हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – देवी – देवता – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– देवी – देवता –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — देवी – देवता — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लड़के ने लाल को पीला बनाने जैसा जादू सीख लिया। उसने अपनी माँ से कहा इस जादू से लोगों को आकर्षित करके वह धनवान हो जाएगा। माँ ने गलत मान कर कहा मेहनत की रोटी खाओ। पर बेटे ने माँ को डाँट कर अपने मन की पूरी कर ली और वाकई लखपति बन गया। माँ दुनिया के रेले – मेले में खो गयी, लेकिन बेटे ने ऐसी व्यवस्था कर दी थी उसकी माँ देवी थी और वह देवी – पुत्र हुआ।
***
© श्री रामदेव धुरंधर

04 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आदत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – आदत ? ?

… पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है!

..हाँ बेटा ठीक है.., कहते-कहते मनोहर जी बेडसाइड टेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे। गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती। टोकती,..इतनी चाय मत पिया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी। आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज़्यादा बार चाय।

पैंतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गये अभी पैंतालीस दिन भी नहीं हुए थे कि..!

…तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया.., कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया। जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी सी लगी।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 42 – बुढ़ापा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बुढ़ापा।)

☆ लघुकथा # 42 – बुढ़ापा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अम्मा क्या हो गया? आज सुबह जल्दी उठकर तुम खाना बना रही हो। अम्मा से पूछा अमित ने।

बेटा आज तुम्हारे दादा-दादी का श्राद्ध है।

तभी बहू अवंतिका भी आ गई उसने कहा क्या हो गया मां बेटे हल्ला मचा रहे हो ये श्राद्ध क्या होता है ?

बेटे जो हमारे पूर्वज भगवान के पास चले गये, या जिंदा नहीं है। पितृ पक्ष  मे धरती पर आते हैं उनके पसंद के  पकवान बनाकर ब्राह्मण को भोजन कराते और रुपया वस्त्र देकर विदा करते हैं। इसी को श्राद्ध कहते हैं।

बहू ने कहा – क्या माँ यह सब  दिखावा करके उनकी आत्मा को शांति मिलती है? पता नहीं बहू लेकिन मैंने सोचा तुम्हारे टिफिन के लिए भी कुछ अच्छा बना देती हूं और इसी बहाने ऐसा सोचो कि हम लोग अच्छे पकवान बनाकर खा लेते हैं।

नवमी और अमावस्या के दिन मेरी मां और सास भी बनाती थी।

सुन बेटा अमित मुझे कुछ पैसे दे देना तुम लोग तैयार हो जाओ नाश्ता कर लो तुम्हारे लिए टिफिन पैक कर दिया है।

तभी बहू ने कहा – माँ मैं खीर तो ले जाऊंगी पर पूरी की जगह मुझे रोटी दे दो और थोड़ा ही रखना मुझे ज्यादा तेल का खाना पसंद नहीं है।

इतना सब जब आपने बनाया है तो पैसे लेकर क्या करेंगे।

बेटा बाजार से जलेबी रसगुल्ला और समोसे भी लाऊंगी।

तो ऐसा क्यों नहीं कहती मां कि आपका खाने का मन है और दादा दादी सास का बहाना कर रही हैं।

तभी पिताजी को जोर से गुस्सा आ गया उन्होंने कहा बहू और अमित तुम लोगों के पैसों की  कोई जरूरत नहीं है। देखो कमला जितना हो सके तुम उतना ही ढंग से श्राद्ध करो और पूजा भी अब हमें कमी कर देनी चाहिए क्योंकि अब यह हमारे ऊपर एहसान कर रहे हैं। हमारे मरने  के बाद श्राद्ध का  नाटक मत करना।  

अमित ने कहा मां आपको क्या चाहिए? आप बताओ मैं बाजार से लाता  हूँ। थोड़ी देर बाद ऑफिस चला जाऊंगा।

नहीं बेटा रहने दो? अवंतिका बहू  सच बोल रही है। फालतू फिजूल खर्ची करने की कोई जरूरत नहीं है।

