हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ नारी मुक्ति के मायने क्या पोशिदा होते हैं? ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ नारी मुक्ति के मायने क्या पोशिदा होते हैं? ☆

 

क्यों अक्सर कूड़ों के बदबूदार ढ़ेर में,

उजली सुबह काले कर्म छिपें होते हैं।

कुत्तों से नुच नुच कर बहशीयाने ढ़ेर में,

नवजात शिशुओं के शव पड़े होते हैं।।

 

महाभारत के कर्ण आज भी पैदा होते हैं,

जो अवैध नहीं, मां बाप अवैध होते हैं।

निष्पाप होकर भी वे कूड़े में पड़े होते हैं,

क्योंकि अवैध ऐयासी की उपज होते हैं।।

 

कर्ण तो कुंवारी कुंती की एक गलती थी,

आज के कर्ण तो वासना का फ़ल होते हैं।

कुंती के दिल की कभी  नहीं चलती थी,

तभी तो लख्ते जिगर कूड़े में पड़े होते हैं।।

 

बिन विवाह संग रह कर सभी वैध होते हैं,

अवैध भी महाभारत से वैध हुआ करतें हैं।

बेटियों से भी तो सहारे हमें मिला करते हैं,

फिर क्यों शव उनके ही नुचे पड़े मिलते हैं।।

 

सास ससुर पति हेतु क्यों ममता शर्म सार है ,

पुत्र पैदा करने हेतु नारी शिशु बलि होते हैं।

सृष्टा हैं बृह्मा हैं नियंता हैं और जीवन सार हैं,

फिर भी नारी शिशु शलभ सम दहन होते हैं।।

 

आज़ कुंती अबला नहीं निज पैरों पे खड़ी है,

फिर भी दिल के टुकड़े उससे जुदा होते हैं।

क्यों उसकी इज़्ज़त लहूलुहान कूड़े में पड़ी है,

नारी मुक्ति के मायने क्या पोशिदा होते हैं।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पिता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

 

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता “पिता ”।)

 

☆ पिता ☆

 

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो, हां, तुम स्नेह न दिखाते थे

मां की तरह न तुम सहलाते हो, पर हो तो तुम पिता ही ना।

जब मैं गिरती थी बचपन में, दर्द तुम्हें भीहोता था

चाहे चेहरा साफ छिपा जाए, पर दिल तो रोता ही था

माना गुस्सा आ जाता था, हम जरा जो शोर मचाते थे

पर उस कोलाहल में कभी-कभी, मजा तुम भी तो पा जाते थे

चलते-चलते राहों में, जब पैर मेरे थक जाते थे

मां गोद उठा न पाती थीं, कांधें तो तुम्हीं बैठाते थे

मां जब भी कभी बीमार पड़ीं, तुम कुछ पका न पाते थे,

कुछ ठीक नहीं बन पाता था, कोशिश कर कर रह जाते थे

उमस भरी उस गर्मी में, कुछ मैं जो बनाने जाती थी

तब वह तपिश, उस गर्मी की, तुमको भी तो छू जाती थी

जरा सी तुम्हारी डांट पर, हम सब कोने में छिप जाते थे

झट फिर बाहर निकल आते, जो तुम थोड़ा मुस्काते थे

मैं जब दर्द में होती थी, व्याकुल तुम भी हो जाते थे

पलकें भीगी होती थीं, फिर आंखें चाहे न रोती थीं

चेहरा जो तुम्हारा तकती हूं, आशीष स्वयं मिल जाता है

मुख से चाहे कुछ न बोलूं, वंदन को सिर झुक जाता है

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ मूर्ति उवाच ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

☆ मूर्ति उवाच ☆

 

मुझे

कैसे भी कर लो तैयार

ईंट, गारा, प्लास्टर ऑफ पेरिस

या संगमरमर

कीमती पत्थर

या किसी कीमती

धातु को तराशकर

फिर

रख दो किसी चौराहे पर

या

विद्या के मंदिर पर

अच्छी तरह सजाकर।

 

मैं न तो  हूँ ईश्वर

न ही नश्वर

और

न ही कोई आत्मा अमर

मैं रहूँगा तो  मात्र

मूर्ति ही

निर्जीव-निष्प्राण।

 

इतिहास भी नहीं है अमिट

वास्तव में

इतिहास कुछ होता ही नहीं है

जो इतिहास है

वो इतिहास था

ये युग है

वो युग था

जरूरी नहीं कि

इतिहास

सबको पसंद आएगा

तुममें से कोई आयेगा

और

इतिहास बदल जाएगा।

 

