डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक सार्थक व्यंग्य – नये तौर की समीक्षा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 225 ☆

☆ व्यंग्य – नये तौर की समीक्षा

भाई छेदीलाल इस वक्त समीक्षक के रूप में साहित्य के आकाश में छाये हुए हैं। शेक्सपियर ने लिखा है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महानता अर्जित कर लेते हैं और कुछ के ऊपर महानता लाद दी जाती है। भाई छेदीलाल इस वर्गीकरण में तीसरी श्रेणी के महान कहे जा सकते हैं।

हुआ यूँ कि उनके आदरणीय जीजा रामभरोसे ‘मायूस’ ने एक गज़ल-संग्रह छपवाया। शीर्षक दिया ‘ज़ुल्फों के असीर’। फिर उन्होंने साहित्यिक वातावरण की नब्ज़ टटोल कर अपने अज़ीज़ साले छेदीलाल से कहा कि, ‘हे भाई, साहित्य में आजकल दूसरों से समीक्षा कराना निरापद नहीं है। लोग जाने कहाँ-कहाँ का बदला निकालने लगते हैं। आप हमारी अर्धांगिनी के भाई होने के नाते भरोसे के आदमी हैं। आप मेरे गज़ल संग्रह की समीक्षा करें। छपाने की ज़िम्मेदारी मेरी। आजकल अखबारों-पत्रिकाओं में लेख की क्वालिटी नहीं, लेखक-संपादक संबंध काम आते हैं। मुझे भरोसा है कि आप अपनी समीक्षा में मेरी और अपनी बहन की प्रतिष्ठा की पूरी रक्षा करेंगे। मदद के लिए मैं ज़रूरी किताबें और शब्दकोश उपलब्ध करा दूँगा।’

जीजा जी साले साहब के पास ज़रूरी किताबें पटक गये और साले साहब ने अपनी वफादारी का सबूत देते हुए शब्दकोश से ‘अद्भुत’, ‘अद्वितीय’, ‘अतुलनीय’, ‘अकल्पनीय’, ‘विरल’, ‘स्तब्धकारी’, ‘नायाब’, ‘बेमिसाल’, ‘रोमांचक’ जैसे ‘सुपरलेटिव’ विशेषणों का उत्खनन कर जीजाजी की किताब को झाड़ पर चढ़ा दिया। बदले में उन्हें जीजा जी और जीजी का भरपूर आशीर्वाद प्राप्त हुआ।

तब से भाई छेदीलाल समीक्षक के रूप में प्रकाश में आये और फिर उनके पास धड़ाधड़ समीक्षा के लिए आतुर लेखकों की किताबें आने लगीं। भाई छेदीलाल अपने बनाये फार्मूले के हिसाब से फटाफट किताबों को निपटा देते थे। चार छः पन्ने पढ़कर काम लायक सामग्री निकाल लेते थे।

जीजा जी की किताब मिलने पर भाई छेदीलाल ने उनसे ‘असीर’ का मतलब पूछा था। ‘असीर’ का मतलब ‘कैदी’ या ‘बन्दी’ जानने के बाद उन्होंने अपनी शंका पेश की थी कि ‘ज़ुल्फों के असीर’ से उनका मकसद उन जीव-जन्तुओं से तो नहीं है जो अक्सर ज़ुल्फों में बसेरा करते हैं। तब ज्ञानी जीजा जी ने उन्हें समझाया था कि ‘ज़ुल्फों के असीर’ से उनका मतलब उन आशिकों से है जो महबूबा की ज़ुल्फों में पनाह लेते हैं और वहीं पड़े शैंपू, हेयर लोशन, हेयर कंडीशनर वगैरः की खुशबू लेते रहते हैं। उन्होंने साले साहब को एक फिल्मी गाने की दुख भरी लाइन भी सुनायी— ‘तेरी जुल्फों से जुदाई तो नहीं माँगी थी, कैद माँगी थी रिहाई तो नहीं माँगी थी।’

मुख़्तसर यह कि भाई छेदीलाल समीक्षक के रूप में स्थापित हो गये और अनेक लेखकों के लिए ‘आदरणीय’ और ‘फादरणीय’ हो गये।

ताज़ा किस्सा यह है कि भाई छेदीलाल ने एक कथाकार ‘निर्मोही’ जी के संग्रह की समीक्षा लिखी है जो उनकी समीक्षा के मयार को दर्शाती है। समीक्षा इस तरह है—
‘मेरे सामने श्री गिरधारी लाल ‘निर्मोही’ का कथा-संग्रह ‘बुझा बुझा मन’ है। संग्रह में बीस कहानियाँ हैं जिनके शीर्षक उत्सुकता जगाते हैं।

