हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 496 ⇒ स्त्री और इस्त्री… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्त्री और इस्त्री…।)

?अभी अभी # 496 ⇒ स्त्री और इस्त्री… ? श्री प्रदीप शर्मा ?

जो लोग स्कूल को इस्कूल और स्मृति को इस्मृति कहते हैं, उनके लिए स्त्री और इस्त्री में कोई अंतर नहीं। वैसे देखा जाए तो स्त्री हाड़ मांस की होती है और उसमें जान होती है, जबकि एक इस्त्री लोहे की होती है और बेजान होती है। लोहे की इस्त्री की दो प्रकार की होती है, एक कोयले से जलने वाली और दूसरी बिजली से चलने वाली। जब कि एक स्त्री के तो चलने के लिए हाथ पांव तो होते ही हैं, लेकिन उसकी जबान भी बहुत चलती है।

जोत से जोत की तरह, एक इस्त्री, दूसरी इस्त्री से नहीं जलती, इस्त्री को तो जलाना पड़ता है, जब कि एक स्त्री दूसरी स्त्री को देखते ही जलने लगती है। इस्त्री से कपड़ों पर प्रेस की जाती है, जबकि स्त्री अपने आपको इंप्रेस करने के लिए आकर्षक कपड़े पहनती है।।

मेरे घर में स्त्री भी है और इस्त्री भी, लेकिन हम घर पर प्रेस नहीं करते। बरसों से एक धोबी आता था, जो रोज के पहनने के कपड़े कपड़ों और घर मोटी मोटी चादरों को ले जाता था। पहले कपड़े भट्टी में धोए जाते थे, फिर सुखाकर उन पर इस्तरी की जाती थी।

अधिक महंगी साड़ियां और पुरुषों के सूट लॉन्ड्री में दिए जाते थे, जहां उनकी पेट्रोल से धुलाई होती थी।

जब तक घर बड़ा था, घर में छोटे बड़े भाई बहन थे, कपड़े घर पर ही मोगरी से कूटे जाते थे, धोकर सुखाए जाते थे, और कपड़ों पर प्रेस भी घर पर ही होती थी। केवल आवश्यक कपड़े ही धोबी के यहां जाते थे।।

आज घर घर में वाशिंग मशीन है और वह भी सेमी ऑटोमेटिक और ऑटोमेटिक। सूती कपड़ों का स्थान अब टेरीकॉट ने ले लिया है। छोटे परिवार सुखी परिवार के सभी सदस्य कामकाज में व्यस्त रहते हैं, कुछ घरों में नियमित धोबी आता है, और कपड़े इस्त्री करवाने ले जाता है। चार चार आने से बढ़कर अब एक कपड़े की इस्त्री भी कम से कम पांच छ: रुपए की पड़ने लगी है। फिर भी आम आदमी आज भी इस्त्री वाले कपड़े पहनना ही पसंद करता है।

बाजार में रेडीमेड कपड़ों की बहार है, धोबी और दर्जी सब भूखे मर रहे हैं। जब से पहनने के कपड़ों में जींस का प्रवेश हुआ है क्या युवा और क्या युवती, घर-घर जींस का फैशन हो गया है। हमारे यहां जींस को सिर्फ धोया जाता है उस पर इस्त्री नहीं की जाती। विदेशों में इसे यूज एण्ड थ्रो वाला पहनावा माना जाता है।।

जब से फटी जींस का फैशन शुरू हुआ है, सिलाई, धुलाई और इस्त्री सबको अलविदा कह दिया गया है। कुछ संस्कारी घरों में आज भी स्त्री और इस्त्री दोनों की उतनी ही जरूरत है और उन्हें उतना ही सम्मान भी मिलता है।

मेरे घर में आज भी इस्त्री से अधिक उपयोगी मेरी स्त्री ही है। घर में जींस वाली कोई पीढ़ी नहीं। वह मेरे धुले कपड़े करीने से तह करके बिस्तरों के नीचे दबा देती है। इस तरह उन पर बिना इस्त्री किए ही प्रेस हो जाती है।।

एक हैप्पिली रिटायर्ड इंसान को और क्या चाहिए। वानप्रस्थ की उम्र भी गुजर रही है, अब तो तन से नहीं, केवल मन से सन्यास लेने का समय शुरू हो रहा है। सादा जीवन, संतुष्ट जीवन, बस विचार हमारे अभी इतनी ऊंचाईयों पर नहीं पहुंचे। साधारण लोग, साधारण पसंद।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 104 – देश-परदेश – सी सी टीवी कैमरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 104 ☆ देश-परदेश – सी सी टीवी कैमरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दो दशक से अधिक समय हो गया, सीसी टीवी कैमरा को हमारे देश में पदार्पण किए हुए। वर्ष दो हज़ार में अजमेर शाखा में पदस्थापना के समय बैंक की शाखा में एक फ्रॉड में करीब सात लाख का नगद भुगतान हो गया था। शाखा प्रबंधक ने पास के एक हलवाई की दुकान पर लगे हुए सीसी टीवी कैमरे का मुआयना कर आने के लिए हमें कहा था।

हलवाई की रसोई दुकान के ऊपर थी जहां कर्मचारी मिठाई आदि बनाते थे, नीचे बिक्री होती थी, जहां मालिक बैठ कर गल्ला संभालने के साथ रसोई में लगे कैमरे से नज़र रखता था। हम रसोई में भी गए, और कर्मचारियों से बात की, वो परेशान से लगे, बोले पहले हम दिन के अनेक बार दूध पी जाते थे, एक दो मुट्ठी मेवें भी डकार जाते थे, अब सीसी टीवी से ये सब बंद हो गया है।

आजकल घर के अलावा गलियों, बाजारों आदि में भी कैमरे लग चुके हैं। कुछ दिन पूर्व एक मित्र के घर जाना हुआ, उनके घर के बाहर अलीगढ़ी ताला देख, यू टर्न लेकर घर आ गए। दूसरे दिन मित्र का फोन आया, तो बोला, बता कर आना चाहिए था। उसने हमें कैमरे में देख लिया था।

