हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – जीडीपी आगे नागरिक पीछे – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

जीडीपी आगे नागरिक पीछे
(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का व्यंग्य  जीडीपी आगे नागरिक पीछे आपको जीडीपी की सांख्यिकीय  बाजीगरी के खेल और साधारण नागरिक की व्यथा पर विचार करने के लिए अवश्य मजबूर कर देगा।)
अश्विन एक नंबर से फेल हो गया. आधे नंबर का सवाल गलत हुआ और आधा नंबर माइनस मार्किंग में चला गया. नौकरी में भर्ती की प्रतियोगितात्मक परीक्षा. सीधा, सिंपल, स्ट्रेट जीके का सवाल. तीसरी तिमाही में भारत की जीडीपी दर कितनी थी ?सुबह के अखबारों में 6.8  प्रतिशत थी. परीक्षा देकर बाहर निकला तब तक दोपहर के अख़बारों में 7.2 प्रतिशत बताई गई थी. कॉपी चेक हुई उस दिन 9.7 प्रतिशत का आंकड़ा सामने आया. वही समयकाल, वही सांख्यिकी संस्थान, वही अर्थशास्त्री.मीडिया भी वही, श्रेय लेने वाला जननायक भी वही मगर आंकड़ा बदल गया. जीडीपी की गुगली से अश्विन अकेला आउट नहीं है – आप भी तो हैं. देश चीन से आगे निकल गया और आप हैं कि पान की गुमटी से आगे नहीं जा पा रहे. आंकड़े आप पढ़ नहीं पाते, पढ़ लें तो जान नहीं पाते, जान लें तो समझ नहीं पाते कि जैसे जैसे जीडीपी बढ़ती जाती है वैसे वैसे आप पीछे क्यों होते जाते हैं. आंकड़ों में ग्रोथ तो है जॉब नहीं है. उत्पादन है, सामान है खरीदने के पैसे नहीं हैं. स्कूल है, कॉलेज है, दवा है,डॉक्टर है, पाँच सितारा अस्पताल है, बस आपकी पहुँच में नहीं हैं. इतना पढ़कर ही खुश हो लेते हैं कि हम पीछे रह गए तो क्या देश तो आगे बढ़ा. अंगुली काली कराने और मशीन का खटका दबाने के बीच के तीस सेकण्ड में जीडीपी याद नहीं रहती,जाति याद रहती है.
जाति के ख्याल ने अश्विन को इष्टदेव का स्मरण कराया. साष्टांग प्रणाम करके उसने पूछा – हे संकटमोचन, मेरा उत्तर कहाँ गलत हुआ. आप ही बताइये तीसरी तिमाही में वृद्धि  की वास्तविक दर कितनी थी ? पवनपुत्र बोले– चीर के अपना सीना दिखाना आसान है सही सही जीडीपी बता पाना मुश्किल है. हमारे युग में न जीडीपी हुआ करे थी ना चुनाव. होते तो एक-दो चुनाव तो इसी मुद्दे पर निपट जाते कि चौदह साल के भरत भाई सा. के कार्यकाल में जीडीपी ज्यादा बढ़ी कि बड़े भैया के अयोध्या वापस आने के बाद विकास तेज़ हुआ. तुलसीदासजी ने दस हज़ार से ज्यादा दोहे, सोरठे लिखे मानस में मगर एक चौपाई में भी जीडीपी का उल्लेख नहीं करा. वरना आर्यावर्त के जननायकों में होड़ लग जाती कि हमने त्रेतायुग से ज्यादा विकास करा. बहरहाल, सांख्यिकी के बाज़ीगरों से पता करके अगलीबार बता पाउँगा.
अश्विन ने कहा – कोई बात नहीं प्रभु, इतना तो समझ ही गया हूँ कि आंकड़े महज़ आंकड़े नहीं होते. वे जादुई मिट्टी होते हैं. हार्वर्ड ग्रेजुएटेड दरबारी वित्तीय जादूगर उनसे वैसी आकृति बनाकर दिखा सकते हैं जैसी जननायक को पसंद आती है. जितनी देर में आप समंदर लाँघ पाते हैं उससे कम देर में वे पिछले दस पंद्रह साल की जीडीपी ग्रोथ रेट बदल लेते हैं. वे वन-टू-का-फोर, फोर-टू-का-सिक्स-इलेवन करने में निष्णात हैं. मौका-ए-जरूरत उसी कच्ची गीली मिट्टी से कीचड़ बनाकर जननायक को हेंडओवर कर देते हैं कि लो महाराज चुनाव आ गया है – फैंको इसे सामनेवाले पे.
तीन परिक्रमा देकर निकल गया अश्विन, उसके साथ उसकी पूरी पीढ़ी है,जॉब पोर्टल्स हैं, उन पर सबके सीवी हैं, बस साक्षात्कार के बुलावे बाकी हैं. आयेंगे, घबराईये मत,जननायक कह रहा है जीडीपी बढ़ रही है.
© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टीटी नगर, भोपाल, मोबाइल  9425019837

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – घुसपैठ के बहाने – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने आखिर रिटायर्ड लोगों की खोपड़ी  “घुसपैठ के बहाने “अच्छी तरह से खंगाल ही लिया। ) 

घुसपैठ के बहाने

रिटायर हुए लोगों से घुसपैठ पर बातचीत ………….

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck(नागरिकता और घुसपैठियों को लेकर सब परेशान हैं टीवी चैनल और पार्टी वाले ज्यादा परेशान हैं चुनाव के डर से। कुछ डुकरों के टाइम पास के लिए एक सवाल पूछा गया, सबके अलग अलग जबाब पढ़िये।) 

सवाल –  रिटायर होने के बाद टाईम पास कैसे कर रहे हैं ? घुसपैठ के बारे में आपके क्या विचार हैं ?

बंसल जी –   बैंक ने बीस साल पत्नी से दूर रखा ,अब हिसाब किताब पूरा कर रहा हूं , जमा नामे में फर्क को ढूंढ रहा हूं ।मोहल्ले वाले घुसपैठिया कह कहकर चिढ़ाने लगे हैं जब नौकरी में थे तो महीने दो महीने में घर आते थे तो सबसे मिलते – जुलते थे। अब घर ही में घुसे रहते हैं।

मिश्रा जी –   लोगों को समझा रहा हूं कि बैंक ने दो साल पहले क्यूं रिटायर किया ।पड़ोसन कहती है आपको बैंक ने भले रिटायर कर दिया है पर आप तो बिल्कुल जवान लगते हैं …….. जब से उसने ऐसा कहा है तभी से उनके घर में हमारी घुसपैठ बढ़ गई है।

तिवारी जी –  अरे साहब बिल्कुल मस्त हो गए हैं ,मस्ती कर रहे हैं ,पड़ोसन से गप्प करते हैं , उनके छोटे – मोटे काम कर देते हैं, घरवाली से थोड़ा झगड़ा – अगड़ा कर लेते हैं। बाकी टाइम में टीवी चैनलों पर 40 लाख घुसपैठियों के ऊपर चलने वाली बहसें और वोट राजनीति का मजा लेते रहते हैं।

जोशी जी –  जब तक नौकरी में रहे, बैंक को खूब चूना लगाया ,चूना लगाने की आदत पड़ गई थी ,इसलिए चूना लगाने की जगह तलाशते हैं ।अच्छे नागरिक बनने की कोशिश कर रहे हैं पर असाम के चुनाव के पहले नागरिकता पर सवाल अचानक बहुत उठ गए हैं। घुसपैठियों पर नजर रखते हैं पर चुप रहते हैं इसलिए मोहल्ले के बच्चे चिढ़ाने लगे हैं,

“जोशी पड़ोसी कुछ भी देखे, हम कुछ नहीं बोलेगा”

बतरा जी –  देखो साधो, अपनी शुरु से खुचड़ करने की आदत रही है। इसीलिए हर बात में खुचड़ करके टाइम पास कर लेते हैं। बैंक वालों से जाकर लड़ते हैं, कांऊटर वाली को परेशान करते हैं, फिर घर आकर पत्नी को पटाते हैं। मेहमानों की घुसपैठ से परेशान हो गए हैं इसलिए घुसपैठियों के बारे में कुछ बोलना अभी ठीक नहीं है।

नेमा जी –   कुछ नहीं यार, हर दम कुछ नहीं करने के बारे में सोचते रहते हैं। मन में सैकड़ों इच्छाओं का द्वंद चलता रहता है मन में ऊंटपटांग इच्छाओं की घुसपैठ के कारण किसी काम में मन नहीं लगता। माल्या और नीरव मोदी की नागरिकता पर चिंतन – मनन करते हैं। जब वे लोग पचीस तीस हजार करोड़ रुपये खाकर भाग गए तो सरकार पासपोर्ट जब्ती पर नये नियम बनाने का सोच रही है इस बात से और परेशान हो गए हैं।

शर्मा जी –  भोजन भजन फटाफट करते हैं, फिर भविष्य फल पढ़ के नर्मदा मैया के दर्शन करते हैं, लौटते समय भंवरलाल पार्क में डुकरों के साथ चुनाव और घुसपैठियों पर बहस लड़ाते हैं फिर बस पकड़कर मंदिर के सामने बैठ जाते हैं।

जैन साब –  लड़के की दुकान में बैठ के हिसाब किताब करके कुछ महिलाओं को गलत नं के कपड़े दे देते हैं ।

विचारधारा की घुसपैठ के कारण लड़की की जमीं जमाई शादी टूट गई इसलिए लड़की की शादी के लिए बाकी टाइम में लड़का ढूंढते हैं, दरअसल में लड़की ने लड़का पसंद कर लिया था शादी के कार्ड भी छप गए थे, प्रधान सेवक की आर्थिक नीतियों पर लड़के लड़की में बहस हो गई लड़का अंधमूक समर्थक था तो शादी टूट गई।

