डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख साधन नहीं साधना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 214 ☆

☆ साधन नहीं साधना

‘आदमी साधन नहीं, साधना से श्रेष्ठ बनता है। आदमी उच्चारण से नहीं, उच्च-आचरण से अपनी पहचान बनाता है’… जिससे तात्पर्य है, मानव धन-दौलत व पद-प्रतिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं बनता, क्योंकि साधन तो सुख-सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं, श्रेष्ठता नहीं। सुख, शांति व संतोष तो मानव को साधना से प्राप्त होती है और तपस्या व आत्म-नियंत्रण इसके प्रमुख उपादान हैं। संसार में वही व्यक्ति श्रेष्ठ कहलाता है अथवा अमर हो जाता है, जिसने अपने मन की इच्छाओं पर अंकुश लगा लिया है। वास्तव में इच्छाएं ही हमारे दु:खों का कारण हैं। इसके साथ ही हमारी वाणी भी हमें सबकी नज़रों में गिरा कर तमाशा देखती है। इसलिए केवल बोल नहीं, उनके कहने का अंदाज़ भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। वास्तव में उच्चारण अर्थात् हमारे कहने का ढंग ही हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है, जो हमारे आचरण को पल-भर में सबके समक्ष उजागर कर देता है। सो! व्यक्ति अपने आचरण व व्यवहार से पहचाना जाता है। इसलिए ही उसे विनम्र बनने की सलाह दी गई है, क्योंकि फूलों-फलों से लदा वृक्ष सदैव झुक कर रहता है; सबके आकर्षण का केंद्र बनता है और लोग उसका हृदय से सम्मान करते हैं।

‘इसलिए सिर्फ़ उतना विनम्र बनो; जितना ज़रूरी हो, क्योंकि बेवजह की विनम्रता दूसरों के अहं को बढ़ावा देती है।’ दूसरे शब्दों में उस स्थिति में लोग आपको अयोग्य व कायर समझ आपका उपयोग करना प्रारंभ कर देते हैं और दूसरों की नज़रों में आपको हीन दर्शाने हेतु निंदा करना; उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है अथवा आदत में शुमार हो जाता है। यह तो सर्वविदित है कि आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन मानव को सदैव हानि पहुंचाता है। इसलिए उतना झुको; जितना आवश्यक हो, ताकि आपका अस्तित्व कायम रह सके। ‘हां! सलाह हारे हुए की, तज़ुर्बा जीते हुए का और दिमाग़ ख़ुद का… इंसान को ज़िंदगी में कभी हारने नहीं देते।’ सो! दूसरों की सलाह तो मानिए, परंतु अपने मनोमस्तिष्क का प्रयोग अवश्य कीजिए और परिस्थितियों का बखूबी अवलोकन कीजिए। सो! ‘सुनिए सबकी, कीजिए मन की’ अर्थात् समय व अवसरानुकूलता का ध्यान रखते हुए निर्णय लीजिए। ग़लत समय पर लिया गया निर्णय आपको कटघरे में खड़ा कर सकता है; अर्श से फ़र्श पर लाकर पटक सकता है। वास्तव में सुलझा हुआ व्यक्ति अपने निर्णय स्वयं लेता है तथा उसके परिणाम के लिए दूसरों को कभी भी दोषी नहीं ठहराता। इसलिए जो भी करें, आत्म- विश्वास से करें…पूरे जोशो-ख़रोश से करें। बीच राह से कभी लौटें नहीं और अपनी मंज़िल पर पहुंचने के पश्चात् ही पीछे मुड़कर देखें, अन्यथा आप अपने लक्ष्य की प्राप्ति कभी भी नहीं कर पाएंगे।