‘पहले बात किताब के आवरण की की जाए। आवरण सुन्दर बन पड़ा है। लगता है कश्मीर के पहलगाम का दृश्य है। नदी अठखेलियाँ कर रही है और नदी के पार ढाल पर लंबे-लंबे वृक्ष दिखाई पड़ रहे हैं जो आश्चर्यचकित करते हैं। बहुत से लोग जो शायद पर्यटक होंगे, पानी के बीच में चट्टानों पर बैठे हैं या मोबाइल पर फोटो ले रहे हैं। लहरों का फेन साफ दिखाई पड़ता है। कुल मिलाकर आवरण मनमोहक बन पड़ा है जो पुस्तक की तरफ पाठक का ध्यान खींचने में सहायक है।

‘पुस्तक के आरंभ में दो भूमिकाएँ हैं जो दो विद्वानों के द्वारा लिखी गयी हैं। एक लखनऊ के विद्वान डा. रामनिहोर हैं और दूसरे पटना के पन्नालाल ‘बेचैन’। ये दोनों समीक्षक लेखकों में बहुत लोकप्रिय हैं क्योंकि ये लेखकों को दुखी करना पाप मानते हैं। डा. रामनिहोर ने संग्रह की कहानियों के बारे में लिखा है— जाने-माने कथाकार ‘निर्मोही’ जी के नये संग्रह ‘बुझा बुझा मन’ से रूबरू हूँ। संग्रह की कहानियों के बारे में क्या कहूँ? कहानियों को पढ़कर लेखक का ज्ञान और जीवन की उनकी समझ चमत्कृत करती है। गाँवों का ऐसा चित्रण है कि एक-एक फ्रेम नुमायाँ हो जाता है। चरित्रों का चित्रण भी अद्भुत है। एक-एक चरित्र जीवन्त हो जाता है। कई चरित्र ऐसे यादगार बन पड़े हैं जैसे अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के चरित्र। जो पढ़ेगा उसके लिए उन्हें भूलना कठिन होगा।मैंने संग्रह की आधी कहानियाँ पढ़ी हैं और उसके आधार पर मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि यह संग्रह लेखक के लिए बहुत मान-सम्मान अर्जित करेगा।

‘श्री पन्नालाल ‘बेचैन’ ने लिखा है— इस संग्रह की कहानियाँ पढ़ने वाले को दूसरे ही धरातल पर ले जाती हैं जहांँ अपनी जानी पहचानी दुनिया को समझने के लिए एक नई दृष्टि अनावृत्त होती है। लेखक हमारी परिचित दुनिया को एक नयी समझ के साथ हमारे सामने प्रस्तुत करता है। मैंने संग्रह की बीस कहानियों में से आठ कहानियों को पढ़ा है और इन आठ कहानियों ने ही मुझे लेखक की क्षमता से पूरी तरह परिचित करा दिया। इन्हें पढ़कर मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि लेखक का भविष्य बहुत उज्ज्वल है।

‘पुस्तक में रचना-क्रम पर नज़र डालें तो वह दोषहीन है। छपाई में कोई प्रूफ की गलती पकड़ में नहीं आती। रचनाओं की क्रम संख्या और पृष्ठ संख्या बिल्कुल सही है।
‘जहाँ तक मेरी बात है, मैंने संग्रह की दो कहानियाँ पढ़ ली हैं। इनमें से पहली कहानी ‘रिसते ज़ख्म’ है जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया है। कहानी के नायक राकेश और उसकी पत्नी सुमन के बीच गलतफहमियों और फिर उनके बीच सुलह का लेखक ने बहुत खूबसूरत चित्रण किया है। कहानी का अन्त पाठक को झकझोर देता है। दूसरी कहानी ‘उलझे धागे’ भी बहुत प्रभावशाली है। इसमें नायिका की परिवार और नौकरी के बीच खींचतान को बहुत बारीकी से चित्रित किया गया  है। कहानियों की भाषा दोषहीन है और वह लेखक की अध्ययनशीलता को प्रमाणित करती है। शीघ्र ही मैं  बाकी कहानियाँ पढ़कर अपनी राय जाहिर करूंगा। मुझे पूरा भरोसा है कि लेखक साहित्य में ऊँचा मुकाम हासिल करेगा। मेरी शुभकामनाएँ लेखक के साथ हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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