English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 185 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 185 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 185) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 185 ?

☆☆☆☆☆

काश मिल जाये हमें भी

कोई किसी आईने की तरह

जो हँसे भी साथ साथ

और रोये भी साथ साथ…

☆☆

Wish I could also have

Someone like a mirror

Who could laugh together

And  even  cry together …

☆☆☆☆

उन्हें  ठहरे…

समुंदर  ने  डुबोया

जिन्हें  तूफ़ाँ  का…

अंदाज़ा  बहुत  था…

☆☆

Calm seas…

drowned them only…

Who claimed to have great 

experience of braving the storms

☆☆☆☆

तकलीफ खुद ही

कम हो गई…

जब अपनों से…

उम्मीद कम हो गई..

☆☆

The suffering itself got

conclusively reduced,

When expectations from

the loved ones minimized…

☆☆☆☆

पत्तों सी होती है कई रिश्तों

की उम्र, आज हरे कल सूखे….

क्यों  न  हम जड़ों  से  ही

उम्र भर रिश्ते निभाना सीखें…

☆☆

 Age of many relationships is like

leaves; today green, tomorrow dried… 

Why don’t we learn from roots

To maintain the relationship … 

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 185 ☆ नवगीत: हमको कुछ तो करना होगा… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवगीत: हमको कुछ तो करना होगा…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 184 ☆

☆ नवगीत: हमको कुछ तो करना होगा…  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

करना होगा…

हमको कुछ तो

करना होगा…

*

देखे दोष,

दिखाए भी हैं.

लांछन लगे,

लगाये भी है.

गिरे-उठे

भरमाये भी हैं.

खुद से खुद

शरमाये भी हैं..

परिवर्तन-पथ

वरना होगा.

हमको कुछ तो

करना होगा…

*

दीपक तले

पले अँधियारा.

किन्तु न तम की

हो पौ बारा.

डूब-डूबकर

उगता सूरज.

मिट-मिट फिर

होता उजियारा.

जीना है तो

मरना होगा.

हमको कुछ तो

करना होगा…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #234 – 121 – “मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ।)

? ग़ज़ल # 119 – “मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

क़िस्मत  अमीर की है  सिकंदर साहिब,

नहीं  होता ग़रीब का  मुक़द्दर साहिब। 

*

मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा,

उस तक  चपाती आई  छनकर साहिब।

*

जन्नत की  सैर को मैं भी निकल लेता,

ग़र नसीब में  बदा होता कलंदर साहिब।

*

छलनी में  हाक़िम  दूध छानता रहता है,

रखे  इल्ज़ाम  आख़िर  किस पर साहिब।

*

तुम दिखते एक रंग में रंगने को आमादा,

अध्याय चार लिख गए हैं दिनकर साहिब।

*

हरेक   तकलीफ़  को  आँसू  नहीं मिलते,

ग़मों  का  भी  होता  है  समंदर साहिब।

*

उन्होंने  तो  ख़ाली  नज़र  बिछा राह तकी,

ख़ुद  बना  आतिश कालीन बिछकर साहिब।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उस भील स्त्री की तरह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – उस भील स्त्री की तरह ? ?

पटरियों पर रेल सरपट दौड़ती

अनगिनत निगाहें

झोपड़ी के आगे ठहरती,

तीखे नयन नक्शवाली

गहरी साँवली निर्धन भीलनी,

वक्ष खुले रखती पर

पीयूष पान करते शिशु को ढकती,

निर्वसन आँखें अपलक निहारती

खुले यौवन को कामांध तकती,

पत्थर के सीने पर पटरियाँ

वात्सल्य से लिपट जाती

नवांकुर सींचने के आनंद में

आँखें मींचे मंद-मंद वह मुस्कराती,

रथ पर चढ़ने से रेल में चलने तक

प्रस्तरयुग के डॉटकॉम इरा में ढलने तक

वीभत्स हुई भावना, विकृत हुई वासना

पवित्र रही कामना, विस्तृत हुई उपासना,

माटी से माटी बतियाती रही

रेल आती रही, रेल जाती रही,

नयी संतानें जन्म पाती रही,

आज की माँ कल की लोरी सुनाती रही,

दौर बदला पर नहीं बदला

हथेलियों से भविष्य को थपथपान,ा

अपना जीवनसत्व उसे पिलाना,

आते कल को रास्ता दिखाना

भविष्य के लिये आस्था जगाना,

सच देखता, सच सुनता हूँ

इसलिए कहता हूँ

काल-पात्र-परिस्थिति के परे

मेरी कविता है उस भील स्त्री की तरह।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 112 ☆ गीत – ।। मैं तो भारत भाग्य  विधाता हूँ, मैं इक कर्तव्यनिष्ठ मतदाता हूँ ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 112 ☆