‘इंतज़ार करने वालों को बस उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।’ अब्दुल कलाम जी का यह संदेश मानव को निरंतर कर्मशील बने रहने का संदेश देता है। परंतु जो मनुष्य हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाता है;  परिश्रम करना छोड़ देता है और प्रतीक्षा करने लग जाता है कि जो भाग्य में लिखा है अवश्य मिल कर रहेगा। सो! उन लोगों के हिस्से में वही आता है, जो कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं। दूसरे शब्दों में आप इसे जूठन की संज्ञा भी दे सकते हैं। ‘इसलिए जहां भी रहो, लोगों की ज़रूरत बन कर रहो, बोझ बन कर नहीं’ और ज़रूरत वही बन सकता है, जो सत्यवादी हो, शक्तिशाली हो, परोपकारी हो, क्योंकि स्वार्थी इंसान तो मात्र बोझ है, जो केवल अपने बारे में सोचता है। वह उचित-अनुचित को नकार, दूसरों की भावनाओं को रौंद कर उनके प्राण तक लेने में भी संकोच नहीं करता और सबसे अलग- थलग रहना पसंद करता है।

‘शब्द और सोच दूरियां बढ़ा देते हैं, क्योंकि कभी हम समझ नहीं पाते और कभी हम समझा नहीं पाते।’ इसलिए सदैव उस सलाह पर काम कीजिए, जो आप दूसरों को देते हैं अर्थात् दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप दूसरों से अपेक्षा करते हैं। सो! अपनी सोच सदैव सकारात्मक रखिए, क्योंकि जैसी आपकी सोच होगी; वैसा ही आपका व्यवहार होगा। अनुभूति और अभिव्यक्ति एक सिक्के के दो पहलू हैं। सो! जैसा आप सोचेंगे अथवा चिंतन-मनन करेंगे, वैसी आपकी अभिव्यक्ति होगी, क्योंकि शब्द व सोच मन में संदेह व शंका को जन्म देकर दूरियों को बढ़ा देते हैं। ग़लतफ़हमी मानव मन में एक-दूसरे के प्रति कटुता को बढ़ाती है और संदेह व भ्रम हमेशा रिश्तों को बिखेरते हैं। प्रेम से तो अजनबी भी अपने बन जाते हैं। इसलिए तुलना के खेल में न उलझने की सीख दी गई है, क्योंकि यह कदापि उपयोगी व लाभकारी नहीं होती। जहां से तुलना की शुरुआत होती है, वहीं आनंद व अपनत्व अपना प्रभाव खो देते हैं। इसलिए स्पर्द्धा भाव रखना अधिक कारग़र है, क्योंकि छोटी लाइन को मिटाने से बेहतर है, लंबी लाइन को खींच देना… यह भाव मन में तनाव को नहीं पनपने देता; न ही यह फ़ासलों को बढ़ाता है।

परमात्मा ने सब को पूर्ण बनाया है तथा उसकी हर कृति अर्थात् जीव दूसरे से अलग है। सो! समानता व तुलना का प्रश्न ही कहां उठता है? तुलना भाव प्राणी-मात्र में ईर्ष्या जाग्रत कर द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है, जो स्नेह, सौहार्द व अपनत्व को लील जाता है। प्रेम से तो अजनबी भी परस्पर बंधन में बंध जाते हैं। सो! जहां त्याग, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव होता है, वहां आनंद का साम्राज्य होता है। संदेह व भ्रम अलगाव की स्थिति का जनक है। इसलिए शक़ को दोस्ती का दुश्मन स्वीकारा गया है। भ्रम की स्थिति में रिश्तों में बिखराव आ जाता है और उनकी असामयिक मृत्यु हो जाती है। इसलिए समय रहते चेत जाना मानव के लिए उपयोगी है, हितकारी है, क्योंकि अवसर व सूर्य में एक ही समानता है। देर करने वाले इन्हें हमेशा के लिए खो देते हैं। इसलिए ग़लतफ़हमियों को शीघ्रता से संवाद द्वारा मिटा देना चाहिए, ताकि ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ वाली भयावह स्थिति उत्पन्न न हो जाए।

