हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ गद्य क्षणिका#68 – कविता का गिद्ध… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– कविता का गिद्ध…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ गद्य क्षणिका # 68 — कविता का गिद्ध — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

वह अपने कवि मित्र की तरह कविताएँ लिख कर उसी की तरह मशहूर होना चाहता था। पर पीछे तो छूट ही जाता था। बहुत बाद में उसे पता चला मित्र की कविताओं में तो बहुत सारा चोरी का माल है। उसके मन में बात आई, आज अपना स्वाभिमान इस तरह से हो जाए एक गिद्ध से अपनी होड़ मानता था। वक्त पर अपनी आँखें न खुलतीं तो कविता की देवी कभी पूछ लेती क्या गिद्ध का आभास तुम्हें होता नहीं था?

 © श्री रामदेव धुरंधर

11 / 07 / 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “जो भूला नहीं” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “जो भूला नहीं” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

– बेटा केशी! जल्द घर आ जाओ।

मां बुरी तरह सुबकती हुई फोन पर कह रही थी।

– क्यों? क्या हुआ?

– तुम्हारे छोटे भाई ने मुझे बैठक में अलग कर दिया है और अपनी रोटी पानी भी मैं ही बना कर खाती हूं। क्या करूं? बुढ़ापा पेंशन में कहीं गुजारा होता है! तुम आ जाओ बस।

– मैं कैसे आ सकता हूं मां?

– क्यों? तूने भी आंखें फेर लीं मां से?

– नहीं। पर मैं इतनी दूर जो हूं। छुट्टी लेनी पड़ेगी। मिले न मिले। बच्चों के पेपर हैं।

– जाओ फिर भूल जाओ मां को!

– ऐसे न कहो मां! मेरी मजबूरी को समझो। मैं जल्द आकर तुम्हें ले आऊंगा। फिर तो खुश?

– हाँ। जल्द आ जाना।

सुबकती सुबकती मां फोन रख गयी।

फिर जरूरत ही न रही लाने की।

कुछ दिन बाद माँ दम तोड़ गयी थी। भाई ने बुलाया और सब काम धाम छोड़कर भागा!

काश! पहले…!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 152 ☆ लघुकथा – ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 152 ☆

☆ लघुकथा – सच से दो- दो हाथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?‘ – माँ ने आवाज लगाई। ‘ ‘कॉलोनी के सब लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं, तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ ? कितनी बार कहा है लड़कों के साथ खेलाकर। घर में घुसकर बैठा रहता है लड़कियों की तरह। ‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना‘–उसने गुस्से से कहा।

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिड़की से छनकर भीतर आ रही हैं। उसने लेटे- लेटे ही गहरी साँस ली-‘ सवेरा हो गया फिर एक नया दिन, पर मन इजाजत ही नहीं दे रहा बिस्तर से उठने की। करे भी क्या उठकर? उसके जीवन में कुछ बदलने वाला थोड़े-ही है? वही बातें, उसके शरीर को स्कैन करती निगाहें, मन में काई-सी जमी घुटन, जो न चुप रहने देती है, न चीखने। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों पर पड़ा पर्दा? दो पाटों के बीच वह घुन-सा पिस रहा है, ओफ् ! – – – -’

तब तो अपना सच उसकी समझ से भी परे था, स्कूल-रेस में भाग लिया था। उसने दौड़ना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – ‘अरे! महेश को देखो, कैसे लड़की की तरह दौड़ रहा है। ‘ गति पकड़े कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो। वह वहीं खड़ा हो गया, बड़ी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे -धीरे चलता हुआ सबके बीच वापस आ खड़ा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक ‘लड़की -लड़की’ कहकर चिढ़ाते रहे। तब से वह कभी दौड़ ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से कानों में आवाज गूँजती- ‘लड़की है, लड़की‘, वह ठिठक जाता।

माँ के बार-बार कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पड़ा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में बेवजह घूमता रहा। साईकिल के पैडल के साथ ही विचार भी बेकाबू थे- ‘ बचपन से लेकर आज तक लोगों के ताने ही तो सुनता आया हूँ, आखिर कब तक चलेगा यह लुकाछिपी का खेल?‘

घर पहुँचकर उसने कमरे में जाकर अपना मनपसंद रंगीन शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढ़कर मुस्कुराते हुए सबके बीच जाकर बैठ गया।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – richasharma1168@gmail.com  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कथा-कहानी >> वेष की मर्यादा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कथा-कहानी >> वेष की मर्यादा ??

