हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 160 ☆ बाल कविता – पक्षियों की चौपाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 160 ☆

☆ बाल कविता – पक्षियों की चौपाल ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

पक्षी आए

हिलमिल कर सब दाना खाए।

अपनी अपनी बातें कहकर

ज्ञान बढ़ाए।।

 

कौए बोले हँसकर सारे –

 

आँख खोलकर करना काम

और सदा चौकन्ना रहना।

हिलमिल कर सब भोजन  खाना

आपस में तुम कभी न लड़ना।।

 

तोते बोले हरियल प्यारे –

 

मेहनत का फल सबको मिलता

करना सदा लगन से काम।

आलस तन में कभी न लाना

जीवन होता सुख का धाम।।

 

मीठे स्वर में बुलबुलें बोलीं-

 

सदा बोलकर मीठा – मीठा

परहित कर ही नाम कमाना।

व्यर्थ बात में कभी न पड़ना

खुद मुस्का कर और हँसाना।।

 

अपनी – अपनी बातें कहकर

उड़े सभी आसमान में प्यारे।

सोच रहे हैं कैसे पाएँ

आसमान के चंदा तारे।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #182 – कविता – मित्र को पत्र… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  “मित्र को पत्र…”)

☆  तन्मय साहित्य  #182 ☆

☆ मित्र को पत्र… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

नमस्कार प्रिय मित्र

तुम्हारा पत्र मिला

पढ़कर जाने सब हाल-चाल

और कुशल क्षेम के समाचार

मैं भी यहाँ मजे में स्वस्थ

प्रसन्न चित्त हूँ सह परिवार।

 

मित्र! तुम्हारा पत्र सुखद आश्चर्य लिए

कुछ चिंताओं का मंगलमय हल

अपने सँग लेकर आया है

संबंधों के घटाटोप

रिश्तों के रूखे पन

भौतिक आकर्षण में

ये बारिश की पहली फुहार

माटी की सोंधी गंध

प्रेम का शीतल सा झोंका लाया है।

 

अब गुम हुई चिट्ठियाँ

मिलती कहाँ गंध

स्नेहिल हाथों की

खाली है संदूक आज वह

अत्र कुशल तत्रास्तु भाव के

प्रेमपूर्ण रिश्ते-नातों की,

शब्द शब्द में हो जाती

साकार सूरतें तब अपनों की

अब बातें चिट्ठी-पत्री की

हुई हवाई है सपनों की।

 

यूँ तो मोबाइल पर अक्सर  

अपनी भी होती है बातें

पर उन बातों में

तकनीकी मिश्रण के चलते

अपनेपन वाली

मीठी प्रेम चाशनी का

हम स्वाद कहाँ ले पाते।

 

अधुनातन कंप्यूटर और मोबाइल

द्रुतगामी यंत्रों की

भीड़ भाड़ में

भटक गए हैं

कुछ पर्वों त्योहारों पर हम

रटे-रटाए बने बनाए शब्द शायरी

संदेशों के बटन दबाकर

बस इतने पर

अटक गए हैं।

 

ऐसे में यह पत्र तुम्हारा पाकर

मैं अपने में हर्ष विभोर हुआ

संबंधों की पुष्प लता के

रस सिंचन को

लिए लेखनी हाथों में

अंतर मन का आकाश छुआ।

 

लिख लिख मिटा रहा हूँ

अब हर बार शब्द बंजारों को

व्यक्त नहीं कर पाता हूँ

अपने मन के उद्गारों को

शब्द व्यर्थ हो गए

भाव अंतर में जागे मित्र

समझ लेना तुम ही

जो लिखना है अब इसके आगे

समय-समय पर कुशल क्षेम के

पत्र सदा तुम लिखते रहना

घर में सभी बड़े छोटों को

यथा योग्य अभिवादन कहना।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समझौते।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 07 ☆ समझौते… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

आओ कुछ

पढ़ डालें चेहरे

फेंक दें उतार कर मुखौटे।

 

पहचानें पदचापें

समय की

कुल्हाड़ी से काटें जंजीरें

तमस के चरोखर में

खींच दें

उजली सी धूप की लकीरें

 

सूरज से

माँगें पल सुनहरे

तोड़ें रातों से समझौते ।

 

पत्थरों पर तराशें

संभावना

सूने नेपथ्य को जगाकर

उधड़े पैबंद से

चरित्रों को

मंचों से रख दें उठाकर

 

हुए सभी

सूत्रधार बहरे

जो हैं बस बोथरे सरौते।

 

