हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – देश-परदेश – हिट एंड रन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 65 ☆ देश-परदेश – हिट एंड रन ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आजकल उपरोक्त विषय को लेकर सब चर्चा कर रहें हैं। देश  के ट्रांसपोर्टर नए कानून के विरुद्ध चक्का जाम के लिए लाम बंद हैं। जब भी कोई परिवर्तन होता है, तो प्रभावित लोग उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं।

सामाजिक मंचों पर इस बात को लेकर राजनीति करना और पक्ष /विपक्ष में विचार परोसने की प्रतिस्पर्धा आरंभ हो जाती हैं। लोगों का काम है कहना, किसी ने नव वर्ष पर मदिरालयों पर लगने वाली की लाइनों की तुलना पेट्रोल पंप पर लगी मीलों लंबी लाइनों से कर दी हैं। किसी ने इसको राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से जोड़ दिया हैं।

बचपन में भी हम सब हिट एंड रन खेलते थे। मोहल्ले के बच्चों की पिटाई कर घर में दुबक जाते थे। वो बात अलग है, जब बच्चों की मां आकर इस बात का उल्लाहना देती थी, तो हमारी डंडे से हुई पिटाई आज तक जहन में हैं। शिकायतकर्ता के घर में लगी द्वारघंटी बजा कर आंटी को कुछ दिन तक तंग अवश्य किया जाता था।

वर्तमान में यदि आप किसी बच्चे से उसके पेरेंट्स को शिकायत करते हैं, तो बच्चों की पिटाई /कुटाई की बात तो अब इतिहास की बात हो गई है। उल्टा परिजन झूट बोल कर कह देंगे की हमारा बच्चा तो घर से बाहर ही नहीं निकलता हैं। इस प्रकार के व्यवहार से बच्चे भविष्य में आतंकवादी की श्रेणियों में शामिल हो जातें हैं।

“हिट एंड रन” का सबसे प्रसिद्ध किस्सा जिसके नायक बॉलीवुड के चर्चित नाम सलमान खान थे। उनके इस कृत से लोग मुंबई में  फुटपाथ पर रात्रि में सोते समय लोग आज भी  सजग रहते हैं।

आज के हिट और रन के विरोधियों से तो एक ही बात समझ में आती है ” चोरी और ऊपर से सीनाजोरी”। 

.© श्री राकेश कुमार

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 219 ☆ चिंतन – “लकीर का सवाल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक चिंतनीय आलेख – “लकीर का सवाल”)

☆ चिंतन – “लकीर का सवाल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

एक सवाल कुछ दिनों से मन में उमड़ घुमड़ रहा है कि सोशल मीडिया में इन दिनों व्यंग्य बहुत चर्चा में है, पर कुछ लोग अपनी बड़ी लकीर खींचकर सामने वाले को फकीर बनाने में विश्वास कर रहे हैं और कुछ विधा और शैली को लेकर खेमेबाजी में व्यस्त हैं ?

एक आलोचक कम व्यंग्यकार ने घुटना रगड़ते हुए जबाब दिया – व्यंग्य पहले हाशिये में था। कवि सम्मेलन में हास्य कवि बुलाये जाते थे फिर धीरे-धीरे हास्य के साथ व्यंग्यकार को भी बुलाया जाने लगा और मंच में इनको चूरन चटनी की तरह इस्तेमाल किया गया। धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं भी हास्य – व्यंग्य छापतीं थीं। व्यंग्य धीरे-धीरे आया लेकिन व्यंग्य को मजबूत करने की बजाय कुछ लोग विधा और शैली के बहाने खेमेबाजी करने में लग गए, जबकि आज व्यंग्य का एक मानक बनाया जाना चाहिए। व्यंग्य के व्याकरण पर चर्चा होनी चाहिए, हास्य की तरह व्यंग्य को ग्यारहवां रस बनाने पर विचार होना चाहिए क्योंकि लय, गति और रस के बगैर कोई बात गले नहीं उतरती। व्यंग्य की लान में बहुत सी जंगली घास अनजाने में ऊगती है तो उसको निकालते रहना बेहद जरूरी है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 245 ⇒ मुॅंह पर तारीफ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुॅंह पर तारीफ…।)

?अभी अभी # 245 ⇒ मुॅंह पर तारीफ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुॅंह पर तारीफ, पीठ पीछे बुराई, इसे ही तो व्यवहार कुशलता कहते हैं मेरे भाई। औपचारिकता जितनी शालीन और संतुलित होती है, अनौपचारिकता और अंतरंगता उतनी ही विपरीत और खुला खेल फर्रूखाबादी।