‘ज़िंदगी में कुछ लोग दुआओं के रूप में आते हैं और कुछ आपको सीख देकर अथवा पाठ पढ़ा कर चले जाते हैं।’ मदर टेरेसा की यह उक्ति अत्यंत सार्थक व अनुकरणीय है। इसलिए अच्छे लोगों की संगति प्राप्त कर स्वयं को

सौभाग्यशाली समझें व उन्हें जीवन में दुआ के रूप में स्वीकारें। दुष्ट लोगों से घृणा मत करें, क्योंकि वे अपना अमूल्य समय नष्ट कर आपको सचेत कर अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं, ताकि आपका जीवन सुचारु रुप से चल सके। यदि कोई आप से उम्मीद करता है, तो वह उसकी मजबूरी नहीं…आप के साथ लगाव व विश्वास है। अच्छे लोग स्नेहवश आपसे संबंध बनाने में विश्वास रखते हैं … इसमें उनका स्वार्थ व विवशता नहीं होती। इसलिए अहं रूपी चश्मे को उतार कर जहान को देखिए…सब अच्छा ही अच्छा नज़र आएगा, जो आपके लिए शुभ व मंगलमय होगा, क्योंकि दुआओं में दवाओं से अधिक प्रभाव-क्षमता होती है। सो! ‘किसी पर विश्वास इतना करो, कि वह तुमसे छल करते हुए भी ख़ुद को दोषी समझे और प्रेम इतना करो कि उसके मन में तुम्हें खोने का डर हमेशा बना रहे।’ यह है प्रेम की पराकाष्ठा व समर्पण का सर्वोत्तम रूप, जिसमें विश्वास की महत्ता को दर्शाते हुए उसे मुख्य उपादान स्वीकारा गया है।

अच्छे लोगों की पहचान बुरे वक्त में होती है, क्योंकि वक्त हमें आईना दिखाता है और हक़ीक़त बयान करता हैं। हम सदैव अपनों पर विश्वास करते हैं तथा उनके साथ रहना पसंद करते हैं। परंतु जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बड़ी तक़लीफ होती है। परंतु उससे भी अधिक पीड़ा तब होती है, जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है… यही है आधुनिक मानव की त्रासदी। उस स्थिति में वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला अनुभव करता है और एक छत के नीचे रहते हुए भी उसे अजनबीपन का एहसास होता है। पति-पत्नी और बच्चे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं और नितांत अकेलापन अनुभव करते- करते टूट जाते हैं। परंतु आजकल हर इंसान इस असामान्य स्थिति में रहने को विवश है, जिसका परिणाम हम वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या के रूप में स्पष्ट देख रहे हैं। पति-पत्नी में अलगाव की परिणति तलाक़ के रूप में पनप रही है; जो बच्चों के जीवन को नरक बना देती है। हर इंसान अपने-अपने द्वीप में क़ैद है। परंतु फिर भी वह धन-संपदा व पद-प्रतिष्ठा के उन्माद में पागल अथवा अत्यंत प्रसन्न रहता है, क्योंकि वह उसके अहं की पुष्टि करता है। अतिव्यस्तता के कारण वह सोच भी नहीं पाता कि उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं। उसे भौतिक सुख-सुविधाओं से असीम आनंद की प्राप्ति होती है। इन परिस्थितियों ने उसे जीवन क्षणभंगुर नहीं लगता, बल्कि माया के कारण सत्य भासता है और वह मृगतृष्णा में उलझा रहता है। और… और …और अर्थात् अधिक पाने के लोभ में वह अपना हीरे-सा अनमोल जीवन नष्ट कर देता है, परंतु वह सृष्टि-नियंता को आजीवन स्मरण नहीं करता, जिसने उसे जन्म दिया है। वह जप-तप व साधना में विश्वास नहीं करता… दूसरे शब्दों में वह ईश्वर की सत्ता को नकार, स्वयं को भाग्य- विधाता समझने लग जाता है।