मेरा अस्तित्व

इतिहास से जुड़ा है

और

जब भी लोकतन्त्र

भीड़तंत्र में खो जाएगा

इतिहास बदल जाएगा

फिर

तुममें से कोई  आएगा

और

मेरा अस्तित्व बदल जाएगा

इतिहास के अंधकार में डूब जाएगा।

 

फिर

चाहो तो

कर सकते हो पुष्प अर्पण

या

कर सकते हो पुनः तर्पण।

 

© हेमन्त  बावनकर

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ दीप अपने अपने – नया दृष्टिकोण ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की कविता  “स्त्री स्वतन्त्रता  पर आधारित  “नया  दृष्टिकोण” । ऐसे विषय पर नारी ही नारी के हृदय को समझ कर  इतना कुछ कल्पना कर सकती हैं।  आदरणीया डॉ मुक्ता जी की लेखनी को नमन । )

-: दीप अपने अपने :- 

☆ नया दृष्टिकोण ☆

 

मैं हर रोज़

अपने मन से वादा करती हूं

अब औरत के बारे में नहीं लिखूंगी

उसके दु:ख-दर्द को

कागज़ पर नहीं उकेरूंगी

दौपदी,सीता,गांधारी,अहिल्या

और उर्मिला की पीड़ा का

बखान नहीं करूंगी

 

मैं एक अल्हड़, मदमस्त, स्वच्छंद

नारी का आकर्षक चित्र प्रस्तुत करूंगी

जो समझौते और समन्वय से कोसों दूर

लीक से हटकर,पगडंडी पर चल

अपने लिये नयी राह का निर्माण करती

‘खाओ-पीओ, मौज-उड़ाओ’

को जीवन में अपनाती

‘तू नहीं और सही’ का मूल-मंत्र स्वीकार

रंगीन वातावरण में हर क्षण को जीती

वीरानों को महकाती,गुलशन बनाती

पति व उसके परिवारजनों को

अंगुलियों पर नचाती

उन्मुक्त आकाश में विचरण करती

नदी की भांति निरंतर बढ़ती चली जाती

 

परंतु यह सब त्याज्य है,निंदनीय है

क्योंकि न तो यह रचा-बसा है

हमारे संस्कारों में

और न ही है यह है

हमारी संस्कृति की धरोहर

 

खौल उठता है खून

जब महिलाओं को

शराब के नशे में धुत्त

सड़कों पर उत्पात मचाते

क्लबों में गलबहियां डाले

नृत्य करते

अपहरण व फ़िरौती की

घटनाओं में लिप्त

दहेज के इल्ज़ाम में

निर्दोष पति व परिवारजनों को

जेल की सीखचों के पीछे पहुंचा

फूली नहीं समाती

अपनी तक़दीर पर इतराती

नशे के कारोबार को बढ़ाती

देश के दुश्मनों से हाथ मिलाती

अंधी-गलियों में फंस

स्वयं को भाग्यशाली स्वीकारती

खुशनसीब मानती

क्योंकि व सबला हैं, स्वतंत्र हैं

और हैं नारी शक्ति की प्रतीक…

जो निरंकुश बन

अपनी इच्छा से करतीं

अपना जीवन बसर

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ क्षितिज ☆ – श्री दिवयांशु शेखर 

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आपने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आपके अनुसार – “मैं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, कहानियाँ, नाटक और स्क्रिप्ट लिखता हूँ। एक लेखक के रूप में स्वयं को संतुष्ट करना अत्यंत कठिन है किन्तु, मैं पाठकों को संतुष्ट करने के लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयत्न करता हूँ। मुझे लगता है कि एक लेखक कुछ भी नहीं लिखता है, वह / वह सिर्फ एक दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, वास्तविकता में पाठक अपनी समझ के अनुसार अपने मस्तिष्क में वास्तविक आकार देते हैं। “कला” हमें अनुभव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है और मैं जीवन भर कला की सेवा करने का प्रयत्न करूंगा।”)

 

☆ क्षितिज ☆

 