वो अपने कैमरे की तारीफ़ में कसीदे पढ़ कर उस पर खर्च की गई राशि से अपनी रईसी प्रमाणित करने के लिए प्रयासरत था। हमने उससे पूछा क्या तुम्हारे कैमरे में कभी चलती हुई चीटियां दिखती हैं क्या ? वो बोला नहीं कुत्ते बिल्ली अवश्य दिख जाते हैं।

उसने जिज्ञासा से पूछा ये चीटियां दिखने का क्या उपयोग होता होगा ? हमने उससे कहा, कि हमारे कैमरे में पड़ोस के घर में जाती हुई चींटियां भी दिखती है, इसका मतलब पड़ोसी के यहां कुछ ताजा ताजा मीठा बन रहा है। बाज़ार की दुकानों में से तो जिंदा कीड़े निकलते हैं, इसलिए लोग घर में निर्मित ताज़ा मीठा ही खाना पसंद करते हैं।

विगत माह एक बहुत बड़े आदमी के यहां विवाह में जाना हुआ, स्टेज पर भीड़ को देखते हुए बिना लिफाफा दिए हुए, भोजन ग्रहण कर वापिस आ गए। कुछ दिन पूर्व विवाह परिवार से एक व्यक्ति मिला, और नाराज़ होकर बोला, आप विवाह में पधारे नहीं, हमने स्वास्थ्य का हवाला देकर, किनारा काट लिया। बात आई गई हो गई। एक दिन विवाह वाले घर से उनके मुनीम का फोन आया, और कहने लगा, जब आप विवाह में आए थे, तो फिर मना क्यों किया। हमने कैमरे में आपको वापिस जाते हुए देखा है, और लिफाफा भी आपकी कमीज की ऊपरी जेब में स्पष्ट दिख रहा है। हमें तो “काटों तो खून नहीं”।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 495 ⇒ ॥ इमेज ॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “इमेज ।)

?अभी अभी # 495 ⇒ ॥ इमेज ॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आप इसे छवि कहें, तस्वीर कहें, इज्जत कहें, रुतबा कहें, रेपुटेशन कहें, चरित्र कहें, जो कहना चाहते हैं कहें, इससे आपकी इमेज अच्छी ही होगी। केवल जिनको अपनी इज्जत की चिंता नहीं, बाल बच्चों का खयाल नहीं, खानदान की फ़िक्र नहीं, ऐसे लोगों की बात छोड़िए।

हर इंसान चाहता है, वह कैसा भी हो, उसकी इमेज उससे भी अच्छी हो। इसलिए कई बार उसको नकली चेहरा सामने लाना पड़ता है, और अपनी असली सूरत को छुपानी पड़ती है लेकिन साहिर साहब उनके बारे में तपाक से लिख मारते हैं ;

क्या मिलिए, ऐसे लोगों से

जिनकी फितरत छुपी रहे।

नकली चेहरा सामने आए

असली सूरत छुपी रहे।।

कुछ लोग यह भांप भी लेते हैं, और तारीफ़ की आड़ में कह भी देते हैं, जो बात तुझ में है, तस्वीर में नहीं, तो कहीं इसका विपरीत भी नजर आता है। सोशल मीडिया हो या सामाजिक प्लेटफॉर्म, जो छवि हमारी प्रस्तुत की जाती है, हम क्या वाकई वैसे ही होते हैं। अपना एक अच्छा सा फोटो भिजवा देना। कम से कम फोटो तो ढंग का हो इंसान का।

फेसबुक पर पिछले कई वर्षों से मेरा एक ही फोटो चल रहा है। कुछ लोग फेसबुक और व्हाट्स एप पर अपनी तस्वीर के बजाय किसी भगवान की तस्वीर लगा देते हैं अथवा परिवार के किसी अन्य प्रिय सदस्य की। बिना चेहरे के किसी को जानने की कोई रीत हो, तो कोई हमें भी बताए।।

कुछ लोगों के चेहरे हमें मुग्ध कर देते हैं तो कुछ के चेहरे उन्हें ही आत्म मुग्ध किया करते हैं। अच्छा चेहरा तारीफ का मोहताज नहीं होता। लेकिन अपनी तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती। बहुत कम सुंदर चेहरे ऐसे होते हैं, जिनकी तारीफ करो, और वे बुरा मान जाएं। हां, ऐसे कई चेहरे ज़रूर हैं, जिनकी तारीफ ना की जाए, तो वे बुरा मान जाते हैं।

मैं अपनी इमेज के बारे में बहुत सजग हूं। कॉलेज का एक वाकया है। मेरे एक मित्र के साथ कॉलेज के फ्री पीरियड में टहल रहे थे। इतने में अनिता नाम की एक लड़की सामने से निकली। मेरे दोस्त ने उसे सुनाते हुए मुझसे पूछा, क्यों तुमने अनिता फिल्म देखी है। इसमें क्या गलत था, मुझे नहीं मालूम। लेकिन मैं यह सोचता रह गया, यह लड़की मेरे बारे में क्या सोचेगी। मैं कैसे लोगों के साथ उठता बैठता हूं। जब कि वास्तविकता यह थी कि वह लड़की मुझे जानती तक नहीं थी। मनोविज्ञान में इसे अपराध बोध कहते हैं। और मेरे दोस्त ने जो लड़की पर कमेंट किया वह क्या था, मैं समझ नहीं पाया। लेकिन वह शायद eve teasing की शुरुआत हो।।

जो समाज में अपनी अच्छी छवि बनाना चाहते हैं, उन्हें दिखावा करना पड़ता है। दया, धर्म, दान, पुण्य और चैरिटी के अलावा भी कई तरीके हैं अच्छा दिखाई देने के। कुछ लोग जैसे हैं, वैसे ही रहते हैं। उनके व्यवहार में कृत्रिमता की जगह सहजता होती है। जो बात उन्हें पसंद नहीं आती, मुंह पर बोल देते हैं। ऐसे लोग स्पष्टवादी कहलाते हैं।

सच्चे झूठे की पहचान चेहरे से कहां हो पाती है। इसीलिए कहा भी गया है ;

