए आये दोस्तों को ऊब हो जाती है। लेकिन वर्मा जी को अपने बेटे की व्यस्त ज़िन्दगी से कोई शिकायत नहीं है। उनके हिसाब से कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।

नीलेश के बारे में उसके दोस्तों और कॉलोनी वालों की धारणा बन गयी है कि वह फालतू है, उसके पास कोई काम धंधा नहीं है। इसलिए उससे कॉलोनी के ऐसे कामों में भी सहभागिता की उम्मीद की जाती है जिनमें उसकी कोई रुचि नहीं होती। कई बार उसे ऐसे मामलों में चिढ़ महसूस होने लगती है।

ऐसे ही उपेक्षा-अपेक्षा के बीच एक रात नीलेश के मोबाइल पर रिंग आयी। प्रशान्त था, आवाज़ घबरायी हुई। बोला, ‘अभी अभी पापा का फोन आया था। मम्मी को शायद पैरेलिसिस का अटैक आया है। वहाँ और कोई नहीं है। पापा बहुत परेशान हैं। तू पहुँच जा तो मुझे थोड़ा इत्मीनान हो जाएगा। मैंने बंसल हॉस्पिटल को फोन लगाकर एंबुलेंस के लिए कह दिया है। पहुँचती होगी। मैं सुबह दस बजे फ्लाइट से पहुँच जाऊँगा।’

नीलेश ने टाइम देखा। एक बजा था। वह बाइक उठाकर निकल गया। वहाँ वर्मा जी बदहवास थे। काँपते हुए इधर-उधर घूम रहे थे। बार-बार माथे का पसीना पोंछते थे। नीलेश को देख कर उनके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गयी और मरीज़ अस्पताल पहुँच गया। चिकित्सकों की देखरेख में मामला नियंत्रण में आ गया। वर्मा जी, थके और बेबस, पत्नी की बेड की बगल में बैठे रहे।

प्रशान्त के पहुँचने तक नीलेश वहाँ रुका रहा। प्रशान्त करीब ग्यारह बजे, बहुत परेशान, वहाँ पहुँचा। माँ को ठीक-ठाक देखकर उसके जी में जी आया। वर्मा जी बेटे को देखकर रुआँसे हो गये। बड़ी देर के दबे भाव चेहरे पर प्रकट हो गये। प्रशान्त ने नीलेश का हाथ पकड़कर कृतज्ञता का भाव दर्शाया।

नीलेश का काम ख़त्म हो गया था। शायद अब कुछ नाते-रिश्तेदार या इष्ट-मित्र आकर मामला सँभाल लें। उसने प्रशान्त से विदा ली। चलते वक्त वर्मा जी की तरफ हाथ जोड़े तो उन्होंने कृतज्ञता से हाथ जोड़कर माथे से लगा लिये। आज वे नीलेश को कोई नसीहत नहीं दे सके।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 243 ☆ लघुकथा – स्माइली 😊☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – स्माइली।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 243 ☆

? लघुकथा – स्माइली 😊 ?

हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, चाइनीज, बंगाली, मराठी, तेलगू …, जाने कितनी भाषायें हैं। अनगिनत बोलियां और लहजे हैं।  पर दुनियां का हर बच्चा इन सबसे अनजान, केवल स्पर्श की भाषा समझता है।  माँ के मृदु स्पर्श की भाषा, मुस्कान की भाषा। मौन की भाषा के सम्मुख क्रोध भी हार जाता है। प्रकृति बोलती है चिड़ियों की चहचहाहट में, पवन की सरसराहट में, सूरज की बादलों से तांक झांक में।

वह इमोजी साफटवेयर बनाता है। उसकी  वर्चुअल दुनियां बोलती है इमोजी के चेहरों की भाषा में। उसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती गुस्से वाली लाल इमोजी, और आंसू टपकाती दुख व्यक्त करते चेहरे वाली इमोजी। मिटा देना चाहता है वह इसे। सोचता है, क्या करना होगा इसके लिये। क्या केवल साफ्टवेयर अपडेट? या बदलनी होगी व्यवस्था। सोचते हुये जाने कब उसकी नींद लग जाती है। गालों पर सुनहरी धूप की थपकी से उसकी नींद टूटती है, बादलों की की ओट से सूरज झांक रहा था खिड़की से मुस्करा कर। स्माइली वाली इमोजी उसे बहुत अपूर्ण लगती है इस मनोहारी अभिव्यक्ति के लिये, और वह जुट जाता है और बेहतर स्माइली इमोजी बनाने में।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #156 – लघुकथा – “तर्क यह भी” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “तर्क यह भी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 156 ☆

 ☆ लघुकथा- तर्क यह भी  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

जैसे ही मेहमान ने सीताफल लिए वैसे ही दूर से आते हुए मेजबान ने पूछा, “क्या भाव लिए हैं?”