विश्वकर्मा जी –  पंचर की दुकान खोल ली है ,पंचर करने और बनाने में टाइम का पता नईं चलता। बरसात के गड्ढों में छुपीं कीलें टायर ट्यूब में घुसपैठ कर जाते हैं तो बिजनेस बढ़िया चलता है।

पांडे जी – रिटायर होने के बाद तम्बाकू चूना मलने का शौक पाल लिया। ऊंगली में चूना लगाके घिसाई करने में मजा आता है फिर बढ़िया पान लगवा कर रगड़ा डाल देते हैं,पान वाले से  बतियाते हुए पीक मारते हैं और दो चार ठो पान और लपटवा के डाक्टर के यहां की लाइन में लग जाते हैं। पैरों में आयी सूजन के लिए डाॅ का कहना है कि पेट में पटारों ने घुसपैठ की है।

सोनी जी –   पूछ के क्या करोगे, बैंक ने कुछ करने लायक ही नहीं छोड़ा, पूरा चूस लिया, प्रमोशन की परीक्षा में नागरिकता और घुसपैठियों का निबंध नहीं लिख पाए थे तो प्रमोशन भी नहीं दिया और लफड़ों में फंसाकर वीआरएस दे दिया।

गुप्ता जी –  का बतायें भैया… रिटायर का हुए ,कोई कुछ समझतै नैई हैं, न घर के न घाट के । बीबी कुत्ता जी कह के बुलाती है और बीच-बीच में घुसपैठिया घोषित करने की धमकी देती है।

स्वामी जी –  कोई काम न धाम तो डी ए का हिसाब लगाते रहते हैं समझ नईं आत तो बैंक मनेजर के पास चले जात हैं। बैंक वाला चिढ़ने लगा है गार्ड घुसने नहीं देता। आजकल डिबिया में किमाच लेकर जाते हैं जो भी मिसबिहेव करता है उसकी सीट तरफ फूंक देते हैं।

वर्मा जी– देखो भाई हम शुद्ध लाला ठहरे ,अभी भी ला ..ला…के चक्कर में रहते हैं

पहले कुछ फायदा कराओ तब सवाल का जबाब पाओ।

श्रीवास्तव जी – रिटायर होने होने के बाद ज्यादा ही काम बढ़ गए हैं, आंख ,नाक ,दिल की सर्विसिंग कराने के चक्कर में डाक्टरनी से इश्क में पड़ गए हैं। “जब सबै भूमि गोपाल की” तो कहां के घुसपैठिया……. और कैसी नागरिकता…. ।

**********अभी इतने लोग से ही बात हो पाई है,आपकी और किसी से इस बारे में बात हो तो जरूर बताईयेगा …..

सादर अभिवादन

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – जिनगी का यो यो बीप टेस्ट – श्री शांतिलाल जैन 

श्री शांतिलाल जैन 

जिनगी का यो यो बीप टेस्ट

(आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी का यह व्यंग्य कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा था। सम्पूर्ण व्यंग्य मात्र एक पोस्ट की तरह जिसमें  कहीं भी उनके नाम का उल्लेख नहीं था। जब यह व्यंग्य उन्होने मुझे भेजा और मैंने इस सच्चाई से उन्हें अवगत कराया तो बड़ा ही निश्छल एवं निष्कपट उत्तर मिला – “मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया। लिखा, कहीं छप गया तो ठीक, फिर अगले काम में लग गए।” उनके इस उत्तर पर मैं निःशब्द हूँ, किन्तु ,मेरा मानना है की हम सबको सबके कार्य और नाम को यथेष्ट सम्मान देना चाहिए।)

“हलो अम्मा, हम गोपाल बोल रहा हूँ…..परणाम……हम ठीक हूँ अम्मा…वारंगल आ गया हूँ….काहे ? काहे क्या अम्मा, हम बताये था ना आपको… हम ‘यो यो टेस्टवा’ पास कर रहे हैं. का बतायें अम्मा…..जिनगी के खेल में बने रहना है तो यो यो टेस्टवा तो पास करना ही पड़ेगा ना… का है कि फेल हो जाते तो मार दिये जाते….क्या पूछ रही हो…..कि क्या होता है ई टेस्टवा में. केतना तो छप रहा पेपर में. हम भी पेपर में ही पढ़े हैं. तुम समझ नहीं सकोगी अम्मा फिर भी बताये दे रहे हैं….ई टेस्टवा में दो सीधी गईल लाइन पर तनिक तनिक दूरी पर कई कोनवा रखे जाते हैं जिनके बीच बीस मीटर की दूरी होईल है. दौड़नेवाला एक लाईनवा के पीछे अपना पांव रखकर शुरुआत करता है और ईशारा मिलते ही दौड़ने लगता है. दो कोनवा के बीच की दूरी पर बनी दो लाईनों के बीच लगातार दौड़ना पड़ता है अम्मा और जब एक घंटी सी बजती है जिसे बीप कहते हैं तब मुड़ना होता है. हर बीप पर तेज़ और तेज दौड़ना होता है. तो अम्मा…शहर क्या कोन्स समझो. छपरा से सिलचर. सिलचर से जयपुर. जयपुर से रायपुर. रायपुर से भिवंडी. भिवंडी से राजकोट. राजकोट से वारंगल. दूरी मीटरवा में नहीं किलोमीटरवा में. लट्ठ की बीप बज उठती है तो पहले से तेज़ भागना पड़ता है अम्मा. ये हमरे जिन्दा रहने के‘यो-यो बीप टेस्ट’ हैं. आप तो जानती हो अम्मा पाँव जिस रेखा के पीछे रहा उसे ये लोग गरीबी की रेखा कहते हैं, बाबा के संकेतवा पे दौड़ना शुरू किये थे. पहला कोन सिलचर में रहा, दूसरा भिवंडी में, अभी आखिरी बीपवा राजकोट में बजल रहा.

…बस अम्मा आपका आशीरवाद ठहरा जो किसी तरह इस कोनवा तक आ गए. रेल छत पर भी तिल रखने की जगह नही थी. हम तो तीन बार बिजली के तार से टकराते टकराते बचे हैं मगर हाजीपुरवाला नरेन अँधेरे में छत से कब कहाँ गिरा पता भी नहीं चला. रोओ मत अम्मा….दरद कैसा ? टेस्टवा पास करने की खुसी में डंडा खाने का दरद भूल गए हैं.

अम्मा….बाबा बचपन में कहते थे ना हम भारतीय हैं – गलत कहते थे. हर कोन पर हम बिहारी हैं अम्मा. बीप बजानेवाले असमी, मराठी, गुजरती, तेलुगु या ऐसे ही कुछ कुछ हैं. केतना केतना दौड़े हैं – भारतीय कोई नहीं मिलल. का बताई अम्मा… टेस्टवा की बीप बजानेवाले महीनों काम करा लेते हैं फिर बिना पगार दिए बीप बजा देते हैं ससुरे. हम तो फिर भी दौड़ लेब अम्मा  – आपकी बहू मुश्किल से दौड़ पाती हैं. चिंकू को गोद में उठाये, परी को पीठ पर लादे गिरस्ती का सामानवा लिए दौड़ते हैं अम्मा. किसी तरह पहुँच जाते हैं दूसरे कोन पे…..हेलो अम्मा.. सुन रही हो….बाबा कहते थे ना अम्बेडकरजी लिखलवा क़ानून का केताब में कि सब बराबर हैं – ऊ गलत कहिन. लट्ठ उनकी केताब पे भी भारी पड़ता है. .. अभी रहेंगे यहाँ हम…यहाँ नई राजधानी बन रही है सो बीप बजने में समय बाकी है अभी… चलो रखते हैं… दस रूपये का रिचार्ज करवाए थे. बेलेंस ख़तम होने को है. खुसी बस इतनी कि जिनगी का यो यो टेस्ट किलियर करते जा रहे हैं…. अपना ख़याल रखना अम्मा. परणाम.

© श्री शांतिलाल जैन 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक बहके बुजुर्ग का संकट – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

एक बहके बुजुर्ग का संकट

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी विगत पाँच दशक से भी अधिक समय से साहित्य सेवा के लिए समर्पित हैं।  चालीस वर्ष तक महाविद्यालयीन अध्यापन के बाद 2001 में जबलपुर के गोविन्द राम सेकसरिया अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। आप म.प्र. हिन्दी  साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार एवं राजस्थान पत्रिका के सृजनशीलता सम्मान से सम्मानित हैं।  आपके  पाँच कथा संग्रह एवं दो व्यंग्य संग्रह  प्रकाशित हो चुके हैं।  साथ  ही  200  से अधिक कहानियाँ एवं लगभग इतने ही व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 

बब्बू भाई करीब पैंतीस साल की शानदार सेवा करके दफ्तर से बाइज़्ज़त और बेदाग़ रिटायर हो गये। रिटायर होने के बाद ज्यादातर रिटायर्ड लोगों की तरह न घर के रहे, न घाट के। रोज सवाल मुँह बाये खड़ा हो जाता कि कहाँ जायें और क्या करें। घर में ज्यादा धरे रहें तो आफत, ज्यादा घूमें घामें तो आफत।

बब्बू भाई की पूजा-पाठ में कभी रुचि रही नहीं। कभी घरवालों का जोर पड़ा तो मंदिर हो लिए, कभी घर में पूजा हुई तो यंत्रवत खानापूरी कर ली, और उसके बाद फुरसत। इसलिए रिटायरमेंट का वक्त पूजा-पाठ में गुजारने का वसीला नहीं बना, जो बहुत से रिटायर्ड लोग करते हैं।
बब्बू भाई सबेरे उठकर पास के पुल की तरफ निकल जाते। वहाँ धीरे धीरे टहलते रहते। पुल की दीवार से टिककर कानों में इयर फोन लगाकर पसंद के गाने सुनते रहते। इसी में घंटा डेढ़ घंटा कट जाता। कोई परिचित मिल जाता तो आराम से बात भी हो जाती।

