हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #215 ☆ ज़िंदगी उत्सव है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िंदगी उत्सव है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 215 ☆

☆ ज़िंदगी उत्सव है

‘कुछ लोग ज़िंदगी होते हैं / कुछ लोग ज़िंदगी में होते हैं / कुछ लोगों से ज़िंदगी होती है और कुछ लोग होते हैं, तो ज़िंदगी होती है’… इस तथ्य को उजागर करता है कि इंसान अकेला नहीं रह सकता; उसे चंद लोगों के साथ की सदैव आवश्यकता होती है और उनके सानिध्य से ज़िंदगी हसीन हो जाती है। वास्तव में वे जीने का मक़सद होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि दोस्त, किताब, रास्ता और सोच सही व अच्छे हों, तो जीवन उत्सव बन जाता है और ग़लत हों, तो मानव को गुमराह कर देते हैं। सो! दोस्त सदा अच्छे, सुसंस्कारित, चरित्रवान् व सकारात्मक सोच के होने चाहिएं। परंतु यह तभी संभव है, यदि वे अच्छे साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो सामान्यतः वे सत्य पथ के अनुगामी होंगे और उनकी सोच सकारात्मक होगी। यदि मानव को इन चारों का साथ मिलता है, तो जीवन उत्सव बन जाता है, अन्यथा वे आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देते हैं; जहां का हर रास्ता अंधी गलियों में जाकर खुलता है और लाख चाहने पर भी इंसान वहां से लौट नहीं सकता। इसलिए अच्छे लोगों की जीवन में बहुत अहमियत होती है। वे हमारे प्रेरक व पथ-प्रदर्शक होते हैं और उनसे स्थापित संबंध शाश्वत् होते हैं।

यह भी अकाट्य सत्य है कि रिश्ते कभी क़ुदरती मौत नहीं मरते, इनका कत्ल इंसान कभी नफ़रत, कभी नज़रांदाज़ी, तो कभी ग़लतफ़हमी से करता है, क्योंकि घृणा में इंसान को दूसरे के गुण और अच्छाइयां दिखाई नहीं देते। कई बार इंसान अच्छे लोगों के गुणों की ओर ध्यान ही नहीं देता; उनकी उपेक्षा करता है और ग़लत लोगों की संगति में फंस जाता है। इस प्रकार दूसरे के प्रति ग़लतफ़हमी हो जाती है। अक्सर वह अन्य लोगों द्वारा उत्पन्न की जाती है और कई बार हम किसी के प्रति ग़लत धारणा बना लेते हैं। इस प्रकार इंसान अच्छे लोगों को नज़रांदाज़ करने लग जाता है और उनकी सत्संगति व साहचर्य से वंचित हो जाता है।

परंतु संसार में यदि मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करने वाला कोई है, तो वह प्रेम है और इसका सबसे बड़ा साथी है आत्मविश्वास। सो! प्रेम ही पूजा है। प्रेम द्वारा ही हम प्रभु को भी अपने वश में कर सकते हैं और आत्मविश्वास रूपी पतवार से कठिन से कठिन आपदा का सामना कर, सुनामी की लहरों से भी पार उतर कर अपनी मंज़िल तक पहुंच सकते हैं। इस प्रकार प्रेम व आत्मविश्वास की जीवन में अहम् भूमिका है… उन्हें कभी ख़ुद से अलग न होने दें। इसलिए किसी के प्रति घृणा व मोह का भाव मत रखें, क्योंकि वे दोनों हृदय में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव उत्पन्न करते हैं। मोह में हमारी स्थिति उस अंधे की भांति हो जाती है; जो सब कुछ अपनों को दे देना चाहता है। मोह के भ्रम में इंसान सत्य से अवगत नहीं हो पाता और ग़लत काम करता है। वह राग-द्वेष का जनक है और उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है। हम सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं और एक-दूसरे के बिना अधूरे व अस्तित्वहीन हैं… यही रिश्तों की गरिमा है; खूबसूरती है। इसीलिए कहा जाता है ‘दिल पर न लो उनकी बातें /जो दिल में रहते हैं’ अर्थात् जिन्हें आप अपना स्वीकारते हैं, उनकी बातों का बुरा कभी मत मानें। वे सदैव आपके हित मंगल कामना करते हैं; ग़लत राहों पर चलने से आपको रोकते हैं; विपत्ति व विषम परिस्थिति में ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं। हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जब हम यह समझ लेते हैं कि ‘वे ग़लत नहीं हैं; भिन्न हैं। उस स्थिति में सभी शंकाओं व समस्याओं का अंत हो जाता है, क्योंकि हर इंसान का सोचने का ढंग अलग-अलग होता है।’

‘ज़िंदगी लम्हों की किताब है /सांसों व ख्यालों का हिसाब है / कुछ ज़रूरतें पूरी, कुछ ख्वाहिशें अधूरी / बस इन्हीं सवालों का जवाब है ज़िंदगी।’ सांसों का आना-जाना हमारे जीवन का दस्तावेज़ है। जीवन में कभी भी सभी ख्वाहिशें पूरी नहीं होती, परंतु ज़रूरतें आसानी से पूरी हो जाती हैं। वास्तव में ज़िंदगी इन्हीं प्रश्नों का उत्तर है और बड़ी लाजवाब है। इसलिए मानव को हर क्षण जीने का संदेश दिया गया है। शायद! इसलिए कहा जाता है कि ख्वाहिशें तभी मुकम्मल अर्थात् पूरी होती हैं/ जब शिद्दत से भरी हों और उन्हें पूरा करने की/ मन में इच्छा व तलब हो। तलब से तात्पर्य है, यदि आपकी इच्छा-शक्ति प्रबल है, तो दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं। आप आसानी से अपनी मंज़िल को प्राप्त कर सकते हैं और हर परिस्थिति में सफलता आपके कदम चूमेगी।

