हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 7 ☆ अबला नहीं सबला ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अबला नहीं सबला  ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 7 ☆

 

☆ अबला नहीं सबला ☆

 

मैं अबला नहीं

सबला हूँ

पर्वतों से टकराने

सागर की

गहराइयों को मापने

आकाश की

बुलंदियों को छूने

चक्रव्यूह को भेदने

शत्रुओं से लोहा मनवाने

सपनों को हक़ीक़त में

बदलने का

माद्दा रखती हूँ  मैं।

 

क्योंकि, पहचान चुकी हूँ

मैं अंतर्मन में छिपी

आलौकिक शक्तियों को

और वाकिफ़ हूँ मैं

जीवन में आने वाले

तूफ़ानों से

जान चुकी हूँ मैं

सशक्त, सक्षम, समर्थ हूं

अदम्य साहस है मुझमें

रेतीली, कंटीली

पथरीली राहों पर

अकेले बढ़ सकती हूँ  मैं।

 

अब मुझे मत समझना

अबला ‘औ ‘पराश्रिता

जानती हूं मैं

अपनी अस्मिता की

रक्षा करना

समानाधिकार

न मिलने पर

उन्हें छीनने का

दम भरना

सो! अब मुझे कमज़ोर

समझने की भूल

कदापि मत करना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गजल ☆ – सुश्री कमला सिंह जीनत

सुश्री कमला सिंह जीनत

 

(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं।  आज प्रस्तुत है एक गजल । सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी और उनकी कलम को इस बेहतरीन अमन के पैगाम के लिए सलाम। )

 

☆ गजल ☆

 

इसी सूरत  से मैं नफरत के ये शौले बुझाती हूँ

मुहब्बत और ममता से भरी दुनिया बसाती हूँ।

 

इबादत कर के  वो उठता है  मुझ पर फूंक  देता है

मैं  पूजा  करके  आती  हूँ  उसे  टीका  लगाती हूँ।

 

किसी के मज़हबी रंगों से मुझ को कुछ नहीं लेना

कबूतर शांति के अपनी छत से मैं उड़ाती हूँ।

 

बढ़ी है उम्र लेकिन आज भी बच्चे हैं हम दोनों

बहलता वो है गुब्बारों से, मैं फिरकी नचाती हूँ।

 

मैं जिस के दिल में रहती हूं धड़कता है वो सीने में

वो ज़मज़म पीके आता है ,मैं गंगा में नहाती हूँ।

 

बताये कैसे ये “जी़नत” फक़त इतना समझ लीजे

अकीदत से वो झुकता है मैं माथा चूम आती हूँ।

 

© कमला सिंह ज़ीनत

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ कृष्ण के पद ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आपको धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं। आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है। 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं।  आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  कृष्ण भक्ति में  लीन भक्तिभाव पूर्ण  रचना   “कृष्ण के पद”)

संक्षिप्त परिचय

जन्म –  15 जुलाई 1961 (सिवनी, म. प्र.)
सम्मान/अलंकरण –
2015 – गुंजन काला सदन द्वारा ‘काव्य प्रकाश’
2017 – जागरण द्वारा ‘साहित्य सुधाकर’
2018 – गूंज द्वारा ‘साहित्यरत्न’
2018 – गूंज कला सदन ‘सन्त श्री’
2018 – राष्ट्रीय साहित्यायन साहित्यकार सम्मेलन, ग्वालियर ‘दिव्यतूलिका साहित्यायन सम्मान’
प्रतिष्ठित संस्थाओं वर्तिका, अखिल भारतीय बुन्देली परिषद, नेमा दर्पण, नेमा काव्य मंच आदि द्वारा समय-समय पर सम्मानित
भजनों की रिकॉर्डिंग – आपके द्वारा रचित भजनों की रिकॉर्डिंग श्री मिठाइलाल चक्रवर्ती की सुमधुर आवाज में की गई है जो यूट्यूब में  भी उपलब्ध है

 

☆ कृष्ण के पद ☆

 

