हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 222 ☆ “तौलिया सम्मान” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक एवं अतिसुन्दर व्यंग्य – “तौलिया सम्मान”)

☆ व्यंग्य “तौलिया सम्मान☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वे सम्मान के भूखे थे, पेट भर सम्मान होता तब भी पेट भूख लगी …भूख लगी चिल्लाता रहता। शाल श्रीफल से घर भर जाता तो घरवाली सम्मान करने वालों को गाली बकती कहती – कैसे हैं ये सम्मान करने वाली संस्थाएं…. इनको शाल और श्रीफल के अलावा कुछ नहीं मिलता। एक दिन पति पत्नी में शाल के लगे ढेर पर झगड़ा हो गया,  पत्नी गुस्से से लाल होकर बोली – सम्मान में शाल श्रीफल के साथ लिफाफा भी मिलता होगा,  तो लिफाफा जाता कहां है? ध्यान रखना अगली बार से लिफाफा नहीं दिया तो सबके सामने ऐसा अपमान करूंगी कि सब सम्मान भूल जाओगे।  पत्नी की डांट खाकर जब वो अगला सम्मान लेने पहुंचे तो डरे डरे से थे डर लग रहा था कि सम्मान मिलते समय पत्नी सार्वजनिक अपमान न कर दे, ले देकर जल्दबाजी में उन्होंने सम्मान कराया और जब माइक से बोलने की बारी आई तो कहने लगे दुनिया बहुत बदल गई है इसलिए अब सम्मान के तौर-तरीकों में भी बदलाव किया जाना चाहिए,  हर बार शाल श्रीफल के सम्मान से अब जी भर गया है शाल श्रीफल के ढेर से घर भर गया है। अधिकतर पत्नियां चिड़चिड़ाने लगीं हैं,  डांटती हैं,  दुकान वाले दो सौ रुपए की शाल पचास रुपए में वापस लेते हैं,  श्रीफल खरीदने वाले एक श्रीफल का अठन्नी देते हैं वैसे भी शाल का कोई व्यवहारिक उपयोग नहीं है, जिस शाल से सम्मान होता है उसी शाल को दुकान वाले को बेचने जाओ तो वे अपमान भी करते हैं और दो सौ रुपए की शाल के सिर्फ पचास रुपए देते हैं,  इसलिए जरूरी है कि अब शाल बेचने वालों का धंधा मंदा किया जाना चाहिए और हर साहित्यकार का सम्मान कंधे में तौलिया डालकर किया जाना चाहिए,  तौलिया हर किसी के काम की चीज है,  अच्छी नरम तौलिया पत्नियां भी पसंद करतीं हैं,  तौलिया बहुउपयोगी होता है,  हमाम में जब सब नंगे हो जाते हैं तो तौलिया ही एक सहारा होती है,  गुसलखाने में नहाने के बाद नरम तौलिया से शरीर पोंछने का अलग सुख होता है, जब आप घर में पट्टे की चड्डी पहने हों और अचानक दूध वाला घंटी बजा दे तो इज्जत बचाने के लिए आपको तौलिया लपेट कर ही बाहर से दूध लेना पड़ता है।  तौलिया में गुण बहुत हैं सदा राखिए संग…

नई नई शादी में तो तौलिया बहुत काम आता है, कई लोग तौलिया लेकर सोते हैं।  यदि तौलिए से सम्मान होने लगे तो संस्थाओं को भी सुविधा होने लगेगी,  तौलिया आसानी से कहीं भी मिल जाता है,  आपकी पत्नी ने कितना भी लड़ाई झगड़ा किया हो और बाथरूम में आप बिना तौलिया के चले गए हों तो आपके चिल्लाने पर पत्नी ही तौलिया लाकर देती है भले तौलिया लेते समय अधखुले दरवाजे से आपका खुला शरीर उसे दिख जाए तो उसे भी वह सहन कर लेती है।  खास बात ये भी है कि तौलिया हर दिन हर वक्त काम आता है जबकि शाल तो सिर्फ ठंड के समय काम आती है और यदि ठंड नहीं पड़ी तो सम्मान वाली शाल कोई काम की नहीं,  इसीलिए किसी ने कहा है….

दिल के आंगन में

        कहीं धूप नहीं,

फ्रिक्र आईना ही सही

         लेकिन आईने पे है

         याद की गर्द …

अब क्या करिएगा,  आईने की गर्द को तो तौलिया ही साफ करेगा न….शाल से तो आप गर्द साफ नहीं कर पाएंगे,  और जब…

‘रोएंगे हम हजार बार,

       कोई हमें रुलाए क्यों….’

