हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “जल है तो कल है“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 5 ☆

✍ लघुकथा – जल है तो कल है… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

जल की उपयोगिता और आवश्यकता बताने के लिए तरह तरह के नारे लगाए जा रहे हैं। रणजीत जब भी घर में देखता है कि नल चल रहा है और उसकी मम्मी बर्तन घिस रही है। यानी पानी बेकार बह रहा है। वह चीख पड़ता है, “मम्मी, प्लीज़, नल तो बंद कर दो, पानी बेकार बह रहा है। अगर ऐसे ही पानी बहाना है तो यह स्लोगन क्यों टाँग रखा है, “जल है तो कल है।”

रणजीत घर से बाहर निकल जाता है। उसका मन उदास हो जाता है। अभी वह दस वर्ष का है और सोचता है ” जब मैं जवान होऊंगा तो पानी की हालत क्या होगी।  क्या हम प्यासे ही मर जाएंगे?”  वह अपनी गर्दन झटकता है, “नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अपने भविष्य के लिए कुछ करना होगा।” सोहन की आवाज़ सुनकर वह होश में आता है। सोहन पूछता है,”कहाँ खोए हुए थे।” विचारमग्न अवस्था में रणजीत ने सोहन से पूछा, ” तुम्हारे घर में ऐसा होता है कि नल चलता रहे और पानी बहता रहे।” सोहन बोला, “हाँ होता है, माँ बर्तन माँजती है तो नल चलता रहता है। ऐसे ही नहाते समय भी होता है कि हम साबुन लगा रहे होते हैं पर नल चलता रहता है। लेकिन हुआ क्या?”

रणजीत ने धीरे से कहा, ” यार ऐसे ही चलता रहा तो हम बड़े होकर प्यासे ही मर जाएंगे। हमारे लिए तो पानी बचेगा ही नहीं।  सब कहते हैं, जल है तो कल है, पर कल की चिंता तो किसी को है ही नहीं।”  सोहन बोला, ” हाँ रणजीत मैंने जगह जगह लिखा देखा है, जल है तो कल है, पर पानी बरबाद करते रहते हैं।  मैंने बड़े लोगों के मुँह से सुना है कि जमीन में पानी का लेवल नीचे चला गया है, पीने के पानी का संकट बढता जा रहा है।” रणजीत बोला, ” यही तो मेरी चिंता है पर हम छोटे बच्चे हैं, करें क्या?” सोहन बोला, “कहते तो तुम ठीक हो। क्या स्कूल में अपनी मिस से बात करें। वो बहुत अच्छी हैं और बड़ी भी हैं, हमारी बात सुनेंगी और कुछ करेंगी भी। घर में तो किसी से कहना बेकार है। ऐसी बातों को फालतू समझते हैं।” “तो मिला हाथ, कल मिस से बात करेंगे।” सोहन गर्व से बोला। लेकिन दोनों बच्चों ने और प्रयास किए और अपनी क्लास के बच्चों को भी बताया। पूरी क्लास के बच्चे मिस से बात करने को तैयार हो गए।

जब मिस से बात की तो वह बहुत प्रभावित हुई और उसने कहा कि शुरूआत घर से ही होनी चाहिए। उसने कहा ” घर जाकर एक तख्ती पर लिखना “हमारी रक्षा करो, जल है तो कल है, और हम ही कल हैं।”  और दो दो या चार बच्चे वह तख्ती लेकर अपनी सोसायटी में मेन गेट के पास ऐसे खड़े होना कि आने जाने वाले सभी लोग तख्ती देख पढ सकें।”… “और हाँ अगले दिन तख्ती लेकर स्कूल में आ जाना।” बच्चों ने ऐसा ही किया। लोग रुकते और तख्ती पढकर अपने घर चले जाते।  रणजीत जब अपने घर पहुँचा तो उसकी मम्मी ने बड़े लाड़ से अपने पास बिठाया और दोनों कानों पर हाथ रखकर कहने लगी ” सॉरी रणजीत, ऐसी गलती अब नहीं होगी।” ऐसा ही कुछ सोहन के यहाँ भी हुआ। रणजीत अपनी सफलता पर बहुत खुश हुआ। अगले दिन रणजीत की क्लास के बच्चे स्कूल पहुँचे तो अपने अपने घर के अनुभव मिस को सुनाए। अब मिस ने स्कूल छूटने के समय उन बच्चों को एक कतार में खड़ा कर दिया जहाँ बच्चों को लेने पेरेंट्स आते हैं। सभी बच्चों के पेरेंट्स ने पढा। दूसरे दिन स्कूल के सभी बच्चे तख्ती बनाकर ले आए। और तख्ती हाथ में लेकर स्कूल से निकलने लगे।