सो! कुछ बातें, कुछ यादें, कुछ लोग और उनसे बने रिश्ते लाख चाहने पर भी भुलाए नहीं जा सकते, क्योंकि उनकी स्मृतियां सदैव ज़हन में बनी रहती हैं। जैसे इंसान अच्छी स्मृतियों में सुक़ून पाता है और बुरी स्मृतियां उसके जीवन को जहन्नुम बना देती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो भी अच्छा लगे, उसे ग्रहण कर लो; अपना लो, क्योंकि यही सबसे उत्तम विकल्प होता है। जो मानव दोष-दर्शन की प्रवृत्ति से निज़ात नहीं पाता, सदैव दु:खी रहता है। अच्छे लोगों का साथ कभी मत छोड़ें, क्योंकि वे तक़दीर से मिलते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके शुभ कर्मों का फल होते हैं। ऐसे लोग दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं जो आपकी तक़दीर बदल देते हैं। इसलिए कहा जाता है, ‘रिश्ते वे होते हैं, जहां शब्द कम, समझ ज़्यादा हो/ तक़रार कम, प्यार ज़्यादा हो/ आशा कम, विश्वास ज़्यादा हो। यही है रिश्तों की खूबसूरती।’ जब इंसान बिना कहे दूसरे के मनोभावों को समझ जाए; वह सबसे सुंदर भाषा है। मौन विश्व की सर्वोत्तम भाषा है, जहां तक़रार अर्थात् विवाद कम, संवाद ज़्यादा होता है। संवाद के माध्यम से मानव अपनी प्रेम की भावनाओं का इज़हार कर सकता है। इतना ही नहीं, दूसरे पर विश्वास होना कारग़र है, परंतु उससे उम्मीद रखना दु:खों की जनक है। इसलिए आत्मविश्वास संजोकर रखें, क्योंकि इसके माध्यम से आप अपनी मंज़िल पर पहुंच सकते हैं।

सुख मानव के अहं की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की और दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है। सो! मानव को सुख में अहंकार से न फूलने की शिक्षा दी गई है और दु:ख में धैर्यवान बने रहने को सफलता की कसौटी स्वीकारा गया है। अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु व सभी रोगों की जड़ है। वह वर्षों पुरानी मित्रता में पल-भर में सेंध लगा सकता है; पति-पत्नी में अलगाव का कारण बन सकता है। वह हमें एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देता। इसलिए अच्छे लोगों की संगति कीजिए; उनसे संबंध बनाइए; कानों-सुनी बात पर नहीं, आंखों देखी पर विश्वास कीजिए। स्व-पर व राग-द्वेष को त्याग ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ को जीवन का मूलमंत्र बना लीजिए, क्योंकि इंसान का सबसे बड़ा शत्रु स्वयं उसका अहम् है। सो! उससे सदैव कोसों दूर रहिए। सारा संसार आपको अपना लगेगा और जीवन उत्सव बन जाएगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 256 ⇒ चोली दामन का साथ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चोली दामन का साथ।)

?अभी अभी # 256 ⇒ चोली दामन का साथ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चोली दामन का साथ एक मुहावरा है, जिसका प्रयोग बोलचाल की भाषा में बहुतायत से किया जाता है। अच्छी मित्रता हो, घनिष्ठ संबंध हो, एक के बिना दूसरे की उपयोगिता ना हो, वहां चोली दामन उदाहरण स्वरूप चले आते हैं।

कुछ उदाहरण तो आदर्श होते हैं, मसलन राम और सीता, राम और लक्ष्मण, राधा और श्याम और कृष्ण के अधरों पर बांसुरी। जुम्मन शेख और अलगू चौधरी हों, अथवा ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे वाले शोले के जय और वीरू। लोग तो शोले, दीवार और त्रिशूल वाली सलीम जावेद की जोड़ी को भी याद करते हैं। लेकिन दोनों में कौन चोली और कौन दामन, समझना मुश्किल ! आज देखिए कहां चोली और कहां दामन। जावेद के दामन में आज शबाना और सलीम भाई के आंचल में भाई सलमान।

चोली दामन नहीं हुए, बदलते हुए सितारे हो गए।।

क्या पांव की जूते की जोड़ी में चोली दामन का साथ नहीं, एक से काम भी नहीं चलता, और दूसरे पांव में जोड़ी की जगह चप्पल भी नहीं चलती। एक समय था जब लेखक बिना कलम के और हज्जाम बिना उस्तरे के किसी काम का नहीं था। झूठ क्यूं बोलूं, मेरी आंखों का और मेरे चश्मे का भी चोली दामन का बचपन से ही साथ है।

हमारे शरीर का सांसों के साथ कितना गहरा संबंध है, हम नहीं जानते। वैसे देखा जाए तो एक मां और उसकी संतान का तो साथ चोली दामन से भी कई गुना अधिक होता है, जिसकी व्याख्या करना इतनी आसान भी नहीं। लेकिन हां चोली दामन के साथ पर हम जरूर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं।।

चोली को आप चाहें तो स्त्रियों का अंग वस्त्र कह सकते हैं। जिस तरह फिल्म शोले में ठाकुर यानी संजीव कुमार हमेशा एक शॉल ओढ़े रहता था, उसी तरह चोली को दामन अर्थात् आंचल अथवा पल्लू से हमेशा ढंका रखा जाता है। पुरुष का क्या है, वह तो बड़ी आसानी से कह उठता है ;

चुनरी संभाल गोरी

उड़ी चली जाए रे ….