इधर कुछ दिन से बब्बू भाई पास के पार्क में जाने लगे हैं। पार्क साफ-सुथरा है। घूमने के लिए पक्की पट्टी है, बैठने के लिए पत्थर की बेंचें हैं, बीच में हरी घास का मैदान है। बब्बू भाई गीत-गज़ल के शौकीन हैं। समझ भी रखते हैं। मोबाइल में यू-ट्यूब पर गज़लें लगा लेते हैं। बेंच पर बैठकर बड़ी देर तक सुनते रहते हैं और वाल्यूम बढ़ा देते हैं ताकि आसपास के लोग भी आनंद लें। बेगम अख्तर, जगजीत सिंह, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, नूरजहां, मलिका पुखराज के स्वर देर तक गूंजते रहते हैं। आजू-बाजू में टहलते लोग उन सुरों को सुनकर कुछ देर ठमक जाते हैं।

बब्बू भाई पार्क से संतुष्ट होकर, अच्छे संगीत को बांटने का एहसास लेकर लौटते हैं। बड़ी देर तक मूड अच्छा बना रहता है।
लेकिन मुहल्ले में बब्बू भाई के खिलाफ कुछ और खिचड़ी पकने लगी। मुहल्ले की महिलाओं ने बब्बू भाई की पत्नी से शिकायत की कि बब्बू भाई के लच्छन कुछ अच्छे नहीं हैं, वे पार्क में बैठकर ऊटपटाँग गाने सुनते रहते हैं। शिकायत है कि उनका आचरण बुजुर्गों जैसा कम और लफंगों जैसा ज्यादा है।

बब्बू भाई की पत्नी किराने की दूकान पर मुहल्ले की ‘बुआ जी’ से मिलीं तो बात और तफसील से हुई। बुआ जी बोलीं, ‘बहन अब क्या बतायें। आपके हज़बैंड पार्क में रोज इश्क विश्क वाले गाने लगाकर बैठ जाते हैं। कोई बेगम हैं जो गाती हैं– ‘अय मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, कोई गाती हैं ‘आज जाने की जिद न करो, यों ही पहलू में बैठे रहो’, मतलब यह सब कि सब काम-धंधा छोड़कर इनके बगल में धरे रहो। एक और गाती हैं ‘अभी तो मैं जवान हूँ।’ अब बताओ भैना, आपके हज़बैंड को इस उमर में ये गाने सुनना शोभा देता है क्या? बुढ़ापे में कोई गाये कि अभी तो मैं जवान हूँ तो कैसा लगेगा? एक और पाकिस्तानी गायक हैं जो गाते हैं कि तेरा छत पे नंगे पांव आना याद है। अब बताओ मुहल्ले के लड़के ये गाने सुनेंगे तो उनके दिमाग पर क्या असर पड़ेगा? वैसे ही नयी पीढ़ी का सत्यानाश हो रहा है। आपके हज़बैंड को चाहिए कि परलोक की चिन्ता करें और भजन कीर्तन वगैरह सुनें। उन्हें सत्संग में भेजा करो। संस्कार चैनल दिखाया करो। इस उम्र में इश्क के गाने सुनकर परलोक नहीं  बनने वाला।’

बुआ जी आगे बोलीं, ‘और फिर आपके हज़बैंड ज़्यादातर पाकिस्तानी गायकों के गाने क्यों सुनते हैं? पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। हम पाकिस्तानी गायकों को घुसने नहीं देते। लेकिन आपके हज़बैंड उन्हें कान से और दिल से चिपकाए रहते हैं। ये अच्छी बात नहीं है। इससे आपके हज़बैंड की देशभक्ति पर सवाल उठता है।’

बब्बू भाई की पत्नी ने लौटकर सब पति को बताया। बब्बू भाई भी चिंता में पड़ गये। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी!

अब बब्बू भाई पार्क में बैठते तो मुहल्ले की महिलाएं टहलते टहलते रुककर सुझाव देने लगतीं -‘भाई साहब, हरिओम शरन लगा लीजिए। ‘तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार’ या ‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे  आऊँ ‘।अनूप जलोटा को लगाइए। गजल वजल सुनना भूल जाएंगे। ‘ बब्बू भाई अब इयरफोन से ही सुनते ताकि आसपास के लोगों को हवा न लगे कि वे क्या सुन रहे हैं।

बब्बू भाई के पास अब सत्संग में चलने के निमंत्रण आने लगे। बब्बू भाई बहाना बनाकर बचते। मुहल्ले वाले उन्हें सुधारने पर आमादा हो गये थे। बुआजी ने बब्बू भाई की पत्नी को यह सलाह दे दी थी कि हर साल बब्बू भाई को तीर्थयात्रा पर ले जायें और हर महीने घर में सुन्दरकांड का पाठ करायें।

इस चौतरफा हमले से परेशान बब्बू भाई फिलहाल अंतर्ध्यान हो गये हैं। सुना है कि वे ससुराल-सेवन के लिए निकल गये हैं। एक दो महीने वहाँ रहेंगे, फिर दूसरी रिश्तेदारियां खंगालेंगे। फिलहाल उनका शहर लौटने का इरादा नहीं है। उम्मीद की जा रही है कि उनकी अनुपस्थिति से मुहल्ले का प्रदूषण-स्तर कुछ कम हो जायेगा।

यह भी चर्चा है कि उनका इरादा नर्मदा किनारे एक दो एकड़ ज़मीन खरीदने का है जहाँ वे कुटिया बनाकर रहेंगे और जहाँ उन्हें टोकने और नसीहत देने वाला कोई न होगा।

© डॉ कुन्दन सिंह परिहार (मो. 9926660392)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आँचल : एक श्रद्धांजलि – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 
‘आँचल : एक श्रद्धांजलि’
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।) 
3 जुलाई, 2048. ऑप्शनल सब्जेक्ट हिंदी, क्लास टेंथ. भावार्थ के लिए मैम ने कविता पढ़ी -“अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी”
“मैम, ये आँचल कैसा होता है ?”  अचकचा गई मैम. कैसे बताये ?
“आँचल पल्लू जैसा होता है.”
“मैम, ये पल्लू कैसा होता है ?” – एक स्टूडेंट ने पूछा.
“ओके. दुपट्टा देखा है ? या तुमारा ग्रान’मा का फोटू में कभी साड़ी, ओढ़नी, चुन्नी देखी होगी…वो भी नहीं……ओके. नो प्रॉब्लम. लुक एट मी, लाइक हम मॉडर्न इंडिया का वुमंस जींस और टॉप पहनता हैं ना. पहले का वुमन सलवार-कुर्ता-दुपट्टा पहनता था.” – मैम कविता से कपड़ों पर आ गई. पसंद का विषय. उन्होंने प्रोजेक्टर पर एक ओल्ड हेरिटेज साईट ऑन की.  “लुक हियर, ये सलवार, ये कुर्ता और उसके ऊपर ये जो दुपट्टा है ये पहनना कम्पलसरी था.”
“व्हाय मैम ?”
“हमारा कंट्री बैकवर्ड और दकियानूस होता था इसीलिए. जैसे जैसे कंट्री मॉडर्न बनता गया वैसे वैसे दुपट्टा कम्पलसरी से ऑप्शनल होता चला गया. उसकी जगह भी बदलती गई. पहले वो पूरे सीने पर था, फिर गले में लिपटा, फिर कंधे पर झूला. फिर लुप्त हो गया.”
“किसी ने उसे सेव नहीं किया ?”
“बचाने की कोशिशें पहले होती थीं.  एक बार एक हीरोईन ने कम्प्लेंट की – हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का. उड़ानेवाले की हवा टाईट करना पड़ी मगर दुपट्टा बचा लिया गया. ऑनलाइन कम्प्लेंट करने का चलन तो था नहीं, मीनाकुमारी को डांस परफॉर्म करके पुलिसवालों की कम्प्लेंट करानी पड़ी. बोला –‘सिपहिया से पूछो जिसने बजरिया में छीना दुपट्टा मेरा.’  पुलिसवाले को लाइन अटैच करके दुपट्टा वापस दिलवा दिया गया. फिर आर्थिक सुधारों के ट्रोजनहार्स में छुपकर जो हवा आई उसने लाल, पीले, हरे, मलमल के, शिफोन के, जार्जेट के हर तरह के दुपट्टे उड़ा दिये. अंकल सैम की हवा दिखती नहीं है मगर वह जिस देश में चल निकलती है भाषा,संस्कृति, संस्कार सब उड़ा ले जाती है.”
“मैम, वो पोयट आँचल, दूध, आँखें पानी – ऑल दिस क्यों लिखता था ?”
“हिन्दी का पोयट था ना. ओनली हिंदुस्तान और हिंदुस्तानी में जीता था. ऐसा हिन्दी ही नहीं उर्दू का पोयट ने भी लिखा. यू नो, हिंदी-उर्दू का पोयट लोग का कारण हमारा देश अर्ली मॉडर्न नहीं बन सका. मौलाना हसरत मौहनी ने एक बार गलती से खेंच लिया पर्दे का कोना दफ़अतन.  महबूबा का वो मुँह छुपाना  उनकी मेमोरी में स्टोर हो गया. उन्होने गुलामअली साहब को लिखकर दिया जिन्होने लाखों लोगों को ये इंसिडेंस गा गा कर सुनाया. कितना लोग का कितना टाईम वेस्ट किया. तब कंट्री डिसाईड किया आगे से नो मोर दुपट्टा नो मोर मुँह छुपाना. उर्दू का पोयट के लिए तो रुख से सरकती थी नकाब आहिस्ता अहिस्ता. जवान लोग काम-धंधा छोड़कर घंटों छज्जे आई मीन बॉलकनी के सामने सरकी नकाब की एक झलक पाने के लिए खड़े रहते थे. प्रोडक्शन में कितने मेन-अवर्स का लॉस हुआ ! जीडीपी वेरी-वेरी लेट से बढ़ा.”
(क्लास में आखिरी बेंच पर बैठे एक लड़के ने दूसरे से फुसफुसा कर कहा – अबी वो सब चक्कर ख़त्म. अवनि से पूछ लिया आती क्या खंडाला. नखरे करे तो नेहा को लेकर निकल जाने का. टेंशन लेने का नई.)
“साईलेंट प्लीज.  नो क्रास टॉक.”
“मैम वो पोयट ने आँचल क्यों बोला दुपट्टा क्यों नहीं?”
“आँचल नार्मली साड़ी के पल्लू को कहते थे.”  मैम ने वेब-पेज बदला – “सी दिस ओल्ड फैशंड लेडी. इसने जो पहन रखा है उसे साड़ी कहा जाता था. मोस्ट बेकवर्ड इंडिया में वुमंस का यही मेन ड्रेस होता था. साड़ी का ये जो पार्ट दिख रहा है ना – कंधे से सामने नीचे आता हुआ इसे ही आँचल या पल्लू कहा जाता था. पोयट इसी की चर्चा कर रहे हैं. दूध से उनका आशय माँ की ममता से है जो कि अब भी वहीँ है और बच्चे का स्नेह भी वहीँ है – बस वो आँचल गायब हो गया है.”
गायब तो हिन्दी का कवि, उसकी कविता और उसका भावार्थ भी हो गया है बट एच्छिक विषय में सब चलता है. घंटी बजी. पीरियड ख़त्म हुआ. बाहर जाते जाते मैम ने कहा –“मैं क्राफ्टवाली मैम को बोलती हूँ. वो तुमको क्लॉथ लाकर दुपट्टा बनाकर सबमिट करने का प्रोजेक्ट करवायेंगी. ए ट्रिब्यूट टू अवर कल्चर बाय दुपट्टा.”
© शांतिलाल जैन