“₹40 किलो!” मेहमान ने जवाब दिया।

यह सुनते ही मेजबान सीताफल बेचने वाली पर भड़क उठे, “अरे! थने शर्म नी आवे। नया आदमी ने लूट री है।”

वे कहे जा रहे थे, “दुनिया ₹20 किलो दे री है। थूं मेह्मना ने ₹40 किलो दे दी दा। घोर अनर्थ करी री है।

” वह थारे भड़े वाली ने देख। ₹20 किलो बची री है।”

वह चुपचाप सुन रही थी तो मेजमैन भड़क कर बोले, ” माँका मोहल्ला में बैठे हैं। मांने ही लूते हैं। थेने शर्म कोणी आवेला। ₹20 पाछा दे।”

“नी मले,” उसने संक्षिप्त उत्तर दिया। सुनकर मेजबान वापस भड़क गए। जोर-जोर से बोलने लगे। वहां पर भीड़ जमा हो गई।

भीड़ भी उसे फल बेचने वाली को खरी-खोटी सुनाने लगी। वह लोगों को लूट रही है। तभी मेजबान ने मेहमान से कहा, “ब्याईजी साहब, आपको तो स्वयं को लुटवाना नहीं चाहिए।”

यह सुनकर मेहमान ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,”ब्याईजी सा! जाने दो। ऐसे गरीब लोगों को हमारे जैसे लोगों से ही थोड़ी खुशी मिल जाती है।”

यह सुनकर मेजबान, मेहमान का मुंह देखने लगे और भीड़ चुपचाप छट गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

28-11-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा “चेष्टा” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी विचारणीय लघुकथा चेष्टा.)

☆ लघुकथा – चेष्टा  ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

आपने देखा होगा कि ज्यादातर बिना पढ़े लिखे लोग अपनी जेब में एक सुंदर और कीमती कलम रखे मिल जाते हैं।

और जिन्हें समय से कुछ लेना-देना नहीं, वे लोग कीमती घड़ी का इस्तेमाल करते मिल जाते हैं।

गंजों के पास कीमती कंघी मिल जाएगी।

पढ़ें फारसी बेचें तेल-जिन्हें दो अक्षर पढ़ना नहीं आता उनके पास सुंदर फ्रेम की कीमती ऐनक  मिल जाएगी।

समझ के परे है जो होते नहीं हैं वे वही दिखने की चेष्टा क्यों करते हैं?

🔥 🔥 🔥

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 217 ☆ लघुकथा – एक रहस्यमय मौत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी एक रहस्यमय मौत। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 217 ☆

☆ लघुकथा – एक रहस्यमय मौत  

नवीन भाई का स्वास्थ्य कुछ दिनों से नरम-गरम चल रहा है। ब्लड-प्रेशर ऊपर नीचे हो रहा है। सत्तर पार की उम्र हुई, इसलिए कई लोगों के हिसाब से यह स्वाभाविक है।

डॉक्टर कहता है कि दवा के अलावा भी कुछ और उपाय अपनाने चाहिए। खाने में नमक कम करें, तनाव से बचें, नींद पूरी लें, चीज़ों को ज़्यादा गंभीरता से न लें, योगा करें, ध्यान करें, प्राणायाम करें, जब टाइम मिले आँखें मूँद कर शान्त बैठें, चिन्ता के लिए दरवाज़ा न खोलें।

नवीन भाई की रुचि कभी अध्यात्म में नहीं रही। पूजा-पाठ के लिए नहीं बैठते। परिवार के ठेलने पर सबके साथ मन्दिर चले जाते हैं। तीर्थ यात्रा पर भी परिवार के पीछे-पीछे चले जाते हैं। मित्रों से सत्संग करने की सलाह मिलती है तो हँसकर ‘मोमिन’ का शेर सुना देते हैं— ‘आख़िरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे।’