तू मेरा भी श्राद्ध,  कर्मकांड और ब्राह्मण को बुलाकर भी कुछ मत देना, ज्यादा खर्च मत करना क्योंकि श्राद्ध तो श्रद्धा से होती है…।

उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

अच्छा है बेटा जो हमारे जमाने में हमारे माँ-बाप हमें ज्यादा नहीं पढ़ा पाये, नहीं तो मुझे लगता है कि यह संस्कार जिंदा नहीं रहते।

हे प्रभु किसी को बुढ़ापा न देना ये बहुत लाचारी से भरा होता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 207 – संतुष्टि ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा संतुष्टि”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 208 ☆

🌻लघु कथा🌻 🐧संतुष्टि🐧

तीन मंजिला मकान। प्रत्येक मंजिल पर शानदार फर्नीचर, मछली वाला एक्वेरियम और शो पीस जगह-जगह कालीन बिछे, बिना सिलवट पड़े चादर बिछे पलंग और वह तमाम मन को आकर्षित करने वाली वस्तुएं। सभी जगह दिखाई दे रही है।

आज उनके यहाँ दो भाइयों के बीच में बात चल रही थी कि पिताजी का श्राद्ध विधि विधान से कराया जाएगा और उनकी आत्मा की शांति के लिए साथ-साथ सभी आसपास पड़ोसियों को भोजन खिलाया जाएगा।

पड़ोसियों को भी अच्छा लगा। कम से कम इसी बहाने उनका घर तो देखने को मिलेगा। उनका रहन-सहन पता चलेगा।

निश्चित समय पर सभी को बुलाया गया। पूरे घर को बढ़िया सजाया गया था। सभी घूम-घूम कर देख रहे थे और अंत में एक आउट हाउस बना हुआ था। छोटा सा कमरा जहाँ दो पलंग।

किनारे पर रखा एक लोटा गिलास और एक टेबल जिसमें स्वर्गीय पिताजी की तस्वीर रखी गई थी सभी को वहाँ पर बैठा कर बारी- बारी भोजन कराया गया।

अब आ तो गए थे। सभी ने थोड़ा-थोड़ा खाना खाया और पूछते गए… क्या पिताजी यहीं पर रहते थे पुत्रों ने जवाब दिया.. हाँ पिताजी को यहाँ ही रखा गया था। पर उनकी आत्मा की शांति के लिए भोजन की व्यवस्था में हम लोगों ने कोई कमी नहीं की है, बताइएगा जरूर।

एक दूसरे का मुँह ताकते सभी लोग कहने लगे.. अगर यही पितरों का श्राद्ध है तो शायद उन्हें कभी भी संतुष्टि नहीं मिलेगी।

परंतु घर के सभी लोग बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे कि पिताजी का श्राद्ध चल रहा है। सभी लोग भोजन मुस्कुरा मुस्कुरा कर परोस रहे थे। किसे संतुष्टि थी… तीन मंजिल मकान की मुंह दिखाई या वक्त में पितरों का श्राद्ध???

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – स्वयं – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– स्वयं –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — स्वयं — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

लड़का बचपन से बिगड़ा हुआ था। परिवार के लोग उससे डरे – डरे रहते थे। परिवार गरीब होने से उसकी मांगें पूरी न होती थीं। अब उसने बाहर के लोगों से लड़ कर पाना चाहा। पर बाहर के लोग बलिष्ठ होने से उसे भगा देते थे। वह फिर से अपने परिवार में लौटा। पर यहाँ तो पूर्ववत गरीबी ही थी। अन्ततः वह स्वयं से लड़ा और स्वयं से मारा गया। बात यह थी स्वयं में भी उसके लिए दुत्कार ही था। **

***
© श्री रामदेव धुरंधर

25 – 09 – 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 305 ☆ कथा-कहानी – “मुक्ति” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 305 ☆

