हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – मुंह दिखाई… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा मुंह दिखाई

? लघुकथा – मुंह दिखाई… ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

बहुत धूमधाम से शादी सम्पन्न हुई। अगले दिन वधू की मुंह दिखाई की रस्म अदा होनी थी। सभी रिश्तेदार बड़ी उत्सुकता से इंतजार कर रहे थे, देखें सास अपनी बहू को मुंह दिखाई में क्या देती है?

बहूू जब पूूूरी तरह से तैयार होकर आई तो सास के चरण छूए। सास ने आशीर्वाद में सर पर हाथ फेरा फिर पूछा- “बहुुरानी क्या चाहिए तुम्हें मुंह दिखाई में..?”

‘दुल्हन, आज तो तुम्हारा दिन है। जडाऊ कंगन मांग लो’ एक रिश्तेदार ने कहा,

‘अरे नहीं हीरे का नेकलेस मांग लो… ‘दूसरे ने कहा हंसी ठठ्ठा चलने लगा। तीसरे ने कहा- ‘अपने लिए गाड़ी मांग लो…’ दुल्हन भी सभी के साथ मंद-मंद मुस्करा रही थी और सास भी लेकिन सास के मन में कुछ धुकधुकी भी होने लगी। रिश्तेदारों की बातों में आकर कहीं बहू सचमुच कोई ऐसी मांग न रख दे जिसे वे पूरी न कर सके।

कुछ समय तक चुहलबाजी, हंसी ठठ्ठा चलता रहा। फिर सास ने बहू से कहा- ‘हां बहू, क्या चाहिए तुम्हें?’

‘मम्मी जी, जब मैं बहुत छोटी थी तो मेरे पिताजी का देहांत हो गया था, पिता का प्यार क्या होता है कभी जाना ही नहीं। माँ ने ही दोनों बहनों को पाला पोसा है। मैं चाहती हूँ आपके प्यार आशीर्वाद के साथ-साथ पापा जी का प्यार भी मिले ताकि मैं भी पिता के प्यार को अनुभव कर सकूं। बस और कुछ नहीं चाहिए मुझे __‘बहू ने बड़ी विनम्रता से कहा। सारे रिश्तेदारों की आंखों में बहू के प्रति प्रशंसा के भाव नजर आने लगे थे। सास ने बहू के सिर पर हाथ फेरा उसके माथे पर चुंबन जड़ा और उसे अपने अंक में भींच लिया।

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 32 – पत्थर दिल ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – पत्थर दिल।)

☆ लघुकथा – पत्थर दिल श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दादी ओ दादी दरवाजा खोलो जोर-जोर से बाहर घंटी बजने की और दरवाजे को पीटने की आवाज आ रही थी।

कौन है मुझे परेशान कर रहा है दोपहर में चैन से सोने भी नहीं देता कमला जी धीरे-धीरे दरवाजे की ओर आई।

दादी में चीकू हूं ।

दोपहर में चैन से मुझे सोने क्यों नहीं देते हो घर के सामने पार्क होना भी एक मुसीबत हो गई है?

आज मुकेश नहीं आया है आप लोग बगीचे से स्वयं अपनी गेंद ले लो और मुझे तंग मत करो?

कमला जी ने जोर से चीकू से कहा।

दादी मुझे गेंद नहीं चाहिए मेरे दोस्त बंटी को चोट लग गई है थोड़ी सी हल्दी दे दीजिए उसे बहुत जोर से खून निकल रहा है।

आज मुकेश नहीं आया है इसलिए घर का काम भी नहीं हुआ है और खाना भी नहीं बना है खाना मैंने बाहर से ऑर्डर देकर मंगवाया है, कुछ भी नहीं मिलेगा।

मेरी बड़ी कोठी को देखकर सब लोग जलते हैं और तुम बच्चे अपने घर में क्यों नहीं जाते हो आए दिन कुछ न कुछ मांगने चले आते हो 1 दिन कुछ दे दिया तो रोज-रोज चले आओगे अपने घर जाओ और अपनी मां से मांगो।

दादी भी तो मां होती है मेरा घर थोड़ा दूर है मेरे दोस्त का बहुत खून निकल रहा है आप कुछ दवाई बता दीजिए जिससे उसका खून बंद हो जाए।

बहाने मत बनाओ यहां कुछ नहीं मिलेगा यहां से भाग जाओ।

कमला जी ने सोचा यदि इसे दया करके आज मैंने हल्दी दे दी तो रोज का कुछ ना कुछ लगा रहेगा…।

पोते और बेटों ने छोड़ दिया है और तुम अकेली इस घर में भूत की तरह रहती हो सब लोग तुम्हें ठीक ही कहते हैं मैं तो  सामान के बहाने हाल समाचार लेने को खटखट किया करता था लेकिन तुम तो पत्थर दिल हो पड़ी रहो अकेले। चीकू रोता हुआ वहां से चला जाता है।