 मिस ने बच्चों को समझाया कि जब किसी चौराहे पर लाल बत्ती देखकर तुम्हारी गाड़ी रुक जाए तो गाड़ी से उतर कर सबको तख्ती दिखलाओ। धीरे धीरे तख्ती की खबर मीडिया तक पहुँची। और अखबारों तथा चैनलों पर इसकी चर्चा होने लगी। रणजीत और सोहन बहुत खुश थे कि उन्होंने अपने कल के लिए कुछ तो किया। अपना कल बचाने की दिशा में एक छोटा सा कदम।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिस मैचिंग।)

☆ लघुकथा # 55 – मिस मैचिंग  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

एक रिसोर्ट में पार्टी हैं ऑफिस के सभी लोग अपने परिवार के साथ आ रहे हैं। मेरे बॉस सुशांत सर ने कहा है कि तुम्हें जरूर आना है। तुम ठीक 1:00 बजे पहुंच जाना अरुण ने फोन पर कहा। घर के काम और सभी की सेवा में रोज लगी रहती हो देखना देर नहीं होनी चाहिए?

प्राची ने अपनी सास से कहा कि मां मुझे ऑफिस की पार्टी में जाना है घर का सारा काम हो चुका है मैं 11:00 बजे निकलती हूं तभी समय पर वहां पहुंच पाऊंगी।

सास ने हां कर दी बोली तुम जाओ तुम्हारे पति को बहुत जल्दी गुस्सा आ जाता है। उसने जीवन में कोई काम अच्छा नहीं किया। लेकिन, तुम्हें चुनकर हमारे लिए यह काम सबसे अच्छा किया है।

वह तैयार होकर पीले परिधान में जाती है पर उसका उसे शूट के साथ का दुपट्टा नहीं मिल रहा था इसलिए उसने लाल रंग का दुपट्टा डाला और एक पीला शॉल लेकर घर से बाहर निकली।

उसे विचार आया कि क्यों ना मैं सिटी बस में बैठकर आराम से जाती हूं, एंजॉय करते हुए जैसे कॉलेज में अपनी सखियों के साथ जाती थी। बस में बैठकर उसने कंडक्टर से कहा जब सिटी पार्क आएगा तो मुझे बता देना ।

बस पूरी खचाखच भरी थी उसमें कुछ बेचने वाले भी चढ़ गए थे। कई लोग खरीद भी रहे थे।  उसने भी दो कान के झुमके और चूड़ियां खरीद लिया।

फिर सोचने लगी की कॉलेज के दिन कितने अच्छे थे तब अरुण मेरा कितना ख्याल भी रखते थे लेकिन यह नहीं पता था कि वह अकाउंटेंट और गणित में इतना खो जाएंगे। एक-एक चीज का हिसाब किताब रखेंगे। अब तो पल-पल और सांसों का भी हिसाब किताब रखते हैं।

काश! मैं भी कुछ काम करती लेकिन घर में सब लोगों के चेहरे पर खुशी देखकर मुझे एक  शांति मिलती है।

तभी फोन की घंटी बाजी। उसने उठाया और कहा हेलो इतनी देर से मैं तुम्हें फोन कर रहा हूं तुम फोन उठा क्यों नहीं रही हो, घर से निकली या नहीं?