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – सबसे बड़ा रुपैया – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

(यह व्यंग्य बेशक श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर लिखा था किन्तु, अब भी सामयिक लगता है।)

सबसे बड़ा रुपैया

पहले कोई नहीं जानता था कि कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी होता था। रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी हो गई होती। पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था, तभी तो हर गली मुहल्ले के रेडियो में एक ही गाना बजता रहता था…….

“पांच रुपैया बारह आना,
मारेगा भैया ना ना न”

तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजबेगजब हो गया…

“बेटा भला न भैया
सबसे बड़ा रुपैया”

वाली बात सबके अंदर समा गई है बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि आजादी के सत्तर साल का भाषण लाल किले से होने वाला है उसी दिन टंगड़ी मार के रुपये को सत्तर के चक्कर में गिरा दिया। लाल किले के भाषण की कीमत गिरा दी, डालर को पहले से पता चल गया होगा कि भाषण में लटके झटके ज्यादा होंगे, हर बात पर सत्तर साल का जिक्र आयेगा हर बार यही कहा जाएगा कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ, डालर दूरदर्शी है भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटक दिया। जो लोग डालर पहन के भाषण सुनने आये थे उनकी अंडरवियर गीली हो गई एलास्टिक जकड़ गई। गंगू  हमेशा से पट्टे वाली चड्डी पहनता है, इकहत्तर रुपये वाली डालर कभी नहीं पहनता। पट्टे वाली चड्डी में ये सुविधा रहती है कि अपनी सुविधानुसार नाड़े को कस लो, डालर में नाड़ा डालने की जगह ही नहीं बनाई गई।

बाजार में हर चीज पर एम आर पी लिख कर कीमत तय कर दी जाती है रुपये में कभी एम आर पी लिखा नहीं जाता।बड़े बाजार में रुपए को पतंग बना के उड़ाया जाता है और पतंग की डोर डालर के बाप के हाथ में होती है। डालर का बाप हाथ मटका मटका कर कभी पतंग नहीं उड़ाता और न अच्छे दिन की दुहाई देता। जो जबरदस्ती गले लगने लगता है उसकी जेब काट लेता है और समय आने पर उठा कर पटक देता है।

अगर कभी रुपये की कीमत की बात होती है तो सबसे पहले उसकी तुलना डालर से करते हैं और ये भी सच है कि जब देश आजाद हुआ था तब एक रुपया एक डालर के बराबर हुआ करता था। हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर  जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का संसद में सोने का शौक और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम दिनों दिन बढ़ेगा और इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  जब रुपये को पटक कर इकहत्तर पर पहुंचा दिया तो भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कह रहा है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

गंगू बहुत परेशान है माथे पर हाथ टिकाए सोच रहा है अजीब बात है सरकार कह रही है कि सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ और पुरानी सरकार की लकवाग्रस्त नीतियों से रुपये की कीमत गिरी है अब जब चार साल से विकास ही विकास हो रहा है और अच्छे दिन का डंका बज रहा है तो रुपया और तेजी से क्यों गिर रहा है और इकहत्तर पार करने की तैयारी में है।  रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से गंगू चिंतित है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में सरकार द्वारा जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है। हालांकि  रुपये की गिरावट से गंगू भी परेशान हैं घरवाली ताने मारती है और ये गाना गाती है…….

“ता थैया ता थैया,
आमदनी अठन्नी,
खर्चा रुपैया”

© जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – उल्लू की उलाहना – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

दीपावली पर विशेष 


जय प्रकाश पाण्डेय 

उल्लू की उलाहना

इस दीवाली में ये उल्लू पता नहीं कहाँ से आ गया। पितर पक्ष में पुड़ी-साग और तरह-तरह के व्यंजन लेकर हम इंतजार करते रहे पर एक भी कौए नहीं आये। जब दशहरा आया तो नीलकंठ के दर्शन को हम लोग तरस गए थे बहुत कोशिश की थी दर्शन नहीं मिले। शहर भी कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया तो और नहीं दिखते। पर इधर दीवाली के दो दिन पहले से घर के सामने लगे बड़हल के पेड़ पर बिन बुलाए एक उल्लू आकर बैठ गया है। समधन ने पत्नी को डरा दिया है इसलिए पत्नी चाहती है कि इसे किसी भी तरह से यहां से भगाओ। आँगन में लगे अमरुद के पेड़ कटवाने के लिए समधन पीछे पड़ गयीं थीं, अब उल्लू के पीछे पड़ीं हैं भरी दिवाली में समधन हम पति-पत्नी के बीच झगड़ा कराने उतारू हैं।

हालांकि दीवाली जब भी आती है तो दुनिया भर के तंत्र मंत्र, भूत-प्रेत की बातों का माहौल बन जाता है। हमने पत्नी को बहुत समझाया कि पहले पता तो कर लें कि अचानक उल्लू क्यों आकर बैठ गया है, भूखा-प्यासा होगा, या किसी ने उसे सताया होगा, किसी सेठ ने उसे पकड़ने की कोशिश की होगी। या हो सकता है कि लक्ष्मी जी ने पहले से अपने घर का जायजा लेने भेजा हो,…. हो सकता है कि इस बार वो इसी उल्लू में सवार होकर अपने घर आने वालीं हों, पर पत्नी एक भी बात नहीं मान रहीं हैं समधन की बात को बार-बार दुहरा रही है।

रात भर हम आंगन में बैठे रहे… उल्लू हमें देखता रहा, हम उल्लू को देखते रहे। एक चूहा भी मार के लाए कि भूखा होगा तो पेड़ से उतर के चूहा खा लेगा पर वो भी टस से मस नहीं हुआ। हमने पहल करते हुए उससे कहा कि हम भी तो उल्लू जैसे ही हैं हर कोई तो हमें उल्लू बनाता रहता है। मी टू की धौंस देकर दोस्त की बीबी ने पांच लाख ठग लिए।

प्रेम में वो ताकत है कि हर कोई पिघल जाता है सो हमने बड़े प्यार से उल्लू से कहा – उल्लू बाबा, यहां क्यों तपस्या कर रहे हो कोई प्रॉब्लम हो तो बताओ?

उल्लू अचानक भड़क गया बोला – सुनो.. हमें बाबा – आबा मत कहना…. बाबा होगा तुम्हारा बाप… समझे, हम महालक्ष्मी जी के सम्मानजनक वाहन हैं और यहां इसलिए आये थे कि चलो इस दीवाली में तुम लोगों को कुछ फायदा करा दें.. पर ये तुम्हारी पत्नी दो दिन से मुझे भगाने के लिए बहुत बड़बड़ा रही है। दरअसल क्या है कि इस दीवाली में लक्ष्मी जी का इधर से गुजरने का श्येडूल बना है सो लक्ष्मी जी ने कहा कि रास्ते का कोई घर देख लो जिनके घर में थोड़ा देर रुक लेंगे, पर ये बड़बड़ाती पत्नी को देखकर लक्ष्मी जी नाराज हो जाएंगी।

अब बताओ क्या करना है ? हालांकि दो दिन में हमने देखा कि तुम बहुत सीधे-सादे सहनशील आदमी हो, सीधे होने के कारण हर कोई तुम्हे उल्लू बना देता है, तुम पर दया आ रही है, तो बताओ क्या करना है ?

