image_print

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 06 – हम बेघर बञ्जारे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे (संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हम बेघर बञ्जारे हैं…।)   साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 06 – हम बेघर बञ्जारे हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे  ☆ जन्मजात हम रहे घुमन्तू हम बेघर...
Read More

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 82 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे...”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। मनोज साहित्य # 82 – मनोज के दोहे... ☆ ☆  1 साक्षी सनकी प्रेमी दे गया, सबके मन को दाह। दृश्य-कैमरा सामने, साक्षी बनी गवाह। ☆ 2 शृंगार नारी मन शृंगार का, पौरुष पुरुष प्रधान। दोनों के ही मेल से, रिश्तों का सम्मान।। ☆ 3 पाणिग्रहण संस्कृति में पाणिग्रहण,नव जीवन अध्याय। शुभाशीष देते सभी, होते देव सहाय।। ☆ 4 वेदी अग्निहोत्र वेदी सजी, करें हवन मिल लोग। ईश्वर को नैवेद्य फिर, सबको मिलता भोग।। ☆ 5 विवाह मौसम दिखे विवाह का, सज-धज निकलें लोग। मंगलकारी कामना, उपहारों का योग ।। ☆  ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002 मो  94258 62550 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈...
Read More

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज (श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) संजय दृष्टि – प्रश्न प्रश्न है, प्रकृति के केंद्र में आदमी है या नहीं, इससे भी बड़ा प्रश्न है, आदमी के केंद्र में प्रकृति है या नहीं? © संजय भारद्वाज  अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ मोबाइल– 9890122603 संजयउवाच@डाटामेल.भारत [email protected] ☆ आपदां अपहर्तारं ☆ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून...
Read More

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “तन्‍हा लैंप पोस्‍ट और बेंच” ☆ श्री संजय सरोज ☆

श्री संजय सरोज  (सुप्रसिद्ध लेखक श्री संजय सरोज जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में असिस्टेंट कमिश्नर, (स्टेट-जी एस टी ) के पद पर कार्यरत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  भावप्रवण कविता  - “तन्‍हा लैंप पोस्‍ट और बेंच”) ☆ कविता ☆ “तन्‍हा लैंप पोस्‍ट और बेंच” तन्हा लैंप पोस्ट, जिसकी पीली मद्धम रोशनी, जज्ब हो गई है नीचे काली सड़क में ।   काली सड़क जो ठहर गई है, गुम हो गई है, आगे कहीं जाके।   तन्हा बेंच , जिस पर किए थे पीढ़ियों ने वादे, बुने थे सपने, पिरोए थे मोती ।   जिस पर पड़े हैं , अब कुछ सूखे फूल, पत्तियां,और गर्द। इस इंतजार में , कि बरसात हो और धुल जाएं खुद लैंप और बेंच ।   इस इंतजार में , कि पीढ़ियां करें फिर वादे,                                  बुने सपने और पिरोए मोती । और गवाह बनें लैंप पोस्ट और बेंच फिर से... ©  श्री संजय सरोज  नोयडा मो 72350 01753 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈ ...
Read More

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 142 – कहने दो बस कहने दो… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ (संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कहने दो बस कहने दो…।)   साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 142 – कहने दो बस कहने दो…   ☆ सम्बोधन की डोर न बाँधो, मुझे मुक्त ही रहने दो। जो कुछ मन में उमड़ रहा है, कहने दो बस कहने दो।   अनायास मिल गये सफर में जैसे कथा कहानी भूली बिसरी यादें उभरी जैसे बहता पानी मत तोड़ो तुम नींदे मेरी, अभी खुमारी रहने दो।   बात बात में हँसी तुम्हारी झलके रूप शिवाला अलकें ऐसी लगतीं जैसे पाया देश निकाला रूप तुम्हारा जलती लौ सा, अभी और कुछ दहने दो।   कहाँ रूप पाया है रूपसि करता जो मदमाता कितना गहरा हृदय तुम्हारा कोई थाह न पाता अभी न बाँधों सम्बन्धों में, स्वप्न नदी में बहने...
Read More

