हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 66 ☆ देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज पंद्रह जनवरी को प्रतिवर्षनुसार देश में सेना दिवस मनाया जाता हैं। आज के ही दिन 1949 को फील्ड मार्शल के एम करियप्पा ने जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी।  

हमारे निकट परिवार के सदस्यों में से कोई भी सुरक्षा बलों की सेवा में तो नहीं है, परंतु बैंक सेवा के आरंभिक दशक में प्रतिदिन हमारे सैनिक भाइयों की सेवा का मौका अवश्य मिला। सेना की सभी यूनिट्स के खाते जबलपुर मुख्य शाखा में ही थे।

सैनिकों का भोलापन, कृतज्ञता की भावना उनके व्यवहार में झलकती है, इस सब को बहुत करीब से देखने और अनुभव करने का अवसर कुछ वर्षों तक रहा।

बैंक के बाहर भी जब कभी सेना का कोई सदस्य अचानक मिल जाता था, तो उतना ही आदर और सम्मान देता था, जितना वो बैंक में देता था। अनेक बार हम उनको सिविल ड्रेस में पहचान नहीं पाते थे, लेकिन वो आगे बढ़ कर हमेशा “जय हिंद” से अभिवादन करते थे। बैंक के साथियों के विवाह में आर्मी कैंटीन से ही वीआईपी सूटकेस और बिजली के पंखे क्रय कर साथियों को सामूहिक भेंट स्वरूप दी जाती थी।

कुछ दिन पूर्व फील्ड मार्शल मानेक शॉ की बायोपिक्स (फिल्म) देखी तो सेना के बारे में नई जानकारियां भी मिली।

ग्रामीण शाखा अंधेरी देवरी (ब्यावर) राजस्थान में पदस्थापना के समय शाखा में बैंक गार्ड श्री पुखराज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई कि सेना में उन्होंने मानेक शॉ के निजी वाहन चालक के रूप में तीन वर्ष की सेवाएं देने के पश्चात प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के लिए एंबेसडर कार कुछ वर्ष तक चलाई थी।

पुखराज जी से मानेक शॉ के बहुत सारे किस्से और जानकारियों का आनंद भी लिया। पुखराज जी के शब्दों में मानेक शॉ बहुत ही सरल और मिलनसार व्यक्ति थे। जब सैनिक मेस में भोजन कर रहे होते थे, और यदि वो भी भोजन के समय वहां आ जाते, तो किसी भी सैनिक को खड़े होकर सम्मान या भोजन के मध्य में जय हिंद कहने की भी मनाही थी। उनका सिद्धांत था, कि भोजन ग्रहण के समय सब बराबर होते हैं।

आज सेना दिवस पर देश के सभी सुरक्षा बलों को आदर सहित नमन और अभिवादन।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 252 ⇒ अपर, मिडिल, लोअर बर्थ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपर, मिडिल, लोअर बर्थ।)

?अभी अभी # 252 ⇒ अपर, मिडिल, लोअर बर्थ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, तिलक कह तो गए हैं, लेकिन क्या हमारा हमारे अपने जन्म पर भी अधिकार है। यह तो आपके संचित पुण्यों का फल है, जैसे संचित कर्म, वैसा बर्थ, यानी जन्म। अगर हम पैदा ही नहीं हुए होते, तो हमारा कैसा अधिकार और कैसा संचित पुण्य फल।

चलिए, अब तो पैदा हो भी गए, तो बर्थ कौन सी मिली ? यहां भी वही घिसा पिटा जवाब, कोई सुनवाई नहीं, कोई विकल्प नहीं।

जैसी बर्थ मिली, उसमें ही एडजस्ट कर लो। क्या किसी से बर्थ एक्सचेंज कर सकते हैं, बिल्कुल नहीं ! यह कोई रेलवे की बर्थ नहीं है, अगर लोअर है तो लोअर ही रहेगी और अगर मिडिल है तो मिडिल। अपर वाली तो लागों को बड़ी मुश्किल से मिलती है। बर्थ मिल गई नसीब से, ईश्वर का धन्यवाद करो, और जीवन यात्रा शुरू करो।।

ठीक है, दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा। एक बार येन केन प्रकारेण पैदा हो गए, बर्थ हासिल कर ली, अब हमारा पुरुषार्थ और जुगाड़ अपना काम करेगा। जोड़ तोड़ में हम किसी से कम नहीं।

क्या आपने सुना नहीं ! हिम्मते मर्दा, तो मददे खुदा। एक बाद जिंदगी की गाड़ी में बैठ गए, उसके बाद हम अपनी मर्जी अनुसार, कभी यात्रियों से मीठा बोलकर, अनुनय विनय और बनावटी आंसू के सहारे सीट हासिल कर सकते हैं तो कभी कभी टीसी से सेटिंग और मुट्ठी गर्म करके ही अपना उल्लू सीधा कर ही लेते हैं।।

हम यह भी जानते हैं कि यात्रा पूरी होते ही हमारी भी बर्थ खाली होनी है, लेकिन जब तक हम जिंदा हैं, अपनी बर्थ पर किसी को नहीं बैठने देंगे।

यह भी सच है कि जीवन चलने का नाम है। एक यात्रा पूरी होते ही इंसान फिर किसी दूसरे सफर पर निकल पड़ता है।

एक ही जीवन में कितनी यात्राएं कर ली हमने। कभी ट्रेन में अपर बर्थ मिली तो कभी लोअर। जब तक उम्र थी, सब पुरुषार्थ कर लिया, और एडजस्ट भी कर लिया।।

उम्र के इस पड़ाव में अच्छा भला इंसान भी शैलेंद्र बन बैठता है। जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां। जब उम्र ही काम नहीं कर रही तो कैसा सफर और कैसी बर्थ। सब अपर और मिडिल क्लास की हेकड़ी निकल जाती है। भैया, लोअर बर्थ हो, तो ही अब तो सफर करेंगे।

कायदे कानून छोड़ दो। जितना पैसा लगे, लगने दो, अगर लोअर बर्थ मिल गई तो कम से कम सफर तो आसानी से कट जाएगा। अगले जन्म में फिर से भगवान से अपर बर्थ मांग लेंगे। बहुत गौ सेवा की है, दान पुण्य किए हैं इस जनम में। बस लोअर बर्थ कन्फर्म होते ही ;

सवेरे वाली गाड़ी से

चले जाएंगे।

कुछ ले के जाएंगे

कुछ दे के जाएंगे।।

मेहमान कब रुके हैं

कैसे रोके जाएंगे ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 223 – चक्षो सूर्यो जायत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 223 चक्षो सूर्यो जायत ?