कमला जी – हां सच कह रहा है तू मैं तो पत्थर हूं…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 – रिश्तों की तुरपाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा रिश्तों की तुरपाई ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌳 रिश्तों की तुरपाई 🌳

ये लघुकथा का शीर्षक मेरी अपनी कृति रिश्तो की तुरपाई है।

पेशे से वकील हजारीलाल (एच लाल) । गंभीर, तीक्ष्ण बुद्धि, मधुर व्यवहार, सौम्य, शांत, उनके पास न जाने कितने केस आते और सबकी पैरवी भी करते।

सदैव सुलझाते हुए परिणाम सुखद दिलाते हैं। पारिवारिक, घरेलू विवाद, बँटवारा, आपसी मतभेद के केस को ज्यादा महत्व देते थे और एक मौका उसे सुधारने का जरूर देते थे।

शायद इसे ही अच्छे वकील की पहचान कह सकते हैं। फीस की राशि पर कोई कंप्रोमाइज नहीं करते थे। बल्कि आम वकील से दुगना फीस लेते।

मनुष्य को तो सरल सहज और कोर्ट के चक्कर लगाना ना पड़े। इसलिए भी एच लाल की पैरवी सभी को बहुत पसंद आई थी।

उम्र का पड़ाव और तजुर्बा दोनों से परिपक्व, आज उसके स्वयं के बेटा बहू जिन्होंने अपनी पसंद से, दूर पढ़ते समय ही अपने जीवन की फैसला कर लिया।

विवाह के बंधन में बनने का निर्णय ले चुके थे दोनों प्राइवेट कंपनी में काम करते थे न जाने कब दूरियाँ बन गई। अभी ठीक से गृहस्थी का सामान भी नहीं आया और बेटे और बहू को गलतफहमी की वजह से एक छत के नीचे अजनबी की तरह रहना पड़ रहा था।

तेज बारिश और सावन का महीना लगते ही बागों में हरियाली होती है धरा की सुंदरता बढ़ जाती है।

आज कोर्ट से लौटते समय वकील साहब के हाथों में सुंदर दो छोटे-छोटे पौधे थे। उन्होंने पौधे को बेटा बहू को बुला कर देते हुए कहा… तुम दोनों अलग तो हो ही रहे हो क्यों ना अपने अलग होने की निशानी के तौर पर इन पौधों को यहाँ बगीचे पर लगा दो।

ताकि जब कभी किसी को बताना पड़े तो मुझे बताते हुए कह सकूँ कि यह पौधा मेरे बेटा बहू के तलाक के कारण लगाया गया है।

मगर मेरी शर्त है कि यह दोनों पौधे को सहेजने और बड़ा करने के लिए कम से कम एक वर्ष तक मेरी शर्तों पर तुम दोनों को इन पौधों की सेवा करना है।

जिसका पौधा ज्यादा सुंदर बड़ा और अच्छा होगा कि उसी के पक्ष में निर्णय जाएगा।

आज बेटे बहू दोनों को वकील साहब ने बुलाया और निर्णय की बात रखी।

निर्णय का इंतजार हो रहा था। पौधे तो दोनों के बराबर लगे हुए थे। चश्मे के अंदर से आँखों को पोंछते हुए आज वकील साहब (पिताजी) बने दोनों को गले लगाए।

अनुभव कर रहे थे की पीठ के पीछे बेटा बहू के हाथ एक दूसरे के हाथ में जुड़ा हुआ था। पश्चाताप से सरोबार बेटा बहू अपने पिताजी के कारण अपनी गलतफहमियों को दूर कर चुके थे।

आज सावन का पावन महीना हाजारी लाल फिर से एक बार अपने केबिन में जाकर वकालत की किताबों की जगह ‘रिश्तों की तुरपाई’ पढ़ रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 31 – सृजन ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – सृजन।)