क्षितिज! धरती और आसमान की अनूठी प्रेम कहानी,

ना मानो तो छलावा, अगर मानो तो बड़ी सुहानी ।

इक तरफ जहाँ आसमान मस्ताना,

दूसरी ओर धरती उसके रंगों की दीवानी ।

इक तरफ जहाँ आसमान मातंग दीवाना,

वहीं बेचैन धरती की हर वक़्त खामोश रहने की बेमानी ।

एक बार औरों की तरह मुझ नासमझ को भी आसमान छूने की चाह जगी,

अथक प्रयास के बाद अचानक दूर देखा तो आज मुझे वो चाँदनी नहीं,

वरन धरती और आसमान के अद्भुत मिलन की रात लगी ।

आसमान को पाने की मेरे पास अब मात्र धरती की राह बची,

मैं भागा बेतहाशा, दिल में संजोये एक असंभव सी आशा,

वहाँ पहुँचा तो कुछ ना पाया, हाथ लगी तो सिर्फ निराशा ।

हतोत्साहित मैं, धरती से उठाकर आसमान के तरफ इक पत्थर लहराया,

लेकिन बदकिस्मत वो भी लौटके वापस धरती से टकराया ।

दर्द से धरती के पलकों पे आँसू आया,

मुझ अंधे को कुछ फर्क नहीं, लेकिन आसमान को अब मुझपे गुस्सा आया ।

रौद्र काले रूप में गरज से उसने गुस्ताखी के लिए मुझको हड़काया,

घमंडी मैं अकड़ में उससे जुबान लड़ाया ।

कहा मैंने, ऐ आसमान! तुझे किस बात का अभिमान है?

धरती तो तेरी कभी हो ही नहीं सकती, फिर तुझे किस बात का गुमान है ।

मुझ पर मुस्कुराता वो बोला कि एहसासों की कहानी की लगती कहाँ दुकान है,

और सच्चे प्यार की असल में होती कहाँ जुबान है ।

तुम तो सिर्फ अपने सपनों के लिए मेरे पीछे हो भागते,

पर जो धरती है तुम्हारे पास, उसकी कभी क़द्र ही नही कर पाते ।

तुम्हारे दिये दर्द से अब वो बेदर्द कुछ इस कदर हो गयी है,

तुम्हारे शोर में खुद के दिल की आवाज़ सुनना भूल गयी है ।

मेरा क्या, मैं तो मनोरंजन के लिए रूप, रंग बदलता हूँ,

पर तुम्हारे इशारों पे नहीं केवल उसके लिए ही मचलता हूँ ।

जहाँ मैं केवल उसकी धुन में हूँ गाता,

वहीँ वो तुम निर्ममों की गूंज में, मेरा वो प्रेमराग सुन भी ना पाती ।

जहाँ सब लोग मेरे लिए पागल हैं,

वहीं गुस्ताखी में हर वक़्त करते उसको घायल हैं ।

उसके दर्द में जब भी रोऊँ, तो लोग मेरे आँसू को बारिश हैं समझते,

उसे छेड़ने इक पलक को झपकुं, तो नासमझ तुम उसे बिजली की चमक हो समझते ।

जब भी तुम उम्मीदों से मुझे हो देखते,

मैं मुस्कुराता, और मुझे देख वो भी मुस्कुराती ।

तुम ना हिलो यहीं मज़बूरी उसकी,

नहीं तो अपने इस मचलते आशिक़ के लिए वो भी इठलाती ।

नीचे से देखने पर तुम्हें लगता होगा कि मैंने उसे चारों तरफ से घेर रखा है,

कभी मेरे साथ आकर देखो, तो तुम्हें पता चले कि मैंने नहीं,

वरन उसने मुझे सदा इक छाँव दे रखा है ।

और जहाँ तक है हमारे मिलन कि बात तो हम हमेशा ही हैं मिले,

अगर ना हो यकीन तो वापस वहाँ देखो, जहाँ से तुम थे चले ।

वापस मैंने जब पलटकर देखा तो सच में उनको वहीं मिला पाया,

उनके सच्चे प्रेम और त्याग को जान, वापस मैं बुद्धू घर को आया ॥

पुरजोर बहस हुई

कागज़ और कलम में

 

© दिवयांशु  शेखर

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ एक आम मजदूर का साक्षात्कार ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(गत 12 मई 2019 को अंजुमन लिटररी क्लब द्वारा अट्टा गलट्टा, कोरमंगला में आयोजित कार्यक्रम में इस कविता की काव्यभिव्यक्ति दी थी। आशा है आपको पसंद आएगी।)

 

☆ एक आम मजदूर का साक्षात्कार ☆

 

जब से चैनलों पर देखे हैं

कई हस्तियों के साक्षात्कार

मन में आया ये विचार

क्यों न

किसी आम मजदूर का

लिया जाए साक्षात्कार।

 

कोई राष्ट्राध्यक्ष तो

कह सकता है

मन के विचार

कभी भी करवा सकता है

अपना साक्षात्कार

उसके लिए हैं तैयार

कई सेलिब्रिटी और पत्रकार

 

भला कौन साझा करेगा

और क्यों करेगा?