हां मैं घर से निकल चुकी हूं आप चिंता मत करो  सिटी पार्क में आपको मिल जाऊंगी। आधे घंटे में मैं वहां पहुंच जाऊंगी। अरे तुम तो जल्दी आ गई। ठीक है मैं भी ऑफिस से वहां पर पहुंच जाता हूं। वह जैसे ही बस से उतरती है तो देखती है कि अरुण वहीं पर खड़ा है। तुमने झूठ क्यों कहा कि तुम देर से पहुंचोगे।

यह तुमने क्या पहन रखा है?

आज के दिन पीला कलर का कपड़ा पहनना चाहिए और मुझे दुपट्टा नहीं मिल रहा था ? आजकल फैशन भी यही है?

अरुण धीरे से मुस्कुराया। तुम अच्छी लग रही हो।

मैं या मेरे कपड़े प्राची ने कहा।

तुम्हारे कपड़े भी हमारी तरह है हम लोग भी अलग होकर एक है मिस मैचिंग।

प्राची ने कहा – जिस तरह खिचड़ी संक्रांति में सब कुछ डालकर बनती है हम लोग भी ऐसे हैं।

दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ कर रिसोर्ट में जल्दी जल्दी जाने लगते हैं।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – अवरुद्ध रास्ता – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– अवरुद्ध रास्ता –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — अवरुद्ध रास्ता — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

महात्मा अपने पीछे आने वालों का मार्ग दर्शन कर रहा था। पर एक जगह आने पर महात्मा स्वयं अटक गया। आगे रास्ता तो था, लेकिन एक पारदर्शी दीवार ने उसे रोक लिया था। उसके पुण्य का यही परीक्षण था। महात्मा के रूप में उसका जितना अर्जन था वह इतने के लिए ही था। इसके अतिरिक्त अमानवीय कर्मों के कारण आगे का उसका रास्ता अवरुद्ध होता।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
27 – 10 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – युक्ति… ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ☆

सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी पिछले 40 वर्षों से अधिक समय से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018)

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा युक्ति

? लघुकथा – युक्ति ? सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा ?

प्यारी मां,

 मैं जानती हूं अब वह वक्त आ गया है जब तुम पापा के साथ अस्पताल जाकर गर्भस्थ शिशु का लिंग परीक्षण कराने के लिए डॉक्टर को मोटी फीस देने के लिए तैयार हो जाओगी क्योंकि यह एक अपराध है। इसलिए अपराध को साकार रूप में उतारने के लिए मोटी रकम तो देनी ही पड़ती है ना! जब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारी कोख में फिर से लड़की आ गई है तुम किसी भी स्थिति में मुझे संसार में नहीं आने दोगी क्योंकि एक लड़की के होते दूसरी बार फिर लड़की तुम बर्दाश्त नहीं कर सकती। मुझे मरवा कर तुम “चलो बला टली “ के भाव लिए फिर से लड़का प्राप्त करने की कोशिश में लग जाओगी। मां, मैं मरना नहीं चाहती।  मैं भी इस नई दुनिया में आना चाहती हूं। प्रकृति के अनुपम सौंदर्य को देखना चाहती हूं। मां बाप बहन का प्यार पाना चाहती हूं। कितना कुछ है इस सुंदर दुनिया में ! क्या मुझे यह सब देखने, महसूस करने का अधिकार नहीं? मैं जानती हूं एक लड़की के होते तुम दूसरी लड़की क्यों नहीं चाहती ! अपना वंश खत्म होने का भय सताता है ना! पर बदलते जमाने के साथ ही परंपराएं और सोच भी बदल रही है। अब तो वंश औलाद के गुणों से चलता है उसके लिंग के कारण नहीं। अगर फिर भी तुम्हें मेरे जन्म पर आपत्ति है तो एक और समाधान सुझाती हूं। मुझे मरवा कर एक अपराध बोध तुम्हें हमेशा रहेगा इसलिए मुझे जन्म देकर किसी अनाथ आश्रम में दे देना। कोई जरूरतमंद, निःसंतान दंपत्ति मुझे बेटी बना लेंगे। मुझे भी मां-बाप मिल जाएंगे और तुम्हें भी लड़की पाने से निजात मिल जाएगी। बस मुझे जन्म देकर इस संसार में लाने का उपकार मुझ पर कर दो ना प्लीज…

तुम्हारी अजन्मी बेटी

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #199 – लघुकथा – सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 199 ☆

☆ लघुकथा – सेवा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा,हम ने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसू​ता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.

” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”

इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूं.”

” फिर ?”

” मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हांमी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में ​प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”

” क्या ?” डॉक्टर साहिबा को यकीन नहीं हुआ, ” उसने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दूं. मगर, वह नर्स कौन थी ?”

सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”

” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”

यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चकरा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहां मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.

” इस की समाजसेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०७.०३.२०१८

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सपना… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सपना.. ? ?

..सपने देखने की एक उम्र होती है। तुम्हारी तो उम्र ही सपने देखने में बीत गई। कब छूटेगा सपनों से तुम्हारा वास्ता?

..सपने हैं तो मैं हूँ। सपने जिया हूँ, सपना साथ लिये मरूँगा भी। दुनिया छोड़ूँगा तब भी मेरी खुली आँखों में एक सपना तैरता मिलेगा तुम्हें।

…सुनो, सपना देखने की कोई उम्र नहीं होती और हाँ, सपने की भी कोई उम्र नहीं होती। वह खंड-खंड अखंड बना रहता है।

..यूँ समझ लो कि सपना हूँ मैं!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 4:34 बजे, 31.5.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “घोंसला“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 4 ☆

✍ लघुकथा – घोंसला… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

रोज की तरह संजय बैंच पर आकर विकास के पास बैठ तो गए पर लग ऐसा रहा था कि वे वहाँ उपस्थित ही नहीं हैं। वे अच्छी पोस्ट से रिटायर  हुए हैं। अच्छी खासी पैंशन मिल रही है फिर भी बेचैन रहते हैं।  विकास ने पूछ ही लिया कि भाई क्या बात है, आज इतने उदास क्यों हैं । मायूस होकर संजय बोले क्या बताऊँ यार घर मेंं रहना मुश्किल हो गया है। पता नहीं किस मिट्टी की बनी है मेरी पत्नी। जब तक माँ जिंदा थी तो किसी न किसी बात पर झगड़ती थी।  माँ को कभी बहू का सुख नहीं मिला। दुखी मन से चली गई बेचारी। बेटे की शादी करके लाए, घर में बहू आ गई। सब खुश थे पर मेरी पत्नी नहीं। दहेज में उसे अपने लिए अँगूठी चाहिए थी, वह नहीं मिली  तो बहू को ताना मारती रहती। ऐसा लगता था कि वह ताना मारने के अवसर ढूँढ़ती रहती । बेटा बहू दोनों नौकरी करते थे पर घर आने  पर  अपनी माँ का मुँह फूला हुआ पाते। उन दोनों को शाम को घर आते समय कभी हँसी खुशी  स्वागत किया हो, ऐसा अवसर सोचने पर भी याद नहीं आता। आखिर वे दोनों घर छोड़ कर चले गए। किराए का फ्लैट ले लिया।