सभ्यता और शालीनता ही तो हमारी सामाजिक पहचान है। निंदा स्तुति और राग द्वेष सज्जनों, विद्वानों और भद्र व्यक्तियों को शोभा नहीं देते। व्यक्ति जितना विनम्र और संस्कारी होगा, वह उतना ही एक फलों से लदे हुए वृक्ष की तरह सदा झुका हुआ, सदा मुस्कुराता हुआ, सबका अभिवादन स्वीकार करता हुआ नजर आएगा।।

यश, कीर्ति और सफलता हर व्यक्ति को व्यवहार कुशल बना ही देती है। क्षेत्र साहित्य का हो अथवा राजनीति का, सामाजिक हो अथवा धार्मिक, परस्पर प्रतिद्वंद्विता और गला काट स्पर्धा कहां नहीं। यहां अगर कुछ अगर अपने साथ चलते हैं तो कुछ विपरीत भी। सबको साथ लेकर चलने में ही समझदारी होती है, इसलिए सार सार को ग्रहण किया जाता है और थोथा उड़ा दिया जाता है।

दूर के ढोल कहां नहीं होते ! लेकिन जब उत्सव होता है, खुशी का मौका होता है, इन्हें पैसे देकर करीब बुलाया जाता है।

मजबूरी में तो साड़ू और फूफा को भी बुलाना पड़ता है। सभी नाचते हैं, नचाते हैं, खुशियां मनाते हैं। खेल खतम, पैसा हजम। दूर के ढोल सुहाने।।

हमें वैसे गले मिलते किसी से डर नहीं लगता, लेकिन पीठ पीछे बुराई करने वाले कहां बाज आते हैं, ऐसे मौके पर ! देखना संभलकर रहना, आस्तीन का सांप है। यह अलग बात है, कल वे स्वयं, उसकी ही बांहों में बाहें डालकर घूम रहे थे।

योग की तरह राजनीति में भी एक आसन है, जिसे विपरीतकरणी कहते हैं। वैसे भी राजनीति कोई बच्चों का खेल तो है नहीं।

यहां स्वार्थ के लिए अगर दोस्ती की जाती है तो स्वार्थ और मतलब के लिए दुश्मन भी पैदा किए जाते हैं। बाहरी धरातल पर सांप नेवले की तरह लड़ने वाले ये गिरगिट, कब रंग बदल लें, कहना मुश्किल है। घड़ियाली और मगरमच्छ के आंसू देखना हो, तो कभी भूलकर भी चिड़ियाघर मत चले जाना। राजनीति के अजायबघर में सभी जहरीले जंतु नजर आ जाएंगे। वैसे भी अगर बिच्छू सांप को काटेगा, तो एक तरह से जहर ही तो जहर को काटेगा।।

समझदार को कहते हैं, इशारा ही काफी होता है, साहित्य हो अथवा राजनीति, समझने वाले तो खैर इशारा समझ जाते हैं, फिर भी सच है दुनिया वालों, मुंह पर तारीफ को हम अनाड़ी तो सच ही मान लेते हैं।

ईश्वर हमें पीठ पीछे बुराई करने वालों से बचाए। हमारे लिए दूर के ढोल सुहाने ही हों। बदलते रहें गिरगिट अपना रंग, ठगते रहें हमें राजनीति के मन लुभावन नारे, बस हम किसी को ना ठगें। हमें तो हमेशा ठगा ही जाना है, क्योंकि माया महा ठगनी हम जानी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 222 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 222 धरातल ?

हम पति-पत्नी यात्रा पर हैं। दांपत्य की साझा यात्रा में अधिकांश भौगोलिक यात्राएँ भी साझा ही होती हैं। बस का स्लीपर कोच.., कोच के हर कंपार्टमेंट में वातानुकूलन का असर बनाए रखने के लिए स्लाइडिंग विंडो है। निजता की रक्षा और  धूप से बचाव के लिए पर्दे लगे हैं।

मानसपटल पर छुटपन में सेना की आवासीय कॉलोनी में खेला ‘घर-घर’ उभर रहा है। इस डिब्बेनुमा ही होता था वह घर। दो चारपाइयाँ साथ-खड़ी कर उनके बीच के स्थान को किसी चादर से ढककर बन जाता था घर। साथ की लड़कियाँ भोजन का ज़िम्मा उठाती और हम लड़के फ़ौजी शैली में ड्यूटी पर जाते। सारा कुछ नकली पर आनंद शत-प्रतिशत असली। कालांतर में हरेक का अपना असली घर बसा और तब  समझ में आया कि ‘दुनिया  जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है.., मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ यों भी बचपन में निदा फाज़ली कहाँ समझ आते हैं!