ठाकुर जी का मंदिर कस्बे के लोगों के लिए आस्था का विशेष केंद्र था। अलौकिक अनुभूति कराने वाला मंदिर का गर्भगृह, उत्तुंग शिखर, शिखर के नीचे उसके अनुज-से खड़े उरूश्रृंग। शिखर पर विराजमान कलश। मंदिर की भव्य प्राचीनता, पंच धातु का विग्रह और बूढ़े पुरोहित जी का प्रवचन..। मंदिर की वास्तु से लेकर विग्रह तक, पुरोहित जी की सेवा से लेकर उनके प्रवचन तक, सबमें गहन आकर्षण था। जिस किसी की भी दृष्टि मंदिर पर जाती, वह टकटकी बांधे देखता ही रह जाता।

मंदिर पर दृष्टि तो उसकी भी थी। सच तो यह है कि मंदिर के बजाय उसकी दृष्टि ठाकुर जी की मूर्ति पर थी। अब तक के अनुभव से उसे पता था कि पंच धातु की मूर्ति कई लाख तो दिला ही देती है। तिस पर सैकड़ों साल पुरानी मूर्ति याने एंटीक पीस। प्रॉपर्टी का डेप्रिसिएशन होता है, पर मूर्ति ज्यों-ज्यों पुरानी होती है, उसका एप्रिसिएशन होता है। मामला करोड़ों की जद में पहुँच रहा था।

उसने नियमित रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया। बूढ़े पुरोहित जी बड़े जतन से भगवान का शृंगार करते। आरती करते हुए उनकी आँखें मुँद जाती और कई बार तो आँखों से आँसू छलक पड़ते, मानो ठाकुर जी को साक्षात सामने देख लिया हो। मूर्ति की तरह ही पुरोहित जी भी एंटीक वैल्यू रखते थे।

आरती के बाद पुरोहित जी प्रवचन किया करते। प्रवचन के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते। उनका बोलना तो इतना प्रभावी ना था पर जो कुछ कंठ में आता, वह हृदय तल से फूटता। सुनने वाला मंत्रमुग्ध रह जाता। अनेक बार स्वयं पुरोहित जी को भी आश्चर्य होता कि वे क्या बोल गए। दिनभर पूजा अर्चना, ठाकुर जी की सेवा और रात में वही एक कमरे में पड़े रहते पुरोहित जी।

इन दिनों वेष की मर्यादा पर उनका प्रवचन चल रहा था।

“…श्रीमद्भागवत गीता का दूसरे अध्याय का 62वाँ और 63वाँ श्लोक कहता है,

“ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।

अर्थात विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है।  आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है। कामना का अर्थ है, वांछा, प्राप्त करने की इच्छा। अतः आसक्ति से विषयभोग की इच्छा प्रबल हो जाती है। प्रबलता भी ऐसी कि विषयभोग में थोड़ा-सा भी विघ्न भी मनुष्य सहन नहीं कर पाता। यह असहिष्णुता क्रोध की जननी है।

 क्रोध आने पर मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है। उसमें सम्मोह (मूढ़भाव) उत्पन्न हो जाता है। सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य कार्य-अकार्य में भेद नहीं कर पाता, सही-गलत का भान नहीं रख पाता। ऐसा मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है, उसकी आंतरिक मनुष्यता का पतन हो जाता है।

पूरी प्रक्रिया पर विचार करेंगे तो पाएँगे कि मनुष्यता कहीं बाहर से नहीं लानी पड़ती। सच्चाई, सद्विचार मूल घटक हैं जो हर मनुष्य में अंतर्भूत हैं। ये हैं तभी तो दोपाया, जानवर न कहलाकर मनुष्य कहलाया।

ध्यान रखना, हर मनुष्य मूलरूप से सच्चा होता है। दुनियावी  लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है।

ढकने की बात आई तो वेष की भूमिका याद आई। आदमी की सच्चाई पर उसके वेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस वेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही बोध जगने लगता है। सेल्समैन हो तो सामान बेचने के गुर उमगने लगते हैं। शिक्षक हो तो विद्यार्थी को विषय समझाने की बेचैनी घेर लेती है।  चौकीदार का वेश हो तो प्राण देकर भी संपत्ति, वस्तु या व्यक्ति की रक्षा करने के लिए मन फ़ौलाद हो जाता है…।”