ऊबड़-खाबड़ बंजर

ठूँठ से

उगते हैं जिनमें आक्रोश

बीज के भरोसे में

बैठे हैं

ओढ़ एक सपना मदहोश

 

चलो रटें

राहों के ककहरे

गए पाँव जिन पर न लौटे।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 65 ☆ मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मातृ दिवस पर आपका एक स्नेहिल गीत – अनमोल प्यार

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 65 ✒️

?  मातृ दिवस विशेष – गीत – अनमोल प्यार… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

मां तेरे अनमोल प्यार को,

आज समझ मैं पाई हूं ।

श्रद्धा सुमन क़दमों पर तेरे ,

अर्पित करने आई हूं  ।।

 

घर के काम सभी तू करती ,

चूड़ियां बजती थीं छन – छन ,

भोर से पहले तू उठ जाती ,

पायल बजती थी छन – छन ,

गोद में लेकर चक्की पीसती ,

मैं प्रेम सुधा से नहायी हूं ।

मां तेरे —————————- ।।

 

बादल गरजते बिजली चमकती ,

वह सीने से चिपकाना ,

आंखों में आंसुओं को छुपाना ,

मेरे दर्द से कराहना ,

याद आता है रह-रहकर ,

बचपन ,

कैसे तुम्हें सतायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

मैं हूं बाबूजी की बेटी ,

तू भी किसी की बेटी है ,

हम तो चहकते हैं चिड़ियों से ,

तू क्यों उदास बैठी है ,

तेरे क़दमों में बसे स्वर्ग को ,

आज देख मैं पायी हूं ।

मां तेरे —————————– ।।

 

गर्भवती हुई पहली बार मैं ,

तब तेरा एहसास हुआ ,

नौ महीने कोख में संभाला ,

दुखों का ना आभास हुआ ,

सीने से सलमा को लगा लो ,

भले ही मैं पराई हूं ।।

मां तेरे —————————— ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 03 – निरर्थक सब संधान  हुए… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – निरर्थक सब संधान  हुए।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 03 – निरर्थक सब संधान  हुए… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

लक्ष्य न कोई सधा

निरर्थक सब संधान हुए

 

योजनाएँ तो बनीं

किन्तु विपरीत दिशाएँ थीं

भ्रूणांकुर के पहले ही

पनपीं शंकाएँ थीं

ऊषा की बेला में

दिनकर के अवसान हुए

 

उड़ने से पहले कट जाती

डोर पतंगों की

भुनसारे से खबरें आतीं

हिंसा, दंगों की

पलने से पहले ही

सपने लहूलुहान हुए

 

बच्चों के मुख से गायब है

अरुणारी लाली

नागफनी के आतंकों से

सहमी शेफाली

क्रूरताओं के रोज

चाटुकारी जयगान हुए

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 79 – जीवन के हैं रंग निराले… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण  रचना “जीवन के हैं रंग निराले…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 79 – जीवन के हैं रंग निराले…

जीवन के हैं रंग निराले।

कहीं अँधेरे कहीं उजाले।।

 

घूम रहा कोई कारों में,

कहीं पगों में पड़ते छाले।

 

रहता कोई है महलों में,

किस्मत में लटके हैं ताले

 

प्रजातंत्र भी अजब खेल है,

जन्म कुंडली कौन खँगाले।

 

नेताओं की फसल उगी है,

सब सत्ता के हैं मतवाले।

 

कहने को समाज की सेवा,

दरवाजे पर कुत्ते पाले।

 

गंगोत्री से बहती गंगा,

राहों में मिल जाते नाले।

 

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भ्रम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – भ्रम ??

तो तुम देख चुके

शब्दों में छिपा

मेरा आकार,

और मैं नादान,

निराकार होने का

भ्रम पाले बैठा था…!

(कवितासंग्रह ‘यों ही’ से)

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 212 ☆ कविता – व्यंग्यकार… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता  – व्यंग्यकार…

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 212 ☆  

? कविता – व्यंग्यकार?