वैदिक दर्शन सूर्य को ईश्वर का चक्षु निरूपित करता है। हमारे ग्रंथों में सूर्यदेव को जगत की आत्मा भी कहा गया है। विश्व की प्राचीन सभ्यताओं द्वारा सूर्योपासना के प्रमाण हैं। ज्ञानदा भारतीय संस्कृति में तो सूर्यदेव को अनन्य महत्व है। एतदर्थ भारत में अनेक प्राचीन और अर्वाचीन सूर्य मंदिर हैं। 

भारतीय मीमांसा में प्रकाश, जाग्रत देवता है।प्रकाश आंतरिक हो या वाह्य, उसके बिना जीवन असंभव है। एक-दूसरे के सामने खड़ी गगनचुंबी अट्टालिकाओं के महानगरों में प्रकाश के अभाव में विटामिन डी की कमी विकराल समस्या हो चुकी है।  केवल मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण सजीव सृष्टि और वनस्पतियों के लिए प्राण का पर्यायवाची है सूर्य। वनस्पतियों में प्रकाश संश्लेषण या फोटो सिंथेसिस के लिए प्रकाश आवश्यक घटक है। 

सूर्यचक्र के अनुसार ही हमारे पूर्वजों का जीवनचक्र भी चलता था। भोर को उठना, सूर्यास्त होते-होते भोजन कर सोने चले जाना। सूर्यकिरणें भोजन की पौष्टिकता बनाए रखने में उपयोगी होती हैं। 

वस्तुतः जीवन की धुरी है सूर्य। सूर्य से ही दिन है, सूर्य से ही रात है। सूर्य है तो मिनट है, सेकंड है। सूर्य है तो उदय है, सूर्य है तो अस्त है। सूर्य ही है कि अस्त की आशंका में पुनः उदय का विश्वास है। सूर्य कालगणना का आधार है, सूर्य ऊर्जा का अपरिमित  विस्तार है। सूर्यदेव तपते हैं ताकि जगत को प्रकाश मिल सके‌। तपना भी ऐसा प्रचंड कि लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर होकर भी पृथ्वीवासियों को पसीना ला दे। 

सूर्य सतत कर्मशीलता का अनन्य आयाम है, सूर्य नमस्कार अद्भुत व्यायाम है। शरीर को ऊर्जस्वित, जाग्रत और चैतन्य रखने का अनुष्ठान है सूर्य नमस्कार। ऊर्जा, जागृति और चैतन्य का अखंड समन्वय है सूर्य। 

‘सविता वा देवानां प्रसविता’…सविता अर्थात सूर्य से ही सभी देवों का जन्म हुआ है। शतपथ ब्राह्मण का यह उद्घोष अन्यान्य शास्त्रों की विवेचनाओं के भी निकट है। गायत्री महामंत्र के अधिष्ठाता भी सूर्यदेव ही हैं।

सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन  सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तर की ओर संचार करना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।

दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।

अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन। 

निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे। 

सभी पाठकों को मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #214 ☆ साधन नहीं साधना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख साधन नहीं साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 214 ☆

☆ साधन नहीं साधना

‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख उपादान हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके समक्ष उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं और दूसरों की नज़रों में आपको हीन दर्शाने हेतु निंदा करना; उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो, ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देते।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए, परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है; अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय स्वयं लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से कभी लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है;  परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित-अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद कर उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग- थलग रहना पसंद करता है।

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी; वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां से तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है, क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए ग़लतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए, ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर स्वयं को

सौभाग्यशाली समझें व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकारें। दुष्ट लोगों से घृणा मत करें, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो वह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेहवश आपसे संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव-क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी ख़ुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तक़लीफ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। उस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का एहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते- करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है; जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न रहता है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है। अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य- विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सब के प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग-द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें ग़लत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मन:स्थिति में कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुनकर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ आपसे ख़फा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान दें, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर, साधना को जीवन में अपनाएं, क्योंकि जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव में रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ विश्व हिंदी दिवस ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ आलेख ☆ विश्व हिंदी दिवस ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆

पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की दो पंक्तियाँ याद आ रही है,

बनने चली विश्व भाषा अपने घर में दासी है

सिंहासन पर अंग्रेजी लख सारी दुनिया हासी है।

माना कि इन दो पंक्तियों में एक हलका व्यंग्य है, पर एक चुभती सच्चाई भी है। आज जब हम वैश्वीकरण, बाजारवाद के युग में जी रहे हैं, दूरियाँ मिट रही हैं और विश्व एक ग्राम बनता जा रहा है ऐसे में भाषा एक संवेदना का विषय भी बन गया है। अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ गया है ऐसे में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति गति क्या है इस पर विचार होना आज के इस कार्यक्रम का एक प्रमुख पहलू है।

आज जब हम विश्व हिंदी दिवस मना रहे हैं तब हमें ये देखना होगा कि 10 जनवरी को ही क्यों विश्व हिंदी दिवस का आयोजन किया जाता है। जब कि भारत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस का आयोजन तो पिछले लगभग 75 सालों से किया जा रहा है। इसके पीछे एक कारण तो यह है कि  10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन की वर्षगाँठ मनाने के संदर्भ में पहली बार 10 जनवरी 2006 को यह दिन विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनया गया। यह उस दिन को चिह्नित करता है जब 1949 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations’ General Assembly) में पहली बार हिंदी बोली गई थी। यह विश्व के विभिन्न हिस्सों में स्थित भारतीय दूतावासों द्वारा भी मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य विदेशों में भारतीय भाषा के बारे में जागरूकता पैदा करना और इसे विश्व भर में वैश्विक भाषा के रूप में प्रचारित करना है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदी के स्वरूप पर  बात करने से पहले जब हिंदी की विकास यात्रा पर सोचा जाय तो यह सहजता से परिलक्षित होता है कि हिंदी भाषा ने न केवल देश में बल्कि विदेश में भी अपना लोहा बनाकर रखा है। यह तो सर्वविदित है कि आज सारे संसार में सबसे अधिक बोली जानेवाली भाषाओं में हिंदी दूसरे नंबर पर है। आज ईक्कीसवीं सदी के  दो दशक बीत चूके हैं। आजादी मिलकर 77 साल बीत चुके हैं। तब यह प्रासंगिक है कि हम देश विदेश में हिंदी की स्थिति गति के बारे में विचार विमर्श करें। चूँकि हम विश्व हिंदी दिवस का समारोह कर रहे हैं तो मैं अपने आप को हिंदी के वैश्विक स्वरूप तक सीमित रखकर अपनी बात रखना चाहूँगी।

दरअसल विश्व हिंदी का स्वरूप निर्धारित करने से पहले हमे विश्व भर के हिंदी विद्वानों और प्रेमियों को दो वर्गों में विभाजित करना होगा ।