दिल को देखो, चेहरा न देखो,

चेहरे ने लाखों को लूटा

दिल सच्चा और चेहरा झूठा।

हर सूरत के पीछे एक सीरत भी है। सु अच्छा को कहते हैं, शायद इसीलिए हमें किसी की सूरत अच्छी लगती है। जो छुपा हुआ है, उसको देखना, सीरत है। चेहरे के अलावा, दिल के अलावा विचार भी एक कसौटी होती है, इंसान को परखने की। सूरत अगर प्रदर्शन है तो विचार दर्शन। एक बार विचार मेल खा गए, तो फिर मन का मैल भी साफ हो जाता है।

लोग अपनी बुराई छुपाए रखते हैं, अच्छाई का प्रदर्शन किया करते हैं। काश हम अपनी अच्छाई छुपाएं और बुराई को बाहर आने दें। क्यों न हम जीवन में अच्छाई का स्वागत करें और बुराई को बाहर का रास्ता दिखाएं। जैसे हैं, वैसे दिखें। और जैसा दिखना चाहते हैं, वैसे ही बनें।।

हम कितनी भी अपनी अक्ल लगा लें, मेज और इमेज के चक्कर में पड़े रहें, किसी की शक्ल ही ऐसी होती है कि दिल कह उठता है ;

कुछ ऐसी प्यारी शक्ल

मेरी दिलरुबा की है।

जो देखता है कहता है

कुदरत खुदा की है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 260 – सार्थक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 260 सार्थक… ?

जीवन मानो एक दौड़ है। जिस किसी से पूछो, कहता है; वह दौड़ना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है। फिर बताता है कि अब तक जीवन में कितना आगे बढ़ चुका है। अलबत्ता कभी विचार किया कि आगे यानी किस ओर बढ़ रहे हैं? मनुष्य प्रतिप्रश्न दागता है कि यह कैसा निरर्थक विचार है? स्वाभाविक है कि जीवन की ओर बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि प्रश्न तो सार्थक ही था पर मनुष्य का उत्तर नादानी भरा है। जीवन की ओर नहीं बल्कि मनुष्य मृत्यु की ओर बढ़ रहा होता है। 

भयभीत या अशांत होने के बजाय शांत भाव से तार्किक विचार अवश्य करना चाहिए। मनुष्य चाहे न चाहे, कदम बढ़ाए, न बढ़ाए, पहुँचेगा तो मृत्यु के पास ही। मनुष्य के वश में यदि पीछे लौटना होता तो वह बार-बार लौटता, अनेक बार लौटता, मृत्यु तक जाता ही नहीं, फिर लौट आता, चिरंजीवी होने का प्रयास करता रहता।

स्मरण रखना, मृत्यु का कोई एक गंतव्य नहीं है,  बल्कि यात्रा का हर चरण मृत्यु का स्थान हो सकता है, मृत्यु का अधिष्ठान हो सकता है। विधाता जानता है मनुष्य की वृत्ति, यही कारण है कि कितना ही कर ले जीव, पीछे लौट ही नहीं सकता। जिज्ञासा पूछती है कि लौट नहीं सकते तो विकल्प क्या है? विकल्प है, यात्रा को सार्थक करना।

सार्थक जीने का कोई समय विशेष नहीं होता। मनुष्य जब अपने अस्तित्व के प्रति चैतन्य होता है, फिर वह अवस्था का कोई भी पड़ाव हो, उसी समय से जीवन सार्थक होने लगता है।

एक बात और, यदि जीवन में कभी भी, किसी भी पड़ाव पर मृत्यु आ सकती है तो किसी भी पड़ाव पर जीवन आरंभ क्यों नहीं हो सकता? इसीलिए कहा है,

कदम उठे, 

यात्रा बनी,

साँसें खर्च हुईं

अनुभव संचित हुआ,

कुछ दिया, कुछ पाया

अर्द्धचक्र पूर्ण हुआ,

भूमिकाएँ बदलीं-

शेष साँसों को

पाथेय कर सको 

तो संचय सार्थक है

अन्यथा

श्वासोच्छवास व्यर्थ है..!

ध्यान रहे, जीवन में वर्ष तो हरेक जोड़ता है पर वर्षों में जीवन बिरला ही फूँकता है। आपका बिरलापन प्रस्फुटन के लिए प्रतीक्षारत है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 3 अक्टूबर 2024 से नवरात्रि साधना आरम्भ हो गई है 💥

🕉️ इस साधना के लिए मंत्र इस प्रकार है-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है श्री अजीत सिंह जी द्वारा प्रस्तुत एक अनुभव पर आधारित आलेख मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता…’।)

☆ आलेख – मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं – प्रो एम पी गुप्ता ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

(हिसार में वरिष्ठ नागरिकों की हमारी संस्था वानप्रस्थ के सदस्य प्रो एम पी गुप्ता जी का 89वां जन्मदिन है। वे अकेले ही रहते हैं पर उनकी दिनचर्या सभी वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक प्रेरणा जैसी है।)

☆ गूगल बन रहा है बुढ़ापे का दोस्त – अजीत सिंह ☆

छोटे होते परिवारों और रोज़गार के लिए दूर शहरों और विदेशों में जाने की नई पीढ़ी की मजबूरी के कारण अक्सर देखने में आता है कि माता-पिता बुढ़ापे में  अकेले ही रह जाते हैं। स्थिति उस समय और भी विकट ही जाती है जब पति-पत्नी में से कोई एक चल बसे।

हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार के पूर्व प्रोफेसर 87 वर्षीय डॉ एम पी गुप्ता 12 साल पहले पत्नी के स्वर्गवास होने के बाद  घर में अकेले रहते हैं लेकिन अकेलापन महसूस नहीं करते। उन्होंने इसका एक ढंग निकाल लिया है। वे रोजाना 4 घंटे घर में रखे कंप्यूटर  पर काम करते हैं। वे ब्रॉडबैंड सुविधा के साथ यह समय इंटरनेट पर अपनी मनमर्जी की जानकारी ढूंढने और उसे पढ़ने में लगाते हैं।

” मैं फेसबुक, वॉट्सएप जैसे सोशल मीडिया साइट पर अपना समय बर्बाद नहीं करता। वहां लोग ऊट-पटांग संदेश भेजकर अपना रौब जमाना चाहते हैं। अक्सर तो फॉरवर्ड किए गए संदेशों की भरमार रहती है। यह सब कुल मिलाकर बहुत बोरिंग होता है।