नवीन भाई संवेदनशील व्यक्ति हैं। किसी की भी पीड़ा सुनकर द्रवित हो जाते हैं। किसी के भी साथ हुए अन्याय को पढ़कर अस्थिर हो जाते हैं। कई बार क्रोध का उफ़ान उठता है। बेचैन हो जाते हैं। शायर ‘अमीर मीनाई’ के शेर को चरितार्थ करते हैं— ‘खंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’ परिवार वालों का सोचना है कि यह अनावश्यक ‘पर-दुख कातरता’ ही उनके ब्लड-प्रेशर बढ़ने की वजह है।

अब नवीन भाई डॉक्टर की हिदायतों का पालन करने की कोशिश करते हैं। जब खाली होते हैं तो आँखें मूँद कर बैठ जाते हैं। परेशान करने वाले विचारों को ठेलने की कोशिश करते हैं। यूक्रेन, इज़रायल-गाज़ा, मणिपुर, उज्जैन, उन्नाव, हाथरस, लखीमपुर खीरी, जंतर मंतर, किसानों की आत्महत्या, परीक्षाओं के पेपर की लीकेज, बेरोज़गारी, भुखमरी, असमानता, वैज्ञानिक सोच को छोड़कर बाबाओं के दरबार में जुटती नयी पीढ़ी, नेताओं के झूठ और पाखंड, जाति-धर्म के दाँव-पेंच— ये सारे प्रेत बार-बार उनके दिमाग पर दस्तक देते हैं और वे बार-बार उन्हें ढकेलते हैं। अखबार और टीवी में परेशान करने वाली खबरों और दृश्यों को देखकर अब आँखें फेर लेते हैं। मित्रों के दुखड़े एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने की कोशिश करते हैं।

धीरे-धीरे नवीन भाई को सफलता मिलने लगी। उन्हें घेरने और परेशान करने वाले प्रेतों की आमद कम होने लगी। दिमाग हल्का रहने लगा। अब वे घंटों आँखें मूँदे बैठे रहते। कहीं कोई परेशान करने वाला विचार नहीं। ‘मूँदौ आँख कतउँ कोउ नाहीं।’ ब्लड-प्रेशर ने नीचे का रुख किया। घर वाले भी निश्चिन्त हुए।

अब नवीन भाई का दिमाग बिना अधिक श्रम के चिन्तामुक्त, विचारमुक्त रहने लगा। आँख मूँदते ही समाधि लग जाती। दिमाग में सन्नाटा हो जाता। कभी-कभी नींद लग जाती। घर वाले भी उन्हें तभी हिलाते-डुलाते जब स्नान-भोजन का वक्त होता।

एक दिन नवीन भाई की समाधि अखंड हो गयी। आँखें मूँदीं तो फिर खुली ही नहीं। घर वालों ने हिलाया डुलाया तो ढह गये।

डॉक्टर परेशान है कि जब ब्लड-प्रेशर करीब करीब नॉर्मल हो गया तो नवीन भाई की मृत्यु अचानक कैसे हो गयी। यह अब भी रहस्य बना हुआ है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #155 – बाल कथा – “चाबी वाला भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय बालकथा  “चाबी वाला भूत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 155 ☆

 ☆ बालकहानी – चाबी वाला भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

बेक्टो सुबह जल्दी उठा. आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं. उसे आश्चर्य हुआ. ताले में चाबी कहां से आती है ?

वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था. घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था. कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था. वह अपना ध्यान इसी ओर लगाए हुए था. गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी.  कोई आहट नहीं होती. लाईट नहीं जलती. चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती.

‘‘हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया. वह डर गया. उस ने यह बात अपने दोस्त जैक्सन को बताई. तब जैक्सन ने कहा, ‘‘यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है. यह सब मन का वहम है,’’

बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘तू यूं ही डर रहा होगा.’’

‘‘नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं. मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं.’’

‘‘फिर !’’

‘‘जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है.’’

‘‘यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’

‘‘कुछ भी हो. यह चाबी वाला भूत हो सकता है.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘यदि तुझे यकिन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो कर देख है. मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है.’’

जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था. वह उस की बात मान गया. दूसरे दिन से घर आने लगा. वह बेक्टो के घर पढ़ता. वही पर सो जाता. फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते. दोनों अलगअलग पढ़ने बैठ जाते. इस दौरान वे ताला अच्छी तरह बंद कर देते.