मेरे साथ तो कभी ढँग से बात की ही नहीं। अगर पड़ोसी कोई महिला मुझसे हँसकर बात करले तो बस दिन भर बड़ बड़। खाने पीने पार्टी करने, दोस्तो यारों में रहना मुझे अच्छा लगता है पर उसे अच्छा नहीं लगता। अब तो यही पता नहीं चलता कि वह किस बात से नाराज है। घर में कोई कमी नहीं। एक बेटी है वह भी अपनी माँ के चरण चिन्हों पर चल रही है। उसकी शादी कर दी है,  पर माँ है कि उसे अपनी ससुराल में नहीं रहने देती। पति, सास, ससुर के खिलाफ हमेशा भडकाती रहती है। और तो और, मेरे साथ लड़ने को माँ बेटी एक हो जाती हैं। मैं दिन में घर से बाहर निकलता हूँ तो प्रश्नों की झडी लग जाती है कि कहाँ जा रहे हो, जा रहे हो तो यह ले आना,वह ले आना और जल्दी आना। अब रिटायर होने के बाद कोई काम तो है नहीं । इनके क्लेश से घर में रहना मुश्किल हो जाता तो शाम को घूमने के बहाने यहाँ पार्क में आ जाता हूँ। लौटने की इच्छा ही नहीं होती क्योंकि घर जाने पर पता नहीं माँ बेटी से किस बात पर क्या सुनने को मिले। पेट की आग तो बुझानी है, चुपचाप दो रोटी खा लेता हूँ। पता नहीं आज दोनों किस बात से नाराज़ हैं। जब मैं घर से निकल रहा था तो पीछे से कह रहींं थीं कि लौट के आने की जरूरत नहीं। विकास चुपचाप सुन रहे थे और पेड़  से गिरे बिखरे घोंसले को एकटक देख रहे थे। उन्हें लगा, कभी वे इसी घोंसले में बैठते थे।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – खाली घरौंदा।)

☆ लघुकथा # 55 – खाली घरौंदा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

मानसी बहुत दिन हो गया तुम मेरे साथ कहीं नहीं गईं?  मेरे ऑफिस में जो शर्मा अंकल  हैं। तुम्हें तो पता है, पिताजी की अचानक दिल का दौरा से मृत्यु गई थी जब कोई सहारा नहीं था। अंकल ने हमारी बहुत मदद की  है  ऑफिस और  मेरा बिजनेस अंकल के कारण चल रहा है। आज उनकी बेटी की शादी है तुम मेरे साथ चलो मुझे अच्छा लगेगा।

 फिर वह कुछ रुक  कर बोला – तुम अपना बर्तन प्लेट घर में अलग रखती  हो।  अपना सामान किसी को छूने नहीं देती। इतनी साफ सफाई से रहना  अच्छी बात  है। किन्तु, हमें  सबके साथ  मिलना जुलना चाहिए चलो खाना मत खाना? क्या ! तुम मेरी खुशी के लिए इतना नहीं कर सकती?

तुम्हें पता है कि  लोग कहीं से भी आकर छू देते हैं और गले मिलते हैं यह मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता?

तुम चिंता मत करो  हम जल्दी ही आ जाएंगे?

तुम अकेले जाओ मुझे इतना जोर मत दो मुझे ऑफिस लोगो के यहाॅं जाना अच्छा नहीं लगता है। तुम्हें तो मेरी आदत पता है, मुझे छोटे लोगों से मिलना जुलना बिल्कुल पसंद नहीं है।

ठीक है? तुम्हें नहीं जाना तो मत जाओ तुम्हारे पास  मैं बुआ जी को छोड़ देता हूं रात में मैं वही रहूंगा।

तुम्हारा मेरे लिए इतना प्यार मुझे अच्छा नहीं लगता। घर में नौकर भी तो है फिर बुआ जी को क्यों यहाॅं छोड़ना?

 अचानक रात में मानसी को बहुत दर्द होने लगा और वह कराहने लग गई।  तभी बुआ जी और उनका बेटा उसके कराहने की आवाज सुनकर मानसी के घर पहुंचे। अरुण ने उन्हें घर की चाबी पहले से ही दे रखी थी ।

क्या हुआ बेटा?

 बुआ जी मुझे बहुत दर्द हो रहा है। 

बिना देर किए वे लोग उसे अस्पताल जाते हैं तब पता चलता है कि अपेंडिक्स का दर्द है।

 बेटा डॉक्टर को तुम्हें छूना ही पड़ेगा और कुछ दिन अस्पताल में रहना ही पड़ेगा। 

इसी कारण तुम्हारा खाली घरौंदा है। थोड़ा वक्त के साथ चलो? अपने आप को थोड़ा परिवर्तित करो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 41 – लघुकथा – संवेदनशीलता और समर्पण ?