जीवन को समझने-समझाने की एक छोटी-सी घटना भी अभी घटी। रात्रि भोजन के पश्चात बस में चढ़ता हुए एक यात्री जैसे ही एक कंपार्टमेंट खोलने लगा, पीछे से आ रहे यात्री ने टोका, ‘ये हमारा है।’ पहला यात्री माफी मांगकर अगले कंपार्टमेंट में चला गया। अठारह-बीस घंटे के लिए बुक किये गए लगभग  6 x 3 के इस कक्ष से सुबह तक हर यात्री को उतरना है। बीती यात्रा में यह किसी और का था, आगामी यात्रा में किसी और का होगा। व्यवहारिकता का पक्ष छोड़ दें तो अचरज की बात है कि नश्वरता में भी ‘मैं’, ‘मेरा’ का भाव अपनी जगह बना लेता है। जगह ही नहीं बनाता अपितु इस भाव को ही स्थायी समझने लगता है।

निदा के शब्दों ने चिंतन को चेतना के मार्ग पर अग्रसर किया। सच देखें तो नश्वर जगत में शाश्वत तो मिट्टी ही है। देह को बनाती मिट्टी, देह को मिट्टी में मिलाती मिट्टी। मिट्टी धरातल है। वह व्यक्ति को बौराने नहीं देती पर सोना, कनक है।

‘कनक, कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय, या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।’

बिहारी द्वारा वर्णित कनक की उपरोक्त सर्वव्यापी मादकता के बीच धरती पकड़े रखना कठिन हो सकता है, असंभव नहीं। मिट्टी होने का नित्य भाव मनुष्य जीवन का आरंभ बिंदु है और उत्कर्ष बिंदु भी।

इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 244 ⇒ पानी में जले… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आड़े तिरछे लोग…।)

?अभी अभी # 244 ⇒ पानी में जले… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सुबह हो गई है, लेकिन सूर्योदय नहीं हुआ ! सुना है आसमान में बादलों से उसका शीत युद्ध चल रहा है। बादलों में भले ही पानी ना हो, लेकिन बर्फीली हवाएं उनकी हौंसला अफजाई कर रही हैं और सूरज का कोई बस नहीं चल रहा। इधर इन सब घटनाओं से बेखबर हम बरखुरदार आराम से रजाई में लेटे हैं। केवल चाय की बाहरी ताकत ही हमें रजाई में से मुंह बाहर निकालने के लिए मजबूर कर सकती है। चाय से थोड़ी बहुत गर्मी तो आ सकती है, लेकिन इतनी भी नहीं, कि एक झटके में रजाई फेंककर बिस्तर को अलविदा कह दिया जाए।

रेडियो पर भजनों का दौर निकल चुका है, अब फड़कते गीतों की बारी है। अचानक कानों में बोल पड़ते हैं, पानी में जले, मेरा गोरा बदन, पानी में ! मैं एकदम चौंक पड़ता हूं और हड़बड़ाहट में गर्मागर्म चाय से मेरी जबान जल जाती है। ऐसी ठंड में, बदन गोरा हो या काला, कोई पानी में नहाने की सोच भी कैसे सकता है और एक अज्ञात सुंदर चेहरे के प्रति मेरा चिंता और सहानुभूति का भाव जागृत हो गया।।

इतने में पत्नी की कर्कश आवाज सुनाई दी, घंटे भर से गीजर चल रहा है, जाकर नहाते क्यूं नहीं हो। लगा, किसी ने मेरे सोच पर घड़ों पानी डाल दिया हो। गीज़र के जिक्र ने अनायास ही, हमारी ट्यूबलाइट जला दी। हो सकता है, वह गोरी भी गीजर के गर्म गर्म पानी से नहा रही होगी। पानी कुछ जरूरत से ज्यादा ही गर्म होगा, और उसका गोरा बदल जल गया होगा।

कुछ जिद्दी किस्म के आशिकों का हमने प्यार की आग में तनबदन जलते देखा है, लेकिन पानी में गोरे बदन के जलने की कल्पना तो कोई कवि ही कर सकता है। जांच पड़ताल और तफ्तीश से पता चला कि ये कवि महोदय और कोई नहीं, प्रेम पुजारी में रंगीला रे, छलिया रे, ना बुझे है, किसी जल से ये जलन जैसे गीत लिखने वाले पद्मभूषण गोपालदास सक्सेना उर्फ़ नीरज ही हैं। हमें पहले तो यकीन ही नहीं हुआ, फिर पता चला इसका पूरा श्रेय नीरज जी को नहीं दिया जा सकता, जनाब हसरत जयपुरी भी शब्दों की इस छेड़छाड़ के इस खेल में नीरज जी के साथ हैं।