आम मजदूर के विचार

खाक छान ली

एक प्रश्नावली लेकर

सारे शहर की मजदूर बस्तियों में

बस्ती की

एक एक गलियों में

सब के सब

अतिव्यस्त दिखे

अस्तव्यस्त दिखे

सुबह काम पर जाने की जल्दी

शाम को थक कर सोने की जल्दी

फिर

पिये व्यक्ति से बातें करना था फिजूल

कौन सुन सकता है

उनकी बातें ऊल जुलूल।

 

ध्यान आया

हर शहर में

एक लेबर चौक होता है।

जहां हर उस मजदूर का

हर सुबह सौदा होता है।

जो है बेरोजगार

और रहता है

बिकने को तैयार।

 

अलसुबह कलेवा लेकर

अपने चंद औज़ार समेटकर

चौक पर खड़ा हो जाता है

खरीददार ठेकेदार आता है।

कद, काठी, हुनर तलाशता है

जरूरत और काम के मुताबिक

किसी को चंद घंटों के लिए

तो

किसी को चंद दिनों के लिए

खरीदकर ले जाता है।

 

जिस दिन बिक गए

तो समझो खुशनसीबी है

वरना

उस दिन मुफ़लिसी है

भूख है गरीबी है।

 

सोच कर ही काँप गया

कई बार वहाँ से गुजरा था

जहां भीड़ भरा नज़ारा था

इस खेल से अंजान था

जहां सरे आम बिकता कोई

हमारे आप सा इंसान था।

 

देह के इस व्यापार के पीछे

कई कथाएँ हैं

सबकी

अपनी अपनी व्यथाएं हैं।

 

लेबर चौक की भीड़ में घुसकर

तलाशने की कोशिश की

उस मजदूर की

जो दे सके

मेरे सवालों का जवाब

बता सके मुझको

अपनी जिंदगी का हिसाब-किताब।

 

एक बुजुर्ग

दायें पैर से अपाहिज

मेरी नाकाम कोशिश को

काफी देर से देख रहा था

थोड़ी देर बाद

वही व्यक्ति

मेरा हाथ पकड़ कर

करीब करीब घसीट कर

मजदूरों की बस्ती की आँखों से

मजदूरों की दुनिया दिखा रहा था।

 

एक सुनसान नुक्कड़ पर

बोला मुझको रोक कर

क्या कर लोगे?

क्या कर लोगे?

ये साक्षात्कार-आक्षात्कार लेकर।

तुम्हारे जैसे लोग

यहाँ रोज आते हैं

मीठी मीठी बातें करते हैं

फिल्मों की शूटिंग करते हैं

कोई एन जी ओ से

कोई न्यूज़ चैनल से

कोई इस पार्टी से

तो कोई उस पार्टी से

बाद में पता चलता है

फलां फिल्म ने करोड़ों कमाए

फलां नेता चुनाव जीत गया।

सब सपने दिखाते हैं

टी वी की भीड़ में

कभी अपना चेहरा दिखता नहीं।

और

तुम्हारे जैसा चेहरा कभी आता नहीं।

 

मेरे तो जैसे

हाथ पाँव ही फूल गए

उसके जोश के आगे

मेरे सारे प्रश्न हवा हो गए

मेरे ही बनाए गए प्रश्न

प्रश्नों के फंदे पर झूल गए।

 

बड़ी हिम्मत कर पूछा

“तुम्हारे पैर को क्या हो गया?”