प्रो गुप्ता का कहना है कि गूगल का मामला अलग है हालांकि ये सभी इंटरनेट या ब्रॉडबैंड पर आधारित हैं।

“गूगल आपको आपकी मर्ज़ी की सूचना खोजने और आनंदित होने की सुविधा देता है। में चाहूं तो नोबेल पुरस्कारों के बारे उनके घोषित होते ही विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकता हूं। या फिर मेरी हॉबी फोटोग्राफी के बारे सब कुछ जान सकता हूं। चाहूं तो अपनी पसंद के पुराने पंजाबी गाने सुन सकता हूं और गीतों के  बोल भी प्राप्त कर सकता हूं”।

डॉ गुप्ता ने बताया कि उन्होंने अपने पैतृक कस्बे जगराओं और वहां की मशहूर हस्ती लाला लाजपतराय के बारे में रोचक जानकारी हाल ही में गूगल से ही प्राप्त की।

“मुझे यह जानकर खुशी मिली कि लाला लाजपतराय जगराओं से हिसार आए थे वकालत के लिए और मैं जगराओं से हिसार आया था नौकरी के लिए और यहीं का होकर रह गया।

“समाचार माध्यमों से या फिर मित्रों से बातचीत में अक्सर कुछ सवालों के जवाब पूरे नहीं मिल पाते। गूगल पर जाकर मैं उनके जवाब ढूंढ लेता हूं। ऐसा करने पर मुझे एक तरह की संतुष्टि और आनंद मिलता है। मुझे ऐसा भी लगता है कि काश यह सुविधा उस वक़्त उपलब्ध होती जब मैं यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था। उस समय जानकारी इकट्ठा करने के लिए लाइब्रेरियों के चक्कर लगाने पढ़ते थे। कई हफ्ते लग जाते थे। अब वही काम एक दो घंटे या फिर एक दो दिन में हो जाता है।

पहले पुस्तक ढूंढ़ना, फिर जानकारी ढूंढ़ना और फिर हाथ से नोट लिखना या संबंधित पृष्ठों की फोटो कॉपी लेना, यह सब काफी लंबी व ऊबाऊ प्रक्रिया थी। आज तो गूगल पर जानकारी सर्च करना है और फिर उसका कॉपी-पेस्ट लेना है। सीधा प्रिंट ले लो या पेन ड्राइव में डाल लो।

डॉ गुप्ता कहते हैं कि वरिष्ठ नागरिकों को कंप्यूटर व स्मार्टफोन की टेक्नोलॉजी अवश्य सीखनी चाहिए। यह बहुत ही आसान है। गूगल का भरपूर उपयोग करना चाहिए मगर फेसबुक और वॉट्सएप की लत नहीं डालनी चाहिए।

गूगल आपका अकेलापन दूर कर देगा। आप बुढ़ापे का आनंद ले सकेंगे, अपनी शर्तों पर, मन चाहे ढंग से।

डॉ गुप्ता की राय है कि बच्चों को भी वॉट्सएप और फेसबुक की बजाय गूगल के उपयोग की तरफ मोड़ना चाहिए। इसमें अध्यापकों व अभिभावकों की अहम भूमिका होगी।

“जिसकी हमें ज़रूरत है , हम वही जानकारी लेंगे। किसी की हम पर थोंपी जा रही जानकारी क्यों लें?”

“बुढ़ापे में अकेलापन बहुत से लोगों को परेशान करता है। इसे दूर करने के लिए टेक्नोलॉजी की मदद ली जा सकती है। समाचारपत्र, रेडियो, टेलीविजन ये सभी एकतरफा संवाद करते हैं। अपनी सुनाते हैं, हमारी नहीं सुनते। हमारा सारा समय भी खा जाते हैं। गूगल आज्ञाकारी पुत्र है। जब कहोगे, तभी हाज़िर होगा, जो मांगोगे वही ला कर देगा। आजकल मैं गूगल की मदद से अंगदान, देहदान के बारे में जानकारी इकट्ठा कर रहा हूं”।

डॉ एम पी गुप्ता 1996 में प्रोफेसर के पद से रिटायर हुए थे। बेटा सेना में कर्नल है और दो बेटियां जयपुर और दिल्ली में अच्छी तरह अपनी अपनी घर गृहस्थी चला रही हैं।  बातचीत होती रहती है, मिलना जुलना समय समय पर ही हो पाता है, पर यह कोई समस्या नहीं है।

” मैं अकेला रहता हूं, पर अकेलेपन में नहीं। कुछ साथी मिलते रहते हैं, और सबसे बढ़िया दोस्त गूगल है जो हरदम मेरे साथ ही रहता है”।

डॉ गुप्ता की  ज़िन्दगी यूं तो सही ढंग से चली पर  2009 में पत्नी को ब्रेन कैंसर हुआ तो कष्ट भी उठाना पड़ा। 2012 में उनका स्वर्गवास हुआ और तबसे डॉ गुप्ता अकेले ही रहते हैं।

“बुढ़ापे की सही काट यह है कि आदमी अपनी पसंद के किसी रचनात्मक शौक को अपना ले। किसी चीज़ से इश्क करले; पेंटिंग, बागबानी, ज्ञानवर्धन, गायन, लेखन,शेरो-शायरी, किसी से भी।  दोस्तों की मंडली भी ज़रूरी है। यह मानसिक सेहत के लिए अति आवश्यक है। खुशी एक मानसिक अवस्था मात्र है। ज़िन्दगी में न ऊंचे पहाड़ हैं न गहरी घाटी। बस छोटे मोटे उतार चढ़ाव हैं”।

डॉ गुप्ता बुधवार व शुक्रवार को वरिष्ठ नागरिकों की संस्था वानप्रस्थ की बैठकों में नियमित रूप से जाते हैं। सेक्टर-15 में उनके कई पुराने मित्र रहते हैं जिनके साथ वे सुबह शाम की सैर भी करते हैं और गपशप भी।

“गपशप बहुत ज़रूरी है, हंसना हंसाना ज़रूरी है और मिलना जुलना बहुत ज़रूरी है।

उम्र की परवाह न करें। मस्त रहें।

स्व. अटल बिहारी बाजपेयी जी  की कविता याद रखें,

‘उम्र का हरेक दौर मज़ेदार है

अपनी उम्र का मज़ा लीजिये।

ज़िंदा दिल रहिए जनाब,

ये चेहरे पे उदासी कैसी,

वक्त तो बीत ही रहा है,

उम्र की ऐसी की तैसी…!

