डाॅ. मीना श्रीवास्तव

‘स्वामी विवेकानंद-ज्योतिर्मय आदर्श’ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठक गण!

यह लेख आपको नव वर्ष की शुभकामनाएँ देने के लिए तो है ही! लेकिन इस वर्ष के इस नये लेख के लिए मेरे आदर्श स्वामी विवेकानन्द के बारे में लिखने के अवसर के अलावा और कोई औचित्य नहीं हो सकता। जैसे ही हम ‘स्वामी’ नाम का उच्चारण करते हैं, एक गेरुआ वस्त्रधारी व्यक्तित्व हमारी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है, जो किसी एकांत वन या गुफा में कठोर तपस्या कर रहा है! ऐसे विजनवास को जानबूझकर स्वीकार करने का कारण होता है, इस नश्वर संसार में माया के प्रलोभन से मुक्ति पाकर ईश्वर प्राप्ति करना!

लेकिन मित्रों, इसके एक अपवाद का स्मरण होता है, स्वामी विवेकानन्द, जो हिंदू धर्म की समृद्ध अवधारणा के महान सार्वभौमिक राजदूत थे! ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ अर्थात संपूर्ण वसुधा या विश्व एक परिवार की तरह है, यह मौलिक और अमूल्य संदेश दुनिया को देने वाले सच्चे विश्व नेता! मित्रों, आज के शुभ दिन यानि, १२  जनवरी को इस महान वैश्विक नेता की जयंती है। १८६३ में आज ही के दिन कोलकाता में जन्मे, ‘ ईश्वर में पूरी तरह से अविश्वासी’, बेहद जिज्ञासु नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामीजी का पूर्व नाम) कई विद्वानों और साधु-संतों से पूछा करते थे, “क्या आपने ईश्वर को देखा है?” लेकिन एकमात्र उत्तर स्वामी रामकृष्ण परमहंस, जो एक  दक्षिणेश्वर मंदिर में ‘काली माँ’ के प्रबल भक्त और महान संत,थे, से आया, “हाँ”, और फिर गुरु और शिष्य की सांसारिक और पारलौकिक रूप से एक ऐतिहासिक समानांतर यात्रा शुरू हुई। इसमें नरेंद्र को देवी माँ और अपने परम गुरु से शुभाशीष और मोक्ष की प्राप्ति हुई।

स्वामीजी महान भारतीय सन्यासी और दार्शनिक थे। १९ सितंबर १८९३ को शिकागो में विश्व धर्म संसद में, विवेकानंद के प्रसिद्ध भाषण ने स्पष्ट रूप से ‘हिंदू धर्म और अंतरधार्मिक संवाद के इतिहास में एक ऐतिहासिक और प्रभावशाली क्षण’ के रूप में रेखांकित किया। जिस समय अन्य सभी धार्मिक नेता बहुत औपचारिक तरीके से, ‘देवियों और सज्जनों!’ इस प्रकार दर्शकों को संबोधित कर रहे थे, उसी समय ब्रिटिश भारत के इस युवा और तेजस्वी प्रतिनिधि ने ७००० से अधिक प्रतिष्ठित दर्शकों के समक्ष खड़े होकर उन्हें ‘अमरीका के मेरे भाइयों और बहनों’ इस तरह अत्यंत प्रेम से संबोधित किया। धर्म, नस्ल, जाति और पंथ की सभी बंधनों के परे जाकर, अलौकिक बुद्धिमानी से स्वयंप्रकाशित इस युवक ने मानवता के एक समान सूत्र से सभागृह में उपस्थित हर एक व्यक्ति से अपने आप को जोड़ दिया। क्या यह कोई आश्चर्य की बात है कि, तीन मिनट से अधिक समय तक इन सम्पूर्ण रूप से अजनबियों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उसका अभिवादन किया? इसके फलस्वरूप इस प्रतिभाशाली युवक को भाषण के लिए पहले जो थोड़ा समय दिया गया था, उसे बड़ी प्रसन्नता से बढ़ा दिया गया। ये ‘४७३ ज्योतिर्मय शब्द’ आज भी शिकागो के कला संस्थान में इस प्रथम दिव्य वाणी के अनूठे प्रतीक के रूप में गर्व से प्रदर्शित किये जाते रहे हैं। इस एक भाषण से भारत के इस मेधावी सुपुत्र ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया और उसके पश्चात उन्हें दुनिया भर में कई जगहों पर बड़े सम्मान के साथ मार्गदर्शन वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया।