?  कथा-कहानी – “मुक्ति” ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह शहर के नामचीन कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। आंखों में चश्मा चढ़ चुका है। सर के बालों में भी इतनी सफेदी तो आ ही गई है कि वे वरिष्ठ माने जाने लगे हैं। अब सभा गोष्ठियों में उन्हें अध्यक्ष के रूप में आखिर तक बैठना होता है। गंभीरता का सोबर सा मंहगा दुशाला लपेट, फुलपैंट के साथ घुटनो तक लम्बा खादी का कुर्ता पहनने का ड्रेस कोड उन्होंने अपना लिया है। वरिष्ठता की उम्र के इस संधि स्थल पर बच्चे पर फड़फड़ाते स्वयं उनके घोंसले बनाने दूर शहरों में उच्च शिक्षा के लिये पढ़ने जा चुके हैं।

बड़े से घर पर वे और उनकी पत्नी ही रह गई हैं। और रह गई है, घर और उनकी देखभाल करने के लिये निशा। निशा उनके बंगले के निकट ही बस्ती में रहती है। निशा साफ सुथरी हाई स्कूल पास कोई पैंतीस बरस की शांत लेडी है। निशा तब से उनके घर को संभाले हुये है, जब बच्चे स्कूल में थे। कहते हैं न कि यदि किसी को समझना हो तो पता कीजीये कि उनके ड्राइवर, घर के नौकर चाकर कितने लम्बे समय से उनके पास कार्यरत हैं। बच्चे निशा को दीदी कहते हैं। और गाहे बगाहे सीधे निशा दीदी को फोन करके उनकी तथा अपनी मम्मी की कैफियत भी पता कर लेते हैं। निशा अधिकार पूर्वक उनकी चाय से शक्कर गायब कर देती है। वह सोहबत में कोलेस्ट्राल जैसे बड़े और भारी भरकम शब्द सीख गई है, जिनका इस्तेमाल कर उनके लिये अंडे की सफेदी का ही आमलेट बनाती है।

आशय यह है कि निशा प्रोफेसर के परिवार के सदस्य के मानिन्द ही बन चुकी है। ये और बात है कि निशा का एक शराबी पति और एक उत्श्रंखल बेटा भी है। जिनका पेट निशा ही पाल रही है। प्रोफेसर साहब के परिवार को देख निशा के अरमान भी होते हैं कि उसका बच्चा भी अच्छा पढ़ लिख ले और जिंदगी में कुछ ठीक ठाक कर ले। निशा अधिकारों के प्रति सचेत है, भले ही वह किचन में खाना बना रही हो पर उसके कान चल रहे ड्राइंग रूम में टी वी पर चल रहे समाचार सुन रहे होते हैं। क्रिकेट का उसे शौक है, इतना कि खास निशा के लिये प्रोफेसर साहब को हाट स्टार की सदस्यता लेनी पड़ी, क्योंकि वर्ल्ड कप के प्रसारण दूरदर्शन पर नहीं आ रहे थे। निशा ने पार्षद से लड़ भिड़ कर स्वयं के लिये उज्जवला योजना का गैस सिलेंडर तक हासिल कर लिया है। वह आयुष्मान योजना का कार्ड जैसी सरकारी योजनाओ का लाभ भी ले लेती है।

उस दिन निशा ने चहकते हुये आगामी छुट्टी को पिकनिक के लिये नर्मदा में लम्हेटा घाट से नौकायन का प्रस्ताव मैडम के सम्मुख रखा। मैडम की या प्रोफेसर साहब की और कोई व्यस्तता थी नहीं, इसलिये निशा का सुझाव सहजता से मान्य हो गया। पिकनिक की बास्केट निशा ने रेडी कर ली। ड्राइवर को भी निशा सीधे इंस्ट्रक्शन दे दिया करती थी। नियत समय पर निशा की अगुवाई में प्रोफेसर साहब का कारवां पिकनिक के लिये निकल पड़ा।