क्योंकि उसको तो उड़ती पतंग को काटने और लूटने में बड़ा मजा आता है। पतंग और डोर का ही तो साथ है, चोली और दामन का।

लेकिन पुरुष में कहां हया और शरम ! ईश्वर ने उसे ना तो आंचल ही दिया और ना ही दामन। वह तो कमीज के बटन खोलकर, सीना तानकर चलता है। वह क्या जाने एक चोली का दर्द। दामन में दाग भी स्त्री को ही लगता है और आंचल भी उसे ही फैलाना पड़ता है।।

केवल एक मासूम सा, नन्हा सा बालक ही समझ सकता है, चोली दामन का उसके लिए क्या महत्व है। क्योंकि मेरी दुनिया है मां, तेरे आंचल में। उसी आंचल में, उस नन्हीं सी जान के लिए दूध है, और रात भर जागी हुई आंखों में ममता भरा पानी। वहां मां के दामन में उसके लिए खुशियां ही खुशियां हैं। यह होता है, चोली दामन का साथ।।

फिल्म मॉडर्न गर्ल (1961) का एक खूबसूरत सा गीत रफी साहब की आवाज में ;

नज़र उठने से पहले ही

झुका लेती तो अच्छा था।

तू अपने आपको पर्दा

बना लेती तो अच्छा था।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ १८ जनवरी – स्व. हरिवंशराय बच्चन जी के पुण्यस्मरण अवसर पर ….” ☆ श्री सुनील देशपांडे  ☆

श्री सुनील देशपांडे

☆ “१८ जनवरी – स्व. हरिवंशराय बच्चन जी के पुण्यस्मरण अवसर पर ….” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

स्व. हरिवंशराय बच्चन

(जन्म, 27 नवम्बर 1907. निधन, 18 जनवरी 2003)

स्व. हरिवंशराय बच्चनजी के असंख्य चाहने वालों में से मैं एक हूं। उनकी कवितासे मैं बेहद प्यार करता हूं और जाहिर है कि उनकी मधुशाला का मैं बहुत बड़ा भक्त हूं।   प्रकृति के हर अंगों में, जीवन के हर पहलू में, सभी जगह जिधर देखें उधर उन्हें मधुशाला नजर आती हैं। उनकी नजर तो मुझमें नहीं है और ना मैं उनके जैसा शब्दप्रभू हूँ फिर भी एक भक्त के नाते जो कुछ मन में आता है,  वह शायद उनकी ही प्रेरणा है,  मैं सादर कर रहा हूं। आपके आशिर्वाद और प्रशंसा के सिवा भी आपके सुझावों को भी जरूर चाहता हूं जिसके जरिए मुझे ज्यादा से ज्यादा सुधरने का मौका मिल सकेगा और शब्दों में ज्यादा से ज्यादा नशीलापन मैं भर सकूंगा।

          ——– सुनील देशपांडे

लॉकडाउन के काल में जब दुकानें बंद थी उसी माहौल के लिए यह चंद पंक्तियाँ बनाई थी आपके सामने रखता हूँ –

दुकाँ दुकाँ पे है ताला   

घूंट भर न मिलेगी हाला

पिला दे नजरों से साकी

अब तो बंद है मधुशाला

 

कहीं न मिलेगी अब हाला

दिखे न अब साकी बाला

पूछ रहा है बार बार दिल

कभी खुलेगी मधुशाला

 

याद न अब आती हाला

भूल चुकी साकी बाला

काम चलाऊं घर की बला से

यदि खुले न कोई मधुशाला

 

पानी में देखो हाला

पत्नी में साकी बाला

कहां चले बाहर बाबू

घर में देखो मधुशाला

 

सद्भाव बनेंगे जब हाला

शब्द बने मधु का प्याला

बन के साकी पिला सभी को

हर कोई भाषा है मधुशाला

 

धर्म विचारों की हाला

धर्म ग्रंथ मधु का प्याला

खुद पढ़ के जब जानेगा

हर कोई धर्म है मधुशाला

 

सुबह रहे मन खाली प्याला

निसर्ग संगीत की भर हाला

टहलने निकल बाहर पगले

प्रकृति बन जाए मधुशाला

 

शब्द धुंद जैसे  मधुबाला

उससे भर संगीत का प्याला

सवार हो सुर-लय-तालों पर

हर महफ़िल होगी मधुशाला

 

अंगदान की विचार हाला

शब्दों का भर भर मैं प्याला

बनके साकी चल पड़ता हूँ

मेरी पदयात्रा मधुशाला

 

किसने दिया है किसे मिला

किसे है शिकवा किसे गिला

आओ चलो मिलकर बैठेंगे

अंगदान महफ़िल मधुशाला

 

ताजी  सब्जी दिखती हाला

खाली थैली मधु का प्याला

साकी बनेगी सब्जी वाली

सब्जी मंडी हो मधुशाला

 

प्यासा मैं मन मधु का प्याला

जिधर भी देखूं दिखती हाला

जहाँ वहाँ दिख साकी बाला

 देख जहाँ मिलती मधुशाला

 

रोज नयी शब्द-चित्र हाला

हर समूह एक साकी बाला

लाख लाख तू घूंट पिए जा

भ्रमणध्वनी है एक मधुशाला

 

ज्ञान समुंदर जैसी हाला

हर पुस्तक है मधु का प्याला

पीले जितनी चाह बची है

वाचन मंदिर है मधुशाला

 

सुखमय यादों की हो हाला

जीवन अनुभव मधु का प्याला

विस्मृति में कटु अनुभव जाए

मन स्मृतिवन बन जा मधुशाला

 

मधुबाला की दिशा निराली

मधुशाला संग निशा निराली

निशा निमंत्रण करे रुबाई

उस हाला की नशा निराली

 

आनंद लुटा जा पीकर हाला

अती हो तो हो विषमय प्याला

गुलाम ना बन उसकी नशा का

ग़ुलाम बन जाए मधुशाला

 

इच्छित कार्य बने मधु हाला

कार्य नियोजन मधु का प्याला

कार्य की नशा बने अनावर

तब कार्यालय हो मधुशाला

 

मैं हूँ एक मस्तीका प्याला

तन मन की मस्ती हो हाला

अंदर आत्मा धुंद नशासे

अंतर्मन मेरी मधुशाला

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 255 ⇒ स्वर्ण काल -भक्तिकाल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वर्ण काल -भक्तिकाल।)

?अभी अभी # 255 ⇒ स्वर्ण काल -भक्तिकाल… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

साहित्य में भक्तिकाल को स्वर्ण काल कहा गया है। यह भक्ति साहित्य ही है, जिसने भक्ति की अलख को सदा जलाए रखा है। भक्ति आंदोलन कोई नया आन्दोलन नहीं है। 1375 से 1700 तक का समय हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग माना गया है। भक्ति काल को लोक जागरण का काल भी कहा गया है।

रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानुज द्वारा यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाया गया।

चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, संत तुकाराम, जयदेव और गुरु नानक इनमें प्रमुख है।।