☆ लघुकथा – सृजन श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अभाव में जूझकर बच्चों को स्कूल भेजने वाली अशिक्षित मां को हर चीज को महत्व देना आता था। बच्चों की मशक्कत और मेहनत से पसीना बहा कर उसने अपने बेटे को आज एक सर्वश्रेष्ठ मकान पर प्रतिस्थापित किया था। उसके बेटे का उद्घाटन समारोह सारा गांव देख रहा था आज उसकी मेहनत का फल मिल रहा था जो उसने बरसों से की थी। बेटा तो कॉम्पिटेटिव एक्जाम में पास करके कलेक्टर बन गया था आज मां ने भी कंपटीशन पास किया था उसके चेहरे पर एक विजेता मुस्कान थी वर्षों की घिसावत के बाद सोना तपकर खराब होता है और मां की बरसों की घिसावत के बाद बाल सफेद और चेहरे पर झुरिया गई थी उसका स्वयं का खरा सोना जैसा मन फीका हो रहा था। समय की मार पर किसी का बस नहीं रहता अपने मन को किसी तरह संभाला और सोचा मैं अपने बेटे को एक अच्छा जींस और टीशर्ट भी तो नहीं दे पाई थी जब से मेरे पति का देवगमन हुआ था किसी तरह कपड़े सिलचर और लोगों के घरों में खाना बनाकर आज मुझे यह दिन नसीब हुआ है और गार्डन समारोह पर उसने देखा कि बड़ा सूट बूट पहने कुछ व्यक्ति आय और उनके साथ एक लड़की भी थी वह उसके बेटे अमित के साथ बहुत अच्छे से बातें कर रही थी मैं दूर बैठकर सब देख रही थी वह लड़की मेरे पास आई और अमित ने उसे पैर छूने को कहा कहा मां यह तुम्हारी होने वाली बहू है कुछ दिनों बाद इसे भी बड़ा हमारी शादी का फंक्शन होगा अब मन के चेहरे पर विजय मुस्कान भी  छोड़ रही थी मन में तरह-तरह के सवाल थे लेकिन वह क्या करती अब उसने यह सोच लिया था कि मेरे जीवन में सुख नहीं है और मुझे अब जो कार्य कर रही हूं यह जीवन भर करना पड़ेगा। समारोह समाप्त होते ही बेटे के साथ वह लड़की और उसके परिवार के लोग हमारे घर में आए और वह शादी की बात करने लग गए बोले आप परेशान नहीं हुई है आपको कुछ खर्च नहीं करना पड़ेगा दो दिन बाद ही हम इनका विवाह कर देंगे और मेरी बहू की मां ने मुझे गले से लगाया और एक छोटी सी टोकरी में सजी-धजी ढेर सारी चॉकलेट दी और एक बहुत सुंदर गुलदस्ता पकड़ा उसे देखकर मेरा मन कप्स गया और समझ नहीं आ रहा था इस बुढ़ापे में मेरे दांत भी ठीक नहीं है मिठाई होती तो एक बार खाती भी इसका मैं क्या करूं और यह टोकरी फूलों की देने का क्या मतलब है दोनों समान में यह लोग कैसे पैसे उड़ा देते हैं मुझे लगा कि अब यह सौगात जो मुझे सौंप दिए हैं इसका क्रिया कर्म अब मुझे ही करना पड़ेगा हद हो गई निर्दयता की लेकिन अपने बेटे के चेहरे की खुशी देखकर वह एक पल में खुशी हो गई और जब सब लोग चले गए तब उसने सोचा की मैं जिनके घरों में जाती थी उनके बच्चों को यह बांट देता हूं। अपने बेटे से कहीं कि मैं जा रही हूं यह ट्रॉफी उन्हें दे देता हूं। ठीक है मां आप खाने की चिंता मत करो मैं ऑनलाइन ऑर्डर कर देता हूं कहो तो और मिठाई मंगवा दूं नहीं बेटा रहने दो कुछ देर बाद जानकी देवी सभी लोगों की बधाई लेते हुए अपने घर में आती हैं और सारे फूलों को तोड़ने लगते हैं। उसमें गेंदे के और गुलाब के फूल थे सबको वह साफ करती हैं तभी उन्हें उसमें कुछ तुलसी के भी फल नजर आते हैं उन्हें भी वह तोड़कर  थाली में रख देती हैं । यह देखकर बेटा कहता है मां यह क्या कर रही हो कुछ दिन तक तो फूलों से घर को महकने देती चलो खाना आ गया है हम तुम कहते हैं बेटा तुम खा लो आज के समझ में तुम्हारी उन्नति देखकर मेरा पेट भर गया मुझे सृजन करने की आदत है मैं हमेशा घर फूलों से महके इसीलिए इसे अपने बगीचे में लगाऊंगी। आप मुझे नींद आ रही है तू मुझे आप मेरे हाल पर छोड़ दें।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 110 – जीवन यात्रा : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 110 –  जीवन यात्रा : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ध्वनि मानवजाति का ही नहीं बल्कि विश्व के सभी जड़-चेतन प्राणियों के संप्रेषण का माध्यम है. ध्वनियों को सुनना जहां श्रवणशक्ति पर निर्भर है वहीं ध्वनियों को समझने की कला विभिन्न चेतन प्रजातियों की भिन्न भिन्न होती है. ध्वनि एक कंपन है जो वायु एवं द्रव्य अवस्था में तरंगों के माध्यम से प्रवाहित होती है. जहां मनुष्य की श्रवण क्षमता हाथ खड़ा कर देती है, वहीं पर कुछ जीव जंतु इन तरंगों को ग्रहण कर लेते हैं. भूकंपीय गतिविधियों को सबसे पहले यही समझते हैं और अपनी शैली में चेतावनी भी देने की कोशिश करते हैं, हालांकि मनुष्य प्राय: इन्हें दरकिनार कर देते हैं. वाक्शक्ति के मामले में मानवजाति अग्रणी है, तरह तरह की भाषाओं के अध्ययन में पारंगत भी बन चुकी है पर मर्म समझने की शक्ति सबकी अलग अलग होती है.