मैं तो राधे राधे गें हों

प्रेम भरा जिसने जीवन में, गुरु पद उन खों दें हों

राधे राधे जपा कृष्ण ने, मैं भी अब जप लें हों

जाकी शरण सबहिं जन चाहें, शरण तिहारी जें हों

पूजा पाठ भजन न जानू, प्रेमहिं मन भर लें हों

जब भी मिल हैं श्याम सलोने, देखत ही हरषे हों

भटक रहा है मन माया में, ओखों अब समझें हों

“संतोष” मिले तभी अब हमको, दर्शन जब कर लें हों

 

रसना भजले कृष्ण कन्हाई

मीरा भज कर हुई बावरी, सुध बुध सबहिं गवाई

माया के फेर में हमने, सीखी सिर्फ कमाई

अंतर्मन से प्रीत न जोड़ी, कीन्हि कबहुँ न भलाई

विरह वेदना वो क्या जानें, जिनहिं न प्रीत लगाई

राधा सा नहीं बड़भागी, समझीं जो प्रभुताई

बिनु हरि भजन “संतोष” कहां, समझें यह सच्चाई

 

कब सुध लै हो कृष्ण मुरारी

अंत समय की आई बेला, पकड़ो बांह हमारी

मुझ दीन को दे दो सहारा, तुम ही हो हितकारी

चरणों के सेवक हम तुम्हरे, हम ही तुम्हरे पुजारी

तेरी दया सभी पर बरसे, हम भी हैं अधिकारी

भव सागर अब पार लगा दो, गिरधर कृष्ण मुरारी

है “संतोष” दरश का प्यासा, सुन लो हे बनवारी

 

@ संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गजल ☆ – सुश्री कमला सिंह जीनत

सुश्री कमला सिंह जीनत

(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक गजल)

☆ गजल ☆
इस मुल्क के सुकून को मिसमार मत करो
फूलों की सर ज़मीन को तलवार मत करो
इंसानियत सिखाई है हमने जहान को।
आपस में भाई भाई हो तकरार मत करो
छल और कपट के प्यार से बहतर है दुश्मनी
जो सिर्फ़ इक फ़रेब हो  वो प्यार मत करो
मुश्किल से दिल के ज़ख़्म भरे हैं अभी अभी
इन मुस्कुराते फूलों को बीमार मत करो
दुनिया इन्हें झुकाने की कोशिश में है सुनो
रहने दो सीधी शाखों को ख़मदार मत करो
गर्दन कटे कहीं भी तो जी़नत को होगा ग़म
रख दो कटार  अपनी चमकदार मत करो
© कमला सिंह ज़ीनत

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4 – ये दुनिया अगर… ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  चौथी  कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “ये दुनिया अगर…”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #4  ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – ये दुनिया अगर… ☆

 

इन दिनों दुनिया,

हम पर हावी हो रही है।

आज की आपाधापी में,

चालक समय भाग रहा है।

समय को कैद करने की,

साजिश चल तो रही है।

लोग बेवजह समय से,

डर के कतरा से रहे हैं।

लोग समय बचाने,

अपने समय से खेल रहे हैं।

बेहद आत्मीय क्षणों में,

समय की रफ्तार देख रहे हैं।

अब पेड़ से बातें करने को,

हम टाइमवेस्ट कहने लगे हैं ।

और फूल की चाह को,

निर्जीव प्लास्टिक में देखते हैं।

अपनी इच्छा अपनापन,

समय के बाजार में बेच रहे हैं।

क्योंकि इन दिनों दुनिया,

समय के बाजार में खड़ी है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #7 – सच्चाई ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “स्मृतियाँ/Memories”में  उनकी स्मृतियाँ । आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति  “सच्चाई।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #7 ☆

 

☆ सच्चाई

 

मै तो उड़ने लगा था झूठे दिखावे की हवा मे

सुना है वो अभी भी सच्चाई की पतंग उड़ाता है ||

 

जवान हो गयी होगी एक और बेटी, इसीलिए आया होगा

वरना कहीं पैसे वाला भी कभी गरीब के घर जाता है ||

 

वो परदेश गया तो बस एक थाली लेकर, जिसमें माँ परोसती थी

बहुत पैसे वाला हो गया है, पर सुना है अभी भी उसी थाली मे खाता है ||

 

सुनते थे वक्त भर देता है, हर इक जख्म को

जो जख्म खुद वक्त दे, भला वो भी कभी भर पाता है ?