हम हाथ जोड़ के खडे़ हो गये बोले – गुरु महराज… ऐसा न करना, पचासों साल से लक्ष्मी जी के आने के इंतजार में हम लाखों रुपये खर्च कर चुके हैं, प्लीज इस बार कृपा कर दो… लक्ष्मी जी को पटा कर येन केन प्रकारेण ले ही आओ इस बार…. प्लीज सर,  –उल्लू महराज को थोड़ा दया सी आयी बोले – चलो ठीक है विचार करते हैं, पर जरा ये पत्नी को समझा देना हमारे बारे में समधन से बहुत ऊटपटांग बात कर रही थी समधन को नहीं मालूम कि हमें घने अंधेरे में भी सब साफ-साफ दिखता है रात को जहां-जहां लफड़े-झफड़े होते हैं उनका सब रिकॉर्ड हमारे पास रहता है, नोटबंदी की घोषणा के एक-दो दिन पहले सेठों और नेताओं के घर से कितने नोटों भरे ट्रक आर-पार हुए हमने रात के अंधेरे में देखा है। मोहल्ले की विधवाओं के घर कौन-कौन नेता रात को घुसते हैं वो भी हम अंधेरे में देखते रहते हैं।

तंत्र मंत्र करके बड़े उद्योगपति और नेताओं के सब तरह के लफड़े – झपड़े रात को अंधेरे में देखे हैं ये बाबा जो अपने साथ राम का नाम जोड़ के जेल की हवा खा रहे हैं इन्होंने हजारों उल्लूओं के अंगों के सूप पीकर अपनी यौन शक्ति को बढ़ा बढ़ाके रोज नित नयी लड़कियों की जिंदगी खराब की है। यों तो तरह-तरह की किस्म के उल्लू सब जगह मिलते हैं जैसे गुजरात तरफ पाये जाने वाले झटके मारने में तेज होते हैं हमें आज तक समझ नहीं आया कि लोग अपने आप को ऊल्लू के पट्ठे क्यों बोलते हैं कई लोगों की चांद में कमल का निशान बना रहता है कमल के ऊपर लक्ष्मी जी को बैठने में सुविधा होती है ऐसे लोगों के पुत्र लक्ष्मी जी को प्रसन्न करके मालामाल हो जाते हैं………

ऊल्लू पहले तो बोलता नहीं है और जब बोलना चालू होता है तो रुकता नहीं है।  बीच में रोक कर हमने पूछा – महराज आप ये लक्ष्मी जी के पकड़ में कैसे आ गये और पर्मानेंट उनके वाहन बन गए?

तब पंख फड़फड़ा के उल्लू महराज ने बताया कि असल में क्या हुआ कि शेषशैय्या पर लेटे श्रीहरि आराम कर रहे थे और लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रहीं थीं, भृगु ऋषि आये और विष्णु जी की छाती में लात मार दी, लक्ष्मी जी को बहुत बुरा लगा विष्णु जी बेचारे तो कुछ बोले नहीं पर लक्ष्मी जी तमतमायी हुई क्रोध में विष्णु जी पर बरस पड़ीं, अपमान को सह नहीं सकीं और श्रीहरि को भला बुरा कहते हुए उनको छोड़ कर मानहानि का मुकदमा दर्ज करने भूलोक पहुंच गईं, रात्रि में जब जंगल में उतरीं तो कोई वाहन नहीं मिला हम धोखे से सामने पड़ गये तो गुस्से में हमारे ऊपर बैठ गईं। मुंबई के ऊपर से गुजर रहे थे तो गुस्से में सोने का हार तोड़ कर फेंक दिया और मुंबई अचानक मायानगरी बन गई, सब जगह का रुपया पैसा और दंद-फंद मुंबई में सिमटने लगा, रास्ते भर कुछ न कुछ फेंकतीं रहीं प्यास लगी तो गोदावरी नदी में पानी पीकर किनारे की पर्णशाला में तपस्या करने बैठ गईं और तब से हम स्थायी उनके वाहन बन गए।

इनकी एक बड़ी बहिन अलक्षमी भी है दोनों बहनें आपस में झगड़ती रहतीं हैं, जहां लक्ष्मी जातीं हैं ये बड़ी बहन नजर रखती है और अपने सीबीआई वाले भाई को चुपके से मोबाइल लगा देती है और सारा कालाधन पकड़वा देती है। कभी-कभी ये अलक्ष्मी उल्लू को अपना वाहन बताने लगती है कहती है कि लक्ष्मी और विष्णु का वाहन गरुड़ है तो ये काहे उल्लू में सवार घूमती है। दीवाली में ये दोनों बहनें कई पड़ोसी औरतों को लड़वा भी देतीं हैं, दिवाली का दिया रखने के चक्कर में पड़ोसी महिलाएं मारा पीटी में उतारू हो जातीं हैं।

बहनें सगी जरूर हैं पर एक दूसरे को पसंद नहीं करतीं। जे लक्ष्मी तो धनतेरस के एक दिन पहले तंत्र साधना करके हवा में लोभ लालच और मृगतृष्णा की तरंगें छोड़ देती है, चारों तरफ धनतेरस, छोटी दिवाली, बड़ी दिवाली की रौनक चकाचौंध देख देख कर ये खूब खुश होती है, सबकी जेबें खाली कराती हुई स्वच्छता अभियान चलाती है, लोग जीव हत्या करके पाप के भागीदार बनते हैं घर के सब मच्छड़, मकड़ी, कॉकरोच, चूहे आदि की आफत आ जाती है। लोग दीपावली की शुभकामनायें देते हैं, कुछ फारमिलिटी निभाते हैं, नकली मावे की मिठाई लोग चटखारे लेकर खाते हैं फिर बात बात में सरकार को दोषी ठहराते हैं। चायना की झालरें और दिये जगमग करते हुए हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लगाते हैं। फटाकों की आवाज से कुत्ते बिल्ली गाय भैंस दहक दहक जाते हैं, अखबार वालों की चांदी हो जाती है।

हम उल्लू ही रहे और ये लक्ष्मी हमें उल्लू ही बनातीं रहीं। हमे समझ नहीं आया ये लक्ष्मी ने हमें अमीर क्यूँ नहीं बनाया, जबकि तंत्र साधना में हमारी जाति को इतना महत्वपूर्ण माना गया।

अच्छा सुनो राज की एक बात और बताता हूं यदि दिवाली में लक्ष्मी जी को वास्तव में आमंत्रित करना है तो साथ में सरस्वती और गणेश जी को जरूर बुला लेना  लक्ष्मी यदि धन देती है तो उसका विवेकपूर्ण इस्तेमाल हो इसलिए इन तीनों का समन्वय जरूरी है लक्ष्मी क्रोधी और चंचल है सरस्वती विद्या रूपी धन की देवी है। केवल लक्ष्मी के सिद्ध होने से “विकास” संभव नहीं है। सरस्वती धन की मदान्धता और धन आ जाने पर पैदा होने वाले गुण दोष को जानती है इसलिए भी छोटी-छोटी बातों पर लक्ष्मी सरस्वती से खुजड़ करने लगती है ऐसे समय गणेश जी सब संभाल लेते हैं गणेश जी के एक हाथ में अंकुश और दूसरे हाथ में मीठे लड्डू रहते हैं और वे संयमी और विवेकवान भी हैं। इतना कहते हुए उल्लू जी खर्राटे लेने लगे।

हमने सोचा यदि धोखे से लक्ष्मी जी आ गईं और पूछने लगीं कि बोलो क्या चाहिए…… तो हम तो सीधे कहं देगें…..

“अपना क्या है इस जीवन में सब कुछ लिया उधार………. ।”

© जय प्रकाश पाण्डेय


दीपावली पर विशेष 


 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – लोकतन्त्र का महाभारत – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

लोकतन्त्र का महाभारत

निजी टी वी चैनल “हमारे अपने” के स्टुडियो से टी वी पत्रकार संजय को बार-बार फोन आ रहे थे। बहुत दिनों से कुछ नया और कोई अच्छी रिपोर्टिंग नहीं हुई है। आखिर दूर-दराज के गाँव के एकमात्र अंधों में काने शिक्षित बुजुर्ग मातादीन को बड़ी मुश्किल से मोबाइल पर इंटरव्यू के लिए पटाया। फिर उस दिन तो बड़ा गज़ब हो गया। संजय की दूर-दराज के गाँव में खड़ी ओ बी वेन का संचार परलोक में बैठे धृतराष्ट्र से जुड़ गया। दूसरी ओर से पिक्चर नहीं आ रही थी सिर्फ आवाज ही आ रही थी।

“सर! मैं संजय!”

“हाँ, कहो मैं धृतराष्ट्र!”

संजय चौंका – “धृतराष्ट्र!”

संजय को लगा कि जरूर स्टुडियो में कोई वरिष्ठ मित्र ले रहा है मजा, या पा गया है कोई मौका। धृतराष्ट्र को लगा कि महाभारत हुए एक युग बीत चुका है और ये संजय क्यों लगा रहा है धरती से चौका?

“संजय तुम्हारी आँखों देखी महाभारत को युग बीत गया। अब कौन सी महाभारत बाकी है?”

“यहाँ तो आये दिन महाभारत होती रहती है।“

“आए दिन! क्या कह रहे हो? मुझे विस्तार से बताओ।”

अब संजय को भी मजा आने लगा।

“सर, मेरे कहने का मतलब है आए दिन तो चुनाव होते रहते हैं। कभी ग्राम, कभी जिला, कभी प्रदेश तो कभी देश के। और हर चुनाव में महाभारत होता है।“

“ये क्या कह रहे हो? क्या धर्म नाम की वस्तु नहीं रही?”

“सर, वो तो आपके युग की बात है। आपके समय में या तो धर्म होता था या अधर्म और जातियाँ भी गिनती की चार होती थीं। अब तो इतने धर्म और इतनी जातियाँ हो गईं हैं कि आपको क्या बताऊँ सर? चीरहरण और शीलहरण तो मामूली बात है। फिर शीलहरण की तो कोई उम्र ही नहीं रही। पांडव दिखने वाले भी बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं।“

“फिर शासन कैसे चलता है? और महाभारत किसके मध्य हो रही है?”