…वह पुरोहित जी के वचन सुनता, मुस्करा देता।

आरती और प्रवचन के लिए रोज़ाना आते-आते पुरोहित जी से उसका संबंध अब घनिष्ठ हो चुका था। मंदिर के ताला-चाबी की जगह भी उसे ज्ञात हो चुकी थी। एक तरह से मंदिर का मैनेजमेंट ही देखने लगा था वह। 

प्रवचन की यह शृंखला तीन दिन बाद संपन्न होने वाली थी। हर शृंखला के बाद चार-पाँच दिन विराम काल होता। तत्पश्चात पुरोहित जी फिर किसी नये विषय पर प्रवचन आरंभ करते। आज रात उसने अपने सभी साथियों को बता दिया था कि विराम काल में ठाकुर जी का विग्रह कैसे अपने कब्ज़े  में लेना है। कौन सा दरवाजा कैसे खुलेगा, किस-किस दरवाज़े का ताला टूट सकता है, किसकी डुप्लीकेट चाबी वह बना चुका है। आज से तीसरी  रात योजना को सिद्ध करने के लिए तय हुई।

तीसरे दिन प्रवचन संपन्न हुआ। इस बार पुरोहित जी का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया था। आज तो उन्हें बहुत अधिक थकान थी, ज्वर भी तीव्र था। उनका एक डॉक्टर शिष्य आज गाड़ी लेकर आया था। उसने ज़ोर दिया कि इस बार दवा से काम नहीं चलेगा। कुछ दिन दवाखाने में एडमिट रहना ही होगा।

पुरोहित जी, अपने ठाकुर जी को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। डॉक्टर शिष्य, स्थिति की नज़ाकत समझ रहा था, सो पुरोहित जी को साथ लिए बिना जाना नहीं चाहता था। अंतत:  जीत  डॉक्टर की हुई।

गाड़ी में बैठने से पहले पुरोहित जी ने उसे बुलाया। धोती से बंधी चाबियाँ खोलीं और उसके हाथ में देते हुए बोले,…”ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।”

उसके बाँछें खिल गईं। उसने सुना रखा था कि ऊपर वाला जब देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। सुने हुए को आज फलित होता देख भी रहा था। जीवन में पहली बार उसने मन ही मन सच्चे भाव से भगवान को माथा नवाया।

…रात का तीसरा पहर चढ़ चुका था। वह मंदिर के भीतर प्रवेश कर चुका था। अपनी टोली के आने से पहले सारे दरवाज़े खोलने थे। …अब केवल गर्भगृह का द्वार बाकी था। उसने चाबी निकाली और ताले में लगा ही रहा था कि गाड़ी में बैठते पुरोहित जी का चित्र बरबस सामने घूमने लगा,

“ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।”

जड़वत खड़ा रह गया वह। भीतर नाना प्रकार के विचारों का झंझावात उठने लगा। ठाकुर जी के जिस विग्रह पर उसकी दृष्टि थी, उसी को टकटकी लगाए देख रहा था। उसे लगा केवल वही नहीं बल्कि ठाकुर जी भी उसे देख रहे हैं। मानो पूछ रहे हों,….मेरी रक्षा का भार उठा पाओगे न?…

विचारों की असीम शृंखला चल निकली। शृंखला के आदि से इति तक प्रवचन करते पुरोहित जी थे,

“….सम्मोह से स्मृति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य कार्य-अकार्य में भेद नहीं कर पाता, सही-गलत का भान नहीं रख पाता..।”

उसकी स्मृति पर से भ्रम का कुहासा छँटने लगा था।

“..ध्यान रखना, हर मनुष्य मूलरूप से सच्चा होता है। दुनियावी  लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है ।”

उसके अब तक के व्यक्तित्व पर निरंतर प्रहार होने लगे। भ्रूण जन्म लेने को मचलने लगा। जेर में दरार पड़ने लगी।

तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ ने उसकी तंद्रा को भंग कर दिया। लाठियाँ लिए उसकी टोली अंदर आ चुकी थी।

“….आदमी की सच्चाई पर उसके वेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस वेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही बोध जगने लगता है।”

ठाकुर जी के चौकीदार में बिजली प्रवाहित होने लगी। चौकीदार ने टोली को ललकारा। आश्चर्यचकित टोली पहले तो इसे मज़ाक समझी। सच्चाई जानकर टोली, चौकीदार पर टूट पड़ी।