जब आंखें, अभिव्यक्ति के लिये असमर्थ लगें तो मनुष्य वाणी का प्रयोग प्रारंभ कर देता है. शिशु वत्स ने अपनी आयु के अनुसार ही अभिव्यक्ति के लिये वाणी का उपयोग करने का अभ्यास प्रारंभ कर दिया. शिशु अपने अधर युग्म का संचालन, जन्म के साथ ही सीख जाते है पर बोलने की प्रक्रिया ओंठो के खुलने से प्रारंभ होती है तो जब उसकी अभिव्यक्ति की कोशिश सफल हुई तो पहला शब्द निकला “मां”.

इस शब्द की परिभाषा नहीं होती पर ये शब्द जब जननी को पहली बार सुनाई देता है तो वह शिशु से जुड़ी सारी पीड़ा, असुविधा भूल जाती है. यह वो शब्द है जो हर नारी कभी न कभी अवश्य सुनना चाहती है. इसके आगे मधुरतम संगीत की सरगम भी बेसुरी लगती है. मां बेटे के लिये बहुत सारे पर्यायवाची शब्दों का, उपमाओं का प्रयोग करती है पर संतान के पास कोई विकल्प नहीं होता. मां या फिर अम्माँ, अम्मी, मम्मी या फिर मॉम जो भाषा, धर्म और संस्कृति के अनुसार अलग हो सकते हैं, बहुत से तो हम जानते भी नहीं होंगे पर अर्थ सार्वभौमिक है, भावना भी सार्वभौमिक ही होती हैं क्योंकि ये शिशु के पहले प्रयास से आता है जो कि उसके अंदर विद्यमान ईश्वरीय अंश का उसके लिये बहुत सूक्ष्म सहयोग होता है. 

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 199 – फफोले ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “फफोले ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 199 ☆

🌻लघु कथा फफोले 🌻

त्वचा जब जल जाती है तो उसमें फफोले पड़ जाते हैं। और असहनीय पीड़ा और जलन होती है जिसको सह पाना मुश्किल होता है।

पीड़ा की वजह से ऐसा लगता है कि क्या चीज लगा ले यह जलन शांत हो जाए।

आज की यह कहानी➖ फफोले एक बड़े से रेडीमेड कपड़े की दुकान के सामने सिलाई मशीन रख के कामता अपनी रोजी-रोटी चलाता था। पत्नी सुलोचना घर घर का झाड़ू पोछा बर्तन का काम करती थी।

कहते हैं पाई पाई जोड़कर बच्चों का परवरिश करते चले और जब समय ने करवट बदली। बच्चे पढ़ लिखकर बड़े हुए और थोड़ा समझदार होकर अपने-अपने छोटे-छोटे कामों में कमाने लगे। तब माता-पिता का सिलाई करना और घर में झाड़ू पोछा करना उनको अच्छा नहीं लगता था और हीन भावना से ग्रस्त होते थे।

बेटियां सदा पराई होती है शादी के सपने संजोए जाने कब उनके पंख उड़ने लगते हैं। ठीक ऐसा ही सुलोचना की बेटी ने आज सब कुछ छोड़ अपने साथ काम करने वाले लड़के के साथ शादी के बंधन में बंद गई।

माँ बेचारी रोटी पिटती रही। बेटे का रास्ता देख रही थी कि शायद बेटा शाम को घर आ जाए तो वह उसकी बहन की बात बता  कर कुछ मन हल्का करती या बेटा कुछ कहता।

बेटा दिन ढले शाम दिया बाती करते समय घर आया। साथ में उसके साथ सुंदर सी लड़की थी। दोनों के गले में फूलों की माला थी। सुलोचना आवाक खड़ी थी। दिन की घटना अभी चार घंटे भी नहीं हुए हैं। और बेटा बहू।

जमीन पर बैठ आवाज लगने लगी देख रहे हो… यह दोनों बच्चों ने क्या किया। पति ने दर्द से कहराते हुए कहा… अरे बेवकूफ हमने जो घोंसला बनाया था पंछी के पंख लगाते ही वह उड़ चले हैं। अब समझ ले यह आजाद हो गए हैं। हमारे घोसला पर अब हम आराम से रहेंगे।