पहला वर्ग उन विदेशी विद्वानों का है जिन्होंने भाषा के रूप में हिंदी का अध्ययन किया और इसके प्रचार-प्रसार एवं लेखन में योगदान किया । दूसरा वर्ग प्रवासी भारतियों का है, जो काफी बड़ी संख्या में विदेशों में बसे हैं और हिंदी भाषा  और साहित्य के क्षेत्र में सहयोग प्रदान कर रहे हैं।

फादर कामिल बुल्के (बुल्गारिया) डॉ. ओदोलेन स्मेकल (चेकोस्लोवाकिया) डॉ. रूपर्ट स्नेल (इंग्लैंड), डॉ. तोमिया मिजोकामी, प्रो. दोई (जापान), अलेक्सेई पेत्रोविच वरान्निकोव, डॉ. चेलीसेव (रूस), डॉ. लोठार लुत्से (जर्मनी), डॉ. रोनाल्ड स्टुवर्ट मैकग्रेगर (न्यूजीलैंड), प्रो. मारिया बृस्की (पोलैंड), डॉ. कैथरिन जी. हैन्सन (कनाडा), डॉ. माईकल सी. शपीरो (अमेरिका), डॉ. कीम ओ जू, (दक्षिण कोरिया) जैसे कई विदेशी हिंदी विद्वान हैं, जिन्हें गिन पाना कठिन होगा। ये हिंदी के वे विद्वान हैं जो हिंदी भाषा के विभिन्न रूपों के ऊपर महत्वपूर्ण शोधपरक कार्य करके समूचे विश्व में कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। इन्हें विश्व हिंदी के भगीरथ के नाम से जाना जाता है।

दूसरे वर्ग में प्रवासी साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य आता है। आज प्रवासी भारतीयों द्वारा व्यापक साहित्य लिखा जा रहा है। प्रवासी भारतीयों ने अपने जीवन एवं प्रवासी देश के वर्णन के माध्यम से हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि की है ।

प्रवासी भारतीय सम्मेलन के तत्वाधान में हर वर्ष प्रवासी हिंदी सम्मेलन की सफलता प्रवासी हिंदी लेखकों और साहित्यकारों के दमदार अस्तित्व का प्रमाण है। यह दिवस 9 जनवरी को मनाया जाता है और इसकी शुरवात 2002 से हुई है। आज प्रवासी भारतियों के साथ उनकी साहित्य की भी चर्चा हो रही है। उन्हें विभिन्न भाषाई मंचों और सम्मेलनों के माध्यम से सम्मानित किया जा रहा है । यह कोई छोटी बात नहीं है। बदले हुए परिवेश में हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की दृष्टि से यह बहुत बड़ी घटना है । इस संबंध में विदेश मंत्रालय के ICCR,  साहित्य अकादमी और अक्षरम् जैसी गैरसरकारी संस्थाओं का योगदान उल्लेखनीय है  ।

प्रवासी रचनाकारों में डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव, डॉ. सुषमा बेदी, उषाराजे स्कसेना, उषा प्रियंवदा, दिव्या माथुर, पद्मेश गुप्त, सरन घई, सुब्रमणी, अभिमन्यु अनंत, अंजना संधीर, तेजेन्द्र शर्मा, अर्चना पैन्युली आदि ने हिंदी साहित्य बल्कि भाषा को भी गौरवान्वित किया  है।  प्रवासी भारतीयों ने ओजस्वी एवं गौरवपूर्ण भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों को संजो कर रखने में अहम भूमिका निभाई है। आज भारत की प्राचीन लोक संस्कृति के तमाम रूपों को प्रवासी भारतीयों के लोक जीवन में देखा पाया जा सकता है।

प्रवासी भारतीयों का हिंदी साहित्य प्रारंभ में वाचिक था। किंतु बाद में यह लिखित रूप में और मुख्यधारा में आ गया। चूंकि इनका प्रवासन कठिन परिस्थितियों में हुआ था और बहुत कठिन संघर्ष के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा बनाई, अतः इनके साहित्य में करुण रस की प्रधानता है । 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में फीजी, मारिशस, सुरीनाम, ट्रिनीडाड, गयाना, दक्षिण अफ्रीका देशों में भारतीयों का गिरमिटियों के रूप में प्रवासन अति दारुण रहा था। इन देशों में गाया जाने वाला विदेशिया नामक गीत सुनने वालों की आंखों में बरबस आंसू ले आता है ।  

प्रवासी भारतीयों ने भारत के बाहर हिंदी को जो रूप प्रदान किया है, ऐसा लगता है उसमें भाषाई स्वातंत्र्य के लक्षण अधिक हैं। भारत में प्रयोग की जाने वाली हिंदी और इस हिंदी के स्वरूप में वैसा ही अंतर परिलक्षित होता है जैसा ब्रिटिश और अमरीकी अंग्रेजी में । वास्तव में अमरीकी में ब्रिटिश अंग्रेजी को व्याकरण और वर्तनी की सहायता से सरलीकृत करने का प्रयास किया गया है। वैसे ही वैश्विक हिंदी में भारतीय हिंदी को कुछ अधिक सीमा तक उनकी आवश्यकता के अनुसार सरल बना दिया गया है। इस हिंदी में बेशक शब्द बेतरतीव है किंतु व्याकरण के नियम लगभग वैसे ही लागू हैं जैसे भारतीय हिंदी में लागू होते हैं। इनकी भाषा में व्याकरण का भले ही अतिक्रमण हो गया हो पर भाषा की संप्रेषणीयता में कोई कमी नहीं आती। उदाहरण के लिए हिंद महासागर की गोद में बसे मारिशस, देश प्रशांत महासागर की गोद में बसे फीजी और आंध्र महासागर की गोद में बसे कैरेबियन और सूरीनाम तथा त्रिनीडाड-आदि देशों मेंलबोली जानेवाली हिंदी हो।

दक्षिण अफ्रीका में बोली जाने वाली हिंदी को नाताली के नाम से जाना जाता है। तो फीजी में बोली जानेवाली हिंदी को फीजि हिंदी कहा जाता है तो मॉरिशस में बोली जानेवाली हिंदी को क्रियोल हिंदी कहा जाता है। वहीं युके, अमेरिका आदि देशों में खडी बेली हिंदी का प्रयोग होता है पर वहाँ भी उनकी हिंदी पर उन प्रवासियों की मातृभाषा तथा अंग्रेजी का प्रभाव दिखाई देता है।

आज हिंदी जो वैश्विक आकार ग्रहण कर रही है उसमें रोजी-रोटी की तलाश में अपना वतन छोड़ कर गए गिरमिटिया मजूदरों के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। गिरमिटिया मजदूर अपने साथ अपनी भाषा और संस्कृति भी लेकर गए, जो आज हिंदी को वैश्विक स्तर पर फैला रहे हैं। मसलन, एशिया के अधिकतर देशों चीन, श्रीलंका, कंबोडिया, लाओस, थाइलैंड, मलेशिया, जावा आदि में रामलीला के माध्यम से राम के चरित्र पर आधारित कथाओं का मंचन किया जाता है। वहां के स्कूली पाठ्यक्रम में रामलीला को शामिल किया गया है। हिंदी की रामकथाएं भारतीय सभ्यता और संस्कृति का संवाहक बन चुकी हैं।