वाल्मिकी कृत आदि महाकाव्य रामायण और तुलसीदास रचित रामचरितमानस ने अगर रामाश्रयी परंपरा को पुष्ट किया तो वल्लभाचार्य के अष्ट छाप कवियों ने कृष्णाश्रयी परम्परा में पुष्टिमार्ग को स्थापित किया। मीरा अगर प्रेमाश्रयी शाखा के अंतर्गत कृष्ण भक्ति में लीन थी, तो हमारे कबीर साहब ज्ञानाश्रयी मतावलंबी होते हुए अपनी साखियों द्वारा समाज में व्याप्त अंध विश्वास और पाखंड की धज्जियां भी बिखेरने से बाज नहीं आते थे।

बिना भक्तों के कैसा भक्ति आंदोलन। भक्त जब जाग जाए तभी जन आंदोलन। कभी चित्रकूट के घाट पर संतों की भीड़ जमा होती थी, तुलसीदास जी चंदन घिसते थे, और रघुवीर का तिलक करते थे। आज अयोध्या में सरयू के तट पर संतों की भीड़ जमा है। बस तुलसीदास और रघुवीर की कमी है।।

मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम ने त्रेता युग में अपने वनवास काल में दुष्ट रावण का सहार किया, लंका पर विजय पाई और सीता, लखन सहित अयोध्या वापस लौटे रघुराई। उनका राजतिलक हुआ, रामराज्य की स्थापना हुई। लेकिन तब से आज तक हम हर वर्ष रावण जलाते रहे, दशहरा मनाते रहे, लेकिन रावण न जला, न जला, न मरा, न मरा।

रावण के जितने सिर हैं, उतने ही उसके अवतार हैं। अशोक वाटिका को तहस नहस करने और लंका में आग लगाने के बाद रामभक्त हनुमान शांत नहीं बैठे। हमारे हनुमत वीरा के भी कई अवतार हैं। रामकाज को आतुर सभी रामभक्तों ने कलयुग में एक और रावण की लंका ढहाई। भक्तों का यह जन आंदोलन था, जिसके ही कारण आज रामलला पुनः अयोध्या में विराज रहे हैं।।

कलयुग में यह त्रेतायुग का पदार्पण है। भक्ति का बीज अक्षुण्ण होता है, यह कभी नहीं मरता। वाल्मीकि, तुलसी और करोड़ों राम भक्तों की आस्था का ही यह परिणाम है कि आज अयोध्या में पुनः भव्य राम मंदिर की स्थापना हो रही है।

भक्तों के जन आंदोलन से बड़ा कोई आंदोलन नहीं होता। भक्ति काल ही हमारे जीवन का स्वर्ण काल है।

सगुण हो अथवा निर्गुण, ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन भक्ति ही है।।

अगर हम चाहते हैं कि वहां पुनः रामलला की प्राण प्रतिष्ठा हो तो एक प्रतिज्ञा हमें भी करनी पड़ेगी। राम की मर्यादा और आचरण को अपने जीवन में उतारने की। शायद पंडित भीमसेन जोशी का भी इस भजन में यही संकेत है ;

राम का गुणगान करिये

राम की भद्रता का

सभ्यता का ध्यान धरिये।

मनुजता को कर विभूषित

मनुज को धनवान करिये

ध्यान धरिये।।

तू अंतर्यामी, सबका स्वामी

तेरे चरणों में चारों धाम

हे राम, हे राम ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 254 ☆ आलेख – धर्म और धर्म ध्वज ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – धर्म और धर्म ध्वज )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆

? आलेख – धर्म और धर्म ध्वज ?

वर्तमान समय वैश्विक सोच का है, क्या धर्म इस विस्तार को संकुचित करता है ?  समान सांस्कृतिक परम्परा के मानने वालों का समूह एक धर्मावलंबी  होता है। धर्म की अनुपालना मनुष्य को मनुष्यत्व  सिखाती  है।

धर्म की अवधारणा ज्यादा पुरानी नहीं है। यह 16वीं और 17वीं शताब्दी में बनाई गई थी। संस्कृत शब्द धर्म, का अर्थ कानून भी है। पूरे  दक्षिण एशिया में, कानून के अध्ययन में धर्मपरायणता  के साथ-साथ व्यावहारिक परंपराओं के माध्यम से तपस्या जैसी अवधारणाएं शामिल थीं। मध्यकालीन जापान में पहले शाही कानून और सार्वभौमिक या बुद्ध कानून के बीच एक समान संघ था, लेकिन बाद में ये सत्ता के स्वतंत्र स्रोत बन गए। परंपराएं, पवित्र ग्रंथ और प्रथाएं सदा  मौजूद रही हैं। अधिकांश संस्कृतियां धर्म की पश्चिमी धारणाओं से अलग है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, ताओवाद, कन्फ्यूशीवाद और विश्व धर्म शब्द सबसे पहले अंग्रेजी भाषा में आए। अमेरिकी मूल-निवासियों के बारे में भी सोचा जाता था कि उनका कोई धर्म नहीं है और उनकी भाषाओं में धर्म के लिए कोई शब्द भी नहीं है। 1800 के दशक से पहले किसी ने स्वयं को हिंदू या बौद्ध या अन्य समान शब्दों के रूप में पहचाना नहीं था। “हिंदू” ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के स्वदेशी लोगों के लिए एक भौगोलिक, सांस्कृतिक और बाद में धार्मिक पहचान के रूप में इस्तेमाल किया गया है। अपने लंबे इतिहास के दौरान, जापान के पास धर्म की कोई अवधारणा नहीं थी।

19 वीं शताब्दी में भाषाशास्त्री मैक्स मुलर के अनुसार, अंग्रेजी शब्द धर्म की जड़, लैटिन धर्म, मूल रूप से केवल ईश्वर या देवताओं के प्रति श्रद्धा, दैवीय चीजों के बारे में सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, धर्मपरायणता (जिसे सिसेरो ने आगे अर्थ के लिए व्युत्पन्न किया था) । मैक्स मुलर ने इतिहास में इस बिंदु पर एक समान शक्ति संरचना के रूप में मिस्र, फारस और भारत सहित दुनिया भर में कई अन्य संस्कृतियों की विशेषता बताई। जिसे आज प्राचीन धर्म कहा जाता है, उसे तब केवल सामाजिक व्यवस्था के रूप में समझा जाता था।