चौकीदार में आज जाने किस शक्ति का संचार हो गया था।  वह गोरा-बादल-सा लड़ा। उसकी एक लाठी, टोली की सारी लाठियों पर भारी पड़ रही थी। लाठियों की तड़तड़ाहट में खुद को कितनी लाठियाँ लगीं, कितनी हड्डियाँ चटकीं, पता नहीं पर लहुलुहान  टोली के पास भागने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा।

शत्रु के भाग खड़े होने के बाद उसने खुद को भी ऊपर से नीचे तक रक्त में सना पाया। किसी तरह शरीर को ठेलता हुआ गर्भगृह के द्वार तक ले आया। संतोष के भाव से ठाकुर जी को निहारा। ठाकुर जी की मुद्रा भी जैसे स्वीकृति प्रदान कर रही थी। उसके नेत्रों से खारे पानी की धारा बह निकली। हाथ जोड़कर रुंधे गले से बोला,

“…ठाकुर जी आप साक्षी हैं। मैंने वेष की मर्यादा रख ली।”

कुछ दिनों बाद मंदिर के परिसर में पुरोहित जी की समाधि के समीप उसकी भी समाधि बनाई गई।

?

© संजय भारद्वाज  

 अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री विष्णु साधना रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) को सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जवेगी। ध्यान और आत्म परिष्कार यथावत चलते रहेंगे। 💥 🕉️  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 76 – हिसाब किताब… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हिसाब किताब।)

☆ लघुकथा # 76 – हिसाब किताब श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

झुमरी आजकल तू बहुत छुट्टियां लेने लग गई है अब तेरे पैसे काटने पड़ेंगे तब छुट्टियां कब होंगी। गुस्से में सुनीता जी ने झुमरी से कहा- इस महीने तूने 10 छुट्टियां कर ली  है।

मैडम जी हम भी इंसान हैं और घूमने फिरने ना जाया करें क्या? इतवार को  मुझे बड़े बंगले में काम रहता है,  खाना बनाने का। मुझे अच्छी तनख्वाह मिलती है।

मेरा तो यही फंडा है कि मैं आप लोगों के यहाँ छुट्टियां करके उस घर में काम करती रहूं आपको पसंद हो तो मुझे काम पर रखो, नहीं तो मेरे पास काम की कोई कमी नहीं है और पैसे काटने की मुझे धमकी तो मत देना।

मैं काम करती हूं तब आप मुझे पैसे देती हैं कोई एहसान नहीं… करती।

सुनीता जी ने धीमे स्वर में कहा- जबसे बंगले में काम करने लग गई है तब से तेरे ज्यादा ही पर निकल आए और हिसाब किताब भी बहुत सिखाने लगी है…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ सेवकराम की लघुकथाएं – दूध रोटी ☆ हेमन्त बावनकर ☆

हेमन्त बावनकर

☆  लघुकथा ☆ सेवकराम की लघुकथाएं ☆

☆ दूध रोटी ☆

(मेरी लघुकथाओं के पात्र ‘सेवकराम’ के इर्दगिर्द रची गई कुछ लघुकथाओं को आपसे साझा करने का प्रयास।)

काफी दिनों के बाद सेवकराम जी सपत्नीक छोटे भाई और बहू से मिलने गए थे। दोपहर का समय था। सभी लोग लंच ले चुके थे और ड्राइंग रूम में आराम से बैठ कर गपशप कर रहे थे। तभी पीछे के कमरे से माँ अपनी लाठी टेकते-टेकते पहुंची।

डाइनिंग टेबल के पास पहुँच कर बोली – सेवकराम, तुम लोगों ने खाना खा लिया क्या?”

“हाँ माँ।“

“मुझे भूख लगी है, मैंने अभी तक खाना नहीं खाया।”

सेवकराम जी ने सहजता से पूछा – “माँ, क्या खाओगी?”

माँ बोली – “दूध में रोटी भिगो कर दे दो। खा लूँगी।”

सेवकराम जी बहू से बोले – “राधा, माँ को दूध रोटी दे दो।”

राधा बहू किचन में गई और दूध रोटी लाकर डाइनिंग टेबल पर रख कर सोफ़े पर बैठ गई और सभी लोगों ने अपनी गपशप चालू रखी।

थोड़ी देर में माँ दूध रोटी खाकर उठी और बोली – “सेवकराम, मुझे नींद आ रही है, मैं ऊपर जा कर सो जाती हूँ।”

सेवक राम जी बोले – “ठीक है माँ।”

और माँ चुपचाप लकड़ी टेकते-टेकते सामने के दरवाजे से ऊपर के कमरे की ओर चली गई।

अचानक सेवकराम जी को कुछ असहज सा लगा।

उनके मुंह से अनायास ही निकाला – “राधा, माँ ने हम लोगों के साथ खाना क्यों नहीं खाया? अरे! और वे ऊपर के कमरे पर सीढ़ियों से कैसे चली गईं? उन्हें तो सीधी चढ़ना ही नहीं आता?”