परसाई का परचम थामे हुए

जोशी का प्रतिदिन संभाले हुए

स्पिन से गिल्लीयां उड़ाते हुए

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

विसंगतियो पर करते प्रहार

जनहित के, निर्भय कर्णधार

शासन समाज की गतिविधि के

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

गुदगुदाते कभी , हंसाते कभी

छेड़ते दुखती रग , रुलाते वही

आईना दिखाते,जगाते समाज

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

पिटते भी हैं, पर न छोड़े कलम

कबीरा की राहों पे बढ़ते कदम

सत्य के पक्ष में, सत्ता पर करते

कटाक्ष, विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

आइरनी , विट, ह्यूमर ,सटायर

लक्षणा,व्यंजना, पंच औजार

नित नए व्यंग्य रचते , धारदार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

स्तंभ हैं, संपादक के पन्ने के

रखते सीमित शब्दों में विचार

करने समाज को निर्विकार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

चुभते हैं , कांटो से उसको

जिस पर करते हैं ये प्रहार

रोके न रुके लिखते जाते

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

कविता करते, लिखते निबंध

व्यंग्य बड़े छोटे , या उपन्यास

हंसी हंसी में कह देते हैं बात बड़ी

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

चोरों की दाढ़ी का तिनका

ढूंढ निकालें ये हर मन का

दृष्टि गजब पैनी रखते हैं

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

 

ख्याति प्राप्त विद्वान हुए हैं

कुछ अनाम ही लिखा करे हैं

प्रस्तुत करते नये सद्विचार

विश्लेषक जागृत व्यंग्यकार

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मातृ दिवस विशेष  – कहां खो गई प्यारी मां ☆ श्री अखिलेश श्रीवास्तव ☆

श्री अखिलेश श्रीवास्तव 

(विज्ञान, विधि एवं पत्रकारिता में स्नातक श्री अखिलेश श्रीवास्तव जी 1978 से वकालत एवं स्थानीय समाचार पत्रों में सम्पादन कार्य में सलग्न । स्वांतः सुखाय समसामयिक विषयों पर लेख एवं कविताएं रचित/प्रकाशित। प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता कहां खो गई प्यारी मां।)

☆ मातृ दिवस विशेष  – कहां खो गई प्यारी मां ☆ श्री अखिलेश श्रीवास्तव ☆

कहां खो गई प्यारी मां

नज़र नहीं क्यों आती मां

छवि आंखों में है तेरी मां

क्यो?नहीं दिख पाती मां।।

 

सुबह हो गई उठ जा बेटा

कहकर नहीं उठाती मां

फिर गिलास में दूध लेकर

मुझको नहीं पिलाती मां।।

कहां खो गई प्यारी मां……..

 

बचपन में गलती करने पर

मुझको डांट लगाती थी मां

गलती करने पर अब मुझको

क्यूं नहीं डांट लगाती मां।।

कहां खो गई प्यारी मां………

 

जब भी मैं भूखा होता हूं

तेरी याद सताती है मां

एक निवाला मुझे खिलाने

क्यों?नहीं आ जाती मां।

कहां खो गई प्यारी मां………

 

बेचैनी में जब रातों में

मुझे नींद नहीं आती है

इस बेटे को लोरी सुनाने

तू क्यों नहीं आ जाती मां

कहां खो गई प्यारी मां……..

 

परेशानी में जब होता हूं

समझ नहीं कुछ आता मां

मुझे प्यार से समझाने को

क्यूं ? नहीं आ पाती मां

कहां खो गई प्यारी मां…….

 

बिना तुम्हारे त्यौहारों पर

रौनक नहीं आ पाती मां

त्यौहारों की खुशी बढ़ाने

तू क्यूं नहीं आ जाती मां

कहां खो गई प्यारी मां……

 

ममता और प्यार‌ की बगिया

मां मुरझाईं रहती है

ममता की इस फुलवारी में

फूल खिलाने आ जा मां

कहां खो गई प्यारी मां……

 

अब तेरे आंचल की छांव

मुझे नहीं मिल पाती है

नैनों में बसी तेरी मूरत

नज़र नहीं क्यूं आती मां ।।

 

कहां खो गई प्यारी मां

नज़र नहीं क्यूं आती मां…….

 

© श्री अखिलेश श्रीवास्तव

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 139 – आकर ऐसे चले गये… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आकर ऐसे चले गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 139 – आकर ऐसे चले गये…  ✍

आकर ऐसे चले गये तुम

ज्यों बहार का झोका

मत जाओ प्रिय, रुक जाओ प्रिय

मैंने कितना रोका।

 

मैं बैठा था असुध अकेला

दी आवाज सुनाई,

जैसे गहरे अंधकूप में

किरन उतरती आई।

रोम रोम हो गया तरंगित, लेकिन मन ने टोका।

 

तुम आये तो विहँस उठा मैं

आँख अश्रु से घोई

जैसे कोई पा जाता है

वस्तु पुरानी खोई ।

मिलन बना पर्याय विरह का, मिलन रहा बस धोखा।

 

जाना दिखता पर्वत जैसा

धीरज जैसे राई

इतना ही संतोष शेष है

केवट की उतराई ।

आश्वासन जो दिया गया है, बार बार वह धोखा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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