तब भी आंसू पोंछने के लिए तौलिया ही साथ देगा, उस समय शाल से थोड़ी न आंसू पोंछ पाएंगे….तो सम्मान करने वालो शाल का मोह अब छोड़ो, अब तौलिया ओढ़ा कर सम्मान करने की आदत डालो,  तौलिया सस्ता भी पड़ेगा और बाथरूम में तौलिया से पोंछने वाला रोज आपको याद करके एहसान भी मानेगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 37 ☆ व्यंग्य – “नेपो किड्स के दौर में…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नेपो किड्स के दौर में…”।) 

☆ शेष कुशल # 37 ☆

☆ व्यंग्य – “नेपो किड्स के दौर में…” – शांतिलाल जैन 

‘आप राहा को जानते हैं शांतिबाबू ?’ दादू के पूछने पर मैंने ‘नहीं’ में उत्तर दिया. दादू सिरे से उखड़ गया. बोला – कमाल करते हैं आप!!. या तो आप पढ़े-लिखे नहीं हैं और हैं भी तो आपका जीके वेरी पुअर है. आलिया और रणबीर की डॉटर को नहीं जानते! पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं आप, अलिया के पेट में थी मिडिया तब से कवर कर रहा है. सच में कमाल है!!’

‘नहीं नहीं दादू, ध्यान आ गया. आप राहा कपूर की बात कर रहे हो. नॅशनल न्यूज पेपर में छपी थी उसकी फोटो, आधे पेज पर. पास में नीचे दस प्रतिशत खाद्य महंगाई की छोटी सी खबर पढ़ने के बाद इस खबर पर मेरा ध्यान वैसा नहीं गया.’

‘शांतिबाबू हर समय महँगाई को मत रोया कीजिए’ – दादू ने कहा – ‘क्या पोज़ मारा एक साल की क्यूट बेबी ने! खबरों में हॉट. कहाँ स्पॉट हुई ? हुडी पहनी थी कि डंग्रीज़ ? रणबीर ने शोल्डर पर बैठा रखा था कि बगल में ? सेलेब्रिटी मदर कहाँ स्पॉट हुई ? रात में डायपर आलिया बदलती है कि रणबीर ? एक बार बदला था रणबीर ने मगर साबुन से हाथ नहीं धोए तब से आलिया ही करती है यह सब. आलिया ने इंटरव्यू में बताया. पूरे तीस जोड़ स्नीकर्स खरीदे हैं रणबीर ने उसके लिए, बताईए मिडिया आपको इतनी महत्वपूर्ण जानकारी दे रहा है और आप हैं कि बार बार इन्फ्लेशन का स्यापा लेकर बैठ जाते हो.’

‘दादू, इस समय देश की एक और बड़ी समस्या बेरोज़गारी है’ – मैंने कहा.

वे बोले – ‘माय डियर फ्रेंड, अनएम्पलॉयमेंट बड़ी समस्या होती तो देश में राहा की गोल गोल बड़ी बड़ी आँखें ट्रेंड नहीं कर रही होती. जेन-झेड से लेकर मार्निंग वॉकर अंकिलों तक में डिस्कशन चल रहा है. कैसी दिखती है राहा ? न तो रणबीर जैसी दिखती हैं और न आलिया जैसी. उसमें कपूर खानदान के जीन्स हैं मगर राज कपूर जैसी दिखती नहीं है. अलबत्ता करीना कपूर खान जैसी दिखती है.’

‘दादू, बिलकिस बानो की उस तीन साल की लड़की की बात करें, जिसे उसकी माँ के सामने ही पटक पटक के मार डाला था ?’ – मैंने पूछा.

‘भोत सिड़ी आदमी हो यार आप, छांट के मूड खराब करनेवाली खबर लाते हो. हॉलीडेज के बाद एयरपोर्ट पे पिंक हुडीज में स्पॉट हुई है क्यूटी और तुम बिलकिस रोना लेकर बैठ गए हो. बात राहा की चल रही है. सो क्यूट बेबी!! उसकी खूबसूरत नीली आँखें अगर मिलती हैं तो बस करिश्मा कपूर से. नाक, कान, होंठ और गोल-मटोल गाल आलिया की बचपन की तस्वीरों से मिलते-जुलते हैं. फैन्स खुश हैं, पूरे एक साल बाद जो स्पॉट हुई है.’

जब मैंने दादू से मणिपुर का जिक्र करना चाहा तो वो मुझे पेज-थ्री पर लगी तैमूर, वियान और वमिका की तस्वीरें दिखाने लगा जो अब नेपो किड्स बनने की राह पर अग्रसर हैं. कन्फ्यूज हो जाते हैं आप ज्यादा पॉपुलर विराट है कि वमिका. डैड से अधिक वायरल डॉटर की फोटूएँ. वो क्रिकेटर बनेगी या हिरोईन इस पर जितनी प्लानिंग अनुष्का ने नहीं की होगी उससे ज्यादा चैट तो इंस्टाग्राम पर हो ली है.

बहरहाल, दादू मेरे हर जिक्र से खिन्न था, बोला – ‘वे लोग एक नंबर के झक्की होते हैं जो इस दौर में ज्वलंत मुद्दों पर बात करने के नाम पर निगेटिविटी फ़ैलाने की कोशिश करते हैं. मिडियावाले बेचारे जमीन और जनता से जुड़ी कितनी खबरें छोटी से छोटी करके भी स्टार किड्स के बड़े से बड़े फोटू, उनके पेरेंट्स के इंटरव्यू छापते हैं. आप जैसे लोग हैं कि ठीक से पढ़ते भी नहीं. ये सेलेब्रिटी किड्स से नेपो किड्स की ओर चलने का का दौर है शांतिबाबू, जिंदगी को एन्जॉय करना सीखिए.’