वास्तव में जो मस्त है, उसके पास सर्वस्व है अर्थात् जो व्यक्ति अपने ‘अहं’ अथवा ‘मैं ‘ को मार लेता है और स्वयं को परम-सत्ता के सम्मुख समर्पित कर देता है…वह जीते-जी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में ‘सब के प्रति सम भाव रखना व सर्वस्व समर्पण कर देना साधना है; सच्ची तपस्या है…यही मानव जीवन का लक्ष्य है।’ इस स्थिति में उसे केवल ‘तू ही तू’ नज़र आता है और मैं का अस्तित्व शेष नहीं रहता। यही है तादात्मय व निरहंकार की मन:स्थिति …जिसमें स्व-पर व राग-द्वेष की भावना का लोप हो जाता है। इसके साथ ही धन को हाथ का मैल कहा गया है, जिसका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।

जहां साधन के प्रति आकर्षण रहता है, वहां साधना दस्तक देने का साहस नहीं जुटा पाती। वास्तव में धन-संपदा हमें ग़लत दिशा की ओर ले जाती है…जो सभी बुराइयों की जड़ है और साधना हमें कैवल्य की स्थिति तक पहुंचाने का सहज मार्ग है, जहां मैं और तुम का भाव शेष नहीं रहता। अलौकिक आनंद की मन:स्थिति में कानों में अनहद-नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं, जिसे सुनकर मानव अपनी सुध-बुध खो बैठता है और इस क़दर तल्लीन हो जाता है कि उसे सृष्टि के कण-कण में परमात्मा की सूरत नज़र आने लगती है। ऐसी स्थिति में लोग आप को अहंनिष्ठ समझ आपसे ख़फा रहने लगते हैं और व्यर्थ के इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। परंतु इससे आपको हताश-निराश नहीं, बल्कि आश्वस्त होना चाहिए कि आप ठीक दिशा की ओर अग्रसर हैं; सही कार्यों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए साधना को जीवन में उत्कृष्ट स्थान दें, क्योंकि यही वह सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम मार्ग है, जो आपको मोक्ष के द्वार तक ले जाता है।

सो! साधनों का त्याग कर, साधना को जीवन में अपनाएं, क्योंकि जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है… ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए और दूसरों को संतुष्ट करने के लिए जीवन में समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चलते रहिए’ विवेकानंद जी की यह उक्ति बहुत कारग़र है। समय, सत्ता, धन व शरीर  जीवन में हर समय काम नहीं आते, सहयोग नहीं देते… परंतु अच्छा स्वभाव, समझ, अध्यात्म व सच्ची भावना जीवन में सदा सहयोग देते हैं। सो! जीवन में तीन सूत्रों को जीवन में धारण कीजिए… शुक़्राना, मुस्कुराना व किसी का दिल न दु:खाना। हर वक्त ग़िले-शिक़वे करना ठीक नहीं… ‘कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्तियों को लहरों के सहारे/’ अर्थात् सहज भाव से जीवन जिएं, क्योंकि इज़्ज़त व तारीफ़ खरीदी नहीं जाती, कमाई जाती है। इसलिए प्रशंसा व निंदा में सम-भाव में रहने का संदेश दिया गया है। सो! प्रशंसा में गर्व मत करें व आलोचना में तनाव-ग्रस्त मत रहें… सदैव अच्छे कर्म करते रहें, क्योंकि ईश्वर की लाठी कभी आवाज़ नहीं करती। समय जब निर्णय करता है; ग़वाहों की दरक़ार नहीं होती। तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा आईना होते हैं; जो तुम्हें हक़ीक़त से रू-ब-रू कराते हैं। इसलिए कभी भी किसी के प्रति ग़लत सोच मत रखिए, क्योंकि सकारात्मक सोच का परिणाम सदैव अच्छा ही होगा और प्राणी-मात्र के लिए मंगलमय होगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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