☆ ☆ ☆ 

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार से स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 494 ⇒ ॥ दीवार॥ ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हमारे पास भी भेजा है ।)

?अभी अभी # 494 ⇒ ॥ दीवार॥ ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

THE WALL

यहां हम अमिताभ बच्चन अभिनीत, और सलीम जावेद के संवाद वाली फिल्म दीवार का जिक्र नहीं कर रहे। हम उस दीवार का जिक्र कर रहे हैं जो दो घरों के बीच, दो दिलों के बीच, और दो मुल्कों के बीच खड़ी हो जाती है। बंटवारे की त्रासदी तो हमने सुनी है, लेकिन देखी नहीं, क्योंकि हमारा जन्म आजादी के बाद ही हुआ है। एक दीवार घर बनाती है और एक दीवार घर का बंटवारा करवाती है। एक दीवार पैसे की भी होती है। मुकेश का यह गीत शायद आपने सुना हो ;

चाँदी की दीवार न तोड़ी, प्यार भरा दिल तोड़ दिया

इक धनवान की बेटी ने, निर्धन का दामन छोड़ दिया

दुनिया की सबसे बड़ी दीवार चीन की है। यह अलग बात है कि इसी चीन ने हाल ही में कोरोनावायरस फैलाकर इंसान और इंसान के बीच भी दीवार खड़ी कर दी थी। कभी हमारे घरों की भी दीवारें मोटी होती थी आजकल तो 4 इंच की दीवारों से ही काम चल जाता है। पुराने किलों की दीवारें देखिये, वे इतनी चौड़ी और मोटी होती थी कि उनके ऊपर से हाथी गुजर जाते थे।।

पैतृक संपत्ति में आजकल अपना हिस्सा कोई नहीं छोड़ता। गांव में संयुक्त परिवार की जमीन जायदाद होती थी परिवार के सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कुछ मकानों में तो सिर्फ देखरेख और रखरखाव के लिए ही किसी रिश्तेदार अथवा जरूरतमंद परिवार को बिना किराए के ही रख लिया जाता था। सदियां गुजर जाती थी और मकान पर जिसका कब्जा था उसका ही हो जाता था।

वक्त करवट लेता है, परिवारों में प्रेम और सम्मान का स्थान स्वार्थ और लालच ले लेता है। परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों की तो छोड़िए, आज के समय में तो पुराने किराएदार भी मकान खाली नहीं करते। जब मुआवजे से भी बात नहीं बनती तो कानूनी कार्रवाई करनी पड़ती है।।

अगर कोई व्यक्ति सीधा-साधा और कमजोर हुआ तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धांत लागू हो जाता है। अतिक्रमण और अवैध कब्जा आजकल आम बात है। आज भी गांवों में अधिकतर विवाद जर जोरू और जमीन को लेकर ही होते हैं। शहरों में तो बहू के आते ही बंटवारे शुरू हो जाते हैं घरों में दीवार खड़ी हो जाती है।

कानून आपको कर्तव्य नहीं सिखाता केवल अधिकार की लड़ाई लड़ना ही सिखाता है। व्यक्ति में प्रेम और त्याग की जगह जब स्वार्थ और लालच जन्म ले लेता है, तब इंसान और इंसान के बीच नफरत की दीवार खड़ी हो जाती है। इधर रिश्ते में दरार आई और उधर दीवार खड़ी हुई। देखिए, जगजीत सिंह की यह खूबसूरत ग़ज़ल, जिसमें दर्द भी है और उम्मीदभी ;

रिश्तों में दरार आई

बेटे ना रहे बेटे,

भाई ना रहे भाई

रिश्तों में दरार आई

परखा है लहू अपना,

भरता है ज़माने को

तूफ़ान में कोई भी,

आया ना बचाने को

साहिल पे नज़र आए, कितने ही तमाशाई

रिश्तों में दरार आई

ढूँढे से नहीं मिलता,

राहत का जहाँ कोई

टूटे हुए ख़्वाबों को,

ले जाए कहाँ कोई

हर मोड़ पे होती है, एहसास की रूसवाई

रिश्तों में दरार आई

ज़ख़्मों से खिली कलियाँ, अश्क़ों से खिली शबनम

पतझड़ के दरीचे से,

आया है नया मौसम

रातों की स्याही से,

ली सुबहो ने अंगड़ाई

रिश्तों में दरार आई

ख़ामोश नज़र दिल का क्या राज़ छिपाएगी

टूटेगा अगर शीशा आवाज़ तो आएगी

अब अपना मुकद्दर है,

ये दर्द ये तन्हाई

रिश्तों में दरार आई

मुश्किल हैं अगर राहें, इतनी भी नहीं मुश्किल

ख़्वाबों पे यकीं हो तो,

कैसे न मिले मंज़िल

वो देख तेरी मंज़िल

बाहों में सिमट आई

रिश्तों में दरार आई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया को  उदयराज सम्मान – अभिनंदन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ आलेख ☆ सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया को  उदयराज सम्मान – अभिनंदन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती ममता कालिया को प्रतिष्ठित उदयराज सम्मान प्रदान किया जायेगा। फोन पर बधाई देते समय जब मैंने ममता जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही तब उन्होंने कहा कि पूरे सात साल बाद उन्हें कोई पुरस्कार मिलेगा। सात साल पहले व्यास सम्मान मिला था । इस तरह मेरे घर व जीवन में बारिश के छींटे पड़े हैं ।

श्रीमती ममता कालिया ने कहा कि अब तो पत्र पत्रिकाओं से पहले जैसा पारिश्रमिक भी नहीं आता । पुरस्कारों और पारिश्रमिक पर जैसे धूल पड़ गयी हो ।

श्रीमती ममता कालिया ने स्वर्गीय उदयराज को भी स्मरण करते कहा कि मैं उनसे सन् 1970 में पटना में आयोजित एक समारोह में मिली थी । मैं मुम्बई से समारोह में भाग लेने आई थी और आयोजकों ने एक साधारण सी धर्मशाला में रहने की व्यवस्था कर रखी थी