जब गाँव में पानी की समस्या से लेकर यमन में हो रहे प्रदर्शनों तक हर आक्रोश को शांत करने का नायाब नुस्खा सेलेब किड्स के कवरेज़ में छुपा हो तब अपन की तो हिम्मत ही नहीं होती है कि हसदेव के जंगलों में दो लाख पेड़ काटे जाने का जिक्र भी किया जाए. बहरहाल, आप स्टार किड्स को देखते रहिए, रील्स बनाईये, इन्स्टाग्राम पर अपलोड करते रहिए और जिंदगी की दुश्वारियों को भूल जाईए, हमारे दादू की तरह.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 225 ☆ व्यंग्य – नये तौर की समीक्षा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य – नये तौर की समीक्षा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 225 ☆

☆ व्यंग्य – नये तौर की समीक्षा

भाई छेदीलाल इस वक्त समीक्षक के रूप में साहित्य के आकाश में छाये हुए हैं। शेक्सपियर ने लिखा है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महानता अर्जित कर लेते हैं और कुछ के ऊपर महानता लाद दी जाती है। भाई छेदीलाल इस वर्गीकरण में तीसरी श्रेणी के महान कहे जा सकते हैं।

हुआ यूँ कि उनके आदरणीय जीजा रामभरोसे ‘मायूस’ ने एक गज़ल-संग्रह छपवाया। शीर्षक दिया ‘ज़ुल्फों के असीर’। फिर उन्होंने साहित्यिक वातावरण की नब्ज़ टटोल कर अपने अज़ीज़ साले छेदीलाल से कहा कि, ‘हे भाई, साहित्य में आजकल दूसरों से समीक्षा कराना निरापद नहीं है। लोग जाने कहाँ-कहाँ का बदला निकालने लगते हैं। आप हमारी अर्धांगिनी के भाई होने के नाते भरोसे के आदमी हैं। आप मेरे गज़ल संग्रह की समीक्षा करें। छपाने की ज़िम्मेदारी मेरी। आजकल अखबारों-पत्रिकाओं में लेख की क्वालिटी नहीं, लेखक-संपादक संबंध काम आते हैं। मुझे भरोसा है कि आप अपनी समीक्षा में मेरी और अपनी बहन की प्रतिष्ठा की पूरी रक्षा करेंगे। मदद के लिए मैं ज़रूरी किताबें और शब्दकोश उपलब्ध करा दूँगा।’

जीजा जी साले साहब के पास ज़रूरी किताबें पटक गये और साले साहब ने अपनी वफादारी का सबूत देते हुए शब्दकोश से ‘अद्भुत’, ‘अद्वितीय’, ‘अतुलनीय’, ‘अकल्पनीय’, ‘विरल’, ‘स्तब्धकारी’, ‘नायाब’, ‘बेमिसाल’, ‘रोमांचक’ जैसे ‘सुपरलेटिव’ विशेषणों का उत्खनन कर जीजाजी की किताब को झाड़ पर चढ़ा दिया। बदले में उन्हें जीजा जी और जीजी का भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ।

तब से भाई छेदीलाल समीक्षक के रूप में प्रकाश में आये और फिर उनके पास धड़ाधड़ समीक्षा के लिए आतुर लेखकों की किताबें आने लगीं। भाई छेदीलाल अपने बनाये फार्मूले के हिसाब से फटाफट किताबों को निपटा देते थे। चार छः पन्ने पढ़कर काम लायक सामग्री निकाल लेते थे।

जीजा जी की किताब मिलने पर भाई छेदीलाल ने उनसे ‘असीर’ का मतलब पूछा था। ‘असीर’ का मतलब ‘कैदी’ या ‘बन्दी’ जानने के बाद उन्होंने अपनी शंका पेश की थी कि ‘ज़ुल्फों के असीर’ से उनका मकसद उन जीव-जन्तुओं से तो नहीं है जो अक्सर ज़ुल्फों में बसेरा करते हैं। तब ज्ञानी जीजा जी ने उन्हें समझाया था कि ‘ज़ुल्फों के असीर’ से उनका मतलब उन आशिकों से है जो महबूबा की ज़ुल्फों में पनाह लेते हैं और वहीं पड़े शैंपू, हेयर लोशन, हेयर कंडीशनर वगैरः की खुशबू लेते रहते हैं। उन्होंने साले साहब को एक फिल्मी गाने की दुख भरी लाइन भी सुनायी— ‘तेरी जुल्फों से जुदाई तो नहीं माँगी थी, कैद माँगी थी रिहाई तो नहीं माँगी थी।’

मुख़्तसर यह कि भाई छेदीलाल समीक्षक के रूप में स्थापित हो गये और अनेक लेखकों के लिए ‘आदरणीय’ और ‘फादरणीय’ हो गये।