 

© आशीष कुमार  

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 6 ☆ सीता ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “सीता ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 6 ☆

 

☆ सीता ☆

 

सीता! तुम भूमिजा

धरती की पुत्री

जनक के प्रांगण में

राजकुमारी सम पली-बढ़ी

 

अनगिनत स्वप्न संजोए

विवाहोपरांत राम संग विदा हुई

परन्तु माता कैकेयी के कहने पर

तुमने पति का साथ निभाने हेतु

चौदह वर्ष के लिए वन गमन किया

नंगे पांव कंटकों पर चली

और नारी जगत् का आदर्श बनी

 

परन्तु रावण ने

छल से किया तुम्हारा अपहरण

अशोक वाटिका में रही बंदिनी सम

अपनी अस्मत की रक्षा हित

तुम हर दिन जूझती रही

तुम्हारे तेज और पतिव्रत निर्वहन

के सम्मुख रावण हुआ पस्त

नहीं छू पाया तुम्हें

क्योंकि तुम थी राम की धरोहर

सुरक्षित रही वहां निशि-बासर

 

अंत में खुशी का दिन आया

राम ने रावण का वध कर

तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ाया

अयोध्या लौटने पर दीपोत्सव मनाया

 

परन्तु एक धोबी के कहने पर

राम ने तुम्हें राजमहल से

निष्कासित करने का फरमॉन सुनाया

लक्ष्मण तुम्हें धोखे से वन में छोड़ आया

 

तुम प्रसूता थी,निरपराधिनी थी

राम ने यह कैसा राजधर्म निभाया…

वाहवाही लूटने या आदर्शवादी

मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने के निमित्त

भुला दिया पत्नी के प्रति

अपना दायित्व

 

सीता! जिसने राजसी सुख त्याग

पति के साथ किया वन-गमन

कैसे हो गया वह

हृदयहीन व संवेदनविहीन

नहीं ली उसने कभी तुम्हारी सुध

कहां हो,किस हाल में हो?

 

हाय!उसे तो अपनी संतान का

ख्याल भी कभी नहीं आया

क्या कहेंगे आप उसे

शक्की स्वभाव का प्राणी

या दायित्व-विमुख कमज़ोर इंसान

जिसने अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी

नहीं रखा प्रजा के समक्ष

तुम्हारा पक्ष

और अपने जीवन से तुम्हें

दूध से मक्खी की मानिंद

निकाल किया बाहर

 

क्या गुज़री होगा तुम पर?

उपेक्षित व तिरस्कृत नारी सम

तुमने पल-पल

खून के आंसू बहाये होंगे

नासूर सम रिसते ज़ख्मों की

असहनीय पीड़ा को

सीने में दफ़न कर

कैसे सहलाया होगा?

कैसे सुसंस्कारित किया होगा

तुमने अपने बच्चों को…

शालीन और वीर योद्धा बनाया होगा

 

अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर

झल्लायी होगी तुम लव कुश पर

और उनके ज़िद करने पर

पिता-पुत्र के मध्य

युद्ध की संभावना से आशंकित

तुमने बच्चों का

पिता से परिचय कराया होगा

‘यह पिता है तुम्हारे’

कैसे सामना किया होगा तुमने

राम का उस पल?

 

बच्चों का सबके सम्मुख

रामायण का गान करना

माता की वंदना करना

और अयोध्या जाने से मना करना

देता है अनगिनत प्रश्नों को जन्म

 

क्या वास्तव में राम

मर्यादा पुरुषोत्तम

सूर्यवंशी आदर्श राजा थे

या प्रजा के आदेश को

स्वीकारने वाले मात्र संवाहक

निर्णय लेने में असमर्थ

कठपुतली सम नाचने वाले

जिस में था

आत्मविश्वास का अभाव

वैसे अग्नि-परीक्षा के पश्चात्

सीता का निष्कासन

समझ से बाहर है

 

गर्भावस्था में पत्नी को

धोखे से वन भेजना…

और उसकी सुध न लेना

क्या क्षम्य अपराध है?