अब संजय के चौंकने की बारी थी। फिर भी संभलते हुये बोला।

“सर, जितने महाभारत में राजा नहीं थे उतने तो नेता हो गए हैं। क्योंकि कोई भी नेता राजा से कम नहीं है। रही बात महाभारत किसके मध्य हो रहा है? तो मैं आपको अपनी रिपोर्टिंग देने से पहले बता दूँ कि यदि आज देवकीनंदन भी यहाँ आ जाएँ तो कहीं कन्फ़्यूज ना हो जाएं कि कौरव कौन हैं और पांडव कौन हैं? शकुनि तो अनगिनत हो गए हैं सर। आज तो शकुनि भी कन्फ़्यूज है कि जिस दुर्योधन को चुनाव के द्यूतक्रीडा की चाल समझा रहा है वो कल सारे दाँव सीख कर कहीं पांडवों से न जा मिले। दुर्योधन की सेना का कौन नेता कब पांडव के पक्ष से लड़ेगा और पांडवों की सेना का कौन नेता दुर्योधन के पक्ष से लड़ेगा ये तो आप काल से ही पूछ लेना। रही बात युधिष्ठिर की, तो उनके जैसे जुआरी तो बहुत मिलेंगे पर सत्य बोलने वाला सारी धरती पर एक भी नहीं मिलेगा। फिर आपके समय में युद्ध में थोड़ा बहुत छल कपट तो हुआ होगा। अब तो हर युद्ध छल से ही जीता जाता है। सूर्यास्त पर युद्ध की समाप्ति का शंख नहीं बजता। आए दिन अभिमन्यु चक्रव्यूह में घेर कर मारा जाता हैं। इसे लोकतंत्र में चक्रव्यूह नहीं भीडतंत्र (मोबोक्रेसी) कहते हैं। लोग कहते हैं कि युद्ध और प्यार में सब जायज है। अब अर्जुन जैसा कोई योद्धा नहीं जिसे भगवत गीता के ज्ञान की आवश्यकता पड़े। मुरलीधर तो सब जानते हैं इसलिए शान्त हैं, मुस्कुरा रहे हैं, बांसुरी की धुन पर सबको नचा रहे हैं और “यदा यदा हि धर्मस्य …..” के तर्ज पर अवतार लेने को तैयार ही नहीं हैं। पता नहीं दीनदयाल स्वयं को प्रकट करने के लिए कितना समय और लगाएंगे? क्या इन राजाओं द्वारा इतने धर्मों और जातियों के दीनों की आपस में कोई और महाभारत करवाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं? टीआरपी के लिए चैनलों पर लोकतन्त्र के मतदाता सैनिकों को गुमराह करने वाली बहस और फेक न्यूज़  के बारे में कुछ कह नहीं सकता सर, मेरी तो नौकरी ही चली जाएगी।”

इधर संजय पूरी महाभारत का पोस्टमार्टम करने को तैयार था और उधर धृतराष्ट्र को कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था।

“संजय, तुम ये सब क्या कह रहे हो? मुझे तुम्हारी महाभारत समझ ही नहीं आ रही।“

अब संजय का दिमाग भी कुछ पक सा रहा था। उसे लगा कि उसे अब मुद्दे पर आना चाहिए। फिर मातादीन भी बार-बार उठने की फिराक में था।

“सर, मज़ाक छोड़िए। ये आपकी महाभारत जाए … । मेरे सामने मातादीन अपने चार-पाँच कार्ड ले कर बैठा है। उसका इंटरव्यू सीरियसली रिकार्ड करेंगे, लाइव दिखाएंगे या रिकार्ड कर के भेजूँ?”

“संजय, महाभारत में ये मातादीन कौन आ गया और ये रिकार्डिंग, कार्ड … ये सब क्या है?”

संजय अब झल्ला गया था। मोबाइल में अभी भी सिग्नल नहीं थे और बैटरी भी जा रही थी।

“सर, अब आप चुपचाप सुनते जाइए। मैं अपने मोबाइल पर भी रिकार्ड कर रहा हूँ। आपको नहीं दिख रहा हो तो रिकार्डिंग से काम चला लेंगे।“

धृतराष्ट्र आश्चर्यचकित – “क्या……?”

इधर संजय ने मातादीन का इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया।

“आइये हम अपने दर्शकों को मिलवाते हैं, गाँव के एक ऐसे एकमात्र शिक्षित निवासी श्री मातादीन जी से जिनके गाँव तक बिजली के तार तो पहुँच गए पर करंट नहीं पहुंचा। इनका कहना है कि ये कई बार तारों को छू कर भी देख चुके हैं। हमने इन्हें समझाया कि आप ऐसी गलती ना करें दुर्घटना हो सकती है। और मातादीन जी आप ये इतने सारे कार्ड लेकर क्यों आए हैं और आपको इन कार्डों से क्या शिकायत है? जरा हमारे दर्शकों को बताएं।”

मातादीन जिंदगी में पहली बार कैमरे के सामने आया था। गाँव के लोग-लुगाइयाँ और बच्चे सतर्क हो गए। मातादीन कैमरे से आँख ही नहीं मिला पा रहा था। संजय ने आँखों और हाथों से इशारा किया। और मातादीन दायें बाएँ देखते हुए धाराप्रवाह शुरू हो गया।

“सब लोगन को हाथ जोड़ के राम राम। वो तो साहब हम बीच-बीच में तार इसलिए छू के देख लेते रहे। काहे कि हमने देखा रहा पिछली बार मंत्री जी ने तीस मील दूर के पड़ोस के पहाड़ी गाँव की बिजली का साठ मील दूर के जिले दफ्तर में बैठ कर बटन दबा कर उदघाटन करी रही। काहे कि उनकी गाड़ी पहाड़ पे नहीं चढ़ पाई रही।“

“अच्छा और आप ये कार्ड क्यों ले कर आए हैं?”

मातादीन कार्ड दिखाते हुए बोला “साहब हम ठहरे गाँव के। साहब हमें अपनी छोटी सी बुद्धि में या बात समझ नहीं आ रही कि ये तीन-चार कारड किस काम के?”

संजय ने एक-एक कार्ड कैमरे में दिखाते हुए समझाया।

“देखो ये है आधार कार्ड जो आपकी पहचान है। ये है वोटर कार्ड जिसकी मदद से आप वोट डाल सकते हैं और यह है पैन कार्ड जिसकी मदद से आप अपनी आयकर की जानकारी दाखिल कर सकते हैं। और जो ये जो चौथा कार्ड आपके हाथ में है उसे एटीएम कार्ड कहते हैं जिसकी मदद से आप बैंक के एटीएम से पैसा निकाल सकते हैं।“

“साहब ये जो आपने पहले तीन कारड बताए हैं इनको सम्हाल सम्हाल कर हमारी जान निकल रही है। चौथे एटीएम कारड ने तो हमारी जान ही निकाल दी।?

“ऐसा क्या हो गया?

“हमारी मोटी बुद्धि के मुताबिक जब आधार कारड बनाते समय हमारी उँगलियों के निशान और आँख की पुतलियाँ तक जांच लई और एटीएम कारड से हवा में हमारे बैंक से जोड़ दई तो पहले तीन कारड की जानकारी जोड़ के एकई कारड काहे नहीं दे देते। आखिर सभी दफ्तर तो एकई सरकार के ठहरे। लगता है उनमें कोई तालमेल ही नहीं है। जब पिछली बार वोट डालने गए रहे तो पता चला कोई और मातादीन नकली वोटर कारड से हमारा वोट डाल चुका रहा। काहे नहीं हमारे आधार कारड को वोटिंग मशीन से जोड़ देते जो हमारे अंगूठे के निशान से हमें पहचान लेता। ऐसई इसी कारड से आयकर की जानकारी भी ले लेते। साहब ये तो हम अपनी छोटी मोटी बुद्धि से कह रहे हैं। यदि गलत कह रहे तो साहब हमें माफ करना आप लोग हमसे बहुतई समझदार ठहरे। हम तो कह रहे हैं साहब आप तो इसमें हमारे ट्रेक्टर और मोटर साइकिल की भी जानकारी ठूंस दो। फिर देखो हम कैसे इस कारड को अपनी जान से भी ज्यादा संभाल कर रखते हैं? फिर मजाल है कोई दूसरा मातादीन हमारा नकली कारड लेके बजार में घूमता फिरे? आगे तो आप लोग बहुतई समझदार हो साहब?“

“आपका अपना चैनल मातादीन जी की समस्या को शासन से अवगत कराने की पूरी कोशिश करेगा। मातादीन जी कार्डों के बारे में आपकी और कोई समस्या हो तो आप हमें बताइये हम आपकी समस्या को ऊपर तक पहुंचाने की पूरी कोशिश करेंगे।“

“बस साहब एटीएम कार्ड से भी बहुत परेशान हैं। बैंक वाले बार-बार कहते हैं कि किसी को अपने कार्ड की जानकारी बिलकुल ना देना और बैंक वाले खुद फोन कर-कर के जानकारी मांगते हैं।“

“मातादीन जी आपकी जानकारी के लिए मैं बता दूँ कि बैंक कभी भी ऐसी कोई जानकारी नहीं मांगता। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। अब हम आपको स्टुडियो ले चलते हैं। आपका अपना चैनल के लिए कैमरा मेन अर्जुन के साथ मैं संजय। आप देखते रहिए आपका अपना चैनल।“

इतने में क्लिक की आवाज आई और ओ बी वैन में स्टुडियो का चित्र उभरा। संजय का संपर्क स्टुडियो के टेकनीशियन दिनेश से जुड़ गया।

संजय चौंक कर स्क्रीन की ओर देखते हुए पूछता है – “धृतराष्ट्र कहाँ है?”

दिनेश पूछता है – “कौन धृतराष्ट्र?”

“अरे यार जिससे अभी मेरी बात हो रही थी? माता दीन का इंटरव्यू रिकार्ड हो गया ना।”

“कौन धृतराष्ट्र? कौन मातादीन? कैसा इंटरव्यू?”