तभी बेटे ने तुरंत बात काटते हुए कहा… पिताजी घर में तो अब हम दोनों रहेंगे। आप अपना सोने खाने का सामान उसी दुकान में एक किनारे पर रख लीजिएगा।

जहाँ आप सिलाई करते हैं। अब आपकी यहां जरूरत भी क्या है? तेज बारिश होने लगी थी।

पति पत्नी दोनों को आज सावन की बारिश आज के जलन के फफोले बना रही थीं।

जब बारिश होती थी तो चारों एक कोने में दुबके जगह-जगह ऊपर से टपकती खपरैल छत से झरझर बारिश भी  शांति देती थीं। सूखी रोटी में भी आनंद था।

परंतु आज रिमझिम बारिश की फुहार तन मन दोनों में फफोले बना रही थी। वह दर्द से छुटकारा पाने के लिए सिसकती चली जा रही हैं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 250 ☆ कथा-कहानी ☆ मातमपुर्सी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – मातमपुर्सी⇒⇒⇒। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 250 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ मातमपुर्सी 

वह चौंका देने वाली खबर जब मुर्तज़ा ने मुझे सुनायी तब मैं तख़्त पर  पसरा, मुन्नी की जांच कराने मेडिकल कॉलेज जाने के लिए छुट्टी लेने की बात सोच रहा था।

घर में घुसते ही उसने बड़े संजीदा स्वर में कहा, ‘सुना तुमने? वर्मा की मौत हो गयी।’

सुनकर मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा, पूछा, ‘क्या?’

उसने बताया कि वर्मा को आठ दस दिन पहले किसी पुराने तार की खराश लग गयी थी, उसी से उसको टेटनस हो गया था। कल रात से उसकी तबियत बिगड़ी और सवेरे पाँच बजे सब ख़त्म हो गया।

सुनते सुनते मेरा ‘शॉक’ घुलने लगा। शीघ्र ही मैं प्रकृतिस्थ हो गया। मन में कहीं सुखद अहसास दौड़ गया कि छुट्टी लेने से बच गया।

मैंने मुर्तज़ा से पूछा कि क्या वह वर्मा के घर पहुँच रहा है। मुर्तज़ा ने बताया कि वह देर से पहुँच पाएगा। अपने बच्चे के सरकारी स्कूल में एडमीशन के लिए उसे एक स्थानीय नेता से सिफारिश के सिलसिले में मिलना था।

मुर्तज़ा के जाने के बाद पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ जा रहे हो?’

मैंने नाटकीय गंभीरता से कोट के  बटन बन्द करते-करते कहा, ‘वर्मा खत्म हो गया।’

फिर मैं उसके ‘हाय’ कहकर मुँह पर हाथ रखने और स्तंभित हो जाने का आनन्द लेता रहा।

‘कितने बच्चे हैं उनके?’, उसने पूछा।

‘दो छोटे बच्चे हैं’, मैंने उसी बनावटी गंभीरता से कहा।

उसने ‘च च’ किया।

‘तो अब दाह करके ही लौटोगे क्या?’, उसने पूछा।

मैंने कहा, ‘जल्दी आ जाऊँगा। श्मशान नहीं जाऊँगा। मेडिकल कॉलेज भी तो जाना है।’

बाहर निकला तो शरीर पर सवेरे की धूप का स्पर्श बड़ा सुखद लगा। वर्मा का मकान मेरे घर से ज़्यादा दूर नहीं है।

रास्ते में तिवारी दादा मिल गये। उनके प्रश्न के उत्तर में मैंने बताया कि मेरे सहयोगी वर्मा की मृत्यु हो गयी है।

‘अरे!’, दादा के मुँह से निकला। मृत्यु का कारण जान लेने के बाद उन्होंने कहा, ‘बहुत बुरा हुआ।’

मैं उनसे विदा लेकर आगे बढ़ा ही था कि लगा वे मुझे पुकार रहे हैं। मैंने घूमकर देखा तो वे सचमुच रुके हुए थे। मैं उनके पास गया।

वे परेशानी के स्वर में बोले, ‘सुनो, मुझे कभी अपने वैद्य जी के पास ले चलो न। तीन महीने से पेट में बहुत गैस बनती है। भूख नहीं लगती। मुँह में खट्टा पानी आता है। पेट भी साफ नहीं रहता। बड़ी तकलीफ रहती है।’

मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें ज़रूर ले जाऊँगा।

वर्मा के यहाँ पहुँच कर लगा कि अभी देर-दार है। सामान जुटाया जा रहा था। वर्मा के भाई से सहानुभूति जता कर मैं सामने वाले बंगले के गेट के पास धूप में खड़ा हो गया।