आज भी उन्हों ने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया. ताले को दो बार खींच कर देखा था. ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने चाबी अपने पास रख ली.

ठीक चार बजे दोनों उठे. कमरे से बाहर निकले. चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था.

दोनों पढ़ने बैठ गए. फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए. वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी.

‘‘देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है. वह रोज चेनल का ताला चाबी से खोल देता है,’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया. उस ने वहां रखी. चाबी दिखाई.

‘‘देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘चाहे जो हो. मैं भूतवूत को नहीं मानता.’’

‘‘फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता.

दोपहर को वह बेक्टो को घर आया. उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे.

जैक्सन ने उन को देखा. वे एक खूटी को एकटक देख रहे थे. उन की आंखों से आंसू झर रहे थे.

‘‘यार बेक्टो !’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया था. इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा.

‘‘मुझे नहीं मालुम है,’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘कभीकभी मेरे दादाजी आलतीपालती मार कर बैठ जाते हैं.  अपने हाथ से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं. फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’

‘‘वाकई !’’

‘‘हां यार. समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यो ंकरते हैं.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘कभीकभी बैठ जाते हैं. फिर अपना पेट पिचकाते हैं. फूलाते है. फिर पिचकाते हैं. फिर फूलाते हैं. ऐसा कई बार करते हैं.’’

‘‘अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बातं की है ?.’’

‘‘नहीं यार,’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घुमने चलो तो मैं बताता हूं. मगर, वे जब घुमने जाते हैं तो तीनचार किलोमीटर चले जाते हैं. इसलिए मैं उन से ज्यादा बात नहीं करता हूं.’’

यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा. वह एक अखबार पढ़ रहे थे.

‘‘तेरे दादाजी तो बिना चश्में के अखबार पढ़ते हैं ?’’

‘‘हां. उन्हें चश्मा नहीं लगता है.’’ बेक्टो ने कहा.

जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था. वह घर चला गया. फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया. दोनों साथ पढ़े और सो गए. सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘आज चाहे जो हो जाए. मैं चाबी वाले भूल को पकड़़ कर रहूंगा. तू भी तैयार हो जा. हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’

‘‘नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है,’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘तू अकेला ही उसे पकडना.’’

जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘भूतवूत कुछ नहीं होते हैं. यह हमारा वहम है. इन से डरना नहीं चाहिए.’’ मगर, बेक्टो नहीं माना. उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘भूत से मुझे डर लगता है. मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा.’’

‘‘ठीक है. मैं पकडूगा.’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा,  ‘‘तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा. वैसे ही मैं मदद करने आ जाऊंगा,’’

दोनों तैयार बैठे थे. उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था.

जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था. बेक्टो के डर लग रहा था. इसलिए उस ने दरवाजा बंद कर लिया था.

ठीक पांच बजे थे. अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई. यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती.

‘‘चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा. तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा.

चेनलगेट के पास एक साया था. वह सफेदसफेद नजर आ रहा था. जैक्सन फूर्ति से दौड़ा. चेनलगेट के पास पहुंचा. उस ने उस साए को जोर से पकड़ लिया. फिर चिल्लाया, ‘‘अरे ! भूत पकड़ लिया.’’

‘‘चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया.

चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मीपापा जाग गए. वे तुरंत बाहर आ गए.

‘‘अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी.

‘‘पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया.

‘‘कहां ?’’

‘‘ये रहा ?’’

तभी उस भूत ने कहा, ‘‘भाई ! मुझे क्यो ंपकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या ंबिगाड़ा है ?’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट कर पूछा.

‘‘दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी.

यह सुन कर सभी हंसने लगे. फिर पापाजी ने कहा, ‘‘बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घुमने की आदत है. किसी की नींद खराब न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं. धीरे से चेनलगेट खोलते हैं. फिर अकेले घुमने निकल जाते हैं.’’

‘‘क्या ?’’

‘‘हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘चुंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं. मोबाइल नहीं चलाते हैं. इसलिए इन की आंखें बहुत अच्छी है. ये व्यायाम करते हैं. इसलिए अधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है. इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है..’’

यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,. वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘दादाजी ! मुझे माफ करना. मैं समझा था कि कोई चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है.’’

‘‘यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं,’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे.

बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था. तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया.

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29.12.2018

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

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