राम का राजमहल में रहते हुए

सुख-सुविधाओं का त्याग करना

क्या सीता पर होने वाले

ज़ुल्मों व अन्याय की

क्षतिपूर्ति करने में समर्थ है

 

अपनी भार्या के प्रति

अमानवीय कटु व्यवहार

क्या राम को कटघरे में

खड़ा नहीं करता

प्रश्न उठता है…

आखिर सीता ने क्यों किया

यह सब सहन?

क्या आदर्शवादी.पतिव्रता

अथवा समस्त महिलाओं की

प्रेरणा-स्रोत बनने के निमित्त

 

आज भी प्रत्येक व्यक्ति

चाहता है

सीता जैसी पत्नी

जो बिना प्रतिरोध व जिरह के

पति के वचनों को सत्य स्वीकार

गांधारी सम आंख मूंदकर

उसके आदेशों की अनुपालना करे

आजीवन प्रताड़ना

व तिरस्कार सहन कर

आशुतोष सम विषपान करे

पति व समाज की

खुशी के लिये

कर्तव्य-परायणता का

अहसास दिलाने हेतु

हंसते-हंसते अपने अरमानों का

गला घोंट प्राणोत्सर्ग करे

और पतिव्रता नारी के

प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित हो पाए।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #4 ☆ शब्द तुम मीत मेरे ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  शब्द तुम मीत मेरे”।

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #4  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ शब्द तुम मीत मेरे 

 

शब्द तुम मीत मेरे

शब्द में

छुपे अर्थ सारे

मैं कहती जाऊं

तुम सुनते जाना

शब्द मेरे तुम सो न जाना

नहीं कहूंगी कुछ भी व्यर्थ

तुम खोना न शब्द अपने अर्थ

शब्द बढ़ते ही जाएंगे

सागर नदिया पार लगाएंगे।

 

आएंगे शब्द

इतिहास ग्रंथों से

वे आएंगे तरह तरह के रूप में

बदलेंगे अपना वेश

जाना चाहेंगे देश-देश

पहनेंगे अपनत्व का जामा

बढ़ाएंगे दोस्ती का हाथ

जब उन्हें मिल जाएंगे

अपने शब्दों के अर्थ

तब वे तुम्हें पहचानेंगे नहीं

रख देंगे कुचलकर

तुम्हें बता दिया जाएगा

देश और समाज का दुश्मन

होशियार हो जाओ

शब्द तुम …..

 

चारों ओर घेरा है गिद्ध का

उपदेश सही है बुद्ध का

शब्दों को सही चुनों

बोलने से पहले गुनों

शब्द तुम…….

 

© डॉ भावना शुक्ल

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #3 – तमाशा ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की तीसरी कड़ी में उनकी  एक सार्थक व्यंग्य कविता “तमाशा”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ व्यंग्य कविता – तमाशा ☆

 

इस बार भी

गजब तमाशा हुआ

ईमान खरीदने वो गया।

दुकानदार ने मिलावटी

और महँगा दे दिया।

और

बर्फ की बाट से

तौल तौलकर दिया ।

 

फिर

एक और तमाशा हुआ

एक अच्छे दिन

विकास की दुकान में

एक बिझूका खड़ा मिला।

जोकर बनके हँसता रहा

चुटकी बजा के ठगता रहा।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? दो कवितायें ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी की दो कवितायें “ऐनवक्त की कविता” और “हमारे गाँव में खुशहाली”

 

? दो कवितायें  ?

 

एक 

☆ ऐनवक्त की कविता ☆

 

जब-जब कान में घुसे

कीड़े -सी

कविता कुलबुलाती है

और

ऐनवक्त पर

बच्चे के लिए

पाव भर दूध या आटा लाने के लिए

खोपड़ी पर खड़ी होकर

बीबी झौंझियाती है

यकीनन उसकी झौं -झौं

मेरी कविता से

बड़ी हो जाती है।

-@गुणशेखर

 

दो 

☆ हमारे गांव में खुशहाली ☆

 

हमारे गांव में

खुशहाली

जब भी आती है

बिजली की तरह

आती है

और

गरीब के पेट का

ट्रांसफार्मर दाग कर

चली जाती है।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

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