 

इसके बाद

मेरे पास पूछने को

कुछ भी नहीं बचा

और

उसके पास न बताने जैसा

कुछ भी नहीं बचा

वह बताता रहा

और

मैं सुनता रहा।

 

सारी जिंदगी

हमारे दादा-परदादा

मारिशस कनाडा के

प्रवासी भारतीयों के

सपने दिखाते रहे

और

हम अपने ही देश में

परप्रदेशी होते रहे।

 

जिस दिन एक नेता का

प्रदेश प्रेम जाग उठा था

उसी दिन

मेरा दायाँ पैर टूटा था

तब से

दिन रात जाग रहा हूँ।

एक पैर से भाग रहा हूँ।

 

दोस्त

अकील बचा कर लाया है

बस वही एक हमसाया है।

मेरे माँ बाप यह नहीं जानते

कि- उसकी माँ ने

आँसू पोंछे

और गोद में सुलाया है।

वह कभी भी नहीं रुलाती है

ईद, होली और दिवाली

साथ ही मनाती है।

 

साक्षात्कार लेना है

तो

ऐसे शख्स का लो।

जो तोड़ता नहीं जोड़ता हो।

 

अब जाओ

यदि ये छाप सको तो

बेनाम छाप देना

और

दुबारा इन गलियों में मत आना

मैं

दुबारा रोना नहीं चाहता

और अकील जैसा दोस्त

खोना नहीं चाहता।

 

दुनिया में जो भी

पेट के लिए मजबूर है

वही सच्चा मजदूर है।

किन्तु,

अफसोस

मजदूर

मजदूर दिवस पर भी

गरीबी मुफ़लिसी में जीता है

और

तथाकथित व्हाइट और  ब्लू कालर्ड मजदूर

मजदूर दिवस की छुट्टियाँ

किसी रिज़ॉर्ट में

सपरिवार मनाता है।

 

  • हेमन्त  बावनकर

 

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हिन्दी साहित्य – कविता -☆ अनुत्तरित प्रश्न ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की कविता  “अनुत्तरित प्रश्न” जिसके उत्तर शायद किसी के भी पास नहीं है।  बस इसका उत्तर नियति पर छोड़ने के अतिरिक्त और कोई उपाय हो तो बताइये। ) 

 

☆ अनुत्तरित प्रश्न ☆

 

कांधे पर बैग लटकाए

बच्चों को स्कूल की बस में सवार हो

माता-पिता को बॉय-बॉय करते देख

मज़दूरिन का बेटा

उसे कटघरे में खड़ा कर देता

 

‘तू मुझे स्कूल क्यों नहीं भेजती?’

क्यों भोर होते हाथ में

कटोरा थमा भेज देती है

अनजान राहों पर

जहां लोग मुझे दुत्कारते

प्रताड़ित और तिरस्कृत करते

विचित्र-सी दृष्टि से

निहारते व बुद्बुदाते

जाने क्यों पैदा करके छोड़ देते हैं

सड़कों पर भीख मांगने के निमित

इन मवालियों को

उनकी अनुगूंज हरदम

मेरे अंतर्मन को सालती

 

मां! भगवान ने तो

सबको एक-सा बनाया

फिर यह भेदभाव कहां से आया?

कोई महलों में रहता

कोई आकाश की

खुली छत के नीचे ज़िन्दगी ढोता

किसी को सब सुख-सुविधाएं उपलब्ध

तो कोई दो जून की

रोटी के लिए भटकता निशि-बासर

और दर-ब-दर की ठोकरें खाता

 

बेटा! यह हमारे

पूर्व-जन्मों का फल है

और नियति है हमारी

यही लिखा है

हमारे भाग्य में विधाता ने

 

सच-सच बतलाना,मां!

किसने हमारी ज़िन्दगी में

ज़हर घोला

अमीर गरीब की खाई को

इतना विकराल बना डाला

 

बेटा! स्वयं पर नियंत्रण रख

हम हैं सत्ताधीशों के सम्मुख

नगण्य है हमारा अस्तित्व

उनकी करुणा-कृपा पर आश्रित

यदि हमने से सर उठाया

तो वे मसल देंगे हमें

कीट-पतंगों की मानिंद

और किसी को खबर भी ना होगी

 

परन्तु वह अबोध बालक

इस तथ्य को न समझा

न ही स्वीकार कर पाया

उसने समाज में क्रांति की

अलख जगाने का मन बनाया

ताकि टूट जायें

ऊंच-नीच की दीवारें

भस्म हो जाए

विषमता का साम्राज्य

और मिल पायें

सबको समानाधिकार

बरसें खुशियां अपरम्पार

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – हिन्दी कविता – ? मदर्स डे ? – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

? मदर्स डे ?

( डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।)

हम मातृ दिवस और अन्य कई दिवस मनाते हैं और इसी बहाने कुछ न कुछ सेलिब्रेट करते हैं। मैं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी की बेबाकी का कायल हूँ। प्रस्तुत है मातृ दिवस पर उनकी विशेष रचना तथाकथित सार्थक बेबाक  Belated टिप्पणी के साथ।

मातृदिवस पर कोई दो साल पहले लिखी थी एक कविता. सोचा उसी दिन था कि पोस्ट कर दें  पर फिर मन किया कि अभी तो बाढ़ आई हुई है.कविता भी जल जैसी होती है.  मन और समय की उथल-पुथल में कविता और उसके अभिप्रेत अर्थ उसी तरह  गड्ड-मड्ड होकर उसे अग्राह्य कर देते  हैं जैसे बाढ़़ के पानी में मिट्टी और अन्य तरह की गंदगियां मिलकर पानी को।    

मानव वृत्तियाँ भी इसी तरह से कुविचारों से प्रदूषित होकर सुयोधन को दुर्योधन बना देती हैं-“जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः।जानामि अधर्मं न च मे निवृत्तिः।।”

बाढ़ के पानी को तत्काल नहीं पिया जा सकता. स्थिर होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है.ऐसे ही कविता भी मन और समय  स्थिर होने पर ही रसपान के योग्य होती है.अब यह मान कर कि कविताओं की बाढ़ थम गई है तो सोचा कि मैं भी’माँ’पर सृजित अपनी वह कविता पोस्ट ही कर दूं.शायद आप सबको भाए. 

अपनी कृति और प्रकृति से हर माँ  एक-सी होती है पर बेटे -बेटियाँ प्रायः भिन्न-भिन्न भाव-स्वभाव के होते हैं. अधिकांश माएँ दयालु ही होती हैं .करुणा और वात्सल्य का सागर होती हैं ये माएँ। 

संतानें इनमें भी खासकर  बेटे माँ के मानक पर खरे नहीं उतरते .इन्हीं बेटों में से एक प्रतिनिधि चरित्र का शब्द चित्र प्रतिक्रिया की अनिवार्य अपेक्षा के साथ आप सभी मित्रों को समर्पित है-

 

मदर्स डे

=====

हिंडोले -सी झूलती हुई चारपाई में

गुड़ी-मुड़ी

वर्षों से कोने में पड़ी हुई

गठरी

कोई गठरी-वठरी नहीं है

चौधरी की माँ है वह

यानी पुरानी हवेली के मौजूदा मालिक की

वह रोज़  हड़काता है उसे

मालिकाना रुआब में

आज भी हड़का रहा है

वह अपनी गुड़ीमुड़ी  माँ को

“टीबी की मरीज़ -सी

क्या सुबह से खाँस-खाँस कर

अकच्छ किए हो

गिनो तो पूरे चार दिन भी

ठीक से नहीं बचे हैं ज़िंदगी के

ये तो  बिता लो ठीक से

बाबू जी कह-कह के हार के चले गए

पर गंदगी करने की

आदत गई नहीं तुम्हारी

बाबू जी इसी से छोर चलाते थे तुम पर”

जिनकी आरती उतरती थी

करवाचौथ को

मरखन्ने बैल-से थे वही बाबू जी

बात-बात पर सींग चला देते थे

वह गऊ -सी बाँ-बाँ करके चिल्ला पड़ती थी

उस पर  वही छोर पड़ रहे थे

वर्षों बाद

आखिर ज़बान भी तो चमड़े की ही होती है न

बेटे की जीभ और बाप के छोर के

रूप ओर आकार में अंतर भले था

पर मार में नहीं

वह बाँ भी न कर सकी इस बार

बस निहार के रह गई

अपने चाँद के टुकड़े को

वह उसे पीला-पीला लग रहा था इन दिनों

जैसे किसी

राहु ने ग्रस रखा हो उसे

तब तक खांसी भी फिर से आ गई थी ज़ोरों की

कहने को कह  सकती थी

‘तुम्हारी ही गंदगी थी वह

जिसके लिए खाती थी छोर

तुम्हारी यह गंदी  माँ’

पर कह न सकी

नज़र भर देखा गोल-मटोल पोते और

सामने से गुजरती सजी-धजी बहू को

देखती ही रह गई

वहाँ से नज़र हटी तो

एक बार फिर चाहा कि कह दे

उन्हीं पर गए हो बेटा!