शायर का क्या, वह पानी में तो क्या, जहां चाहे, वहां आग लगा दे। लेकिन एक कवि और शायर यह भूल जाता है कि उसकी लिखी दो लाइन की पंक्तियां हमारे जैसे मानवतावादी इंसानों को कितना विचलित कर देती है। क्या हसरत होगी नीरज और जनाब हसरत जयपुरी की, ये तो वे ही जानें, क्योंकि गोरा बदन तो जला सो जला।।

हमें अच्छी तरह से पता है, फिल्म मुनीम जी में जब योगिता बाली जी पर यह गीत फिल्माया गया होगा, तब ठंड का नहीं, दोपहर का मौसम होगा। फिर भी ये नाज़ुक बदन और नाज़ुक मिजाज़

अभिनेत्रियों को पानी के नाम से ही जुकाम हो जाता है। कैसे फिल्माते होंगे बेचारे निर्देशक ऐसे गीत ;

पानी में जले,

पानी में जले

मोरा गोरा बदन

पानी में..!!

हमने भैंस का तो बहुत सुना है, जिसका बदन गोरा नहीं काला होता है और वह अधिकतर पानी में ही पड़ी रहती है, लेकिन किसी गोरी की ऐसी क्या मजबूरी कि वह अपने गोरे बदन को पानी में जलाए। चवन्नी छाप दर्शक भले ही ताली बजा लें, काव्य प्रेमी इसमें भी अलंकार ढूंढ लें, लेकिन मेरी मां, तू तो समझदार है, पानी से बाहर क्यों नहीं आ जाती।

अपने गोरे बदन को टॉवेल से पोंछ। अगर पानी से बदन ज्यादा जल गया हो, तो उस पर बरनाॅल लगा और आगे से कसम खा ले, ऐसे पानी में कभी पांव नहीं रखना, जिसमें अपना गोरा बदल जले।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 243 ⇒ गरीब की जोरू… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गरीब की जोरू।)

?अभी अभी # 243 ⇒ गरीब की जोरू… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

ना तो गरीब कोई गाली है, और ना ही जोरू कोई गाली, लेकिन यह भी एक सर्वमान्य, सनातन सत्य है कि एक गरीब का इस दुनिया में सिर्फ अपनी जोरू पर ही अधिकार होता है। होगा पति पत्नी का रिश्ता, प्रेम और बराबरी का आपके सम्पन्न और शालीन समाज के लिए, गरीब की जोरू तो बनी ही, जोर जबरदस्ती के लिए है।

हमारे समाज ने पत्नी को अगर धर्मपत्नी और अर्धांगिनी का दर्जा दिया है तो एक आदर्श पत्नी भी अपने पति को परमेश्वर से कम नहीं मानती। सात फेरों और सात जन्मों का रिश्ता होता है पति पत्नी का। लेकिन एक गरीब और उसकी जोरू समाज के इन आदर्श दायरों में नहीं आते।।

हम भी अजीब हैं। बचपन में कॉमिक्स की जगह हमने चंदामामा में ऐसी ऐसी कहानियां पढ़ी हैं, जिनका आरंभ ही इस वाक्य से होता था। एक गरीब ब्राह्मण था। समय के साथ थोड़ा अगर सुधार भी हुआ तो शिक्षकों को गुरु जी की जगह मास्टर जी कहा जाने लगा और उनके कल्याण के लिए एक गृह निर्माण संस्था ने सुदामा नगर ही बसा डाला।

लेकिन वह तब की बात थी, जब लोग सुदामा को भी गरीब समझते थे और एक मास्टर को भी। जिसकी आंखों पर अज्ञान की पट्टी पड़ी हो, उसे कौन समझाए। सुदामा एक विद्वान ब्राह्मण थे, श्रीकृष्ण के बाल सखा थे, और हमेशा पूरी तरह कृष्ण भक्ति में डूबे रहते थे। आज सुदामा नगर जाकर देखिए, आपको एक भी शिक्षक नजर नहीं आएगा। सभी सुदामा नगर के वासी आज उतने ही संपन्न और भाग्यशाली हैं, जितने सुदामा श्रीकृष्ण से मिलने के बाद हो गए थे।।

बात गरीब की जोरू की हो रही थी। आप अगर एक गरीब की पत्नी को जोरू कहकर संबोधित करते हैं, तो उसे बुरा नहीं लगता, क्योंकि उसका पति भले ही गरीब है, पर वह उसका मरद है। हमने अच्छे अच्छे मर्दों को घर में घुसते ही चूहा बनते देखा है। लेकिन गरीब की जोरू का मरद तो और ही मिट्टी का बना होता है। वहां मरद को दर्द नहीं होता, लेकिन जब वह अपनी जोरू को मारता है, तब जोरू को दर्द होता है। आखिर एक मरद और जोरू का रिश्ता, दर्द का ही रिश्ता ही तो होता है। गरीबी और मजबूरी वैसे भी दोनों अभिशाप ही तो हैं।