सामान्यतः ध्वज चौकोन होते हैं। पर हिंदू धर्म ध्वज त्रिकोणीय होते हैं। ध्वज के रंग, उस पर बने चित्र  आदि संप्रदाय विशेष, एक मतावलंबियो, मठों, के अनुरूप विशिष्ट पहचान के रूप में, बिना किसी पंजीयन के ही मान्य रहे हैं। युद्ध में एक सेना एक ध्वज के तले नियंत्रित और उससे ऊर्जा प्राप्त करती थी। जय, विजय, लोल, विशाल, दीर्घ, वैजांतिक, भीम, चपल आदि ध्वजो के वर्णन महाभारत के युद्ध में मिलते हैं। अस्तु आज जब दुनिया भर में धर्म की व्याख्या को महत्व दिया जा रहा है, धर्म और उसके प्रतीक ध्वज को नई दृष्टि से देखा जा रहा है।  

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 179 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना प्रेम डोर सी सहज सुहाई। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 179 ☆ प्रेम डोर सी सहज सुहाई…

भाव भक्ति के रंग में डूबे हुए आस्थावान लोग; सकारात्मक शक्ति के उपासक बन अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं । लंबे संघर्ष के बाद जब न्याय मिलता है तो हर चेहरे पर खुशी की मुस्कान देखते ही बनती है । हर आँखों में श्रीराम लला के प्रति उमड़ता स्नेह व अपार श्रद्धा झलक रही है । वनवासी राम से मर्यादा पुरुषोत्तम राम बनने का क्रम सारे समाज के लिए प्रेरणास्रोत है । सबको जोड़कर साथ रखना, वचन निभाना, सागर पर सेतु बनाकर लक्ष्य भेदना , मित्रता का धर्म निभाना इस सबके आदर्श प्रभु श्रीराम हैं ।

हम सब सौभाग्यशाली हैं जो इन पलों के साक्षी बन रहें हैं । हर घर में अक्षत के साथ राम मंदिर का आमंत्रण, घर- घर दीपोत्सव का आयोजन साथ ही अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखने का संदेश । सारे समाज को जोड़ने वाली कड़ी   साबित होगा राम मंदिर ।

बाल सूर्य जब सप्त घोड़े पर सवार होकर नित्य प्रातः बेला को भगवामय करते तो पूरी प्रकृति ऊर्जान्वित होकर अपने कार्यों में जुट जाती है, तो सोचिए जब पूरा विश्व भगवामय होगा तो कैसा सुंदर नजारा होगा । हर घर में लहराता हुआ ध्वज मानो  अभिनंदन गान गा रहा है । स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए हुए लोग समवेत स्वरों में मंगलकामना कर रहें हैं-

☆ कण कण व्यापे राम ☆

प्राण प्रतिष्ठित हो रहे, कण कण व्यापे राम  ।

भाव भक्ति अनुगूँजते, राम राम के नाम ।।

*

धूम अयोध्या में मची, दीप जले चहुँओर ।

भगवामय सब हो गया, सूर्यवंश पुरजोर ।।

*

उदित हुआ आकाश में, सप्तरथी के साथ ।

देव पुष्प वर्षा रहे, जगन्नाथ के नाथ ।।

*

धन्य धरा भारत जगत, प्रगटे जँह श्री राम ।

मर्यादा सिखला गए, चलो अयोध्या धाम ।।

*

गाते मंगल गीत मिल, ढोल नगाड़े साथ ।

झूम झूम झर झूमते , लिए आरती हाथ ।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 254 ⇒ गाय और गौ ग्रास… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाय और गौ ग्रास।)

?अभी अभी # 254 गाय और गौ ग्रास? श्री प्रदीप शर्मा  ?

(Cow and grass)

गाय को हम गौ माता मानते हैं, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह हमें दूध देती है। हम गौ सेवा इसलिए भी करते हैं, कि वेदों के अनुसार गाय में ३३ कोटि देवताओं का वास होता है। इन ३३ प्रकार के देवताओं में १२ आदित्य, ८ वासु, ११ रुद्र और २ आदित्य कुमार हैं। केवल एक गाय की सेवा पूजा से अगर ३३ कोटि देवताओं का पूजन संपन्न हो जाता है, तो यह सौदा बुरा नहीं है।

अन्य चौपायों की तरह गाय भी पशुधन ही है और घास ही खाती है, कोई चाउमिन नहीं। 

हमने बचपन में कहां वेद पढ़े थे। बस गाय पर निबंध ही तो पढ़ा था।

घरों में पहली रोटी गाय की बनती थी, और आज भी बनती चली आ रही है। एक रोटी से कहां गाय का पेट भरता है। पेट तो उसका भी घास से ही भरता है। उसके लिए हमारी रोटी, ऊंट के मुंह में जीरे के समान, एक ग्रास ही तो है। कई अवसरों पर भोजन के पहले गऊ ग्रास भी निकाला जाता है। लेकिन प्रश्न भाव और संतुष्टि का है।

इसे संयोग ही कहेंगे कि घास को अंग्रेजी में भी ग्रास ही कहते हैं। घास से भले ही गौ माता का पेट भरता हो, लेकिन मन तो उसका भी, उसके लिए एक ग्रास जितनी, एक रोटी से ही भरता है। आप गाय को अगर रोज घास नहीं खिला सकते, तो कम से कम गौ ग्रास तो खिला ही सकते हैं।।

बचपन में हमने कहां वेद पढ़े थे। हमारे मोहल्ले में पाठशाला थी, गुरुकुल नहीं। हर मकर सक्रांति को पिताजी के साथ जाते और नन्दलालपुरा से धडी भर नहीं, छोड़ के गट्ठर के गट्ठर, साइकिल के पीछे बांधकर ले आते। हमारे लिए तो छोड़ हमेशा ही आते थे, लेकिन ये छोड़ विशेष रूप से गाय के लिए आते थे।