☆ गीत – ।।मैं तो भारत भाग्य  विधाता हूँ, मैं इक कर्तव्यनिष्ठ मतदाता हूँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

तू भारत भाग्य विधाता रखता मताधिकार है।

तेरे वोट से ही तो चुनी जातीअच्छी सरकार है।।

मतदान के दिन परम कर्तव्य है यह तुम्हारा।

वोट देकर दिखाना तुझे   अपना सरोकार है।।

[2]

मैं भारत भाग्य विधाता हूँ,मैं इक  मतदाता हूँ।

वोट से अपने देश की   पहचान मैं बनाता हूँ।।

उँगली का काला निशान भाग्य रेखा  देश की।

देकर वोट अपना मैं     पहला फ़र्ज़ निभाता हूँ।।

[3]

राष्ट्र के उत्थान का मुख्य आधार ही मतदान है।

इसी में निहित तेरा मेरा और सबका सम्मान है।।

वोट की शक्ति जानो  और उसका प्रयोग  करो।

नहीं वोट देने का अर्थ कि देश प्रेम सुनसान है।।

[4]

वोट  उसको  दें   जो कि स्वप्न साकार   करे।

जो हमारे  सुख   दुःख कोअपना स्वीकार करे।।

लोकतंत्र यज्ञ चुनाव पर्व मेंआहुति परमावश्यक।

दें वोट उसको ही   जो जनहित में उद्धार  करे।।

[5]

अब हमें शत  प्रतिशत ही  मतदान  चाहिए।

अपने राष्ट्र की विश्व में ऊंची आनबान चाहिए।।

अपने से देश   हमको रखना     सबसे ऊपर।

बस एकता के रंग   में रंगा हिंदुस्तान चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साजिदा ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, एक कविता संग्रह (स्वर्ण मुक्तावली), पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता साजिदा। )  

☆ कविता ☆ साजिदा ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

साधारण-सी साजिदा

मन करता है सजदा

हँसी माशाअल्लाह

नैन नक्श क्या कहें

अल्लाह ने बनाया इत्मीनान से

मोती झरते बातों से

लाजवाब आकिल खूबसूरत हो

खूबसूरत नहीं नापते कभी

इन्सान के बाहरी दिखावे पर

बुर्के में भी बेहद खूबसूरत हो

पाक हो विचारों से…

बरकरार रखना यह सोच

जिंदगी के अंतिम क्षण तक

लोगों का मन रखने की

यह अदा निराली

इंशा अल्लाह आयन में

मिले कामियाबी हर कदम पर

दुआ है परवरदीगार से यही,

खुर्शीद सा हो तुम्हारा जीवन

कभी भी न कतरा आब-ए-चश्म होना

अमलन बेदर्द आलम में

न मोल तुम्हारे आँसूओं का

अल्लाह से आरज़ू है,

मुस्कुराते रहो, खुश रहो सदा ।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 174 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सोचो, समझो औ’ मन को टटोलो तुम्हें किस राह जीवन में जाना?

राहें कई हैं जो मन को लुभाती औरों के कहे में तुम न आना ॥1

पहले तौलो तुम्हें क्या है भाता काम क्या लगता तुमको सुहाना।

बनना क्या लगता तुमको है अच्छा रुचि है क्या? माँगता क्या जमाना? ॥2॥

इच्छा घर में सबो की भी क्या है? चाहते वे तुम्हें क्या बनाना?