“संजय सर …..  संजय सर ….. उठिए वो गाँव आ गया है। कोई मातादीन पंचायत भवन के बाहर गाँव के लोग लुगाइयों और बच्चों के साथ आपका इन्तजार कर रहा है।”

ड्राइवर कृष्ण कुमार ओ बी वैन में पीछे लेटे टी वी पत्रकार संजय को नींद से उठा रहा था। और संजय नींद में उठकर कभी ओ बी वेन के मॉनिटर को तो कभी ओ बी वेन की खिड़की के बाहर शोर मचाती भीड़ को देख रहा था।

© हेमन्त बावनकर

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – एक व्यंग्यकार की आत्मकथा – श्री जगत सिंह बिष्ट

जगत सिंह बिष्ट

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  क्षमा करें, हमारी भाषा ही कुछ ऐसी होती है।

इस आत्मकथा में जितने प्रयोग सत्य के साथ किये गये हैं, उससे कहीं अधिक असत्य के साथ।  यह निर्णय आपको करना होगा कि क्या सत्य है और क्या असत्य।  मोटे तौर पर, उपलब्धियों के ब्यौरे को झूठा मानें और चारित्रिक कमज़ोरियों के चित्रण को सच्चा जानें।  आत्मकथा का जो अंश अच्छा लगे, उसे चुराया हुआ समझें और जो घटिया लगे, उसे मौलिक मान लें।  जहां कोई बात समझ में न आये तो उसका ठीक विपरीत अर्थ लगायें क्योंकि व्यंग्यकार शीर्षासन के शौकीन माने जाते हैं।

व्यंग्यकार ज़माने के साथ चलता है और उनको पहचानता है जो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं।  आपकी रुचि और रुझान की भी उसे पहचान है. इसलिये उसकी आत्मकथा में आपको भरपूर मसाला मिलेगा. इस व्यंग्यकार की हार्दिक और शारीरिक ख्वाहिश है कि वह भी कमला दास और खुशवंत सिंह की तरह चर्चित हो. इसलिये वह आवश्यक हथकंडे अपनाने को भी तैयार है।

अब आत्मकथा आरंभ होती है…..

संयोग से मेरा कलयुगी अवतार संस्कारधानी जबलपुर में हुआ जहां से ओशो रजनीश, महर्षी महेश योगी और हरिशंकर परसाई ताल्लुक रखते हैं।  आज तक मैं यह नहीं समझ पाया कि लुच्चों-लफ़ंगों के लिये मशहूर इस शहर को संस्कारधानी क्यों कहा जाता है? भगवान रजनीश की प्रवचन-पुस्तक ’संभोग से समाधि की ओर’ का गहन अध्ययन मैंने जवानी के दिनों में गैर धार्मिक कारणों से किया था।  महर्षि महेश योगी के प्रति मेरी गहरी श्रद्धा तब से है जब उन्होंने भावातीत ध्यान के माध्यम से विश्व शांति का अनुष्टान किया था और अमरीका ने इराक पर ’कारपेट” बमबारी कर दी थी।  हरिशंकर परसाई का प्रभाव अलबत्ता मेरी सोच पर पर्याप्त रूप से पड़ा है।  शायद वे ही इस व्यंग्यकार के प्रेरणा पुरुष हैं।  उनकी तरह लिखना-पढ़ना चाहता हूं लेकिन टांगें तुड़वाने में मुझे डर लगता है।  मैं प्रतिबद्धता का जोखिम मौका देखकर उठाता हूं।

हरिशंकर परसाई के सान्निध्य में कुछ बातें सीखीं।  व्यंग्यकार कोई विदूषक या मसखरा नहीं होता।  वह पूरी गंभीरता और सूक्ष्मता के साथ घटनाओं को देखता है और विसंगतियों पर निर्ममता से प्रहार करता है।  एक बात में अवश्य वे मुझे ’मिसगाइड’ कर गये – उन्होंने मुझे ध्यानपूर्वक रवीन्द्रनाथ त्यागी की रचनाएं पढ़ने की सलाह दी।  मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया।  प्रारंभ में तो बहुत आनन्द आया लेकिन जब प्रत्येक व्यंग्य में महिलाओं का नख-शिख वर्णन आने लगा तो मैं दिग्भ्रमित-सा हो गया।  लिखते-पढ़ते वक्त मुझे जगह-जगह गद्य में उरोज और नितंब छिपे दिखाई देने लगे और मेरी बुद्धि और गद्य भ्रष्ट होते गये।  मुझे लगता है कि सम्मानित व्यंग्यकार की खोपड़ी में कोई रीतिकालीन पुर्जा आज भी फ़िट है।  मेरे लेखन में जहां कहीं घटियापन नज़र आये तो उसके लिये आदरणीय रवीन्द्रनाथ त्यागी को ज़िम्मेदार माना जाये।

शरद जोशी के व्यंग्य मैं मंत्रमुग्ध हो कर पढ़ता और सुनता था।  उनकी शब्द छटा अलौकिक होती थी और मैं मुक्त मन और कंठ से उसकी प्रशंसा करता था लेकिन उनके चेलों में एक अजब-सी संकीर्णता व विचारहीनता दृष्टिगोचर होती है।  वे हरिशंकर परसाई और उनके स्कूल के सभी व्यंग्यकारों को खारिज करते हैं जबकि उनके स्वयं के लेखन में दृष्टिशून्यता है।  मैंने व्यंग्य लेखन की शुरुआत भोपाल में की थी लेकिन ऐसे व्यंग्यकारों से दूर ही दूर रहा।  छ्त्तीसगढ़ अंचल के कुछ नामी व्यंग्यकारों के प्रति मेरी श्रद्धा, काफ़ी कोशिशों के बाद भी, उमड़ नहीं पाती।

आज तक मैं यह नहीं समझ सका कि इतने बड़े सरकारी अधिकारी होते हुए भी श्रीलाल शुक्ल और रवीन्द्रनाथ त्यागी इतने अच्छे व्यंग्य कैसे लिखते रहे।  मैं एक अदना-सा बैंक अधिकारी हूं लेकिन लाख चाहते हुए भी लिखने-पढ़्ने के लिये उतना समय नहीं दे पाता जितना उच्चकोटि के लेखन के लिये आवश्यक है।  नतीज़ा यह है कि मेरी गिनती न तो अच्छे अधिकारियों में होती है और न ही अच्छे व्यंग्यकारों में। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था।  यह मेरी ताकत भी है और कमज़ोरी भी।  जीवन और लेखन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि मेरा ’असेट’ है और साहित्य का घोर अज्ञान मेरी कमी।

व्यंग्य की दुनिया में महिला व्यंग्य लेखिकाओं और प्रशंसिकाओं की कमी बेहद खलती है।  शायद ’व्यंग्य’ शब्द में ही विकर्षण प्रतिध्वनित होता है।  फ़िर भी, भविष्य के प्रति यह व्यंग्यकार आशावान है और इंतज़ार के मीठे फ़लों के लिये पलक पाँवड़े बिछाये बैठा है।  एक गृहस्थ व्यंग्यकार इससे अधिक खुले आमंत्रण का खतरा मोल नहीं ले सकता।  मेरी इकलौती बीवी और मेरा इकलौता बेटा सब कुछ जानते समझते हुए भी मुस्कुराकर सब कुछ झेलते रहते हैं।  उन पर दो अलग अलग व्यंग्य महाकाव्य बुढ़ापे में रचूंगा।  अभी ’रिस्क’ लेना ठीक नहीं।  अपने प्रेम-प्रसंगों पर भी  फ़ुरसत में कभी लिखूंगा।  इनमेम धर्म, संप्रदाय और प्रदेशों की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर अनेकता में एकता की राष्ट्रीय भावना आपको दिखाई देगी।  प्रारंभिक प्रेम कथाएं ’प्लेटोनिक’ हैं और बाद वाली ’फ़्रॉयडियन’ – यानि मैं निरंतर विकास क्रम में आगे बढ़ता रहता हूँ।

लेखन और प्रकाशन के क्षेत्र में मैं बहुत ’लकी’ रहा।  थोड़ा लिखकर खूब छ्पा और प्रसिद्धि पाई।  कुछ साहित्य-संपादक मेरे खास मित्र हैं और कुछ पंकज बिष्ट के धोखे में मुझे बेधड़क छाप देते हैं।  कई बार आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी मैं पंकज बिष्ट के नाम से वार्ताएं प्रसारित कर चुका हूँ।  स्थानान्तरण के बाद जब किसी नये नगर में पहुंचता हूं तो शायद इसीलिये मेरा परिचय ’सुविख्यात’ लेखक के रूप में कराया जाता है।  मैं खामोश रहता हूँ।  मेरा पहला व्यंग्य-संग्रह ’तिरछी नज़र’ भी उसी धोखे में छप गया।  प्रकाशक बेचारा आज तक पछता रहा है।  पुस्तक का शीर्षक देखकर गलतफ़हमी में नौजवान और बूढ़े सभी इसे रस लेकर एकांत में पढ़ते हैं।  बच्चे उसको पढ़कर बाल-साहित्य का आनंद पाते हैं।  कुछ विद्वान आलोचकों ने इस भ्रम में पहले संकलन की तारीफ़ कर दी कि शायद आगे चलकर मैं बेहतर लिखने लगूँ ।  पाठकों को मैं, खुशवंत सिंह की तरह, मसाले का प्रलोभन देता रहता हूं और वो मेरी रचनाएं किसी झूठी उम्मीद में पढ़ते चले जाते हैं।  साहित्यिक मित्रों को बेवकूफ़ बनाना ज़्यादा मुश्किल नहीं होता।  उन्होंने लिखना-पढ़ना, सोचना- समझना, काफ़ी समय पहले से बंद किया होता है।  उनसे मिलते ही मैं उनकी कीर्ति की चर्चा करने लगता हूँ और वे जाते ही मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाने में लग जाते हैं।  साहित्य का संसार अंदर और बाहर बड़ा मज़ेदार है।