ताज़ा किस्सा यह है कि भाई छेदीलाल ने एक कथाकार ‘निर्मोही’ जी के संग्रह की समीक्षा लिखी है जो उनकी समीक्षा के मयार को दर्शाती है। समीक्षा इस तरह है—
‘मेरे सामने श्री गिरधारी लाल ‘निर्मोही’ का कथा-संग्रह ‘बुझा बुझा मन’ है। संग्रह में बीस कहानियाँ हैं जिनके शीर्षक उत्सुकता जगाते हैं।

‘पहले बात किताब के आवरण की की जाए। आवरण सुन्दर बन पड़ा है। लगता है कश्मीर के पहलगाम का दृश्य है। नदी अठखेलियाँ कर रही है और नदी के पार ढाल पर लंबे-लंबे वृक्ष दिखाई पड़ रहे हैं जो आश्चर्यचकित करते हैं। बहुत से लोग जो शायद पर्यटक होंगे, पानी के बीच में चट्टानों पर बैठे हैं या मोबाइल पर फोटो ले रहे हैं। लहरों का फेन साफ दिखाई पड़ता है। कुल मिलाकर आवरण मनमोहक बन पड़ा है जो पुस्तक की तरफ पाठक का ध्यान खींचने में सहायक है।

‘पुस्तक के आरंभ में दो भूमिकाएँ हैं जो दो विद्वानों के द्वारा लिखी गयी हैं। एक लखनऊ के विद्वान डा. रामनिहोर हैं और दूसरे पटना के पन्नालाल ‘बेचैन’। ये दोनों समीक्षक लेखकों में बहुत लोकप्रिय हैं क्योंकि ये लेखकों को दुखी करना पाप मानते हैं। डा. रामनिहोर ने संग्रह की कहानियों के बारे में लिखा है— जाने-माने कथाकार ‘निर्मोही’ जी के नये संग्रह ‘बुझा बुझा मन’ से रूबरू हूँ। संग्रह की कहानियों के बारे में क्या कहूँ? कहानियों को पढ़कर लेखक का ज्ञान और जीवन की उनकी समझ चमत्कृत करती है। गाँवों का ऐसा चित्रण है कि एक-एक फ्रेम नुमायाँ हो जाता है। चरित्रों का चित्रण भी अद्भुत है। एक-एक चरित्र जीवन्त हो जाता है। कई चरित्र ऐसे यादगार बन पड़े हैं जैसे अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के चरित्र। जो पढ़ेगा उसके लिए उन्हें भूलना कठिन होगा।मैंने संग्रह की आधी कहानियाँ पढ़ी हैं और उसके आधार पर मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि यह संग्रह लेखक के लिए बहुत मान-सम्मान अर्जित करेगा।

‘श्री पन्नालाल ‘बेचैन’ ने लिखा है— इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ने वाले को दूसरे ही धरातल पर ले जाती हैं जहांँ अपनी जानी पहचानी दुनिया को समझने के लिए एक नई दृष्टि अनावृत्त होती है। लेखक हमारी परिचित दुनिया को एक नयी समझ के साथ हमारे सामने प्रस्तुत करता है। मैंने संग्रह की बीस कहानियों में से आठ कहानियों को पढ़ा है और इन आठ कहानियों ने ही मुझे लेखक की क्षमता से पूरी तरह परिचित करा दिया। इन्हें पढ़कर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि लेखक का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

‘पुस्तक में रचना-क्रम पर नज़र डालें तो वह दोषहीन है। छपाई में कोई प्रूफ की गलती पकड़ में नहीं आती। रचनाओं की क्रम संख्या और पृष्ठ संख्या बिल्कुल सही है।
‘जहाँ तक मेरी बात है, मैंने संग्रह की दो कहानियाँ पढ़ ली हैं। इनमें से पहली कहानी ‘रिसते ज़ख्म’ है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया है। कहानी के नायक राकेश और उसकी पत्नी सुमन के बीच गलतफहमियों और फिर उनके बीच सुलह का लेखक ने बहुत खूबसूरत चित्रण किया है। कहानी का अन्त पाठक को झकझोर देता है। दूसरी कहानी ‘उलझे धागे’ भी बहुत प्रभावशाली है। इसमें नायिका की परिवार और नौकरी के बीच खींचतान को बहुत बारीकी से चित्रित किया गया  है। कहानियों की भाषा दोषहीन है और वह लेखक की अध्ययनशीलता को प्रमाणित करती है। शीघ्र ही मैं  बाकी कहानियाँ पढ़कर अपनी राय जाहिर करूंगा। मुझे पूरा भरोसा है कि लेखक साहित्य में ऊँचा मुकाम हासिल करेगा। मेरी शुभकामनाएँ लेखक के साथ हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 36 ☆ व्यंग्य – “इंग्लिश बनाम इंग्लिश” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  इंग्लिश बनाम इंग्लिश।) 