राय लेके कई अनुभवी की राह में खुद कदम तब बढ़ाना ॥3॥

जिन्दगी एक है बहती सरिता समय के संग जिसे बढ़ते जाना।

जो कि बढ़ जाती जब जितना आगे कठिन होता है फिर लौट पाना ॥4॥

ध्यान रख नर्मदा की विमलता खुद को निर्मल जल जैसा बनना

बनो जिस क्षेत्र में कार्यकर्त्ता गुण बढ़ा नाम अपना कमाना ॥ 5 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – हँसी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  हँसी ? ?

भीड़ को चीरती-सी एक हँसी

मेरे कानों पर आकर ठहर गई थी

कैसी विद्रूप, कैसी व्यावसायिक

कैसी जानी-बूझी लंपट-सी हँसी थी

मैं टूटा था, दरक-सा गया था

क्या यह वही थी, क्या वह उसकी हँसी थी…..?

 

पुष्पा गाँव की एक घसियारिन थी,

सलीके से उसके  हाथ

आधा माथा ढके जब घास काटते थे

तो उसके रूप की कल्पना मात्र से

कई कलेजे कट जाते थे…..

 

थी फूल अनछुई-सी

जंगली घास में जूही-सी

काली भरी-भरी सी देह

बोलती बड़ी-बड़ी-सी सलोनी आँखें

मुझे शायद आँखों से सुंदर

उसमें तैरते उसके भाव लगते थे

भाव जिनकी मल्लिका को

शब्दों की जरूरत ही नहीं

यों ही नि:शब्द रचना रच जाती थी…..

पुष्पा थी तो मधवा की घरवाली

पर कुँआरी लड़कियाँ भी

उसके रूप से जल जाती थीं,

गांव के मरदों के अंदर के जानवर को,

कल्पनाओं में भी

उसका ब्याहता रूप नहीं भाता था

लोक-लाज-रिवाज़ों के कपड़ों के भीतर भी

उनका प्राकृत रूप नज़र आ ही जाता था…..

 

पुष्पा न केवल एक घसियारिन थी

पुष्पा न केवल एक ब्याहता थी

पुष्पा एक चर्चा थी, पुष्पा एक  अपेक्षा थी…..

 

गाँव के छोटे ठाकुर …… बस ठाकुर थे

नतीजतन रसिया तो होने ही थे,

जिस किसी पर उनकी नज़र पड़ जाती

वो चुपचाप उनके हुक्म के आगे झुक जाती,

मुझे लगता था गाँव की औरतों में भी

कोर्ई अपेक्षा पुरुष बसा है,

अपनी तंग-फटेहाल ज़िन्दगी में

कुछ क्षण ठाकु र के,

उन्हें किसी रुमानी कल्पना से कम नहीं लगते थे

काँटों की शैया को सोने के पलंग

सपने सलोने से कम नहीं लगते थे…..

 

खेतों के बीच की पतली-सी पगडंडी

डूबते क्षितिज को चूमता सूरज

पक्षियों क ा कलरव,

घर लौटते चौपायों का समूह

दूर जंगल में शेर की गर्जना

अपने डग घर की ओर बढ़ाती

आतांकित बकरियों की छलांग,

इन सब के बीच,

सारी चहचहाट को चीरते

गूँज रही थी पुष्पा की हँसी …..

 

सर पर घास का बोझ, हाथ में हँसिया

घर लौटकर, पसीना सुखाकर

कुएँ का एक गिलास पानी पीने की तमन्ना

मधवा से होने वाली जोरा-जोरी की कल्पना…..

 

स्वप्नों में खोई परीकुमारी-सी

ढलती शाम को चढ़ते यौवन-सा

प्रदीप्त करती अक्षत कुमारी-सी

चली जा रही थी पुष्पा …..

 

एकाएक,

शेर की गर्जना ऊँची हुई

मेमनों में हलचल मची

एक विद्रूप चौपाया

मासूम बकरी को घेरे खड़ा था

ठाकुर का एक हाथ मूँछोें पर था

दूसरा पुष्पा की कलाई पकड़े खड़ा था …..

 

हँसी यकायक चुप हो गई

झटके से पल्लूू वक्ष पर आ गया

सर पर रखा घास का झौआ

बगैर सहारे के तन गया था

हाथ की हँसुली

अब हथियार बन गया था…..