लम्हेटा घाट पर पहुंच एक नाविक का इंतजाम ड्राइवर ने कर लिया। और सभी नाव पर सवार हो गये। काले बेसाल्ट के पहाड़ कप काट अविरल धार से अपना मार्ग बनाती नर्मदा युगों युगों से बहे जा रही थी, दोनो तटों के उस अप्रतिम नयनाभिराम सौंदर्य को निहारते प्रोफेसर साहब विचारों में खो गये। नर्मदा अर्वाचीन नदी है, इसका प्रवाह पश्चिम की ओर है। मध्य भारत की जीवन रेखा के रूप में मान्यता प्राप्त नर्मदा चिर कुंवारी सदा नीरा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्कंद पुराण का पूरा एक खण्ड ही नर्मदा पर है। मगरमच्छ की सवारी करने वाली नर्मदा मैया की परिक्रमा सदियों से आस्था प्रेमी जन करते रहे हैं। इस १३१२ किलोमीटर की इस परकम्मा में आस्था, विश्वास, रहस्य, रोमांच, और खतरों के संग प्रकृति के विलक्षण सौंदर्य के सानिध्य के अनुभव निहित हैं। गंगा को ज्ञान, यमुना को भक्ति, ब्रम्हपुत्र को तेज, गोदावरी को ऐश्वर्य, कृष्णा को कामनापूर्ति और लुप्त हो चुकी सरस्वती को आज भी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये पूजा जाता है। नदियों कि यही प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति की विशेषता है जो जीवन को प्रकृति से जोड़ती है। वे सोच रहे थे विदेश यात्राओं में जब पश्चिम की निर्मल स्वच्छ नदियों का प्रवाह दिखता है तो लगता है कि नदियों की पूजा करने वाले भारत को क्यों नदी स्वच्छता अभियान चलाने पड़ते हैं।

प्रोफेसर साहब की तंद्रा टूटी, निशा मैडम को बता रही थी कि बीच नदी में यह जो चट्टान है उस पर एक शिवालय है, जहाँ हर मनोकामना पूरी होती है। निशा भोले बाबा से यही मनाने आई है कि उसके पति की शराब से उसे मुक्ति मिले। उसने बताया कि कल तो उसके पति ने इतनी ज्यादा पी ली कि पुलिस उसे सड़क से पकड़कर ले गई है, वह कह रही थी कि यहां से लौटकर उसे छुड़ाने जाना होगा, वह बोली अब और सहन नहीं होता, अब तो न केवल निशा को बेवजह अपने ही बेटे को भी मारता है। अब वह चाहती है कि भोले बाबा उसे इस सबसे मुक्ति दें। प्रोफेसर साहब कुछ कहकर निशा की आस्था और भोले बाबा पर भरोसे को नहीं तोड़ना चाहते थे, वे मन ही मन हंस पड़े और सोचने लगे अपनी हर बेबसी को काटने के लिये मनुष्य ने चमत्कार की आशा में भगवान को गढ़ लिया है। क्या आस्था मनोवैज्ञानिक उपचार ही है ?
शाम हो चली थी, सूरज दूसरे गोलार्ध में सुबह करने यहां से बिदा ले रहा था। रक्ताभ लालिमा से आसमान नहा रहा था, वीराने में हवा की सरसराहट और नर्मदा के प्रवाह का कलकल नाद गुंजायमान था। मैडम नाव से ही झुककर अपने हाथों से नर्मदा जल से किलोल कर रही थीं, नाव किनारे की तरफ वापस पहुंचने को थी। शायद निशा भोले बाबा से अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी, क्योंकि उसकी आँखें उसी शिवालय वाली चट्टान को निहारे जा रहीं थीं।

पिकनिक मनाकर सब घर पहुंचे, रात हो गई थी, इसलिये मैडम ने ड्राइवर से निशा को उसके घर ड्राप करवा दिया।

अगली सुबह, प्रोफेसर साहब के घर अजीब सा सन्नाटा था। निशा के घर से आई खबर ने प्रोफेसर साहब को झकझोर दिया। वे और उनकी पत्नी तुरंत ही निशा के घर पहुंचे।