हिंदी के वैश्विक स्वरूप में भारत के बाहर हिंदी का अध्ययन अध्यापन भी एक महत्वपूर्ण कडी के रूप में उभरता है। 1908 में जापान में हिंदी की पढ़ाई हिंदुस्तानी के रूप में प्रारंभ हुई, जिसे ज्यादातर व्यापार करने वाले लोग पढ़ाया करते थे, पर बाद में इसका पठन-पाठन विशेषज्ञ शिक्षकों द्वारा किया जाने लगा। जापान में हिंदी का पठन-पाठन फिल्मी गीतों के माध्यम से किया जा रहा है। अमेरिका में हिंदी फिल्मी गीतों के माध्यम से पढ़ाई जाती है और प्रवासी भारतवंशी हिंदी की अलख और संस्कृति को जगाए रखे हैं।

अमेरिका में हिंदी के विकास में अखिल भारतीय हिंदी समिति, हिंदी न्यास, अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति का योगदान प्रमुख हैं। अमेरिका की भाषा नीति में दस नई विदेशी भाषाओं को जोड़ा गया है, जिनमें हिंदी भी शामिल है।

हिंदी शिक्षा के लिए डरबन में हिंदी भवन का निर्माण किया गया है और एक कम्युनिटी रेडियो के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। वे सोलह घंटे सीधा प्रसारण हिंदी में देते हैं। इसके अलावा हिंदी के गाने बजाए जाते हैं। फीजी, त्रिनीडाड, मॉरीशस में हिंदी का वर्चस्व है तथा उनका संकल्प हिंदी को विश्व भाषा बनाने का है। इतना ही नहीं साउथ कोरिया, चीन, बुल्गारिया आदि देशों में विदेश मंत्रालय द्वारा हिंदी द्वारा हिंदी पीठ की स्थापना की गई है।

आज भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीशस, चीन, जापान, कोरिया, मध्य एशिया, खाडी देशों, अफ्रीका, यूरोप, कनाडा तथा अमेरिका तक हिंदी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के जरिए प्रसारित हो रहे हैं और भारी तादाद में उन्हें दर्शक भी मिल रहे हैं। रेडियो सीलोन और श्रीलंकाई सिनेमाघरों में चल रही हिंदी फिल्मों के माध्यम से हिंदी की उपस्थिति समझी जा सकती है। गत कुछ वर्षों में एफ.एम. रेडियो के विकास से हिंदी कार्यक्रमों का नया श्रोता वर्ग पैदा हो गया है। हिंदी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर आरूढ होकर विश्वव्यापी बन रही है। उसे ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट, एस.एम.एस. एवं वेब जगत में बडी सहजता से पाया जा सकता है। इंटरनेट जैसे वैश्विक माध्यम के कारण हिंदी के अखबार एवं पत्रिकाएँ दूसरे देशों में भी विविध साइट्स पर उपलब्ध हैं।

आज तक भारत की पहचान  समाज, संस्कृति और अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में हो रही है पर अब समय ने करवट ली है और सारा विश्व भारत की ओर एक उभरती आर्थिक शक्ति की नज़रों से देख रहा है। भारत का यह उत्थान अखिल भारतीय स्तर पर निश्चित रूप से किसी विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं होगा।  आज यह स्थापित सत्य है कि अंग्रेजी के दबाव के बावजूद हिंदी बहुत ही तीव्र गति से विश्वमन के सुख-दु:ख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है। आज समय की माँग है कि हम सब मिलकर हिंदी के विकास की यात्रा में शामिल हों ताकि तमाम निकषों एवं प्रतिमानों पर कसे जाने के लिये हिंदी को सही मायने में विश्विक स्तर पर गरिमा प्रदान कर सकें।

अंत में इतना ही

निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल

निज भाषा के ज्ञान बिन मिटै न हिय का शूल

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006

मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘स्वामी विवेकानंद-ज्योतिर्मय आदर्श’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

‘स्वामी विवेकानंद-ज्योतिर्मय आदर्श’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठक गण!

यह लेख आपको नव वर्ष की शुभकामनाएँ देने के लिए तो है ही! लेकिन इस वर्ष के इस नये लेख के लिए मेरे आदर्श स्वामी विवेकानन्द के बारे में लिखने के अवसर के अलावा और कोई औचित्य नहीं हो सकता। जैसे ही हम ‘स्वामी’ नाम का उच्चारण करते हैं, एक गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्तित्व हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है, जो किसी एकांत वन या गुफा में कठोर तपस्या कर रहा है! ऐसे विजनवास को जानबूझकर स्वीकार करने का कारण होता है, इस नश्वर संसार में माया के प्रलोभन से मुक्ति पाकर ईश्वर प्राप्ति करना!

लेकिन मित्रों, इसके एक अपवाद का स्मरण होता है, स्वामी विवेकानन्द, जो हिंदू धर्म की समृद्ध अवधारणा के महान सार्वभौमिक राजदूत थे! ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ अर्थात संपूर्ण वसुधा या विश्व एक परिवार की तरह है, यह मौलिक और अमूल्य संदेश दुनिया को देने वाले सच्चे विश्व नेता! मित्रों, आज के शुभ दिन यानि, १२  जनवरी को इस महान वैश्विक नेता की जयंती है। १८६३ में आज ही के दिन कोलकाता में जन्मे, ‘ ईश्वर में पूरी तरह से अविश्वासी’, बेहद जिज्ञासु नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामीजी का पूर्व नाम) कई विद्वानों और साधु-संतों से पूछा करते थे, “क्या आपने ईश्वर को देखा है?” लेकिन एकमात्र उत्तर स्वामी रामकृष्ण परमहंस, जो एक  दक्षिणेश्वर मंदिर में ‘काली माँ’ के प्रबल भक्त और महान संत,थे, से आया, “हाँ”, और फिर गुरु और शिष्य की सांसारिक और पारलौकिक रूप से एक ऐतिहासिक समानांतर यात्रा शुरू हुई। इसमें नरेंद्र को देवी माँ और अपने परम गुरु से शुभाशीष और मोक्ष की प्राप्ति हुई।