बंगले के निवासी एक सज्जन और उनकी पत्नी भी गेट के पास खड़े होकर सामने का दृश्य देख रहे थे। वे बोलचाल से पंजाबी लग रहे थे। महिला शिकायती लहज़े में पति से कह रही थी— ‘जाने किस बुरी घड़ी में इस मकान में आये थे। एक महीने में मोहल्ले में तीन-तीन मौतें देख चुकी हूँ। इससे तो सराफा वाला मकान अच्छा था। तुम्हीं तो नेपियर टाउन के लिए आफत किये रहते थे।’

दफ्तर के लोग एक-एक कर पहुँच रहे थे। उपाध्याय मेरे पास आकर खड़ा हो गया। ‘बहुत बुरा हुआ’, वह बोला। थोड़ी देर रुक कर चिन्तित स्वर में बोला, ‘कहना तो न चाहिए, लेकिन अब वर्मा साहब वाली पोस्ट पर प्रमोशन का मेरा चांस है। लेकिन साहब नाखुश रहते हैं। देखो करते हैं या नहीं। आपसे साहब की बात हो तो सपोर्ट करिएगा।’

थोड़ी देर में साहब की कार भी आ गयी। दफ्तर के सब लोगों ने उन्हें घेर लिया। साहब जब तक उपस्थित रहे, सब लोग उनके इर्द-गिर्द ही सिमटे रहे। उनकी प्रत्येक जिज्ञासा का समाधान करने में एक दूसरे से स्पर्धा  करते रहे। साहब के आने से सबके चेहरे पर चमक आ गयी थी। जब तक साहब वहाँ रुके, वर्मा के शव से ज़्यादा वे सब के ध्यान का केन्द्र बने रहे। वे आधे घंटे बाद कार में बैठकर चले गये।

इस बीच मुर्तज़ा भी वहाँ पहुँच गया था। उसके चेहरे पर संतोष और निश्चिंतता का भाव था, जिससे लगता था उसका काम हो गया था।

शव के उठने की तैयारी हो रही थी। मैं बगल की एक कुलिया में घुसकर चुपचाप वहाँ से फूट लिया। देखा तो आगे आगे शेवड़े जा रहा था। वह भी मेरी तरह खिसक आया था।

मैंने आवाज़ देकर उसे रोका। पहले तो मैंने अपनी शर्म को ढकने के लिए उसे सफाई दी कि मेडिकल कॉलेज जाना ज़रूरी है, फिर उसके चले आने का कारण पूछा।

वह बोला, ‘यार क्या बताऊँ। घर में अनाज खत्म हो रहा है और बहुत से व्यापारी बतलाते हैं कि कल बोरे पर पन्द्रह-बीस रुपये कीमत बढ़ जाएगी। इसलिए सोचता हूँ आज कुछ लेकर डाल दूँ। इतवार तक तो जाने क्या हालत होगी।’

घर पहुँचने पर देखा कि साले साहब पधारे हुए थे। पत्नी प्रमुदित घूम रही थी। साले साहब ने बताया कि छोटी बहन की शादी एक माह बाद होने वाली थी, इसलिए वे दीदी को लेने आये थे। मुझे भी बाद में पहुँचना था। सुनकर मूड एकदम ‘ऑफ’ हो गया।

‘जल्दी नहा कर खाना खा लो’, पत्नी ने कहा।

भोजन के लिए बैठने पर देखा भाई के सत्कार के लिए पत्नी ने कई चीज़ें बना डाली थीं। भोजन बड़ा स्वादिष्ट था। खाते-खाते पत्नी के जाने की बात की कड़वाहट भूलने लगा।

हाथ धोते समय अचानक याद आया कि वर्मा की मृत्यु हो गयी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – दुश्मनी से परे – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  मारीशस में गरीब परिवार  में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा दुश्मनी से परे।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — दुश्मनी से परे — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

दो भाइयों में एक कुल्हाड़ी के कारण झगड़ा हुआ था। बाप दादे के जमाने से चली आ रही कुल्हाड़ी दोनों पाना चाहते थे जो कि असंभव था। दोनों की नोक झोंक के बीच पता नहीं कुल्हाड़ी कहाँ खो गई। अब दोनों एक दूसरे पर दो रुपए में कहीं बेच देने की तोहमत लगाते रहते थे। इस झगड़े के कारण दोनों ने मरनी जीनी बंद होने की शपथ ले ली थी। एक ही पैत्रिक जमीन पर दोनों के घर आमने सामने थे। सुबह कोशिश की जाने लगी सामने वाले दुश्मन भाई का मुँह न देखा जाए। दोनों पत्नियों और बच्चों ने तना तनी में अपना पूरा सहयोग दिया। बच्चे लड़ भी लेते थे और बड़े उन्हें दाद देते थे।