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – टिटहरी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज (श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) संजय दृष्टि – टिटहरी  भीषण सूखे में भी पल्लवित होने के प्रयास में जस- तस अंकुर दर्शाती अपने होने का भास कराती आशाओं को, अंगुली थाम नदी किनारे छोड़ आता हूँ।   आशाओं को अब मिल पायेगा पर्याप्त जल और उपजाऊ जमीन।   ईमानदारी से मानता हूँ नहीं है मेरा सामर्थ्य नदी को खींचकर अपनी सूखी जमीन तक लाने का, न कोई अलौकिक बल बंजर सूखे को नदी किनारे बसाने का।   वर्तमान का असहाय सैनिक सही भविष्य का परास्त योद्धा नहीं हूँ, ये...
Read More

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ख़ुशी ☆ सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆

सुश्री प्रिया कोल्हापुरे (सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका सुश्री प्रिय कोल्हापुरे जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत।) ☆ कविता ☆ ख़ुशी ☆ सुश्री प्रिया कोल्हापुरे ☆ सुलझे सुलझे सारे सिरे फिर से उलझ जाते है दो बूंद खुशी से तेरे हम अक्सर खुश हो जाते हैं   खुशी तो मेहमानों सी कभी कभी ही आती हैं दुःख ने डेरा जमा लिया है शायद रब की यही ख्वाहिश है   दर्द अब दर्द सा नही लगता हमसफर अपना सा लगता हैं गुस्ताखियो का ही शौक पालू रेहमत पाने से तेरी अच्छा है   खुशी के लिए जिंदगी से झगड़ा बेवजह सा अब लगता है सुकून से जनाजे पर सोऊ ये ख़्वाब सुहाना लगता हैं   ©  सुश्री प्रिया कोल्हापुरे  अकोला मो 97621 54497 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈ ...
Read More

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆ # नवतपा… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे (श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# नवतपा… #”)  ☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 133 ☆ ☆ # नवतपा… # ☆  अंबर से आग के शोले बरस रहे हैं पशु, पक्षी, मानव छांव को तरस रहे हैं बहती गर्म हवाएं शरीर को झुलसा रही है कंचन, कोमल काया ताप से कुम्हला रही है धरती जलकर गर्म हो गई है प्रेम में व्याकुल दुल्हन सी अंदर से नर्म हो गई है उसकी प्यास बढ़ती ही जा रही है दूर दूर से मेघों की बारात मृगतृष्णा जगा रही है कभी कभी छोटी छोटी बूंदें आसमान से धरती पर उतर आती है बादलों में गर्जन बिजुरी की कड़क आंधी और तूफान बहुत है पर कहीं गर्मी से राहत नजर नहीं आती है हर सुबह हर दोपहर हर शाम वो बावरी बन आकाश में ताक रही है हर पल हर घड़ी हर वक्त अपने प्रियंकर मेघों को झांक रही है क्या यह नवतपा प्रचंड तपकर घनघोर मानसून लायेगा या धरती से झूठे वादे कर काली घटाओं में छाकर धरती को व्याकुल छोड़कर राजनीतिक मौसम की तरह वो बेवफा हो जायेगा  /   © श्याम खापर्डे फ्लेट न...
Read More

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 142 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM Anonymous Litterateur of Social Media# 142 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 142) Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played...
Read More

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #192 – 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा (श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ग़म तो दौलत ठहरी …”।) ग़ज़ल # 78 – “ग़म तो दौलत ठहरी …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆ जब तुम्हारा दिल गुलशन में सजा पाया, क़सम ख़ुदा की हमने बड़ा ही मज़ा पाया। ☆ अस्त्र हैं इस दिलचस्प खेल के वफ़ा बेवफ़ा, अब क्या रोना है जो उस को जफ़ा पाया। ☆ वस्ल ओ फ़ुरक़त की तय होती नहीं सीमा, मुहब्बत ने भी ख़ुद को अक्सर ठगा पाया। ☆ ग़म तो दौलत ठहरी इस रस्मे रूहानी की, इसका हासिल ज़िंदगी जी कर जता पाया। ☆ जन्नत दोज़ख़ गुज़रेगा...
Read More
image_print