हम तब भाग्यशाली थे, तब सड़कों पर वाहन से अधिक गाय नजर आती थी। हमारी बालबुद्धि समझ नहीं पाती। गाय को छोड़ खिलाना है, खिलाओ, लेकिन छोड़ के दाने तो निकाल लो। लेकिन हमारी मां हमें समझाती, ये छोड़ गाय के लिए हैं, तुम्हारे लिए अलग से रखे हैं।।

आज घर में मां नहीं है, मकर सक्रांति के दिन, छोड़ खिलाने के लिए आसपास गाय भी नहीं है। गौ शालाओं में गाय की अच्छी सेवा हो रही है और हम तिल गुड़ खाकर और मीठा मीठा बोलकर उत्सव मना रहे हैं।

स्मार्ट सिटी बनने जा रहे महानगर की बहुमंजिला इमारतों की खिड़कियों से जितना आसमान दिख जाए, देख लो, जितनी पतंगें लोग उड़ा सकते हैं, उड़ा ही रहे हैं। पतंग काटने का सुख, और कटने का दुख, दोनों कितने अच्छे लगते हैं। समय कहां रुकता है, जीवन चलने का ही तो नाम है। अच्छे दिन आज भी हैं, फिर भी किशोर कुमार का यह गीत गुनगुनाने का मन करता है ;

अल्बेले दिन प्यारे

मेरे बिछड़े साथी सारे

हाय कहां गए,

हाय कहां गए ..

कोई लौटा दे मेरे

बीते हुए दिन।

बीते हुए दिन वो हाय

प्यारे पल छिन।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 253 ⇒ श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा…”।)

?अभी अभी # 253 ⇒ श्रद्धा, अश्रद्धा और अंध श्रद्धा… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

श्रद्धा चित्त का वह भाव है, जहां बहता पानी निर्मला है। जल में अशुद्धि, चित्त में अशुद्धि के समान है। अगर जल में अशुद्धि है, तो वह जल पीने योग्य नहीं है। उसके पीने से स्वास्थ्य खराब होने का खतरा बना रहता है। पानी पीयो छानकर और सोओ चादर तानकर।

जल की शुद्धि जितनी आसान है, चित्त की शुद्धि उतनी आसान नहीं। भरोसा, विश्वास और आस्था वे सात्विक गुण हैं, जो किसी भी वस्तु, पदार्थ अथवा व्यक्ति के प्रति हमारे मन में राग उत्पन्न कर सकते हैं। राग आसक्ति का प्रतीक है।

उपयोगी वस्तुओं के प्रति हमारा विशेष लगाव रहता है, और अनुपयोगी वस्तुओं से हम पल्ला झाड़ना चाहते हैं।।

जिस वस्तु अथवा व्यक्ति से हमारा प्रेम हो जाता है, उससे हमारा जाने अनजाने ही लगाव होना शुरू हो जाता है। बिना प्रेम, आस्था, भरोसे एवं विश्वास के श्रद्धा का जन्म ही नहीं हो सकता। एक भरोसा तेरा ही सच्ची श्रद्धा है।

आध्यात्मिक यात्रा में राग द्वेष और आसक्ति को भी व्यवधान माना गया है।

किसी के प्रति अश्रद्धा अगर मन में द्वेष उत्पन्न करती है तो आसक्ति भी आत्म कल्याण के लिए बाधक है। अक्सर जड़ भरत का उदाहरण इस संदर्भ में दिया जाता है।।

अगर भोजन की थाली में मक्खी गिर गई तो उसे निकाल फेंकना, भोजन का अपमान अथवा अश्रद्धा का द्योतक नहीं, जागरूकता और विवेक का प्रतीक है लेकिन जमीन पर गिरे हुए प्रसाद को श्रद्धापूर्वक उठाकर ग्रहण करना अंध श्रद्धा का प्रतीक भी नहीं।

श्रद्धा और अंध श्रद्धा अगर मुंहबोली बहनें हैं, तो अश्रद्धा उनकी सौतेली बहनें, जिनसे उनकी बिल्कुल नहीं बनती। श्रद्धा, अंध श्रद्धा एक दूसरे पर जान छिड़कती हैं, जब कि अश्रद्धा उन्हें फूटी आंखों नहीं सुहाती।।

जब आस्था पर गहरी चोट पहुंचती है तो अच्छे से अच्छे व्यक्ति के प्रति श्रद्धा, अश्रद्धा में परिवर्तित हो जाती है। श्रद्धा के टूटते ही व्यक्ति बिखर सा जाता है। अगर व्यक्ति विवेकवान हुआ तो ठीक, वर्ना उसका तो भगवान ही मालिक है।

श्रद्धा और अंध श्रद्धा में बड़ा महीन सा अंतर है। कब आपकी श्रद्धा, अंध श्रद्धा में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। श्रद्धा शाश्वत होती है, जब कि अंध श्रद्धा की एक्सपायरी का कोई भरोसा नहीं। चल जाए तो सालों साल चल जाए, और अगर बिखर जाए, तो एक झटके में बिखर जाए। यह अंध श्रद्धा ही तो है, जो अज्ञान और अंध विश्वास को पाल पोसकर बड़ा करती है।।

आपको अपने तरीके से जीवन जीने का अधिकार है। आपकी अपनी पसंद नापसंद है, श्रद्धा अश्रद्धा है। अगर मैने मतलब के लिए किसी गधे को अपना बाप बना लिया, तो आपको क्या आपत्ति है। मैं धोती कुर्ता पहनना चाहता हूं और आप सफारी सूट, इससे अगर हमारी आपकी दोस्ती में अंतर नहीं आता, तो श्रद्धा और अंध श्रद्धा का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। आप किशोर कुमार के प्रशंसक तो हम मुकेश के।

अगर यह अंध श्रद्धा बीच में से हट जाए, तो शायद श्रद्धा और अश्रद्धा के बीच की खाई भी भर जाए। पसंद अपनी अपनी, खयाल अपना अपना। आप अपने रास्ते, हम अपने रास्ते ! जब भी रास्ते में मिलें, प्रेम से बोलें नमस्ते।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  3

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 253 ☆ श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका आलेख श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 254 ☆

? श्रद्धा सुमन – रवि रतलामी :एक साथ ही हिंदी के तकनीकी कंप्यूटर दां, व्यंग्यकार और संपादक  ?