दोनों भाई अधेड़ उम्र के हुए। उनके बच्चे बड़े और पढ़े लिखे थे, लेकिन उन्हें सरकारी नौकरी मिलती नहीं थी। दोनों भाइयों को संदेह था जरूर अपना ही दुश्मन भाई दुश्मनी की इतनी लंबी लकीर खींच रहा है। ‘यह भाई’ या ‘वह भाई’ जा कर किसी मंत्री से कह देता होगा विरोधी दल के एजेंट के बच्चे हैं। दोनों ओर की लड़कियाँ बड़ी हो गई थीं, लेकिन उनकी शादी के लिए वर मिलते नहीं थे। बेटियों के मामले में दोनों भाइयों का आरोप था झूठ की आग लगा कर शादी की बात काटने वाला अपना ही दुश्मन भाई है।

एक रोज हुआ यह कि सुबह एक भाई इधर के घर से निकल कर और एक भाई उधर के घर से सामने आया।

एक ने पूछा — कैसे हो?

दूसरे ने प्यार से उत्तर दिया — ठीक हूँ।

दोनों ने एक दूसरे से कहा — दुबले होते जा रहे हो अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना।

कुछेक और बातें होने की प्रक्रिया में दोनों के बीच बातचीत का सूत्र बंध गया। अब दोनों रोज बातें करने लगे। पत्नियों और बच्चों ने दोनों की मिलनसारी देखी तो उन्हें भी जुड़ने का संबल आया। एक दो रोज के बीच पूरी दुश्मनी खत्म हो गई।

मिलनसारी का यह वरदान ही था कि दोनों ओर के एक – एक लड़के को सरकार में नौकर मिल गई। यही नहीं, देखते – देखते एक भाई की बेटी के लिए वर मिल गया। वर वालों ने आने का दिन दिया तो दोनों ओर के परिवार खुशी के इस मौके पर एक घर में जुटे। वर का एक मित्र साथ आया था। उसने वहीं दूसरे भाई की लड़की को पसंद कर लिया। यह तो सोने में सुगंध वाली बात हुई। रिश्तेदारों के जाते ही दोनों भाइयों ने सलाह कर ली दोनों बेटियों की शादी एक ही दिन और एक ही विवाह मंडप में करेंगे।

© श्री रामदेव धुरंधर

13 – 07 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 109 – जीवन यात्रा : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी

☆ कथा-कहानी # 109 –  जीवन यात्रा : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

पंद्रहवीं शताब्दी के पहले स्थिरता पृथ्वी का स्थायी गुण थी और यह माना जाता है कि रात और दिन, सूर्य का पृथ्वी के चक्कर लगाने से होते हैं. पर विज्ञान, निरंतरता और ऑब्जेक्टिविटी की प्रक्रिया पर आधारित है. बाद में जब पंद्रहवीं शताब्दी में वैज्ञानिक निकोेलस कोपरनिकस ने यह प्रतिपादित किया कि खगोलीय वास्तविकता इसके विपरीत है तो अरस्तु के पूर्व प्रचलित सिद्धांत का विरोध करने पर उन्हें और गैलीलियो गैलिली को दंडित किया गया. पर अविष्कारों का विरोध कूपमंडूकता और अविष्कारकों को दंड देने की तानाशाही, प्राकृतिक विकास को अवरुद्ध नहीं कर सकती. ऐतिहासिक तथ्य यही हैं कि वेग हमेशा स्थिरता को परास्त करता है. तूफानों के हौसलों के आगे स्थिरता के प्रतीक चट्टानें, इमारतें और वृक्ष खंडित हो जाते हैं.वास्तव में विस्थापन आपदा नहीं बल्कि प्राकृतिक घटना है. विस्थापन की ही अगली पायदान movement  है जो गति का अलौकिक साथ पाकर वेग के रूप में शक्तिशाली बन जाती है. ये वेग का ही कमाल है कि 24 घंटे से भी कम समय में हम दुनिया के एक छोर से दूसरे जा सकते हैं, यही वेग speed अपनी चरम स्थिति में राकेट को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को पारकर अंतरिक्ष की यात्रा पर भेज देता है.