इसी से तुम्हें भी दिखती हूँ गंदी,भदेस

एक बार ज़ोर भी लगाया कि कहे

होंठ हिले भी थे कुछ

वह यह कह पाती कि उसके पहले ही

बेटे ने हाथ ऊपर उठा इशारा कर कहा

“अच्छा चलो… उठो यहाँ से

अपना थूकदान सँभालो

जाओ थोड़ी देर

चौबाइन काकी के बरामदे में बैठो

यहाँ  मेहमान आने वाले हैं

पिंटू आज ‘मदर्स डे’.

सेलीब्रेट करेगा ।”

@ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

मातृ दिवस विशेष 

☆ जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है ☆

 

जो निज गर्भ में नौ माह सृजन करती है,

निज लहू से निज संताने सींचा करती है।

निज मांस मज्जा जीन गुणसूत्र उसे देती है,

जो पालन पोषण करती है वो मां होती है।।

 

जीवन देती दुनिया में लाती प्रथम गुरु होती है,

मां की जान सदा ही निज बच्चों में ही होती है।

जैसे धरा की दुनिया सूर्य के चंहु ओर होती है,

मां की दुनिया संतानों के आसपास ही होती है।।

 

क्षिति जल पावक गगन समीरा भी मां होती है,

जग से वही मिलाती और सही ग़लत बताती है।

व्यक्तित्व गढ़ सवांरती संस्कार वही सिखाती है ,

दु:ख निराशा असफलता में धीरज दिखाती है।

 

जीवन है संघर्ष धरती पर जो हारे वो गिरता है,

गिर कर उठ जाए जो संग्राम वही जय करता है।

असफलता से सफलता दुख से सुख मिलता है,

जो निराश हो नहीं उठे वो मां का दूध लजाता है।।

 

वो बेटे में प्रेमी खोजे और निज पति सा रूप गढ़े,

वो बेटे की दोस्त बने और उसमें पिता भी पा जाए,

वो बेटी की दोस्त बने व संस्कार सर्जना सिखलाए,

वो बेटी में खुद को खोजे और मां को भी पा जाए।।

 

मां जब हमसे बिछड़ती है जीवन सूना लगता है,

अपनापन खो जाता है सब कुछ दूभर लगता है।

मां की उपेक्षा करे जो धिक्कार उसे सब करता है,

अपमानित जग से होता वो जीते जी ही मरता है।।

 

जीते जी स्वर्ग नहीं मिलता भगवान नहीं मिलता है,

मां का आंचल मिले जिसे स्वर्ग उसे यहां दिखता है।

मां नहीं मिलती दुनिया में बाकी सब मिल जाता है,

जिसका जीवन मां चरणों में ईश्वर उसे दिखता है।।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ माँ तू कितनी प्यारी है ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

☆ माँ तू कितनी प्यारी है ☆

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  मातृ दिवस  पर  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

(मातृ दिवस विशेष )

हे मात तुझे शत-शत वंदन,

शब्दों से करती अभिनंदन।

गर पा जाऊँ एक अवसर मैं,

कर दूँ तुझ पर जीवन अर्पण।

 

अपनी सारी ममता माँ ने,

निज बच्चों पर वारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

बच्चों का बचपन माँ से है,

गोद में दुनिया समाई है।

हर मुश्किल में खड़ी रही,

माँ तू बनकर परछाई है।

 

इस कच्चे मन के अंतस को,

देकर संस्कार सजाया है।

इंसानों की भीड़ में मुझको,

मुझसे परिचित करवाया है।

 

माँ तेरी ही ममता से तो,

खुशियों की किलकारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

देती है हरपल ज्ञान हमें,

हर अच्छा-बुरा बताती है।

बनकर पहली गुरु बच्चों की,

जीवन का पाठ पढ़ाती है।

 

शीत में मीठी धूप है माँ,

खुशियों की फुलवारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

उँगली पकड़ चलना सीखा,

निज पैरों पर मैं खड़ी हुई।

तेरी ममता की छाया में,

मैं ना जाने कब बड़ी हुई।

 

अच्छी हूँ या कि बुरी हूँ माँ,

हूँ झूठी या फिर सच्ची हूँ।

दुनिया की नजर में बड़ी हुई,

पर आज भी तेरी बच्ची हूँ।

 

मेरे सब स्वप्न सजाने को,

अपनी नींदें वारी है।

माँ तू कितनी भोली है,

माँ तू कितनी प्यारी है।

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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