तभी छोटा भाई राधेश्याम चौंकते हुए बोला – “भैया, माँ को गए तो नौ महीने के ऊपर हो गए! “

सेवकराम धम्म से सोफ़े पर बैठ गए। उन्हे तो जैसे काटो तो खून नहीं। – “तो, माँ क्या भूखी ही चली गईं थी।“

वे पसीने पसीने हो गए। उन्हे होश भी नहीं रहा कि वे क्या बड़बड़ाते रहे। तभी उनकी पत्नी अनुराधा ने उन्हें नींद से उठाया।

“क्या हो गया? आप इतने परेशान क्यों हैं? कौन सा भयानक सपना देख लिया?”

सेवकराम चुपचाप बिस्तर पर बैठ कर पसीना पोंछते हुए बोले – “कुछ नहीं अनुराधा। एक गिलास पानी दे दो।“    

वो दिन है और आज का दिन, दूध में भीगी रोटी कभी उनके गले से ही नहीं उतरी।

©  हेमन्त बावनकर  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 233 – लघुकथा – प्रेम हमेशा हृदय की सुनता है ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा प्रेम हमेशा हृदय की सुनता है”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 233 ☆

🌻लघु कथा🌻 ❤️ प्रेम हमेशा हृदय की सुनता है❤️

झमाझम बारिश हो रही है। टीवी पर न्यूज़ देखते-देखते सूरज उठा और घर के एक कोने में जाकर शुभी को फोन लगाया। शुभी गाँव में ही रहती है। घर से दूर पर ऐसा नहीं कि बारिश में ना आ सके।

सूरज ने कहा– शुभी बारिश बहुत तेज हो रही है। घर में माँ की तबीयत खराब है। खाना भी नहीं बना है, शायद बन भी ना पाए क्या करूं?

शुभी और सूरज दोनों एक दूसरे को पसंद करते थे। चर्चा पूरे गाँव में थी। देवउठनी के बाद विवाह होने वाला है। शुभी ने कहा – – आप चिंता न करें मैं अभी आ रही हूँ।

घर में अम्मा – बाबूजी को बता अपनी स्कूटी ले रेनकोट पहन कर वह मूसलाधार बारिश में सूरज के घर पहुंच गई। वहाँ देखा सूरज की माँ चौके में गरम-गरम रोटियां सेक रही थी।

शुभी तो अवाक रह गई। सूरज ने बताया – माँ शुभी आई है। माँ ने दिल खोलकर शुभी का स्वागत किया।

कैसे आ गई बेटा इतनी बारिश में घर में सब ठीक तो है?

शुभी ने माँ के आँचल से अपना सिर पोछती बोली– माँ यहाँ से निकल रही थी बारिश की वजह से रुक गई।

अब आ गई हो तो खाना खाकर जाना।

– जी। शुभी ने कहा!! सब ने मिलकर खाना खाया। जाते समय शुभी ने एक कागज सूरज के हाथ में दिया “प्रेम हमेशा हृदय की सुनता है समाचार की नहीं और समाचार को लेकर कभी मेरी परीक्षा लेने की कोशिश नहीं करना। करोगे, तो मैं हमेशा जीत में ही रहूंगी।“

सूरज समझ गया। उसकी पसंद औरों से बहुत अलग है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ गद्य क्षणिका#67 – सत्तांतरण… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– सत्तांतरण…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ गद्य क्षणिका # 67 — सत्तांतरण — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लोगों के लिए चिंता का विषय होता था कि कैसे हो सकता है कोई आदमी मानो निष्पाप पेड़ जैसा ऊँचा उठता जाये। उसका एक भी पाप न हो, यह कैसे संभव हो सकता है? यही कहा जाता था, इसी का मंथन हुआ करता था। पर लोग व्यर्थ ही कहते थे, व्यर्थ ही मंथन में पड़ते थे। वास्तव में समझने की बात थी। अभी तो उसकी सत्ता चल रही थी। अगली सत्ता में उसके पुण्य को पाप में गिना जाता।