☆ शेष कुशल # 36 ☆

☆ व्यंग्य – “इंग्लिश बनाम इंग्लिश” – शांतिलाल जैन 

मेरा एक मशविरा है श्रीमान कि अब से किसी बाथरूम को बाथरूम कहने की गलती मत करिएगा, गंवार समझे जाने लगेंगे. बाथरूम अब वॉशरूम हो गया है. मौका सलूजा साब के फ्लैट में गृहप्रवेश का था. मास्टर बेडरूम से जुड़े गुसलखाने को मैंने शानदार बाथरूम कह दिया. उनके चेहरे पर ऐसा भाव आया मानों कि वे एक गंवार आदमी से मुख़ातिब हों. अपार्टमेंट को फ़्लैट कहा जाना भी उन्हें नागवार गुजरा. उन्होंने कहा था एलेवंथ फ्लोर पर इलेवेटर से आ जाईएगा. हम बहुत देर तक इलेवेटर ढूंढते रहे, फिर पता लगा कि सामने लगी लिफ्ट को ही इलेवेटर कहते हैं. ये इंग्लिश बनाम इंग्लिश का समय है श्रीमान. आपको अंग्रेजी आती हो इतना काफी नहीं है, आपको नए जमाने की अंग्रेजी आनी चाहिए. जब मिसेज सलूजा ने ब्लेंडर का जिक्र किया तो मुझे पत्नी को अंग्रेजी से अंग्रेजी में अनुवाद करके बताना पड़ा कि ये मिक्सी की बात कर रहीं हैं. सलूजा साब के किड्स प्राइमरी स्कूल के स्टूडेंट नहीं हैं, जूनियर स्कूल के हैं. जिन्दगी भर पेन्सिल से लिखा आप जिस रबर से मिटाते रहे वो उनके लिए इरेजर है. वे खाते बिस्किट हैं, कहते कुकीज हैं. समझे ब्रदर, आई मीन ब्रो. तो जब आप मिलें सलूजा साब से इंट्रोडक्शन मत दे दीजिएगा – इंट्रो इज इनफ.

नए जमाने की अंग्रेजी का आलम ये कि इन दिनों बायो-डाटा तो लोग चपरासी की पोस्ट के लिए नहीं देते, रिज्यूम देना पड़ता है. फुटपाथ अब पैदल चलनेवालों के लिए नहीं होते, पेवमेंट पर से वाक् करके जाना पड़ता है. इंग्लिश अब इंग्लिश से मात खाने लगी है तभी तो गिनती लाख-करोड़-अरब में नहीं होती, मिलियन-बिलियन-ट्रिलियन में होती है. आतंकवादी अब ‘किल’ नहीं किए जाते, न्यूट्रलाईज किए जाते हैं.

ये जेन-झेड का समय है. गंवार हंड्रेड परसेंट सही होते हैं और जेन-झेड सेंट-परसेंट. अपन हंड्रेड परसेंट सही हैं श्रीमान.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 251 ⇒ अंगीठी, चूल्हा और अलाव… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “अंगीठी, चूल्हा और अलाव।)

?अभी अभी # 251 ⇒ अंगीठी, चूल्हा और अलाव… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

भले ही आपको ठंड लगती रहे, फिर भी सबसे प्यारा मौसम ठंड का ही होता है। रात भर कंबल, रजाई में दुबके पड़े रहे, और सुबह होते ही आसपास गर्मी ही तलाशी जाती है। हर इंसान के पास गुलजार जैसा शब्द सामर्थ्य नहीं होता, कि उठते ही बीड़ी जला ले। फिर भी उसे चूल्हे की आग और गर्मागर्म चाय कॉफी से कोई परहेज नहीं होता। वैसे भी, जहां जिगर में बड़ी आग होती है, वहीं बीड़ी जलाई जाती है।

जब सूर्य देवता कोहरे और बादलों की ओट में छुपे रहते हैं, तब किसी जलती अंगीठी अथवा चूल्हे को तलाशा जाता है। चूल्हा लकड़ी मांगता है और अंगीठी कोयला। कुछ लोगों ने तो केवल कोयले का नाम ही सुना होगा। लकड़ी जली कोयला भयी, कितना आसान है न।

आजकल के बच्चों को कभी कोयले की टाल के भी दर्शन करवा दें, अगर संभव हो।।

वैसे उज्जवला गैस योजना ने घरों से सिगड़ी, चूल्हा और स्टोव्ह वैसे ही गायब कर रखा है। कहां से लाए गरीब आदमी घासलेट और सिगड़ी के लिए कोयले।

मेरे घर में आज भी केवल गैस का चूल्हा ही है, अंगीठी, सिगड़ी, और स्टोव्ह सब गए चूल्हे में। लेकिन गैस का चूल्हा हो, अथवा माइक्रोवेव, ये तापने के काम तो नहीं आ सकते ना। ऐसे में अंगीठी, चूल्हा अथवा अलाव ही काम आते हैं।

आजकल ठंड में भी रात की शादियां बड़े बड़े गार्डन और सुदूर रिसोर्ट में आयोजित की जाती है।