मेरी दुविधा देखते हुए उदयराज जी मुझे अपने घर ले गये, जहां दूसरे लेखक भी पहुंच गये और माथे पर बिना शिकन डाले उन्होंने सभी का आतिथ्य किया।

पुरस्कार की घोषणा नई धारा, पटना के संपादक डाॅ प्रमथराज ने की, जोकि नई धारा के स्वामी व कुलपति  भी हैं । श्री प्रमथराज ने बताया कि सम्मान स्वरूप ममता कालिया को एक लाख रुपये व स्मृति चिन्ह प्रदान किये जायेंगे। उन्होंने बताया कि डाॅ रामदरश मिश्र की अध्यक्षता में गठित तीन सदस्यीय समिति ने श्रीमती ममता कालिया का चयन किया।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख ☆ स्मृति शेष राजुरकर राज : एक ज़िद्दी स्वप्न दृष्टा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज प्रस्तुत है  स्व राजुरकर राज जी  पर आपका आलेख )

(२७ सप्टेंबर १९६१ – १५ फेब्रुवारी २०२३)

? आलेख ☆ स्मृति शेष राजुरकर राज : एक ज़िद्दी स्वप्न दृष्टा ☆ श्री सुरेश पटवा ?

हमारा वीर सिपाही इस बात को जानता था कि स्वप्न देखना आसान है लेकिन उसे सच की ज़मीन पर उतरना अत्यंत दुष्कर काम होता है। नामचीन साहित्यकारों की पांडुलिपियाँ, दैनिक उपयोग की चीजें, आवाजों के नमूने और न जाने क्या-क्या समेटने के जुनून ने घर में चीजों का ढेर लगाना शुरू कर दिया, और घर भी क्या डेढ़ कमरे का मकान जिसमें बैठक, शयन कक्ष, रसोई, गुसलख़ाना सब कुछ शामिल। चीजों का ढेर लगता जा रहा था। पति-पत्नी दोनों नौकरीशुदा। घर-गृहस्थी सम्भालना मुश्किल होता है तो इन बाहरी चीजों का ढेर लगाना झुँझलाहट और तकरार को जन्म देता था।

राजुरकर जानते थे कि स्वप्न वह नहीं जो सोते हुए नींद में देखे जाते हैं, बल्कि स्वप्न वह होता है जो आपकी नींद ही उड़ा दे। वे रात-रात भर जाग कर बहुमूल्य चीजों को व्यवस्थित करते। उन्हें इस तरह देखते जैसे कोई माँ अपने सोते बच्चे के मासूम चेहरे को निहार कर गर्व से भर जाती है। 

उसके लिए संघर्ष का एक लम्बा रास्ता तय करना था।  गृहस्थी और नौकरी की परेशानियाँ के बीच रास्ता आसान नहीं था।  इसमें कदम-कदम पर कठिनाइयाँ उनका स्वागत करतीं।  वास्तव में रास्ता तनावभरा होता। वो जानते थे कि जो इन रास्तों पर चलते हैं, उनकी राह में मुश्किलें आती ही हैं, पर उन्हें आसान रास्ता कतई पसंद नहीं था। वे सदैव नए रास्तों की तलाश में होते। यह जानते हुए भी कि यह नया रास्ता तनाव भरा होगा, फिर भी वे चल पड़ते अपना रास्ता स्वयं बनाते हुए एक तयशुदा मंजिल की ओर….। राजुरकर राज उन्हीं विरले लोगों में से हैं, जिन्हें अपना रास्ता स्वयं तलाशने और बनाने की ज़िद होती है, उन्हें उसी में आनंद आता था।

इस मुश्किल राह पर उनका साथ देने आये अशोक निर्मल। जिनकी अध्यक्षता में एक अनौपचारिक समिति गठित हुई। उन्हें दुष्यंत कुमार जी की पत्नी श्रीमति राजेश्वरी त्यागी जी का सहयोग मिलने लगा। दुष्यंत जी से जुड़ी चीजें क़रीने से रखी जाने लगीं। उन्होंने उस डेढ़ कमरे के मकान में “दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय” नाम का पौधा रोप दिया। दोनों उस पौधे को देखते, उसकी नाज़ुक पत्तियों की सहलाते, उसे धूप और पानी देते और बारिश में अति पानी और गर्मी के दिनों में धूल से बचाते। जब चीजों को सहेजने हेतु कमरा छोटा पड़ने लगा तो बड़ा मकान लेने की बात पर विचार हुआ। उन्होंने सितम्बर 1999 में नेहरू नगर स्थित उद्धवदास मेहता परिसर में एक मकान ले लिया। घर के सामान के साथ संग्रहालय भी नये आवास में घर के सदस्य की भाँति छोटे ट्रक पर लद कर पहुँच गया। नये आवास में घर के बाक़ी सदस्य अपनी-अपनी चीजों को व्यवस्थित करके बैठ गए। संग्रहालय की चीजों का ढेर राजुरकर राज का मुँह चिढ़ाता रहा। उन्होंने रात-रात भर जागकर चीजों को क़रीने से ज़माना शुरू किया। जगह की क़िल्लत ने झिकझिक और तकरार को जन्म दिया। लेकिन स्वप्न दृष्टा अडिग था। अपनी बनाई राह पर चलता रहा।

समिति का पंजीयन कराया। कार्यकारिणी गठित की। यह सब आसान नहीं होता। समिति का विधान बनाना, नियमित बैठक करना, सरकारी महकमे को प्रतिवेदन भेजना, आवश्यक धन की व्यवस्था करना और समिति में उपजते अंतर्विरोधों को सुलझाना, विघ्नसंतोषियों की चालों को काटना, ग़लत आलोचनाओं और निंदा को अनदेखा करना। राजुरकर की ज़िद अशोक निर्मल का साथ मिलने से इन सबका सामना करते हुए तय मंज़िल की तरफ़ बढ़ती रही।  