निशा का घर शोक में डूबा हुआ था। निशा की आंखें सूजी हुई थीं और चेहरा उदास था। मेडम ने निशा को सांत्वना दी और उसके पति के निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की। निशा ने बताया, शराब उसे पी गई। पुलिस ने उसे हवालात में डाल दिया था, जहां उसकी तबियत बिगड़ गई, उसे अस्पताल शिफ्ट कर मुझे खबर दी गई। खबर मिलते ही मैं तुरंत अस्पताल पहुंची, लेकिन वह नहीं बच पाया।

ढ़ाड़स बंधाने के लिये प्रोफेसर साहब का शब्द कोष उन्हें बौना लग रहा था। उनकी पत्नी ने निशा को धैर्य रखने के लिए कहा और कहा, “तुम हमारे परिवार की सदस्य हो। हम तुम्हारे साथ हैं। निशा की आंखों में आंसू थे, वह जानती थी कि उसके पास अब भी एक परिवार है। प्रोफेसर साहब सोच रहे थे इसे भोले बाबा की कृपा कहें ? या मुक्ति कहें ?

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #187 – बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 187 ☆

☆ बाल कथा – चतुराई धरी रह गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है. ” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया, ” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है, ” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा मल चाहिए. वह लालची है. इस कारण  उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे, वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए. ”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया, ” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“भैया ! आप  बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए, ” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है, ” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.

मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना. नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई.

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था, ” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए, ” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटासा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ. ”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले. ” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो, ” कोमलसिंह ने कहा, “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपने अपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते, ” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह ढंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद, ” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं, ”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगाया जा चूका था. वह चुप हो गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 118 – बैंक : हमारी कहानी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा   “जीवन यात्रा“

☆ कथा-कहानी # 118 – app, logo, media, popular, social, whatsapp बैंक : हमारी कहानी  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆ 

ग्रुप के शुरुआती दौर की पोस्ट है. कमानिया के पास गनपत मिल गया, अकेला था हमने पूछा गुरुजी कहां गये? बोला बड़कुल के यहां से खोबे की जलेबी लेने गये हैं. हमने तुरंत मौके का फायदा उठाते हुये कहा “गनपत भैया, जरा पास की स्टेट बैंक की ब्रांच चले जाओ. गनपत ने साफ मना कर दिया, बोला गुरु जी से बिना पूछे मैं कहीं नहीं जाता. हमने कहा तुम जाओ तो सही, हम उनसे पोस्टफेक्टो सेंक्शन ले लेंगे.

गनपत कुछ देर तक तो हमको ऊपर से नीचे तक देखता रहा, फिर धृष्टता से व्यंग्य भरी मुस्कान फेंककर पूछा: ये क्या होता है और इससे क्या गुरुजी हमारी क्लास नहीं लगायेंगे.

हमने कहा कि ये बैंक की शब्दावली है जब नियंत्रक को शाखा प्रबंधक पर पूरा विश्वास हो कि ये गड़बड़ नहीं करेगा या अगर कर भी लिया तो हमारे हिसाब में गड़बड़ नहीं करेगा तो वो शाखाप्रबंधक के कान में विश्वास या अंधविश्वास का मंत्र फूंक देते हैं और काम सबका चलता रहता है. खैर बात तो गनपत के सर के ऊपर से अर्जुन के तीर के समान सांय से गुजर गई और उसने फिर से, इस बार मजबूती से हमारे सम्मान की वाट लगाते हुये फिर मना कर दिया.

हमने अगला तीर निशाने में लगाने की फिर कोशिश की कि गनपत, गुरुजी हमारे बड़े भाई के समान हैं, वो हमारे ग्रुप में भी हैं जिसमें हम एडमिन बन कर बैठे हैं.

गनपत : कौन सा ग्रुप?

मैं : बैंक : हमारी कहानी

गनपत :इसमें क्या होता है?

मैं : हम लोग बैंक में जो काम करते थे न, उसकी कहानी कहते हैं. बाहर की बात भी कर सकते हैं पर पकापकाया माल एलाउड नहीं है, लोग बहुत अच्छे हैं, मान गये हैं, हमको सब लोग पसंद भी हैं. इत्ता तो नौकरी करते वक्त भी नहीं करते थे.

रोज बॉस की डांट खाते थे.