हमारे लिए तो मजबूरी का नाम भी महात्मा गांधी है। जब कि गरीब का दुख दर्द, अभाव और मजबूरी अपने आप में एक मजाक है। जो किसी की गरीबी का मजाक उड़ाता है, उसके लिए किसी गरीब और जोरू के लिए दर्द कहां से उपजेगा।।

जब रिश्तों में मूल्य नहीं होते तो रिश्ते भी मजाक बन जाते हैं। मजाक और हंसी मजाक में जमीन आसमान का अंतर होता है। क्या गरीबों के लिए हमारा दर्द, मुफ्त राशन की तरह एक मजाक बनकर नहीं रह गया है।

जी हां, यही है हमारे मजाक का स्तर। गरीब की जोरू सबकी भाभी। यहां हम गरीब का ही नहीं, उसकी गरीबी का ही नहीं, उसकी पत्नी का भी मजाक उड़ा रहे हैं। हें, हें ! कैसी बात करते हैं। देवर भाभी में तो मजाक चलता रहता है, और वास्तविकता में भी चल ही रहा है। गरीबी आज मजाक का विषय ही है। गरीब की जोरू सबकी भाभी।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #213 ☆ दस्तूर-ए-दुनिया… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दस्तूर-ए-दुनिया…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 213 ☆

☆ दस्तूर-ए-दुनिया

‘ता-उम्र किसी ने जीने की वजह न पूछी/ अंतिम दिन पूरा मोहल्ला पूछता है/ मरा कैसे?’ जी हां! यही है दस्तूर-ए-दुनिया और जीवन का कटु सत्य, क्योंकि संसार में सभी संबंध स्वार्थ के हैं। वैसे भी इंसान अपनी खुशी किसी से सांझी नहीं करना चाहता। वह अपने द्वीप में कैद रह कर उन खूबसूरत लम्हों को जी लेना चाहता है। सो! वह आत्मकेंद्रित हो जाता है। परंतु वह अपने दुख दूसरों से बांटना चाहता है, ताकि शह उनकी सहानुभूति बटोर सके। वैसे भी दु:ख बांटने से हल्का हो जाता है। अक्सर लोग गरीब व दुखी लोगों के निकट जाने से कतराते हैं, कहीं उनकी आफत उनके गले का फंदा न बन जाए। वे भयभीत रहते हैं कि कहीं उनकी खुशियों में खलल न पड़ जाए अर्थात् विक्षेप न पड़ जाए। परंतु वे लोग जिन्होंने आजीवन उनका हालचाल नहीं पूछा था, मृत्यु के पश्चात् अर्थात् अंतिम वेला में  वे लोग दुनियादारी के कारण उसका हाल जानना चाहते है।

जीवन एक रंगमंच है, जहाँ इंसान अपना-अपना क़िरदार निभाकर चल देता है। विलियम शेक्सपीयर ने ‘Seven Stages Of Man’ में  मानव की बचपन से लेकर वृद्धावस्था की सातों अवस्थाओं का बखूबी बयान किया है। ‘क्या बताएं लौट कर नौकरी से क्या लाए हैं/ गए थे घर से जवानी लेकर/ लौटकर बुढ़ापा लाए हैं’ में भी उक्त भाव प्रकट होता है। युवावस्था में इंसान आत्म-निर्भर होने के निमित्त नौकरी की तलाश में निकल पड़ता है, ताकि वह अपने परिवार का सहारा बन सके और विवाह-बंधन में बंध सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देकर अपना दायित्व वहन कर सके। सो! वह अपनी संतान की परवरिश में स्वयं को झोंक कर अपने अरमानों का खून कर देता है। उसके आत्मज भी अपनी गृहस्थी बसाते हैं और उससे दूर चले जाते हैं। दो से उन्होंने अपनी जीवन यात्रा प्रारंभ की थी और दो पर आकर यह समाप्त हो जाती है और सृष्टि चक्र निरंतर चलता रहता है।

अक्सर बच्चे माता-पिता के साथ रहना पसंद ही नहीं करते और रहते भी हैं, तो उनमें अजनबीपन का एहसास इस क़दर हावी रहता है कि सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। वैसे तो आजकल मोबाइल ने सबका साथी बन कर दिलों में दरारें नहीं, दीवारें उत्पन्न कर दी हैं। सो! एक छत के नीचे रहते हुए भी वे एकां त की त्रासदी झेलने को विवश रहते हैं और उनमें संवाद का सिलसिला प्रारंभ ही नहीं हो पाता।  घर के सभी प्राणी मोबाइल में इस प्रकार लिप्त रहते हैं कि वे सब अपना अधिकांश समय मोबाइल के साथ गुज़ारते हैं, क्योंकि गूगल बाबा के पास सभी प्रश्नों के उत्तर व सभी समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। आजकल तो लोग प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी मोबाइल से करते हैं।