अब शादी में तो कम्बल ओढ़कर नहीं जा सकते।

ऐसी जगह तलाशी जाती है, जहां अलाव जल रहा हो। आग से चिपकने का मन करता है। आग, आगाह भी करती है, नेपथ्य में गीत भी बज रहा है, आपके पास जो आएगा, वो जल जाएगा। इतने में जलती आग से एक चिंगारी उछलती है, और आप छिटककर अलाव से थोड़ा दूर हो जाते हैं। फिर जब ठंडी हवा काटने लगती है, तो पुनः करीब आ जाते हैं।।

आजकल घरों में एयर कंडीशनर के अलावा रूम हीटर का उपयोग भी हो रहा है। नहाने के लिए तो गीजर है ही। कुछ ब्रिटिश काल के बंगलों में घरों के अंदर ही ड्रॉइंग रूम में एक फायर प्लेस भी होती थी, जो ठंड में पूरे कमरे को गर्म रखती थी। ऐसे मकानों में ऊपर बड़ी सी चिमनी की व्यवस्था भी करनी पड़ती थी, ताकि धुआं बाहर निकल सके।

हमारे किचन में से लालटेन, चिमनी, चूल्हा, और अंगीठी भले ही गायब हो गए हों, लेकिन चिमनी का प्रवेश फिर से ही गया है। भूल जाइए रौशनदान और रात को जलने वाली चिमनी, आज धुआं और प्रदूषण चिमनी द्वारा ही बाहर फेंका जाता है।

शायद विज्ञान जल्द ही अंगीठी, चूल्हा और अलाव का भी विकल्प ढूंढ ले।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 178 ☆ मखमल के झूले पड़े… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मखमल के झूले पड़े। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 178 ☆

☆ मखमल के झूले पड़े…

भावनाओं को सीमा में नहीं बाँधा जा सकता, हर शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ होता है जिसको परिस्थितियों के अनुसार हम परिभाषित करते हैं। लाभ – हानि , सुख- दुख ये मुख्य कारक होते हैं; व्यक्ति के जीवन में एक के लिए जो अच्छा हो जरूरी नहीं वो दूसरे के लिए भी वैसा हो। काल और समय के अनुसार विचारों में परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

परिभाषा वही सार्थक होती है जो दूरदर्शिता के आधार पर निर्धारित हो, इसी तरह कोई भी रचना जब भविष्य को ध्यान में रख वर्तमान की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है तो वो लोगों को अपने साथ जोड़ने लगती है तब उसमें निहित संदेश व मर्म लोगों को समझ आने लगता है।

केवल मनोरंजन हेतु जो भी साहित्य लिखा व पढ़ा जाता है उससे हमारे व्यक्तित्व विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु जब हम ऐसे लेखन से जुड़ते हैं जो कालजयी हो तो वो आश्चर्यजनक रूप से आपके स्वभाव को बदलने लगता है और जो संदेश उस सृजन में समाहित होता है आप कब उसके हिस्से बन जाते हो पता ही नहीं चलता अतः अच्छा पढ़े, विचार करें फिर लिखें तो अपने आप ही सारे शब्द व विचार परिभाषित होने लगेंगे।

यही बात जीवन के संदर्भ में समझी जा सकती है, निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिना शाखा के बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आँकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है , सच पूछे तो वास्तविक आंनद भी तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले। हम सब सौभाग्यशाली हैं, 500 वर्षों की तपस्या रंग ला रही है, भावनात्मक जीत का प्रतीक राम जन्मभूमि स्थान पुनः जगमगाने लगेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 253 ☆ व्यंग्य – मौसम ठंड का ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक व्यंग्य – मौसम ठंड का)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 253 ☆

? व्यंग्य – मौसम ठंड का ?

मौसम के बदलाव के साथ, हवाएं सुस्त और शीतल हो जाती हैं। सुबह सूरज को भी अपनी ड्यूटी पर निकलने के लिए कोहरे की रजाई हटानी होती है। ऑपरेशनल कारणों से बिना बताए हवाई जहाज लेट होने लगते हैं। द्रुत गति की ट्रेन मंद रफ्तार से चलने को बाध्य हो जाती हैं। कम्बल बांटने वाली समाज सेवी संस्थाओं को फोटो खिंचाने के अवसर मिल जाते हैं। स्थानीय प्रशासन अलाव के लिये जलाऊ लकड़ी खरीदने के टेंडर लगाने लगता है। पुराने कपड़ों को बांटकर मेरे जैसे लोग गरीबों के मसीहा होने के आत्म दंभ से भर जाते हैं। श्रीमती जी के किचन में ज्वार, बाजरे, मक्के की रोटी बनने लगती है। स्वीट्स शाप पर गुड़ के मेथी वाले लड्डू और गाजर का हलुआ मिलने लगता है। गीजर और रूम हीटर के चलते बिजली का बिल शूट होने लगता है।