बड़े आश्चर्य की बात यह है कि, अपने पहले भाषण में स्वामीजी ने कहा, “भारत की प्राथमिकता धर्म नहीं, गरीबी है!” उनका मूल उद्देश्य अपने गरीब भारतीय भाई-बहनों का हर प्रकार से उत्थान करना था। इस सामाजिक उद्देश्य के लिए ‘रामकृष्ण मठ’ और ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की गई। मिशन दुनिया भर में २६५ केंद्रों के माध्यम से जरूरतमंद लोगों को सेवाएं प्रदान करता है (२०२२ के आंकड़ों के अनुसार भारत में ऐसे १९८ केंद्र हैं)। ये संगठन धार्मिक प्रवचनों के अलावा भी बहुत कुछ करते हैं। स्वामीजी के सपने को आगे बढ़ाने और निम्न से निम्न स्तर पर लोगों की सेवा करने के लिए यह मिशन हमेशा सबसे अग्रणी रहता है। विभिन्न भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में स्वामीजी और उनके शिष्यों के साहित्य प्रकाशनों के माध्यम से इन उद्देश्यों को प्रचारित और प्रसारित किया जाता है। मिशन द्वारा संचालित धर्मार्थ अस्पताल, मोबाइल क्लिनिक और प्रसूति केंद्र पूरे भारत में फैले हुए हैं। मिशन द्वारा नर्सों के लिए प्रशिक्षण केंद्र, अनाथालय और वृद्धाश्रम भी चलाए जाते हैं। यह सामाजिक कार्य ग्रामीण एवं आदिवासी कल्याण कार्यों के साथ समन्वय साधते हुए निरंतर चलाया जा रहा है। स्कूलों में विद्यार्थियों को पढ़ाई के साथ-साथ स्कूल ड्रेस, अल्पाहार और पुस्तकें भी दी जाती हैं।

मानवता के मूर्तिमंत प्रतीक, एक निस्वार्थ सामाजिक नेता और हिंदू धर्म के कट्टर अनुयायी, स्वामीजी ने हर भारतीय में ईश्वर को देखा। उन्होंने पूरे देश की पैदल यात्रा की। जनता से करीबी रिश्ता बनाते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं को समझा, उन्हें आत्मसात किया और अपना पूरा जीवन इन समस्याओं की जटिलताओं को सुलझाने में लगा दिया। अपने दिव्य प्रतिभाशाली गुरु परमहंस की सलाह पर उन्होंने भारत की यह पूरी यात्रा की। परमहंस ने स्वामीजी को बहुमूल्य सलाह दी थी, “हिमालय की गुफाओं में ध्यान करने और केवल स्वयं की मुक्ति को तलाशने के बजाय भारत के समूचे गरीब लोगों की सेवा करो|” खराब स्वास्थ्य के चलते हुए भी अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए विवेकानन्दजी का यह सेवाव्रत जारी रहा। स्वामीजी ४ जुलाई १९०२ को मात्र ३९ साल की उम्र में बेलूर मठ, हावड़ा में महा-समाधि में चले गए।

प्रिय मित्रों, स्वामीजी के प्रेरक उद्धरण बार-बार दोहराए जाते रहे हैं। उनमें से मेरे कुछ प्रिय उद्धरण आप के साथ साझा कर रही हूँ:

*ईश्वर की संतान होने का आत्मविश्वास

“तुम सर्वशक्तिमान हो| तुम कुछ भी और सबकुछ कर सकते हो|”

*आत्मचिंतन

“दिनभर में कम से कम एक बार स्वयं से बातचीत कीजिये, वर्ना आप इस जग के एक बुद्धिमान व्यक्ति से मिलने का अवसर खो देंगे|”

*बाधाएँ और उन्नति

“जिस किसी दिन आप किसी भी समस्या का सामना नहीं करते, तब यह पक्का मान कर चलिए कि, आप गलत राह पर मार्गक्रमण कर रहे हैं|”

प्रिय पाठकों, आइए, इस विशेष दिन पर हम भारत के महान सुपुत्र, प्रभावशाली दार्शनिक, समाज सुधारक, सकल जग को वंदनीय तथा वेदांत के विश्व उपदेशक स्वामी विवेकानन्दजी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करें और उनके प्रेरक दर्शन को आत्मसात करने का प्रयास करें!

धन्यवाद🙏🌹

©  डॉ. मीना श्रीवास्तव

दिनांक-१२ जानेवारी २०२४

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

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