निराली आई टी प्रोफ़ेशनल है। उसमें आइडिया की कोई कमी नहीं है। अपनी कंपनी की कई पार्टियाँ वही एरेंज भी करती है। साथ ही एक अच्छी माँ और गृहणी भी है। परिवार और समाज के प्रति संपूर्ण समर्पित।

उसकी बेटी यूथिका का अब इस वर्ष दसवाँ जन्मदिन था। वह कुछ हटकर करना चाहती थी।

जिस विद्यालय में युथिका पढ़ती है वह धनी वर्ग के लिए बना विद्यालय है। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ की वार्षिक फीस ही बहुत अधिक है जो मध्यम वर्गीय लोगों की जेब के बाहर की बात है।

युथिका की कक्षा में तीस बच्चे हैं। सबके जन्म दिन पर ख़ास उपहार लेकर वह घर आया करती है। युथिका के हर जन्मदिन पर निराली भी बच्चों को अच्छे रिटर्न गिफ्ट्स दिया करती है। पर इस साल युथिका के जन्म दिन पर निराली ऐसा कुछ करना चाहती थी कि बच्चों को समाज के अन्य वर्गों से जोड़ा जा सके।

उसने एक सुंदर ई कार्ड बनाया। जिसमें लिखा था –

युथिका के दसवें जन्म दिन का उत्सव आओ साथ मनाएँ।

युथिका के दसवें जन्म दिन पर आप आमंत्रित हैं। आप अपने छोटे भाई बहन को भी साथ लेकर आ सकते हैं। उपहार के रूप में अपने पुराने खिलौने जो टूटे हुए न हों, जिससे आप खेलते न हों और आपके वस्त्र जो फटे न हों उन्हें सुंदर रंगीन काग़ज़ों में अलग -अलग पैक करके अपना नाम लिखकर ले आएँ। कोई नया उपहार न लाएँ।

नीरज -निराली चतुर्वेदी

और परिवार।

समय संध्या पाँच से सात बजे

‘सागरमंथन’ कॉलोनी

304 कल्पवृक्ष

मॉल रोड

जन्म दिन के दिन तीस बच्चे जो युथिका की कक्षा में पढ़ते थे और वे छात्र जो उसके साथ बस में यात्रा करते थे सभी आमंत्रित थे।

जन्म दिन के दिन पूरे घर को फूलों से और कागज़ की बनी रंगीन झंडियों से सजाया गया।

पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए गुब्बारों का उपयोग नहीं किया गया।

वक्त पर बच्चे आए। अपने साथ दो- दो पैकेट उपहार भी लेकर आए। कुछ बच्चे अपने छोटे भाई बहनों को साथ लेकर आए। उनके हाथ में भी दो -दो पैकेट थे।

उस दिन शुक्रवार का दिन था। खूब उत्साह के साथ जन्मदिन का उत्सव मनाया गया। सबसे पहले युथिका की दादी ने दीया जलाया, दादा और दादी ने उसकी आरती उतारी। निराली ने हर बच्चे के हाथ में गेंदे के फूल पकड़ाए। जन्म दिन पर गीत गाया गया। दादी ने युथिका को खीर खिलाई। बच्चों ने युथिका के सिर पर फूल बरसाए। सबने ताली बजाई।

युथिका के घर में केक काटने की प्रथा नहीं थी। इसलिए बच्चों को इसकी अपेक्षा भी नहीं थी।

पासिंग द पार्सल खेल खेला गया। उसके अनुसार बच्चों ने गीत गाया, कविता सुनाई, नृत्य प्रस्तुत किया, चुटकुले सुनाए, जानवरों की आवाज़ सुनाई। सबने आनंद लिया।

हर बच्चे को रिटर्न गिफ्ट के रूप में ब्रेनविटा नामक खेल उपहार में दिया गया।

पचहत्तर नाम लिखे हुए उपहार रंगीन कागज़ों में रिबन लगाकर युथिका को दिए गए। उसके जीवन का यह नया मोड़ था।