इस प्रकार इंसान आजीवन इतना व्यस्त रहता है कि उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु बुढ़ापा एक समस्या है, क्योंकि इस अंतराल में मानव दुनिया के मायाजाल में उलझा रहता है। उसे अपने बारे में सोचने का समय ही नहीं मिलता। परंतु वृद्धावस्था एक समस्या है, क्योंकि इस काल में असंख्य रोग व चिंताएं इंसान को जकड़ लेती हैं और अंत काल में उसे प्रभु को दिए गये अपने वचन की याद आती है कि कब होता है कि मां के गर्भ में उल्टा लटके हुए उसने प्रार्थना की थी कि वह उसका नाम स्मरण करेगा। परंतु जीवन का प्रयोजन कैवल्य प्राप्ति को भूल जाता है। ‘यह किराए का मकान है/ कौन कब तक ठहरेगा। खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ जाएगा।’ अंतकाल में न संतान साथ देती है, न ही शरीर व मनोमस्तिष्क ही कार्य करते है। वह प्रभु से ग़ुहार लगाता है कि वह उसके सब अवगुण  माफ कर दे और उससे थोड़ी सी मोहलत दे दे। परंतु परिस्थितियों के अनुकूल होते ही वह दुनिया की रंगीनियों व बच्चों की संगति में अपनी सुधबुध खो बैठता है। इसलिए कहा जाता है कि इंसान युवावस्था में नौकरी के लिए निकलता है और वृद्धावस्था में सेवानिवृत्त होकर लौट आता है और शेष जीवन प्रायश्चित करता है कि उसने सारा जीवन व्यर्थ क्यों गंवा दिया है। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित  पंक्तियां ‘यह जीवन बड़ा अनमोल बंदे/ राम राम तू बोल’ यही है जीवन का सत्य। लोग बाह्य आंकड़ों में लिप्त रहते हैं तथा दिखावे के लिए परिवारजन भी चार दिन आंसू बहाते हैं, फिर वही ढाक के तीन पात। किसी ने बहुत सुंदर कहा है कि ‘इंसान बिना नहाए दुनिया में आता है और नहा कर चल देता है। लोग श्मशान तक कांधा देते हैं और अग्निदाह कर लौट आते हैं। सो। आगे का सफ़र उसे अकेले ही तय करना पड़ता है।  ‘जप ले हरि का नाम फिर पछताएगा/ जब छूटने लगेंगे प्राण फिर पछताएगा’ तथा ‘एक साचा तेरा नाम’ से भु यही स्पष्ट होता है कि केवल प्रभु नाम ही सत्य हैं और सत्य सदैव मंगलकारी होता है। इसलिए उसका सुंदर होना तो स्वाभाविक है तथा उसे जीवन में धारण करें, क्योंकि वही अंत तक साथ निभाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 242 ⇒ गौ सेवा और श्वान प्रेम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गौ सेवा और श्वान प्रेम ।)

?अभी अभी # 243 ⇒ गौ सेवा और श्वान प्रेम… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं।

आदमी हूं, आदमी से प्यार करता हूं।।

इंसान से इंसान का प्रेम तो भाईचारा कहलाता है, यह अपराध कहां हुआ ! लेकिन हां, फिर भी यह एक सीमित दायरा और संकुचित सोच अवश्य है। जो सच्चा इंसान होता है, वह तो प्राणी मात्र से प्रेम करता है। प्राणियों में पशु पक्षी तो आते ही हैं, जिनका चित्त शुद्ध होता है, उन्हें तो कण कण में भगवान नजर आते हैं। मुझमें राम, तुझमें राम, रोम रोम में राम वाली अवस्था होती है यह।

हमने तो वे दिन भी देखे हैं, जब गौ माता और श्वान साथ साथ, गली गली, चौराहों चौराहों पर घूमते नजर आते थे। तब घर घर, द्वार द्वार गौ माता नजर आ जाती थी। तब भले ही मुफ्त राशन नहीं था, लेकिन फिर भी पहली रोटी गाय की ही निकाली जाती थी। लेकिन हो सकता है, यह केवल सिक्के का एक ही पहलू हो, उसकी वास्तविक स्थिति एक आवारा पशु से बेहतर नहीं थी।।