 

रणचंडी का वह रूप

ठाकुर देखता ही रह गया

शर्म से ऑँखें झुक गई

आत्मग्लानि ने खींचकर थप्पड़ मारा,

निःशब्द शब्दों की जननी

सारे भाव ताड़ गई

ठाकुर, पुष्पा को क्या ऐसी-वैसी समझा है

तू तो गाँव का मुखिया है

हर बहू-बेटी को होना तुझे रक्षक है

फिर क्यों तू ऐसा है,

क्यों तेरी प्रवृत्ति ऐसी भक्षक है …..?

 

ऐ भाई!

आज जो तूने मेरा हाथ थामा

तो ये हाथ रक्षा के लिये थामा,

ये मैंनेे माना है,

एक दूब से पुष्पा ने रक्षाबंधन कर डाला था,

ठाकुर के पाप की गठरी को

उसके नैनों से बही गंगा ने धो डाला था,

ठाकुर का जीवन बदल चुका था

छोटे ठाकुर, अब सचमुच के ठाकुर थे…..

 

पुष्पा की हँसी का मैं कायल हो गया था

निष्पाप, निर्दोष छवि का मैं भक्त हो चला था,

फिर शहर में घास बेचती

ग्राहकों को लुभाकर बातें करती

ये विद्रूप हँसी, ये लंपट स्वरूप,

पुष्पा तेरा कौन-सा है सही रूप ?

 

उसे मुझे देख लिया था

पर उसकी तल्लीनता में

कोई अंतर नहीं आया था,

उलटे कनखियों से

उसे देखने की फ़िराक़ में

मैं ही उसकी आँखों से जा टकराया था

वह फिर भी हँसती रही……

गाँव के खेतों के बीच से जाती

उस संकरी पगडंडी पर

उस शाम पुष्पा फिर मिली थी

वह फिर हँसी थी…..

 

बोली, बाबूजी! जानती हूँ,

शहर की मेरी हँसी

तुमने गलत नहीं मानी है,

पुष्पा वैसी ही है

जैसी तुमने शुरू से जानी है

हँसती चली गई, हँसती चली गई

हँसती-हँसती चली गई दूर तक…..

 

अपने चिथड़ा-चिथड़ा हुए

अस्तित्व को लिए

निस्तब्ध, लज्जित-सा मैं

क्षितिज को देखता रहा

जाती पुष्पा के पदचिह्नों को घूरता रहा,

खुद ने खुद से प्रश्न किया

ठाकुर और तेरे जैसों की

सफेदपोशी क्या सही थी,

उत्तर में गूँजी फिर वही हँसी थी !

(यह रचना लिखते समय लगभग बीस वर्ष पहले पढ़ी महान कथाकार प्रेमचंद जी की कहानी ‘घासवाली’ का धुँधला चरित्र मस्तिष्क में था।)

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – ऋतुपति

? रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अनुरक्त हुए ऋतुपति को मैं,

पीने को हाला देती हूँ।

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

मधुरिम अधरों पर रसासिक्त,

आँखें सुंदर भी  हैं नीली।

यौवन मद में मखमली बदन,

स्वर्णिम आभा नथ चमकीली,

प्रेयसी प्राणदा प्रियतम को,

प्यारी मधुशाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

नित मदिर -गीत गाता  यौवन,

बौराती पुलकित तरुणाई।

मैं बँधीं प्रीति की डोरी से,

हूँ बिना पिया के अकुलाई।।।

सिंदूरी माथे को खुश हो,

निज मन मतवाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

यौवन का झीना घूँघट पट,

रेशम की अँगिया शरमाती।

अभिसार वल्लरी नित पुष्पित,

है चन्द्र प्रभा सी  मुस्काती।।

प्रिय प्रांजल मूरत प्रांजल को

मैं प्रेमिल प्याला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #229 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के मुक्तक।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 229 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

हवाओं का ये झोंका तो हमें जीना सीखाता है।

थपेड़े जो लगे जीवन में वो सब कुछ बताता है।

हमें महसूस होता है ये जीवन  के निराले रंग –

हवा का रूख निराला है वो ही हमको जताता है।

*

चुनावी रंग है अब तो हवा वैसी ही बहती है।

किसे हमको तो चुनना है हवा वैसी बहकती है।

नेताओं का परचम तो हरपल  रंग ही बदले है-

समझना है हमें अब तो हवा हमको जो कहती है।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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