दूसरे दिन सुबह निराली उसके पति नीरज और युथिका बच्चों के कैंसर अस्पताल पहुँचे। युथिका के हाथ से हर बच्चे को खिलौने दिए गए जो उसके मित्र उपहार स्वरूप लाए थे। साथ में हर बच्चे को नए उपहार के रूप में तौलिया, साबुन, टूथ ब्रश, कहानी की पुस्तक, स्कैच पेंसिल और आर्ट बुक दिए गए। युथिका हरेक से बहुत स्नेह से मिली। उपहार देते समय वह बहुत खुश हो रही थी। हर बच्चा खिलौना पाकर खुश था।

बच्चों की खुशी की सीमा न थी। वे झटपट पैकेट खोलकर खिलौने देखने लगे। उनके चेहरे खिल उठे।

वहाँ से निकलकर वे तीनों आनंदभवन गए। यह अनाथाश्रम है। यहाँ के बच्चों के बीच उम्र के हिसाब से वस्त्र के पैकेट बाँटे गए।

उस दिन सारा दिन युथिका अस्पताल की चर्चा करती रही। हमउम्र बच्चों को अस्पताल के वस्त्रों में देखकर और बीमार हालत में देखकर वह भीतर से थोड़ी हिल उठी थी। पर निराली काफी समय से उसे मानसिक रूप से तैयार भी करती जा रही थी कि जीवन सबके लिए आरामदायक और सुंदर नहीं होता।

निराली यहीं नहीं रुकी वह रविवार के दिन पुनः अस्पताल गई। वहाँ के हर बच्चे ने खिलौना पाकर देने वाले के नाम पर एक पत्र लिखा था और यह लिखवाने का काम अस्पताल के सहयोग से ही हुआ था। निराली सारे थैंक्यू पत्र लेकर आई।

अपनी बेटी को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए वह अभी से प्रयत्नशील है। वह इस दसवें जन्म दिन की तैयारी के लिए अस्पताल से, बच्चों की माताओं से काफी समय से बातचीत करती आ रही थी।

अगले दिन अपने दफ्तर जाने से पूर्व वह विद्यालय गई। प्रिंसीपल के हाथ में वे थैंक्यू पत्र सौंपकर आई। प्रिंसीपल इस पूरी योजना और आयोजन के लिए निराली की खूब प्रशंसा करते रहे।

शाम की एसेंबली में हर बड़े छोटे विद्यार्थी का नाम लेकर थैंक्यूपत्र दिया गया। यूथिका के घर उसके जन्मदिन के अवसर पर जो छात्र अपना खिलौना देकर आए थे वे अपने नाम का पत्र पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। युथिका के नाम पर भी पत्र था।

अब पत्र व्यवहार का सिलसिला चलता रहा और छात्र अस्पताल के बच्चों के साथ जुड़ते चले गए।

समाज के हर वर्ग को जोड़ने के लिए किसी न किसी को ज़रिया तो बनना ही पड़ता है। इसके लिए संवेदनशीलता और समर्पण की ही तो आवश्यकता होती है। समाज में और कई निराली चाहिए।

© सुश्री ऋता सिंह

24/10/24

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – सूनी गलियाँ – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– सूनी गलियाँ –” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — सूनी गलियाँ — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

बहुत ही पिछड़ा हुआ इलाका था। हमेशा मंत्री बने रहने का शौक पालने वाला राजनेता सत्यार्थी वहीं अपने लिए वोटों का धाम मानता था। वह बड़ी होशियारी से वहाँ लपकता था। बाप भैया बोलने में उसकी सानी नहीं। ग्रामीण दबा सा परिवेश होते भी महिलाएँ उसका मंचीय भाषण सुनने जाती थीं। उसे खूब वोट मिलते थे और वह मंत्री बनता था। पर ऐसा नहीं कि लोग उसे अज्ञानता के कारण वोट देते थे। उसे उम्मीद के लिए वोट दिये जाते थे।

***

© श्री रामदेव धुरंधर
04 – 01 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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