घूरे की तरह गौ माता के दिन भी फिरे, और उसे ससम्मान गौ शालाओं में प्रतिष्ठित किया गया। माता पिता भले ही घरों से वृद्धाश्रम में पहुंच गए हों, हमारी गौ माता आज गौ शालाओं में सुरक्षित है।

लेकिन एक बेचारे श्वान की ऐसी तकदीर कहां। वह तो कल भी सड़क पर ही था, और आज भी सड़क पर ही है।

लेकिन एक गाय और श्वान में एक मूलभूत अंतर है। हमें गाय तो देसी चाहिए, लेकिन अगर श्वान विदेशी नस्ल का हो, तो उसके लिए हमारे घर के द्वार खुले हैं। यानी गऊ माता के लिए अगर गौ शाला तो श्वान महाशय के लिए कार बंगला सब कुछ। बड़े भाग श्वान तन पाया साहब की बीवी, बेबी मन भाया।।

साहिर का पैसा और प्यार बहुत घिसा हुआ जुमला हो गया। आज पुण्य और प्रेम का जमाना है। पैसे को पुण्य में लगाओ और प्रेम की गंगा बहाओ। अब गौ सेवा के लिए हम आलीशान बंगले में गाय तो नहीं बांध सकते न, वहां तो एक बढ़िया विदेशी नस्ल का श्वान ही शोभा देता है। गऊ तो हमारी माता है, हाल ही में हमने एक विशाल गौ शाला के लिए एक अच्छी मोटी रकम अर्पित कर पुण्य कमाया है, जिसमें गौ माता के चारे और देखभाल की व्यवस्था भी शामिल है। हर सप्ताह सपरिवार हम गौ शाला जाते हैं, गऊ सेवा करते हैं, उसे अपने हाथों से चारा खिलाते हैं, उसी प्रेम से जिस तरह घर में डेज़ी को दूध रोटी खिलाते हैं। मत पूछिए घर में डेज़ी कौन है और डॉली कौन।

क्या धरती और क्या आकाश, सबको प्यार की प्यास। दुनिया में पैसा ही सब कुछ नहीं है। आज पुण्य कमाया जाता है और प्यार लुटाया जाता है। हमें इस वैतरणी से गऊ माता ही पार लगाएगी, इसलिए अगर आप सनातनी हैं तो जितना बने गौ सेवा करें। आज के 2 और 3 बेडरूम किचेन के जमाने में गाय पालना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। अपनी हैसियत के अनुसार गो सेवा, गो दान और गौ रक्षा का संकल्प ही श्रेयस्कर है।।

विदेशी नस्ल के श्वान के भाग तो काग के भाग से कम नहीं, लेकिन सड़कों पर जो आवारा कुत्ते हैं, नजर उन पर भी कुछ डालो, अरे ओ पैसा, पुण्य कमाने वालों और प्यार लुटाने वालों ! हम नहीं चाहते, इस संसार में कोई भी प्राणी कुत्ते की मौत मरे। प्राणियों में प्रेम हो, धर्म की विजय हो, विश्व का कल्याण हो। सनातन धर्म की जय हो। ओम् तीन बार शांति ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 242 ⇒ आज का दिन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आज का दिन।)

?अभी अभी # 242 ⇒ आज का दिन… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज का दिन अभी उगा नहीं, लेकिन कल, चला गया। रात अभी बाकी है, लेकिन एक नई सुबह हो ही गई। क्या एक रात में वक्त बदल जाता है, तारीख बदल जाती है, बरस बदल जाता है। अगर नहीं बदलता, तो बस इंसान नहीं बदलता।

आज के दिवाकर के उदय होने के पूर्व ही, कल सोशल मीडिया पर दिनकर चले, और खूब चले ! दिनकर चले गए, उनकी कविता चलती रही। विचार एक धारा है, विचार में धार होती है, चाकू में धार होती है, तलवार में धार होती है। चाकू से सब्ज़ी काटी जाती है, तलवार से इंसानों को भी गाजर मूली की तरह काटा जाता था। इसलिए बंदर के हाथ में आजकल तलवार नहीं दी जाती, उसे एक विचारधारा पकड़ा दी जाती है। वह जीवन भर उसकी ही धार तेज करता रहता है।।

यह आज तो मेरा है, पर यह बरस मेरा नहीं ! केवल दिनकर का ही नहीं, कइयों का नया वर्ष, चैत्र वर्ष प्रतिपदा, हिन्दू कैलेंडर के अनुसार, गुड़ी पड़वा से शुरू होता है। हम हर जगह तेरा मेरा तो कर सकते हैं, अपनी मान्यता अनुसार नया वर्ष भी निर्धारित कर सकते हैं लेकिन वक्त को नहीं बदल सकते।