यह एक छोटा-सा पौधा था, जिसे सपनों ने रोपा और जिसे अपनों का सम्बल मिला, वह आज सघन बटवृक्ष बन गया है। ढेर सारी उपलब्धियों के बीच राजुरकर भले ही अपने स्वास्थ्य को लेकर धीमे कदमों से चलते रहे, पर सच तो यह है कि उनके कदम सधे हुए थे। अपनी मिलनसारिता के चलते दोस्तों के साथ गति बनी रही। इस दौरान कई आपदाएँ भी आई, सभी का बहादुरी से सामना किया।

कितना बलिदान, कितना श्रम, कितना धन, कितनी पीड़ा व कितना समर्पण, इन सबसे  गुजरकर राजुरकर ने अपना तन मन धन अर्पित कर अपने भीतर संजोये स्वप्न को ग्लेशियर के पिघलने की गति से साकार किया। अपने दो कमरे के आवास का एक कमरा “संग्रहालय“ बना दिया था। बाक़ी पूरा परिवार एक कमरे में गुज़ारा करता था।

राजुरकर राज के इस कार्य में प्रमुख रूप से सहयोग करने वालों में कुछ नाम का उल्लेख  वो हमेशा करते थे, अशोक निर्मल, बाबूराव गुजरे, घनश्याम मैथिल, आर एस तिवारी, श्रीमती करुणा राजुरकर।  बाद में पुत्रवत संजय राय आ जुड़े। जिनके सहयोग के बिना ये दुष्कर कार्य संभव नहीं हो सकता था।

कई साथी इस सफर में शामिल हुए, तो कई बिछुड़ भी गए। मिलने और बिछुड़ने के इस क्रम में भाई राजुरकर का स्वास्थ्य भी उनका साथ छोड़ने लगा था। अपनों का प्यार और कुछ कर गुज़रने मी ज़िद उन्हें वापस अपने कर्मपथ पर ले आता था। दुर्लभ, अनोखी और अनमोल धरोहर के बीच राजुरकर भी अनमोल होते चले गए। उनके ख़्वाब को पंख तो लग गये लेकिन मुश्किलें कम नहीं थीं। 1997 से यह सफर शुरू हुआ, 2023 तक न जाने कितने पड़ाव तय किए। सबका लेखा जोखा नहीं किया जा सकता। 

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 493 ⇒ लडुअन का भोग ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लडुअन का भोग।)

?अभी अभी # 493 ⇒ लडुअन का भोग? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 बधाई हो बधाई

जन्मदिन पे तुमको

तुम्हारी होगी शादी

मिलेंगे लड्डू हमको…

हमें अच्छी तरह याद है प्रयागराज वाले शुक्ल जी के यहां, उनके सुपुत्र के शुभ विवाह के मंगल प्रसंग के अवसर पर, उनके द्वारा भेजे गए प्रेम रस से सराबोर लड्डुओं का हमने यहां सुदूर, इंदौर में आस्वादन किया था।

उन्हें शायद पता था, लड्डू हमारी कमजोरी है। लड्डू पेड़े की जोड़ी बहुत पुरानी है। हर खुशी के मौके पर लड्डू बांटे जाते हैं। लड्डू की महिमा इतनी विचित्र है, कि कभी कभी तो बिना खाए ही मन में लड्डू फूटने लगते हैं।।

पकवान कोई भी हो, बिना दूध और घी के नहीं बनता। घी भी एक तरह से मिल्क प्रोडक्ट ही तो है।

हर प्रकार के दूध में कम अथवा ज्यादा मात्रा में एनिमल फैट होता है जिसे बोलचाल की भाषा में फैट कहा जाता है। दूध पीने से बच्चे ताकतवर बनते हैं।

मां के दूध का कोई विकल्प नहीं।

मैं बचपन से ही भैंस को दूध पीता चल रहा हूं, क्योंकि भैंस के दूध में ज्यादा मलाई आती है। अक्ल बड़ी कि भैंस ? हो सकता है, भैंस के दूध से मुझे कम अक्ल आए, लेकिन फिर भी मेरी अक्ल कभी घास चरने नहीं गई।।

मलाई दूध की हो अथवा दही की, बिल्ली के मुंह मारने के पहले मैं चट कर जाता हूं। रबड़ी शब्द सुनकर तो आज भी मेरे मुंह में पानी आ जाता है।

मुझे डालडा घी से एलर्जी है। असली घी अगर मिलावट वाला हुआ तो मेरी खैर नहीं, एकदम सांस चलने लगती है, इसलिए बहुत सोच समझ कर कम मात्रा में ही दूध और शुद्ध घी से बने पदार्थों का सेवन करना पड़ता है। दूध की अधिक मलाई से घर में ही डेयरी खुल जाती है, असली घी, मक्खन और छाछ आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

खाद्य पदार्थों में मिलावट एक दंडनीय अपराध तो है ही लेकिन करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ पाप की श्रेणी में आता है। अपराधियों को दंड तो खैर कानून दे ही देगा लेकिन जो पाप के भागी हैं, उनका हिसाब तो ऊपर वाला ही करेगा। एक आस्थावान भक्त तो सिर्फ प्रायश्चित ही कर सकता है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ माँ हरसिद्धि देवी का मंदिर रानगिर ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

☆ आलेख ☆ माँ हरसिद्धि देवी का मंदिर रानगिर ☆ ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆

विश्व में भारत के साथ-साथ कुछ अन्य देशों में भी देवी मां के शक्तिपीठ हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का ज़िक्र है। इनमें से कुछ शक्तिपीठ विदेशों में भी हैं।

  • देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का ज़िक्र है।
  • देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र है।
  • तंत्र चूड़ामणि में 52 शक्तिपीठों का ज़िक्र है।

शक्तिपीठों के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि दक्ष राजा दक्ष प्रजापति के यहां पर यज्ञ में सती मां के जलने के बाद भगवान शिव ने क्रोधित होकर वहां पर उपस्थित सभी लोगों को करने का आदेश अपने वीरभद्र को दिया और उसके बाद मां सीता के शरीर को मां सती के शरीर को लेकर पूरे विश्व में भ्रमण करने लगे उनके क्रोध के काम पूरे ब्रह्मांड में प्रलय की स्थिति निर्मित हो गई। इस स्थिति को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के टुकड़े कर दिए थे। ये टुकड़े अलग-अलग जगहों पर गिरे और वहीं शक्तिपीठ बने।