 © श्री रामदेव धुरंधर

04 – 07 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “आज के संजय” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “आज के संजय” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है। महाभारत के युद्ध की दोनों सेनायें अपने अपने शिविरों में लौट रही हैं। रथों के घोड़े हिनहिना रहे है। कौन आज युद्ध में वीरगति पा गये और कौन कल तक बचे हुए हैं। संजय यह आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं। महाराज व्यथित होकर दिन भर का हाल सुन रहे हैं। गांधारी भी पास ही बैठी हैं।

वह एक युग था। तब संजय जन्मांध धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बताने के लिए मिली दिव्य शक्ति से सब वर्णन करते थे। कहा जा सकता है कि उस युग के पत्रकार थे संजय।

अब युग बदल गया। इन दिनों चुनाव की महाभारत है। महाभारत अठारह दिन चली थी लेकिन यह चुनाव प्रचार की महाभारत पूरे इक्कीस दिन चलती है। यहां किसी एक संजय को दिव्य शक्ति नहीं दी जाती। यहां तो सैंकड़ों संजय हैं जो ‘वीडियो’ नाम की दिव्य शक्ति लेकर आये हैं और कुछ भी वायरल कर देने की शक्ति रखते हैं! मनचाहा वीडियो बना कर सारा आंखों देखा हाल सुनाने में जुटे हैं। संजय तो एक राष्ट्रीय पत्रकार था और राष्ट्र की सेवा में जुटा था। निष्पक्ष! निरपेक्ष! ये आज के युग के संजय तो निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं। इन्हें तो रोटी कमानी है, अपनी गृहस्थी चलानी है। मनभावन शौक पूरे करने हैं। खाना पीना है और वह दिखाना है जो सामने वाला चाहता है लेकिन इसकी एक निश्चित कीमत है! जो चुकाये वह मनचाहा पा ले! नहीं चुकाये तो हश्र भुगते!

ये कैसे संजय हैं?

ये कलियुग के महाभारत के संजय हैं! जो अंधे लोगों को युद्ध का हाल नहीं सुनाते बल्कि ऐसा हाल सुनाते हैं कि आंखों वालों को ही अंधा बना रहे हैं! आप इन्हें पहचानते हैं?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – मालिक… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा मालिक)

☆ लघुकथा – मालिक… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

उसे पहला वेतन मिला। उसने एक दुकान से कुछ खिलौने ख़रीदे। उन खिलौनों में एक मख़मल सा मुलायम टैडी बियर था; एक उड़न तश्तरी थी, जो चलते हुए कुछ देर हवा में उड़ती थी; एक बैट्री-चालित कार थी; एक गेंद थी, जो टप्पा खाकर इतनी उछलती थी कि जैसे आसमान छू लेगी। उसने सब खिलौनों पर बहुत नज़ाकत और मुहब्बत से हाथ फिराया। मुझे मालूम था कि अभी उसकी शादी नहीं हुई है। ज़ाहिर था कि उसने ये खिलौने अपने परिवार के किसी बच्चे के लिए ख़रीदे हैं, लेकिन एक साथ इतने महँगे चार खिलौने! ज़रूर वह उस बच्चे से बहुत प्यार करता होगा। मैं अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पाया और पूछ लिया, “क्या मैं यह जान सकता हूँ कि वह ख़ुशक़िस्मत बच्चा कौन है जिसके लिए तुमने इतने सारे खिलौने खरीदे हैं?”

वह मुस्कुराया और कहा, “मैं।”

“क्या?” मैं चौंक गया।

“हाँ मैं, तुम शायद नहीं जानते कि मैं कभी नए खिलौनों से नहीं खेला। अमीर बच्चे जिन खिलौनों से ऊबकर उन्हें फ़ालतू क़रार दे देते थे, वे खिलौने कृपापूर्वक मेरे पिता को दे दिए जाते थे। मेरे पिता कुछ कोठियों में माली का काम करते थे। मैं कभी नई किताबों से भी नहीं पढ़ा, न कभी नए कपड़े पहने। मेरे खिलौने और बच्चों द्वारा फेंक दिया गया कबाड़ थे, कपड़े किसी की उतरन थे, किताबें किसी के द्वारा इस्तेमाल की जा चुकी रद्दी थीं। आज मैं इन खिलौनों का मालिक हूँ।” उसने खिलौनों का पैकेट उठाया और कहा, “चलो यार, अभी तो मुझे नए कपड़ों और नई किताबों की ख़ुशबू और स्पर्श को महसूस करना है!”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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