शिशु वत्स की जीवनयात्रा भी विस्थापन और विचलन से प्रारंभ होकर,समयानुसार गति प्राप्त करने की ओर बढ़ती है. करवट लेना, पलटना, बैठना, सरकना, घुटनों के बल चलना, पहले सहारा पकड़कर खड़े होना, फिर सहारे से धीरे धीरे आगे बढ़ना, और फिर आत्मनिर्भरता की शक्ति पाकर खड़े होना, चलना ,दौड़ना और फिर चलने या दौड़ने की इस प्रक्रिया में एक दिन बॉय बॉय करके सुदूर नगर/राज्य/देश में विस्थापित हो जाना. पेरेंट्स की सालों से पोषित ममता इस प्राकृतिक अवस्था को मानने से शुरु में तैयार नहीं होती, असहज हो जाती है पर “समय” ही ईश्वर का वो उपहार है जो हर अव्यवस्था को धीरे धीरे नये रूप में सहज कर देता है और ये अव्यवस्था ही नई परिस्थिति में व्यवस्था बन जाती है. लोग सहजता से इसे स्वीकार कर लेते हैं. इसीलिए कहा जाता है कि समय ही सबसे अधिक बलशाली है, जो कभी भी, कहीं भी और कुछ भी बदलने में सक्षम है. वो मां जो शुरुआत में एक पल भी संतान से दूर नहीं हो पाती, समय के साथ पुत्र को देखे बिना दिन, महीने, साल गुजार लेती है. मानवीय भावनायें, संवेदनायें सापेक्ष होती हैं और इसी के अनुसार ही मानवजीवन की दिनचर्या को प्रभावित करती हैं.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 30 – अंधी दौड़  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा – अंधी दौड़ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अरे ! भाग्यवान तुमने कार में  गूगल मैप सेट कर दिया है मैं लेफ्ट राइट मुड़ कर परेशान हो गया फेसबुक  में सर्च करने पर सारी जगह ही फोटो में अच्छी लगती है पर असल ….. नहीं होती।

पूरे रविवार की छुट्टी खराब कर दी इस सन्नाटे में गाड़ी खराब हो जाए और कुछ भी हो सकता है,  सोचो श्रीमती जी।

यहां पर कोई  तुम्हें मानव दिखाई दे रहा है?

रीमा ने धीमी आवाज में कहा- ये पिकनिक स्पॉट है। मैंने सर्च किया था बहुत सुंदर जगह है इसे लोगों ने बहुत पसंद किया था बहुत लाइक और कमेंट किया….।

तुम्हें क्या ?

आराम से गाड़ी में बैठकर गाने सुन रही हो ड्राइवर तो मैं बन गया हूं लो तुम्हारी जगह आ गई?

वहां कुछ लोग दिखे तो रहे हैं तुम्हें तो हर चीज में बुराई निकालने की आदत है।

कोई बात नहीं मोबाइल में यही बाहर से फोटो खींचे और सीधे घर चलो?

ठीक है जल्दी से मैं बाहर से ही फोटो खींचकर चलती हूं  एक नई जगह तो मिली ।

हां मैं समझ रहा हूं रीमा।

तभी सामने से आता हुए एक परिवार (पति पत्नी और बच्चे )  उसे राहगीर ने कहा& साहब बाहर फोटो क्यों खींच रहे हैं? अंदर चले जाइए ये जगह बाहर से ऐसी दिख रही है पर अंदर ठीक-ठाक है आप इतनी दूर पैसा खर्च करके आए हैं तो घूम लीजिए।

हां भाई ठीक कह रहे हो लग रहा है तुम भी इन्हीं के बिरादरी के लग रहे हो लगता है  मायके के  हो।

रीमा ने कहा-   यहां पर एक झरना भी है और मंदिर  भी दिख रहे हैं  बहुत अच्छा  वीडियो बनाकर रील बन सकती हूं ।   अब जल्दी यहां से घर चलो मैं तो तुम्हारे झमेले से थक गया?

तुमने मुझे काठ का उल्लू बना के रखा है।

तुम तो मोबाइल के नशे में हो कुछ इलाज का तरीका ढूंढना होगा।

हर अच्छी चीज सोना नहीं होती रीमा।

बच्चों को भी देवी जी किताबी ज्ञान सिखाओ ।

नहीं तो एक दिन बड़ी मुसीबत मैं फंस सकते हैं। मोबाइल और फेसबुक से सबको पता चल जाएगा कि हम घर पर नहीं है थोड़ा दिमाग लगाओ, सभी को एक अंधे कुएं में धकेल दोगी।

बचाओ हे प्रभु ।

जरूरी नहीं की जो सब  काम करें वह तुम भी करो।

रीमा ने झुंझलाते हुए कहा – तुम्हें तो टंप्रवचन देने की आदत हो गई है।

ऐसा नहीं है कि मैं  घूमने फिरने के खिलाफ हूं ऐसा होता तो मैं तुम्हें क्यों स्मार्टफोन खरीद के देखा और उसे चलाना  सीखता।

लगता है मैंने  अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मार ली भोगना तो पड़ेगा? तुम भी सब की तरह अंधी दौड़ में दौड़ा रही हो ।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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