शक्तिपीठों में ध्यान करने से सकारात्मक कंपन पैदा होते हैं।

मध्य प्रदेश के सागर जिले में रानगिर ग्राम में मां हरसिद्धि का मंदिर है। इस मंदिर को भी विद्वानों के द्वारा शक्तिपीठ के रूप में मान्यता प्राप्त है। कहा जाता है कि यहां पर मां सती का रान या जंग्घा गिरा था जिसके कारण इस स्थान का नाम रानगिर पड़ा है।

इसके अलावा जनश्रुति के अनुसार प्राचीन काल में इसी पर्वत शिखर पर शिव भक्त राक्षस राज रावण ने भी घोर तपस्या किया था। जिसके कारण इस पर्वत शिखर को रावण गिरी के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी। जो बाद में रावण गिरी से रानगिर के रूप में परिवर्तित हो गया।

भगवती हरसिद्धि का यह पवित्र धाम मध्य प्रदेश के सागर नगर से दक्षिण पूर्व दिशा में 40 किलोमीटर दूर स्थित है। मंदिर तक जाने के लिए परिवहन की अच्छी सुविधा भी है। यह स्थान नॉर्थ साउथ कॉरिडोर के सागर नागपुर भाग में महामार्ग से करीब 8 किलोमीटर की दूरी पर है। मंदिर और ग्राम दोनों ही देहार नदी के किनारे पर हैं। महामार्ग से ग्राम को जोड़ने वाली रोड देहार नदी के किनारे किनारे होकर जाती है। यह मार्ग सागौन तेंदू पलाश आदि के वृक्ष वाले जंगल से गुजरत हुई लहराती फसलों के बीच पवित्र देहार नदी के साथ चलती हुई मंदिर तक पहुंचती है।

1 या 2 किलोमीटर दूर से ही भगवती हरसिद्धि के मंदिर का शिखर दिखने लगता है। रानगिर सुरम्य वनप्रान्तर की गोद में बसा एक छोटा सा गांव है। इसी गांव के उत्तरी छोर पर देहार नदी के पूर्वी तट पर स्थित है माता हरसिद्धि का पुराना प्रसिद्ध मंदिर। मंदिर के परकोटे का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में है। प्रवेश द्वार से कुछ सीढ़ियां नीचे उतरकर हम इस मुख्य मंदिर के आंगन में पहुंचते हैं।

इस मंदिर का निर्माण दुर्ग शैली में हुआ है। बाहरी पैराकुटे से जुड़ा चौतरफा भीतरी बरामदा। इसी पर कोट के अंदर विराजमान है मां भगवती हरसिद्धि भगवती का दर्शन करते ही उनकी असीम करुणा एवं वात्सल्यता की रहस्यमई अनुभूति होती है। इस अनुभूति की कोई व्याख्या संभव नहीं है।

ऐसा कहा जाता है की मां की महिमा से प्रभावित होकर महाराजा छत्रसाल ने ही उनका यह भव्य मंदिर देहार नदी के पवित्र तट पर बनवाया था।

यह प्रतिमा अनगढ़ है। कहा जाता है रानगिर के पास ही एक अहीर का घर था जो की मां दुर्गा का परम उपासक एवं भक्त था। उसकी नन्ही बेटी प्रतिदिन पास के जंगल में गाय भैंस चराती थी। वहीं पर वह अपने सहेलियों के साथ में खेलती थी। उन्हीं बच्चियों में से एक ऐसी भी थी जो अहीर की बेटी को बहुत प्यार करती थी। वह उसे अपना खाना खिलाती थी और लौटते समय उसे चांदी के रुपए भी देती थी। उस देवी भक्ति अहीर को अपनी बेटी के सहेली को देखने की इच्छा हुई और उसने चुपचाप छुप कर देखना चाहा। उसने देखा कि देहार नदी के तटवर्ती पर्वत श्रृंखलाओं से एक दिव्य रूप निकली है। उसे यह भी अनुभव हुआ कि यह तो मेरी आराध्या साक्षात जगदंबा ही है। इसके उपरांत वह व्यक्ति श्रद्धा से वशीभूत होकर झुरमुट से निकलकर अपनी आराध्या दिव्य कन्या की ओर दौड़ा। परंतु दिव्या कन्या उसी समय वहां से अदृश्य हो गई और अपनी एक पाषाण मूर्ति को वहीं पर छोड़ दिया। इसके बाद भगवती ने अपने भक्त को स्वप्न में कहा कि उस मूर्ति के ऊपर छाया का प्रबंध कर दो। जब से वह मूर्ति वहीं पर है और मां भगवती की वहीं पर आराधना की जाती है।

नदी की दूसरी तरफ बूढी माता का मंदिर है। इस मंदिर में जाने के लिए दो मार्ग है। पहले मार्ग में आप नदी पार कर जाम से ही बुद्धि रामगढ़ मंदिर पहुंच सकते हैं। दूसरा रास्ता सागर रहली रोड से रोड पर जाकर बड़ौदा गांव के पास चौराहे से दाहिने तरफ मुड़कर पथरीले रास्ते से होते हुए हम बूढ़ी रानगिर मंदिर में पहुंच सकते हैं।

दोनो मंदिरों को जोड़ने के लिए एक झूला पुल बन रहा है जिसका भूमि पूजन स्थानीय विधायक एवं भूतपूर्व मंत्री माननीय गोपाल भार्गव जी एवं वर्तमान में मध्य प्रदेश शासन में मंत्री माननीय गोविंद सिंह राजपूत जी ने किया है। इससे दोनों मंदिरों के बीच में आने-जाने में सुविधा बढ़ जाएगी।

आप सभी से अनुरोध है की बुंदेलखंड के इस शक्तिपीठ और दिन में तीन बार अपना रूप बदलने वाली देवी के नवरात्रि में दर्शन कर अलौकिक सुख की प्राप्ति करें।

जय मां शारदा।

निवेदक:-

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

(प्रश्न कुंडली विशेषज्ञ और वास्तु शास्त्री)

सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता, मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल 

संपर्क – साकेत धाम कॉलोनी, मकरोनिया, सागर- 470004 मध्यप्रदेश 

मो – 8959594400

ईमेल – 

यूट्यूब चैनल >> आसरा ज्योतिष 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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