स्वामीजी महान भारतीय सन्यासी और दार्शनिक थे। १९ सितंबर १८९३ को शिकागो में विश्व धर्म संसद में, विवेकानंद के प्रसिद्ध भाषण ने स्पष्ट रूप से ‘हिंदू धर्म और अंतरधार्मिक संवाद के इतिहास में एक ऐतिहासिक और प्रभावशाली क्षण’ के रूप में रेखांकित किया। जिस समय अन्य सभी धार्मिक नेता बहुत औपचारिक तरीके से, ‘देवियों और सज्जनों!’ इस प्रकार दर्शकों को संबोधित कर रहे थे, उसी समय ब्रिटिश भारत के इस युवा और तेजस्वी प्रतिनिधि ने ७००० से अधिक प्रतिष्ठित दर्शकों के समक्ष खड़े होकर उन्हें ‘अमरीका के मेरे भाइयों और बहनों’ इस तरह अत्यंत प्रेम से संबोधित किया। धर्म, नस्ल, जाति और पंथ की सभी बंधनों के परे जाकर, अलौकिक बुद्धिमानी से स्वयंप्रकाशित इस युवक ने मानवता के एक समान सूत्र से सभागृह में उपस्थित हर एक व्यक्ति से अपने आप को जोड़ दिया। क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि, तीन मिनट से अधिक समय तक इन सम्पूर्ण रूप से अजनबियों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उसका अभिवादन किया? इसके फलस्वरूप इस प्रतिभाशाली युवक को भाषण के लिए पहले जो थोड़ा समय दिया गया था, उसे बड़ी प्रसन्नता से बढ़ा दिया गया। ये ‘४७३ ज्योतिर्मय शब्द’ आज भी शिकागो के कला संस्थान में इस प्रथम दिव्य वाणी के अनूठे प्रतीक के रूप में गर्व से प्रदर्शित किये जाते रहे हैं। इस एक भाषण से भारत के इस मेधावी सुपुत्र ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया और उसके पश्चात उन्हें दुनिया भर में कई जगहों पर बड़े सम्मान के साथ मार्गदर्शन वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया।

बड़े आश्चर्य की बात यह है कि, अपने पहले भाषण में स्वामीजी ने कहा, “भारत की प्राथमिकता धर्म नहीं, गरीबी है!” उनका मूल उद्देश्य अपने गरीब भारतीय भाई-बहनों का हर प्रकार से उत्थान करना था। इस सामाजिक उद्देश्य के लिए ‘रामकृष्ण मठ’ और ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की गई। मिशन दुनिया भर में २६५ केंद्रों के माध्यम से जरूरतमंद लोगों को सेवाएं प्रदान करता है (२०२२ के आंकड़ों के अनुसार भारत में ऐसे १९८ केंद्र हैं)। ये संगठन धार्मिक प्रवचनों के अलावा भी बहुत कुछ करते हैं। स्वामीजी के सपने को आगे बढ़ाने और निम्न से निम्न स्तर पर लोगों की सेवा करने के लिए यह मिशन हमेशा सबसे अग्रणी रहता है। विभिन्न भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में स्वामीजी और उनके शिष्यों के साहित्य प्रकाशनों के माध्यम से इन उद्देश्यों को प्रचारित और प्रसारित किया जाता है। मिशन द्वारा संचालित धर्मार्थ अस्पताल, मोबाइल क्लिनिक और प्रसूति केंद्र पूरे भारत में फैले हुए हैं। मिशन द्वारा नर्सों के लिए प्रशिक्षण केंद्र, अनाथालय और वृद्धाश्रम भी चलाए जाते हैं। यह सामाजिक कार्य ग्रामीण एवं आदिवासी कल्याण कार्यों के साथ समन्वय साधते हुए निरंतर चलाया जा रहा है। स्कूलों में विद्यार्थियों को पढ़ाई के साथ-साथ स्कूल ड्रेस, अल्पाहार और पुस्तकें भी दी जाती हैं।

मानवता के मूर्तिमंत प्रतीक, एक निस्वार्थ सामाजिक नेता और हिंदू धर्म के कट्टर अनुयायी, स्वामीजी ने हर भारतीय में ईश्वर को देखा। उन्होंने पूरे देश की पैदल यात्रा की। जनता से करीबी रिश्ता बनाते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं को समझा, उन्हें आत्मसात किया और अपना पूरा जीवन इन समस्याओं की जटिलताओं को सुलझाने में लगा दिया। अपने दिव्य प्रतिभाशाली गुरु परमहंस की सलाह पर उन्होंने भारत की यह पूरी यात्रा की। परमहंस ने स्वामीजी को बहुमूल्य सलाह दी थी, “हिमालय की गुफाओं में ध्यान करने और केवल स्वयं की मुक्ति को तलाशने के बजाय भारत के समूचे गरीब लोगों की सेवा करो|” खराब स्वास्थ्य के चलते हुए भी अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए विवेकानन्दजी का यह सेवाव्रत जारी रहा। स्वामीजी ४ जुलाई १९०२ को मात्र ३९ साल की उम्र में बेलूर मठ, हावड़ा में महा-समाधि में चले गए।

प्रिय मित्रों, स्वामीजी के प्रेरक उद्धरण बार-बार दोहराए जाते रहे हैं। उनमें से मेरे कुछ प्रिय उद्धरण आप के साथ साझा कर रही हूँ:

*ईश्वर की संतान होने का आत्मविश्वास

“तुम सर्वशक्तिमान हो| तुम कुछ भी और सबकुछ कर सकते हो|”

*आत्मचिंतन

“दिनभर में कम से कम एक बार स्वयं से बातचीत कीजिये, वर्ना आप इस जग के एक बुद्धिमान व्यक्ति से मिलने का अवसर खो देंगे|”

*बाधाएँ और उन्नति

“जिस किसी दिन आप किसी भी समस्या का सामना नहीं करते, तब यह पक्का मान कर चलिए कि, आप गलत राह पर मार्गक्रमण कर रहे हैं|”

प्रिय पाठकों, आइए, इस विशेष दिन पर हम भारत के महान सुपुत्र, प्रभावशाली दार्शनिक, समाज सुधारक, सकल जग को वंदनीय तथा वेदांत के विश्व उपदेशक स्वामी विवेकानन्दजी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करें और उनके प्रेरक दर्शन को आत्मसात करने का प्रयास करें!