स्व. रवि रतलामी

(जन्म ५ अगस्त १९५८, देहावसान ७ जनवरी २०२४)

वर्ष 2006 में ‘रवि रतलामी का हिन्‍दी ब्लॉग’ को माइक्रोसॉफ्ट भाषा इंडिया ने सर्वश्रेष्‍ठ हिन्‍दी ब्‍लॉग के रूप में सम्मानित किया था। यह समाचार मैंने टी वी पर देखा था। यह समय था जब हिन्दी ब्लागिंग अपने शैशव काल में थी। मैं मण्डला जैसे छोटे स्थान से बी एस एन एल के नेटवन फोन कनेक्शन से रात रात भर हिन्दी ब्लाग लिखा करता था, रात में इसलिये क्योंकि तब इंटरनेट की स्पीड कुछ बेहतर होती थी। स्वाभाविक था कि मेरा ध्यान भोपाल के इस माइक्रो साफ्ट से सम्मानित ब्लागर की ओर गया। इंटरनेट के जरिये उनका फोन ढ़ूंढ़ना सरल था, मैंने उन्हें फोन किया और हम ऐसे मित्र बन गये मानो बरसों से परस्पर परिचित हों। मैं तब विद्युत मण्डल में कार्यपालन अभियंता था, और रवि जी विद्युत मण्डल से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर इंटरनेट में हिन्दी के क्षेत्र में भोपाल से फ्री लांस कार्य कर रहे थे। सरस्वती के पुजारियों की यह खासियत होती है कि वे पल भर में एक दूसरे से आत्मीयता के रिश्ते बना लेते हैं। मैं रवि जी से व्यक्तिगत रूप से बहुत अधिक नहीं मिला हूं पर हिन्दी ब्लागिंग के चलते हम ई संपर्क में बने रहे हैं। रवि जी रचनाकार नामक हिन्दी ब्लाग चलाते थे, जिसमें बाल कथा, लघुकथा, व्यंग्य, हास्य, कविता, आलेख, गजलें, नाटक, संस्मरण, उपन्यास, लोककथा, समीक्षा, कहानी, चुटकुले, ई बुक्स, विज्ञान कथा आदि शामिल होते थे। मेरी कुछ किताबें, नाटक, व्यंग्य, कवितायें, लेख, संस्मरण आदि रचनाकार में प्रकाशित हैं। प्रारंभ में रचनाकार में रवि जी ने यह व्यवस्था रखी थी की एक रचना जो नेट पर कहीं एक बार छपे उसका लिंक ही अन्य जगह दिया जाये बनिस्पत इसके कि अनेक जगह वही रचना बार बार प्रकाशित की जाये। पर बाद में इस द्वंद में माथा पच्ची करना बंद कर दिया गया था। रचनाकार का ट्रेफिक बढ़ाने के लिये हमने व्यंग्य लेखन को लेकर कुछ प्रतियोगितायें भी आयोजित कीं। पुरस्कार स्वरूप मेरी, मेरे पिताजी प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी की तथा अन्य लेखको की किताबें विजेताओ को प्रदान की गईं।

रवि जी ने कहीं लिखा है “जन्म से छत्तीसगढ़िया, कर्म से रतलामी. बीस साल तक विद्युत मंडल में सरकारी टेक्नोक्रेट के रुप में विशाल ट्रांसफ़ॉर्मरों में असफल लोड बैलेंसिंग और क्षेत्र में सफल वृहत् लोड शेडिंग करते रहने के दौरान किसी पल छुद्र अनुभूति हुई कि कुछ असरकारी काम किया जाए तो अपने आप को एक दिन कम्प्यूटर टर्मिनल के सामने फ्रीलांस तकनीकी-सलाहकार-लेखक और अनुवादक के ट्रांसफ़ॉर्म्ड रूप में पाया. इस बीच कंप्यूटर मॉनीटर के सामने ऊंघते रहने के अलावा यूँ कोई खास काम मैंने किया हो यह भान तो नहीं लेकिन जब डिजिट पत्रिका में पढ़ा कि केडीई, गनोम, एक्सएफ़सीई इत्यादि समेत लिनक्स तंत्र के सैकड़ों कम्प्यूटर अनुप्रयोगों के हिन्दी अनुवाद मैंने किए हैं तो घोर आश्चर्य से सोचता हूँ कि जब मैंने ऊँधते हुए इतना कुछ कर डाला तो मैं जागता होता तो पता नहीं क्या-क्या कर सकता था?”। वे स्वयं इतने सिद्ध कम्प्यूटर टेक्नोक्रेट थे कि उनका विकी पीडिया पेज तो सहज में होना ही चाहिये था, पर आत्म प्रशंसा और स्व केंद्रित व्यक्तित्व नहीं था उनका। वे सहज, सरल, और उदार व्यक्तित्व के सुलभ इंटेलेक्चुल मनुष्य थे। वे अचानक चले गये हैं, उनके साथ ही उनके मन में चल रहे ढ़ेरों कार्यो का भ्रूण पतन हो गया है। उनके अनेकानेक तकनीकी लेख भारत की प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका आईटी तथा लिनक्स फॉर यू, नई दिल्ली, भारत (इंडिया) से प्रकाशित हो चुके हैं। हिंदी कविताएँ, ग़ज़ल, एवं व्यंग्य लेखन उनकी रुचि की विधायें थीं। उनकी रचनाएँ हिंदी पत्र-पत्रिकाओं दैनिक भास्कर, नई दुनिया, नवभारत, कादंबिनी, सरिता इत्यादि में प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी दैनिक चेतना के पूर्व तकनीकी स्तंभ लेखक रह चुके हैं। वे अभिव्यक्ति पोर्टल के लिए विशेष रूप से ‘प्रौद्योगिकी’ स्तंभ लिखते रहे हैं। हिंदी की सर्वाधिक समृद्ध आनलाइन वर्गपहेली का सृजन भी उनका महत्वपूर्ण कार्य था।