मित्रों के मन में कुछ पार्टी शार्टी, पिकनिक विकनिक हो जाये वाले ख्यालों की बौछार बरसने लगती है। रजाई से बाहर निकलने को शरीर तैयार नहीं होता। बाथरूम से बिना नहाये ही बस कपड़े बदल कर निकल आना अच्छा लगता है। धूप की तपिश, पत्नी के तानों सी सुहानी लगने लगे। जब ऐसे सिमटम्स नजर आने लगें तो समझ जाइये कि ठंड का मौसम अपने शबाब पर है। ऐसे सीजन में  पुरानी शर्ट के ऊपर नई स्वेटर डालकर आप कांफिडेंस से आफिस जा सकते हैं। शादी ब्याह में बरसों से रखा सूट और टाई पहनने के सुअवसर भी ठंड के मौसम में मिल जाते हैं। ठंड की शादियों में एक अनोखा दृश्य भी देखने मिल जाते जो किंचित जेंडर बायस्ड लगता है। जब शीतलहर से जनता का हाल बेहाल हो तब भी  शादियों में महिलाओ को खुले गले के ब्लाउज के संग रेशमी साडी में रात रात भर सक्रिय देखा जा सकता है।

दरअसल फेसबुक डी पी के लिये, फोटो और फैशन के दम पर उनका बाडी थर्मोस्टेट बिगडा बिगडा नजर आता है। सुबह की कोहरे वाली सर्द हवा, कभी हल्की फुल्की बारिश और यदि कहीं ओले भी गिर गये तो गर्मी के मौसम में जिस नैनीताल मसूरी के लिये हजारों खर्च करके दूर पहाड पर जाना होता है, वह परिवेश स्वयं आपके घर चला आता है। अपनी तो गुजारिश है कि ऐसे बढ़िया ठंड के मौसम में रिश्तों को गर्म बनाये रखें और मूंगफली को काजू समझकर खायें, बस।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 223 ☆ व्यंग्य – लेखक का सन्ताप ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – लेखक का सन्ताप। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 223 ☆

☆ व्यंग्य – लेखक का सन्ताप

[1]

आदरणीय तुलाराम जी,

सादर प्रणाम।

मैं पिछले चालीस साल से कलम का मजदूर बना हुआ हूँ। अब तक सात उपन्यास और तेइस कहानी संग्रह निकल चुके हैं। मेरे लेखन के प्रसंशकों की अच्छी खासी संख्या है। लेकिन मैं इसे ऊपर वाले की कृपा मानता हूँ, वर्ना मेरे जैसे आदमी की औकात ही क्या है।

आप प्रतिष्ठित समीक्षक हैं। बहुत लोगों से  आपकी समीक्षा की तारीफ सुनी है। मेरे मित्र कहते हैं की आपकी समीक्षा लेखकों के लिए बहुत फायदेमन्द होती है।

मैं अपना सद्यप्रकाशित उपन्यास ‘ऊँट और पहाड़’ आपकी सेवा में समीक्षा के लिए भेज रहा हूँ। मेरे मित्रों की राय में यह बहुत उच्च कोटि का उपन्यास है। कुछ मित्र इसे दास्तायवस्की के ‘कारामाजोव ब्रदर्स’ की टक्कर का मानते हैं। अब आप निर्णय करें की वह किस स्तर का है। मैं आपकी समीक्षा तीन-चार अच्छी पत्रिकाओं में छपवा दूँगा। मेरे कई संपादकों से प्रेम-संबंध हैं, इसलिए दिक्कत नहीं होगी। समीक्षा जल्दी कर देंगे तो आपका आभारी हूँगा।

आपका

छेदीलाल ‘इंकलाबी’

[2]

प्रिय तुलाराम जी,

कल आपकी लिखी समीक्षा मिली। पढ़ कर बहुत निराशा हुई। आपने मेरे बहुचर्चित और लोकप्रिय उपन्यास को बचकानी और दिशाहीन बताया है जिससे मुझे गहरा आघात लगा है। अब मेरी समझ में आ गया कि लोग झूठमूठ ही आपकी तारीफ करते हैं, आप में तो निरक्षर आदमी के बराबर भी समझ नहीं है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आप जैसा अनाड़ी आदमी समीक्षा का महत्वपूर्ण काम कैसे कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है  कि आप समीक्षा करने के बजाय भाड़ झोंकते हैं। मैं आपके खिलाफ अभियान चलाऊँगा।

आपने लिखा है कि मेरी भाषा कमजोर है। आपने लिखा है कि मैंने कई जगह ‘स्थिति’ को ‘स्तिथि’, ‘प्रवृत्ति’ को ‘प्रवर्ती’, ‘प्रशंसा’ को ‘प्रसंशा’  और ‘तरन्नुम’ को ‘तरुन्नम’ लिखा है जो मेरी भाषा की अनभिज्ञता को दिखाता है। आपने यह भी लिखा है कि मैं ‘कि’ के स्थान पर ‘की’ लिखता हूँ जो बड़ी गलती है। यह सब फालतू मीन-मेख निकालने की बात है। भाषा की छोटी-मोटी गलतियाँ निकलने से कोई किताब बेकार नहीं हो जाती।