धन्यवाद🙏🌹

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

दिनांक-१२ जानेवारी २०२४

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 249 ⇒ एकादशी का व्रत… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “एकादशी का व्रत।)

?अभी अभी # 249 ⇒ एकादशी का व्रत… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मैं एकपत्नी व्रतधारी हूं, और एकादशी का व्रत भी करता हूं। एकपत्नी व्रत और एकादशी व्रत, यानी दो दो व्रत एक साथ ! इस तरह, एक और एक मिलकर, मुझे दो नहीं, ग्यारह व्रतों का पुण्य प्राप्त हो जाता है।

व्रत उपवास और पूजा पाठ वैसे तो महिलाओं के लिए ही बने हैं, क्योंकि एक पति की तुलना में पत्नी ही अधिक धार्मिक और संस्कारशील होती है। पति पत्नी का धर्म का गठबंधन होता है, कोई भी पुण्य करे, बांट लेंगे हम आधा आधा।।

जब छोटे थे, तो घर में मां और बहन को व्रत उपवास करते देखते थे। हमें वही दाल रोटी और उनके लिए गमागर्म राजगिरे का हलवा और साबूदाने की खिचड़ी। मुंह ललचाता देख, हमें भी चखने को मिल ही जाता था। लेकिन दिन भर भूखा रहना हमारी मर्कट वृत्ति से मेल नहीं खाता था। हर आधे घंटे में उछलकूद के बाद हमारा मुंह अक्सर चलता ही रहता था।

व्रत उपवास मन और जिह्वा पर संयम तो रखते ही हैं, कुछ पुण्य भी आखिर मिलता ही होगा। थोड़ा बड़े हुए, तो जन्माष्टमी जैसा उपवास दिन भर स्वादिष्ट फलाहार के आधार पर निकाल ही लेते थे। लेकिन दूसरे दिन तबीयत से पूरी कसर निकाल लेते थे।।

आश्चर्य होता है, लोग कैसे पूरा सप्ताह व्रत उपवास पर ही निकाल लेते हैं। आज सोमवार तो कल मंगलवार, इधर चतुर्थी का व्रत तो उधर प्रदोष। गुरुवार और शनिवार भी नहीं छोड़ते। कभी नमक छोड़ रहे हैं तो कभी चावल। कितना पुण्य संचित हो जाता होगा, स्वास्थ्य कितना उत्तम और चित्त कितना शुद्ध हो जाता होगा।

कभी कभी मुझ जैसे सेवा निवृत्त पति का भी व्रत उपवास से पाला पड़ ही जाता है। जब कोई सगा संबंधी नहीं रहता, तो पण्डित जी अति भावुक क्षणों में एकादशी का संकल्प करवा लेते हैं। व्रत उपवास का मामला धार्मिक है, केवल धर्मपत्नी ही इस धर्मसंकट में हमारी मदद कर सकती है।।

एक दिन पहले से आगाह कर दिया जाता है, कल एकादशी है। दफ्तर में टिफिन नहीं ले जाओगे, और लंच के वक्त, किसी के भी टिफिन में मुंह नहीं मारोगे। सुबह हमारी तासीर के अनुसार तगड़ा फलाहार उपलब्ध कराया जाता है, इस हिदायत के साथ, दफ्तर से सीधे घर आओगे, होटल के चाय कचोरी, समीसे, पोहे पर सख्त प्रतिबंध।

हमारे जीवन की वह पहली एकादशी पिताजी को समर्पित थी। बहुत ही संजीदा मामला था। दफ्तर में पूरा मन काम में लगाया। उस दिन लोग खाने पीने की बातें जरा ज्यादा ही करते हैं। लंच में भूख तो लगनी ही थी, याद से, चुपचाप अकेले बाहर जाकर ठेले पर ही, तीन केले सूतकर आ गए।।

अब हम निश्चिंत थे। हमारा जीवन का पहला एकादशी का व्रत सफल होने जा रहा था। खुशी खुशी दफ्तर का काम निपटा ही रहे थे, कि एक मित्र तशरीफ लाए। बहुत दिनों बाद मिले थे। पुरानी आदत अनुसार बोले, लाल बाल्टी वाली कचोरी नहीं खिलवाओगे आज ? ना तो हम ना कर सके, और ना ही हम यह याद रख सके कि आज हमारा एकादशी का व्रत है। बस आव देखा ना ताव, कचोरी की दुकान पर दो कचोरी ऑर्डर कर दी।

पहला ग्रास तोड़ा ही था, कि अचानक याद आया, हे भगवान, आज तो एकादशी थी। मुंह तो जूठा हो ही गया था, सोचा, इसमें कचोरी की क्या गलती है। लेकिन पश्चाताप के कारण मन बहुत उदास हो गया और हमने शेष कचोरी का निष्ठुरतापूर्वक त्याग कर दिया। सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।।

हारे हुए अर्जुन की तरह मुंह लटकाए घर लौटे।

पत्नियों की छठी इन्द्री बहुत तेज होती है। वह समझ गई, जरूर दाल में काला है। वह काफी संयत रही, बोली आपको अपनी गलती का तुरंत अहसास हो गया, यही बहुत हैं। यह मानकर चलें कि आपका व्रत खंडित नहीं हुआ है। आपके लिए साबूदाने की खिचड़ी और रबड़ी तैयार है। प्रायश्चित स्वरूप एक एकादशी और कर लेना।

वह दिन है और आज का दिन है। बिना किसी संकल्प अथवा पुण्य प्राप्ति की आस के, हर एकादशी पर केवल फलाहार का ही सेवन होता है। धर्मपत्नी के लिए भले ही वह व्रत हो, मेरे लिए वह भोजन में सिर्फ एक तरह का चेंज है। लेकिन अब मन पर इतना वश तो है ही कि लाल बाल्टी वाली कचोरी हो अथवा छप्पन और सराफे की चाट, हम कोई विश्वामित्र नहीं जो कोई मेनका हमको अपने व्रत से आसानी से डिगा दे। क्योंकि अब हम एकपत्नी व्रतधारी भी हैं, और एकादशी व्रत धारी भी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 248 ⇒ नये साल का कैलेंडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नये साल का कैलेंडर।)

?अभी अभी # 248 ⇒ नये साल का कैलेंडर… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह हर रोज तारीख बदलती है, हर वर्ष कैलेंडर भी बदलता है। कैलेंडर वही जो तारीख भी बताए और तिथि भी ! जब घरों में टीवी, और लोगों के हाथ में मोबाइल नहीं था, तब हर घर में, दीवार पर, कम से कम एक अदद कैलेंडर जरूर टंगा रहता था। समय की पहचान तो घड़ी से हो जाती है, कैलेंडर तो तिथि, तारीख, वार और महीना सबकी जानकारी रखता है।

घर गृहस्थी के बहुत काम आता था कैलेंडर। दूध वाला कितना भी चालाक हो, एक कुशल गृहिणी दूध का पूरा हिसाब कैलेंडर पर लिखकर रखती थी। जिस तारीख को दूध वाला नहीं आया, उस तारीख के आसपास एक घेरा नजर आता था जिसे किसी अदालत में चैलेंज नहीं किया जा सकता था।।

सभी बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान, सरकारी, अर्ध सरकारी विभाग और राष्ट्रीयकृत बैंकें अपने सम्मानित ग्राहकों को आज भी कैलेंडर और डायरियां भेंट करते हैं।

तब घरों में कीलें ठोंकी जाती थी और कपड़े हैंगर पर नहीं, खूंटी पर टांगे जाते थे। नया साल शुरू होते ही, महिलाएं, सौदे के साथ कैलेंडर की मांग भी करती थी। साड़ी की दुकान, किराने वाले की दुकान, दवाई वाला हो अथवा खानदानी ज्वेलर, एक कैलेंडर तो बनता ही था।।