पुरुषार्थ क्या नहीं कर सकता। क्या आपने देखा नहीं, पहले कैसा वक्त था और हमने वक्त के पहिए बदल दिए, वक्त की चाल बदल दी, जंग लगी तलवार बदल दी, ढाल बदल दी। बस नहीं बदल पाए तो किसी की तकदीर नहीं बदल पाए।।

शुभ दिन का इंतज़ार नहीं किया करते। अगर बहारें मुहूर्त देखती तो चौघड़िए आड़े आ जाते। फूल को रोज खिलना है। कुदरत का हर पल, हर लम्हा, एक मुहूर्त है। प्रकृति भी अपने उत्सव मनाती है। उसके लिए पतझड़ भी एक उत्सव है। उसे आप कायाकल्प भी कह सकते हैं।

हमें भी बहारों का इंतज़ार है।

हमारा भी कायाकल्प होना है। क्यों न आज ही वह शुभ घड़ी साबित हो। शुभ संकल्प के लिए मुहूर्त नहीं तलाशे जाते, सिर्फ कृत – संकल्प होने से ही काम चल जाता है। मत मानें दिनकर की तरह आप भी इस आज के दिन को वर्ष का पहला दिन, लेकिन एक अच्छा दिन तो मान ही सकते हैं। सूरज अभी उगा नहीं, अगर हमारे इरादें नेक हैं तो उम्मीद का सूरज भी आज ही निकलेगा जो कल से बेहतर होगा। आज का आपका दिन शुभ हो। वर्ष २०२४ मानवता के लिए मंगलमय हो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 251 ☆ आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेखों की शृंखला – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 251 ☆

? आलेख – रामचरित मानस में स्थापत्य एवं वास्तु शास्त्रीय वर्णन – भाग-2 ?

लंका :-

अयोध्या, जनकपुर के बाद जो एक बड़ी नगरी मानस में वर्णित है, वह हे रावण की सोने की लंका। लंका में एक स्वतंत्र भव्य प्राचीन बाटिका है, “अशोक वटिका” जहाँ रावण ने अपहरण के बाद माँ सीता को रखा था। लंका का वर्णन एक किले के रूप में है –

गिरि पर चढ़ी लंका तह देखी ।

कहि न जाइ अति दुर्ग विशेषी ।।

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदराय तना घना ।

चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीशीं, चारूपुर बहु बिधि बना ।।

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गने ।

बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहीं बनें ॥

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापी सोहहिं ।

नर नाग सुर गंधर्व कन्या रूप मुनि मन मोहहिं ।।

सुन्दर काण्ड 5/3 लंका सोने की है। वहां सुन्दर-सुन्दर घर है। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियां है। नगर बहुत तरह से सजा हुआ है। नगर की रक्षा हेतु चारों ओर सैनिक तैनात है। नगर में एक प्रवेश द्वार है। लंका में विभीषण के महल का वर्णन करते हुये गोस्वामी जी ने लिखा है कि –

 रामायुध अंकित गृह शोभा वरनि न जाय । नव तुलसिका वृंद तहं देखि हरषि कपिराय ।।

रावण के सभागृह का वर्णन, लंकादहन एवं श्रीराम दूत अंगद के प्रस्ताव के संदर्भ में मिलता है। इसी तरह समुद्र पर तैरता हुआ सेतु बनाने का प्रसंग वर्णित है जिसमें समुद्र स्वयं सेतु निर्माण की प्रक्रिया श्रीराम को बताता है।

 भी “नाथ नील” नल कपि दो भाई। लरकाई ऋषि आसिष पाई ।

तिन्ह के परस किए गिरि भारे। तरहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे ।।

‘एडम्स ब्रिज’ के रूप में आज भी भौगोलिक नक्शे पर इसके अवशेष विद्यमान है। यांत्रिकीय उन्नति के उदाहरण स्वरूप पुष्पक विमान, आयुध उन्नति के अनेक उदाहरण युद्धों में प्रयुक्त उपकरणों के मिलते हैं। स्थापत्य जो आधारभूत अभियांत्रिकी है, के अनेक उदाहरण विभिन्न नगरों के वर्णन में मिलते है। ये उदाहरण गोस्वामी तुलसीदास के परिवेश एवं अनुभव जनित एवं भगवान राम के प्रति उनके प्रेम स्वरूप काव्य कल्पना से अतिरंजित भी हो सकते है, किन्तु यह सुस्पष्ट है कि मानस के अनुसार राम के युग में स्थापत्य कला सुविकसित थी। अंत में यह आध्यत्मिक उल्लेख आवश्ययक जान पड़ता है कि सारे सुविकसित वास्तु और स्थापत्य के बाद भी श्रीराम बसते है मन मंदिर में।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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