जाहिर हुआ कि आप मेरे प्रति दुर्भाव रखते हैं और किसी ने आपको मेरे खिलाफ भड़काया है। वर्ना आप मेरे स्तर के लेखक की किताब को इस तरह खारिज न करते।

आपकी लिखी समीक्षा मैंने डस्टबिन में डाल दी है। अब किसी दूसरे समझदार समीक्षक से लिखवाऊँगा। अभी साहित्य में समझदार समीक्षकों की कमी नहीं है।

भवदीय,

छेदीलाल ‘इंकलाबी’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 177 ☆ दाता भाग्यविधाता से क्या पाते… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “दाता भाग्यविधाता से क्या पाते…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 177 ☆

☆ दाता भाग्यविधाता से क्या पाते… ☆

जब कोई कार्य आपको दिया जाय तो समय नहीं है का बहाना बनाकर टाल देने की कला आपको कुछ कदम पीछे कर देती है। ऐसे पिछड़ते – पिछड़ते आप लुप्त हो जाते हैं। नियमितता का गुण आपको विजेता बनाता है पर ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं।

साल के 365 दिन बस एक लक्ष्य को साधते हुए दिनचर्या को व्यवस्थित करने की कला जिसमें हो वो भीड़ में सबसे अलग दिखता है। बिना परिश्रम कोई भी मूल्यवान वस्तु मिल तो सकती है पर हमेशा के लिए नहीं। भाग्य केवल लालसा जाग्रत करने का कार्य करता है जबकि मेहनत से मंजिल मिलती है।

जो व्यक्ति लक्ष्य का निर्धारण कर सत्य राहों पर निःस्वार्थ कार्य करता है वो सभी के लिए उपयोगी  होता है। सच्ची सोच वाले लोग दृढ़ निश्चय के साथ एक – एक करके कार्यों को पूरा करते जाते हैं। सबकी सहभागिता का ध्यान रखते हुए एक सूत्र में पिरोने का भाव उनको मंजिल तक पहुँचाता है। घोषणा तो बहुत लोग करते हैं पर गुणवान वही होता है जो अपने नेतृत्व के लिए जाना जाए।

अक्सर देखने में आता है कि तोड़फोड़ की प्रवृत्ति वाले लोगों में दोस्ती जल्दी होती है, संख्या बल का फायदा उठाते हुए वे समाज विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने लगते हैं।

अभी भी समय है जागिए और जगाइए राष्ट्रहित के विचारों का संवर्द्धन आपको सबकी नजरों में ऊपर उठाएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 176 ☆ सोता हुआ सागर जगा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “हिम के कणों से पूर्ण मानो…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 176 ☆

☆ सोता हुआ सागर जगा ☆

शुभ होता देख कर चिंतित होने वाले लोग आनन-फानन में अपना गुट बना लेते हैं और स्वयं को एक दूसरे का शुभ चिंतक बताते हैं। कथनी और करनी में भेद रखते हुए मोटिवेशनल स्पीच देना जबकि आत्म मंथन की जरूरत खुद को होती है पर मजबूरी जो न कराए वो थोड़ा है। मनभेद हो या मतभेद; भेद विचारों में जब-जब होगा कोई न कोई समस्या खड़ी करेगा। वैसे सच्चा लीडर समस्याओं में ही समाधान ढूँढ़ता है। कहा भी गया है कि वो जीवन ही क्या जिसमें समस्या न हो, इसे झेलकर ही व्यक्ति नयी खोजें करता आ रहा है।

आजकल प्रेरक व्यक्तित्व की बाढ़ सी आ गयी है, जिसे देखो अपना मोटिवेशनल चैनल बनाकर मिलियन सब्सक्राइबर की होड़ में लगा हुआ है। भले ही भोले भाले लोगों को बुद्धू क्यों न बनाना पड़े।

ऐसे बे सिर पैर के विचारकों पर पाबंदी लगनी चाहिए। अक्सर युवाओं को चमक-दमक व शार्टकट रास्ता प्रेरित कर जाता है जिसका नुकसान पूरा परिवार /समाज उठाता है। ऐसा व्यक्तव्य जिसका असर जनमानस पर पड़ता उसे प्रमाणिकता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। भले ही डिजिटल मंच क्यों न हो इसकी जबावदेही प्रस्तुत करने वाले को लेनी ही होगी।

एक और चलन जोरों से चल पड़ा है कि धर्म ग्रन्थों की व्याख्या लोग अपनी सुविधानुसार करने लगे हैं, संस्कृत के श्लोकों को व्यवसायिक तरीके से जिस भी तथ्य के साथ चाहें जोड़ते चलो कोई रोक टोक नहीं है बस मोटिवेशनल लगना चाहिए। किस संदर्भ में क्या उपयोगी होगा इसकी चिंता किसी को नहीं है, जोर-शोर से भीड़-भाड़ को आकर्षित करने की कला आनी चाहिए।

 खैर अति का अंत होता है, सो लोग जागरूक होकर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर होने वाले स्कैम के खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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