अक्सर कैलेंडरों पर देवी देवताओं के ही चित्र होते थे। बड़े बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान अधिकतर प्रकृति प्रेमी होते थे। शासकीय कैलेंडर पर सरकारी योजनाओं की तस्वीरें होती थी। अगर कीलें कम पड़ जाती तो और ठोंक दी जाती। वैसे भी घर और दीवारों की शोभा कैलेंडर से ही तो होती है।

हमारे देश में शिवकाशी, तमिल नाडु में केवल फटाके ही नहीं बनते, सस्ते, सुंदर और टिकाऊ कैलेंडर भी थोक में छापे जाते हैं। पूरा कैलेंडर वही रहता है, बस छापने वाले का नाम जोड़ दिया जाता है, ठीक छपे छपाए विवाह के निमंत्रण पत्र के फॉर्मेट की तरह।।

ऊंचे लोग, ऊंची पसंद ! कैलेंडर शराब की कंपनियां भी छापती थी। उनके कैलेंडर शरीफ घरों में नहीं टांगे जाते थे। फिर भी कैलेंडर अगर शौक है तो जरूरत भी। जो अधिक शरीफ और शालीन लोग होते थे, वे तो हर साल अस्पताल से ही कैलेंडर ले आते थे।

आपको तिथि और तारीख ही तो देखनी है, वार त्योहार, व्रत उपवास देखना है, तो घर में एक लाला रामस्वरूप का पंचांग वाला कैलेंडर ही काफी है। वैसे आपकी मर्जी, आपका घर है, जितना जी चाहें कैलेंडर टांगें, लेकिन अस्पताल वाले कैलेंडर तो बस, हम दो हमारे दो। क्योंकि वे कैलेंडर नहीं, आपके दिल के टुकड़े हैं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 247 ⇒ चाॅंद और चाॅंद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाॅंद और चाॅंद।)

?अभी अभी # 247 ⇒ चाॅंद और चाॅंद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चाॅंद को देखो जी ! आपने बदली का चांद तो देखा ही होगा, घूंघट के चांद के अलावा कुछ लोग ईद के चांद भी होते हैं, लेकिन इसके पहले कि हम चौथे चांद का जिक्र करें, जरा अपने सर पर हाथ तो फेर लीजिए, कहीं यह चौथा चांद आपके सर पर ही तो नहीं।

हम जब छोटे थे, तो सबके सर पर बाल होते थे। लोग जब हमारे सर पर प्यार से हाथ फेरते, तो बड़ा अच्छा लगता था। हमारे बाल बड़े होते तो कटवा दिए जाते थे, और दीदी के बाल जब बड़े होते थे, तो उसकी चोटी बनाई जाती थी। हम उसको दो चोटी वाली कहकर चिढ़ाते थे। डांट भी पड़ती थी, मार भी खाते थे।।

बालों को अपनी खेती कहा गया है। हम जब गंजों को देखते थे, तो सोचा करते थे, इनके बाल कहां चले गए। इस मासूम से सवाल का तब भी एक ही जवाब होता था, उड़ गए। लेकिन तब भी हम कहां इतने मासूम थे। क्योंकि हमने तो सुन रखा था नया दौर का वह गाना, उड़े जब जब जुल्फें तेरी। यानी उनकी तो जुल्फ उड़े, और हमारे बाल। वाह रे यह कुदरत का कमाल। उधर सावन की घटा और इधर पूरा सफाचट मैदान।

कल चमन था, आज एक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ ! हम रोज सुबह जब आइना देखते हैं, तो अपने बाल भी देखते हैं। पुरुष काली घटाओं और रेशमी जुल्फों का दीवाना तो होता है, लेकिन खुद बाबा रामदेव की तरह लंबे बाल नहीं रखना चाहता। खुद तो देवानंद बनता फिरेगा और देवियों में साधना कट ढूंढता फिरेगा।।

चलिए, पुरुष तो शुरू से ही खुदगर्ज है, महिलाएं ही हमेशा आगे आई हैं और पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते चलते बहुत आगे निकल गई हैं। उनके बाल छोटे लेकिन कद बहुत ऊंचा हो गया है। आज का सामाजिक दायित्व और बढ़ती चुनौतियां उससे यह कहती प्रतीत होती हैं ;

जुल्फें संवारने से

बनेगी ना कोई बात।

उठिए, किसी गरीब की

किस्मत संवारिये।।

ईश्वर इतना निष्ठुर भी नहीं !

अगर वह पुरुष के सर के बाल उड़ा रहा है तो क्षतिपूर्ति स्वरूप उसे दाढ़ी और मूंछ भी तो प्रदान कर रहा है। अक्सर पहलवान गंजे और मूंछ वाले होते हैं। और दाढ़ी की तो पूछिए ही मत, आजकल तो दाढ़ी ही मर्द की असली पहचान है। क्यों ऐश्वर्या और अनुष्का और कल की गुड्डी और आज की बूढ़ी जया जी, कि मैं झूठ बोलिया? अजी कोई ना।

कहने की आवश्यकता नहीं, लेकिन खुदा अगर गंजे को नाखून नहीं देता तो स्त्रियों को भी दाढ़ी मूंछ नहीं देता। बस अपने चांद से चेहरे पर लटों को उलझने दें। यह पहेली तो कोई भी सुलझा देगा।।

कहते हैं, अधिक सोचने से सर के बाल उड़ने शुरू हो जाते हैं। बात में दम तो है। सभी चिंतक, विचारक, दार्शनिक, वैज्ञानिक संत महात्मा इसके ज्वलंत प्रमाण हैं।

गंजे गरीब, भिखमंगे नहीं होते, पैसे वाले और तकदीर वाले होते हैं। जब किसी व्यक्ति का ललाट और खल्वाट एक हो जाता है, तो वहां प्रसिद्धि की फसल पैदा होने लगती है। तबला दिवस तो निकल गया, मेरा नाती फिर भी मेरी टक्कल पर तबला बजाता है। लगता है, मेरे भी दिन फिर रहे हैं। सर पर मुझे भी सफाचट मैदान नजर आने लगा है। मैं पत्नी को बुलाकर कहता हूं, तुम वाकई भागवान हो।

सर पर बाल रहे ना रहे, बस ईश्वर का हाथ सदा सर पर रहे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 90 – शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  शेर, बकरी और घास

