श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “दाता भाग्यविधाता से क्या पाते…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 177 ☆

☆ दाता भाग्यविधाता से क्या पाते… ☆

जब कोई कार्य आपको दिया जाय तो समय नहीं है का बहाना बनाकर टाल देने की कला आपको कुछ कदम पीछे कर देती है। ऐसे पिछड़ते – पिछड़ते आप लुप्त हो जाते हैं। नियमितता का गुण आपको विजेता बनाता है पर ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं।

साल के 365 दिन बस एक लक्ष्य को साधते हुए दिनचर्या को व्यवस्थित करने की कला जिसमें हो वो भीड़ में सबसे अलग दिखता है। बिना परिश्रम कोई भी मूल्यवान वस्तु मिल तो सकती है पर हमेशा के लिए नहीं। भाग्य केवल लालसा जाग्रत करने का कार्य करता है जबकि मेहनत से मंजिल मिलती है।

जो व्यक्ति लक्ष्य का निर्धारण कर सत्य राहों पर निःस्वार्थ कार्य करता है वो सभी के लिए उपयोगी  होता है। सच्ची सोच वाले लोग दृढ़ निश्चय के साथ एक – एक करके कार्यों को पूरा करते जाते हैं। सबकी सहभागिता का ध्यान रखते हुए एक सूत्र में पिरोने का भाव उनको मंजिल तक पहुँचाता है। घोषणा तो बहुत लोग करते हैं पर गुणवान वही होता है जो अपने नेतृत्व के लिए जाना जाए।

अक्सर देखने में आता है कि तोड़फोड़ की प्रवृत्ति वाले लोगों में दोस्ती जल्दी होती है, संख्या बल का फायदा उठाते हुए वे समाज विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने लगते हैं।

अभी भी समय है जागिए और जगाइए राष्ट्रहित के विचारों का संवर्द्धन आपको सबकी नजरों में ऊपर उठाएगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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