गनपत :और ये एडमिन क्या होता है.

मैं : ये बिना पावर बिना वेतन का अधिकारी होता है.

गनपत : ये तो हमको भी गुरुजी बताये थे कि शाखा में चेक पास करने और पेटीकेश का मनमुताबिक उपयोग करने के अलावा कोई डायरेक्ट अधिकार नहीं होता और जो अधिकार होता है वो अधिकार कम फसौवल ज्यादा हैं. पर एडमिन भैया आपको तन्खा नहीं मिलती, मानदेय तो मिलता होगा.

एडमिन : मानदेय मतलब मान देना पड़ता है गनपत, अब जल्दी से बैंक जाकर पता कर लो कि चल रही है क्या हमारे बिना.

गनपत : जाने की क्या जरूरत, यहीं कमानिया के पास खड़े होकर बता रहे हैं, बहुत बढ़िया चल रही है, पहले से बेहतर चल रही है क्योंकि नये लड़के तो कंप्यूटर के मास्टर हैं, सब खुद ही ठीक कर लेते हैं. आप बिल्कुल भी चिंता मत पाले, अपने ग्रुप पर ध्यान दो, कभी कभी भटक जाता है. अब मैं जा रहा हूँ, वो देखिए गुरुजी आ रहे हैं.

हमने नपे तुले कदमों से बड़कुल के सामने महावीर दूध भंडार की तरफ रुख किया और ऑर्डर प्लेस किया एक केसरिया दूध मलाई मारके. गिलास गरम लगा तो ऑंख खुल गई, वास्तविकता में पत्नी ने हमारी कनिष्ठा उंगली चाय के कप से टच कर दी थी.

गुरुजी से पोस्टफेक्टो सेंक्शन की उम्मीद से 💐🙏

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 41 – गोबर गणेश…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी, पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 41 – गोबर गणेश श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

माॅं तुम हमेशा मुझे पढ़ने को क्यों बोलती रहती हो?

मैं घर का सारा काम भी तो करता हूं और तुम्हारी कितनी मदद करता हूं। क्या यह सब तुम्हें अच्छा नहीं लगता? तुम और पिताजी हमेशा मुझे डांटे रहते हो। बड़े भाई बहनों को तो तुम लोग कुछ नहीं बोलते मुझे हमेशा क्यों रहते हो दिमाग में गोबर भरा  है। गोबर गणेश की तो पूजा भी करते हैं।

बेटा हम तुम्हारे भले की ही बात कहते हैं। देखा! गणेश जी को भी कुछ अरसे बाद रखें और विसर्जित कर देते हैं। जीवन भर हम भी नहीं रहेंगे और तुम्हारा जीवन कैसे चलेगा?

बाद में तुम पछताओगे और समय निकल जाने के बाद किसी की कोई कीमत नहीं होती। जितनी जल्दी यह सब बातें तुम अपने दिमाग में समझ लोगे उतना ही अच्छा रहेगा।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 304 ☆ बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 304 ☆

?  बाल कथा – “पिंटू का स्कूल” ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पिंटू 5 वर्ष का नटखट बच्चा है। उसका एक छोटा भाई है चिंटू । पापा से जिद करके पिंटू ने एक पपी पाला था। उसने प्यार से पपी का नाम ब्राउनी रखा था। चिंटू पिंटू और ब्राउनी खूब खेला करते थे। पिंटू को अपनी टीचर की तरह पढ़ाना बहुत अच्छा लगता था। वह चिंटू और ब्राउनी को बैठाकर अपनी क्लास लगाता था। धीरे धीरे उसने ब्राउनी को अखबार उठाकर लाना और उसे पकड़ना सिखा दिया था।

एक दिन ब्राउनी अखबार पकड़कर पढ़ने का नाटक कर रहा था, और पिंटू चिंटू यह देखकर मस्ती से हँस रहे थे । तभी वहां से पड़ोस में रहने वाले अंकल निकले । ब्राउनी की अखबार पढ़ने की मजेदार हरकत को उन्होंने अपने मोबाईल से कैद कर लिया ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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