समाज में व्यंग्यकार कोई सम्माननीय जीव नहीं माना जाता।  इस जंतु को थोड़ी-बहुत स्वीकृति ’भय बिनु होय न प्रीति’ के सूत्र के अंतर्गत ही मिलती है।  नासमझ लोग उससे उसी तरह खौफ़ खाते हैं जैसे क्रिकेट में बल्लेबाज तूफ़ानी गेंदबाजों से आतंकित होते हैं।  मुझे तो ‘लेग स्पिन’ गेंदबाजी में ज़्यादा आनंद आता है।  लाइन, लैंग्थ और फ़्लाइट में परिवर्तन करते हुए, लैग स्पिन के बीच अचानक गुगली या फ़्लिपर फ़ैंकने का जो आनंद है, वो बाऊन्सर पटकने में कहाँ ! सार्थक और मारक व्यंग्य वही है जिसमें खिलाड़ी क्लीन-बोल्ड भी हो जाए और अपनी मूर्खता पर तिलमिलाने भी लगे।  व्यंग्य में लक्ष्य-भेदन की कुशलता के साथ-साथ खेल भावना, क्रीड़ा-कौतुक और खिलंदड़पन भी हो तो आनंद कई गुना बढ़ जाता है।  गंभीरता अपनी जगह है और छेड़छाड़ का मज़ा अपनी जगह।

यह आत्मकथा मैंने बड़ी संजीदगी के साथ शुरु की थी लेकिन लंबा लिखने का धैर्य मुझमें नहीं है और जो कुछ भी आड़ा-तिरछा लिखता हूं, उसे छपवाने की मुझे जल्दी रहती है।  अतः आत्मकथा न सही, फ़िलहाल आत्मकथा की भूमिका पढ़कर ही कृतार्थ हों।  शुभचिंतकों की सलाह पर धीरे-धीरे मैं अपने व्यंगों को ’चुइंगम’ की तरह खींचने का अभ्यास कर रहा हूं।  अगर सफ़ल हुआ तो कभी न कभी आत्मकथा अवश्य लिखूंगा……..

©  जगत सिंह बिष्ट

(श्री जगत सिंह बिष्ट जी मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं।)

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य- सेल की शाॅल – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

सेल की शाॅल 

करेला और नीम चढ़ा की तरह सेल में डिस्काउंट चढ़ बैठता है पुरुष सेल और डिस्काउंट से चिढ़ते हैं और महिलाएं सेल और डिस्काउंट के चक्कर मे सीढ़ी चढ़तीं हैं। माल में सेल और डिस्काउंट का बोलबाला है।माल  के बाहर बैठा हुआ एक फिलासफर टाइप का आदमी एक डेढ़ घंटे से S. A. L. E और डिस्काउंट शब्दों की उधेड़बुन में इतना परेशान दिख रहा है कि उसके चेहरे में हवाईयां उड़ रही हैं। बीच बीच में बुदबुदाता हुआ वो आदमी कभी दाढ़ी के बाल नोंचता है कभी नाक में ऊंगली डाल के नाक छिंनकता है। कभी पेन खोलकर हाथ की गदेली में एस ए एल ई लिखकर आसमान की तरफ देखता है तो कभी दूसरे हाथ की गदेली में डिस्काउंट लिखकर थूक से मिटाता है। जिस चमचमाते वैभवशाली अलबेले मॉल के सामने वह बैठा है वहां लड़के लड़कियों के झुंड फटे जीन्स पहने कूल्हे मटका रहे हैं, बीच बीच में कुछ लड़के लड़कियां अल्हड़ सी आवारगी के साथ भटकते हुए स्वचलित सीढ़ियों से माल की रंगत और जगमगाहट का आनंद लेते हैं माल के गेट का कांच दरवाजा शर्म से पानी पानी हो जाता है जब ये करीब आते हैं।

वह फिलासफर टाइप का आदमी अपने आप से ही पूछता है कि क्या बाजार संस्कृति का मायावी तिलिस्म हमसे हमारा समय बोध छीनने पर उतारू है? माल के सामने दो आटो वाले डिस्काउंट पर बहस करते हुए मजाकिया अंदाज में कह रहे हैं कि सेल में अधिकांश चीजें एक खरीदो साथ में एक फ्री मिलतीं हैं जिसके पास बीबी नहीं होती उसको भी सुविधा मिलती है। माल के गेट पर दो तीन मनचले माल में आते जाते मनभावन माल की फटी जीन्स पर फिदा लग रहे हैं।

माल की सारी दुकानों के गेट पर चमचमाते शब्दों में अंग्रेजी में सेल और डिस्काउंट लिखे शब्दों को वह कांच से देख रहा है पत्नी अंदर माल की सेल में है। वह बार बार सोचता है कि ये सेल और डिस्काउंट शब्दों में लार टपकता गजब का आकर्षण क्यों होता है जो महिलाओं और खाऊ पुरुषों को आकर्षित कर चुम्बक की तरह खींचता है। उसे याद आया पड़ोसन जब भी सेल से कुछ खरीद कर लाती है उस दिन घर में खूब उठापटक और गालीगलौज का माहौल बनता है।

सुबह अखबार आता है अखबार के अंदर सेल के पम्पलेट से उसे चिढ़ होती है इसलिए वह चुपके से उस पम्पलेट को फाड़ कर छुपा देता है। एक बार फाड़ते समय बीबी ने रंगे हाथों पकड़ लिया और खूब सुनाया बोली – ‘तुम मेरी भावनाओं और इच्छाओं से खिलवाड़ करते हो, मेरे शापिंग के शौक में अडंगा डालते हो’….. और भी बहुत बोला, बताने लायक नहीं है।

सब शापिंग पीड़ित पतियों को आज तक समझ नहीं आया कि महिलाओं को सेल और डिस्काउंट से इतना प्रेम क्यों होता है। सेल और डिस्काउंट से पति लोग चिढ़ते हैं पर पत्नियां सेल और डिस्काउंट से अजीब तरह का प्रेम करतीं हैं। प्रेम करते समय उनसे पूछो तो कहतीं हैं “पता नहीं क्या हो जाता है खरीदारी का भूत सवार हो जाता है” हांलाकि हर बार घर पहुंच कर दबी जुबान से ठगे जाने का अहसास करातीं हैं और दुकान मालिक की ‘ठठरी बंध जाए’ कहके पति का दिल जीतना चाहतीं हैं। ऐसे में पति का बाप कवि हो तो बहू बेटे की ये बातें सुन सुन कर सेल और डिस्काउंट विषय पर महाकाव्य लिख लेता है।

माल संस्कृति ने सेल और डिस्काउंट को बढ़ावा दिया है। सेल से निकली एक महिला से एक भिखारी ने पूछा कि सेल में महिलाओं की ज्यादा भीड़ क्यों रहती है?

महिला ने तपाक से जबाब दिया – वहां सब टंगी चीजों को बार – बार छूने का सुख मिलता है और सबको उलटा पलटा के पटकने का मजा आता है वहां खूब मन भी भटकता है मन भटकने से गुदगुदी होती है और इंद्रधनुषी निर्णय के महासागर में बार बार डुबकी लगाने का अवसर भी मिलता है, अंडर गारमेंट के पोस्टर देखने का आनंद भी लूटते हैं और तरह-तरह से सज धज के आयी औरतों को देखकर ईर्ष्या का चिपचिपा रस भी पैदा होता है।

भिखारी बोला – पर मेडम यहां तो सब माल रिजेक्टेड वाला रखा जाता है, ऐसा माल जो कहीं नहीं बिकता। सेल और डिस्काउंट का लोभ ऐसे सब माल को बिकवा देता है यहां मन ललचाने का पूरा प्रपंच रचा जाता है।

भिखारी की सच बात सुनकर मेडम नाराज हो जाती है पुरानी चौवन्नी उसके कटोरे में फैंक कर माल के बाहर इंतजार कर रहे पति की तलाश करने लगती है।

हाथ में दो बड़े बड़े चमचमाते मुस्कराते बैग भारी लग रहे हैं इसलिए पति को थमा दिये गये, पति लद गया है कार पार्किंग तक पहुंचते पहुंचते हांफने लगता है।

कार चलाते हुए रास्ते भर इसी उधेड़बुन में रहता है कि घर पहुंच कर पहले चाय बनानी पड़ेगी, उनके थके पैर दबाना होगा फिर सेल से खरीदे गए हर सामान की चुम्मी ले लेकर झूठी तारीफ करनी पड़ेगी।

जैसा रास्ते भर सोचा था वही सब सब करने का आदेश हुआ। चमचमाते फिसलते पहले बैग से एक से एक साड़ियाँ और अंडर गारमेंट निकाल कर तारीफ के पुल बांधे गए। दूसरे बैग से निकाले गए शाल को देखकर उसका गला सूख गया, काटो तो खून नहीं, दिन में तारे नजर आने लगे, आसमान धरती पर गिर पड़ा, होश उड़ गए…. वह वही शाॅल था जो उसके पिता की शव यात्रा में उसके फूफा ने पिता के शव के ऊपर डाला था।

तीन महीने पहले ही उसके पिता कविता लिखते लिखते चल बसे थे उन्हें जीवन भर शाॅल श्रीफल से सम्मानित किया जाता रहा इसलिए दोस्तों ने अंतिम यात्रा में मंहगे मंहगे शाॅल उनके शव पर डाले थे………….

शाॅल की सलवटें ठीक करती पत्नी चहकते हुए बोली – ये शाॅल तुम्हारे लिए लिया है, कई महिलाओं को ये शाॅल ज्यादा पसंद आ रहा था इसलिए इसमें डिस्काउंट भी नहीं मिला……….

© जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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