डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आकर ऐसे चले गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 139 – आकर ऐसे चले गये…  ✍

आकर ऐसे चले गये तुम

ज्यों बहार का झोका

मत जाओ प्रिय, रुक जाओ प्रिय

मैंने कितना रोका।

 

मैं बैठा था असुध अकेला

दी आवाज सुनाई,

जैसे गहरे अंधकूप में

किरन उतरती आई।

रोम रोम हो गया तरंगित, लेकिन मन ने टोका।

 

तुम आये तो विहँस उठा मैं

आँख अश्रु से घोई

जैसे कोई पा जाता है

वस्तु पुरानी खोई ।

मिलन बना पर्याय विरह का, मिलन रहा बस धोखा।

 

जाना दिखता पर्वत जैसा

धीरज जैसे राई

इतना ही संतोष शेष है

केवट की उतराई ।

आश्वासन जो दिया गया है, बार बार वह धोखा।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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