☆ आलेख # 90 –  शेर, बकरी और घास… ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बचपन के स्कूली दौर में जब क्लास में शिक्षक कहानियों की पेकिंग में क्विज भी पूछ लेते थे तो जो भी छात्र सबसे पहले उसे हल कर पाने में समर्थ होता, वह उनका प्रिय मेधावी छात्र हो जाता था और क्लास का हीरो भी. यह नायकत्व तब तक बरकरार रहता था जब तक अगली क्विज कोई दूसरा छात्र सबसे पहले हल कर देता था. शेष छात्रों के लिये सहनायक का कोई पद सृजित नहीं हुआ करता था तो वो सब नेचरली खलनायक का रोल निभाते थे. उस समय शिक्षकों का रुतबा किसी महानायक से कम नहीं हुआ करता था और उनके ज्ञान को चुनौती देने या प्रतिप्रश्न पूछने की जुर्रत पचास पचास कोस दूर तक भी कोई छात्र सपने में भी नहीं सोच पाता था. उस दौर के शिक्षक गण होते भी बहुत कर्तव्यनिष्ठ और निष्पक्ष थे. उनकी बेंत या मुष्टि प्रहार अपने लक्ष्यों में भेदभाव नहीं करता था और इसके परिचालन में सुस्पष्टता, दृढ़ता, सबका साथ सबकी पीठ का विकास का सिद्धांत दृष्टिगोचर हुआ करता था. इस मामले में उनका निशाना भी अचूक हुआ करता था. मजाल है कि बगल में सटकर बैठे निरपराध छात्र को बेंत छू भी जाये. ये सारे शिक्षक श्रद्धापूर्वक इसलिए याद रहते हैं कि वे लोग मोबाइलों में नहीं खोये रहते थे. पर्याप्त और उपयुक्त वस्त्रों में समुचित सादगी उनके संस्कार थे जो धीरे धीरे अपरोक्ष रूप से छात्रों तक भी पहूँच जाते थे. वस्त्रहीनता के बारे में सोचना महापाप की श्रेणी में वर्गीकृत था. ये बात अलग है कि देश जनसंख्या वृद्धि की पायदानों में बिनाका गीत माला के लोकप्रिय गीतों की तरह कदम दरकदम बढ़ता जा रहा था. वो दौर और वो लोग न जाने कहाँ खो गये जिन्हें दिल आज भी ढूंढता है, याद करता है.

तो प्रिय पाठको, उस दौर की ही एक क्विज थी जिसके तीन मुख्य पात्र थे शेर, बकरी और घास. एक नौका थी जिसके काल्पनिक नाविक का शेर कुछ उखाड़ नहीं पाता था, नाविक परम शक्तिशाली था फिर भी बकरी, शेर की तरह उसका आहार नहीं थी. (जो इस मुगालते में रहते हैं कि नॉनवेज भोजन खाने वाले को हष्टपुष्ट बनाता है, वो भ्रमित होना चाहें तो हो सकते हैं क्योंकि यह उनका असवैंधानिक मौलिक अधिकार भी है. )खैर तो आदरणीय शिक्षक ने यह सवाल पूछा था कि नदी के इस पार पर मौजूद शेर, बकरी और घास को शतप्रतिशत सुरक्षित रूप से नदी के उस पार पहुंचाना है जबकि शेर बकरी का शिकार कर सकता है और बकरी भी घास खा सकती है, सिर्फ उस वक्त जब शिकारी और शिकार को अकेले रहने का मौका मिले. मान लो के नाम पर ऐसी स्थितियां सिर्फ शिक्षकगण ही क्रियेट कर सकते हैं और छात्रों की क्या मजाल कि इसे नकार कर या इसका विरोध कर क्लास में मुर्गा बनने की एक पीरियड की सज़ा से अभिशप्त हों. क्विज उस गुजरे हुये जमाने और उस दौर के पढ़ाकू और अन्य गुजरे हुये छात्रों के हिसाब से बहुत कठिन या असंभव थी क्योंकि शेर, बकरी को और बकरी घास को बहुत ललचायी नज़रों से ताक रहे थे. पशुओं का कोई लंचटाइम या डिनर टाईम निर्धारित नहीं हुआ करता है(इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि मनुष्य भी पशु बन जाते हैं जब उनके भी लंच या डिनर  का कोई टाईम नहीं हुआ करता. )मानवजाति को छोडकर अन्य जीव तो उनके निर्धारित और मेहनत से प्राप्त भोजन प्राप्त होने पर ही भोज मनाते हैं. खैर बहुत ज्यादा सोचना मष्तिष्क के स्टोर को खाली कर सकता है तो जब छात्रों से क्विज का हल नहीं आया तो फिर उन्होंने ही अपने शिष्यों को अब तक की सबसे मूर्ख क्लास की उपाधि देते हुये बतलाया कि इस समस्या को इस अदृश्य नाविक ने कैसे सुलझाया. वैसे शिक्षकगण हर साल अपनी हर क्लास को आज तक की सबसे मूर्ख क्लास कहा करते हैं पर ये अधिकार, उस दौर के छात्रों को नहीं हुआ करता था. हल तो सबको ज्ञात होगा ही फिर भी संक्षेप यही है कि पहले नाविक ने बकरी को उस पार पहुंचाया क्योंकि इस पार पर शेर है जो घास नहीं खाता. ये परम सत्य आज भी कायम है कि “शेर आज भी घास नहीं खाते”फिर नाव की अगली कुछ ट्रिप्स में ऐसी व्यवस्था की गई कि शेर और  बकरी या फिर बकरी और घास को एकांत न मिले अन्यथा किसी एक का काम तमाम होना सुनिश्चित था.

शेर बकरी और घास कथा: आज के संदर्भ में

अब जो शेर है वो तो सबसे शक्तिशाली है पर बकरी आज तक यह नहीं भूल पाई है कि आजादी के कई सालों तक वो शेर हुआ करती थी और जो आज शेर बन गये हैं, वो तो उस वक्त बकरी भी नहीं समझे जाते थे. पर इससे होना क्या है, वास्तविकता रूपी शक्ति सिर्फ वर्तमान के पास होती है और वर्तमान में जो है सो है, वही सच है, आंख बंद करना नादानी है. अब रहा भविष्य तो भविष्य का न तो कोई इतिहास होता है न ही उसके पास वर्तमान रूपी शक्ति. वह तो अमूर्त होता है, अनिश्चित होता है, काल्पनिक होता है. अतः वर्तमान तो शेर के ही पास है पर पता नहीं क्यों बकरी और घास को ये लगता है कि वे मिलकर शेर को सिंहासन से अपदस्थ कर देंगे. जो घास हैं वो अपने अपने क्षेत्र में शेर के समान लगने की कोशिश में हैं पर पुराने जमाने की वास्तविकता आज भी बरकरार है कि शेर बकरी को और बकरी घास को खा जाती है. बकरी और घास की दोस्ती भी मुश्किल है और अल्पकालीन भी क्योंकि घास को आज भी बकरी से डर लगता है. वो आज भी डरते हैं कि जब विगतकाल का शेर बकरी बन सकता है तो हमारा क्या होगा. 

कथा जारी रह सकती है पर इसके लिये भी शेर, बकरी और घास का सुरक्षित रूप से बचे रहना आवश्यक है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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