आन लाइन सोशल मीडिया पर स्व संपादसित लेखन का सफर आरकुट, हिन्दी ब्लागिंग, फेसबुक, इंस्टाग्राम वगैरह वगैरह प्लेटफार्म से शिफ्ट होते हुये व्हाट्सअप तक आ पहुंचा है। पर बोलकर लिखने की सुविधा, यूनीकोड हिन्दी के अंतर्निहित तकनीकी पक्षो को जिन कुछ लोगों ने आकार दिया है उनमें रविशंकर श्रीवास्तव उर्फ रवि रतलामी का भी बड़ा योगदान रहा है। वे जितने योग्य तकनीकज्ञ थे उससे ज्यादा समर्थ संपादक भी थे, और कहीं ज्यादा बड़े व्यंग्यकार। रचनाकार में उन्होंने समकालीन अनेकानेक व्यंग्यकारो को समय समय पर प्रकाशित किया है। रचनाकार में प्रकाशित व्यंग्यकारो कि सूची में राकेश सोहम, हनुमान मुक्त, प्रदीप उपाध्याय, राम नरेश, अनीता यादव, राजीव पाण्डेय, सुरेश उरतृप्त, वीरेंद्र सरल, ओम वर्मा, विवेक रंजन श्रीवास्तव से लेकर नरेंद्र कोहली, यशवंत कोठारी, प्रेम जनमेजय तक कौन शामिल नहीं है। जहां तक रवि जी के व्यंग्य लेखन का प्रश्न है उन्होंने सक्षम व्यंग्यकार के रूप में अपनी छबि बनाई थी। उनकी किताब व्यंग्य की जुगलबंदी अमेजन किंडल पर उपलब्ध है। जिसमें शामिल कुछ व्यंग्य शीर्षक हैं ” आपका मोबाइल ही आपका परिचय है, बापू की लखटकिया लंगोटी, नोटबंदी, जीडीपी और आर्थिक विकास, बाबागिरी, तकनीक और हवापानी, असली अफवाह, गठबंधन की बाढ़, चीनी यात्री ट्रेनत्सांग की वर्ष 2000 की भारत यात्रा, जीएसटी बनाम, भारतीय खेती की असली कहानी, साहित्यिक खेती, टॉपरों से भयभीत, मानहानि के देश में, बिना शीर्षक, मेरा स्मार्टफोन कैसा हो? बिलकुल इसके जैसा हो…., कड़ी निंदा पर कुछ नोट शीट्स, लाल बत्ती में परकाया प्रवेश, ईवीएम में छेड़छाड़ के ये है पूरी आईटीयाना तरीके, लेखकीय और साहित्यकीय मूर्खता, आपने कभी गरमी खाई है ?, जम्बूद्वीप में सन् ३०५० के चुनाव के बाद, आधुनिक अभिव्यक्ति और एक व्यंग्य है “बुढ़ापे या बीमारी से नहीं मैं मरा अपनी शराफत से” सचमुच उनका दुखद देहावसान बुढ़ापे या बीमारी से नही अचानक हार्ट अरेस्ट से हो गया . रवि रतलामी जी के कार्यों का मूल्यांकन हिन्दी जगत को करना शेष ही रह गया और वे हमसे बिछड़ गये। उन्हें तकनीकी जगत, ब्लागिंग की दुनियां, व्यंग्य जगत और हिन्दी जगत के नमन।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

सेवानिवृत मुख्य अभियंता

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]; [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 66 ☆ देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज पंद्रह जनवरी को प्रतिवर्षनुसार देश में सेना दिवस मनाया जाता हैं। आज के ही दिन 1949 को फील्ड मार्शल के एम करियप्पा ने जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी।  

हमारे निकट परिवार के सदस्यों में से कोई भी सुरक्षा बलों की सेवा में तो नहीं है, परंतु बैंक सेवा के आरंभिक दशक में प्रतिदिन हमारे सैनिक भाइयों की सेवा का मौका अवश्य मिला। सेना की सभी यूनिट्स के खाते जबलपुर मुख्य शाखा में ही थे।

सैनिकों का भोलापन, कृतज्ञता की भावना उनके व्यवहार में झलकती है, इस सब को बहुत करीब से देखने और अनुभव करने का अवसर कुछ वर्षों तक रहा।

बैंक के बाहर भी जब कभी सेना का कोई सदस्य अचानक मिल जाता था, तो उतना ही आदर और सम्मान देता था, जितना वो बैंक में देता था। अनेक बार हम उनको सिविल ड्रेस में पहचान नहीं पाते थे, लेकिन वो आगे बढ़ कर हमेशा “जय हिंद” से अभिवादन करते थे। बैंक के साथियों के विवाह में आर्मी कैंटीन से ही वीआईपी सूटकेस और बिजली के पंखे क्रय कर साथियों को सामूहिक भेंट स्वरूप दी जाती थी।

कुछ दिन पूर्व फील्ड मार्शल मानेक शॉ की बायोपिक्स (फिल्म) देखी तो सेना के बारे में नई जानकारियां भी मिली।

ग्रामीण शाखा अंधेरी देवरी (ब्यावर) राजस्थान में पदस्थापना के समय शाखा में बैंक गार्ड श्री पुखराज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई कि सेना में उन्होंने मानेक शॉ के निजी वाहन चालक के रूप में तीन वर्ष की सेवाएं देने के पश्चात प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के लिए एंबेसडर कार कुछ वर्ष तक चलाई थी।

पुखराज जी से मानेक शॉ के बहुत सारे किस्से और जानकारियों का आनंद भी लिया। पुखराज जी के शब्दों में मानेक शॉ बहुत ही सरल और मिलनसार व्यक्ति थे। जब सैनिक मेस में भोजन कर रहे होते थे, और यदि वो भी भोजन के समय वहां आ जाते, तो किसी भी सैनिक को खड़े होकर सम्मान या भोजन के मध्य में जय हिंद कहने की भी मनाही थी। उनका सिद्धांत था, कि भोजन ग्रहण के समय सब बराबर होते हैं।

आज सेना दिवस पर देश के सभी सुरक्षा बलों को आदर सहित नमन और अभिवादन।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print